Tuesday, 14 November 2017

संजीवन विद्या का महान प्रशिक्षण

All World Gayatri Pariwar 🔍 PAGE TITLES March 1964 संजीवन विद्या का महान प्रशिक्षण संसार में जितने भी प्रसाधन हैं उनका उपयोग जीवन को सुखी बनाने के लिए किया जाता है। उस सम्बन्ध में ज्ञान और विज्ञान का अन्वेषण एवं प्रशिक्षण सर्वत्र तीव्र गति से हो रहा है, पर वह जीवन जिसके लिए यह सब हो रहा है किस प्रकार जिया जाय इस ज्ञान के सम्बन्ध में चारों ओर अन्धकार ही दिखाई पड़ता है। छोटे-मोटे उद्योग और श्रम संस्थाओं तक में ट्रेण्ड लोगों की आवश्यकता होती है। स्कूलों में ट्रेण्ड अध्यापक रखे जाते हैं। रेल तार, डाक, पुलिस फौज आदि सभी विभागों में ट्रेनिंग एक अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती है। इसके बिना उन कार्यों को ठीक तरह कर सकना बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए भी संभव नहीं हो सकता। यही बात जीवन जीने के संबन्ध में भी लागू होती है। सभी शिल्प उद्योगों, कला कौशलों और सरकारी क्रिया-कलापों की अपेक्षा जिन्दगी जीना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय हैं। इसकी ट्रेनिंग की कोई सुव्यवस्था न हो तो उसे फूहड़ मन से जिये जाने की ही सम्भावना रहेगी। आज अशिक्षितों की तो कौन कहे सुशिक्षित धनी बुद्धिमान और सत्ताधिकारी व्यक्तियों में से भी ऐसे बहुत कम दिखाई पड़ते हैं जो जिन्दगी जीना ठीक प्रकार जानते हैं। जीवन कला की जानकारी के अभाव में अधिकाँश व्यक्ति दीन, दुखी और पतित स्थिति में पड़े हुए मौत के दिन पूरे करते हुए देखे जाते हैं। यह मान्यता सही नहीं कि जिसके पास धन ऐश्वर्य अधिक होगा वह सुखी रहेगा वरन् सच तो यह है कि जिसे जिन्दगी जीना आता होगा वह स्वल्प साधनों में भी आदर्श आनन्द और उल्लास के साथ रह सकेगा। ऋषियों ने स्वेच्छा से गरीबी का वरण करके लोगों को यह सिद्ध किया था कि कितनी साधन-हीन स्थिति में रहते हुए कितनी उच्चकोटि की प्राप्ति कर सकना सम्भव हो सकता है। संसार में जितने भी ज्ञान, कला और कौशल हैं उनमें सर्वोपरि स्थान जीवन कला का है। जिसे यह आती है उसे हर घड़ी हर परिस्थिति में केवल आनन्द, उल्लास और सन्तोष का स्वर्गीय सुख ही मिलता रह सकता है। दुःख इसी बात का है कि बुद्धिमान समझा जाने वाला मानव-प्राणी जीवन विद्या की उपयोगिता और आवश्यकता को न तो अनुभव कर रहा है और न उसके लिए कोई प्रयत्न ही इस दिशा में चल रहे हैं। अनेक विषयों की शिक्षा के अनेकों विद्यालय मौजूद हैं। पर जीवन जीने की कला सिखाने वाला एक भी विद्यालय कहीं न हो यह कितने आश्चर्य और खेद का विषय है। प्राचीन काल में प्रत्येक गुरुकुल इसी शिक्षा का उद्देश्य पूरा करता था। पुस्तकीय ज्ञान तो उतना ही रहता था जितना सामान्य जीवन में काम आवे शेष तो वहाँ सब कुछ वही सिखाया-पढ़ाया जाता था। जिसके आधार पर मनुष्य अपनी प्रत्येक समस्या को सुलझाने, प्रत्येक कठिनाई का पार