Thursday, 9 November 2017
शांडिल्य ब्राम्हण की
jainisim
मंगलवार, 31 मार्च 2015
भगवान महावीर जयंती (जन्मकल्याणक)
भगवान महावी (जन्मकल्याणक)
चैत्र शुक्ल त्रियोदशी वीर संवत २५४२ (१९ -४-१६ )
भगवान महावीर के जीव के पुरुरवा भील भव से लेकर मुक्ति तक 34 भवो की यात्रा -
1.पुरुरवा भील-जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती देश की पुण्डरी किणी नगरी के मधुवन में पुरूवा नामक भीलों का राजा अपनी अनुरागी स्त्री कालिका के साथ रहता था एक बार वन मे सागर सैन मुनिराज को घुमते घुमते मृग समझकर उन्हें मारने के लिए उध्यत था किन्तु स्त्री के मना करने पर की 'ये वन के देवता घूम रहे है 'उन्हें नही मारा!मुनिराज से भील ने मफहू,मांसहार और मदिरा तीन के त्याग का नियम लेकर जीवन पर्यन्त निर्वाह किया जिससे उसने पहिले स्वर्ग ,सौधर्मेन्द्र स्वर्ग में १ सागर की देवायु का बंध कर अगले भव में देव हुआ !
2.पहले स्वर्ग में १ सागर तक सुखों को भोग कर देवायु से च्युत होकर सम्राट भरत के ज्येष्ठ पुत्र मारीचि, अयोध्या नगरी में उत्पन्न हुए
3.भरत पुत्र मारिचि-भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड की अयोध्या नगरी में पुरूवा भील और सौधर्मेन्द्र स्वर्ग में देव का जीव,मरीचि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र, भरत जी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए!वे तीर्थंकर ऋषभ देव के साथ दीक्षित होने के बाद जैनेश्वरी दीक्षा का पालन करने में असमर्थ रहने और ऋषभदेव से पहिले मुक्त होने के लोभ के कारण परिव्राजक (मिथ्या) मतों का प्रचार-प्रसार करते हुए पांचवे ,ब्रह्म स्वर्ग में १० सागर देवायु का बंध कर,पृथ्वी पर आयु पूर्ण करने के बाद ब्रह्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हुए !
4.पाँचवें स्वर्ग में देव आयु से च्युत हो कर
5.जटिल ब्राह्मण-अयोध्या नगरी में कपिल ब्राह्मण के काली नमक स्त्री से जन्म लेकर जटिल नामक ब्राह्मण हुआ !यहाँ भी परिव्राजक मिथ्यात्व मतों का प्रसार करते हुए पहिले,सौधर्म स्वर्ग की २ सागर की देवायु का बंध कर ,वहां देव उत्पन्न हुआ !
6-पहले स्वर्ग में २ सागर देवायु पूर्ण कर च्युत हो कर ,इसी भरत क्षेत्र के स्थूणागार नगर में भारद्वाज ब्राह्मण की स्त्री पुष्पदत्ता से पुष्यमित्र नामक पुत्र हुआ
7-पुष्यमित्र ब्राह्मण-यहाँ मंद कषाय के साथ मिथ्यात्व पोषण करते हुए पूण; पहिले,सौधर्मेन्द्र स्वर्ग की एक सागर देवायु का बंध कर वहां डिवॉन में उत्पन्न हुए !-,
8 -पहले स्वर्ग में सुखों को भोगने के बाद देवायु से च्युत कर ,इसी भरत क्षेत्र के सूतिका गाँव में नामक ब्राह्मण और गौतमी नामक स्त्री से अग्निसह नमक पुत्र हुआ!
9-अग्निसह ब्राह्मण-इस भव में भी परिव्राजक दीक्षा लेकर, मिथ्यात्व का प्रचार -प्रसार करते हुए तीसरे स्वर्ग में सात सागर के देवायु का बंध किया
10. तीसरे स्वर्ग में देवायु से च्युत कर इसी भरत क्षेत्र के मंदिर गाँव गौतम ब्राह्मण की कौशिकी ब्राह्मणी से अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ !
11-अग्निमित्र ब्राह्मण-यहां भी परिव्राजक दीक्षा लेकर मिथ्यात्व का प्रचार प्रसार कर चौथे।महेंद्र स्वर्ग में देवायु का बंध किया,वह यहाँ की आयु पूर्ण कर देव हुआ !
12-चोथे स्वर्ग में देवायु भोगते हुए,मनुष्यायु का बंध किया,वहां से च्युत कर ,मंदिर नामक नगर में शालाक्यन ब्रह्मण की मंदिर स्त्री से भारद्वाज नमक प्रसिद्द पुत्र हुआ !
13.-भारद्वाज ब्राह्मण-यहाँ त्रिदण्ड से सुशोभित अखंड दीक्षा का आचरण कर, परिव्राजक मतो का प्रचार-प्रसार करते हुए चौथे स्वर्ग में ७ सागर देवायु का बंध किया!
14-चौथे माहेंद्र स्वर्ग में ७ सागर देवायु का देव होने के उपरान्त,वहाँ से च्युत कर स्थावर पर्यायो का बंध किया
15-स्थावर पर्यायों -असंख्यात वर्षों की स्थावर पर्यायों के दुखों को भोगने के उपरान्त शांत होने के कारण ! मगध देश के इसी राजगृही में वेदों के प्रकांड,सम्यग्दर्शन से शून्य, शांडिल्य ब्राम्हण की स्त्री पारशरी स्त्री से स्थावर नामक पुत्र उत्पन्न हुए!
1 6.स्थावर ब्राह्मण -स्थावर ब्राह्मण ने परिव्राजक दीक्षा ही प्रचार प्रसार किया जिसके फलस्वरूप आयु पूर्ण कर चौथे,माहेन्द्र स्वर्ग की ७ सागर देवायु के बंध के साथ देव उत्पन्न हुए !
17-चोथे माहेन्द्र स्वर्ग में देवायु में,मनुष्यायु बंध किया,वहां से च्युत कर मगध देश के राजगृही में विश्वभूति राजा की जैनी पराक्रमी विश्वनंदी नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए !
18-विश्वनंदी-इस भव में देवायु का बंध कर दसवे महाशुक्र स्वर्ग में १६ सागर देवायु से उत्पन्न हुए
19-दशवे स्वर्ग में देवायु पूर्ण किया वहाँ से उनका जीव च्युत कर,सुरम्य देश के पोदनपुर के राजा प्रजापति की दूसरी रानी मृगावतीे के अर्द्धचक्री ' शूरवीर त्रिपष्ट' नामक पुत्र हुआ !
20.-त्रिपष्ठ अर्द्धचक्रवर्ती हुए-समस्तअर्द्धचक्रवर्ती के वैभव होने पर भी,बहु परिग्रही और बहुआरंभी होने, तथा असंतुष्ट रहने के कारण; ३३ सागर की सातवे नरक की नरकायु का बंध कर सातवे नरक में जन्म लिया
21-सातवे नरकसे आयु पूर्ण कर तिर्यंचायु में सिंह का बंध किया!उसने तीव्र पाप के कारण जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के गंगा नदी तट पर वन में सिंहगिरी पर्वत पर सिंह हुआ !
22- सिंह पर्याय में ,यहाँ भी तीव्र पाप के कारण प्रथम नरक रत्नप्रभा सागर आयु के साथ बंध किया ,पहिले नरक में उत्पन्न हुए,किया !
23- पहले नरक में भयंकर दुखों को भोगकर, आयु पूर्ण कर पुन: जम्बूद्वीप के सिंधुकूट की पूर्व दिशा में , हिमवत् पर्वत की शिखा पर देदीप्यमान बालों से सुशोभित,सिंह ,तिर्यंच गति में उत्पन्न हुए
24-सिंह की इस पर्याय में दो चारण ऋद्धि धारी मुनिराज अजितंजय और अमितगुण जी के धर्ममय सम्बोधन पूर्व भवों;त्रिपष्ट भव के सुखों ,सातवे नरक के दुखों,स्थावर भावों के दुखो ,पिछले सिंह भव के दुखों,पूर्वाभील के भव ,फिले स्वर्ग ,चौथे स्वर्ग दसवे स्वर्ग में देवों,मारीचि आदि भवों का जाति स्मरण कराने से ,तथा उन्हें बताया कि अब से दसवें भव में तुम तीर्थंकर होगे ऐसा श्रीधर तीर्थंकर से उन्होंने सुना है ! धर्ममय वचन सुनकर उसे सम्यग्दर्शन हुआ,सिंह ने मांसाहार का त्यागकर समाधिमरण लेकर पहिले सौधर्मेन्द्र स्वर्ग में २ सागर की देवायु का बंध कर सिंहकेतु नामक देव हुए!
