रोग-निवारण ही नहीं, आत्मिक प्रगति हेतु करें प्राणायाम
प्राणायाम एक ऐसी क्रिया है, जिससे न सिर्फ प्राणवायु की अधिकतम आपूर्ति हमारे अंगों को होती है, वरन् अंतरंगों का भलीभाँति व्यायाम भी हो जाता है। इस प्रकार स्वास्थ्य की दृष्टि से यह उपयोगी तो है ही, इससे आत्मोन्नति भी संभव है। योग का यह एक निर्विवाद सत्य है।
सामान्य शरीर विज्ञान में मानव शरीर के अंदर काम करने वाली भिन्न-भिन्न प्रणालियाँ हैं। इनमें प्रमुख हैं- तंत्रिका तंत्र, ग्रंथि तंत्र, श्वसन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र एवं पाचन तंत्र। इन सभी पर प्राणायाम का गहरा प्रभाव पड़ता है। मल विसर्जन वाले अंगों में प्रधान हैं, आँतें, गुरदे एवं फेफड़े। इनमें से आँतें तथा गुरदे तो पेट के भीतर हैं और फेफड़े छाती के अंदर। आमतौर पर साँस लेने में उदर की माँसपेशियाँ क्रमशः ऊपर नीचे जाती हैं, जिससे आँतों और गुरदे का व्यायाम और मालिश होती रहती है। प्राणायाम में पूरक, रेचक तथा कुँभक करते समय यह व्यायाम तथा मालिश और भी अधिक स्पष्ट रूप से और अच्छी तरह होने लगती है। इससे यदि कहीं रक्त जमा हो गया हो, तो इस हलचल के कारण उस पर जोर पड़ने से वह हट सकता है। यही नहीं, आँतों और गुरदे की क्रियाओं को नियंत्रित रखने वाले स्नायु और माँसपेशियाँ भी सुदृढ़ हो जाती हैं।
यही बात फेफड़ों के साथ भी है। श्वसन क्रिया ठीक तरह चलती रहे, इसके लिए श्वासोपयोगी माँसपेशियों के सुदृढ़ होने और फेफड़ों के लचकदार होने की आवश्यकता है। शारीरिक दृष्टि से प्राणायाम द्वारा इन माँसपेशियों और फेफड़ों का संस्कार होता है और कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का भलीभाँति निष्कासन हो जाता है।
आहार का परिपाक करने वाले और रस बनाने वाले अंगों पर भी प्राणायाम का अनुकूल असर पड़ता है। अन्न के परिपाक में आमाशय, उसके पृष्ठ भाग में स्थित पैंक्रियाज और यकृत मुख्य रूप कार्य करते हैं। प्राणायाम में इन सबकी कसरत होती है। इस योगाभ्यास में डायफ्राम और पेट की माँसपेशियाँ बारी-बारी से खूब सिकुड़ती और फैलती हैं, जिससे पाकोपयोगी अंगों का अच्छी तरह व्यायाम हो जाता है। जिन्हें अग्निमाँद्य और कोष्ठबद्धता की शिकायत रहती है, उनमें से अधिकाँश लोगों के यकृत में रक्त जमा रहता है, फलतः उसकी क्रिया दोषयुक्त होती है। इस रक्त संचय को हटाने के लिए प्राणायाम एक उत्तम साधन है।
किसी भी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उसकी नाड़ियों में प्रवाहित होने वाले रक्त को ऑक्सीजन प्रचुर मात्रा में मिलती रहे। योगशास्त्र में बताई गई पद्धति के अनुसार प्राणायाम करने से रक्त को जितनी अधिक ऑक्सीजन मिल सकती है, उतनी अन्य किसी भी व्यायाम से नहीं मिलती। इसका कारण यह नहीं कि प्राणायाम करते समय व्यक्ति बहुत-सी ऑक्सीजन निगल लेता है, वरन् यह है कि उसके श्वासोपयोगी अंग समूह की अच्छी कसरत हो जाती है।
जो लोग अपनी श्वसन-क्रिया को ठीक करने के लिए किसी प्रकार का अभ्यास नहीं करते, वे अपने फेफड़ों के कुछ अंशों से ही साँस लेते हैं, शेष भाग निकम्मा पड़ा रहता है। इस प्रकार निष्क्रिय रहने वाले अंश बहुधा फेफड़ों के अग्रभाग होते हैं। इनमें वायु का संचार अच्छी तरह नहीं होता, फलतः टी.बी. के जीवाणु वहाँ आश्रय पाकर बढ़ने लगते हैं। यदि प्राणायाम के द्वारा फेफड़ों के हर भाग से काम लिया जाने लगे और उसका प्रत्येक कोष्ठक दिन में कई-कई बार शुद्ध हवा से धुल जाया करे, तो फिर इन जीवाणुओं का आक्रमण असंभव हो जाएगा और स्वास्थ्य संबंधी इन रोगों से बचा जा सकेगा।
प्राणायाम से पाक, श्वसन एवं मलोपयोगी अंगों की क्रिया ठीक होने से रक्त अच्छा बना रहता है। यही रक्त शरीर के समस्त अवयवों में पहुँचता है। यह कार्य रक्तवाहक अंगों का, विशेषकर हृदय का है। रक्त संचार से संबंध रखने वाला प्रधान अंग हृदय है और प्राणायाम द्वारा उसके अधिक स्वस्थ हो जाने से समस्त रक्तवाहक अंग अच्छी तरह काम करने लगते हैं।
परंतु बात यहीं समाप्त नहीं होती। भस्त्रिका प्राणायाम में, विशेषकर उसका वह हिस्सा, जो कपालभाति से मिलता-जुलता है, वायवीय स्पंदन शरीर के प्रत्येक स्थूल-सूक्ष्म अवयव को, यहाँ तक कि अगोचर स्तर की नाड़ियों एवं शिराओं को झकझोरकर रख देता है। इस प्रकार प्राणायाम से सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अवयवों की क्रियाशीलता बढ़ जाने से वह ठीक प्रकार से काम करने के योग्य बन जाते हैं।
