Tuesday, 21 November 2017
सतनाम धर्म

सतनाम धर्म
सतनाम धर्म - सतनाम धर्म समस्त धर्मों का मूल है सतनाम धर्म से समस्त धर्मों की उत्पत्ति हुई है। धीरे-धीरे जब मनुष्य का विकास होता गया तब मनुष्यों के विचारों में व्यापकता आईl विविधता आई और अपने अपने स्वार्थ पनपते गये जिससे लोग सत्य के मार्ग से भटकते गये और लोग धर्मभ्रष्ट होने लगे तो विभिन्न विद्वानों द्वारा अपने प्रभुत्वसम्पन्न गुणों के माध्यम से भांति भांति के धर्म का सृजन किया गया, इसप्रकार से समग्र विश्व में अनेकोनेक धर्म की स्थापना होती गई।
सतनाम और परम शक्ति
सतनाम और परम शक्ति

अपने निजी मत के आधार पर और अपने मन की कल्पना शक्ति का उपयोग कर बात को रखना क्या कभी उचित माना जा सकता है । इसे तो सिर्फ यह कहा जायेगा कि किसी ने आपसे प्रश्न पुँछ दिया, तो चाहे कैसे भी हो उसका उत्तर तो देना ही है, क्योकि जिसने प्रश्न किया है, अगर उसे मालूम होता तो वह थोड़े ही प्रश्न करता ।
और इस सोंच के आधार पर किसी ऐसे महापुरूषो के नाम का सहारा लेकर अपना निजी अनुभव का बखान को उसे सुना गये ।
हम ऐसा क्यो नही सोंचते कि जिन्होने भी कुछ सिद्धांत या इंसानी कर्म बनाये होगें वह हम सभी से कई गुणा ज्यादा सोंच विचार कर ही बनाये होगें, अगर प्रत्येक बांतो पर चर्चा ही की जानी है तो िफर उन गुरूओ महापुरूषो के कथन का क्या औचित्य रह जायेगा । हाँ इंशान होने के नाते जहां गुंजाइस हो जैसे मानव मानव में जाति पाति का विभाजन, किसी को उच्च बताना और किसी को नीच वहा जरूर तर्क वितर्क करना चाहिये और इसीलिये हमारे गुरूओ और हमारे महापुरूषो ने उन बातो का खंडन किये और मानव मानव एक समान की भावना को जन जन तक पहुचाये है ।
मगर जो हम जैसे साधारण इंशान की बस की ही बात न हो जैसे आत्मा परमात्मा तो उन बातो के पिछे सर फोड़ने का क्या मतलब रह जाता है । उन्हे सही या गलत का प्रमाण पत्र देने वाले क्या कभी उनके बारे में, जैसा क्रिया कलाप रहन सहन बताया गया है, वैसा करके देखा है । जिसके आधार पर वह यह प्रमाण दे रहा है कि कोई आत्मा या परमात्मा नही होता ।
अगर हम उन्ही गुरूओ महापुरूषो के वाणीयो को देखे तो आप बिना विश्वास किये नही रह पायेंगे क्या ऐसे वाणी या ज्ञान का वर्णन कर पाना किसी साधारण इंशान की बस की बात है आप माने या न माने यह आपकी निजी विचार है मगर किसी महापुरूष और गुरू के किये मेहनत को आप अपनी बनावटी बातें से गलत साबित करने का प्रयास करोगे तो उसे रंचित मात्र भी उचित नही माना जा सकता ।
कबीरदास जी , गुरू नानकदेव जी, रविदासजी, गरीबदास जी, गुरू घासीदास जी जैसे गुरूओ और महापुरूषों के वाणीयो में स्पष्ट शब्दो में परम-शक्ति का वर्णन मिलता है ।
एक साधारण सी बात है, एक नाम "सतनाम" का गाथा उपर बताये गये सभी गुरूओ ने, महापुरूषो ने गाया है, बताया है । और उनके बताये हुये वाणियो को उनके अनुयायीयों ने लिपी बद्ध किया हुआ है । जिसे पढ़कर देखे बिना और उनके बताये ज्ञानो को समझे बिना कुछ भी टिप्पणी कर देना क्या रंचित मात्र भी सही कहा जा सकता है ?
