Thursday, 23 November 2017

शास्त्र : परिभाषा और स्वरूप विचार

सनातन वैदिक शास्त्र - श्री आद्य शंकराचार्य

शास्त्र : परिभाषा और स्वरूप विचार

शास्त्र शब्द अनुशासन अर्थ वाली शास् धातु से ष्ट्रन प्रत्यय पूर्वक (सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन –उणादि० ४/१५८ ) निष्पन्न होता है | “शासनात् शास्त्रम्” शासन करने वाला होने से शास्त्र कहलाता है तात्पर्य यह है कि इसके द्वारा धर्मों का अनुशासन किया जाता है -

शिष्यन्ते धर्माः अनेनेति शास्त्रम् ।

अतः इसकी ( शास्त्र की ) परिभाषा है -

“ शिष्यतेsनुशिष्यतेsपूर्वोsर्थो बोध्यते अनेनेति शास्त्रं वेदस्तादुपजीविस्मृतिपुराणादि च । ”

​​

अर्थात् शासन किया जाता है - अनुशासन किया जाता है , अर्थात् अपूर्व अर्थ का बोध कराया जाता है
इसके द्वारा इसलिए शास्त्र अर्थात् वेद कहलाता है , इस शास्त्र (वेद) के उपजीवी स्मृति पुराणादि हैं (इसलिए ये भी शास्त्र हैं )

इस प्रकार शास्त्र एक व्यवस्था का नाम है जिसे सरल भाषा में इस प्रकार समझा सकते हैं कि -

शासन करने वाले अर्थात् सत्कार्य में प्रवृत्त और असत्कार्य से निवृत्त करने वाले विधि -निषेधात्मक सकल वेदादि आर्ष ग्रन्थ शास्त्र कहलाते हैं और केवल “शासनात् शास्त्रम् “ इस रूप में विधि-प्रतिषेध करने वाले ग्रन्थ ही नहीं वरन् “ शंसनात् शास्त्रम्” अर्थात् किसी गूढ़ तत्व का शंसन –प्रतिपादन करने वाले वेदान्त आदि भी शास्त्र ही कहलाते हैं ।

स्वरूप दृष्टि से  शास्त्र  दो  प्रकार  के होते   हैं-

१- श्रुति  ।
२- स्मृति ।

श्रुति का   अभिप्राय होता है - वेद
। तथा स्मृति का अभिप्राय होता  है - धर्मशास्त्र ।
स्मृतियाँ श्रुतियों का अनुगमन करती  हैं  , अतः  एक तो  ये ज्ञातव्य है  कि स्मृतियों की  अपेक्षा  श्रुतियों का  प्राबल्य  होता  है, दूसरा ये कि श्रुतियों का  मर्म स्मृतियों से  समझा जाता है   ।

(...क्रमशः )
​शास्त्र रूपी शासन की क्या आवश्यकता है ?

                जब हम शास्त्र के “शिष्यते अनेन” अर्थ से अनुशासनात्मक स्वरूप पर विचार करते हैं तो शङ्का यह होती है कि लोकव्यवहार से ही स्वरूप द्वारा अर्थबोध हो सकता है , अर्थात् लोक व्यवहार से प्राप्त होता ही है तो फ़िर् शास्त्र रूपी शासन की क्या आवश्यकता है ?

                         तब कहा गया कि शास्त्रेण धर्मनियमः क्रियते , अर्थात् शास्त्र केवल धर्म नियम ही करता है | धर्म नियम का अर्थ है जो नियम धर्म के लिये हो धर्म प्रयोजन वाले हो, धर्म के कारण हो , उन नियमो का विधान करना शास्त्र का कार्य है -

धर्माय नियमो धर्मनियमः , धर्मार्थो वा नियमो धर्मनियमः , धर्मप्रयोजनो वा नियमो धर्मनियमः | ( महाभाष्य, पस्पसाह्निक )

              लोक व्यवहार से अवज्ञात होने वाले अनुशासन का भी शास्त्रपूर्वक प्रयोग व्यवहार से ही अभ्युदय होता है ( शास्त्रपूर्वके प्रयोगेsभ्युदयः ) |

           शास्त्र स्वयं भगवान की आज्ञा हैं ( श्रुतिस्मृती ममेवाज्ञे ० ) , इसलिए बिना शास्त्र के सिद्धि , सुख अथवा परमगति प्राप्त नहीं होती -

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्
।।
( गीता १६/२३ )

            भगवान् के इसी शास्त्र रूपी शासन की महत्ता स्पष्ट करते हुए श्री आद्यशंकराचार्य भगवान् कहते हैं कि भगवान् का श्रुति और स्मृति रूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है इसीलिये उनको उर्जितशासन भी कहा जाता है ,

