Saturday, 4 November 2017

प्रेम-गली


प्रेम-गली अति सांकरी, तामें दो न समाहिं।
जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है मैं नाहिं।

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।
अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।

पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।

जिहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहिं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि भए बेकाम।

राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।

अकथ कहानी प्रेम की, कछू कही न जाय।
गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुसकाय।

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