Friday, 3 November 2017

निष्काम कर्म, ज्ञान से श्रेष्ठ

Navbharat Times होमराशिफलसत्संग निष्काम कर्म, ज्ञान से श्रेष्ठ है और सरल भी नवभारत टाइम्स | Updated Dec 5, 2011, 04:00 AM IST स्वामी नैसर्गिका गिरी जीव के समक्ष प्रेय तथा श्रेय -दो विरोधी पगडंडियां होती हैं। प्रेय मार्ग अपेक्षाकृत सहज, सरल, सुगम तथा भौतिक दृष्टि से आकर्षक लगता है। परिणाम में दुखद होने पर भी सामान्य जन इसी का अनुसरण करते हैं। श्रेय मार्ग का अनुसरण करने वाले साधक बहुत कम होते हैं। सधे मन के जीव ही इस पथ पर चलते हैं। अपनी वृत्तियों को इस पथ पर लगाना प्रारंभ में इतना ही कठिन होता है, जितना कि बहते जल को बांधकर विपरीत दिशा की ओर मोड़ना। एक साधारण सा छेद भी इस बांध को धराशायी तथा साधनों को व्यर्थ बना दे सकता है। ज्ञान, भक्ति और कर्म- ये तीन मानव के कल्याण के साधन हैं। इनके अलावा और कोई उपाय और साधन नहीं है। अपनी सभी क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से मुक्त रहना और सर्वव्यापी परमात्मा में एकाकीभाव से स्थित रहने का नाम ज्ञानयोग है। शास्त्र कहते हैं कि कर्म से सुख-दुख और जन्म-मृत्यु तय होती है, किंतु ज्ञान के द्वारा साधक को शोक और मोह से छुटकारा मिलता है।  ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी वही होता है, जो अपनी इंद्रियों को जीत ले। असल में आत्मज्ञान ही आनंद की सर्वोपरि अवस्था या परम शांति की वास्तविक अनुभूति है। फल और आत्म भाव को त्याग कर, दैव इच्छा के अनुसार अपनी बुद्धि से कर्म करने का नाम कर्मयोग है। कृष्ण ने अर्जुन को निष्काम कर्मयोग की शिक्षा देते हुए कहा- हे अर्जुन, योग में स्थित होकर सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग करके तथा सफलता और असफलता में समभाव बने रहना ही योग है। तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने तक ही सीमित है, फल हासिल करना तुम्हारी सार्मथ्य से परे है। इसलिए कभी भी फल के लोभ में न आओ। कर्ता का संबंध केवल कर्म से है। किसान का अधिकार अपने खेत में श्रम करने तथा मनोनुकूल बीज बोने तक सीमित है। इच्छानुकूल फल प्राप्ति उसकी सार्मथ्य से परे है। अच्छा है कि हम किसी लाभ, यश या प्रतिष्ठा का भाव अपने मन में न आने दें, क्योंकि फल प्राप्ति केवल हमारे श्रम पर ही निर्भर न होकर दैहिक तथा भौतिक शक्तियों से संचालित होती है। फलासक्त व्यक्ति अपने अभीष्ट की सिद्धि में विलंब या विफलता देखकर कार्य से विमुख हो सकता है। बहुत से साधक अपने कर्तव्य को दुख रूप या बंधन रूप समझ कर उसका त्याग कर देते हैं। यह ठीक नहीं है। जीव स्वभावत: दो प्रकार के होते हैं -अंतर्मुखी तथा बहिर्मुखी। अंतर्मुखी प्रतिभा के व्यक्ति बाहरी संसार से तथा भौतिक सुखों से विरक्त रहते हुए अपनी अंतरात्मा के सम्यक विकास के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इसी को ज्ञानयोग, निवृत्ति मार्ग या संन्यास पथ कहते हैं। बहिर्मुखी प्रतिभा का व्यक्ति भौतिकता में आसक्त होकर विविध सांसारिक कार्यों में लिप्त रहता है। इसी को प्रवृत्ति मार्गी या कर्मयोग कहते हैं। यथार्थ में ये दोनों मार्ग एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि कोई भी मनुष्य न पूर्णतया अंतर्मुखी हो सकता है और न पूर्णतया बहिर्मुखी। प्राय: सभी प्राणी कुछ अंशों में बहिर्मुखी होते हैं। निष्काम कर्म, ज्ञान से श्रेष्ठ है और सरल भी। कोई भी व्यक्ति क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। प्रकृति के स्वाभाविक गुणों से विवश होकर प्रत्येक को कुछ न कुछ कर्म करना ही पड़ता है। जीवन के रहते हुए कर्म से बचना असंभव है। श्रद्धा की अनुभूति को ही भक्ति कहते हैं। सांसारिक विषय- वासनाओं तथा इंद्रिय लोलुपता का अभाव भक्त की प्रथम आवश्यकता है, क्योंकि प्रेम में द्वैत का भाव सदा के लिए मिट जाता है। लौकिकता के रहते हुए अलौकिकता की उपलब्धि संभव नहीं है। भगवान के प्रति प्रेम में जितनी अधिक अनन्यता तथा प्रगाढ़ता होगी, भक्ति का उतना ही अधिक उत्कर्ष होगा। परमात्मा से योग करने वाली इस अनन्य भक्ति को ही भक्ति योग की संज्ञा दी गई है। लेकिन अंत में जैसे सभी सरिताएं सागर में मिलकर सागर बन जाती हैं, ठीक उसी प्रकार से प्रारंभ अनेक हैं, पर अंत एक है। प्रस्तुति : सुभाष चंद्र शर्मा « पिछला आध्यात्मिक भारत में मोहर्रम के मायने अगला » सच्ची भक्ति हमें विनम्र बनाती है Copyright © Bennett, Coleman & Co. Ltd. All rights reserved.For reprint rights: Times Syndication Service

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