जिनके बताये ज्ञान को लाखो करोड़ो लोग दिलो जान से आत्मसात करते हैं, उनके एक एक वाणी को अपने लिये अमृत के समान मानते है । उसे झुठलाने का तुक्छ बुद्धी वाले मनुष्य.....प्रयास करता है ! वाह रे वाह...!
गुरू ग्रंथ साहिब, कबीर बीजक, निर्वाण पोथी, में लिखे अक्षरसह: ज्ञान को कौन झुठला सकता है । उन सभी में परमशक्ती ज्ञान का वर्णन गुरू जनो ने किये हैं !
और यह भी कहे हैं कि उस परमपिता सतनाम के गुण को कोई शब्दो में बयाँ नही कर सकता.....क्योकि सारी उम्र कम पड़ जायेगी लेकिन उस पिता के गुणो का वर्णन हम जैसे भी नही कर पायेगें !
तब आज कल के साधारण मनुष्यो की बिशात ही क्या है !
बड़ी ही चालाकी से विज्ञान का बहाना लेकर उन गुरूजनो के परमशक्ती ज्ञान को चैलेंच करने का दंभ भरा जाता है.....अरे जो विज्ञान एक पत्ता तक नही बना सकता.....उसे परमशक्ती के बराबरी बताने का झूठा प्रयास आखिर क्यो...?
कुछ लोग कहते हैं गुरू जी के चित्र जो आज दिखाई देता है, वह काल्पनिक है ...!
अरे भाई थोड़ा तो बुद्धी लगा लो......आज भी ऐसे ऐसे चित्रकार है जो किसी के द्वारा बताये गये बातो के आधार पर, या देखी, सुनी बातो के आधार पर हु ब हु चित्र बना सकते हैं ! तो क्या जिन्होने भी गुरूजी का चित्र बनाये होगें वह गुरूजी के हु ब हु चित्र नही बनाये होगें .....?
१००% सही चित्र बनाये होगें और नही तो कम से कम कैसे दिखते थे, कैसे कपड़ा पहनते थे, क्या धारण करते थे! ये सभी छोटी छोटी जानकारी चित्र में तो सही बनाया ही गया होगा यह कोई बड़ी बात नही है !
लोगो के कल्पना को चित्रो में प्रदर्शित कर देना कोई बड़ी बात नही है ! लेकिन वाह रे ज्ञानी मनुष्य, उनको को झुठलाने का प्रयास किया जाता है...!
और ऐसे भी गुरू घासीदास जी कोई १००० - ५००० हजार वर्षो की बात नही है......हमारे पुर्वजो ने गुरूजी को अपने आँखो से देखे हैं , तो भला उनके अनुभवो के आधार पर गुरू जी का हू ब हू चित्र बनाना कोई बड़ी बात नही है...!
अरे भाई कुछ सही कर नही सकते तो कम से कम जिन्होने किया है, उसे तो सही गलत का प्रमाण पत्र मत दो...!
गुरूजनो ने जो भी महिमा दिखाये हैं, वह समय की मांग थी और जो ज्ञान बताये हैं वह सभी समय के लिये शास्वत सत्य है......!
उन गुरूजनो और महापुरूषो के वाणी में स्पष्ट शब्दो में दिब्य-परम-शक्ति का वर्णन मिलता है ।
देखिये कुछ अंश यहा लिखने का प्रयास कर रहा हूँ इसका मतलब आप यह न समझे कि मैं अपने आपको ज्यादा जानकारी वाला बताना चाहता हूँ परन्तु जब बात प्रांरंभ हो जाती है तो बोलना ही पड़ता है । परन्तु यह सही है या गलत इस बारे में आप कुछ भी विचार रखे लेकिन मेरे विचार में १००% सत्य है ! और गुरूजनो के वाणियो पर मेरा पूर्ण विश्वास है !