25-पहले सौधर्मेन्द्र स्वर्ग में देवायु से च्युत होने से पूर्व, मनुष्यायु विद्याधर के रूप में,धातकीखण्ड के पूर्व मेरु से पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र के मंगलावती देश विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकप्रभ नगर के राजा कनकपुङ्ग विद्याधर और कनकमला रानी के कनकोज्ज्वल नाम से जन्म लिया!
26-विदयाधर की संयमपूर्ण धर्ममय आयु पूर्ण कर ने से पूर्व सातवे स्वर्ग में १३ सागर देवायु का बंध कर वहा देव उत्पन्न हुए
27-सातवें स्वर्ग में देवायुपूर्ण करने से पूर्व मनुष्ययु का बंध कर,जम्बूद्वीप के कौशल देश के साकेत नगर के राजा वज्रसेन और शीलवती रानी के हरिषेण नामक पुत्र की पर्याय में जन्म लिया
28.-हरिषेण राजा की पर्याय में दसवे महाशुक्र स्वर्ग की १६ सागर देवायु का बंध!
29-दशवें स्वर्ग में १६ सागर देवायु पूर्ण करने से पूर्व मनुष्यायु में ,धातकी खंड के पूर्वविदेह के पूर्व भाग में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी में राजा सुमित्र और रानी मनोरमा के चक्रवर्ती प्रियमित्र पुत्र का बंध कर उत्पन्न हुए
30-चक्रवर्ती प्रियमित्र-इस भव में ज्ञेमङ्कर जिनेन्द्र भगवान के मुखारबिंद से प्रकट होकर संयम महाव्रत ,तीनगुप्तियों,तत्व ज्ञान आदि ग्रहण कर विरक्त हो के बाद, मनुष्यायु पूर्ण कर १२वे सहस्रार स्वर्ग देवायु का १८ सागर आयु का बंध कर वहां सूर्यप्रभ नामक देव हुए !
31-12वे सहस्रार स्वर्ग में १८ सागर देवायु पूर्ण कर मनुष्यायु का बंध कर वहां च्युत होकर,जम्बूद्वीप के छतरपुर नगर के राजा नन्दिवर्धन तथा रानी वीरवती से नंदनाम पुत्र उत्पन्न हुआ !
32-राजा नंदन- राजनन्दन ने प्रोष्ठिल गुरु के समक्ष,धर्म का स्वरुप सुनकर आप्त आगम,पदार्थों का निर्णय किया,संयम धारण किया और ११अंगो का ज्ञान प्राप्त कर दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावना का चिंतवन कर उच्च गोत्र तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म का बंध कर,१६वे अच्युत स्वर्ग के,पुष्पोत्तर विमान में श्रेष्ठ इंद्र की २२ सागर आयु का बंध कर लिया
33-16वे स्वर्ग में इन्द्र- की २२ सागर देवायु,३ हाथ ऊंचाई द्रव्य और भाव शुक्ल लेश्याए से च्युत होने से पूर्व मनुष्यायु में तीर्थंकर महावीर का बंध किया और वहा से अषाढ़शुक्ल षष्टी को च्युत होकर भरत क्षेत्र के कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के सात मंजिले नंद्यावर्त महल में रानी त्रिशला के गर्भ में प्रवेश हुए
34.-तीर्थंकर महावीर/वर्धमान/अतिवीर/सन्मति चैत्र शुक्ल त्रियोदशी को अर्यमा शुभ योग में और रानी त्रिशला के आँगन में उत्पन्न हुए ! ने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर,कृष्ण अमावस्या को प्रात: ४ बजे मोक्ष प्राप्त कर सिद्धशिला के ऊपर ४५ लाख योजन विस्तार और ५२५ धनुष ऊँचे सिद्धालय पर विराजमान हो गए !
बोलिए तीर्थंकर भगवान महावीर की जय !
जन्म कल्याणक आगे -
जैन शासन एवं परम्परा में दो प्रकार के पर्वों का उल्लेख है !
१-शाश्वत/अनादिनिधन जैसे प्रत्येक अष्टमी,चतुर्दशी, दसलक्षण/पर्यूषण; चैत्र माघ और भाद्र पद के शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक आत्मशोधन कर,अपनी आत्मा के शुद्धिकरण हेतु,क्षमावाणी और अष्टाहानिका पर्व;नंदीश्वर द्वीप जाकर चार निकाय के देवतागण अकृत्रिम चैत्यालयों में जिनबिंबों की अष्ट द्रव्यों से प्रत्येक वर्ष तीन बार; आषाढ,कार्तिक और फाल्गुन के शुक्लपक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक निरंतर आठ दिन तक निरंतर पूजन कर मनाते है!
२-तात्कालिक किसी व्यक्ति अथवा घटना विशेष से सम्बंधित दो प्रकार के होते है-१-किसी व्यक्ति विशेष जैसे भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक उनके पञ्चकल्याणक, उनसे सम्बंधित; महावीर जन्म कल्याणक , दीपावली आदि तथा,२-घटना विशेष से संबंद्धित रक्षाबंधन,श्रुतपंचमी आदि!
भगवान महावीर की तीर्थ की जय !
जैन शासन की जय !
शाश्वत विश्वअहिंसा परमो जैन धर्म की जय !
भगवान महावीर जयंती
सभी सहधर्मी भाइयों बहिनों
महावीर जयंती की शुभ कामनाये !
आप सब के जीवन के लिए यह पर्व कल्याणकारी एवं मंगलकारी हो !
(जन्मकल्याणक)
चैत्र शुक्ल त्रियोदशी वीर संवत २५४१(१९-४-१६ )
आज से लगभग २६१४ वर्ष पूर्व,चैत्र शुक्ल त्रियोदशी को,इस भरतक्षेत्र के कुंडपुर वर्तमान बिहार प्रदेश के राजा सिद्धार्थ के नंद्यावर्त महल में रानी त्रिशला (प्रियंकारिणी) ने उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में तिर्यन्चों , मनुष्यों और देवों के कल्याण के लिए,भगवान पार्श्वनाथ के जन्म से २५० वर्ष पश्चात, बालक तीर्थंकर वर्धमान को जन्म देकर इस धरा को धन्य किया,स्वयं तीर्थंकर भगवान की जननी होकर धन्य हुई!बालक वर्धमान के जन्म का ज्ञान, देवो को अवधिज्ञान से तथा उनके सिंहासनों के कम्पायमान होने से स्वर्ग में हुआ जिससे उनका जन्म कल्याणक मनाने के लिए स्वर्ग से सौधर्मेन्द्र के साथ साथ देवांगनाएँ ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर आये!सौधर्मेन्द्र की, शचि देवी ने मायामय बालक को प्रसूति गृह में माता के पास रख कर,सूर्य के समान देदीप्य मान बालक वर्धमान को सौधर्मेन्द्र को मेरुपर्वत पर लेजाकर जन्माभिषेक करने के लिए देती है!इंद्र बालक वर्धमान की छवि को अपने हज़ारों नेत्रों द्वारा देखने पर भी संतुष्ट नही होते!सौधर्मेन्द्र तथा देवतागण बालक वर्धमान को बड़े हर्षोल्लाहस के साथ ऐरावत हाथी पर आरूढ़ कर सुमेरू पर्वत पर,पाण्डुकवन की पांडुकशिला पर सिंहासन पर विराजमान कर,१००८ देदीप्यमान स्वर्ण कलशों को क्षीरसागर के जल से भरकर अभिषेक स्तुति करते हुए कि"हे भगवान!आपकी आत्मा अत्यंत निर्मल है, आपका शरीर विशुद्ध पुद्गलों से निर्मित है सलिए अपवित्र जल द्वारा इसकी शुद्धि कैसे हो सकती है?हमने जो अभिषेक आपके तीर्थंकर नामकर्म के द्वारा प्रेरित होकर किया है यह एक आम्नाय है-तीर्थंकर के जन्म के समय होने वाली विशेष क्रिया है इसलिए हम लोग आकर आपको किङ्करता को प्राप्त हुए है "करते हुए करते है !तदुपरांत बालक के शरीर का देवियाँ परिमार्जन कर उनको अति उत्तम वस्त्र और आभूषणों से विभूषित करती है!सौधर्मेन्द्र उनके वीर और श्री वर्धमान नामाकरण करते है.अंगूठे मे सिंह चिन्ह देखकर उनका चिन्ह सिंह निर्धारित करते है!तदुपरांत कुण्डपर राजा सिद्धार्थ के महल में जन्मकल्याणक उत्सव के अवसर पर तांडव नृत्य आदि करके माता के पास शचि देवी बालक वर्धमान को विराजमान कर देती है ,माया मयी बालक को हटा देती है!जन्मकल्याणक उत्सव मनाने के बाद माता की सेवा के लिए देवियों को और बालक से क्रीड़ा करने के लिए देवों को नियुक्त कर,वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके स्वर्ग को सौधर्मेन्द्र तथा अन्य देव प्रस्थान कर जाते है!इंद्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन बर्धमान तीर्थंकर के भोगोपभोग की पूर्ती के लिए वस्त्र ,आभूषण इत्यादि स्वर्ग से भेजते रहते हैं तीर्थंकर अपने माता-पिता से लेकर किसी भी वस्तु का भोगोपभोग नही करते !