नाड़ी शोधन प्राणायाम में शरीर की सूक्ष्म नाड़ियाँ मल-विक्षेपों से मुक्त होने लगती हैं। यह इस प्राणायाम का अतिरिक्त लाभ है, कारण कि अंतरंगों का व्यायाम इससे भी उसी तरह होता है, जैसा अन्य प्राणायामों से, पर नाड़ियों की शुद्धि सिर्फ इसी से हो पाती है।
भ्रामरी प्राणायाम से शरीर के अंतरंगों की मालिश के अतिरिक्त भ्रमरनाद से जो कंपन उत्पन्न होता है, उससे पूरे मुखमंडल की माँसपेशियों का व्यायाम हो जाता है। इस स्थूल लाभ के अतिरिक्त उससे मानसिक एकाग्रता एवं प्राण की स्थिरता संबंधी सूक्ष्म लाभ भी मिलते हैं।
शीतली प्राणायाम से दूसरे लाभों के अलावा देह को शीतलता मिलती है। यह उष्ण प्रकृति वाले लोगों के लिए विशेष लाभकारी है। उज्जायी प्राणायाम में कंठ की मांसपेशियों की कसरत होती है। यह पेट के रोगों में उपयोगी है। लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम से साँस के साथ खींचा हुआ प्राण नाभि में स्थित सूर्यचक्र को जाग्रत् करता है, उसके आलस्य और अंधकार को वेधता है। इससे सूर्यचक्र उद्दीप्त होकर अपनी परिधि का भेदन करते हुए सुषुम्ना मार्ग में उदर, छाती और कंठ तक अपना तेज फेंकता है। इसी कारण इसे सूर्यवेधन प्राणायाम कहते हैं।
प्राणाकर्षण प्राणायाम से सामान्य लाभों के अतिरिक्त शरीर में प्राण की मात्रा बढ़ने लगती है। इस बढ़ते प्राण से शरीर-स्वस्थता भी बढ़ने लगती है और व्यक्ति मनोबल संपन्न बन जाता है। मनोबल बढ़ने से, जिन कार्यों में इसकी कमी से दूसरे लोग असफल सिद्ध होते हैं, वही सफलता उसके चरण चूमने लगती है। इसके अलावा अभ्यासी चैतन्यता, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम जैसे तत्त्वों से भी ओत−प्रोत हो जाता है।
प्राणायाम से मस्तिष्क और मेरुदंड को भी बल मिलता है। शरीरविज्ञानी इस विषय में एकमत हैं कि साँस लेते समय मस्तिष्क में से दूषित रक्त प्रवाहित होता है और शुद्ध रक्त उसमें संचरित होता है। यदि साँस गहरी हो, तो दूषित रक्त एक साथ बह निकलता है और हृदय से जो शुद्ध खून वहाँ आता है, वह और भी परिशुद्ध होता है। प्राणायाम का यह विधान है कि उसमें साँस गहरी-से-गहरी ली जाए। इसका परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क से सारा दूषित खून बह जाता है। योग उड्डियान बंध को हमारे सामने प्रस्तुत कर इस स्थिति को और भी स्पष्ट कर देने की चेष्टा करता है। इस बंध से हमें इतना अधिक शुद्ध रक्त मिलता है, जितना किसी श्वास संबंधी व्यायाम से नहीं। प्राणायाम से जो हमें स्फूर्ति और बल प्राप्त होता है, उसका यही वैज्ञानिक कारण है।
मेरुदंड एवं उससे संबंधित स्नायुओं के संबंध में हम देखते हैं कि इन अंगों के चारों ओर रक्त की गति साधारणतः मंद होती है। प्राणायाम से इन अंगों में रक्त की गति बढ़ जाती है। और इस प्रकार इन्हें स्वस्थ रखने में प्राणायाम सहायक होता है।
योग में कुँभक करते समय मूल, उड्डियान और जालंधर तीन प्रकार के बंध करने का निर्देश है। इन बंधों का अभ्यास करने से पृष्ठवंश की, जिसके अंतर्गत मेरुदंड आता है तथा तत्संबंधी स्नायुओं की उत्तम रीति से कसरत हो जाती है। इन बंधों के करने से पृष्ठवंश को यथास्थान रखने वाली माँसपेशियाँ और उनकी तंत्रिकाएँ फैलती और संकुचित होती है। इससे इनमें रक्तसंचार बढ़ जाता है। बंध यदि न भी किए जाएँ, तो भी प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया ही ऐसी है कि उससे पृष्ठवंश पर ऊपर की ओर हल्का-सा खिंचवा पड़ता है, जिससे मेरुदंड तथा संबंधित स्नायुओं को स्वस्थ रखने में सहायता मिलती है।
प्राणायाम से दे हके विभिन्न हिस्सों और अवयवों पर दबाव पड़ता है। इस दबाव से उस क्षेत्र का रक्तसंचार बढ़ जाता है। खून के दौरे सुव्यवस्थित हो जाने से उन अंगों की स्वस्थता भी प्रभावित होती है। इसी के साथ व्यक्ति धीरे-धीरे आत्मविकास करते हुए अंततः चरम लक्ष्य तक जा पहुँचता है। प्राणायाम एक हानिरहित योगाभ्यास है। सभी को प्राणशक्ति की उपलब्धि के लिए इसे नियमित रूप से करना चाहिए।
अखण्ड ज्योति जनवरी 2001
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