गुरू नानकदेव जी की अमृतवाणी : महला १, राग िवलाबलु अंश १ (गु ग्र पृ ८३९)
आपे सचु कीआ कर जोड़ी ।
अंडज फोड़ जोड़ी बिछोड़ ।।
धरती आकाश किए बैसण कउ भाऊ ।
राति दिनंतु कीए भऊ भाऊ ।।
जिन कीए करि बेखणहारा ।।३।।
त्रितीआ ब्रम्हा बिसनु महेशा ।
देवी देव उपाए वेसा ।।४।।
पऊण पाणी अगनी बिसराहऊ ।
ताही निरंजन साचो नाऊ ।।
तिसु महि मनुआ रहिआ लिव लाई ।।
प्रणवति नननकु कालु न खाई ।।१०।।
राग मारू (अंश) अमृतवाणी महला १ (गु ग्रं पृ १०३७)
सुनहु ब्रम्हा विष्णु महेशु उपाए ।
सुने वरते जुग सबाए ।।
इसु पद बिचाके सो जनु पुरा ।
तिस मिलिए भरमु चुकाइदा ।।३।।
साम वेदु रूगू जुजरू अथरवणु ।
ब्रम्हे मुख माइआ है त्रैगुणा ।।
ता कि किमत कहि न सकै ।
को तिऊ बोले जिऊ बुलाईंदा ।।९।।
..........
कबीरदास जी के अमृतवाणी :-
धर्मदास जी, जो कि कबीर दास जी के िशष्य हैं उनके पुछे जाने पर कबीरदास जी ने सृष्टि रचना के बारे में जो बताये उनका वर्णन ऐसा है देखिये :
धर्मदास यह जग बौराना, कोई न जानै पद निरवाना ।
यही कारण मैं कथा पसारा, जग से कहियो एक राम नियारा ।
यही ज्ञान जग जीव सुनाओ, सब जीवो का भरम नसीओ ।
अब मैं तुमसे कहौ चिताई, त्रयदेवन की उत्पति भाई ।
कुछ संक्षेप कहों गुहराई, सब संसय तुम्हरे मिट जाई ।
भरम गये जन वेद पुराना, आदिराम का भेद न जाना ।
राम राम सब जगत बखानो, आदि राम कोई बिरला जानो ।
ज्ञानी सुने सो हिरदै लगाई, मुर्ख सुने सो गम्य न पाई ।
मां अष्टअंगी पिता निरंजन, वे जम दारुण वंशन अंजन ।
पहिले किन्ह निरंजन राई, ता पिछे माया उपजाई ।
माया रुप देख अति शोभा, देव निरंजन तन मन लोभा ।
काम देव धर्मरा़ सत्ताये, देवी को तुरत ही धर खाये ।
पेट से देवी करि पुकारा, साहेब मेरा करो उबारा ।
टेर सुनी तब हम तंह आये, अष्टअंगी को बंद छुड़ाये ।
सतलोक में किन्ह दुराचारी, काल निरंजन दिन्ह निकारी ।
माया सहित दिया भगाई, सोलह शंख कोश दुर पर आई ।
धर्मराय किन्हा भोग विलासा, माया को रही तब आशा ।
तीन पुत्र अष्टअंगी जाये, ब्रम्हा विष्णु शिव नाम धराये ।
तीन देव विस्तार चलाये, इनमें यह जीव धोखा खाये ।
पुरूष गम्य कैसे को पावै, काल निरंजन जग भरमावै ।
तीन लोक अपने सुत दिन्हा, शुन्न निरंजन वासा लिन्हा ।
अलख निरंजन शुन्न ठिकाना, ब्रम्हा विष्णु शिव भेद न जाना ।
तीन देव को उसको धावे, निरंजन का वे पार न पावे ।
अलख निरंजन बड़ा बटपारा, तीन लोक जीव किन्ह आहारा ।
ब्रम्हा विष्णु शिव नही बचाये, सकल खाय पुन धुर उड़ाये ।
तिनके सुत है तीनो देवा, आंधर जीव करत हैं सेवा ।
अकाल पुरूष काहू नही चिन्हा, काल पाय सबही गह लिन्हा ।
ब्रम्ह काल सकल जग जानो, आदि ब्रम्ह को ना पहिचाने ।
तीन देव और औतारा, ताको भेजे सकल संसारा ।
तीन गुण का यह विस्तारा, धर्मदास मैं कहौं पुकारा ।
गुण तीनो की भक्ति में भूल परो संसार ।
कहै कबीर निज नाम बीन, कैसे उतरै पार ।।
कबीरदास जी एक जगह और कहते हैं कि :
वेद कतेब झुठे ना भाई, झुठे हैं जो समझे नाई ।।
सतनामीयों के निर्वाण ग्रंथ में सृष्टि रचना का वर्णन :-
जब रहे आप अनाम अमाया
आप में ही रहे आप समा़या
मौज उठी एक धुन भई भारी
सतनाम सत शब्द पुकारी
सत खण्ड उस धुनि से रचिया
जहां लग धुनिका मंडल बंधियाँ
अवगत आसन रहे समाई
ऊँकार भी होता नाही
छाया माया होती नाही
आप रहे निरंतर माही
धरनि आकाश पवन और पानी
ये तौ ना होते सहदानी....!