सन्मति नाम का कारण-एक बार दो चारण ऋद्धि धारी मुनि संजय और विजय,अपनी पदार्थों संबंधी संदेह के निवारण हेतु वर्धमान स्वामी के पास आये जो कि वर्धमानस्वामी के दर्शन मात्र से दूर हो गया,इसलिए उन्हों ने वर्धमान स्वामी का नाम सन्मति रखा !
महावीर नाम का कारण-इन्द्रो की सभा में चर्चा चल रही थी की इस समय सबसे शूरवीर वर्धमान स्वामी है!संगम नामक एक देव भगवान की परीक्षा लेने के लिए सर्प के रूप में विक्रिया धारण कर,अन्य बच्चों के साथ वृक्ष के उपर चढ़कर क्रीड़ा खेलते हुए अन्य बालकों के साथ वर्धमान बालक के पास ,वृक्ष से स्कंध तक लिपट गया!वर्धमान के अतिरिक्त सभी बालक भयभीत होकर चले गए!किन्तु वर्धमान उसी सर्प के फणों पर निर्भ यता पूर्वक चढ़ कर माता के पलंग पर बालकवत क्रीड़ा करतेरहे!इसलिए संगमदेव ने वर्धमान को महावीर नाम दिया!
दीक्षाकल्याणक-३० वर्षों तक तीर्थंकर महावीर का कुमार काल व्यतीत होने के पश्चात दुसरे दिन ही उन्हें मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मज्ञान प्रकट होकर पूर्वभव का स्मरण हो गया,तभी लौकांतिक देवों स्तुति पढ़ते हुए उनकी दीक्षा की अनुमोदना करी,सर्व प्रथम मनुष्यों,भूमिगोचर राजाओं ने ,फिर विद्या धर राजाओं ने उसके बाद देवों ने उनको चन्द्रप्रभ पालकी पर विराजमान कर चंवर ढोरते हुए उठाकर पंड नामक वन में पहुंच कर दीक्षाकल्याणक मंगसिरवदी दशमी को चन्द्र हस्त और उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के मध्य में,सध्याकाल में मनाया!महावीरस्वामी,पालकी से उतर कर रत्नमयी बड़ी शिला पर उत्तर की ओर मुख कर तेला के ३ दिवस का नियम लेकर विराजमान हुए!भगवान ने वस्त्र,आभूषण,माला इत्यादि त्याग कर निर्वस्त्र दिगंबरत्व धारण किया,अपने केशों को जड़ से उखाड़ फेंका !भगवान ने सन्यम धारण कर तप श्चरण के लिए बैठ गए!इंद्र ने समस्त केशों और वस्त्रों को मणिमय पिटारे मे रखकर पूजन करने के बाद अन्य देवों के साथ जाकर क्षीरसागर में प्रवाहित कर दिया!भगवान को दीक्षा धारण करते ही केवलज्ञान के अतिरिक्त,६३ ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई!पारणा के दिन राजा कूल ने कूलग्राम में उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक खीर का आहार दान किया!जिससे राजाकूल के आँगन में रत्नो की वर्षा पंचाश्चर्यों सहित हुई!तदुपरांत तीर्थंकर महावीर वन की ओर तपश्चरण,धर्मध्यान आदि हेतु विहार कर गए
एक दिन धीर वीर वर्धमान उज्जैनी के अतिमुक्तक नामक श्मशान में प्रतिमयोग में लीन थे, उन्हें देखकर महादेव नामक रूद्र ने अपनी दुष्टता से उनके धैर्य की परीक्षा अनेक भयंकर उपसर्ग कर ली किन्तु वे समाधी से किंचित विचलित नही हुए,फिर रूद्र ने भगवान के महावीर और महति दो नाम रख कर उनकी अनेक प्रकार स्तुति करी !
एक बार महावीर ने,कौशंबी नगरी में आहार के लिए अत्यंत कठिन विधि लेकर प्रवेश किया-कुवारी राज कुमारी से,जो की सांकल में बंधी हो, ग्रहण करूंगा! !उनके और चन्दन बाला के पुण्य से, कुमारी राजकुमारी चंदना कारगर से उनके समक्ष ,बेड़ियों में जकड़ी हुई,जाने लगी ,उसी समय भगवन को देखते ही उसके जंजी रों के बंधन टूट गए,उसके वस्त्र आभूषण सुंदर हो गए,वह नवीन पुण्य से, पुण्य की स्वामिन हो गई,उसका मिटटी का सकोरा स्वर्णपात्र हो गया तथा कोदो का भात शाली चावलों का हो गया!उस बुद्धिमती ने विधि पूर्वक पडगाह कर भगवान को आहारदान दिया जिससे पंचाश्चर्य की वर्षा उसके आँगन में हुई!
केवल ज्ञान कल्याणक -बारह वर्ष के घनघोर तपश्चरण के फलस्वरूप जृंभिक ग्राम के निकट ऋजुकुला नदी के तट पर मनोहर वन के मध्य स्थित रत्नमयी शिला पर साल वृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर प्रतिम योग से महावीर जी विराजमान हुए!वैशाख शुक्ल दशमी को अपराह्न काल में हस्त और उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के बीच मे चंद्र्मा के आने पर परिणामों में विशुद्धता बढ़ते हुए वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए! उन्हेंने उसी समय शुक्लध्यान से चारों घातिया कर्मों का क्षय कर अनन्त चतुष्टाय प्राप्त किया,उन्हें केवलज्ञान हुआ और चौतीस अतिश्यों से सुशोभित हो गए !उनका शरीर परमौदारिक हो गया,आकाश रूपी आँगन में सुशोभित हो गए!सौधर्मेन्द्र,चारों निकाय के देवों के साथ आये और ज्ञानकल्याणक उत्सव मनाया !
केवल ज्ञान होते ही भगवान महावीर अरिहंत परमेष्ठी हो गए,उनके समवशरण की सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने राजगिरि,विंध्याचल पर्वत पर रचना कर दी है किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि गणधर की अनुपस्थि ति मे ६६ दिनों तक नही खीरी!इंद्र, वेदों के प्रकांड ज्ञाता,पंडित इंद्रभूति गौतम ब्रह्मण को उनके ५०० शिष्यों के साथ युक्ति पूर्वक भगवान के समवशरण में ले आये!उनका मान समवशरण का मानस स्तम्भ देखकर गलित हो गया,उन्होंने महावीरस्वामी से प्रश्न किया जीव नामक कोई पदार्थ है या नही?उसका स्वरुप कहिये !
जैन आगम के कर्ता/रचियेता तीर्थंकर आप्त जिनेन्द्र देव महावीर "भव्यवतस्ल भगवान ने कहा जीव नामक पदार्थ ग्रहण किये शरीर प्रमाण है,सत्संख्यादि और निर्देशादि से उसका स्वरुप कहा जाता है !वह द्रव्य रूप से कभी उतपन्न नही होता और कभी नष्ट नही होगा किन्तु पर्याय रूप प्रतिक्षण परिणमन करता है! चेतना उसका लक्षण है,वह कर्ता है,भोक्ता है,और पदार्थों के एकदेश तथा सर्वदेश का जानकार है !संसारी और मुक्त की अपेक्षा दो प्रकार से निरूपण किया जाता है!इसका संसार अनादिकाल से चला आ रहा है और मोक्ष सादि माना जाता है!जो जीव मोक्ष चला जाता है वह कभी संसार में नही आता !किसी किसी जीव का संसार नित्य होता है,अर्थात अभव्य या दूरद्दूर भव्य होने के कारण संसार में ही रहता है !कर्म बंधनों से बंधे जीवों के मुक्त होने पर हानि अवश्य होती है परन्तु उनका अनन्त होने के कारण क्षय नही होता!जिस प्रकार पदार्थों में अनंत शक्तियाँ रहती है,उनका अंत कभी नही होता,इसी प्रकार संसार में अनंत जीव रहते हैं,उनका अंत कभी नही होता"इस प्रकार भगवान के उपदेश से इंद्रभूति गौतम ब्राह्मण को जीवतत्व निश्चय हो गया , उन्होंने भगवान महवीर को अपना गुरु स्वीकार किया ,इंद्र ने उनकी पूजा करी !इंद्रभूति गौतम ने ५०० शिष्यों सहित भगवान महावीर को नमस्कार किया !
