Sunday, 5 November 2017
संतपद
संत कबीर
Tuesday, April 27, 2010
रसखान के पद
गोकुल गांव के ग्वारन
मानुष हौं तो वहीं रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन॥
यह पद रसखान के भजन संग्रह से उद्धृत है। कृष्ण भक्त रसखान कहते हैं कि यदि मनुष्य के रूप में जन्म लें तो गोकुल के ग्वाला बनकर आएं। पशु के रूप में नंद की गाय बनें। पत्थर हों तो गोवर्धन पर्वत का जिसे कृष्ण अपनी अंगुली पर उठाया और पक्षी के रूप में जन्म लें तो यमुना के किनारे उस कदम्ब की डाल पर बसेरा हो जहाँ श्रीकृष्ण ने लीला की थी।
राजतिहूं पुरकौ तजि डारौं
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुरकौ तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवो निधिकौ सुख, नन्द की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखानि, कबों इन आँखिनसो, ब्रजके बन-बाग तडाग निहारौं।
कोटिक हों कलधौतके धाम, करील की कुञ्जन ऊपर बारौं॥
यह पद रसखान के भजन संग्रह से उद्धृत है। रसखान कहते हैं कि बालकृष्ण की उस लकुटी काँवरिया पर तीनों लोकों का राज्य भी छोड दूं। नन्द की गाय यदि चराने को मिले तो अष्टसिद्धि व नवनिधि का सुख भी भुला दूं।
सिर सुन्दर चोटी
धूरि-भरे अति सोभित स्यामजु, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत-खात फिरैं अँगनाँ, पगपैजनी बाजतीं, पीरी कछोटी॥
वा छबिकों रसखानि बिलोकत, बारत कामकलानिधि-कोटी।
कागके भाग कहा कहिए, हरि-हाथसों लै गयो माखन-रोटी॥
रसखान का यह पद उनके भजन संग्रह से उद्धृत है।
जु वही मन भायौ
प्रान वही जु रहैं रिझि वा पर, रूप वही जिहिं वाहि रिझायौ।
सीस वही जिन वे परसे पद अंग वहीं जिन वा परसायौ॥
दूध वही जु दुहायो वही सों, दही सु सही जु वही ढुरकायौ।
और कहा लौं कहौं रसखान री भाव वही जु वही मन भायौ॥
रसखान का यह परम लोकप्रिय पद है। यह उनके भजन संग्रह से उद्धृत है।
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं
सेस, महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि, अनन्त, अखण्ड, अछेद, अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद-से सुक ब्यास रटैं, पचिहारे, तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीरकी छोहरियाँ, छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं॥
रसखान का यह पद भजन संग्रह से उद्धृत है।
जय श्री नाथजी महाराज at 10:18 AM 7 comments:
सूरदास के पद: विनयपत्रिका
सकल सुख के कारन
भजि मन नंद नंदन चरन।
परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन॥
सनक संकर ध्यान धारत निगम आगम बरन।
सेस सारद रिषय नारद संत चिंतन सरन॥
पद-पराग प्रताप दुर्लभ रमा कौ हित करन।
परसि गंगा भई पावन तिहूं पुर धन घरन॥
चित्त चिंतन करत जग अघ हरत तारन तरन।
गए तरि लै नाम केते पतित हरि-पुर धरन॥
जासु पद रज परस गौतम नारि गति उद्धरन।
जासु महिमा प्रगति केवट धोइ पग सिर धरन॥
कृष्न पद मकरंद पावन और नहिं सरबरन।
सूर भजि चरनार बिंदनि मिटै जीवन मरन॥
राग केदार में निबद्ध सूरदास जी का यह भक्तिप्रधान पद है। भगवान् का स्मरण सभी दु:खों का नाश करनेवाला है। इस पद में सूरदास कहते हैं कि अरे मन! नंदपुत्र श्रीकृष्ण (जो विष्णु के अवतार हैं) के चरण कमलों का अब तो भजन कर ले अर्थात् उनका चिंतन कर। श्रीकृष्ण के चरण कैसे हैं.. इन्हीं का वर्णन इस पद में है। उनके चरण कमल के समान व सुख प्रदान करने वाले व मन को हरने वाले हैं। उनके चरणों का ध्यान सनक, सनंदन, सनातन व सनत्कुमार तथा शिव किया करते हैं। जिनकी महिमा का वर्णन वेद-पुराणों में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त शेष, शारदा, ऋषि, नारद, संत-महात्मा भी उनके चरणों का ध्यान किया करते हैं। जिनके चरणों के पराग का प्रभाव दुर्लभ है और जो लक्ष्मी के हितकारी हैं, ऐसे विष्णु के चरण कमलों का हे मन! भजन कर। हे मन! तू प्रभु के चरणों का ध्यान कर। जिनके स्पर्श से गंगा पावन हो गई तथा जिन्होंने तीनों लोकों का घर बना दिया। अर्थात् संपन्न कर दिया। हे मन! सृष्टिगत जीवों के पापों का शमन करने वाले उन्हीं प्रभु के चरणों का तू ध्यान कर। उनके चरणों का ध्यान करके या भजन करके कितने ही पापी तर गए अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो गए। जिन प्रभु के चरणों की रज का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया तथा जिनके चरणों की महिमा को केवट ने उजागर किया और उन चरणों को धोकर अपने शीश पर धारण किया, उन्हीं श्रीकृष्ण के पवित्र चरणों के मकरंद (मधुर रस) का हे मन! तू पान कर। उससे बढकर अन्य कुछ भी नहीं है। सूरदास कहते हैं कि हे मेरे मूढ मन! तू भगवान् के उन चरणों का वंदन कर जिससे तेरे जन्म-मरण का कष्ट मिट जाए।
बृथा सु जन्म गंवैहैं
जा दिन मन पंछी उडि जैहैं।
ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥
या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।
तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उडैहैं॥
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।
जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥
घर के कहत सबारे काढो भूत होय घर खैहैं।
जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥
तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।
जहूं मूढ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥
नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥
यह संसार नश्वर है। इस मिथ्यास्वरूप जगत् में ईश्वर ही एकमात्र आधार है। इस भवसागर से वही पार कर सकता है। इन्हीं भावनाओं को सूरदासजी ने राग झिंझौटी में आबद्ध इस पद के माध्यम से किया है। वह कहते हैं - हे मानव! जिस दिन मन (आत्मा) रूपी यह पंछी उडान भरेगा उस दिन देह रूपी इस वृक्ष के सभी पत्ते टूटकर बिखर जाएंगे अर्थात् यह शरीर प्राणहीन हो जाएगा। इसलिए इस पंचभौतिक शरीर का तू गर्व न कर। इस शरीर को सियार, गिद्ध व कौवे ही खाएंगे। प्राणहीन होने पर शरीर की तीन ही गतियां होंगी अर्थात् या तो वह विष्ठा रूप हो जाता है या कीडे पड जाते हैं या फिर भस्म बनकर उड जाता है। तब स्नान करना, सजना-संवरना, रंग-रूप सभी नष्ट हो जाएगा। हे मानव! मरने के पश्चात वही लोग तुझसे घृणा करने लगेंगे जिन्हें तू अपना मानकर प्यार किया करता था। ऐसी स्थिति होने पर घर के लोग तुझे घर से निकाल बाहर करेंगे। इस पर भी उनका कथन यह होगा कि कहीं भूत बनकर यह घर को न खा जाए। जिन पुत्रों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तूने देवी-देवताओं को मनाया और जिन पुत्रों को तूने लाड-प्यार से पाला वही पुत्र तेरी खोपडी फोडेंगे अर्थात् कपाल क्रिया करेंगे। इसलिए हे मूढ मानव! तू संतों का संग कर। ऐसा करने से तुझे कुछ ज्ञान ही प्राप्त होगा। यदि तूने मनुष्य का चोला धारण करके भी हरि भजन नहीं किया तो मरणोपरांत यम के कोडे खाएगा। सूरदास कहते हैं कि ईश्वर के भजन बिना मनुष्य का यह तन रूपी धन पाना निरर्थक ही है।
मेटि सकै नहिं कोइ
करें गोपाल के सब होइ।
जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥
साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं धोइ।
