Friday, 3 November 2017

ज्ञान का अदान-प्रदान करना

  शिक्षा का मूल्य: एक सामयिक विमर्श   महेन्द्र कुमार प्र्रेमी शोध-छात्र, तुल., धर्म,दर्शन एवं योग अ.शा., पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग.) 492010   संक्षेपिका: शिक्षा मानव जीवन हेतु ज्ञान की वह कंुजी है जो संसार के समस्त बंद दरवाजे को खोलती है। शिक्षा मानव जीवन के दिशा एवं धाराएँ को बदल देती है। मानव सृष्टि की वह सर्वोत्तम कृति है जिसकी तुलना संसार के किसी भी जीव जन्तु, प्राणी से नहीं की जा सकती । ठीक उसी प्रकार शिक्षा मानव का वह बहुमूल्य आभूषण है जिसके साथ संसार के किसी भी वस्तु से तुलना नहीं की जा सकती। शिक्षा का सीधा व सरल अर्थ ’ सीखना-सीखाना‘ है। शिक्षा का मूल्य वही ज्यादा जानता है जिसको नही मिली। शिक्षा मानव के व्यक्तिगत विकास, सामाजिक विकास व राष्ट्रीय विकास हेतु एक सशक्त हथियार है, जहाँ की शिक्षा का स्तर जितना उच्च होगा वह देश, विकास की ऊँचाईयों पर उतने ही अधिक स्तर पर पहुँचेगा। जिज्ञासा और संसार की आश्चर्य कर देने वाली रहस्यात्मक तथ्यों ने मानव मन को सच्चाई की खोज हेतु प्रेरित किया। सत्य जानने की जिज्ञासा ने ज्ञान व रूचि को जन्म दिया परिणामस्वरूप विज्ञान तत्पश्चात् शिक्षा का जन्म हुआ। आज मानव शिक्षा रूपी ज्योति के आलोक में समस्त संसार के छिपे रहस्यों को ज्ञान के द्वारा प्रकाशित कर रहा है। शिक्षा वह प्रकाशमान ज्वाला है जो अज्ञानता के अंधेरे को मिटाकर सत्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता हैं। शिक्षा वह क्रंाति का मशाल है जो समस्त मानव जाति को प्रकाशित करता है। शिक्षा मानव को स्वतंत्र करता है। शिक्षा मानव मस्तिष्क की वह शक्तियाँ है जो सूर्य की किरणों के समान है जब वह केन्द्रित होती है तो चमक उठती है फिर नव-सृजन, सृजन एवं सृजन की धाराएँ अनंत सृजन की ओर निरतंर बहती चली जाती है। शिक्षा का मूल्य वह निरक्षर व्यक्ति के लिए ऐसी संजीवनी है जैसे कि मृत के लिए अमृत। शिक्षा मानव के शक्ति व क्षमता को विश्व के विशाल मंच में प्रस्तुत करता है।    प्रस्तावना  शिक्षा मानव का वह आभूषण है जिसकी तुलना संसार के किसी भी वस्तु के मूल्य से नहीं की जा सकती। जब तक व्यक्ति के पास शिक्षा रूपी हथियार न हो, तो वह अपना विचार व अभिव्यक्ति लोगों तक सटीक व प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने में असमर्थ होता हैं ,उनको सही, व्यव्स्थित तथ्यों का ज्ञान नही होता जिसके कारण कलात्मक शैली से किसी विषय पर उनकी प्रस्तुती निम्न स्तर की होती है जन-जागृति में उसका असर शून्य के बराबर होता है। शि़क्षा से विशेष ज्ञान व बुद्धि का विकास होता है तथा व्यक्तित्व में तेजामय निखार आता है।   शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञाान या मौखिक रूप से सुने-सुनाये जाने वाली प्रक्रिया नहीं है बल्कि शिक्षा व्यवहारिक तौर पर अभ्यास की वह श्रंृखला है जिसके द्वारा निरंतर जीवन पर्यंत सीखने-सीखाने, करके देखने अर्थात शिक्षित, प्रश्क्षिित व प्रशिंक्षण की अनंत प्रक्रिया है। एक व्यक्ति तब शिक्षित माना जाता है जब वह संसार के अच्छाई-बुराई का ज्ञान रखता है, क्या उचित है ? क्या अनुचित है ? इस पर उसका पूर्ण अधिकार होता है। दूसरी बात प्रशिक्षित अर्थात् किसी विशेष विषय पूर्ण कौशलात्मक ज्ञान होना तत्पश्चात् प्रशिक्षण अर्थात स्वयं प्रशिक्षित होकर दूसरों को उस विशेष विषय वस्तु का ज्ञान कराना। शिक्षा के उक्त समस्त प्रक्रिया का परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वयं जागृत होता है तथा दूसरों को भी जागरूक करता है । शिक्षा का क्षेत्र अत्यंत विशाल है जिसकी गहराईयों पर एक व्यक्ति विशेष का पहुंच पाना असंभव सा है क्योंकि ‘शिक्षा’ कह देने मात्र से शिक्षा का अर्थ पूरा नही हो जाता बल्कि उसके लिए व्यक्ति को संपूर्ण आयु तक कुछ न कुछ सीखना होता है फिर भी वह अंत तक अपनी जिज्ञाासा पूर्ण नहीं कर पाता ।  जिन्होने सही मायने में शिक्षा को समझा और सम्मान दिया शिक्षा ने भी उन्हें सम्मानित किया और आसमान के बुलंदियों को छू लेने में अपना अहम योगदान दिया ।   शिक्षा का अर्थ:- शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कुल्हाडा पैना न हो तो अधिक बल और प्रयास करना पडता है, और यदि पर्याप्त पैना हो तो थोडे ही प्रयास में लक्ष्य को काट डालता है। शिक्षा का बहुत ही सीधा-साधा और सरल अर्थ है - सीखना-सिखाना अर्थात् ज्ञान का अदान-प्रदान करना। शिक्षा वह माध्यम है जिससे अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच के अंतराल को दूर करती है ।  शिक्षा ज्ञान के प्रसार द्वारा चह कार्य संपन्न करती भी है। यदि एक ओर उपलब्ध ज्ञान, शिक्षा का महत्वपर्ण उत्तरदायित्व है तो दूसरी ओर शिक्षा ज्ञान की वह कुंजी है जो संसार के समस्त बंद दरवाजे  को खोलने का कार्य करती है। शिक्षा मनुष्य को और अधिक पूर्ण मनुष्य बनाने में सहायक होता है। शिक्षा मनुष्य को और अधिक पूर्ण मनुष्य बनाने में सहायक होता है। शिक्षा वह माघ्यम है जिससे सामाजिक परिवर्तन लाने मंे गति प्रदान करता है। शिक्षा समाज को वांछित दिशा निर्देश व धराएॅं प्रदान करती है। शिक्षा के परिणाम में निश्चित लक्ष्य साधना द्धारा उद्वेश्यों को प्रात्त किया जा सकता है। शिक्षा एक साधन है जो समस्याओं को पूर्ण समााधन करने में सक्षम होता है ,जिसकी सहायता से मानवजाति अज्ञात भविष्य की अनिश्चितताओं और वार को सहन करने योग्य बनता है। शिक्षा लक्ष्य प्राप्त करने हेतु सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओ, कार्यो, अपेक्षाओं, प्रभावों और वास्तविकताओं के परिप्रक्ष्यों में यह एक बहुत व्यापक और साथ ही जटिल प्रक्रिया है ।   शिक्षा एक अत्यंत व्यापक विषय वस्तु है जिसको परिभाषित करना कठिन कार्य है। शिक्षा को समझने के लिए इससे संबंधित कुछ विचारों को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है जो कि कुछ महापुरूषों और विद्वानों के अमूल्य वाणी से मुखरित हुए हंै-   ऽ  शिक्षा का अर्थ है पूर्णता की प्राप्ति । (महर्षि अरविंद घोष) ऽ  जो हमें मुक्ति दे, वही सच्ची शिक्षा है । (प्राचीन भारतीय विचार) ऽ  शिक्षा मनुष्य के मस्तिष्क के संपूर्ण विकास का नाम है ।’ (डाॅ. जाकीर हुसैन) ऽ  ‘शिक्षा व्यक्ति की सृजनात्मक शक्ति को खोलने की कुंजी है । (के.जी.