Saturday, 4 November 2017

गुरु गीता

गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ।। भगवान शिवजी कहते हैं - "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है। यह मैं तीन बार कहता हूँ।" (श्री गुरुगीता श्लोक 152)........... हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम ! कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा !! "इस ब्लॉग में जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है" मनीष कौशल Thursday, September 2, 2010 Guru Gita.(गुरु गीता ) गुरु गीता गुरु गीता गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं। गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं। वह सतगुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है। गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है। इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सतगुरु हैं। असत्य नहीं, सत्य की ओर चलें (कर्म का अभीष्ट)! मोह-अन्धकार नहीं, दिव्य-ज्योति की ओर चलें (योग या अध्यात्म का अभीष्ट) !! मृत्यु नहीं, अमरता की ओर चलें (ज्ञान का अभीष्ट) !!! जो विश्वास्पात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वास्पात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है । मनुष्य को दो प्रकार की व्याधियां होती हैं – एक शारीरिक और दूसरी मानसिक । इन दोनों की उत्पत्ति एक दूसरे के आश्रित हैं, एक के बिना दूसरी का होना सम्भव नहीं है । जीव एवं आत्मा और परमात्मा और स्वाध्याय, अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान तीनों का तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है- 1.जीव प्रत्येक शरीर में रहता है । 1. ईश्वर प्रत्येक जीवधारी शरीर में भी और शरीर के बाहर आकाश में भी रहता है । 1. परमेश्वर अवतार बेला में अवतारी शरीर के सिवाय सदा-सर्वदा परम आकाश रूप परमधाम कौशल गुरु गोरखनाथ सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यकम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचहम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।' गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया। जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK Manish Kaushal at 6:29 AM Share No comments: Post a Comment ‹ › Home View web version About Me Manish Kaushal कौन हूँ मैं, मैं क्या बतलाऊँ कौन हूँ मैं ?, मैं अच्छा हूँ बदनाम भी हूँ,आगाज़ भी हूँ अंजाम भी हूँ, मैं बहती मंद बयार भी हूँ कभी जीत हूँ तो कभी हार भी हूँ, कभी भेद खोलता सत्य हूँ,तो कभी राज छुपाता मौन हूँ मैं, मैं क्या बतलाऊ कौन हूँ मैं? मैं पर्वत भी मैं खाई भी,मैं ही खुद की परछाई भी मैं पापी कामी आत्मा भी,मैं परम सत्य परमात्मा भी मैं क्या अब अपना परिचय दूं, मैं खुद न जानू कौन हूँ मैं मैं क्या बतलाऊँ कौन हूँ ?...मनीष View my complete profile Powered by Blogger.

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