Saturday, 4 November 2017

 श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री

Savitri परस्य ज्योतिः Feed • Archives • Series श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (15) #1416 by Ashok Srivastava published on Wednesday, January 20th 2016, 3:10:00 am सावित्री: जन्म -10 श्री अरविन्द जब सावित्री महाकाव्य के प्रारम्भ में प्रतीक उषा की कथा से अपनी बात शुरू करते हैं ऐसी स्थिति में उलझन प्राय; उन लोगों को ही होती है जो यह यह भूल जाते हैं कि वे एक वैदिक पात्र सावित्री की बात कर रहे हैं जिसे यह केवल श्री अरविन्द ही नहीं हैं जो अपने इस महाकाव्य के शीर्षक में ही सावित्री की प्रतीकात्मकता पर बल दिया है बल्कि वेदों विषय ही अध्यात्मिक अनुभूतियों की प्रतीकात्मक गाथा है| वे वेद की उषा को नहीं जानते जिसकी बहन है रात्रि और जो द्युलोक ( प्रकाश का लोक ) की पुत्री है और न ही उस सूर्य को जिनते हैं जो सत्य के स्वर्णिम प्रकाश की प्रतिमूर्ति और स्रष्टा सविता है| आश्चर्य है कि वैदिक काल का वह मूल उद्घोष जो उषा और अग्नि से ऋचाओं में जहां जगत के कण कण में उस परम दिव्य-सत्ता की उपस्थिति और उर्ध्व से उसके अवतरण और इस अपूर्ण मृत्यु में ग्रस्त जगत का अमरत्व के जगत में ऊर्ध्व-गमन या आरोहण की प्राचीन अभीप्सा की बात जो इतने स्पष्ट रूप में और बल के साथ उठाई गई है उसे कालान्तर में नकार दिया गया| Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (14) #1412 by Ashok Srivastava published on Tuesday, January 19th 2016, 3:10:00 am वस्तुत: वैदिक सावित्री का जन्म उस परम अद्वय, एकम, अनंत अर्थात अदिति में हुआ| ऋ० वेद, अपनी प्रतीकात्मक भाषा में कहता है, -“वृक्षों से पृथिवी उत्पन्न हुई और पृथिवी से दिशाय उत्पन्न हुईं| अदिति से दक्ष उत्पन्न हुआ और दक्ष से अदिति उत्पन्न हुई|” ( -ऋ० वेद-10-72-4) यह सृष्टि की वह अपूर्व स्थिति है जिसमें वह सारी चीजें एकसाथ अपनी सामर्थ्य के साथ उपस्थित हैं जो एक दूसरे से सम्बद्ध और उस सहयोग की स्थिति में है जिसमें सृष्टि की सारी संभावनाएं एक साथ विद्यमान थीं| धातु सु प्रस्वैश्वर्ययो: का अर्थ है उत्पन्न करना, जनना, 2-गर्भ धारण करना 3-अद्भुत सामर्थ्य या पराक्रम| ढकेलना और सृजन अर्थ में शब्द हैं सौति, सवति और प्रसूत आदि| इस धातु से बने कुछ महत्वपूर्ण शब्द हैं, सविता, सूर्य, सूर्या, सवितृ, सावित्री, त्वष्टा, नृ और ग्ना आदि| यह सब स्रष्टा शब्द में और प्रतीकात्मक रूप में कहें तो अदिति के गर्भ में समस्त आदित्यों के साथ सविता-स्रष्टा का अपनी ग्ना या स्त्री-सामर्थय या शक्ति के साथ उपस्थित थी| स्पष्ट है कि वह महान देवी सावित्री जो नवीन सृष्टि की अधिष्टात्री देवी वहां उपस्थित थी जो इस मर्त्य-सृष्टि को शाश्वत दिवस के अमरत्व में रूपांतरित करने वाली थी| Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (13) #1409 by Ashok Srivastava published on Monday, January 18th 2016, 3:10:00 am सावित्री: जन्म -08 श्री अरविन्द अपनी कुछ अनुभूतियों को सारगर्भित संक्षिप्त टिप्पणियों के रूप में कभी कभी लेखिनी के द्वारा अभिव्यक्त करते थे जिसकी व्याख्या करने का अवसर उन्हें नहीं मिला परन्तु वह बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं| इनमें इस सृष्टि की भागवत व्यवस्था पर उनकी एक टिप्पणी है| इसमें कुछ बातें बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं| यह कई भागों में बंटा है| इसके भाग –अ और भाग-ब, में परात्पर पर और उसकी इस सृष्टि की भागवत व्यवस्था का यह अनूठा प्रस्तुतिकरण है| भाग –अ सर्वोच्च आत्म-समाहित परात्पर पर है जिसमें हम अवर्णनीय ( तत् ) परम परात्पर सता के दो आयाम देखते हैं, -सर्वोच्च तत् के बारे में केवल इतना ही सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसके बारे में कुछ भी कहना या परिभाषित करना उसे सीमित बना देगा क्योंकि वह किसी भी वस्तु से परिसीमित नहीं है| दूसरे आयाम में 1-सच्चिदानन्द का त्रेयक, 2-स: और सा के द्विध-तत्वों का एकत्व 3-अपनी एकरूप चतुर्विध स्थिति से संयुक्त ॐ का चतुर्विध तत्व| कदाचित यही वह स्थल है जहां सावित्री-तत्व और सावित्री सिद्धांत मूल रूप में विद्यमान है क्यों कि यहाँ वह अपने सम्पूर्ण रूप में स: और सा के द्विध-तत्वों का एकत्व के रूप में वैदिक Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (12) #1407 by Ashok Srivastava published on Sunday, January 17th 2016, 3:10:00 am सावित्री: जन्म -7 उपरोक्त उद्धृत इन पंक्तियों को पढ़ कर कोई भी उसके दर्शन के लिए उत्सुक हो उठेगा: यह थी वह देव-जागरण-पूर्व-घड़ी| दिव्य-घटन के पथ पर ओर-छोर उस महारात्रि का भारी शंकित मनस्, अकेला अनदीपित शाश्वत के मन्दिर के अंदर महामौन की सीमा पर पसरी पड़ी थी निश्चल| सावित्री महाकाव्य की इन अद्भुत पंक्तियों को पढ़ कर पाठक एक आध्यात्मिक शक्ति और रहस्य के आकर्षण से अभीभूत हो उठता है| यह विश्व-साहित्य की अनुपम पंक्तियाँ हैं| इन पंक्तियों को कुछ वैदिक मन्त्रों के एक वर्ग में रखा जा सकता है जिन्हें भारत में देव-वाणी या आप्त-वाक्य कहा जाता है| यह विकास की चिर नवीन अलौकिक देवी सावित्री की पार्थिव गाथा है जिसमें वह अमूर्त आध्यात्मिक शक्ति अपने को प्रकट या उद्घाटित करने जा रही है| यह वैदिक कालीन वह आध्यात्मिक शक्ति है जो सृष्टि और विकास की अधिष्टात्री देवी है| परन्तु उसका यह स्वरूप श्री