सैयदीन) ऽ  मनुष्य की भीतरी पूर्णता की अभिव्यक्ति ही शिक्षा है । (स्वामी विवेकानंद) ऽ  जीवन का संपूर्ण विकास ही शिक्षा है । (मदन मोहन मालवीय) ऽ  शिक्षा का अर्थ है बच्चे को इस योग्य बना देना कि वह समझ सके कि सत्य क्या है और उसकी खोज कैसे की जा सकती है । ( ठा. रवीन्द्रनाथ टैगोर) ऽ  शिक्षा बच्चे के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान श्रेष्ठ तत्वों का पूर्ण विकास है ।  (महात्मा गांधी)   ऽ  शिक्षा नए समाज बनाने की एक प्रक्रिया है । (विनोबा भावे) ऽ  शिक्षा सत्य को खोजने का मार्ग है ।  (सुकरात) ऽ  शिक्षा पूर्ण और सफल जीवन जीने की तैयारी है । (हरबर्ट स्पेन्सर) ऽ  शिक्षा पूर्ण और सफल जीवन जीने ही कला है इस से ही समस्त मानव जीवन की वास्तविक स्थिति को मापा जा सकता है, अर्थात् शिक्षा जीवन जीने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है । (अज्ञात) ऽ  शिक्षा अंधकारमय जीवन में प्रकाश की किरणे फैलाने वाली प्रक्रिया है । (एच.जी.वेल्स) ऽ  शिक्षा व्यक्ति को दूरदर्शी, साहसी, बुद्धिमान बनाने का साधन है । (विश्ववि़द्यालय शिक्षा आयोग 1948-49) ऽ  शिक्षा गतिहीन व्यक्ति व समाज को जीवंत बनाने की प्रक्रिया है । (शिक्षा की चुनौती-नीति संबंधी परिप्रेक्ष्य 1985 भारत सरकार)   शिक्षा से संबंधित उपरांेक्त विद्धानों के विचारों से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा मनुष्य को सत्य का दर्शन कराता है, सच्ची स्वतंत्रता दिलाता है, मनुष्य के भीतरी अभिव्यक्ति को व्यक्त करता है ।  शिक्षा मानव को योग्य तथा श्रेष्ठ बनाता है। शिक्षा व्यक्ति नवसृजन कर गतिशील विकास की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया है। विशेष रूप से शिक्षा व्यक्ति के अंधकारमय जीवन में प्रकाश की किरणें फैलाता है अर्थात शिक्षा मानव के संपूर्ण विकास का सशक्त माध्यम एवं प्रक्रिया का नाम है ।   आदर्श शिक्षा का स्वरूप- आदर्श शिक्षा का मूल स्वरूप के विषय में यह कहना अध्यधिक महत्वपूर्ण है कि शिक्षा की प्रक्रिया विद्यार्थियों, षिक्षार्थियों तथा छात्रों के रूचि का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए ।  सर्वप्रथम यह सुनिश्चित होना चाहिए कि शिक्षा की समस्त प्रक्रिया अर्थात शुरू से अंत तक सीधे-सीधे व्यक्ति विशेष के नही बल्कि समूह के हित मंे हो और रूचिपूर्ण हो। समूह विशेष को किसी प्रकार की बोझिल व नीरस करने वाली प्रणाली नही हो। प्रायः यह देखा जाता है कि अरूचिकर शैक्षणिक प्रणाली की प्रक्रिाया विद्यार्थियों के उत्साह व रूचि पर विपरीत प्रभाव डालता है जिससे छात्र शिक्षा प्राप्त करने विद्यालय में आने के बजाय उससे दूर भागने, विद्यालय आने के वजाय अन्य गतिविधियों में शामिल होना उचित समझता है। जिसके परिणाम स्वरूप शिक्षा उनके मस्तिष्क में अनेकों हलचल पैदा नहीं कर पाती है और विद्यार्थी के जिज्ञासा मस्तिष्क में ही बाहर आने से पहले ही दफन हो जाती है ।   आदर्श शिक्षा का स्वरूप रोचक तथ्यों करके सीखने व उचित साधन की उपलब्धता पर आधरित होना चाहिए जिससे छात्रो में सत्य को खोज निकालने की जिज्ञासा की प्रवृत्ति का विकास हो सके ।  शिक्षा की शुरूआती प्रक्रिया ऐसे हो की छात्र सीखने हेतु मानसिक दृष्टि से पूर्णतः तैयार हो व उत्साह से भरे हुए हो। सिखाये जाने वाली विषय-वस्तु पर पूर्णरूप से ध्यान केन्द्रित कर सके। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम पाठ्यक्रम व शिक्षक ऐसे हो जिसका व्याख्यात्मक व विष्लेशणत्मक क्षमता अयंत प्रभावशाली व सरल तरीके से छात्रों को समझने योग्य हो । क्योंकि सामान्य शब्द व भाषा के प्रयोग से छात्रों अर्थात् जिज्ञासु के मन मस्तिष्क में गहराई से छाप छोड़ जाते है । शिक्षा का आदर्श स्वरूप ऐसा हो कि कमजोर से कमजोर छात्र भी सफलतापूर्वक समझ सके। शिक्षा का स्तर ऐसा होना चाहिए कि मौखिक बातचीत के साथ-साथ करके सीखने को अधिक प्राथमिकता देने वाली हो।  जिससे छात्रों में रूचि जागृत हो उनके आत्मविष्वास व क्षमता का विकास हो सके। शिक्षा का स्वरूप ऐसा हो जिससे कि छात्रों में बौद्धिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक, आंतरिक इच्छाशक्ति की क्षमता विकसित हो सके। यहाॅं पर यह ध्यान देने योग्य तथ्य ये है कि- शिक्षण की प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान मुख्य होता है तथा विद्याथर््िायों  की केन्द्रीय भूमिका होती है। शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें अधिक शिक्षित विससित व्यक्ति कम विकसित व अकुशल व्यक्ति को विकसित स्तर पर लाने का प्रयास करता है अर्थात् अपने समानता में ढ़ालने अपने विकसित स्तर में पहुचने का मार्ग-दर्शन करता है ।   शिक्षा का उद्धेश्यः- शिक्षा का सीधा संबंध शिक्षक या सिखाने वाले अर्थात् ज्ञान प्रदान करने वाले के कुशलता तथा उनके वाणी के प्रभाव से है जिससे सीखने वाले के मस्तिष्क में क्रांति ,जिज्ञासा व रूचि पैदा कर दे फलस्वरूप और अधिक सीखने हेतु प्रेरित हो। शिक्षा का मूल उद्धेश्य केवल किताबी ज्ञान ही नहंी है बल्कि व्यक्ति का संपूर्ण विकास कर व्यावहारिक रूप से अमल में लाने व समाजिक तौर से राष्ट्रीय विकास के स्तर को उंचा उठाने से है। शिक्षित व्यक्ति में उत्तम चरित्र व उनके व्यक्तित्व में चट्टानी तेजोमय तेजस्वी रूप विकसित होकर राष्ट्रª के समस्त विकास कार्यो में महत्वपर्ण योगदान देने  वाली हो। संपर्ण व्यक्तित्व में विकास और परिवर्तन का प्रकाश तेजोमय विस्तारित, प्रस्फुटित होकर नव सृजन की दिशा और धाराओं को गति प्रदान करने वाले होना चाहिए ।  शिक्षा का मूल्य व उसका उदेश्य व्यक्ति के संपूर्ण विकास से है जो निम्न है - 1.  मनुष्य का निर्माण:- शिक्षा का मूल उदेश्य ‘मनुष्य निर्माण’ ही होना चाहिए । सभी शिक्षा, प्रशिक्षण, अभ्यास का अंतिम उद्वेश्य मनुष्य को पूर्ण मनुष्य बनाना है। जिस प्रक्रिया से मनुष्य की इच्छाशक्ति का प्रवाह और प्रकाश संयमित होकर फलदायी बन सके उसी का नाम है शिक्षा। शिक्षा से मनुष्य में इच्छाशक्ति के साथ-साथ इतनी क्षमता और ऐव्छिक सामर्थ आना चाहिए जिससे साकारात्मक विचार और स्वस्थ मानसिकता का विकसित हो सके।    2.  सद्गुण व चरित्र का निर्माण:- मनुष्य का सदगुण व चरित्र उसकी विभिन्न प्रवृतियों की समाष्टि है। सद्गुण अर्थात् उचित वैचारिक शक्ति का निर्माण अनुचित व अनैतिक कार्य के प्रति सचेतना लाना व उत्तम भले कार्यो से सुसज्जित परिपक्व मानसिक शक्ति का विकास। चरित्र आचार-विचार व मनुष्य के स्वाभाव व गुण को प्रदर्षित करता है जो समाज के बीच आदर्श उदाहरण प्रतिस्थापित करता है ।  