महावीर जी द्वारा दिगंबर जैनेश्वरी दीक्षा धारण करते हीउन्हें मन:पर्यय ज्ञान हो गया तथा उन्हें प्रमुख गणधर के पद से सुशोभित किय !तदन्तर ,भगवान की दिव्य ध्वनि श्रवण वदी प्रतिपदा को पूर्वाह्न में खीरी जिस से गणधर देव को भगवान के उपदेश स्पष्ट ज्ञात हुए!उसी दिन अपराह्न में उन्हें अनुक्रम से पूर्वों के अर्थ तथा पदों का स्पष्ट बोध हो गया !जिससे उन्होंने समस्त पूर्वों और अंगों का ज्ञान प्राप्त कर,चार ज्ञान से सम्पन्न हो रात्रि के पूर्व भाग में ११ अंगों की और पिछले भाग में१४ पूर्वों की ग्रन्थ रचना समस्त लोक के भव्य जीवों के कल्याण और मार्ग दर्शन हेतु करी!'भगवान महावीरके समवशरण में प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक,११ गणधर थे,मुख्य आर्यिका चंदना जी थी !
भगवान महावीर ३० वर्षों तक समवशरण में दिव्य सिंहासन पर कमल से चार उंगल ऊपर विराजमान रहते हुए उसके १२ कोठों में विराजमान भव्य देवों ,देवांगनाओं,तिर्यन्चों ,मनुष्यों को तथा लोक के समस्त जीवों के कल्याणार्थ देश के विभिन्न भागो में,५ आस्तिकय,६ द्रव्यों ७ तत्वों,९ पदार्थों,संसार और मोक्ष के कारणों तथा उनके फल का प्रमाण नय और निक्षेप आदि द्वारा विस्तारपूर्वक अर्द्ध मागधी भाषा में दिव्य ध्वनि के द्वारा निरूपण करते हुए देश के विभिन्न भागो में विहार करते हुए अंत में जलमंदिर,पावापुरी बिहार पहुंचे !वहां उनका समवशरण अंतिम बार कार्तिक कृष्ण तेरस को विघटित हुआ!धन्य हो गई क्योकि आज के दिन भगवान योग निरोध में (वर्तमान जल मंदिर)पावापुरी में ,शेष अघातिया कर्मों के क्षय हेतु शुक्लध्यान में ध्यानस्थ हुए!अंतत: कार्तिक अमावस्या को प्रात: ४ बजे प्रभु तीर्थंकर महावीर सदा के लिए इस नश्वर संसार को जीत कर मुक्त,सिद्ध हो कर लोकांत में तनुवातवलय को शीर्ष स्पर्श करते हुए ५२५ धनुष मोटी ४५ लाख योजन विस्तार के सिद्धालय में अनंत( दर्शन ज्ञान सुख वीर्य),क्षायिक सम्यक्त्व सूक्ष्मत्व, अवगाह नत्व,अगुरुलगुत्व,अव्याव्बाधत्व आदि अनन्त गुणों सहित अनंतकाल के लिए विराजमान हो गए!उन्होंने मोक्ष लक्ष्मी का वरण किया !
मोक्ष कल्याणक -आत्मा के शरीर से निकलने के बाद पुद्गल शरीर शेष रह जाता है,जिसके विषय में शास्त्रों में दो प्रमाण मिलते है !कुछ आचार्य के मतानुसार शरीर कपूर के सामान उड़ जाता है!अन्य आचार्य के मतानुसार, आत्मा के निकल जाने के बाद देवतागण वहां आकर,उनमे से अग्नि कुमार देव अपने मुकुट मे से अग्नि प्रकट करते है,जिससे शरीर ज्वलित कर अंतिम शरीर का संस्कार किया जाता है!क्या दृश्य रहा होगा पावापुरी में जो लोग भगवान को छोड़कर सायंकाल में गए होंगे प्रात:भगवान के कुछ दर्शन हुए होंगे !
भगवान महावीर की जय !
चैत्र शुक्ल त्रियोदशी ,२५४२
१९-४-१६
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रविवार, 29 मार्च 2015
स्व-पर भेद विज्ञान
स्व-पर भेद विज्ञान
जैन दर्शन में, 'सम्यक्दर्शज्ञानचारित्राणिमोक्ष मार्ग:अर्थात सम्यक्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र तीनोंएक साथ होने पर,रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग बताया है!
सम्यग्ज्ञान के ;१-स्वाध्याय,२-नव पदार्थों काज्ञान ,३-स्वपर भेद ज्ञान और ४- स्वसंवेदन ज्ञान ४ सोपान है!
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों,सम्यग्ज्ञान के तीसरे सोपान "स्व,स्व-पर भेद ज्ञान" वर्णन करते है !
'स्व' से अपनी आत्मा,जीव तत्व और ' पर 'से तातपर्य अपनी आत्मा के अतरिक्त अन्य सभी आत्माए और समस्त (पदार्थों अजीव आदि से है! हम अनादिकालीन से आत्मा (जीव),के शरीर (अजीव ) के साथ कर्म बंधनों के कारण ,शरीर ही जीव(स्वयं) को समझने की भूल करते है-स्व -पर का भेद समझकर, आत्मज्ञान ही कल्याण कारी है,उपादेय है अन्य सभी ज्ञान मिथ्या-त्याज्य है!
आचार्य अमृतचंद स्वामी कलश १३१ में लिखते है -
"भेदविज्ञानत: सिद्धा:सिद्धा: ये किल केचन् !
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन् !!"१३१!!
अर्थात जो भी जीव आज तक बंधे (कर्म से) सभी भेद विज्ञान के अभाव से बंधे हैं,
तथा जो भी सभी सिद्ध हुए वे भेद-विज्ञान से ही हुए हैं!
स्व-पर का भेद जीव में उत्पन्न होने पर उसको निर्मल सम्यग्ज्ञान हो जाता है,वह किसी भी सांसारिक दुःख मरण,जन्म आदि कष्ट से भयभीत नही रहता,नही उन्हें अनुभव करता है क्योकि उसका दृढ श्रद्धां पूर्वक ज्ञान होता है कि उसकी आत्मा अजर अमर है,शरीर से सर्वथा पृथक है,केवल पर्याय में शरीर ही नष्ट होता है ,जो कि मोक्ष प्राप्ति तक नवीन मिलता रहता है!
पंडित बनारसी दास जी कहते है-
भेद विज्ञान जग्यो जिनके घर,शीतल चित्त भयो जिमि चंदन,
केलि करें शिवमार्ग में ,जगमाहिं जिनेश्वर को लघु नंदन !
सत्यस्वरूप सदा जिनहीं के प्रकट्यो ,अवदात मिथ्यात्व निकंदन ,
शान्तदशा तीनही की पहिचानी,करें कर जोरी बनारसी वंदन !
'ज्ञानकला जिनके घट जागी ,ते जग माहिं सहज बैरागी !
ग्यानी मगन विषै सुख माहिं ,यह विपरीति सम्भवै नांहिं !!'
अर्थात-जिनके हृदय में (ज्ञानकला) निज पर का विवेक प्रकट हो जाता है उनका चितचंदन सदृश शीतल, कषायों रहित हो जाता है !जिनके चित्त में इस प्रकार से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है वे स्वभावत:वीतरागी रहते है !ज्ञानी होकर वे विषय सुखों में प्रवृत्त नही हो सकते ,उन्हें भोग बुरे लगने लगते है !
स्वयं अर्थात अपनी आत्मा तथा 'पर' अर्थात अपनी आत्मा के अतिरिक्त समस्त अन्य आत्माएं एवं अन्य द्रव्य सब अलग अलग प्रतीत होने लगते हैं !जीव स्वत: ही संसार -शरीर भोगो से विरक्त होकर अपने सच्चे सुख की अनुभूति करने लगता है !यही आत्मज्ञान,स्व-पर भेद ज्ञान है ! इस आत्मज्ञान द्वारा ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है ,सांसारिक दुखों से मुक्त होता है ! स्व पर को जानने के लिए पुरुषार्थ अनिवार्य है जिसके अभाव में यह होना असम्भव है !