जो कछु लिखि राख्यौ नंद नंदन मेटि सकै नहिं कोइ॥
दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहि मरत हौ रोइ।
सूरदास स्वामी करुनामय स्याम चरन मन पोइ॥
सूरकृत विनयपत्रिका से उद्धृत यह पद राग घनाक्षरी पर आधारित है। मनुष्य लाख जतन करे लेकिन होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में कहा है कि गोपाल अर्थात् भगवान् जो चाहता है वही होता है। यदि मनुष्य यह गर्व करता है कि उसने श्रम किया था, पुरुषार्थ किया था तभी उसका कार्य सफल हुआ है तो उसका ऐसा गर्व करना मिथ्या है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य अथक परिश्रम करता है, तब भी उसे उसका पर्याप्त फल नहीं मिलता। क्योंकि उसके भाग्य में में ऐसा लिखा ही नहीं होता। तब फल कैसे मिल सकता है? कभी-कभी इसके विपरीत स्थिति होती है। मनुष्य कुछ भी परिश्रम नहीं करता तब भी उसका अल्प पुरुषार्थ ही सिद्ध हो जाता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में समझाया है। सूरदास कहते हैं कि जितने भी तंत्र-मंत्र आदि साधन हैं, वह सब निरर्थक हैं। वे तो मात्र मन को दिलासा देने के माध्यम मात्र हैं। उनसे कुछ भी होना-जाना नहीं है, अत: भूलकर भी उनका आश्रय मत लो। सत्य तो यह है कि जो कुछ भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया है, उसी को भोगना है। उसके लिखे को कोई भी नहीं मिटा सकता। प्राय: देखा गया है कि सृष्टि में जीवादि हानि-लाभ, सुख-दुख को लेकर व्यर्थ का प्रलाप करते रहते हैं। जबकि वह यह नहीं समझते हैं कि भाग्य में ऐसा ही लिखा था। (रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने इस बात को स्पष्ट किया है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ अर्थात् हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति यह सब विधाता के हाथ में है। तब भी मनुष्य इसके कारण स्वयं को दुखी किए रहता है। इस पद में भी सूरदास इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, सुख, दुख आदि को विधाता का लेख समझकर बिसरा दो। करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।
हम भगतनि के भगत हमारे
हम भगतनि के भगत हमारे।
सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥
भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं।
जहां जहां पीर परै भगतनि कौं तहां तहां जाइ छुडाऊं॥
जो भगतनि सौं बैर करत है सो निज बैरी मेरौ।
देखि बिचारि भगत हित कारन हौं हांकों रथ तेरौ॥
जीते जीतौं भगत अपने के हारें हारि बिचारौ।
सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सूदरसन जारौं॥
राग घनाक्षरी में आबद्ध इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने भक्ति की महिमा का बखान किया है। भक्तों के वश में भगवान् होते हैं। यह बात इस पद में बडे ही सहज ढंग से कही गई है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए भक्त की महिमा को प्रतिपादित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती। यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगडने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौडकर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं। इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है। (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है। वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है। तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पडती है।) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पडता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं। जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ। अब तू मेरा भक्त है। अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं। श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को) नष्ट कर देता हूं।
मैं तो चंद खिलौना लैहौं
मैया मैं तो चंद खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभि कौ पय पान करिहौं बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंदबाबा कौ तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।
हंसि समुझावति कहति जसोमति नई दुलहिया दैहौं॥
तेरी सौं मेरी सुनि मैया अबहिं बियाहन जैहौं।
सूरदास ह्वै कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं॥
राग केदार पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने बाल हठ का सजीव चित्रण किया है। बालकृष्ण अपनी लीलाओं के तहत यशोदा मैया से चाँद लाकर देने का हठ कर रहे हैं। एक बार श्रीकृष्ण ने आकाश मंडल में उदित चंद्रमा को देख लिया। चंद्रमा को देखने के बाद वह यशोदा से हठ कर बैठे कि मैया मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूंगा। यदि तुम मुझे यह खिलौना नहीं दोगी तो मैं तुम्हारी गोद में नहीं आऊंगा और यहीं धरती पर लोट जाऊंगा। इतना ही नहीं मैं गाय का दूध भी नहीं पिऊंगा और न ही चोटी गुंथवाऊंगा। मैं तुम्हारा पुत्र भी नहीं कहलाऊंगा बल्कि नंदबाबा का पुत्र कहलाऊंगा। जब कृष्ण ने हठ पकड लिया और नहीं माने तब माता यशोदा बोलीं कि अच्छा सुन, कन्हैया मैं तुझे एक बात बतलाती हूं, यह बात मैं बलराम को नहीं बतलाऊंगी। इतना कहकर यशोदा हंसते हुए श्रीकृष्ण से बोलीं कि सुन कन्हैया! मैं तुझे नई दुल्हन ला दूंगी। यशोदा ने जब ऐसा कहा तो कन्हैया चंद्रमा लेने का हठ छोडकर दुल्हन लेने का हठ करने लगे और बोले, मैया तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं दुल्हन को ब्याहने के लिए अभी जाऊंगा। सूरदास यहां अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण का ब्याह होगा तो मैं कुटिल भी बाराती बनकर जाऊंगा और मंगल गीत गाऊंगा।
जागिए ब्रजराज कुंवर
जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।
कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥
तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।
रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥
विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।
सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥
राग विभास पर आधारित इस पद में सूरदासजी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती हैं कि हे ब्रज के राजकुमार! अब जाग जाओ। कमल पुष्प खिल गए हैं तथा कुमुद भी बंद हो गए हैं। (कुमुद रात्रि में ही खिलते हैं, क्योंकि इनका संबंध चंद्रमा से है) भ्रमर कमल-पुष्पों पर मंडाराने लगे हैं। सवेरा होने के प्रतीक मुर्गे बांग देने लगे हैं और पक्षियों व चिडियों का कलरव प्रारंभ हो गया है। सिंह की दहाड सुनाई देने लगी है। गोशाला में गउएं बछडों के लिए रंभा रही हैं अर्थात् दूध दुहने का समय हो गया है। चंद्रमा छुप गया है तथा सूर्य निकल आया है। नर-नारियां प्रात:कालीन गीत गा रहे हैं। अत: हे श्यामसुंदर! अब तुम उठ जाओ। सूरदास कहते हैं कि यशोदा बडी मनुहार करके श्रीगोपाल को जगा रही हैं, जो मंगल करने वाले हैं।
हरि तनु देखि लजानी
उपमा हरि तनु देखि लजानी।
कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं तडित दसन-छबि हेरि।
