Saturday, 4 November 2017

ज्ञान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति

  awgp.org 🔍 PAGE TITLES November 1968 ज्ञान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति ज्ञान को ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति माना गया है। वास्तविक वस्तु वह है जो सदैव रहने वाली हो संसार में हर वस्तु काल पाकर नष्ट हो जाती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, साथी और सहयोगी छूट जाते हैं। केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है, जो कहीं भी किसी अवस्था और किसी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता। धन, जन को भी मनुष्य की एक शक्ति माना गया है। किन्तु यह उसकी वास्तविक शक्तियाँ नहीं है। इनका भी मूल स्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान के आधार पर ही धन की उपलब्धि होती है और ज्ञान के बल पर ही समाज में लोगों को अपना सहायक तथा सहयोगी बनाया जाता है। अज्ञानी व्यक्ति के लिये संसार की कोई वस्तु सम्भव नहीं। धन के लिये व्यापार किया जाता है, नौकरी और शिल्पों का अवलंबन किया जाता है, कला-कौशल की सिद्धि की जाती है। किन्तु इनकी उपलब्धि से पूर्व मनुष्य को इनके योग्य ज्ञान का अर्जन करना पड़ता है। यदि वह इन उपायों के विषय में अज्ञानी बना रहे तो किसी भी प्रकार इन विशेषताओं की सिद्धि नहीं कर सकता और तब फलस्वरूप धन से सर्वथा वंचित ही रह जायेगा। यही बात जन शक्ति के विषय में भी कही जा सकती है। जन-बल को भी अपने पक्ष में करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है। जब किसी को जन-मानस का ज्ञान होगा, उसकी आवश्यकताओं और समस्याओं की जानकारी होगी, उसे सत्पथ दिखला सकने की योग्यता होगी, उसके दुख-दर्द और कष्ट-क्लेशों के निवारण कर सकने की बुद्धि होगी, तभी जन-बल पर अपनी छाप छोड़कर उसे अपने पक्ष में किया जा सकता है। जनता का सहज स्वभाव होता है कि वह अपने सच्चे हितैषी का ही पक्ष धारण किया करती है। जनता का हित किस बात में है और सम्पादन किस प्रकार किया जा सकता है, इसका ज्ञान हुये बिना ऐसा कौन है, जो जन-बल को अपनी शक्ति बना सके। जन-बल का उपार्जन भी ज्ञान द्वारा ही सम्भव हो सकता है। किसी शक्ति के उपलब्ध हो जाने के बाद भी उसकी रक्षा और उसके उपयोग के लिये भी ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान के अभाव में शक्ति का होना न होना बराबर होता है। उसका कोई लाभ अथवा कोई भी आनन्द नहीं उठाया जा सकता। उदाहरण के लिये मान लिया जाये कि कोई उपार्जन अथवा उत्तराधिकार में बहुत सा धन पा जाता है या किसी संयोगवश उसे अकस्मात मिल जाता है, तो क्या यह माना जा सकता कि वह धन शक्ति वाला हो गया। क्योंकि धन में स्वयं अपनी कोई शक्ति नहीं होती है, वह शक्ति तभी बन पाती है, जब उसके साथ उसके प्रयोग अथवा उपयोग में ज्ञान का समावेश होता है। यदि मनुष्य यह न जानता हो कि वह उस धन से कौन सा व्यवसाय करे, किस जन-हितैषी संस्था को दान दे, समाज के लाभ के लिये कौन-सी क्या स्थापना करे। वह धन द्वारा किस प्रकार दीन-दुखियों, अपाहिजों अथवा आवश्यकता ग्रस्त लोगों की सहायता करे। उसको व्यय कर किस प्रकार का रहन सहन बनाये, क्या और किस प्रकार के कामों में उसको लगाये, जिससे समाज में उसका आदर हो, आत्मा में प्रकाश हो और परमार्थ में रुचिता बढ़े-तो वह धन उसकी क्या शक्ति बनकर सहायक हो सकेगा। बल्कि अज्ञान की अवस्था में या तो वह धन को आबद्ध रखकर समाज और राष्ट्र की प्रगति रोकेगा, चोर डाकुओं और ठगों को आकर्षित करेगा अथवा ऊल-जलूल विधि से उसका अपव्यय एवं अनुपयोग करके समाज में विकृतियाँ पैदा करेगा, अपना जीवन बिगाड़ेगा। यह तो मनुष्य की वास्तविक शक्ति का लक्षण नहीं है। धन की शक्ति में वास्तविकता तभी आती है, जब उसके संग्रह एवं उपयोग का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। नहीं तो अपमार्गों द्वारा संचित धन मनुष्य की निर्बलता और आशंका का हेतु बनता है। दुरुपयोग द्वारा भी यह समाज में अपवाद ईर्ष्या, द्वेष आदि का लक्ष्य बनकर निर्बलता की ओर बढ़ता है। इसलिये यह मानना ही होगा कि वास्तविक शक्ति धन में होती है और न जन में, वह होती है, उस ज्ञान में जो इन उपलब्धियों के उपार्जन एवं व्यय का नियन्त्रण किया करता है। View more Books Magazine Language English Hindi Gujrati Kannada Malayalam Marathi Telugu Tamil Stories Collections Articles Open Pages (Folders) Kavita Quotations Visheshank Quick Links Book Catalog Whats New Downloads All WorldGayatri Pariwar

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