अरविन्द ने उद्घाटित किया है| देवी उषा से सम्बन्धित यह पूरे सर्ग में सावित्री, जो प्रकाश और सविता, आदित्य और सत्य और शाश्वत दिवस के प्रतीक सूर्य से घनिष्ट रूप जुडी है वह खोई हुई है| वर्तमान सृष्टि जो अज्ञान के अन्धकार और मृत्यु के मुख में है वहां सावित्री Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (11) #1404 by Ashok Srivastava published on Saturday, January 16th 2016, 3:10:00 am सावित्री: जन्म -6 देवों का जन्म अपनी मूल-शक्ति से हुआ जैसे अग्नि का अग्नि से, त्वष्टा का त्वष्टा से (देखें, अथर्व० वेद सूक्त-11/8)| आध्यात्मिक दृष्टि से सृष्टि एक परम परात्पर सत्ता है| समस्त देवता उस तत्, परम परात्पर की शासक एवं व्यवस्थापिका शक्ति ईश्वर से प्रकट होते हैं ( दे० ऋ० 1-164-46 और यास्क-7-4 )| परन्तु इन देवों की संख्या ३३ (ऋ०1-139-11 एवं अ देवों थर्व० 19-27-11 से 13 ) तथा यजु० 33.7 के अनुसार 3339 हैं और ये सब अग्नि की पूजा करते हैं| और यजु० 16.54 में तो असंख्य सहस्त्र रूप तो रूद्र के ही हैं| शब्द देव का मूल धातु है द्यु | पाणिनी धातुपाठ में द्युत दीप्तौ –चमकना, प्रकाशित होना| वस्तुत: यह एक गुण है| एक ऐसा गुण जो कुछ इस तरह है जिसे वैशेषिक दर्शन की भाषा में कहें तो तत्व और गुण की तरह है| इस तरह यदि हम प्रकाश को प्रतीकात्मक अर्थ में लें तो अन्धकार एवं रात्रि उसका धुर विरोधी हो जाता है| परन्तु इन दोनों ही विरोधों का स्रोत सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्ता है जहां सारे विरोधों का शमन हो जाता है| इस परिप्रेक्ष्य में सावित्री पूर्ण प्रकाश की अधिष्टात्री देवी है जो हमारे अर्ध-प्रकाशित मृत्यु के Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (10) #1402 by Ashok Srivastava published on Friday, January 15th 2016, 3:10:00 am सावित्री: एक शब्द- 4 देवताओं में कुछ गण-देवता ( एक से अधिक देवों का समुच्चय ) होते हैं| ये कुल 09 हैं जिनमें एक नाम आदित्य है जिसका सावित्री के साथ गहन सम्बन्ध है| इस आदित्य-गण के देवों के नाम 12 हैं| ऋग्वेद 10-72-08 के अनुसार अदिति [ शाब्दिक अर्थ है अनंत=अ(नहीं)+दिति (खंडित) ] के 08 पुत्र हैं जिनमें सात दीप्तमान, देव-रूप में सूक्ष्म और अमूर्त हैं और आठवाँ हमारे ब्रह्माण्ड या मृत्यु-लोक का मूर्त, अभिव्यक्त या मृत्युलोक का पार्थिव सूर्य है जिसका नाम है मार्तण्ड| तान्डय-ब्राह्मण (24-12-4) में ये दो-दो के 4 जोड़े हैं, 1-मित्र, 2-वरुण 3-धाता 4-अयर्मा 5-अंश 6-भग 7-इंद्र 8-विवस्वान ( सूर्य) परन्तु यहाँ भी आठवाँ मूर्त रूप में है| ऋग०9-11-4 सात सूर्य हैं जिनके नाम तैत्तरीय आरण्यक में इनके नाम हैं,-आरोज, भ्राज, पटर, पतंग, स्वर्णर, विभास और ज्योतिषीमान हैं | अथर्व० 13-04 में सविता (सवित्र) सूर्य के 12 नाम हैं, -आदित्य, सविता, महेंद्र, वायु, अय्र्मा, वरुण, रूद्र, महादेव,अग्नि, महायम,रोहित,सूर्य| सूर्य, -जगत का आत्मा है, -(यजु ० 7-22) शब्दों के अर्थ के लिए पदों का निर्वचन किया जाता है| यह एक शास्त्र या विज्ञान है| निरुक्त 7. 15 के अनुसार, देव वह है जो स्वयं प्रकाश है,दूसरे को Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (09) #1400 by Ashok Srivastava published on Thursday, January 14th 2016, 3:10:00 am सावित्री: एक शब्द- 3 एक शब्द के रूप में सावित्री, देवी के अर्थ में एक आध्यात्मिक सत्ता है| वैदिक देवशास्त्र के अनुसार मूल सत्ता एक है जो नपुंसक लिंग में तत् या तू नाम से पुकारा गया है परन्तु वह त्रि-आयामी है| दार्शनिक रूप में इसका वर्णन परमात्मा ( ईश्वर ), जीव और प्रकृति के रूप में मिलता है| सत्ता के एक तात्विक रूप में यह एक ऐसी सूक्ष्म आद्यात्मिक सत्ता है जो तीन गुणों का समन्वय या त्रेयक है| समस्त सूक्ष्म और स्थूल सृष्टि इसी की अभिव्यक्ति है| इस प्रकार यह सृजन का मूल स्रोत, स्रष्टा और उसका उपादान तत्व भी है| इसी सर्वोच्च सत्ता की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में सावित्री अपने सूक्ष्म रूप में सृजन का वह क्रांतिकारी सिद्धांत है जो अज्ञान, मृत्यु और दु:ख-कष्ट में बंधे जगत को मुक्त कर शाश्वत प्रकाश के एक सर्वथा नवीन विश्व की सृष्टि की अभिव्यक्ति की गति को सहारा दे रही है| इस तरह यदि हम विश्व के सृजन एवं विकास की गति को ध्यान से देखें तो सावित्री विकास की एक दिव्य-शक्ति है| उल्लेखनीय है कि देवता-देवी एक द्वैताद्वैत या द्वैत में एकत्व के सामंजस्य में पर-ब्रह्म के चतुर्थ आयाम में विकसित सत्ता कही जा सकती Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री : शब्दार्थ 55 (08) #1387 by Ashok Srivastava published on Tuesday, January 5th 2016, 3:10:00 am सावित्री : एक देवी- 1 मूलत: सावित्री, देवी के रूप में एक आध्यात्मिक सत्ता है| वैदिक देवशास्त्र के अनुसार मूल सत्ता एक है जो नपुंसक लिंग में तत् या तू नाम से पुकारा गया है परन्तु वह त्रि-आयामी है| दार्शनिक रूप में इसका वर्णन परमात्मा ( ईश्वर ), जीव और प्रकृति के रूप में मिलता है| सत्ता के एक तात्विक रूप में यह एक ऐसी सूक्ष्म आद्ध्यात्मिक सत्ता है जिसमे तीन गुणों ( सत्ता, चेतना और आनन्द ) का समन्वय या त्रेयक है| समस्त सूक्ष्म और स्थूल सृष्टि इसी की अभिव्यक्ति है| इस प्रकार यह सृजन का मूल स्रोत, स्रष्टा और उसका उपादान तत्व भी है| इसी सर्वोच्च सत्ता की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में