व्यक्ति उत्तम चारित्रिक गुणों के कारण समाजमें अपनी छाप छेाड़ता है। अर्थात् उनके कार्यशैली, वक्तव्य व कुशलतापूर्वक व्यवस्थित जीवन शैली से समस्त समष्टि में एक अमिट छाप दे जाता है। व्यक्ति अपने उत्तरदायित्वांे का पूर्ण निर्वहन कर सके।   3.  व्यक्तित्व का विकास:- शिक्षा का मूल उद्वेश्य के परिप्रेक्ष्य में एक व्यक्ति का व्यक्तित्व ऐसा मधुर व ग्रहणशील होने से है अर्थात् शिष्ट व्यवहार, उचित निर्णय क्षमता ,सार्थक वाणी कुशलता से जो दूसरों के मन को जीत लेने वाले हो न कि दिखावा करके प्रसिद्धि हासिल करने वाला हो एक कहावत है जैसे- हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और! व्यक्तित्व की महानता विनम्रता से है न कि उच्च शिक्षित संपन्न होने के घमण्ड से । शब्दों व वक्तत्य का सटीक प्रयोग जो अवसर पर कहा जाए और उसके परिणाम लाभदायक हो ।   4.  योग्यता व आत्मविश्वास में विकास:- शिक्षा का मूल उद्वेश्य केवल शि़िक्षत करना ही नहंी हेाना चाहिए बल्कि व्यक्ति के आत्मकेन्द्रित योग्यता का विकास करने वाली होना चाहिए ।  व्यक्ति को इसके लिए हर प्रकार से तैयार करना अर्थात् शारीरिक, आध्यात्मिक व मानसिक रूप से ताकि वह अपने जीवन के समस्त कठिन समयों का सामना करने में सक्षम हो सके। शिक्षा व्यक्ति के संपूर्ण विकास के इस महत्वपूर्ण स्तर में आत्मकेन्द्रित जीवन-यापन करने हेतु योग्य बन सके, अपने आस्तित्व की रक्षा हेतु आत्मनिर्भर हो सके, किसी वैसाखी के सहारे जीवन व्यतीत करने वाले न हो ।  जीवन के प्रत्येक स्तर में अपनी योग्यता पर विश्वास व आत्मनिर्भरता हेतु दृढ़ बने रहे ।   5.  समाज व राष्ट्र के विकास में समर्पित व्यक्तित्व का निर्माण:-  व्यक्ति का शिक्षा सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु नही बल्कि अपने विकास के साथ-साथ समाज व राष्ट्र के विकास हेतु समर्पित हो। शिक्षा केवल शिक्षण, प्रशिक्षण की प्रक्रिया तक ही सीमित न होकर संपूर्ण समाज व राष्ट्र के विकास हेतु ऐसे प्रतिनिधित्व करने वाले हो जो विश्व के विशाल मंच में अपने राष्ट्र की क्षमता और शक्ति को प्रस्तुत करता हो। शिक्षा से केवल व्यक्तिगत विकास को महत्व न देकर समग्र राष्ट्र के विकास हेतु सर्वस्व समर्पित करने वाले व्यक्तित्व निर्माण का हो। शिक्षा का मुख्य उदेष्य ऐसा हो जो स्वार्थ के संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर संपूर्ण राष्ट्र व समाज के निर्माण व विकास हेतु मजबूत व्यक्तित्व का निर्माण करें ।   शिक्षा का मूल्य:- शिक्षा एक साधारण व्यक्ति को बुद्धिमान व महान् बना देता है । शिक्षा मानव जीवन की वह कंुजी है जो विश्व  के समस्त ज्ञान के खजाने के दरवाजे को खोलती है। जो शिक्षा का मूल्य जानते है, शिक्षा उसके लिए सफलता का ऐसा ब्रम्हास्त्र है जिसके द्वारा वे अज्ञात लक्ष्य को भी भेद सकता है। किसी मनुष्य का समस्त जीव-जगत् के प्रति दृष्टिकोण उस वस्तु की प्रकृति से प्रगट होता है, जिसे वह सर्वाधिंक मूल्यवान समझता है। मुल्यों के जिन मापदण्डों के आधर पर मनुष्य अपनी प्रतिक्रियाएं करता है वे प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न होते है ।  