मीन कमल कर चरन नयन डर जल मैं कियौ बसेरि॥
भुजा देखि अहिराज लजाने बिबरनि पैठे धाइ।
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ बन-बन रहे दुराइ॥
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत श्रीअंग पटतर देत।
सूरदास हमकौं सरमावत नाउं हमारौ लेत॥
भक्त शिरोमणि सूरदासजी अपने इस पद में भगवान् की अतुलनीय शोभा का वर्णन कर रहे हैं। यह पद राग गौरी में निबद्ध है। श्रीकृष्ण की शोभा को देखकर सारी उपमाएं लुप्त हो गई। कोई उपमा जल में जा छिपी तो कोई वन में दुबक गई और कोई-कोई उपमा तो नभमंडल में समा गई। श्रीकृष्ण का मुख देखकर स्वयं को लज्जित जानता हुआ चंद्रमा आकाश में चला गया। इसी प्रकार उनके दांतों की शोभा के आगे स्वयं को लज्जित पाकर बिजली भी आकाश में लुप्त हो गई। मछली, कमल पुष्प ने श्रीकृष्ण के हाथों, पैरों व नेत्रों से भय खाकर जल में ही बसेरा कर लिया। उनकी भुजाओं को देखकर सर्पराज भी लज्जित होकर बिल में जा छिपा। श्रीकृष्ण के कटि भाग की शोभा इतनी मनोहर थी कि उसके आगे स्वयं को लज्जित समझकर सिंह भी वन में चला गया। सूरदास कहते हैं कि जितनी भी उपमाएं हैं वह सब कवियों को गाली देती हैं कि कविगण श्रीप्रभु के अंगों की तुलना उससे देते हैं। इस तरह उनके अंगों के समक्ष हमें लज्जित करते हैं। इसी से मिलता-जुलता पद महाकवि विद्यापति का भी है।
माधव कत तोर करब बडाई।
उपमा करब तोहर ककरा सों कहितहुँ अधिक लजाई॥
अर्थात् भगवान् की तुलना किसी से संभव नहीं है।
पायो परम पदु गात
सबै दिन एक से नहिं जात।
सुमिरन भजन लेहु करि हरि को जों लगि तन कुसलात॥
कबहूं कमला चपल पाइ कै टेढेइ टेढे जात।
कबहुंक आइ परत दिन ऐसे भोजन को बिललात॥
बालापन खेलत ही गंवायो तरुना पे अरसात।
सूरदास स्वामी के सेवत पायो परम पदु गात॥
यह राग घनाक्षरी का पद है। सभी दिन एक से नहीं होते, इसलिए जब तक शरीर में प्राण हैं, भगवान् का सुमिरन और भजन कर लेना चाहिए। लक्ष्मी चंचला होती है, किसी के यहां टिकती नहीं, फिर भी धन प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता है। किंतु कभी ऐसे दिन आ पडते हैं कि मनुष्य भोजन के लिए भी भटकता फिरता है। बाल्यवस्था तो खेल-खेल में ही बीत जाती है। युवावस्था में विषय-वासनाओं में पडकर मनुष्य आलस्य में पडता है और भगवान् का भजन नहीं करता। सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरि की सेवा करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कहां लौं बरनौं सुंदरताई
कहां लौं बरनौं सुंदरताई।
खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥
कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई।
मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढाई॥
अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥
नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई।
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई।
किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥
खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई।
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥
राग घनाक्षरी में निबद्ध इस पद में सूरदासजी भगवान् की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मैं बाल कृष्ण की सुंदरता का कहां तक वर्णन करूं। कुंवर कन्हैया स्वर्ण के आंगन में खेल रहे हैं, यह शोभा देखकर नेत्रों को सुख मिलता है। कन्हैया के सिर पर रखी हुई टोपी (कुलही) अनेक सुंदर रंगों में इस प्रकार शोभायमान है, मानो नए बादल पर इंद्रधनुष चढा हो। बालक कृष्ण के मुख पर बिखरे हुए टेढे बाल अत्यंत सुंदर लग रहे हैं और मन को हर लेते हैं। ये ऐसे लगते हैं, मानो सुंदर कमल के ऊपर भौरों की पंक्ति घूम रही हो। उनके मस्तक पर नीला, सफेद, पीला और लाल मणि से जडा हुआ लटकन ऐसा सुंदर लगता है, मानो शनि, बृहस्पति, शुक्र, और मंगल साथ-साथ हों (शिन का प्रतीक नीलम, बृहस्पति का पीला पुखराज, शुक्र का सफेद हीरा और मंगल का लाल मूंगा होता है।) उनके दूध के दांतों की चमक की शोभा एक विचित्र उपमा पाती है। बालक कृष्ण के किलकारी मारते और हंसते समय कभी दांत दिखाई पडते हैं और कभी छिप जाते हैँ। ये इस प्रकार लगते हैं जैसे बादलों में बिजली की छटा हो। उनकी रुक-रुककर निकलने वाली खंडित तोतली बोली अनंत सुख देती है। इस प्रकार घुटनों के बल चलते हुए और शरीर में मिट्टी लपेटे हुए सुशोभित बाल श्रीकृष्ण पर सूरदास जी बलिहारी जाते हैं।
बदन मनोहर गात
सखी री कौन तुम्हारे जात।
राजिव नैन धनुष कर लीन्हे बदन मनोहर गात॥
लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं अंग अंग मुसकात।
अति मृदु चरन पंथ बन बिहरत सुनियत अद्भुत बात॥
सुंदर तन सुकुमार दोउ जन सूर किरिन कुम्हलात।
देखि मनोहर तीनौं मूरति त्रिबिध ताप तन जात॥
राग रामकली पर आधारित इस पद में भक्तकवि सूरदास जी भगवान् राम की छवि का वर्णन कर रहे हैं। राम-लक्ष्मण, सीता जब वन से होकर जा रहे थे तब एक गांव में रुके। उस गांव की स्त्रियों ने सीताजी से पूछा कि सखी! इन दोनों सुंदर कुंवरों में तुम्हारे स्वामी कौन से हैं? तब सीताजी ने संकेत से बताया कि जिनके नेत्र कमलवत हैं तथा जिनका शरीर मनोहर है और धनुष धारण किए हैं, वही मेरे स्वामी हैं। फिर ग्रामीण नारियां आपस में बातें करने लगीं कि यह कैसी विचित्र बात है कि इतने सुंदर, सुकुमार कोमल चरणों से वन में विचरण कर रहे हैं। सूर्य की किरणों से सुंदर शरीर वाले यह सुकुमार कुम्हला जाएंगे। सूरदास कहते हैं कि राम, लक्ष्मण, सीता की मनोहर जोडी को देखकर ग्रामीण नारियों के त्रिविध ताप मिट गए।
औगुन चित न धरौ
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ॥
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ॥
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ।
जब मिलि गए तब एक-वरन ह्वै, सुरसरि नाम परौ॥
तन माया, ज्यौ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।
कै इनकौ निरधार कीजियै कै प्रन जात टरौ॥
भक्त और भगवान् के बीच कितना मधुर संबंध दर्शाया है राग घनाक्षरी पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने। यह सर्वविदित है कि पूर्णता केवल ईश्वर को प्राप्त है। अपूर्णता के कारण मनुष्य से त्रुटि स्वाभाविक है। इसलिये सूरदास ने भगवान् से अवगुण समाप्त करने नहीं बल्कि इसे हृदय में न धरने की प्रार्थना की है। सूरदासजी कहते हैं - मेरे स्वामी! मेरे दुर्गुणों पर ध्यान मत दीजिये! आपका नाम समदर्शी है, उस नाम के कारण ही मेरा उद्धार कीजिये। एक लोहा पूजा में रखा जाता है (तलवार की पूजा होती है) और एक लोहा (छुरी) कसाई के घर पडा रहता है, किंतु (समदर्शी) पारस इस भेद को नहीं जानता, वह तो दोनों को ही अपना स्पर्श होने पर सच्चा सोना बना देता है। एक नदी कहलाती है और एक नाला, जिसमें गंदा पानी भरा है, किंतु जब दोनों गङ्गाजी में मिल जाते हैं, तब उनका एक-सा रूप होकर गङ्गा नाम पड जाता है। इसी प्रकार सूरदासजी कहते हैं- यह शरीर माया (माया का कार्य) और जीव ब्रह्म (ब्रह्म का अंश) कहा जाता है, किंतु माया के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण वह (ब्रह्मरूप जीव) बिगड गया (अपने स्वरूप से च्युत हो गया।) अब या तो आप इनको पृथक् कर दीजिये (जीव की अहंता-ममता मिटाकर उसे मुक्त कर दीजिये), नहीं तो आपकी (पतितों का उद्धार करने की) प्रतिज्ञा टली (मिटी) जाती है।