सावित्री अपने सूक्ष्म रूप में सृजन का वह क्रांतिकारी सिद्धांत है जो अज्ञान, मृत्यु और दु:ख-कष्ट में बंधे जगत को मुक्त कर शाश्वत प्रकाश के एक सर्वथा नवीन विश्व की सृष्टि की अभिव्यक्ति की गति को सहारा दे रही है| इस तरह यदि हम विश्व के सृजन एवं विकास की गति को ध्यान से देखें तो सावित्री विकास की एक दिव्य-शक्ति है तथा वह परात्पर की शक्ति का सप्रयोजन पार्थिव अवतरण है| श्री अरविन्द का महाकाव्य “सावित्री : एक गाथा और एक प्रतीक” Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष सावित्री: शब्दार्थ (55/07) #1385 by Ashok Srivastava published on Monday, January 4th 2016, 3:10:00 am उल्लेखनीय है कि वैदिक परम्परा में समस्त ध्वनियों का मूल है ॐ| अ, इ, ऋ, लृ –ये प्रमुख ध्वनियाँ हैं जिनसे अनेकों बीज ध्वनियाँ बनती हैं| यह उल्लेखनीय है सारे ही स्वर और व्यंजन इन प्रमुख ध्वनियां से बनती हैं तथा ध्वनि ॐ संयुक्त अच्चरों से बना एक शब्द है जिसका मूल धातु है “अव” 23 शब्द बनते हैं| इसी प्रकार शब्द सावित्री भी एक सार्थक ध्वनि है जिसका सविता और सृजन शब्दों से अटूट सम्बन्ध है| वेदांगों की एक शाखा का नाम है शिक्षा जिसका संबंध ध्वनि और उच्चरण से है| शिक्षा का मूल धातु “शिक्ष”, पाणिनि संग्रहीत धातुपाठ में, -शिक्ष विद्योपादने का अर्थ है अभ्यास करना, अध्यान करना, सीखना| यह एक भौतिक क्रिया है| वर्ण की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए वह कहते हैं,- “आकाश और वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाला, नाभि के नीचे से ऊपर उठता हुआ जो मुख को प्राप्त होता है उको नाद कहते हैं, वह कंठ आदि स्थानों में विभाग को प्राप्त हुआ वर्ण भाव को प्राप्त होता है उसे शब्द कहते हैं|” परन्तु शब्द की सार्थकता उसका आत्मा से संयोग होने पर होता है| वस्तुत: यह मनस, प्राण और जडत्व तीनो को ही अनुप्राणित करता Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ (55/06) #1383 by Ashok Srivastava published on Sunday, January 3rd 2016, 3:10:00 am जैसे समस्त सृष्टि, मानवीय दृष्टि से वह अच्छी हो या बुरी उनका स्रोत परम परात्पर सत्ता परम प्रभु हैं वैसे ही समस्त भाषाएँ, ध्वनियों आदि का स्रोत भी वही है| परन्तु, वह अपने मूल स्वभाव में परम सच्चिदानंद सर्वोच्च दिव्य-सत्ता, चेतना और आनन्द का त्र्येयक, -एक आध्यात्मिक सत्ता है| शब्द सावित्री के शब्द के विकास क्रम को भौतिक ध्वनि की निम्नतम स्थिति से लेकर उसके आध्यात्मिक स्वरूप तक हम अनुसरण करने का प्रयास करेंगे| सावित्री की ध्वनि एक पार्थिव शब्द है जिसका स्वरूप भौतिक है| यह वायु-तत्व का आकाश-तत्व में एक कम्पन है जो शुद्ध यांत्रिक भी हो सकता है और किसी भी प्राणी द्वारा जिसके पास मानव मुख हो उसे बिना अर्थ समझाये उच्चरित कराया जा सकता है| लेकिन तब यह ध्वनि उस प्राणी या श्रोता जो उसके अर्थ को नहीं जानता एक प्रकार का शोर ही होगा| उदाहरणार्थ, पाणिनि (ई०पू० 500) के धातु (अर्थात, मूल-क्रियावाचक शब्द) है, -भष भर्त्सने का अर्थ है, -कुत्ते के समान भौंकना| इसी तरह भाष व्यक्तायां वाचि का अर्थ है –बोलना; इसमें परि- प्रत्यय लगाने से बोलना या निदायुक्त बोलना सम् प्रत्यय लगाने से सम्भाषण अर्थ होता है| वस्तुत: तथ्य यह है कि भाषा का बाह्य रूप शुद्ध भौतिक है Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ (55/05) #1378 by Ashok Srivastava published on Thursday, December 31st 2015, 3:10:00 am अर्थ-विज्ञान ( Semantics ) सावित्री महाकाव्य प्रचलित अर्थ के अनुरूप ही एक महाकाव्य होते हए भी कई दृष्टियों से सावित्री एक अनूठा महाकाव्य है जिसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है उसका आद्यात्मिक कलेवर और उसकी प्रतीकात्मिकता| यह प्रतीकात्मकता कथा, उसके मानव पात्र, उनके नामों को लेकर ही नहीं बल्कि प्रकृति के दृश्य और वातावरण का वर्णन, शब्द-संयोजन भी हमें उन शब्दों में निहित किसी गहन भाव एवं अनुभूति में ले जाना चाहते हैं| उदाहरण के लिए पहले हम शब्द सावित्री को ही लेते हैं| भाषाशास्त्रीय दृष्टि से सावित्री नामवाचक संज्ञा है परन्तु श्री अरविन्द ने महाकाव्य के शीर्षक में ही पाठक को सावधान किया है यह एक प्रतीक मात्र है| शीर्षक में ही सावित्री का उषा के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है परन्तु प्रथम पांच पंक्तियों में ही सावित्री गहन अन्धकार में खो जाती है और उसकी वैयक्तिकता के सत्य को सम्पूर्ण सृष्टि की आनादि कालीन सृष्टि की समस्या से उसे संयुक्त कर देती है| इस प्रकार प्रारम्भ में ही सावित्री पृष्ठ पर अंकित भौतिक रूप में लिखित अच्छरों का एक निरर्थक ध्वनि-समूह न रह कर हमें उसके अर्थ, उसकी सार्थकता उसके उस सत्य को पाने के लिए पाठक को उत्सुक बना देता है जो महाकाव्य का सर्जक वह Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ (55/04) #1376 by Ashok Srivastava published on Wednesday, December 30th 2015, 3:10:00 am धुर वरोधी क्षेत्रों की इन दो भाषाओं में भी वैज्ञानिकों ने कुछ सामान्य प्रवृत्तियों की खोज की है| इसका कारण मानव व्यक्तिगत रूप में अलग हैं यह समस्त सत्ताओं की जननी उस मूल प्रकृति में विविधता की प्रवृति अंतर्निहित है परन्तु उसमे अंतर्निहित एकत्व और सामंजस्य का सिद्धांत भी उसमे अंतर्निहित है जिसके कारण ही विविध भाषी मनुष्यों, देश और जाति की उनकी विविधता