कुछ लोग इस बात पर अधिक बल देते हैं कि वे पूर्णतः व्यक्तिगत रूचि पर आधारित है। कुछ लोग सामाजिक व्यवस्थाओं से उत्पन्न मूल्यों, धन-वैभव, प्रतिष्ठा आदि में ही क्रियाओं के मापदण्ड प्राप्त करते है ।   यहाॅं पर उपरोंक्त लेख से यह आशय है कि जीवन की उच्च गरिमा व अधिक मूल्यवान शिक्षा के तुलना में कुछ भी नही हो सकता । व्यक्ति चाहे कितना भी वैभव धन इत्यादि को मूल्यवान समझे लेकिन शिक्षा से उसकी तुलना नहीं की जा सकती क्यांेकि शिक्षा सबसे श्रेष्ठ धन है। शास्त्रों में कहा गया है - ‘‘विद्या को न चोर चुरा सकता है न जल भीगा सकता है न अग्नि जला सकता है न वायु सूखा सकता है ।’’ मानव जीवन धन सम्पदा व सर्वस्व नाश हो जाता है पर विद्या प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बना रहता हंे । विद्या मानव के एक पीढ़ी से दूसरी पीढी के हस्तांतरित होता रहता है जो मानव के संस्कृति के जीवित रखने वाला मूल बीज है ।  शिक्षा के मूल्य के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संविधान के अनुच्छेद-26(2)ः मानवाध्किारों की सार्वजनिक घोषणा में कहा गया है- ‘‘शि़क्षा मानव व्यक्तित्व के पूर्ण विकास और मानवधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान की भवना को प्रबल बनाने की ओर अभिमुख होगी। वह सभी राष्ट्रांे, नस्लों या धार्मिक समूह के बीच आपसी सद्भाव, और मित्रता का अभिवर्धन करेगी और संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांति की रक्षा का प्रत्यत्नों में सहायक होगी ।   शिक्षा के मूल्य को प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण व उच्च स्थान दिया गया है। प्राचीनकाल के इतिहास में हम पाते है शिक्षा केवल राजा-महाराजाओं उच्च कुल के अधिपतियों व उनके आधीन कुछ सलाहकारों के बच्चों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था । शिक्षा का अध्ंिाकार जन-साधारण हेतु उपलब्ध नहीं था। शिक्षा के अभाव में ही हमारा हिन्दूस्तान विदेशी दासता व शोषण के शिकार हुए। युगान्तर तथा सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप 17-18वीं शताब्दी में शिक्षा का द्वार सब के लिए खोल दिया गया परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः समस्त वर्ग विशेष के लिए नहीं बल्कि कुछ प्रभावशाली उच्च वर्गो के लिए ही जिसमें स्त्रियां भी शामिल थी जिनको शिक्षा का पूर्ण अधिकार न मिली थी। युग बदलता गया समाज में नव परिवर्तन व जागृति आने लगी फलस्वरूप 20वीं शताब्दी के शुरूआत में शिक्षा का द्वार सबके लिए खोल दिया गया। आज सामयिक दृष्टि से शिक्षा का मूल्य हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है- आइये इसकी एक झलक इन महापूरूशांे की ओर दृष्टि करें जिन्होंने अपने जीवन भर संघर्ष करके अभावों, असुविघाओं, गरीबी और कष्टों से भरे जीवन में भी शिक्षा से प्रेम किया और शिक्षा के रूपी शक्तिशाली हथियार के माध्यम से आसमान की बुलंदियो को छु लिया।  