गुरू घासीदास जी के अमृतवाणी में सृष्टि रचना :-
बिना बीजन के बीज है
बिना पिण्ड के नाम
बिना शब्द के रहन गहन
नई जोत सनमान
राई बराबर पत्र धराई
अधराई के फूल
बीन जावन के चीज धन
उपजे नाम आधार
सुन पुत्र उरति धारी
सुन पुत्र सुरति धारी
जब नई रहीन बाला भोला
जब नई रहीन चाम के चोला
कर जपीस जब मुख से जापा
तब इन सिरजीन आपू आपा
काहेन के दो पुरईन हैं
काहेन के परकाश
काहेन में चंदा सुरूज
काहेन में आकाश
सत म पवन पानी
सत म परकाश
सत में चंदा सुरूज
सत में आकाश
पांच नाम निवास ।
गुरू घासीदास जी के वाणी मात्र सारांश रूप में लिखा गया है विस्तार से जब समय मिलेगा तब रखने का प्रयास करूँगा ।
और एक बात आप लोग गौर किजियेगा कि सभी गुरूओ के वाणीयों में समानता नजर आती है यह कैसे संभव है एक अनपढ़ कहे जाने वाले बता पाये.....!
अगर ऐसा संका हो कि ये सभी हिन्दु ब्राम्हण द्वारा फैलाया गया है तो ध्यान रखिये इस तरह का ज्ञान किसी भी हिन्दु शास्त्र पुराण में नही हैं । मैने उनका भी संकलन किया हुआ है !
आप सभी से करबद्ध निवेदन है कि.....कुछ टिप्पणी करने से पहले उनके बारे में विस्तार से जानकारी लेने के बाद ही कुछ बोले.....अन्यथा विश्वास करने वालो को विश्वास करने दिजिये और जिनको विश्वास न हो वह बिना कुछ कहे....ही....विश्वास न करे.....!
क्योकि विरोधी और विश्वासी आज से नही....सदियो से होते आये हैं !
साहेब सतनाम
------///
! आदि धर्म सतनाम है !
इसे जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि धर्म क्या है? तभी आदि धर्म "सतनाम" के बारे में जाना जा सकता है ....!
मैं अपने गुरूजनो और संत-महंतो के बताये ज्ञान के आधार पर यहाँ उनके बताये ज्ञान को रखने का प्रयास कर रहा हूँ, गलती होना स्वभाविक क्योकि धर्म जैसे विस्तृत और पवित्र शब्द के बारे में मुझ जैसे साधारण इंसान एक रति भर प्रकाश नही डाल सकता ।
धर्म का स्पष्ट शब्दों में अर्थ है :
धारण करने योग्य आचरण ।
इस कारण जब से धरती पर मनुष्य का रहवास होना प्रारंभ हुआ है तभी से धरती पर धर्म-ज्ञान का होना आवश्यक ही नही बल्कि परम् आवश्यक है, नही तो धर्म विहिन मनुष्य और पशु में कुछ भी अंतर नही रह जायेगा अर्थात बिना धर्म के मनुष्य, पशुतुल्य है ।
धर्म केवल ईश्वर प्रदत होता है व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ नही । क्योकि व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ 'मत' होता है अर्थात उस महान ज्ञानी महापुरूष को जो सही लगा वो उसने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया और श्रधापूर्वक अथवा बलपूर्वक अपना विचार लोगो को स्वीकार करवाया ।
अब यदि एक व्यक्ति निर्णय करने लग जाये क्या सही है और क्या गलत तो दुनिया में जितने व्यक्ति , उतने धर्म नही हो जायेगे ?