नोट :- इस पद की अंतिम दो पंक्तियां कहीं-कहीं इस तरह भी लिखी हैं-
इक जीव इक ब्रह्म कहावत सूरश्याम झगरौ।
अबकी बेर मोहि पार कीजै, कै प्रण जात टरौ॥
राखौ लाज मुरारी
अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥
जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदासजी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पडा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड गयी। मृग (परमपद को ढूँढनेवाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाडकर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)। यह पद राग मुलतानी-तिताला में बद्ध है।
रतन-सौं जनम गँवायौ
हरि बिनु कोऊ काम न आयौ।
इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥
कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ।
तामैं तैं ततछन ही काढयौ, पल भर रहन न पायौ॥
हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ।
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥
बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ।
पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुडायौ॥
आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड लडायौ।
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ।
लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥
इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रपञ्चो">प्रपञ्चों (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बडे परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रवञ्चना">प्रवञ्चना करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बडा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पडा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुडाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोडों प्रकार से लाड लडाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है।
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥
राग-घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदासजी ने माया-तृष्णा में लिपटे मनुष्य की व्यथा का सजीव चित्रण किया है। वह कहते हैं- हे गोपाल! अब मैं बहुत नाच चुका। काम और क्रोध का जामा पहनकर, विषय (चिन्तन) की माला गले में डालकर, महामोहरूपी नूपुर बजाता हुआ, जिनसे निन्दा का रसमय शब्द निकलता है (महामोहग्रस्त होने से निन्दा करने में ही सुख मिलता रहा), नाचता रहा। भ्रम (अज्ञान) से भ्रमित मन ही पखावज (मृदंग) बना। कुसङ्गरूपी चाल मैं चलता हूँ। अनेक प्रकार के ताल देती हुई तृष्णा हृदय के भीतर नाद (शब्द) कर रही है। कमर में माया का फेटा (कमरपट्टा) बाँध रखा है और ललाट पर लोभ का तिलक लगा लिया है। जल और स्थल में (विविध) स्वाँग धारणकर (अनेकों प्रकार से जन्म लेकर) कितने समय से यह तो मुझे स्मरण नहीं (अनादि काल से)- करोडों कलाएँ मैंने भली प्रकार दिखलायी हैं (अनेक प्रकार के कर्म करता रहा हूँ)। हे नन्दलाल! अब तो सूरदास की सभी अविद्या (सारा अज्ञान) दूर कर दो। माया के वशीभूत मनुष्य की स्थिति का इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने सांगोपांग चित्रण किया है। सांसारिक प्रपंचों में पडकर लक्ष्य से भटके जीवों का एकमात्र सहारा ईश्वर ही है।
जनम अकारथ खोइसि
रे मन, जनम अकारथ खोइसि।
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥
निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि।
गोड पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कहा होइसि॥
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि-देखि मुख रोइसि।
सूर स्याम बिनु कौन छुडाये, चले जाव भई पोइसि॥
माया-मोह के वश में पडकर जीवन को व्यर्थ गँवाने के कारण अंत में जो पश्चाताप होता है, उसी का सजीव विवरण इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने किया है। वह कहते हैं - अरे मन! तूने जीवन व्यर्थ खो दिया। श्रीहरि की भक्ति तो कभी की ही नहीं, बस, पेट भरा और पडकर सो रहा (भोजन और निद्रा में ही समय नष्ट किया)। रात-दिन मुँह बाये घूमता रहता हूँ, अहंकार में पडे रहकर ही जीवन नष्ट कर दिया। अब तो दोनों पैर फैलाकर भली प्रकार गिर गया है (पूरा ही पतन हो गया है)। अब बता, (परलोक में) कैसी (दारुण) गति होगी? काल और यमराज से आकर पाला पडा है, लोगों का मुख देख-देखकर अब रोता है। सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के भजन बिना (काल और यमदूतों से) छुडा कौन सकता है? अब दौड-धूप हो चुकी, लडखडाते हुए चले जाओ। यह पद राग सोरठा में है।
मूरख जनम गँवायौ
रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥
विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण राग-धनाश्री में बद्ध इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदासजी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है।
अजहूँ चेति अचेत
सबै दिन गए विषय के हेत।
तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केश भए सिर सेत॥
आँखिनि अंध, स्त्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत।
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि-तजि पूजत प्रेत॥
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत।
ऐसौ प्रभू छाँडि क्यौं भटकै, अजहूँ चेति अचेत॥
राम नाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत।
सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत॥
राग धनाक्षरी में आबद्ध यह पद सूर विनय पत्रिका से उद्धृत है। भवसागर से पार उतारने में तो रामनाम रूपी नौका ही एकमात्र सहारा है। उस पतित पावन नाम को ही विषय रस में डूब जाने से भुला दिया जाता है। सभी दिन (पूरी आयु) विषयों के लिये (विषय-सेवन में) ही बीत गये। तीनों (बाल्य, किशोर, तारुण्य) अवस्थाएँ ऐसे ही व्यतीत कर दीं और अब बाल सफेद हो गये बुढापा आ गया। आँखों से अंधा हो गया, कानों से सुनायी नहीं पडता, पैरों सहित सभी अङ्ग शिथिल हो गये (कर्मेन्द्रियों की शक्ति भी जाती रही)। गङ्गाजल छोडकर कुएँ का पानी पीता है और श्रीहरि को छोडकर प्रेत (शरीर) की पूजा करता है। (इसके बदले) यदि मन, वाणी तथा कर्म से श्रीश्यामसुन्दर का भजन करे तो वे (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) चारों पदार्थ देते हैं। अरे मूर्ख! ऐसे प्रभु को छोडकर (माया में) क्यों भटक रहा है? अब भी सावधान हो जा! राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान रामनाम लिये बिना (संसार से) तू कैसे छूट सकता है? (यह पुराणों की कथा है कि भगवान् के चक्र के द्वारा डराये जाने पर ही राहु चन्द्रमा या सूर्य को छोडता है।) सूरदासजी कहते हैं कि मुख से रामनाम लेने में कुछ खर्च तो लगता नहीं, फिर भी क्यों नाम नहीं लेता?