हम इतिहास में ये पाते हंै कि चन्दगुप्त जो ऐ चरवहा बालक था जिसने गुरू चाणक्य के सानिध्य में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर भरतीय इतिहास के पन्नों पर अपना अमिट छाप छोड़ दिया । अब्राहम लिंकन, भरत रत्न डाॅ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेड़कर के विषय में कौन नहीं जातना जिन्हांेने शिक्षा के मूल्य को समझा और एक ने अपने प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति अर्थात् राष्ट्राध्यक्ष के पद पर आसीन हुए, इसी तरह भारतीय संविधान जो कि किसी राष्ट्र की आत्मा होती है को लिखने में अर्थात् विधि निर्माता के गौरव से सम्मानित हुए। आदर्श उदाहरण बहुत है परन्तु जो शिक्षा का मूल्य समझते है उनके लिए अमल में लाने हेतु एक ही आदर्श पार्याप्त है। महान् वैज्ञानिक भारतरत्न डाॅ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम भी जिसे भरतीय मिसाईल मैन के नाम से जाने जाते है उन्होंने जीवन के कठिनाइयों का सामना शिक्षा द्वारा टृढ़ता पूर्वक किया और विश्व के विशाल प्रागंण में भारतीय शक्ति क्षमता व महानता को प्रस्तुत किया । यह सब शिक्षा को महत्व देने की वजह से ही संभव हो सका।   निष्कर्शः- ‘‘शिक्षा का मूल्य‘‘ यह सुनने में बहुत साधारण-सा लगता है । जिनको प्राप्त होती है उनके लिए तो यह बहुमूल्य हीरे से भी अधिक मूल्यवान है परन्तु जिनको इसके अर्थ का समझ नही है इनके लिए शुन्य-सा प्रतीत होता है। और जिनको प्राप्त नहीे है उनके लिए तो सात समुंदर पार माणिक्य जैसा है ।  लेकिन जब इसे प्राप्त होता है तो मानों एक ऐसी संजीवनी  जैसे होती है जैसे मृत क्यक्ति के लिए अमृत ।  शिक्षा मानव के संपूर्ण विकास का वह सशक्त माध्यम है जिससे वह असंभव को भी संभव में परिणित कर देता है। शिक्षा अर्थात विद्या से संसार की किसी भी वस्तु से तुलनानहीं की जा सकती क्योंकि समस्त संसारिक वस्तु नाशवान है पर विद्या अविनाशी है जिसे संसार की कोई भी शक्ति नष्ट नहीं कर सकता। शिक्षा का मूल्य उदाहरण से स्पष्ट है। शिक्षा का मूल्य और उसके महत्व को समझने की आवश्यकता है केवल पुस्तकीय ज्ञान व विषय वस्तु को कण्ठस्थ कर लेने से हम शिक्षित नहीं हो जाते । महानता के उच्च आदर्शो को अपनाने की जिन्होंने भारत को हम भारतीय नागरिकांे को विश्व  के समक्ष सिर को गर्व से उंचा उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिये। शिक्षा असंभव को संभव कर देने वाली महान् व शसक्त हरियार है जिसकी सहायता से  विश्व को भी जीता जा सकता है ।  आज हमारे पास समस्त विभिन्न प्रकार के तकनीकी सुविधाएॅं है तो हमें भी यह क्षमता विकसित करना है क्योंकि समय निकल जाने पर कुछ भी हासिल नही किया जा सकता, क्योंकि समय अत्यंत बहुमूल्य है एक बार निकल जाने से लौटता नहीं, न ही किसी का इंतजार करता है ।  आज हमारे लिए मानों सब-कुछ हाथ में पकड़ा दिया है इसका इस्तेमाल हम किस तरीके से करे यह हमारे निर्णय पर निर्भर करता है । ‘‘लक्ष्य की प्राप्ति करना ही मनुश्य का मुख्य धर्म है ।  इसे मनुश्य होकर हम न भूले ।’’(अब्राहम लिंकन)   महान् कार्य वही कर सकते है, जो बराबर संघर्श करने की क्षमता रखते है उनका एक भी कदम पीछे नही हटता । (कार्लाइल) आज हमारे पास शिक्षा , साधन, तकनीक, सुविधा और विभिन्न प्रकार के शिक्षा का माध्यम है ।  