करने और प्रत्येक परिस्थिति में आगे बढ़ने में सफल हो सके। आज उस प्रकार की शिक्षा का कोई प्रबन्ध कहीं भी न होने से मानव जाति की कितनी बड़ी हानि हो रही हैं इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। राष्ट्र-निर्माण के लिए जैसा समाज बनाना है वह परिवार निर्माण के आधार पर ही तो बनेगा। जिस प्रकार परिवारों के समूह का नाम समाज है, इसी प्रकार व्यक्तियों के समूह को परिवार कहते हैं। परिवार व्यक्तियों के समूह से बनता है। इसलिए व्यक्ति निर्माण से परिवार निर्माण और उससे समाज निर्माण, राष्ट्र-निर्माण या युग-निर्माण का उद्देश्य पूरा हो सकता हैं। व्यक्ति-निर्माण के द्वारा ही हम राष्ट्र-निर्माण के लक्ष तक पहुँच सकते हैं। व्यक्ति-निर्माण के लिए इस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा नितान्त आवश्यक है जिसके आधार पर मानव-जीवन का उद्देश्य, गौरव, सदुपयोग एवं व्यवहार समझा जा सके और उसे दैनिक व्यवहार में कैसे उतारा जाय, यह सीखा जा सके। नई पीढ़ी का भारत-निर्माण कर सकने में वे माता-पिता ही समर्थ होंगे जिनने जीवन कला को सीखा समझा होगा। परिवार में ऐसा श्रेष्ठ वातावरण रख सकना इन जीवन-दर्शन के ज्ञाता दंपत्ति के लिए ही संभव होगा जिसमें पले हुए बालक युग-निर्माण एवं महा मानव के रूप में अपना यश अजर अमर रख सकें। युग-निर्माण का महा अभियान करते हुए हमें संजीवन विद्या की सर्वांगपूर्ण शिक्षा व्यवस्था का प्रबन्ध भी करना ही पड़ेगा। मोटे रूप से इन विषयों की भूमिका मात्र समझा देने से, पर आज की परिस्थितियों में किस व्यक्ति को, कौन आदर्श, किस प्रकार जीवन में उतारना चाहिए इसकी बारीकियाँ जब तक न समझाई जायगी, कार्यान्वित करने के व्यावहारिक तरीके जब तक न समझाये जाएंगे तब तक महानता के मार्ग पर चलने में जो अड़चनें आती हैं उनको सुलझाया न जा सकेगा। इसलिए ऐसे प्रशिक्षण की अनिवार्य आवश्यकता है जिससे व्यक्तिगत जीवन की असंख्य समस्याओं को सुलझाने और प्रगति-पथ पर वस्तुतः बढ़ चलने का मार्ग प्रशस्त हो सके। हमारे मस्तिष्क में एक ऐसे विश्वविद्यालय की कल्पना है जिसमें चार वर्ष का पाठ्यक्रम हो। उसमें मानव-जीवन की प्रत्येक कठिनाई को हल करने और हर परिस्थिति के व्यक्ति को अपने ढंग से आगे बढ़ने के लिए जो भी मार्गदर्शन आवश्यक हो, वह सब उस अवधि में सिखा दिया जाय। बिगड़े हुए स्वास्थ्य को कैसे सुधारा जाय और सुधारे स्वास्थ्य को कैसे बढ़ाया जाय इस सम्बन्ध में शरीर की भीतरी और बाहरी जानकारी चिकित्सा, परिचर्या, आहार, व्यायाम आदि प्रत्येक स्थिति के उपयुक्त परिपूर्ण जानकारी कराई जाय। खेल-कूद, शस्त्र संचालन, तैरना, घुड़सवारी आदि सभी बातें उस शिक्षार्थी को भली-भाँति अभ्यास में रहनी चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए चिन्ता, भय, निराशा, शील, आवेश, उत्तेजना, ईर्ष्या, कुढ़न, अहंकार आदि कुविचारों से बचने और यदि वे अभ्यास में आ गये हों तो उन्हें किस प्रकार हटाया जाय इसी मनोविज्ञान के अनुरूप ऐसी विधियाँ बताई जायं जिससे मानसिक दुर्गुणों को सरलतापूर्वक समाधान हो सके। इसी प्रकार स्वभाव में मधुरता, सहनशीलता नम्रता, सज्जनता का समावेश कैसे हो और आशा, उत्साह, साहस, धैर्य, दूरदर्शिता, उदारता, संयम, नियमितता जैसे श्रेष्ठ गुण कैसे अभ्यास में आवें इसका क्रियात्मक साधन कराके शिक्षार्थी को इस योग्य बनाया जाय कि उसे मनस्वी एवं श्रेष्ठ पुरुषों की श्रेणी पुरुषों की श्रेणी में गिना जा सके। इन्द्रियाँ जहाँ हमारे लिए अभिन्न मित्र हैं, वहाँ असंयत होने पर वे शत्रु का रूप धारण कर लेती हैं। स्वास्थ्य को नष्ट और मन को उद्विग्न करके मनुष्य को किसी काम का नहीं छोड़ती। असंयत जिह्वा इन्द्री और कामेन्द्री ने कितने होनहारों को धूलि चाटने के लिए विवश कर दिया इसकी बड़ी विषम करुण कथा है। इन्द्रियाँ के उफान को कैसे रोका जाय और संयमी रहकर कैसे तेजस्वी मनस्वी बना जाय उसका उपायों समेत विधान जानकर कोई उस मार्ग पर चले तो गृहस्थ रह कर भी योगी तपस्वियों की तरह शरीर और मन से परिपुष्ट बना जा सके। समय का वर्गीकरण, विभाजन, दिनचर्या, कार्यक्रम एवं व्यवस्था बनाकर एक-एक क्षण का कैसे सदुपयोग किया जाय, जिससे महापुरुषों की भाँति इन 24 घण्टों में ही इतनी प्रगति की जा सके कि दूसरों को जादू एवं देवी वरदान की तरह प्रतीत हो। हर वस्तु की उचित व्यवस्था रखी जाय तो वह बहुत दिन टिकेगी और सुन्दर रहेगी। धन को बजट बना कर खर्च किया जाय, एक-एक बाई के सदुपयोग का ध्यान रखा जाय तो कम आमदनी में तो बहुत व्यवस्थित सन्तुष्ट एवं विकसित जीवन जिया जा सकता है। फिजूलखर्ची को परले सिरे की मूर्खता मान कर उसे कठोरतापूर्वक रोकना ही बुद्धिमानी है। सफाई सुन्दरता का सबसे सस्ता, सरल और श्रेष्ठ तरीका है। शरीर, वस्त्र, मकान, सामान आदि सभी की स्वच्छ सुन्दर और कलात्मक रखा जाय तो अभिनव आकर्षण इन्हीं अपनी दैनिक वस्तुओं में से फूट पड़ेगा। इन तथ्यों को कई लोग जानते तो हैं पर उन्हें स्वभाव का अंग नहीं बना पाते। चाहते तो हैं कि हम इस प्रकार के बनें पर वैसा हो नहीं पाता। प्रस्तावित विश्वविद्यालय में इन सभी विषयों का मनोविज्ञान, शरीर शास्त्र, समाज शास्त्र, नीति एवं विज्ञान के आधार ऐसा प्रशिक्षण दिया जाय कि व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बनाने के मार्ग की बाधाओं को आसानी से हल किया जा सके। आस्तिकता को भिखमंगापन का आडम्बर रचने की वस्तु न रहने देकर आत्मा को महानात्मा परमात्मा बनने की, नर को नारायण रूप में परिणित करने की प्रचंड प्रक्रिया बनाया जा सकता है। पर आज तो वह उतने विकृत रूप में है कि पूजा पाठ करने वालों की मानसिक एवं अन्य प्रकार की स्थिति और भी गई बीती होती है जब कि होना यह चाहिए था कि उपासना करने वाले का आत्मबल दूर से ही चमकता और वे स्वभावतः दूसरे लोगों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट