Friday, 3 November 2017
हितोपदेश
हितोपदेश के नीतिवचन: दो, विद्या की महत्ता
 योगेन्द्र जोशी
9 वर्ष ago
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पिछली पोस्ट (९ मार्च २००९) में मैंने संस्कृत ग्रंथ हितोपदेश के नीतिवचनों की चर्चा आरंभ की थी । उस पोस्ट में ग्रंथ का संक्षिप्त परिचय देते हुए इस बात का जिक्र किया था कि उसके आंरभ के ३ से ७ तक के श्लोकों में ग्रंथ में वर्णित बाद की कहानियों की भूमिका के आधार के रूप में विद्या की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है । श्लोक ३ एवं ४ का उल्लेख उक्त पोस्ट में किया था । अगले तीन श्लोक ये हैं:
संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् ।
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ।।
(हितोपदेश, श्लोक ५)
{(यथा) नीचगा सरित् समुद्रम् (संयोजयति) (तथा) इव विद्या एव दुर्धर्षं नरं अपि नृपं संयोजयति, अतः परम् भाग्यं (सम्भवति)।}
अर्थात् जिस प्रकार नीचे की ओर बहती नदी अपने साथ तृण आदि जैसे तुच्छ पदार्थों को समुद्र से जा मिलाती है, ठीक वैसे ही विद्या ही अधम मनुष्य को राजा से मिलाती है और उससे ही उसका भाग्योदय होता है । आधुनिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में राजा का तात्पर्य अधिकार-संपन्न व्यक्तियों से लिया जाना चाहिए जो व्यक्ति की योग्यता का आकलन करके उसे पुरस्कृत कर सकता हो । विद्या ही उसे इस योग्य बनाती है कि वह ऐसे अधिकारियों के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर सके और अपने ज्ञान से उन्हें प्रभावित कर सके ।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मों ततः सुखम् ।।
(हितोपदेश, श्लोक ६)
{विद्या विनयं ददाति, विनयात् पात्रताम् याति, पात्रत्वाद् धनम् आप्नोति, धनाद् धर्मं (आचरति), ततः (जनः) सुखम् (लभते) ।}
अर्थात् विद्याध्ययन से मनुष्य विनम्रता तथा सद्व्यवहार प्राप्त करता है, जिनके माध्यम से उसे योग्यता प्राप्त होती है । योग्यता से धनोनार्जन की सामर्थ्य बढ़ती है । और जब धन मिलता है तो धर्म-कर्म कर पाना संभव होता है, जिससे अंततः उसे सुख तथा संतोष मिलता है । यह श्लोक अपेक्षया अधिक चर्चित रहा है ।
विद्या शस्त्रस्य शास्त्रस्य द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितियाद्रियते सदा ।।
(हितोपदेश, श्लोक ७)
{शस्त्रस्य विद्या शास्त्रस्य (विद्या च इति) द्वे विद्ये प्रतिपत्तये (स्तः), आद्या (विद्या) वृद्धत्वे हास्याय, द्वितिया सदा आद्रियते ।}
अर्थात् शस्त्र-विद्या एवं शास्त्र-विद्या यानी ज्ञानार्जन, दोनों ही मनुष्य को सम्मान दिलवाती हैं । किंतु वृद्धावस्था प्राप्त होने पर इनमें से प्रथम यानी शास्त्र-विद्या उसे उपहास का पात्र बना देती है, जब उस विद्या का प्रदर्शन करने की उसकी शारीरिक क्षमता समाप्तप्राय हो जाती है । लेकिन शास्त्र-ज्ञान सदा ही उसे आदर का पात्र बनाये रखती है । यहां शस्त्र-विद्या से कदाचित् उन कार्यों से है जिनमें दैहिक क्षमता तथा बल की आवश्यकता रहती है । प्राचीन काल में अस्त्र-शस्त्र चलाना एक प्रमुख कार्य रहा होगा । आज उनकी बातें सामान्यतः नहीं की जाती हैं । विभिन्न प्रकार के बौद्धिक कार्यों की महत्ता इस युग में अपेक्षया बहुत बढ़ चुकी है ।
उक्त सभी बातें जिस काल में कही गयी होंगी वह आज की तुलना में सर्वथा भिन्न रहा होंगा । तब इन नीति-वचनों की अर्थवत्ता सर्वमान्य रही होगी । परंतु आज स्थिति कुछ भिन्न है । कई प्रकार की शंकाएं मन में उठ सकती हैं: क्या धनोपार्जन व्यक्ति के ज्ञान पर आधारित रहता है ? कुछ अवसरों पर क्या इसे तिकड़म तथा कदाचार से संपन्न नहीं करते लोग ? क्या विद्याघ्यायन, जिस अर्थ में उसे आज परिभाषित किया जाता है, विनम्रता आदि गुणों का स्रोत रह गया है कहीं ? विद्यारत लोगों में सद्गुण पनपते हैं यह बात सत्य रह गयी है क्या ? और धन-संपदा अर्जित करने के बाद भी धर्म-कर्म में रुचि पैदा होती है क्या लोगों की ? ऐसा करने की प्रवृत्ति क्या आधुनिक विद्या देती है ? विद्यावान व्यक्ति को आदर मिलता ही हो यह बात कहां तक सही है ? इत्यादि । ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर मुझे प्रायः नकारात्मक ही दिखाई देते हैं । – योगेन्द्र
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श्रेणियाँ: नीति, लोकव्यवहार, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति
टैग्स: ज्ञान, धन, धर्म, योग्यता, विद्या
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