स्व और पर भेद ज्ञान नही होने का कारण -
कभी कभी आत्मा के अस्तित्व पर शंका होने पर,किसी से प्रश्न करना कि आत्मा है या नही !शंका किस में हुई -आत्मा में हुई ,इसका निवारण भी -आत्मा में ही हुआ ,इससे आत्मज्ञान सहज हो जाता है !जिससे प्रश्न किया गया वह 'पर' का भी ज्ञान हो गया!स्व-पर का भेद ज्ञान नही होने का मुख्य कारण भ्रम है,जिसका मुख्य कारण मिथ्यादर्शन है भ्रम किसी अन्य द्वारा दूर नही किया जा सकता,स्वयं का ज्ञान ही इसका इलाज़ है !
स्व-पर भेद विज्ञान
शेष आगे ३१-३-१५
पंडित दौलतराम जी छ: ढाला में कहते है-
जिन परम पैनी सुबुद्धि छैनी, डारि अंतर भेदिया !
वरणादि अरू रागादि तें ,निज भाव को न्यारा किया !!
ध्यानस्थ मुनिराज, अपनी तीक्ष्ण बुद्धि रुपी छैनी से ,अपने अंतरंग के रूप ,रस,आदि पुद्गगलिक बीस गुणों तथा रागादि भाव से, अपने आत्म भाव को पृथक कर लेते है !
वैराग्य मणिमाला में आचार्य विशालकीर्ती जी के अनुसार-
द्वन्द्वो चित्त !विशालसंसृतिवने तृष्णा द्वाग्न्युतकटे !
कामक्रोधकरालके सरिकुले मूर्च्छा मदाष्टापदे !!
क्रूरस्फारफणालकोलभुजगे मृत्यवन्धकूपाकुले!
भ्रान्तवा तत्र चिरं तवास्ति कुशलं किं भेद बोधं बिना !!६!!
अर्थात -हे चित्त! जिसमे तृष्णा रूपी दावाग्नि जल रही है,जहां काम ,क्रोध रूपी प्रचंड सिंहों का समूह है,जो परिग्रह और अष्ट मदों रूपी अष्टपदों से युक्त है,जहाँ क्रूर विशाल अजगर,सूकर और सर्प है तथा जहां मृत्यु रूप अंध कूप विध्यमान है ,ऐसे विशाल संसार रुपी वन में चिरकाल भ्रमण कर भेद विज्ञान के बिना क्या तेरी कुशल ता हो सकती है ,(अर्थात कभी नही हो सकती ,विरक्त होने पर ही तेरा कल्याण सम्भव है अन्यथा नही !)
समाधिसार में सोमसेनाचार्य जी लिखते है-
देहोऽपरोऽपरश्चात्मा यस्येति चिन्तनं क्षणम्।
जन्म मृत्यु जरातीतं स एव पदमश्नुते ॥५२॥
अर्थात -शरीर अन्य है आत्मा अन्य है ,ऐसा चिंतन क्षण भर के लिए भी जिसके भी हो जाता है ,वही जन्म,मृत्यु और जरा रहित पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है !
दृष्टांत- एक अनपढ़ श्री शिवकुमार ने एक महिला से प्रश्न किया वे इस समय क्या कर रही है !उन्होंने उत्तर दिया " तुषमासभिन्नम् "-(तुष +मास +भिन्नम्)
इसका शिवकुमार द्वारा अर्थ पूछने पर महिला ने उत्तर दिया -तुष का अर्थ छिलका और मास का अर्थ उड़द ,भिन्नम का अर्थ अलग कर रही हूँ !अर्थात "उड़द से छिलका अलग" कर रही हूँ ! शिव कुमार को यह उत्तर सुनकर आभास हुआ कि जैसे ज्ञानी आत्मा को शरीर से अलग करते है,वह भी अपनी आत्मा को शरीर से अलग करे ! इस विचार से उन्होंने वन में जाकर दीक्षा लेकर ,घोर तपश्चरण एवं भेद विज्ञान रूपी छैनी से आत्मा को शरीर से पृथक कर जन्म ,जरा,मृत्यु के चक्र को विघटित कर मोक्ष पद प्राप्त किया !
स्व-पर भेद ज्ञान से अनभिज्ञ जीव के परिणाम- इसके विपरीत स्व-पर भेदज्ञान से अनभिज्ञ जीव, मद्य में मत वालो को श्रीखण्ड खिलाने पर भी उसके स्वाद से अनभिज्ञ रहता है,वे मिथ्यादृष्टि ज्ञान की मूर्ती होने पर भी, पाप पुण्य में लीनता के कारण,हृदय में आत्मज्ञान से शून्य होते है,वह चेतन और अचेतन दोनों के मिले पिंड को देखकर एक ही मानता है,उनकी पृथकता पर कोई विचार नही करते !
नयों की अपेक्षा स्व-पर भेदज्ञान-
निश्चय और व्यवहार ही 'स्व' और 'पर' है !स्व में आनंद है,शुद्ध आत्मा है ,और शुद्ध आत्म द्रव्य एक वस्तु है,गुण शक्ति है तथा पर्याय परिणमन है ! भेद विज्ञानी सदा शुद्ध परिणमन में रहता है !जैसे रज शोधा, धूल सोधकर सोना चांदी ग्रहण कर लेता है,अग्नि धाऊ को गलाकर सोना निकालती है,कर्दम में निर्मली (फिटकरी ) डालने से ,मैल अलग होकर जल साफ़ हो जाता है,दही को मथने वाला ,मथ कर मक्खन और मठ्ठे को अलग अलग कर लेता है,हंस दूध पीकर पानी को छोड़ देता है उसी प्रकार ज्ञानी,भेद ज्ञान के आलंबन से आत्म सम्पदा ग्रहण कर नश्वर शरीर ,राग द्वेष, पुद्गलादि पर पदार्थों को सदा के लिए त्याग कर मुक्त होता है !
स्व-पर भेद विज्ञान
शेष आगे -३१-३-१५
जैसे हंस दूध को मुख से स्पर्श करते ही दूध और पानी पृथक पृथक हो जाते है,उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों की सुदृष्टिमें स्वभावत: जीव,कर्म और शरीर को पृथक पृथक भासते है!जब शुद्ध चैतन्य के अनुभव का अभ्यास होता है तब अपना अचल आत्मद्रव्य प्रतिभासित होता है,उसका किसी अन्य से मिलाप नहीँ दिखता!पूर्वबद्ध कर्म उदय में आये हुए दिखते है,किन्तु अहंबुद्धि के अभाव में उनका कर्त्ता नही होता,मात्र दृष्टा रहता है!हमारे दुःख का मूल कारण मोहवश 'स्व' मानना है, जो निम्न दृष्टांत से स्पष्ट हो जाएगा !
दृष्टांत -एक व्यक्ति जंगल में विचरण करते हुए एक हाथी को अपनी सांड से उठकर एक बच्चे को मारते हुए देखता है !यह देखकर वह व्याकुल होकर क्रंदन करता हुआ कि ;'मेरा बच्चा मारा गया' ,मूर्छित हो जाता है !कुछ समय बाद उसके समक्ष उसका बच्चा लाया गया ,उसे देखते ही वह होश में आ गया!(क्योकि जिस बच्चे के हाथी ने उठाया था वह उस व्यक्ति का बच्चा नही था !)इस दृष्टां में उस व्यक्ति को सुख बच्चे को देखने का नहीं हुआ बल्कि इस बात का हुआ कि हाथी द्वारा मारा गया बच्चा उसका नही है!इसी प्रकार जब तक 'पर' पदार्थों में अपनत्व की ममत्व बुद्धि रहेगी तब तक उस व्यक्ति के समान,उसे बेहोशी का नशा छाया रहेगा और अपने मन की बुद्धि दूर होते ही आनंद की तरंगे आने लगेंगी !इस ममत्व रूपी पिशाचनी ने बहुत लोगो को संसार सागर में डुबाया है !,मोह में ही जीव ने अपने अनन्तानन्त भव नष्ट कर दिए फिर भी ममत्व बुद्धि नही गयी !
कहा भी है -
'उत्तमा स्वात्मचिन्ता स्यात् देही चिंता च मध्यमा!
अधमा कामचिंता स्यात् परचिंताधमोऽधमा !!
अर्थात-अपनी आत्मा का चिंतन उत्तम है,शरीर की चिंता मध्यम है,विषयों --काम की चिंता अधम है और दूसरों की चिंता अधम से अधम है!
आत्मा और शरीर का संबंध अनादिकाल से एक होकर भी किस प्रकार पृथक है आचार्य देव के अनुसार -
पाषाणेषु यथा हेम ,दुग्धमध्ये यथा घृतम् !
तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये यथा शिव:!!
अर्थात जिस प्रकार पत्थर में सोना,दूध में घी ,तिल में तेल रहता है उसी प्रकार शरीर में आत्मा रहती है !
काष्ठ मध्ये यथा बहिन् : ,शक्तिरूपेण तिष्ठति !
अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पंडित:!!
