Saturday, 4 November 2017

कर्म प्रधान

Navbharat Times होमराशिफलसत्संग कर्म प्रधान विश्व करि राखा - केशव राम शर्मा Updated Oct 10, 2004, 10:21 PM IST संसार में मनुष्य की प्रतिष्ठा कासबसे बड़ा आधार उसका कर्म है। गीतामें भी कृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेशदिया था- कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:! अर्थातकर्म करने वाला व्यक्ति निष्क्रिय रहनेवाले से श्रेष्ठ है। यदि सौभाग्य से कर्मके साथ प्रतिभा का भी योग हो, तोसोने में सुगंध के समान है। वैसे कर्मठव्यक्ति प्रतिभा संपन्न न होने पर भीसंसार में दूसरे निष्क्रिय प्राणियों सेसदा ही श्रेष्ठ होता है। प्राय: देखाजाता है कि प्रतिभासंपन्न व्यक्तिकर्मठता के अभाव में अपनी योग्यताका समुचित उपयोग नहीं कर पाता।हमारे नीति शास्त्रों में इस बात को एकउदाहरण द्वारा समझाया गया है। कहागया है कि मंदगति वाली चींटी भीअपने कर्मठ स्वभाव के कारण सैकड़ोंयोजन तक चली जाती है, किंतु नचलता हुआ गरुड़ जैसा तीव्रगामी पक्षीएक कदम भी नहीं चल सकता। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि 'मेरेपास समय नहीं है, नहीं तो मैं बहुतकुछ कर सकता हूं- सुंदर कविताएं औरकहानियां लिख सकता हूं। अच्छे-अच्छेचित्रों और मूर्तियों का निर्माण करसकता हूं। समाज का मार्गदर्शन करनेवाले ऐसे सत्साहित्य का सर्जन करसकता हूं, जिसे पढ़कर लोगों में फैलाअंधविश्वास, भ्रष्टाचार स्वयं ही दूर होनेलगेगा और नैतिक पतन रुकेगा।' ऐसेसंकल्पों का दावा करने वाले व्यक्ति सेप्रश्न किया जा सकता है कि इन कार्योंको संपन्न करने वाले दूसरे व्यक्तियोंको भी दिन के 24 घंटे ही प्रत्येकप्रात:काल ईश्वर द्वारा प्रदान किए जातेहैं। ठीक उतना ही समय प्रत्येक उषाआपकी झोली में भी डाल देती है, तबआपके पास ही समय का अभाव क्योंरहता है? असल में वह काम हमारीप्राथमिकता में नहीं होता, जिसे हम 'समय मिलने पर करने' का दावा करतेहैं। इसके अलावा वास्तविकता यह हैकि किसी भी कार्य में आगे बढ़ने केलिए कर्मठता की विशेष आवश्यकताहोती है। भौतिक साधनों का अपनामहत्व है। लेकिन साबुन तथा पानी कीव्यवस्था होने पर भी क्या अपने मैलेकपड़े बिना इच्छा और उचित परिश्रमके धोए जा सकते हैं? हमें वस्त्रों केसाथ साबुन तथा पानी का समुचितयोग करना ही पड़ेगा। भोजन पकाने केलिए आटा, दाल, सब्जी, नमक, मसालेतथा स्टोव आदि की व्यवस्था करनी हीहोगी। लेकिन तब भी क्या बिनासमुचित प्रयास किए भोजन की प्राप्तिसंभव है? श्रम जरूरी है। साधन औरसामग्री हो, लेकिन श्रम नहीं हो तो कुछभी नहीं किया जा सकता। लेकिन श्रमहो तो साधन तथा सामग्री नहीं होने परभी कुछ न कुछ, ऐसा नहीं तो वैसाकोई इंतजाम या उपाय किया जा सकताहै। अनेक पुस्तकों का संकलनकरने से ज्ञान प्राप्ति का कोई संबंध नहींहै। अपने परिश्रम के बिना आज तककिसी ने भी ज्ञान को प्राप्त नहीं किया।खेद है कि आज हम गीता के कर्मयोगको भूल चुके हैं। देखा-देखी सभी केविचार दूषित हो गए हैं। हम कम सेकम कार्य करके अधिक से अधिक लाभपाने के अभिलाषी हैं। यदि व्यवसायढूंढेंगे, तो वह ऐसा होना चाहिए, जिसमेंथोड़े परिश्रम से ही अधिक ही लाभमिल जाए। नौकरी ऐसी होनी चाहिए, जिसमें काम कम करना पड़े, अच्छावेतन हो और ऊपर की आय अवश्यहो। हमारा चिंतन ही ऐसा विकृत होगया है कि ईमानदारी से जो भी मिलतारहे, उससे हमें संतोष नहीं होता।सरकारी कर्मचारियों में अधिक सेअधिक धन कमाने की होड़-सी लगीरहती है। रिश्वत के बिना फाइल के एकमेज से दूसरी मेज तक जाने में महीनोंलग जाते हैं। यदि विद्यार्थी जीवनमें ज्ञान की अपूर्णता बनी रहेगी तो क्यावह जीवन भर कष्ट नहीं देगी? छात्र कोअपने तथा अपने देश के उज्ज्वलभविष्य का ध्यान रखते हुए विद्यार्थीजीवन का सदुपयोग करना चाहिए।परिश्रमी, कर्मठ तथा अनुशासित विद्यार्थीही कल का अच्छा वैज्ञानिक, कुशलप्रशासक, योग्य शिक्षक या समाज कोप्रगति की राह दिखाने वाला अच्छा नेताबन सकेगा। यह भ्रम है कि शॉर्ट कटसे या कामचोरी से ऐसी किसी भीजगह पर बैठ कर हम कभी भी अपनाया अपने समाज का या देश का कोईभला कर पाएंगे। « पिछला अतिमानवीय गुणों वाला ही है सन्त अगला » कुफ्र, काफिर और जेहाद - सुलतान भारती Copyright © Bennett, Coleman & Co. Ltd. All rights reserved.For reprint rights: Times Syndication Service

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