जैसा कि -

श्रुतिस्मृतिलक्षणमूर्जितं शासनमस्येति ऊर्जितशासनः ।
( शांकरभाष्य , वि० सह० ११०)

यह शास्त्र स्वयं साक्षात् श्री भगवान के ही अवतार स्वरूप हैं -

अवतीर्णो जगन्नाथः शास्त्ररूपेण वै प्रभुः ।
(शाण्डिल्यस्मृ० ४/१९३ )

        इसलिए शास्त्र-वचनों पर शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि शास्त्र पर शंका का अर्थ होता है स्वयं श्री भगवान् पर शंका । इसीलिये श्री आद्य शंकराचार्य जी ने स्वभाष्य में कहा है की शास्त्रयुक्त कोई भी बात अकर्तव्य नहीं हो सकती । राम , कृष्ण आदि मे हम जितनी दृढ निष्ठा रखते हैं , उतनी ही शास्त्र मे भी रखनी आवश्यक है -

तस्माच्छास्त्रे दृढा कार्या भक्तिर्मोक्षपरायणैः ।
​ (शाण्डिल्य स्मृ० ४/१९४ )
त्रिविधा प्रवृत्ति - उद्देश, लक्षण और परीक्षा
उद्देश कहते हैं जहां पर केवल नाम मात्र से वस्तु का संकीर्तन हो -
उद्देशस्तु नाममात्रेण वस्तुसंकीर्तनम् ।

असाधारण धर्मवचन लक्षण कहलाता है-

लक्षणं त्वसाधारणधर्मवचनम् जैसे - गलकम्बल (सास्ना ) गाय का लक्षण है ( सास्नादिमत्वं गोत्वमिति ) ।

ऐसे ही लक्षित का लक्षण ठीक है या नहीं इस का विचार परीक्षा कहलाता है -

लक्षितस्य लक्षणं उत्पद्यते नवेति विचारः परीक्षा ।

शास्त्रकारों ने कहा है कि किसी एक शास्त्र को ही पढ़कर शास्त्र का निर्णय नहीं प्राप्त किया जा सकता ( नैकशास्त्रमधीयानो गच्छति शास्त्रनिर्णयम् ) अपितु जो विविध प्रकार के शास्त्रों को सम्यक् रूप से रूप से जानता है , भूयोविद्य है , वही शास्त्रज्ञ रूप से प्रशंसनीय होता है ।

पारावर्यावित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति । ( निरुक्त १/१६ )

​अतः भूयोविद्य होकर ही शास्त्र के वचनों को समझने का प्रयास करना चाहिए |अतः भूयोविद्य अर्थात् बहुत विद्याओं का ज्ञाता होकर ही शास्त्र के वचनों को समझने का प्रयास करना चाहिए | धर्मका निर्णय इन्हीं विद्याओं का आश्रय लेकर करना चाहिए । ये बहुत विद्याएँ क्या हैं ?

पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।

वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ।। (याज्ञ० स्मृति० १/३ )

अर्थात् पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र और छः अङ्गों सहित चार वेद ये चौदह विद्या धर्म के स्थान है ।

शास्त्र का महत्त्व

प्रश्न - क्या शास्त्र पर विश्वास कर लेना अन्धभक्ति नहीं?

उत्तर - नहीं, क्योंकि शास्त्र को स्वीकारना स्वयं युक्तियुक्त है । युक्तियुक्त न होता तो शास्त्र भी स्वीकार्य न होता । शब्दप्रमाण का युक्तियुक्त होना न्यायसम्मत है।

प्रश्न - शास्त्र की युक्तियुक्तता क्या है ?

उत्तर - प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भी जो वस्तु ज्ञेय नहीं होती , शब्दप्रमाण उसका अवबोध कराता है , यही शब्दप्रमाण की प्रधान युक्तियुक्तता है । एक ही वेद जो वैखरी रूप मे शास्त्रत्वेन लोकप्रसिद्ध है , वही तृण से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त समस्त प्राणियों के अन्त:करण में मध्यमा और पश्यन्ति क्रमेण विराजमान है, एेसा तत्त्वज्ञ पुरुष जानते हैं । इस प्रकार समस्त प्राणियों में अनुस्यूत यह वेदात्मक शास्त्र प्राण-इन्द्रिय और मनोमय है । यही कारण है कि श्रुति द्वारा , वाणी के चार स्वरूपों को यथानुरूप जानने वाले ही शास्त्र के गूढ़ मर्म को समझ सकते हैं , ऐसा कहा गया ।

||जय श्री राम||

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