दृष्टिगोचर होते। पर वे वैसे होते नहीं इससे यही सिद्ध होता है कि उनकी आस्तिकता असली नहीं नकली है। असली आस्तिकता का स्वरूप और साधन सीखा जा सके, ऐसी शिक्षा को जिस विद्यालय में सिखाया जा सके वह निश्चय ही बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। वासना, तृष्णा, आलस्य एवं पाप तापों से मुक्त जीवन ही परलोक में मुक्ति का माध्यम बन सकता है। जिसने उस लोक में अपने लिए स्वर्गीय परिस्थितियां बना ली, उस लोक में वे ही स्वर्ग प्राप्ति के अधिकारी होंगे। देवताओं के अनुग्रह के अधिकारी वे बनेंगे जो देवताओं के अनुमोदित मार्ग पर चल रहे होंगे। ईश्वर की कृपा उन्हें मिलेगी जिन्होंने घट-घट वासी परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा और सद्भावनाओं का परिचय दिया होगा। उपासना में कर्मकाण्ड नहीं आन्तरिक शुद्धि की प्रधानता मानी जाती है। इन तथ्यों को यदि भली प्रकार समझा जा सके तो परलोक बनाने के इच्छुक, सद्गति पाने के अभिलाषी भ्रम जंजालों से निकल कर उस मार्ग पर चलें जिस पर चलने से वस्तुतः आध्यात्मिक प्रगति का आनन्द मिल सकता है। ऐसा सद्ज्ञान ही किसी को अध्यात्म के प्रत्यक्ष सत्परिणामों से समुचित रीति से लाभान्वित कर पायेगा। इस अभाव की पूर्ति के लिये शास्त्रों और ऋषियों की आदि परम्पराएं जिस विद्यालय में सिखाई जायें उसी से आध्यात्मवाद की सच्ची सेवा बन पड़ेगी। माता-पिता और वयोवृद्धों का सम्मानपूर्ण परिपालन, भाई-बहिनों के प्रति राम भरत जैसा स्नेह जिस घर में न रहे उसे प्रेत पिशाचों का निवास, श्मशान ही कहा जायेगा। गृहस्थ का स्वर्ग वहीं है जहाँ पति-पत्नी के बीच अटूट विश्वास, स्नेह, सद्भाव रहता है। एक दूसरे के पूरक अंग बनकर रहते हैं और एक दूसरे की त्रुटियों को निबाहते हुए उसे उदारता, क्षमा, सहिष्णुता एवं सहायता की भावना रखते हुए ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने का प्रयत्न करते रहते हैं। जिस घर की अर्थ व्यवस्था पर पत्नी का नियन्त्रण रहता है उस घर से लक्ष्मी कभी विदा नहीं होती। जहाँ मत भेद के कारणों पर खुले जी से विचार विनियम होता रहता है और समस्याओं को सुलझाने के लिए समाधान किये जाते रहते हैं वहाँ न तो मनोमालिन्य रह सकता है और न असन्तोष पनप सकता है। जिन घरों में मुस्कान, विनोद, आशा और उत्साह की धाराएँ चेहरों पर थिरकती रहती हैं वहाँ कोई भी अभाव अखरता नहीं। बालकों का शरीर तो माता-पिता के शरीरों में से बनता ही है साथ ही उनका मन स्वभाव, एवं आदर्श भी बहुत कुछ उन्हीं की मनोभूमि में से बन आता है। पाँच वर्ष की उम्र तक बालक अपने स्वभाव और संस्कारों का आधा भाग परिपक्व कर चुका होता है। उसे यह शिक्षण किसी प्रवचन से नहीं वरन् अभिभावकों के स्वभाव संस्कारों से उपलब्ध होता है। इसलिए विचारशील माता-पिता का कर्तव्य हो जाता है कि वे आहार-विहार पालन-पोषण का व्यावहारिक ज्ञान तो रखें