कल को कोई चोर कहेगा मेरा विचार तो केवल चोरी करके अपनी इच्छाएं पूरी करना है तो क्या ये 'मत' धर्म हो गया ?
ईश्वरीय धर्म में ये खूबी है की ये समग्र मानव जाती के लिए है और सभी के लिये सामान है जैसे सूर्य का प्रकाश, जल, वायु, आकाश, प्रकृति प्रदत खाद्य पदार्थ आदि, ईश्वर कृत (पुरूषपिता सतनाम कृत) है और सभी के लिए है । उसी प्रकार धर्म (धारण करने योग्य) भी सभी मानव के लिए सामान है ।
इसलिये परमपूज्य गुरू घासीदास जी कहते है कि " मानव मानव एक समान है" लेकिन मानव के लिये धर्म वही "सत्य" है जिसमें सभी को समानता की दृष्टी से देखा जाता है, जैसे सतनाम धर्म, गुरू जी धर्म को परिभािषत करते है कि ;
मनखे मनखे एक ये, नइये कछु के भेद ।
जऊन धरम ह मनखे ल एक मानीस,
उही धरम ह नेक ।।
मजहबो में (हिन्दु, मुस्लिम, क्रिश्चन, बौद्ध, जैन, सिख आदि आदि में) यदि उस मजहब के जन्मदाता को हटा दिया जाये तो उस मजहब का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा । इस कारण ये अनित्य है । और जो अनित्य है वो धर्म कदापि नही हो सकता । किन्तु सतनाम धर्म सृष्टि के प्रारंभ से विद्यमान है इस कारण चाहे आप कुछ भी जोड़ ले या घटा दे, सतनाम धर्म पर कोई असर नही पड़ेगा क्योकि सतनाम धर्म सभी धर्मो के, जिनके हम नाम जानते है, उन धर्मो के बनाने वालो के जन्म से पूर्व भी था, इनके समय भी था और आज इनके पश्चात भी है अर्थात सतनाम् धर्म का करता कोई भी देहधारी नही। यही नित्य है। क्योकि सभी जानते है दुनियाँ में सत्य ही सर्वोपरी है, सत्य को ही मानने का बात किया जाता है, सत्य को प्रमाण का आवश्यकता नही होता, और उस सत्य को मानने वाला सतनामी कहलाता था जिसे बाद में जाति या संप्रदाय का नाम दे दिया गया ।
दुनियाँ में ऐसा कोई भी धर्म नही जिसमें सत्य के बारे में न बताया गया हो िफर यह कैसे हो गया कि सत्य के मानने वाले ; कभी हिन्दु, कभी जैन, कभी बौद्ध, कभी क्रिश्चन, कभी मुस्लिम, कभी और, कभी और...हो गये.....जबकि नाम एक ही है "सत्य" तो फिर उस सत्य के मानने वालो को भी तो एक ही होना चाहिये ना....."सतनामी"
वैसे फेसबुक में लिखकर धर्म जैसे विस्तृत और पवित्र शब्द का ब्यख्यान नही किया जा सकता, बड़े बड़े ज्ञानी जनो ने अपने आपको इस कार्य के लिये असमर्थ पाये हैं ।
परन्तु कुछ ऐसे सत्य ज्ञान के बारे में परमपूज्य गुरू घासीदास बाबा जी ने अपने संतो को बताये हैं जिसे संत जन कहते है कि :
सत से धरती खड़ी, सत से खड़ी आकाश ।
सत से सृष्टि उपजी, कह गये घासीदास ।।
साहेब सतनाम्
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गुरू बिन ज्ञान न उपजे, गुरू बिन मिले ल मोक्ष।
गुरू बिन लिखे न सत्य को, गुरू बिन मिटे न दोष ।।
लेख सतनामी सुपूत्र श्री विष्णु बन्जारे सतनामी जी
सतनामी एवं सतनाम धर्म विकास परिषद द्वारा जनहित में प्रसारित
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