आनि सँजोग परै
भावी काहू सौं न टरै।
कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥
मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।
तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥
रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै।
मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥
हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै।
जो गृह छाँडि देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥
भावी बलवान है अर्थात् विधि का लिखा अमिट है। इसी तथ्य को राग सारंग के माध्यम से सूरदास ने इस पद में दर्शाया है। वह कहते हैं - होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं। कहाँ वह राहु और कहाँ वे सूर्य-चंद्र (बहुत दूरी है इनमें)। किंतु इनका संयोग भी (ग्रहण के समय) आ पडता है। वसिष्ठ मुनि विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बहुत श्रम से, सँभालकर भगवान् राम के राज्याभिषेक मुहूर्त निश्चित किया; किंतु (परिणाम यह हुआ कि) श्रीराम के पिता महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, सीताजी का हरण हुआ, श्रीराम को वनवासी वेष धारणकर वनवास का कष्ट झेलना पडा। रावण ने तैंतीसों करोड देवताओं को जीत लिया था और त्रिभुवन पर राज्य कर रहा था, मृत्यु को भी बाँधकर उसने कुएँ में बंद कर रखा था, किंतु प्रारब्धवश वह भी मारा गया। अर्जुन के तो (स्वयं) श्रीहरि ही सारथी थे, पर उन्हें भी वन में निकलना (वनवास भेागना) पडा। राजसभा में द्रौपदी का वस्त्र दु:शासन ने खींचा (यद्यपि द्रौपदी श्रीकृष्ण की परम भक्ता थी)! संसार में हरिश्चन्द्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें नीच के घर (चाण्डाल के यहाँ) सेवा करनी पडी। यदि कोई घर छोडकर बहुत-से देशों में दौडता (घूमता) फिरे, तो भी उसका प्रारब्ध उसके साथ ही घूमता है। तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देहधारी हैं, सभी होनहार (प्रारब्ध) के वश में हैं। अत: सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु ने जो विधान किया है; वही होगा, (तब) चिन्ता करके कौन मरता रहे।
दियौ अभय पद ठाऊँ
तुम तजि और कौन पै जाउँ।
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।
अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥
भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद राग मलार में निबद्ध है। वह कहते हैं - आपको छोडकर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।
मन धन-धाम धरे
मोसौं पतित न और हरे।
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।
बिषई भजे, बिरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे॥
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।
त्यौं मन मूढ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥
राग धनाश्री में रचित यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोडकर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!
मो सम कौन कुटिल खल कामी
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सब के अन्तरजामी॥
जो तन दियौ, ताहि बिसरायौ, ऐसौ, नोन-हरामी।
भरि भरि उदर बिषै कौं धावत, जैसैं सूकर ग्रामी॥
सुनि सतसंग होत जिय आलस, बिषयिनि सँग बिसरामी।
श्रीहरि-चरन छाँडि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी॥
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितनि में नामी।
सूरदास प्रभु अधम-उधारन सुनियै श्रीपति स्वामी॥
राग जगला-तिताला में आबद्ध इस पद में पतित पावन भगवान् से सूरदासजी कहते हैं कि मेरे समान कुटिल, दुष्ट और कामी कौन है? हे करुणामय! आपसे क्या छिपा है, आप तो अन्तर्यामी (हृदय की बात जाननेवाले) हैं। मैं ऐसा नमकहराम (कृतघ्न) हूँ कि जिस प्रभु ने शरीर दिया, उसको मैंने भुला दिया। गाँव के सूअर की भाँति बार-बार पेट भरकर विषय-भोग के लिये दौडता हूँ। सत्सङ्ग सुनकर वहाँ जाने में आलस्य होता है अथवा सत्सङ्ग में बैठने पर आलस्य, निद्रा आती है और विषयी (संसारासक्त ) लोगों के साथ विश्राम (सुख) मानता हूँ। श्रीहरि के चरणों की सेव
जय श्री नाथजी महाराज at 10:16 AM No comments:
संत गोस्वामी तुलसीदासजी के पद
तू दयालु दीन हौं
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब विधि हितु मेरो॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥
तुलसीकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद भगवत् भक्ति की सर्वोच्चता को दर्शाता है। भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं। भगवान् से बडा दयालु और दानी कौन हो सकता है। प्रभु पापों का हरण करनेवाले हैं। इस पद के माध्यम से तुलसीदास भगवान् व भक्त के बीच संबंध की व्याख्या कर रहे हैं।
तजि चरन तुम्हारे
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम अधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड, जवन कवन सुर तारे॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस विचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे॥
तुलसीदास का यह पद विनय पत्रिका से उद्धृत है।
उदार जग माहीं
ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो॥
तुलसीदास की विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद भगवान् की उदारता का बखान करता है। भगवान् श्रीराम बिना सेवा के दीनों पर द्रवित हो जाते हैं। जो ज्ञानियों व मुनियों के लिये भी दुर्लभ है वह गति उन्होंने सबरी को दी।
जाके प्रिय न राम बैदेही
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषण बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासो होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥
तुलसीदास जी भगवान् श्रीराम के परम भक्त थे। विनय पत्रिका से उद्धृत इस पद में वह कहते हैं कि जिसको सीताराम से प्रेम नहीं है वह यदि परम प्रिय भी है तो उसे एकदम छोड देना चाहिये। तुलसीदास जी ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। प्रह्लाद, विभीषण, भरत, बलि, ब्रज की वनिता आदि ने अपने प्रियजनों का त्याग कर दिया।
रघुबर तुमको मेरी लाज
रघुबर तुमको मेरी लाज।
सदा सदा मैं सरन तिहारी तुमहि गरीबनिवाज॥
पतित उधारन बिरद तुम्हारो, स्त्रवनन सुनी अवाज।
हौं तो पतित पुरातन कहिये, पार उतारो जहाज॥
अघ-खंडन दुख-भंजन जनके यही तिहारो काज।
तुलसिदास पर किरपा कीजै, भगति-दान देहु आज॥
यह पद तुलसीदास जी के भजन संग्रह से लिया गया है। इसमें तुलसीदास ने भगवान् से भक्ति देने की माँग की है।
रामचरण सुखदाई
भज मन रामचरन सुखदाई।
जिहि चरनन से निकसी सुरसरि संकर जटा समाई।
जटासंकरी नाम परयो है, त्रिभुवन तारन आई॥
जिन चरनन की चरनपादुका भरत रह्यो लव लाई।
सोइ चरन केवट धोइ लीने तब हरि नाव चलाई।
सोइ चरन संतन जन सेवत सदा रहत सुखदाई।
सोई चरन गौतम ऋषि-नारी परसि परमपद पाई॥
दंडकबन प्रभु पावन कीन्हो ऋषियन त्रास मिटाई।
सोई प्रभु त्रिलोक के स्वामी कनक मृगा सँग धाई॥
कपि सुग्रीव बंधु भय-ब्याकुल तिन जय छत्र फिराई।
रिपु को अनुज बिभीषन निसिचर परसत लंका पाई॥
सिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक सेष सहस मुख गाई।
तुलसिदास मारुत-सुत की प्रभु निज मुख करत बडाई॥
तुलसीकृत भजन संग्रह से उद्धृत है यह पद। सभी कष्टों का निवारण प्रभु की शरणागति से हो जाता है। तुलसीदास जी का यह परम लोकप्रिय पद उनके भजन संग्रह से उद्धृत है। भगवान् राम का चरण सुखदायी है। इसी चरण से गंगा निकलकर भगवान् शंकर की जटा में समाई थी। भगवत् चरण की महत्ता का इतना सुंदर वर्णन तुलसीदास से ही संभव है। राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर॥
भगवान् श्रीरामजी की बायीं और श्रीजानकीजी हैं और दाहिनी ओर श्रीलक्ष्मणजी हैं-यह ध्यान सम्पूर्णरूप से कल्याणमय है। तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरे लिये तो यह मनमाना फल देनेवाला कल्पवृक्ष ही है।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो मुखरूपी दरवाजे की देहली (जीभ) पर रामनामरूपी मणिदीप (नित्य प्रकाशमय) रख दो अर्थात् जीभ द्वारा अखण्डरूप से श्रीराम-नाम का जप करते रहो।