बस कुछ छोटी-बड़ी शिक्षा प्रणाली, नीति व सिद्धांतो में सुधार की आवश्यकता है जो समय की मांग है जो होती रहती हंे  क्योंकि सुधार व परिवर्तन प्राकृति का नियम है। किसी की कमजोरी का बहाना न बनाएॅं न ही किसी का दोश ढूढ़ने में समय बर्बाद करें आरो-प्रत्यारोप न करते हुए इस विशय पर विचार विमर्श करें कि और हम अधिक क्या कर सकते है, अपनी क्षमता व शक्ति का भरपूर उपयोग करने हेतु उन अज्ञात बहुआयामी उपायों को ढूढ़ने में एकमत होकर उचित निश्कर्श निकाले ।  यही शिक्षा की सामयिक मांग है ।  कोई किसी को अपने से कम योग्यताधारी व कमजोर न समझे न ही कोई अपने को किसी के समझ उच्च योग्यताधारी गुणी और बुद्धिमान न समझे, समय है अपनी-अपनी क्षमता को सम्मिलित रूप से विकसित करने की ताकि एक स्वस्थ मूल्यवान शिक्षा पद्धति तैयार कर राश्ट्र व समाज को और अधिक उचाईयों के स्तर में ले जाने की। शिक्षा के मूल्य को समझे और अवसर को बहुमूल्य जाने और वर्तमान की चुनौतियों का सामना करते हुए उज्जवल तथा सुनहरे भविश्य हेतु नव सृजन कर उचित मार्ग ढंूढने में एक साथ मिलकर राष्ट्र के विकास में सहयोग देवें।     संदर्भ ग्रंथः- 1.  करण, चाॅद (2006)‘‘शिक्षा का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य’’ प्रकाशकः हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय बैरक नं.2,4 दिल्ली-7 2.  शर्मा, आ.ए.(1987) ‘‘ शिक्षा तकनीकी’’प्रकाशकः इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस मेरठ(उ.प्र.) 3.  स्वामी विवेकानंद(2009 से 2011) ‘‘मेरा भारत अमर भारत’’ प्रकाशकः स्वामी ब्रहास्थानन्द, अध्यक्ष,रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण आश्रम मार्ग, धन्तोली, नागपर-440012 4.  शर्मा, महेशचन्द्र(2004) ‘‘संस्कृति के चार सोपान’’ प्रकाशकः वैभव प्रकाशन 280, उदभव, सेक्टर-4 पं. डी. उपाध्याय नगर डगनिया,रायपुर(छ.ग.) 492010 5.  नगोरी एस.एल. एवं नागोरी, कान्ता (2001) प्रकाशकः सबलाइम पब्लिकेशन्स जैन भवन, एप.वी.सी. के सामने, शांति नगर, जयपुर-302006 6.  स्वामी विवेकानंद(150वी यचंती के उपलक्ष्य में प्रकाशित) व्यक्तित्व का विकास प्रकाशकः साधरण सचिव, रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन वेलुर मठ, जिला हौरा पं. बंगाल-711202 7.  स्वामी विवेकानंद(1948) शिक्षा प्रकाशकः स्वामी ब्रहस्धानन्द, अध्यक्ष, रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण आश्रम मार्ग, धन्तोली, नागपुर-440012 8.  मार्डन, स्वेट(2001) अपने आपको पहचानो प्रकाशकः साधना पाकेट बुक्स 39, यू.ए. बैम्लो रोड़ जवाहर नगर, दिल्ली-110007 9.  संपादक भूपेन्द्र कुमार शर्मा(2013) स्वामी विवेकानंद का सम्पे्रषण प्रकाशकः डाॅ.संदीप वनसूत्रे, कुलसचिव कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वद्यिालय काठाटीह, रायपुर-492013 10. सरित, सुशील एवं भार्गव, अनिल(2004-2005) आधुनिक भारतीय शिक्षाविदों का चिंतन वेदांत पब्लिकेशन, भार्गव बुक हाउस 4/230, कचहरी घाट, आगरा-282004     Received on 25.03.2014       Modified on 28.03.2014 Accepted on 31.03.2014      © A&V Publication all right reserved Int. J. Ad. Social Sciences 2(1): Jan. –Mar., 2014; Page 64-68                  

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