के बाद भी उस अंतर्निहित सामंजस्य के सिद्धांत के कारण आवश्यकतानुसार उनका एक दूसरे से सम्पर्क होता है, वे साथ जीवन बिताते हैं और उनका ज्ञान-विज्ञान एक ही है| और सबसे बड़ी बात यह है कि पार्थिव-प्राणियों की अन्तरंग वस्तु हैं| बहुत संक्षेप में हम यहाँ संस्कृत और ग्रीक भाषा की इन समानताओं का उल्लेख करेंगे: दोनों ही भाषाएँ किसी उच्चतर भाषावैज्ञानिक सिद्धांत के अंतर्गत वे एक ही भाषा परिवार की सदस्य हैं जिसके कारण ही ग्रीक और संस्कृत दोनों में स्वर और व्यंग्न ध्वनियाँ हैं और उनमे समानता भी है| दोनों में संगीतात्मक स्वराघात ( Pitch-sccent ) विद्यमान हैं| दोनों ही भाषाओं में अव्यय( उपसर्ग और क्रिया-विशेषण ) शब्दों की पृथकता अवश्य है परन्तु भाषा के किसी सामंजस्यकारी सिद्धांत के कारण ही उनमें अव्ययों का अस्तित्व Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ (55/03) #1362 by Ashok Srivastava published on Tuesday, December 22nd 2015, 3:08:00 am सावित्री महाकाव्य की भाषा सावित्री की भाषा आंग्ल और उसके वर्ण या अच्छर और शब्दों की लिपि रोमन है| ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इस महाकाव्य की भाषा तो आंग्ल है परन्तु शब्द सावित्री संस्कृत, उसका कथानक और उसके पात्र अपने परिवेश के साथ भारतीय तथा प्रतीकात्मक हैं| यह एक असाधारण गुह्य आद्ध्यात्मिक चेतना के प्रकाश और शक्ति से भरी हुई है| सबसे बड़ी बात यह कि इसका विषय-वस्तु और और उद्येश्य पूर्व और पश्चिम की सीमाओं को तोडकर पार्थिव विकास की नवीन सृष्टि के विकास और उसके आमूलचूल रूपान्तर करके दु;ख, कष्ट, अज्ञान और मृत्यु से सदा के लिए मुक्ति है| इस स्थिति में आंग्ल भाषा विश्व की ऐसी विकसित एक नवीन भाषा है जो आधुनिक वैज्ञानिक युग की भावी भाषा बनने की और उन्मुख है तो संस्कृत भाषा और परिवेश प्राचीन विश्व की सबसे अधिक प्राचीन परम्परा, सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्मिक रूप से सम्पन्न भाषा रही है| दोनों ही भाषाओं के स्रोत पृथिवी के दो गोलार्धों की भाषा हैं जिनकी अपनी अलग प्रकृति और परम्परा है| परन्तु ये भिन्न प्रवृत्तियाँ एकत्व की ओर उन्मुख पार्थिव विकास की प्रवृत्ति एक महत्तर एकत्व की सम्भावना हैं| इस तरह सावित्री Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (10) #1138 by Ashok Srivastava published on Tuesday, September 1st 2015, 3:10:00 am भाषा में अर्थ-विकास -2 शब्द सावित्री नितांत भौतिक नहीं है, बल्कि प्रतीकात्मक है| वैदिक संहिताओं के प्राचीन सन्दर्भों में इस शब्द की स्थिति और उपस्थिति को देखने से निर्विवाद रूप से यह सिद्ध हो जाता है| वहां तो नितांत भौतिक शब्द जैसे अग्नि, रात्रि और घरेलू उखल आदि विभिन्न शब्द महिमान्वित हो उठते हैं| लचीले ध्वनि, लिपि संकेतों में बीज ध्वनियों से बने क्रियावाचक शब्द जिनका प्राचीन संस्कृत नाम धातु था सहज स्वाभाविक रूप में बनते-मिटते पर विकसित होते रहे| प्राचीन संस्कृत कोष देखें तो वे शब्द-वर्ग, एक ही शब्द के के मूल भाव को वहन करते हुए विभिन्न नामों के रूप में संकलित किये गये हैं क्योंकि एक मूल भाव के उस रंग विशेष की ही परछाईयां हैं| प्राचीन शब्दों की यह नमनीयता आध्यात्मिक भावपूर्ण अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए अधिक उपयुक्त थी| साहित्य में प्रतीकात्मक गाथाओं के विकास के पीछे भी यही तथ्य थे| इस कारण ही सम्पूर्ण वैदिक संहिताएँ भारत में दैवी और परम पवित्र आध्यात्मिक ग्रन्थ के रूप में मान्य रहे हैं| वास्तव में सावित्री का देवी के रूप में प्रतिष्ठित होने की यही वास्तविक भूमिका है| सावित्री का देवत्व कुछ अत्यंत सरल और सहज शब्दों में निहित है जिसका Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (9) #1115 by Ashok Srivastava published on Thursday, August 20th 2015, 3:10:00 am वैखरी-वाणी मेंसावित्री यहाँ हम शब्द सावित्री को प्राचीन परम्परा के मूल संस्कृत पाठ के अर्थों को श्री अरविन्द के प्रकाश में देखेंगे| कदाचित तब हम देख सकेंगे कि भाषा के चार पदों में श्री अरविन्द के द्वारा प्रयुक्त यह सावित्री शब्द किस तरह से एक विशिष्ठ आद्यात्मिक सत्य की पूर्णता का एक गुह्य अंग है और जो पृथिवी पर विकास का सनातन आद्यात्मिक सत्य है| प्राचीन सावित्री उसी सत्य के गहन रहस्य का नवीन उद्घाटन है| यह तथ्य हम प्राचीन भारतीय वैदान्तिक ज्ञान की पद्धति के माध्यम से श्री अरविन्द के प्रकाश में देखेंगे| प्राचीन वैदिक संस्कृत-भाषा की प्रकृति, चित्र-संकेत और ध्वनि रूप, सूक्ष्म आध्यात्मिक भावों-संकेतों को काव्य के माध्यम से अभिव्यक्ति में अधिक सक्षम और विकास की दृष्टि से बहुत नमनीय है|और यही कारण है कि वह विश्व में सबसे अधिक उच्चकोटि का प्रतीकात्मक आद्यात्मिक साहित्य मानव को दे सकने में सक्षम हुई| विश्व के सर्वमान्य एवं सर्वश्रेष्ठभाषा-वैज्ञानिक पाणिनिने स्वयं भाषाअर्थात बोलचाल की भाषा और संस्कृत अर्थात संस्कारित भाषा, -दोंनों ही शब्दों का प्रयोग किया है| औरएक वैयाकरण होने के बावजूद उन्होंने ने मन्त्र-द्रष्टा ऋषियों की भाषा अर्थात आर्ष-भाषा का समुचित सम्मान किया है| उन्होंने ऋषि-दृष्टि एवं भाव को व्याकरण की दासी बनाने का प्रयास नहीं किया| Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (8) #1084 by Ashok Srivastava published on Thursday, August 6th 2015, 3:10:00 am वेद, एक अज्ञेय