जिस प्रकार लकड़ी में शक्ति रूप अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में आत्मा रहती है जो ऐसा जानता है वह ज्ञानी /पंडित है !
नलिन्यां च यथा नीरं ,भिन्नं तिष्ठति सर्वदा !
अयमात्मा स्वभावेन ,देहे तिष्ठति निर्मल:!!
जिस प्रकार जल में कमल रहते हुए उससे सर्वदा अलग रहता है ,उसी प्रकार आत्मा भी स्वभावत: शरीर से भिन्न रहती हुई शरीर में रहती है !
उक्त कथनो से निष्कर्ष निकलता है कि अपनी आत्मा के अतिरिक्त अन्य आत्माऐं व् अन्य सभी द्रव्य भिन्न है ,ऐसा जानना ही स्व-पर भेद ज्ञान है !
निष्कर्ष-भेद विज्ञानी,आत्मा और पर द्रव्यों के गुणों को स्पष्ट जानता है,परद्रव्य से अपनत्व छोड़ शुद्ध अनुभव में स्थिर होता है और उसका अभ्यास कर संवर को प्रगट करता है !आस्रव द्वार का निग्रह पूर्वक कर्म जनित महान्धकार नष्ट करता है ,राग द्वेष आदि विभाव त्यागकर समता भाव ग्रहण करता है और निर्विकल्प मोक्ष पद प्राप्त कर निर्मल शुद्ध ,अनंत अचल और परम अतीन्द्रिय सुख का अनुभव अनंत काल तक करता है !
इतिश्री
चैत्र शुक्ल द्वादशी २५४१
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शनिवार, 28 मार्च 2015
कुमति,कुश्रुत,कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान है
द्रव्य-गुण - पर्याय का स्वरुप -
'गुणपर्ययंवद् द्रव्यं ' अर्थात द्रव्य; गुण और पर्याय सहित होता है !
गुण पर्याय का स्वरुप-"भुवो गुणा: कर्मभुव: पर्याय:" यह नय चक्र ग्रन्थ का कथन है ! अथवा "अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिण:" अर्थात गुण सदा, द्रव्य में एक रूप, नित्यरूप पाये जाते है तथा पर्याय नानारूप होती है,जो परिण- ति पहिले समय में थी ,वह दुसरे तीसरे आदि समय में नही होती ,प्रति समय उत्पाद व्यय रूप परिणमन होता है,इसलिए पर्याय को क्रमवर्ती खा गया है !
जीव द्रव्य के ज्ञान,दर्शन,सुख,वीर्य आदि और पुद्गल द्रव्य के स्पर्शन,रस,गंध ,वर्ण आदि अनन्त गुण है!ये गुण जीव और पुद्गल द्रव्य में क्रमश सहभाव है,अन्वयी है,सदा नित्य है ,कभी भी द्रव्य से पृथक नही होते तथा पर्याय के दो भेद है -१-स्वभाव और २-विभाव !
जीव द्रव्य के गुण और पर्याय -
जीव के सिद्धत्व आदि स्वभाव पर्याय है और केवलज्ञानदि स्वभाव गुण है,केवल सिद्ध जीवों में ही पाये जाती है!अन्य द्रव्यों में नही पाये जाते तथा अस्तित्व,वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व गुण का परिणाम षट्गुणी हानिवृद्धि रूप है,वह शुद्ध पर्याय है!यह शुद्ध पर्याय संसारी जीवों,सिद्ध जीवों और सब अजीव पदार्थों में होती है!संसारी जीवों के मतिज्ञानादि विभाव गुण और नर नारकी आदि विभाव पर्याय पायी जाती हैं!
पुद्गल द्रव्य के गुण पर्याय -
पुद्गल परमाणु के तो द्रव्य तथा वर्ण आदि स्वभाव गुण और एक वर्ण से दुसरे वर्ण रूप होना ये विभाव गुण व्यंजन पर्याय है तथा एक परमाणु में दो,तीन या अनेक परमाणु मिलकर स्कंध रूप होना,ये विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है! द्व्यणुकादि स्कंध में जो वर्ण आदि के विभाव गुण कहे जाते है,और वर्ण से वर्णांतर होना ,रस से रसांतर होना,गंध से गन्धान्तर होना ,ये विभाव पर्याय है!परमाणु शुद्ध द्रव्य में एक रूप ,एक रस,एक गंध और एक तथा स्निग्ध-रुक्ष में से एक ,ऐसे दो स्पर्श ,इस तरह चार गुण होते है ! किन्तु स्कंध में इन चार सहित शीत -उष्ण स्पर्श में से एक और अर्थात कुल ५ गुण होते है!इनमे अतित्व आदि अनंत स्वभाव गुण है !और परमाणु का जो आकार है वह स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है तथा वर्णादि गुण रूप परिणमन स्वभाव व्यंजन पर्याय है !
जीव और पुद्गल में स्वभाव और विभाव दोनों है!
धर्म ,अधर्म,आकाश ,काल गुण पर्याय -
धर्म ,अधर्म,आकाश और काल इन चारों द्रव्यों में अस्तित्वादि स्वभाव गुण ही है और अर्थ पर्याय षट्गुणी हानि-वृद्धि रूप स्वभाव पर्याय सभी की है !धर्मादिक चार पदार्थों के विभाव गुण पर्याय नही है !आकाश के घटाकाश ,उपचार मात्र ही कहावत है !
इन षट्द्रव्यों में शुद्ध गुण पर्याय सहित शुद्ध जीव द्रव्य ही उपादेय है -अराधने योग्य है !
जीव के विशेषत्व से द्रव्य गुण पर्याय-
आत्मा को द्रव्य जान,और दर्शन ज्ञान को गुण जान,चार गतियों के भाव शरीर को कर्म जनित विभाव पर्याय समझ !सुद्ध निश्चय नय से शुद्ध ,बुद्ध, अखण्ड ,स्वभाव आत्मा को तू द्रव्य जान चेतनत्व के सामन्य स्वभाव को दर्शन जान विशेषता से जानपना उसको ज्ञान समझ समझ !ये दर्शन ,ज्ञान आत्मा के निज गुण है!ज्ञान के आठ भेदों में ; चार;मतिज्ञान,श्रुतज्ञान,अवधिज्ञान,मन:पर्यय ज्ञान, समयग् ज्ञान है, तीन; कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान है,ये सातों ज्ञान केवलज्ञान की अपेक्षा अपूर्ण, खंडित,अशुद्ध है और आठवा केवल ज्ञान पूर्ण अखंड और शुद्ध है !
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बुधवार, 18 मार्च 2015
Legal status of Jainism as a distinct and oldest religion in India.along with views of great personalities of the world
हमारे अनेक हिन्दू धर्म के अनुयायी भाइयों को गलतफहमी है की जैन धर्म हिन्दू धर्म की उपशाखा है तथा जैन धर्म की प्राचीनता पर संदेह करते हुए हिन्दू धर्म को प्राचीनतम मानते है !उनसे विनम्र निवेदन है की निम्न लिखित लेख को पढ़े जिससे गलतफहमियां दूर हो सके !
Legal status of Jainism as a distinct religion in India - Wikipedia, the free encyclopedia
Jainism is considered to be the oldest religion in India.[1] Many misguided scholars consider it a reformist movement that is a part or sub-...sect of Hinduism, historically and legally.[2]
en.m.wikipedia.org
Legal status of Jainism as a distinct religion in India
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Asteya
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Gunasthana
Saṃsāra
Satya
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Rishabha
Pārśva
Mahavira
Acharya
Ganadhara
Siddhasena Divakara
Haribhadra
Major Sects
Digambara
Śvētāmbara
Texts
Kalpa Sūtra
Agama
Tattvartha Sutra
Nālaṭiyār
Other
Parasparopagraho Jivanam
Jain symbols
Jain flag
Timeline
Topics list
Schools and Branches
Festivals
Diwali
Mahavir Jayanti
Paryushana
Samvatsari
Jainism portal
Jainism is considered to be the oldest religion in India.[1] Many misguided scholars consider it a reformist movement that is a part or sub-sect of Hinduism, historically and legally.[2]
On January 20, 2014, the Government of India awarded the "national minority" status to the Jain community in India, as per Section 2(c) of the National Commission for Minorities (NCM) Act (NCM), 1992.[3]
Contents
History of Jain demand for minority status
Recommendation of National Minorities Commission
The Bal Patil Judgement
2014: National minority status granted
U.P. Basic Shiksha Parishad Judgment
Illustrations noted by the Supreme Court
Jawaharlal Nehru
Dr. S. Radhakrishnan
"Freedom of Religion Bill" controversy in Gujarat
Chronological order of various court judgments on Jainism as a separate religion
List of states in which Jains have been declared as minority
References
External links
§History of Jain demand for minority statusEdit
The Jain demand for minority status is almost a century old, when in British India the Viceroy and Governor General of India, Lord Minto took a decision in principle of giving representation to important minorities in the Central Legislature. Seth Manek Chand Hirachand from Mumbai, an eminent Jain leader from Mumbai and the then Acting President of the Bharatvarshiya Digamber Jain Subha made an appeal in 1909 to the Governor General for the inclusion of the Jain community for representation in the Council.[4] Seth Manek Chand's petition was transferred to the Government of Bombay and the Secretary to the Government of Bombay stated in his reply dated 15 October 1909 as follows:
"I am directed to inform you that a number of seats have been reserved for representation of minorities by nomination and that in allotting them, the claim of the important Jain Community will receive full consideration. "
In a Memorandum by the Representative of the Jain Community to the Constituent Assembly in March/April 1947 a strong appeal was made for the inclusion of the Jain community as a minority religious community.