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥
इस पद में तुलसीदास जी के अद्भुत भक्ति भाव का दर्शन होता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी के नाम (राम) के दोनों अक्षरों में एक र तो (रेफ के रूप में) सब वर्णो के मस्तक पर छत्र की भाँति विराजता है और दूसरा म (अनुस्वार के रूप में) सबके ऊपर मुकुट-मणि के समान सुशोभित होता है।
नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥
श्रीरामजी का नाम अङ्क है और सब साधन शून्य (0) हैं। अङ्क न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, परन्तु शून्य के पहले अङ्क आने पर वे दसगुने हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि रामनाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दसगुने लाभदायक हो जाते हैं, परन्तु रामनाम से हीन जो साधन होता है वह कुछ भी फल नहीं देता।
राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद पालिहि दलि सुरसाल॥
श्रीरामनाम नृसिंह भगवान् हैं, कलियुग हिरण्यकशिपु और श्रीरामनाम का जप करनेवाले भक्तजन प्रह्लाद के समान हैं। यह रामनामरूपी नृसिंह भगवान् देवताओं को दु:ख देनेवाले हिरण्यकशिपु को (भक्ति के बाधक कलियुग को) मारकर रक्षा करेगा।
राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास॥
तुलसीदासजी यही माँगते हैं कि मेरा एकमात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरणमात्र से ही शुभ मङ्गल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस रामनाम में ही विश्वास रहे।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव मीर॥
तुलसीदासजी कहते हैं-हे रघुवीर! मेरे समान तो कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनबन्धु नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! जन्म-मरण के महान् भय का नाश कीजिये।
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोग मुझे श्रीरामजी का दास कहते हैं और मैं भी बिना लज्जा-संकोच के कहलाता भी हूँ (कहनेवालों का विरोध नहीं करता)। कृपालु श्रीरामजी इस उपहास को सहते हैं कि श्रीजानकीनाथजी-सरीखे स्वामी का तुलसीदास-सा सेवक है।
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥
एक ही भरोसा है, एक ही बल है, एक ही आशा है और एक ही विश्वास है। एक रामरूपी श्यामघन (मेघ) के लिये ही तुलसीदास चातक बना हुआ है।
तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।
लहै बडाई देवता इष्टदेव जब होइ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जप, तप, नेम तथा व्रत आदि सब साधन सभी से बन सकते है, परन्तु मनुष्य बडाई तब पाता है, जब वह देवता (भगवान्) को अपना [एकमात्र] इष्टदेव-प्रेम का देवता बना लेता है।
नीच निचाइ नहि तजइ सज्जनहू के संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि बिनु बिष भए न भुअंग॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सज्जन का सङ्ग होने पर भी नीच मनुष्य अपनी नीचता को नहीं छोडता। चन्दन के वृक्षों में निवास करके भी साँप विषरहित नहीं हुए।
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ समरताँ गरल सराहिअ मीचु॥
भला आदमी अपनी भलाई से और नीच अपनी नीचता से ही शोभा पाता है। अमृत की प्रशंसा इसलिये की जाती है कि वह अमरत्व प्रदान करता है, और विष वही सराहनीय है जिससे शीघ्र और सहज ही मृत्यु हो जाय।
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
जो शरणागत की रक्षा करने में अपना अहित सोचकर उसका त्याग कर देते हैं, वे मनुष्य पामर (क्षुद्र) और पापमय हैं और उनका मुख देखने से भी हानि होती है। तुलसीदास जी ने इस पद के माध्यम से भगवान् की शरणागतवत्सलता का उदाहरण दिया है। रावण द्वारा अपमानित किये जाने पर विभीषण भगवान् श्रीराम की शरण में सिंधु तट पर आता है। सुग्रीव एवं कई अन्य वानर योद्धा भगवान् को यह सलाह देते हैं कि प्रभु! विभीषण रावण का भाई है, उसको शरण देना ठीक नहीं होगा। लेकिन शरणागत वत्सल भगवान् श्रीराम ने कहा कि शरण में आनेवालों को मैं किसी भी स्थिति में छोड नहीं सकता।
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।
लहेऊ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥
जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वभाव से ही सिर चढाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत् में जन्म लेना व्यर्थ ही है।
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
यदि मन्त्री, वैद्य और गुरु अप्रसन्नता के भय से या स्वार्थसाधन की आशा से हित की बात न कहकर हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं तो राज्य, धर्म और शरीर-इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रधान (राजा) को मुख के समान होना चाहिये, जो खाने-पीने के लिये तो एक ही है; परंतु विवेक के साथ समस्त अङ्गों का पालन-पोषण करता है।
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥
तुलसीदासजी कहते हैं यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेंत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार यदि ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिल जायँ तो भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं होता।
दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्राण के समान प्यारे होने पर भी बहुत दिनों के रोगी, दरिद्र, कटु वचन बोलनेवाले और लालची-ये चारों निरादर के योग्य ही हो जाते हैं।
तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि वही पुरुष सामर्थ्यवान्, बुद्धिमान, पुण्यात्मा, साधु और चतुर है जो आय के अनुमान से ही व्यय करता है और जगत् में विचारपूर्वक व्यवहार करता है।
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पै ताहि तहाँ लै जाइ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह स्वयं उसके पास आती है या उसे वहाँ ले जाती है।
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का यह दृढ मत है कि जिनको शिवजी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं अथवा जो शिवजी से विरोध रखते हैं और मेरे दास बनना चाहते हैं, वे मनुष्य एक कल्पतक घोर नरक में पडे रहते हैं। अतएव श्रीशंकरजी और श्रीरामजी में कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं मानना चाहिये।
जय श्री नाथजी महाराज at 10:12 AM 1 comment:
सूरदास के पद : श्रीकृष्ण बालचरित
हरि पालनैं झुलावै
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥
राग घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया है। वह कहते हैं कि मैया यशोदा श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) को पालने में झुला रही हैं। कभी तो वह पालने को हल्का-सा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी मुख चूमने लगती हैं। ऐसा करते हुए वह जो मन में आता है वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती है। इसीलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं कि अरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता है। जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी तो पलकें मूंद लेते हैं और कभी होंठों को फडकाते हैं। (यह सामान्य-सी बात है कि जब बालक उनींदा होता है तब उसके मुखमंडल का भाव प्राय: ऐसा ही होता है जैसा कन्हैया के मुखमंडल पर सोते समय जाग्रत हुआ।) जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा कि अब तो कान्हा सो ही गया है। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं। इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब यशोदा उन्हें सुलाने के उद्देश्य से पुन: मधुर-मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि सचमुच ही यशोदा बडभागिनी हैं। क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।