परम परात्पर और उसकी सृष्टि के एकत्व और द्वैत अर्थात विविधता दोंनों ही बातों को समान रूप में बल देता है| यहाँ सर्जक, सृष्टि का उपादान तत्व और सृष्टि तीनों समान रूप से एक भी हैं और अनेक भी| इस तरह की साधारण मन को असंगत प्रतीत होने वाली बातएक शुद्ध और सूक्ष्म विवेकशील ईमानदार द्रष्टा मन ही कह सकता है| एकत्व, विविधता, सामंजस्य और उसकी समस्या को ध्यान रखते हुए उसके समाधान का प्रयास किया गया है| इस स्थिति में स्वाभाविक रूप में सहज ही प्रकृति के और मानव निर्मित विभिन्न घरेलू उपयोगी पदार्थ भी देवों की श्रेणी में आ गये हैं| इन वैदिक देवों को यास्क ने तीन भागों में वर्गीकरण किया है: 1-पृथिवीस्थानीय देवता- अदिति, दिति, नदियाँ, अग्नि आदि| 2-अन्तरिक्ष स्थानीय देवता- मातरिश्वन, मरुत, त्रित-आपत्य, आप: आदि| 3-द्युस्थानीय देवता-आदित्य, सविता ( सवितृ ), पूषा, अश्विनौ आदि| वेदों में देवों की संख्या एक से छ: हजार तक बताई गई है| ऋ०-01/139 में 33 देवों, यजु० 33/7 में 3339 देवों को अग्नि-पूजक बताया गया है, अथ०११/5 में छ: हजार देव और यजु० 16/54 में पृथिवी पर असंख्य रूद्रों की बात कही गई है| वस्तुत: इस विषय का सच ऋग्वेद का यह मन्त्र है जिसमे जो इस Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (7) #1082 by Ashok Srivastava published on Wednesday, August 5th 2015, 3:10:00 am नासदीय-सूक्त स्रष्टि के प्रसंग मेंएक आदिकालीन मानवीय विश्वास है कि सृष्टि का रचयिता ईश्वर था| कुछ लोग उसे परात्पर और एकमात्र सत्ता या सत्य कहते हैं| वैदिक साहित्य ने एक अद्भुत, तीक्ष्ण और सर्वंगीण दृष्टि से सृष्टि से पार अपनी दृष्टि डाली है| आगे ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद और पुरानों में उसने एक ओर उसे परात्पर से उत्पन्न हुआ देखता है तो दूसरी ओर वर्तमान सृष्टि को उस परात्पर सत्ता का स्वयम का ऐसे प्रक्षेपण के रूप में देखता है जिसने स्वयं अपने ही आनन्द के लिए सृष्टि की रचना की| वैदिक सूक्तों में सृष्टि की समस्या को बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखा गया है और इसे प्रमाणित करने के लिए के लिए ऋग्वेदसंहिता,मं०10/१२९कानासदीय-सूक्त ले सकते हैं| ऋग्वेदसंहिता का मं०10/१२९,सातमन्त्रोंकाएकसूक्त है जिसमें सृष्टि पूर्व की स्थिति की कल्पना या सोच का एक प्राचीतम मानवीय काव्यमय वर्णन मिलता है जो किसी धार्मिक कल्पना या अंधविश्वास से नहीं बल्कि एक विवेकशील शुद्ध-मन के आँखों देखा गया मानव रचित अनूठा और अद्द्वितीय वर्णन है| कवि कहता है, -“उस समय न मृत्यु थी, न अमृत था, सूर्य-चन्द्र के अभाव से रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था| उस वायु से रहित दशा में एक अकेला वह ही अपनी शक्ति से प्राण Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (6) #1080 by Ashok Srivastava published on Tuesday, August 4th 2015, 10:10:00 am सावित्री: बहुकल्पी शब्द शब्द सावित्री,एक प्राचीन वैदिक कालीन शब्द है| यह एक से अधिक अर्थों वाला एक बहुकल्पी शब्द है| श्री अरविन्द ने अपनी अनुभूतियों के आधार पर मानव जाति के लिए जिस संदेश को प्रेषित करने के लिए मनुष्य की सबसे प्राचीन धार्मिक परम्परा और कथानक का उपयोग किया है उसका प्रतिनिधित्व सावित्री इस एक नाम और उसके प्रतीकात्मक कथानक के साथ जुड़ गया है| यह शब्द मानव जाति की प्राचीनतम धार्मिक और उसके पीछे एक आध्यात्मिक विकास की परम्परा का एक जीवंत उदाहरण है| यह इसी कारण हमें विशाल वैदिक साहित्य में वैदिक संहिताओं से लेकर ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषद, एवं पुराणों में सावित्री शब्द के अर्थ विकास पर ध्यान देना होगा| यह इस कारण भी यह आवश्यक है क्योंकि स्वयं श्री अरविन्द ने शब्द सावित्री के अर्थ को अपने संदेश का आधार बनाया है और उसके अर्थ को उन्होंने नवीन और अनूठा आयाम दिया है| यह शब्द प्राचीनतम मानवीय अभीप्सा के मजबूत आद्यात्मिक आधार पर खड़ा है| प्रयास करें तो हम आसानी से शब्द सावित्री के अर्थ को प्राचीनविदेशी भाषाओं में भी सावित्री के संदेश के प्रकाश में जगमगाते, समानार्थक संदेश देते हुए दिखलाई पड़ेंगे| इन बातों को तुलनात्मक भाषा विज्ञान के प्रथम शोधकर्ताओं ने Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (5) #1060 by Ashok Srivastava published on Sunday, July 26th 2015, 3:10:00 am प्राचीन भाषाओं में शब्द कम हैं और स्वाभाविक है कि इसी कारण मानवीय भावाभिव्यक्ति और सम्प्रेषण के लिए उनका लचीला होना आज की अपेक्षा अधिक आवश्यक था| जैसा कि मैक्समूलर कहता है कि भाषा का प्रयोजन है कि हम ''विचारों की अनुभूति करें और उनको किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से दूसरों पर भी व्यक्त करें| भाषा की प्राचीन अवस्था में पौराणिक कल्पना का नाटक बहुत जानदार और बहुत अधिक व्यापक था, इस कारण उसका प्रभाव गम्भीर रूप से पड़ता था|” एक मजाक करते हुए बड़ी तथ्यपूर्ण और गंभीर बात की ओर संकेत करते हुए मैक्समूलर कहता है कि विशेषकर राजनीतिज्ञ “ढूंढ ढूंढ कर ऐसे शब्दों को काम में लाते हैं और बच्चों की तरह अपना वाक्य उस शब्द से आरम्भ करते हैं जिसका अर्थ अधिक से अधिक अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण हो|”(- मैक्समूलर, ‘भाषाविज्ञान पर भाषण’,ख० 2, प० 372) सावित्री: देवता वस्तुत: इस विषय का सत्य यह है कि तथाकथित जड़ तत्व भी अपने रूप धीरे धीरे