In his speech on 3rd Sept.1949, Jawahar Lal Nehru said: No doubt India has a vast majority of Hindus, but they could not forget in fact there are also minorities Muslims, Christians, Parsis and Jains. If India were understood as Hindu Rashtra it meant that the minorities were not cent per cent citizens of the country:
Jainism is mentioned as a religion along with Buddhism and Sikhism in explanation II of the Article 25 of the India Constitution relating to Fundamental Right to religions freedom. On this issue Jawahar Lal Nehru, the then prime Minister, in his letter dated 31.01.1950 assured a Jain Deputation that they need not have any misgivings on this clear constitutional position.
The second stanza of Jana Gana Mana, Indian National Anthem clearly enunciates Jainism as a separate religious denomination in line with Hinduism, Islam and other religions.[5]
The Indian Supreme Court in 2005 ruled that Jains, Sikhs and Buddhist are part of broader Hindu fold, as they are Indic religions and interconnected to each other, although they are distinct religions.[6]
§Recommendation of National Minorities CommissionEdit
In 1993, the National Minorities Commission arrived at their recommendation that the Jain community be declared as a minority religious community.[7] It was in consideration of the following:
the relevant constitutional provisions,
various judicial pronouncements,
the fundamental differences in philosophy and beliefs (theism vs.atheism principally) vis-a-vis Hinduism, and
the substantial number of Jain population in the country.
It resolved to recommend to the Government of India that the Jains deserve to be recognised as a distinct religious minority, and that, therefore the Government of India may consider including them in the listing of "Minorities."[8]
§The Bal Patil JudgementEdit
See also: Bal Patil
In 2005, the Supreme Court of India declined to issue a writ of Mandamus towards granting Jains the status of a religious minority throughout India.[9] The Court however left it to the respective states to decide on the minority status of Jain religion.[10]
In one of the observations of the Supreme Court, not forming part of the judgment, the Court said:[11]
“ Thus, 'Hinduism' can be called a general religion and common faith of India whereas 'Jainism' is a special religion formed on the basis of quintessence of Hindu religion. Jainism places greater emphasis on non-violence ('Ahimsa') and compassion ('Karuna'). Their only difference from Hindus is that Jains do not believe in any creator like God but worship only the perfect human-being whom they called Tirthankar. Lord Mahavir was one in the generation of Thirthankars. The Tirathankars are embodiments of perfect human-beings who have achieved human excellence at mental and physical levels. In philosophical sense, Jainism is a reformist movement amongst Hindus like Brahamsamajis, Aryasamajis and Lingayats. The three main principles of Jainism are Ahimsa, Anekantvad and Aparigrah. ”
The Supreme Court also noted:[12] " … that the State Governments of Chhatisgarh, Maharashtra, Madhya Pradesh, Uttar Pradesh and Uttarakhand have already notified Jains as 'minority' in accordance with the provisions of the respective State Minority Commissions Act."
This cast a doubt on the independent standing of Jain religion. Scholars in the Jain tradition, as well as several groups amongst the Jain community protested, and emphasised that Jain religion stands as a religion in its own right. While Hinduism as a mode of living, and as a culture is to be found across various religions in India because of several common customs, traditions and practices, but as religions Hindu religion and Jain religion are distinct.
§2014: National minority status grantedEdit
On January 20, 2014, the Government of India awarded the minority status to the Jain community in India, as per Section 2(c) of the National Commission for Minorities (NCM) Act (NCM), 1992. This made the Jain community which makes for 7 million or 0.4 percent of the population as per 2001 census, the sixth community to be designated this status as a "national minority", after Muslims, Christians, Sikhs, Buddhists and Parsis. Though Jains already had minority status in 11 states of India including Uttar Pradesh, Madhya Pradesh, Chhattisgarh and Rajasthan, in 2005 a petition was filed with Supreme Court of India, by community representatives, which was also backed by the National Minorities Commission. In its judgement the court left the decision to the Central government.[3][13]
§U.P. Basic Shiksha Parishad JudgmentEdit
In 2006, the Supreme Court opined that "Jain Religion is indisputably is not a part of Hindu Religion".[14]
§Illustrations noted by the Supreme CourtEdit
Jainism and Other Religions: Illustrations noted by Supreme Court of India in the U.P. Basic Shiksha Parishad Judgment[14] (the para numbers refer to the paragraphs in the Judgment):
§Jawaharlal NehruEdit
Prime Ministers letter to jain delegation
On 3 September 1949, while addressing a public meeting at Allahabad, the first Prime Minister of India, Jawaharlal Nehru said:[15]
"No doubt India has a vast majority of Hindus, but they could not forget the fact that there were also minorities - Muslims, Parsis, Christians, Sikhs and Jains. If India was understood as a Hindu Rashtra, it meant that the minorities were not cent percent citizens of this country."
The said speech can be considered to be a clarification on Article 25 of the Constitution of India.
10.2 On 31 January 1950, the PPS to the then Prime Minister of India sent a letter to the Jain Deputation on behalf of the then Prime Minister, which reads as under: (See adjoining image for original letter)
"With reference to the deputation of certain representatives of the Jains, who met the Prime Minister on the 25 January 1950, I am desired to say that there is no cause whatever for the Jains to have any apprehensions regarding the future of their religion and community. Your deputation drew attention to Article 25, explanation II of the Constitution. This explanation only lays down a rule of construction for the limited purpose of the provision in the article and as you will notice, it mentions not only of Jains but also Buddhists and the Sikhs. It is clear therefore, there is no reason for thinking that Jains are considered to be Hindus. It is true that Jains in some ways closely linked to Hindus and have many customs in common, but there can be no doubt that they are a distinct religious community and constitution does not in any way affect this well recognized position.
Yours faithfully,
Sd.
A.V. Pai
Principal Private Secretary to the Prime Minister"
10.5 Jawaharlal Nehru, in his book Discovery of India, mentioned as under:
"Buddhism and Jainism were certainly not Hinduism or even the Vedic Dharma. Yet they arose in India and were integral parts of Indian life, culture and philosophy. A Buddhist or Jain, in India, is a hundred per cent product of Indian thought and culture, yet neither is a Hindu by faith. It is, therefore, entirely misleading to refer to Indian culture as Hindu culture."
§Dr. S. RadhakrishnanEdit
10.3 Dr. S. Radhakrishnan, the former President of India, in his book "Indian Philosophy Vol I" mentioned as under:
"The Bhagawat Purana endorses the view that Rishbhadeva was the founder of Jainism. There is evidence to show that so far back as the first century B.C. there were people who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana Mahaveera or Parsvanatha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras-Rishab, Ajitnath & Aristanemi."
15. Dr. Radhakrishnan, who edited the 6th Volume of The Cultural Heritage of India, mentioned as under:
"The Jains claim a great antiquity for their religion. Their earliest prophet was Rishabhdeva. Who is mentioned even in the Vishnu and Bhagawat Puranas as belonging to a very remote past. In the earliest Brahmanic literature are found traces of the existence of a religious Order."