ही साथ ही अपने आपको उन सद्गुणों से सम्पन्न भी करें जिन्हें बालकों में देखने की उनकी इच्छा है। सुसन्तति का निर्माण अपने आप में एक अत्यन्त विशद् गम्भीर और महत्वपूर्ण विकास है। इसकी जानकारी न होने से कुसंस्कारी सन्तान से प्राप्त होने वाले दुःखों को अभिभावक भोगते हैं और अपनी नादानी का पश्चाताप मरते-मरते तक करते रहते हैं। कोई विद्यालय यदि गृहस्थ को स्वर्ग की तरह रचना कर सकने की शिक्षा दे सके तो निःसन्देह उससे पृथ्वी पर स्वर्ग के अवतरण की भूमिका ही प्रस्तुत हो सकती है। चारों और फैली हुई दृष्टता को सहन नहीं किया जा सकता है। भलमनसाहत को कमजोरी मानकर गुण्डागर्दी और भी पनपती है इसलिए उसके शमन के लिए संघर्ष भी आवश्यक है। सरकार ने कानून, पुलिस, न्यायालय, जेल, फाँसी आदि की व्यवस्था दुष्टता से निपटने के लिए बनाई है पर इतना ही पर्याप्त नहीं, जनता को भी उससे निपटने का संघर्ष करना होता है। अन्यथा वह कानून की पकड़ से बचकर आतंक के सहारे अपनी जड़ जमाये बैठी रहती है। दुष्टता के विरुद्ध संघर्ष का भी, सीमा-शत्रुओं से लड़ने की तरह एक विशेष युद्ध-शास्त्र है जिसमें साम, दाम, दण्ड, भेद के चारों हथियार प्रयोग करने पड़ते हैं। इस युद्ध-विद्या की जानकारी न होने पर गुंडों को परास्त करना कठिन पड़ता है जीवन-विद्या में यह ज्ञान भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसलिए उसका प्रशिक्षण भी आवश्यक है। ऊपर जिन विषयों की चर्चा की गई है उनके अतिरिक्त भी अनेक विषय ऐसे हैं जिनकी शिक्षा उस व्यक्ति को प्राप्त करनी ही चाहिए जो मनुष्य-जीवन को सार्थक बनाने का इच्छुक हो। ऐसा एक विश्वविद्यालय देश में होना ही चाहिए जो सच्चे मनुष्य, बड़े मनुष्य, महान मनुष्य, सर्वांगपूर्ण मनुष्य बनाने की आवश्यकता पूर्ण कर सके। माना कि आज हर आदमी अपने बच्चों को नौकरी कराने के लिए पढ़ाता है। सरकारी डिग्रियों को ही कुछ मूल्य माना जाता है। फिर भी ऐसे समझदार लोग अभी दुनिया में बाकी हैं जो यह सोचते हैं कि उनका बालक यदि मानवीय गुणों से संपन्न हुआ तो किसी भी प्रकार अपनी आजीविका उनसे अच्छी तरह कमा लेगा जो ग्रेजुएट बनने के बाद तरक्की करते हुए सड़ी-गली जिन्दगी बिताते रहते हैं। फिर कुछ लोग ऐसे भी तो हैं जिनके पास कृषि, उद्योग आदि ऐसे काम मौजूद हैं जिन्हें करते हुए उनके बच्चे सुविधापूर्वक निर्वाह कर सकें। इस प्रकार के लोगों तो यह संजीवनी शिक्षा का प्रशिक्षण अपने बच्चों के लिए उपयोगी समझ ही सकते हैं। सोचा यह जा रहा है कि 16 से 20 वर्ष तक के किशारों को चार वर्ष तक उपरोक्त शिक्षा दी जाय। यही आयु बनने बिगड़ने की होती है। यह चार वर्ष जो जीवन निर्माण का शिक्षण प्राप्त करके और उसके उपयुक्त वातावरण में रहे हुए बिता लेगा वह अपने परिवार के लिए समस्त समाज के लिए आशा का केन्द्र ही बनकर निकलेगा। 