मुख दधि लेप किए
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
राग बिलावल पर आधारित इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीला का अद्भुत वर्णन किया है भक्त शिरोमणि सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल ही चल पाते हैं। एक दिन उन्होंने ताजा निकला माखन एक हाथ में लिया और लीला करने लगे। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के छोटे-से एक हाथ में ताजा माखन शोभायमान है और वह उस माखन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके शरीर पर रेनु (मिट्टी का रज) लगी है। मुख पर दही लिपटा है, उनके कपोल (गाल) सुंदर तथा नेत्र चपल हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा है। बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं। जब वह घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मधुर रस का पान कर मतवाले हो गए हैं। उनके इस सौंदर्य की अभिवृद्धि उनके गले में पडे कठुले (कंठहार) व सिंह नख से और बढ जाती है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए। अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है।
कबहुं बढैगी चोटी
मैया कबहुं बढैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढत गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत सरस है। बाल स्वभाववश प्राय: श्रीकृष्ण दूध पीने में आनाकानी किया करते थे। तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कान्हा! तू नित्य कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी दाऊ (बलराम) जैसी मोटी व लंबी हो जाएगी। मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे। अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले.. अरी मैया! मेरी यह चोटी कब बढेगी? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया। लेकिन अब तक भी यह वैसी ही छोटी है। तू तो कहती थी कि दूध पीने से मेरी यह चोटी दाऊ की चोटी जैसी लंबी व मोटी हो जाएगी। संभवत: इसीलिए तू मुझे नित्य नहलाकर बालों को कंघी से संवारती है, चोटी गूंथती है, जिससे चोटी बढकर नागिन जैसी लंबी हो जाए। कच्चा दूध भी इसीलिए पिलाती है। इस चोटी के ही कारण तू मुझे माखन व रोटी भी नहीं देती। इतना कहकर श्रीकृष्ण रूठ जाते हैं। सूरदास कहते हैं कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण-बलराम की जोडी मन को सुख पहुंचाने वाली है।
दाऊ बहुत खिझायो
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
सूरदास जी की यह रचना राग गौरी पर आधारित है। यह पद भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीला से संबंधित पहलू का सजीव चित्रण है। बलराम श्रीकृष्ण के बडे भाई थे। गौरवर्ण बलराम श्रीकृष्ण के श्याम रंग पर यदा-कदा उन्हें चिढाया करते थे। एक दिन कन्हैया ने मैया से बलराम की शिकायत की। वह कहने लगे कि मैया री, दाऊ मुझे ग्वाल-बालों के सामने बहुत चिढाता है। वह मुझसे कहता है कि यशोदा मैया ने तुझे मोल लिया है। क्या करूं मैया! इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता। वह मुझसे बार-बार कहता है कि तेरी माता कौन है और तेरे पिता कौन हैं? क्योंकि नंदबाबा तो गोरे हैं और मैया यशोदा भी गौरवर्णा हैं। लेकिन तू सांवले रंग का कैसे है? यदि तू उनका पुत्र होता तो तुझे भी गोरा होना चाहिए। जब दाऊ ऐसा कहता है तो ग्वाल-बाल चुटकी बजाकर मेरा उपहास करते हैं, मुझे नचाते हैं और मुस्कराते हैं। इस पर भी तू मुझे ही मारने को दौडती है। दाऊ को कभी कुछ नहीं कहती। श्रीकृष्ण की रोष भरी बातें सुनकर मैया यशोदा रीझने लगी हैं। फिर कन्हैया को समझाकर कहती हैं कि कन्हैया! वह बलराम तो बचपन से ही चुगलखोर और धूर्त है। सूरदास कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण मैया की बातें सुनकर भी नहीं माने तब यशोदा बोलीं कि कन्हैया मैं गउओं की सौगंध खाकर कहती हूँ कि तू मेरा ही पुत्र है और मैं तेरी मैया हूँ।
मैं नहिं माखन खायो
मैया! मैं नहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
राग रामकली में बद्ध यह सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद है। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिद्ध है। वैसे तो कन्हैया ग्वालिनों के घरों में जा-जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा ने उन्हें देख भी लिया। इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।
जब यशोदा ने देख लिया कि कान्हा ने माखन खाया है तो पूछ ही लिया कि क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब श्रीकृष्ण अपना पक्ष किस तरह मैया के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, यही इस पद की विशिष्टता है। कन्हैया बोले.. मैया! मैंने माखन नहीं खाया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि इन ग्वाल-बालों ने ही बलात् मेरे मुख पर माखन लगा दिया है। फिर बोले कि मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा है और मेरे हाथ कितने छोटे-छोटे हैं। इन छोटे हाथों से मैं कैसे छींके को उतार सकता हूँ। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा रह गया था उसे पीछे छिपा लिया। कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन मुस्कराने लगीं और छडी फेंककर कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदास कहते हैं कि यशोदा को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रह्मा को भी दुर्लभ है। श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) ने बाल लीलाओं के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि भक्ति का प्रभाव कितना महत्त्वपूर्ण है।
हरष आनंद बढावत
हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥
बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत।
कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढावत।
सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥
राग रामकली में आबद्ध इस पद में सूरदास ने कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता है गाते हैं। वह छोटे-छोटे पैरों से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं। कभी वह भुजाओं को उठाकर काली-श्वेत गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंदबाबा को पुकारते हैं और कभी घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोडा-सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना ही प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन प्रसन्न होती हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य ही हर्षाती हैं।
भई सहज मत भोरी
जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।
नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥
हौं भइ जाइ अचानक ठाढी कह्यो भवन में कोरी।
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥
लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥
सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन है। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आई। वह बोली कि हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए। पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खडी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा कि माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब मैंने आगे बढकर कन्हैया की बांह पकड ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकडकर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनके नयनों में अश्रु भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड दिया। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।