ही सही परन्तु बदलते हुए विकसित होता रहता है| और, मानवीय भाषा तो आत्य्धिक जीवंत वस्तु है, इसका विज्ञान अद्भुत है| यहाँ हम सावित्री शब्द को लेते हुए देखेंगे कि वह किस तरह उसका अर्थ विकसित होता गया है| Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (04) #1055 by Ashok Srivastava published on Friday, July 24th 2015, 3:10:00 am भाषा के सम्बन्ध में उपरोक्त विवरण और इन दो वैदिक मन्त्रों (ऋ० 1-113-8 एवं 10) का उल्लेख यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि वैदिक शब्द केवल भौतिक रूप में अपने परिवार और समाज के साधारण दैनिक भौतिक जीवन के लिए ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विकास का भी एक महत्वपूर्ण साधन है| अब हम भाषा में सावित्री शब्द की स्थिति देखेंगे| भाषा में शब्द हम जानते है कि ध्वनियों के कई आयाम हैं,मोटे रूप में भौतिक और सूक्ष्म ध्वनियाँ| ध्वनि की आवृत्ति और उनकी शक्तियों की दृष्टि से भी उनके वर्गीकरण किये जा सकते हैं| परन्तु ध्वनियों के समूह से जो शव्द एवं वाक्य बनते हैं उसे यदि भौतक तत्त्व कहा जाय तो वह एक अन्य सूक्ष्म तत्त्व होगा और जो शब्द का भाव, अर्थ या प्राण है| इसी कारण शब्दों के दो समूह हैं, -सार्थक और निरर्थक| सावित्री की सार्थकता को हम आगे विस्तृत रूप में देखेंगे| शब्द अच्छरों से बनते हैं और ध्वनियों के विज्ञान की परम्परागत वैदान्तिक ज्ञान की पद्धति के छ: अंगों में से “शिक्षा” या पाणिनि “वर्णोंच्चारण-शिक्षा” के अनुसार,- “आकाश और वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाला, नाभि के नीचे से ऊपर उठता हुआ, जोमुख को प्राप्त हिता है Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (03) #1051 by Ashok Srivastava published on Wednesday, July 22nd 2015, 3:10:00 am शब्द का साधारण अर्थ ध्वनि है| परन्तु ध्वनि का सीमित और ठोस पचलित अर्थ है शोर जबकि सावित्री का अर्थ बहुत सारगर्भित और विस्तृत है| सावित्री शब्द ने यह विस्तार प्राचीन और विशाल संस्कृत साहित्य के अध्यात्मिक प्रतीकों और इसके सम्बन्ध में प्रचलित प्रतीकात्मक गाथा साहित्य में अपने साथी शब्दों की छाया में पाया है| वैदिक साहित्य के ब्राह्मण-ग्रंथों, आरण्यकों और उपनिषदों में सावित्री ने बहुत अर्थ-विस्तार पाया है| श्री अरविन्द के सावित्री महाकाव्य ने इसका अपूर्व अर्थ विस्तार किया और सच्चे अर्थों में विश्व का महाकाव्य बना दिया है| सावित्री शब्द के अर्थ के लिए हमे संस्कृत साहित्य के मूल स्रोत वैदिक संहिताओं के अंत:साक्ष्यों में प्रवेश करना होगा| जैसा कि हम जानते हैं देवनागरी लिपि में प्रचलित संस्कृत ने अपनी परम्परा ब्राह्मी लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृत से प्राप्त की थी| परन्तु उसके पूर्व में भी कोई भाषा और लिपि थी जिस लिपि और भाषा को अभी पढ़ा नहीं जा सका है| इस तथ्य का उल्लेख मात्र इसलिए आवश्यक है कि सावित्री शब्द जिस परम्परा से हमे प्राप्त हुआ है वह भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परम्परा के विकास से गहरा सम्बन्ध रखती है| वस्तुत: वह परमसत्ता और उसकी सृज्नात्मिका शक्ति के द्वारा सृष्टि और उसके Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (2) #1040 by Ashok Srivastava published on Thursday, July 16th 2015, 3:10:00 am वस्तुत: यह श्री अरविन्द का एक सूत्र-वचन है जो संक्षेप में वाक-तत्व, मानवीय और दैवी भाषा और आर्ष-वचनों की वास्तविक प्रकृति को उद़्घाटित करता है। “वेदरहस्य” में तथा अन्यत्र भी इस विषय पर लिखा है परन्तु दैवी वाणी के सत्य की पर्थिव-अभिव्यक्ति इतना सरल नहीं है| यहाँ इसका उल्लेख केवल इसलिए किया गया है कि सावित्री एक नवीन, महान और सत्य है और इसके सत्य, मर्म और शक्ति का स्पर्श पाने में इसकी मूल भाषा सहायक हो सकती है परन्तु अनिवार्य नहीं है| कदाचित प्रत्येक मानवीय भाषा को सावित्री के सत्य को अभिव्यक्त करने का प्रयास करना चाहिए| भौतिक स्तर पर स्वयं माताजी ने अपनी मातृभाषा में सावित्री का अनुवाद करने का प्रयास किया है| यहाँ उल्लेखनीय है कि श्री अरविन्द की “सावित्री: एक गाथा और एक प्रतीक” मानवजाति की सबसे प्राचीन गाथाओं में से एक पर आधारित, विश्व का एक अनूठा महाकाव्य है| श्री अरविन्द की सावित्री और उसकी गाथा के प्रतीक एवं उसके अर्थ वैदिकभाषा में सूत्र रूप में और महाभारत में कुछ अधिक विस्तार से अभिव्यक्त हुआ है और वे अपने आयाम में इस अलग हैं परन्तु यह कोई विरोध नहीं बल्कि अर्थ के विस्तार के रूप में है; कुछ इस तरह जैसे हिमालय से समुद्र Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ सावित्री: शब्दार्थ 55 (1) #1037 by Ashok Srivastava published on Wednesday, July 15th 2015, 3:10:00 am इस लेखमाला में हम श्री अरविन्द के महाकाव्य “ सावित्री: एक गाथा और एक प्रतीक” में शब्द सावित्री को उसके अर्थ और प्रकाश की उस छठा के दर्शन करने का प्रयास करेंगे जो वह अपने साथी शब्दों के साथ अपने प्राचीन वैदिक अर्थ, भाव और रंग के साथ सावित्री में सदा ही उपस्थित हैं| सावित्री महाकाव्य एक शब्द-विग्रह है जिसमें में गाथा की प्रतीकात्मकता, रहस्य, सौन्दर्य शिखर पर पहुँचते हैं| परन्तु शब्द-विग्रह या मूर्ति की सम्पूर्णताप्राय: हमारी दृष्टि से ओझल रह जाते हैं और इस कारण सावित्रीकेउस आकर्षक दिव्य-कर्म को नहीं देख पातेजो पर्थिव जीवन को अज्ञान, दु:ख-कष्ट