§"Freedom of Religion Bill" controversy in GujaratEdit
The Freedom of Religion Bill was a controversial bill passed by the Gujarat state assembly. The bill was passed in 2003. An amendment to the bill was passed on 19 September 2006 which banned the forced conversion from one religion to another.[16] The Anti-Conversion Act passed earlier was not clear on what forced conversion meant and to whom should it apply. Under the amendment Bill, a person need not seek permission in case he/she is converting from one sect to another of the same religion. It clubbed Jainism and Buddhism as denominations of Hinduism, like Shia and Sunnis are of Islam or Catholicism and Protestantism of Christianity. The move evoked strong protests from the state's Jain, Buddhist and Christian communities.[17] [18] The National commission for minorities also criticised the Gujarat Assembly's decision to club Jainism and Buddhism with Hinduism terming it to be in contravention of its 23 October 1993, notification classifying Buddhists as a “minority community.”[19]
Ultimately on 31 July 2007, finding it not in conformity with the concept of freedom of religion as embodied in Article 25 (1) of the Constitution, Governor Nawal Kishore Sharma returned the Gujarat Freedom of Religion (Amendment) Bill, 2006.[20] The Governor held that Jainism and Buddhism are recognised as religions rather than denominations of Hinduism, something that the Amendment Bill sought to wrongly convey. A press release issued by Raj Bhavan, said “the proposed amendment would amount to withdrawing the protection against forceful or inappropriate religious conversions, particularly in case of Jains and Buddhists”. The release cited large scale protests from different religious and social organisations, especially from the Jain and Christian communities, in indicating toward the unacceptability of the proposed amendment.
§Chronological order of various court judgments on Jainism as a separate religionEdit
1927 - In 1927 Madras High Court in Gateppa v. Eramma and others reported in AIR 1927 Madras 228 held that "Jainism as a distinct religion was flourishing several centuries before Christ". Jainism rejects the authority of the Vedas which form the bedrock of Hinduism and denies the efficacy of the various ceremonies which Hindus consider essential.
1939 - In Hirachand Gangji v. Rowji Sojpal reported in AIR 1939 Bombay 377, it was observed that "Jainism prevailed in this country long before Brahmanism came into existence and held that field, and it is wrong to think that the Jains were originally Hindus and were subsequently converted into Jainism."
1951 - A Division Bench of the Bombay High Court consisting of Chief Justice Chagla and Justice Gajendragadkar in respect of Bombay Harijan Temple Entry Act, 1947 (C.A. 91 of 1951) held that Jains have an independent religious entity and are different from Hindus.
1954 - In The Commissioner Hindu Religious Endowments, Madras v. Sri Lakshmindra Thirtha Swamiar of Sri Shirur Mutt reported in AIR 1954 SC 282 this Court observed that there are well known religions in India like Buddhism and Jainism which do not believe in God, in any Intelligent First Cause. The Court recognized that Jainism and Buddhism are equally two distinct religions professed in India in contrast with Vedic religion.
1958 - In well known Kerala Education Bill's case, 1957 reported in AIR 1958 SC 956, this Court held that to claim the minority rights, the Community must be numerically a minority by reference to the entire population of the State or country where the law is applicable. In that way also, the Jain Community is eligible for the claim.
1968 - In Commissioner of Wealth Tax, West Bengal v. Smt. Champa Kumari Singhi & Others reported in AIR 1968 Calcutta 74, a Division Bench of the Calcutta High Court observed that "Jains rejected the authority of the Vedas which forms the bedrock of Hinduism and denied the efficacy of various ceremonies which the Hindus consider essential. It will require too much of boldness to hold that the Jains, dissenters from Hinduism, are Hindus, even though they disown the authority of the Vedas".
1976 - In Arya Samaj Education Trust, Delhi & Others v. The Director of Education, Delhi Administration, Delhi & Others reported in AIR 1976 Delhi 207, it was held as follows: "Not only the Constitution but also the Hindu Code and the Census Reports have recognized Jains to belong to a separate religion." In the said judgment, the Court referred to the observations of various scholars in this behalf. The Court quoted Heinrich Zimmer in "Philosophies of India" wherein he stated that "Jainism denies the authority of the Vedas and the orthodox traditions of Hinduism. Therefore, it is reckoned as a heterodox Indian religion". The Court also quoted J. N. Farquhar in Modern Religious Movements in India wherein he stated that "Jainism has been a rival of Hinduism from the beginning". In the said judgment, in conclusion, the Court held that "for the purpose of Article 30(1), the Jains are a minority based on religion in the Union Territory of Delhi".
1993 - In A.M. Jain College v. Government of Tamil Nadu (1993) 1 MLJ 140, the Court observed that it is also an admitted fact that the Jain community in Madras, Tamil Nadu is a religious and linguistic minority.
§List of states in which Jains have been declared as minorityEdit
Maharashtra (which has the largest population of Jains in India)
Karnataka
Gujarat
Madhya Pradesh
Uttar Pradesh
Jharkhand
Delhi[21]
Uttarakhand
West Bengal[22]
Andhra Pradesh [23]
Haryana
Tamil Nadu
Punjab [24][25]
Assam
Chatissgarh government denied minority status to jains on 19th June 2013 which was earlier granted by congress government. [26]
§ReferencesEdit
^ "Jainism". Encyclopædia Britannica. Along with Hinduism and Buddhism, it is one of the three most ancient Indian religious traditions still in existence. …While often employing concepts shared with Hinduism and Buddhism, the result of a common cultural and linguistic background, the Jain tradition must be regarded as an independent and oldest religion. It is an integral part of South Asian religious belief and practice, but it is not a Hindu sect or Buddhist heresy, as earlier scholars believed
^ "Hinduism" (– Scholar search). Encyclopædia Britannica. Jainism which always remained an Indian religion, Hinduism has few things in common, especially in social institutions and ritual life, that nowa days Hindus tried to integrate it as an Hindu sect because of Hindutva ideology. Many misguided Jains who are influenced by hindutva ideology are also inclined towards fraternization[dead link]
^ a b "Jains granted minority status". The Hindu. January 21, 2014. Retrieved 2014-01-21.
^ Manabendra Nath Roy (June 1999 reprint) The Radical Humanist vol 63, no. 3, p. 29 [1]
^ Aharaha tava ahvāna prachārita, śuni tava udāra vāni,Hindu-Bauddha-Śikha-Jaina-Pārasika-Musalmāna-Khristāni, Purava-paścima-āse tava singhāsana pāse, Prema-hāra haya gāmthā, Jana gana aikya vidhāyaka jaya he bhārata bhāgya vidhāta, Jaya he, jaya he, jaya he, jaya jaya jaya jaya he!
^ "Jains, Sikhs part of broader Hindu religion, says SC S.S. Negi Legal Correspondent".
^ National Minorities Commission - notification dated 23-10-1993
^ "Status of Jain Community". Ministry of Minority Affairs, Rajya Sabha (Press release). Press Information Bureau, Government of India. 7 May 2007. Retrieved 2008-09-11.
^ KN Goyal (13 February 2006). Are Jains Not In Minority? Think Again. Hindustan Times.
^ Syed Shahabuddin. "Minority rights are indivisible". The Tribune.
^ Appeal (civil) 4730 of 1999, Bal Patil & Anr. v. Union of India & Ors. Indian Supreme Court Decided on 08/08/2005
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^ "Eye on votes, UPA gives Jain community minority status". Hindustan Times. January 20, 2014. Retrieved 2014-01-21.
^ a b (para 25, Committee of Management Kanya Junior High School Bal Vidya Mandir, Etah, U.P. v. Sachiv, U.P. Basic Shiksha Parishad, Allahabad, U.P. and Ors., Per Dalveer Bhandari J., Civil Appeal No. 9595 of 2003, decided On: 21.08.2006, Supreme Court of India) [2][dead link]
^ Jawaharlal Nehru's speech reported in the English daily newspaper The Statesman dated 5 September 1949
^ "Freedom of Religion Bill passed". Times Now. 19 September 2006. Retrieved 2006-10-16.
^ "Religion Bill stirs up an unholy mess". Ahmedabad Newsline (Indian Express). 3 October 2006. Retrieved 2006-10-16.
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^ "Jains declared a religious minority". Deccan Chronicle. 9 March 2011. Retrieved 2011-03-09.
^ http://www.hindustantimes.com/Punjab/Ludhiana/Jain-community-gets-minority-status-in-Punjab/SP-Article1-1049375.aspx. Missing or empty |title= (help)
^ http://realinfo.tv/index.php?topic=24321.0
^ http://blog.jainee.com/2013/06/chhattisgarh-state-denied-minority.ht
http://jainisimusa.blogspot.com/2015/03/legal-status-of-jainism-as-distinct-and.html
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I hail from a very socially reputed ,relegious,kind ,generous family of land lords of Saharanpur,UP,India.We Have been maintaining own Bhagwaan chadra Prabhu temple
whih has recently been donated to the society ,after making its trust in the name od chandra prabhu bhagwaan jain digambar trust in the interest of general public.Our family has donated land/building and msaintained degree colleges/inter colleges /primery school till few years back without having any sort of interference in its management from the very begining of these institutes,About 10000-15000 students are educated every year in these institutes.
My father Sh Bireshwar Pd Jainhas served the jain samaj as honrary secretary for 20 years from 1980-2000,
Myself and mywife stay most of the time with our practicing CPA son in usa and for rest of the time we visit India to pass some time with our father and brothers,sisters!
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