Thursday, 9 November 2017
योगेश्वर का प्राचीन राजयोग


योगेश्वर का प्राचीन राजयोग
By: ब्रह्म कुमारीज
योगेश्वर का प्राचीन राजयोग
ब्रह्माकुमार राम लखन, शान्तिबन, आबूरोड (राज)
योग का अर्थ ही है जोड़-सम्बन्ध या मिलन। दुनियावी सम्बन्धों के लाभ-हानि से तो सभी परिचित हैं। सच में परमात्मा से आत्मा का स्मृति द्वारा मिलन ही सर्वोच्च योग है। इसी से आत्मायें परमात्मा समान विश्व हितकारी सो विश्व महाराजन तक बन सकती हैं। सारी चाहतें उस एक से ही मिट सकती हैं। गुणां के सागर से योग लगाने पर हमारे शुभ मन का तन पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसी प्राचीन भारतीय राजयोग में मगन रहने से, पावर हाउस से बैटरी के चार्ज होने की तरह सुप्रीम पावर हाउस शिव बाबा से आत्मायें चार्ज हो जाती हैं। पतित पावन परमात्मा से जुड़कर आत्मा जितनी-जितनी पावन बनती, पवित्रता-सुख-शान्ति-आनंद उतना ही उसके गले का हार बनता जाता है। फिर तो अन्य अनेकानेक रिद्धियाँ-सिद्धियाँ भी उसे हस्तगत होने लगती हैं। बैटरी का निगेटिव-पाजिटिव तार जितना समय पावर हाउस से जुड़ा रहता उतनी ही वह चार्ज होती है। इसी ही प्रकार हमारे मन -बुद्धि रूपी तार जितना- जितना परम पिता परमात्मा की याद में मगन रहते तो आत्मा भी उतनी गुण-शक्ति सम्पन्न होकर चारों युगों में उच्च पद की अधिकारी बनती है।
अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के उपलक्ष में योग शब्द का प्रयोग विश्व भर में अलग-अलग तरीके से किया जा रहा है। जबकि भारतीय प्राचीन राजयोग प्राय लोप हो गया है। योग शास्त्र कही जाने वाली सर्व शास्त्र शिरोमणि गीता में आसन- प्राणायाम,ब्रत-उपवास या मुद्रा को कहीं भी योग नहीं कहा गया है। गीता में आत्मा और परमात्मा का ही विस्तृत वर्णन है। सदगुणी जीवन, शुद्ध भोजन, ब्रह्मचर्य तथा कार्य -व्यवहार में कमलवत उपरामता के लिए ही निर्देश दिये गये हैं। नष्टोमोहा बनकर ईश्वरीय स्मृति से परमानन्दमय जीवन बनाने को ही विजयी बनना बताया है। योग से कर्मों में कुशलता ही इसका मूल सिद्धान्त है। बाकि कहे भी तीर-तलवार, गदा-भाला वाली लड़ीई का उल्लेख नहीं है। हर कोई अपने द्वारा सिखाये जा रहे योग को सर्व श्रेष्ठ घोसित कर रहे हैं परन्तु जो फल गीता में वर्णित राजयोग का है, उसे ही व्यवहारिक जीवन में उतारने के लिए विश्वव्यापी ब्रह्माकुमारी संस्थान दिन -रात प्रयत्नशील है। दूसरे योग तो विनाशी शरीर को ही सुगढ़ - सुन्दर और स्वस्थ बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। जबकि अवगुणी या सतगुणी होने पर शरीर नहीं आत्मा ही पापात्मा या देवात्मा कहलाती है। जिस प्राचीन भारतीय राजयोग को सिखलाने के लिए स्वयं सर्वशक्तिवान, आदित्यवर्ण, योग-योगेश्वर भगवान को धरा पर खुद अवतरित होना पड़े, भला उस योग से श्रेष्ठ दूसरा योग कैसे हो सकता है?
हम चेतन प्राणी हैं और हमारी चेतना शरीर में नहीं; आत्मा में ही है। अविनाशी आत्मा के शरीर से निकलते ही जड़ शरीर को जला या दफना दिया जाता है। परम चैतन्य परमात्मा भी आत्माओं की ही तरह इतने सूक्ष्म हैं कि ऑखो से देखा नहीं जा सकता है। हाँ, बुद्धि रूपी नेत्रांs से अनुभव किया जा सकता है। विशाल सृष्टि में हम आत्माओं का परम पिता परमात्मा के साथ कल्प-कल्पान्तर खेल चला ही करता है। योग तो अनेकों प्रकार के हैं परन्तु प्राचीन भारतीय योग की महिमा सारे विश्व में है क्योंकि परमात्मा के साथ हम आत्माओं के योग युक्त होने पर तमोप्रधान-दुःखदायी दुनिया फिर से सतोप्रधान-परम सुखदायी स्वर्ग बन जाती है।
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