और मृत्यु से सदा के लिए मुक्त के लिए मानव आत्मा को एकमहान साहसिक अभियान की ओर पूर्ण रूप से प्रेरित नहीं कर पाते| वस्तुत: सत्य को यदि खंडित होने से बचाना है तो मानव चेतना को अपनी दृष्टि में उसे सर्वांगीण में लेना होना न कि केवल भौतिक, आध्यात्मिक, परात्पर, या स्वर्गीय रूपों में| सावित्री की गाथा अपने लक्ष्य में सर्वथा नवीन, साहसिक और विलक्षण होते हुए भी विकासमान पार्थिव-जीवन की प्राचीनतम अभीप्सा है| इसी कारण स्वाभाविक रूप से इस महाकाव्य के लक्ष्य की महानता और इसका अनूठापन ही इसे वर्तमान-जीवन के यथार्थ से तुलनात्मक रूप से दूरप्रतीत होता है Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ बीज मंत - (Post-53) #991 by Ashok Srivastava published on Tuesday, June 23rd 2015, 4:56:00 pm बीज मंत्र वेदमंत्र का संक्षिप्त रुप बीज मंत्र कहलाता है। वेद वृक्ष का सार संक्षेप में बीज है। मनुष्य का बीज वीर्य है। समूचा काम विस्तार बीज में सन्निहित रहता है। गायत्रीके तीन चरण हैं। इन तीनों का एक-एक बीज ‘भूः र्भुवः स्वः’ है। इस व्याहृति भाग का भी बीज है-ॐ। यह समग्र गायत्री मन्त्र की बात हुई। प्रत्येक अक्षर का भी एक-एक बीज है। उसमें उस अक्षर की सार-शक्ति विद्यमान है। तांत्रिक प्रयोजनों में बीज मंत्र का अत्यधिक महत्त्व है। इसलिए गायत्री-मृत्युञ्जय जैसे प्रख्यात मंत्रों की भी एक या कई बीजों समेत उपासना की जाती है। चौबीस अक्षरों के २४ बीज इस प्रकार हैं- (१) ॐ (२) हीं (३) श्रीं (४) क्लीं (५) हों (६) जूं (७) यं (८) रं (९) लं (१०) वं (११) शं (१२) सं (१३) ऐं (१४) क्रो (१५) हुं (१६) हलीं (१७) पं (१८) फं (१९) टं (२०) ठं (२१) डं (२२) ड (२३) क्षं (२४) लूं। यह बीज मन्त्र व्याह्यतियों के पश्चात् एवं मन्त्र-भाग से पूर्ण लगाये जाते हैं। ‘भूर्भुवः स्वः’ के पश्चात् ‘तत्सवितुः’ से पहले का स्थान ही बीज लगाने का स्थान है। ‘प्रचोदयात्’ के पश्चात् भी इन्हें लगाया जाता है। ऐसी दशा में उसे सम्पुट कहा जाता है। Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ अक्षरों और पुष्पों की संगति (Post-52) #989 by Ashok Srivastava published on Tuesday, June 23rd 2015, 3:10:00 am ऐसा भी कहा जाता है कि अमुक शब्द शक्तियों की साधना में इन फूलों का उपयोग विशेष सहायक सिद्ध होता है। अक्षरों और पुष्पों की संगति का उल्लेख इस प्रकार है- अतः परम् वर्णवर्णान्व्याहरामि यथातधम्। चम्पका अतसीपुष्पसन्निभं विद्रुमम् तथा।। स्फटिकारकं चैव पद्यपुष्पसमप्रभम्। तरुणादित्यसंकाशं शंखकुन्देन्दुसन्निभम्।। प्रवाल पद्मपत्राभम् पद्म रागसंमप्रभम्। इन्द्रीनीलमणिप्रख्यं मौक्तिकं कुम्कुमप्रथम्।। अन्जनाभम् च रक्तंच वैदूर्यं क्षौद्रसन्निभम्। हारिद्रम् कुन्ददुग्धाभम् रविकांतिसप्रभम्।। शुकपुच्छनिभम् तद्वच्छतपत्र निभम् तथा। केतकीपुष्पसंकाशं मल्लिकाकुसुमप्रभम्।। करवीरश्च इत्येते क्रमेण परिकीर्तिताः। वर्णाः प्रोक्ताश्च वर्णानां महापापविधनाः।। गायत्री महामंत्र के २४ रंग नीचे दिये पदार्थों तथा पुष्पों के रंग जैसे समझने चाहिए। (१) चम्पा (२) अलसी (३) स्फटिक (४) कमल (५) सूर्य (६) कुन्द (७) शंख (८) प्रवाल (९) पद्म पत्र (१०) पद्मराग (११) इन्द्रनील (१२) मुक्ता (१३) कुंकुम (१४) अंजन (१५) वैदूर्य (१६) हल्दी (१७) कुन्द (१८) द्रध (१९) सूर्य कान्त (२०) शुक्र की पूछ (२१) शतपत्र (२२) केतकी (२३) मल्लिका (२४) कन्नेर। किस अक्षर का नियोजन किस स्थान पर हो इस संदर्भ में भी मतभेद पाये जाते हैं। इन बारीकियों में न उलझकर हमें इतना ही मानने से भी काम चल सकता है कि इन स्थानों में विशेष शक्तियों का निवास है और उन्हें गायत्री साधना के माध्यम से जगाया जा सकता है। पौष्टिक आहार-विहार से शरीर के समस्त अवयवों का परिपोषण होता है। रोग निवारक औषधि से किसी भी अंग Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ न्यास विधान और रक्षा बन्धन (Post-51) #987 by Ashok Srivastava published on Monday, June 22nd 2015, 3:10:00 am न्यास विधान ॐ तत्पादङ्क लिषर्वभ्याँ नमः (पैरों की अंगुलियों की गाँठों को) ॐ सपादाङ्गु लिभ्यो नमः (पैरों की अंगुलियों को) ॐ विजङ्घाभ्याँ नमः (दोनों जांघो को) ॐ तुर्जानुभ्याँ नमः (दोनों जानुओं को) ॐ व ऊरुभ्याँ नमः (कटि के नीचे के भाग को) ॐ रे शिश्नाय नमः (शिश्न को) ॐ णि वृषणाभ्याँ नमः (वृषण को) ॐ यं कट्यै नमः (कटि को) ॐ भर्नाभ्यै नमः (नाभि को) ॐ गो उदराय नमः (पेट को) ॐ दे स्तनाय नमः (दोनों स्तनों को) ॐ व उरुसे नमः Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ चौबीस कलाएँ और मातृकाएँ (Post-50) #985 by Ashok Srivastava published on Sunday, June 21st 2015, 3:10:00 am चौबीस अक्षरों से सम्बन्धित चौबीस कलाएँ- (१) तापिनी (२) सफला (३) विश्वा (४) तुष्टा (५) वरदा (६) रेवती (७) सूक्ष्मा (८) ज्ञाना (९) भर्गा (१०) गोमती (११) दर्विका (१२) थरा (१३) सिहिंका (१४) ध्येया (१५) मर्यादा (१६) स्फुरा (१७) बुद्धि (१८) योगमाया (१९) योगासरा (२०) धरित्री (२१) प्रभवा (२२) कुला (२३) दृष्या (२४) ब्राह्मी। ‘योगी याज्ञवल्क्य’ ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- कर्मेन्द्रियाणि पंचैव पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि च। पंच पंचेन्द्रियाणार्थश्च भूतानां चैव पंचकम्।। मनाबुद्धि स्तथात्माच अव्यक्तं च यदुत्तमम्। चतुर्विशत्यथैतानि गायत्र्या अक्षराणि तु।। -योगी याज्ञवल्क्य पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच तत्त्व, पाँच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, आत्मा तथा परमात्मा इस प्रकार २४ शक्तियाँ गायत्री के २४ अक्षरों में समाई हुई हैं। भौतिक विज्ञान के वर्तमान वैज्ञानिकों ने इनकी शोध अपने ढंग से की है। वे इस शक्ति को ‘एनर्जी आफ फोर्स’ के नाम से पुकारते हैं। हीट पावर (ताप) इलेक्ट्रिकल एनर्जी (ताकत) एनर्जी आफ ऐलैस्टिसिटी (स्थिति) एनर्जी आफ ग्रेवीटेशन (मध्याकर्षण) एनर्जी आफ मोशन (गति) काइनेटिक एनर्जी (क्रिया) कास्मिक इलैक्ट्रिसिटी (विश्व विद्युत) इन्टैलिजेन्स (ज्ञान) सुपर फोर्स (उच्च शक्ति) आदि अनेक भेदों में इस शक्ति को विभक्त किया गया है और उसके गुण Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ गायत्री के चौबीस अक्षर (Post-49) #982 by Ashok Srivastava published on Saturday, June 20th 2015, 3:10:00 am गायत्री रहस्योपनिषद में इस समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड को, जड़-चेतन प्रकृति को, देव परिवार को, हलचलों एवं प्रवृत्तियों को गायत्री के अक्षरों में बीज रुप से ओत-प्रोत माना है, (१) आत्मा की सीमित और (२) परमात्मा की असीम शक्ति का ताल-मेल बिठाने वाली महाशक्ति के रुप में गायत्री मंत्र की विवेचना की है। कहा गया है- ओऽम् भूरिति भुवो लोकः। भुव इत्यन्त-रिक्षलोकः। स्वरिति स्वर्गलोकः। मह इति महर्लोक। जन इति जनोलोकः। तप इति तपोलोकः। सत्यमिति सत्यलोकः। तदति ददसौ तेजोमयं तेजोऽग्निर्देवता। सवितुरिति सविता सविता साचित्रमादित्यौ वै। वरेण्यमित्यत्र प्रजापतिः। भर्ग इत्यापो वै भर्गः। देवस्य इतीन्द्रो देवो द्योतत इति स इन्द्रस्तस्मात् सर्वपुरुषो नात रुद्रः। धीमहीयत्नन्तरात्मा। धिय इत्यन्तरात्मा परः य इति सदाशिवपुरुषः। नो इत्यस्माकं स्वधर्में। प्रचोदयादिति प्रचोदितिकाम इमान् लोकाम् प्रत्याश्रयते यः परो धर्म इत्येषा गायत्री। -गायत्री रहस्योपनिषद भू शब्द भू लोक का बोधक है। भुवः आकाश का, महाः महलोक का, जनः जनलोक का, तपः तपलोक का, सत्यम्-सत्यलोक का बोधक है। तत्-तेजस्वो अग्नि का, सवितुः-सूर्य का, वरेण्यं-प्रजापति का, भर्गः-वरुण का, देवस्य-इन्द्र का, धीमहि-आत्मा का, धियः परमात्मा का, यः-शिव का, नः-समष्टि आत्मा का, प्रचोदयात्-प्रेरक इच्छा शक्ति का बोधक है। यह गायत्री ही पर धर्म है। यही समस्त लोकों का प्रत्याश्रय Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ गायत्री के चौबीस अक्षर (Post-48) #980 by Ashok Srivastava published on Friday, June 19th 2015, 3:10:00 am गायत्री के चौबीस अक्षर १-तत् २-स ३-वि ४-तु ५-र्व ६-रे ७-णि ८-यं ९-भ १०-र्गो ११-दे १२-व १३-स्य १४-धी १५-म १६-हि १७-दि १८-यो १९-यो २०-नः २१-प्र २२-चो २३-द २४-यात्। चौबीस अक्षर-चौबीस शक्ति स्त्रोत गायत्री महामन्त्र के २४ अक्षर केवल इसलिए नहीं है कि कविता की दृष्टि से आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण वाला छन्द गायत्री माना जाता है और यह महामन्त्र ‘गायत्री छन्द’ भी कहा गया है। इसलिए उसमें २४ अक्षर होने चाहिए। कविता के लिए आवश्यक अक्षरों की पूर्ति के लिए २४ अक्षर नियोजित नहीं किये गये हैं वरन् सच तो यह है कि प्रस्तुत गायत्री मन्त्र के २४ अक्षरों के बारे में भी विवाद चला आता है। ‘णयं’ शब्द पर गाड़ी अटक जाती है, किसी ऋषि ने उसे एक और किसी ने दो अक्षर गिना है। जो एक गिनते हैं उनके हिसाब से इस मंत्र में २३ ही अक्षर ठहरते हैं। इस कमी के लिए ‘णयं’ के उच्चारण-क्रम को थोड़ी लम्बी ध्वनि में बोलकर २४ अक्षरों की पूर्ति की जाती है। चारों वेदों में अनेक गायत्री मन्त्र हैं उनमें ऐसा विवाद नहीं है। उनके अक्षर सीधे-सादे और पूरे हैं। हमारे उपास्य महामन्त्र में जिस प्रकार का विवाद है, Read more | 0 comments श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’ गायत्री की असंख्य शक्तियाँ- 04 (Post-47) #958 by Ashok Srivastava published on Monday, June 8th 2015, 3:10:00 am इस मन्त्र में ‘धियः’ अर्थात् बुद्धि का प्रयोग बहुवचन में किया है। ‘‘अनेक प्रकार की बुद्धि’’ ऐसा अर्थ उससे निकलता है। हिन्दू संस्कृति केवल आध्यात्मिकता का विचार करती है, ऐसा मानकर व्यक्ति आधिभौतिक की उपेक्षा करना अपना आदर्श बतलाते हैं। परन्तु ‘‘धियः’’ शब्द के प्रयोग से उसका खण्डन हो जाता है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं, किन्तु भौतिक, आर्थिक, राजकीय सब प्रकार की बुद्धि बढ़ जाय, यह गायत्री मन्त्र की प्रार्थना है। भूत विद्या, मनुष्य विद्या वाकोवाक्य, राशि, क्षात्र विद्या, नक्षत्र विद्या, जन विद्या इत्यादि नाम उपनिषदों में पाये जाते हैं। अर्थात् अनेक प्रकार की बुद्धि। यह अर्थ ‘धियः’ से लिया जाय तो उसमें अनौचित्य का कुछ भी संदेह नहीं होना चाहिए।..... ....आदमी जिस-जिस चीज का ध्यान करता है उसी प्रकार की उसकी वृत्ति बन जाती है, यह प्राकृतिक सिद्धान्त है। ‘सूर्य भगवान् के भ स्वर तेज का हम ध्यान करते हैं-ऐसा गायत्री मन्त्र के प्रथम चरण का अर्थ है। ऐसे तेजस्वी पदार्थ का ध्यान करने वाले स्वयं तेजस्वी बनेंगे यह मानस शास्त्र अथवा मनोविज्ञान द्वारा सत्य सिद्ध हो चुका है। .... ... प्रब्रवाम शरदः शतम्। अदीन स्याम शरदः शतम्। ‘‘सौ वर्ष तक अधिकारपूर्ण वाणी से बोलते रहेंगे। सौ वर्ष तक हम दैन्य रहित जीवन बितायेंगे।’’ इस प्रकार Read more | 0 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