16 वर्ष की आयु में आमतौर से जूनियर हाई-स्कूल मिडिल तक की शिक्षा पूरी हो जाती है। इससे आगे को भाषा, गणित, इतिहास, संस्कृत, अंग्रेजी, साइन्स, व्यापार, कानून, लेखन, भाषण, व्यायाम सामान्य ज्ञान का ऐसा पाठ्यक्रम हो, जो जीवन में काम आने वाले विविध विषयों का इतना ज्ञान करा सके जो वर्तमान बी.ए. स्तर की अपेक्षा कम नहीं वरन् बढ़कर ही हो। शिक्षा की फीस न हो। खाने-पीने का खर्च छात्र स्वयं उठावें। अनुभवी विद्वान् वानप्रस्थी निःशुल्क रूप से शिक्षा कार्य करें। छात्रों के रहन-सहन और आचार व्यवहार पर सर्वोपरि ध्यान रखा जाय। जीवन-विद्या के हर पहलू पर गहरा अध्ययन करने के बाद शिक्षा क्रम पूरा कर लेने पर यह छात्र बीस वर्ष की आयु में अपने घर का काम सँभालेंगे तो उनसे उनका परिवार एवं कारोबार चमक उठेगा। यदि वे इस विश्वविद्यालय से संबंधित देशव्यापी अगणित विद्यालयों में अध्यापक का कार्य करना चाहेंगे तो भी उनकी आवश्यकता रहेगी ही। इस प्रकार सरकारी डिग्री से वंचित रह जाने पर भी जीवन विद्या विश्वविद्यालय में चार साल तक पढ़े हुए छात्रों का यह शिक्षण निरर्थक गया हुआ न समझा जायगा। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक-थ्योरी और प्रेक्टिस-का सर्वांगपूर्ण पाठ्यक्रम बनाना होगा। उसके लिए ग्रन्थों का चुनाव तथा शिक्षण पद्धति और प्रणाली का निर्माण करने की आवश्यकता होगी। कार्य कठिन है पर उसे किए बिना कोई गति नहीं। सरकार ऐसी प्रणाली आसानी से बना सकती थी पर उससे आज की परिस्थितियों में कुछ विशेष आशा नहीं की जा सकती। फिर यह जरूरी नहीं कि हर कार्य सरकारी ही हो। गैर सरकारी क्षेत्र भी बहुत कुछ कर सकते हैं। संजीवन विद्या की शिक्षा का एक सर्वांगपूर्ण विश्वविद्यालय ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार भी चला सकता है। इसके लिए धन की नहीं भावनाओं की आवश्यकता है। भावनापूर्ण परिजन यदि चाहेंगे तो यह शिक्षण-पद्धति एक स्थान से आरम्भ होकर देश-व्यापी रूप में विस्तृत होकर युग-निर्माण के उपयुक्त वातावरण उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हो सकेगी। एक-एक महीने के शिक्षण शिविर युग निर्माण के लिए उपयुक्त शिक्षा देने वाले विश्व विद्यालय की रूप-रेखा पिछले लेख में दी गई है। वह बड़ी विद्यालय की रूप-रेखा पिछले लेख में दी गई है। वह बड़ी चीज है, इसलिए उसकी तैयारी में कुछ समय लग सकता है। फिर वह किशोर छात्रों के ही उपयुक्त हैं। जिनके ऊपर परिवार के संचालन एवं कमाने का उत्तरदायित्व है वे इतने समय तक अपने काम से छुट्टी नहीं पा सकते। ऐसे लोगों के लिए एक महीने के जीवन-विद्या शिविरों की योजना बनाई गई है। परिवार के प्रत्येक सदस्य को इसके लिए आमंत्रित किया जायगा कि वह अपनी पत्नी समेत एक महीने आकर मथुरा रहे और संक्षिप्त रूप से जीवन के हर पहलू को सुन्दर एवं सुविकसित बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करे। छात्रों को जो बातें विस्तारपूर्वक चार वर्ष में पढ़ाई जायेंगी, उनका साराँश इन शिविर