अरु हलधर सों भैया
कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥
ऊंच चढि चढि कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥
सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबद्ध है। भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया-मैया नंदबाबा को बाबा-बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं। इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात् कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं कि लल्ला गाय तुझे मारेगी। सूरदास कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।
कबहुं बोलत तात
खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन भौंह टेढी बार बार जंभात॥
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।
कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।
सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात॥
यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार श्रीकृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे कि रोते-रोते नेत्र लाल हो गए। भौंहें वक्र हो गई और बार-बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पडी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकलते थे। घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धूल-धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक पल भी छोडने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी-छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।
चोरि माखन खात
चली ब्रज घर घरनि यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥
भगवान् श्रीकृष्ण की बाललीला से संबंधित सूरदास जी का यह पद राग कान्हडा पर आधारित है। ब्रज के घर-घर में इस बात की चर्चा हो गई कि नंदपुत्र श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं। एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें ऐसी ही चर्चा कर रही थीं। उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पूर्व तो वह मेरे ही घर में आए थे। कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खडी देखकर वह भाग गए। एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं। मैं तो उन्हें इतना अधिक और उत्तम माखन दूं जितना वह खा सकें। लेकिन किसी भांति वह मेरे घर तो आएं। तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिखाई पड जाएं तो मैं गोद में भर लूं। एक अन्य ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वह मिल जाएं तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुडा ही न सके। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु मिलन की जुगत बिठा रही थीं। कुछ ग्वालिनें यह भी विचार कर रही थीं कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएं तो वह हाथ जोडकर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें।
गाइ चरावन जैहौं
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥
ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।
तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥
प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।
तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥
तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥
यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार बालकृष्ण ने हठ पकड लिया कि मैया आज तो मैं गौएं चराने जाऊंगा। साथ ही वृन्दावन के वन में उगने वाले नाना भांति के फलों को भी अपने हाथों से खाऊंगा। इस पर यशोदा ने कृष्ण को समझाया कि अभी तो तू बहुत छोटा है। इन छोटे-छोटे पैरों से तू कैसे चल पाएगा.. और फिर लौटते समय रात्रि भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु के लोग गायों को चराने के लिए प्रात: घर से निकलते हैं और संध्या होने पर लौटते हैं। सारे दिन धूप में वन-वन भटकना पडता है। फिर तेरा वदन पुष्प के समान कोमल है, यह धूप को कैसे सहन कर पाएगा।
यशोदा के समझाने का कृष्ण पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि उलटकर बोले, मैया! मैं तेरी सौगंध खाकर कहता हूं कि मुझे धूप नहीं लगती और न ही भूख सताती है। सूरदास कहते हैं कि परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण ने यशोदा की एक नहीं मानी और अपनी ही बात पर अटल रहे।
धेनु चराए आवत
आजु हरि धेनु चराए आवत।
मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत॥
जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत।
आपुन टेर लेत ताही सुर हरषत पुनि पुनि भाषत॥
देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग।
सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग॥
भगवान् बालकृष्ण जब पहले दिन गाय चराने वन में जाते है, उसका अप्रतिम वर्णन किया है सूरदास जी ने अपने इस पद के माध्यम से। यह पद राग गौरी में बद्ध है। आज प्रथम दिवस श्रीहरि गौओं को चराकर आए हैं। उनके शीश पर मयूरपुच्छ का मुकुट शोभित है, तन पर पीतांबरी धारण किए हैं। गायों को चराते समय जिस प्रकार से अन्य ग्वाल-बाल शब्दोच्चारण करते हैं उनको श्रवण कर श्रीहरि ने हृदयंगम कर लिया है। वन में स्वयं भी वैसे ही शब्दों का उच्चारण कर प्रतिध्वनि सुनकर हर्षित होते हैं। नंद, यशोदा, रोहिणी व ब्रज के अन्य लोग यह सब दूर ही से देख रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि जब श्यामसुंदर गौओं को चराकर आए तो यशोदा ने उनकी बलैयां लीं।
मुखहिं बजावत बेनु
धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥
राग सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्व प्रतिपादित किया है।
कौन तू गोरी
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
सूरसागर से उद्धृत यह पद राग तोडी में बद्ध है। राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लडका माखन की चोरी करता फिरता है। तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।
मिटि गई अंतरबाधा
खेलौ जाइ स्याम संग राधा।
यह सुनि कुंवरि हरष मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा॥
जननी निरखि चकित रहि ठाढी दंपति रूप अगाधा॥
देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा॥
संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढी अगाधा॥
मनहुं तडित घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा॥
निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा॥
सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा॥
रास रासेश्वरी राधा और रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण एक ही अंश से अवतरित हुये थे। अपनी रास लीलाओं से ब्रज की भूमि को उन्होंने गौरवान्वित किया। वृषभानु व कीर्ति (राधा के माँ-बाप) ने यह निश्चय किया कि राधा श्याम के संग खेलने जा सकती है। इस बात का राधा को पता लगा तब वह अति प्रसन्न हुई और उसके मन में जो बाधा थी वह समाप्त हो गई। (माता-पिता की स्वीकृति मिलने पर अब कोई रोक-टोक रही ही नहीं, इसी का लाभ उठाते हुए राधा श्यामसुंदर के संग खेलने लगी।) जब राधा-कृष्ण खेल रहे थे तब राधा की माता दूर खडी उन दोनों की जोडी को, जो अति सुंदर थी, देख रही थीं। दोनों की चेष्टाओं को देखकर कीर्तिदेवी मन ही मन प्रसन्न हो रही थीं। तभी राधा और कृष्ण खेलते-खेलते झगड पडे। उनका झगडना भी सौंदर्य की पराकाष्ठा ही थी। ऐसा लगता था मानो दामिनी व मेघ और चंद्र व सूर्य बालरूप में आनंद रस की अभिवृद्धि कर रहे हों। यह देखकर ब्रह्म भी भ्रमित हो गए और मन ही मन विचार करने लगे। सूरदास कहते हैं कि ब्रह्म को यह भ्रम हो गया कि कहीं जगत्पति ने अन्य सृष्टि तो नहीं रच डाली। ऐसा सोचकर उनमें ईष्र्याभाव उत्पन्न हो गया।
जय श्री नाथजी महाराज at 10:10 AM No comments:
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