शिक्षार्थियों को चार सप्ताह में बता दिया जायगा। उनके वर्तमान जीवन में जो विकृतियाँ होंगी उनके सम्बन्ध में ऐसे सुझाव दिये जायेंगे जिससे वे भावी जीवन प्रगतिशील एवं शान्तिपूर्वक बिता सकें। पत्नी को साथ लाने की आवश्यकता इसलिये अनुभव की गई है कि अकेला पुरुष पैसे तो कमा सकता है पर गृहस्थ को सुव्यवस्थित नहीं बना सकता इसके लिये पत्नी का सहयोग नितान्त आवश्यक है। शरीर के अवयवों की तरह परिवार के सदस्य भी जीवन के अंग होते हैं, उनकी स्थिति का भी परिवार के सामूहिक स्वरूप पर भारी प्रभाव पड़ता है। पत्नी परिवार की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। निर्माण कार्य में उसका सहयोग सबसे अभीष्ट है। नई पीढ़ी-भावी सन्तानों का निर्माण भी पत्नी के स्वभाव पर ही निर्भर है। इसलिए यह सोचा गया है कि जिनकी पत्नियाँ मथुरा आने के लिए स्थिति में हों वे भी अपने पतियों के साथ आवें और एक महीने यहाँ रह कर अपना पारिवारिक भविष्य निर्माण का आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करें। विचार ऐसा किया जा रहा है कि इस वर्ष की प्रथम छमाई में-जून 64 तक युग-निर्माण योजना को व्यवस्थित रूप दे दिया जाय-उसे समुचित रूप से संगठित एवं संचालित कर दिया जाय। उसके बाद जुलाई या अगस्त से यह क्रम चले कि हर महीने की पहली तारीख से 50 परिजन अपनी पत्नियों समेत मथुरा आया करें और एक महीने का शिक्षण पूरा करके वापिस चले जाया करें। इस अवधि में उन्हें गायत्री उपासना, प्राकृतिक चिकित्सा विधि से अपने शरीर शोधन का विशेष लाभ भी मिला करेगा। यह क्रम हर महीने चले तो एक वर्ष में 600 परिजन शिक्षण प्राप्त कर लिया करें। आने वाले पूर्व पत्र व्यवहार करके यह स्वीकृति प्राप्त कर लिया करें कि उन्हें किस महीने आना है। यह निश्चय न किया जाय और चाहे जिस महीने चाहे जितने लोग आते चलें तो एक महीने तक उनके निवास एवं शिक्षण की उचित व्यवस्था न हो सकेगी। स्थान एवं शिक्षकों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए ही तो ठीक क्रम बन सकेगा। यह क्रम किस महीने चलेगा यह आवश्यक तैयारी के बाद अगले किसी अंक में घोषित कर दिया जायगा, पर इतना निश्चित है कि वह इसी वर्ष आरम्भ हो जायगा। अतएव ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्यों को उसके लिए अभी से तैयारी करनी चाहिए। जो इच्छुक हों वे अपने नाम नोट करा सकते हैं ताकि इस वर्ष में जितने लोगों का शिक्षण सम्भव हो उनमें इन पहले नाम नोट करा लेने वालों को प्राथमिकता दी जा सके। रजत-जयन्ती - gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ सेवा भावी ही (Kahani) श्रद्धा और प्रतिष्ठा (kahani) राहगीर को काशी जाना था (kahani) व्यक्ति अपने में अपूर्ण है (kahani) See More 14_Nov_2017_3_6842.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages

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