Saturday, 31 March 2018
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Swayamvara Parvathi Stotra (श्र्वयम्वर पर्वथि स्तोत्र)
published on March 17, 2010 in Stotras (स्तोत्र)
Composer: In Hindu mythology, Durvasa (दुर्वास in Devanagari or durvāsa in IAST, pronounced [d̪urʋɑːsɐ] in classical Sanskrit), or Durvasas, was an ancient sage, the son of Atri and Anasuya. More...
Stotra: Swayamvara Parvathi Stotra
Verses: 48
Stuti: About Lord Shiva.
Language: Sanskrit (संस्कृत)
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This Stotra was originally composed in Sanskrit. Other languages are for your convenience
DEVANAGARITELUGUTAMILENGLISHMEANING
ॐ बन्धूक वर्णं अरुणं सुगथ्रं,
शंभुं समुधिस्य सनैरुपेतं,
अम्भोज म्रुध्वीम् अभिलाषा दथ्रीं,
संभवये निर्ज्जर धृ कल्पं. 1
ह्रीं मन्धराणि चरनग्र गथि प्रपथे,
ष्वमन्जु सम्क्वनिथ कङ्कण किङ्किनीनि,
कामं कुमारी, थ्व थानी शिवे, स्मरामि,
क्षेमन्गराणि जन कलया खेलनानि. 2
योगेन बाल्य व्यासो ललिथं पुरस्थातः,
द्रगेव कन्द विलसतः कन्कोर्मि कोउघां,
आकंर नग्ध रसनं भवथीं निरीक्षे,
श्री कन्द भामिनि, कध प्रपदीन वेणीं. 3
गिर्यल्प मुग्ध विषधं नव योउवनं श्री,
धुर्यं विलसमय मक्ष्नी कृसं विलघ्ने,
पर्युच्यिथं कुच भरे जघने गणं यतः,
पर्युथ्सको अस्मि सथथं जननि प्रसीध. 4
निर्धूथ कुण्डल मुदन्चिथ घर्म लेसं,
विथ्रस्थ केसमभिथ सचल दीक्षनन्थं,
णिर्ध्वनि कङ्कण मुधग्र कुचन्ध मन्धर,
बध्नामि थथ गृह कन्धुक खेलनं थेय. 5
य़ोगेस्वरम् प्रचुर भक्थि गिरीएस मरा.
धेकन्थ वेथिनमुपेथ्य थापस्चरन्थं,
आकंक्षया परि चरिष्नुमनकुलां थ्वम्,
ये केचिधीस्वरि भजन्थि थ येव धन्य. 6
गिर्यथ्मजे, मदन दह महावमन,
पर्याकुल पुरःअरे ह्रुधयं निधाय,
कर्यस्थापो विधधि कुसलानि भूब्रुतः,
पर्याय पीन कुच कुम्भ विषुम्भदङ्गी. 7
निध्याय मनसा दृस मुहूर इन्दु चूदं,
मध्य स्थिथ रहसि पञ्च हुथासनानां,
थथ द्रुसेन थापस जगद अण्ड भाजां,
विथ्रस धात्री, परि पाहि सदा शिवे न. 8
योग्यं वतोर्व पुरुप स्थिथरथ्म भक्थिं,
दीर्घं परीक्षिथु मनुक्षण मक्षि पन्थां,
सक्षातः गिरीस मवधूय रुषा प्रयथे,
द्रक्थेन संस्रिथपदं भ्वथीं भजाम. 9
गेहे निजे वरनधमलसतः करभ्जां,
व्य्हारी नूपुर मुदन्चिथ मन्द हासं,
नीहार भानु दर मुचलिथं वरीथुं,
मोहवहां त्रिभुवनस्य भजामहे थ्वम्. 10
श्र्वस्थहि कङ्कण विलोकन भीठ भीथं,
प्रथ्यग्र राग विवासं मम थं निदेहि,
ऊथ्स्वेद वेपधु पिनाक भृथ ग्रहीथं,
रुद्राणी दक्षिण करबुज मुथमङ्गे. 11
रिष्टपाहं भवथु भर्थ्रु नखेण्डु बिम्ब,
स्पष्टनु बिम्बिथ थानुं विभुधपगं थां,
ड्रुश्त्वसु राग रभसोधाय सोना कोणं,
ड्रुश्तिद्वयम् थ्व कर ग्रहणे स्थिथं न. 12
योगे नवे थ्व भवानि शिवानि दध्यतः,
द्रगेव सथ्वर मपथ्रपया निवृथं,
सकंप माली वचनैर विहित्भिमुख्यं,
द्रगुथ्स्मिथं पुरभिध परिरब्धमङ्गं. 13
गथय निथम्भ मन्द्रय सलज्जै,
रधेक्षणै रस कलक्षर वग विलसि,
ह्रुध्यैस्च विभ्रम गुणैर माधनरी धैर्य,
प्रस्थार हरिणी शिवे जननि प्रसीद. 14
भद्र मखेन्दुन मनाध भी वीक्षनेषु,
प्रथ्युक्थि धन विरमन्न वसतः कधाशु,
ऊद्वेन नाधि हततः परि रंभनेषु,
पथ्यु प्रमोध जननि, जननि प्रसीध. 15
यं नाधमधि मुनयो निगमोक्थि गुम्प्हे,
ष्वलक्श्य थन्थ मनसो विमुखी भवन्थि,
संनह्य थेन दयिथेन मनोज विध्या,
नन्दनु भूतहि रसिके जननि प्रसीद. 16
कल्याण कुन्त्हल भारं नव कल्प वल्ली,
पुष्पोल्लसद बहुला सोउरभ लोभनीयं,
कल्याण धाम ससि खण्ड मखान शोभा,
कल्लोलिथं थ्व महेस्वरि संस्रयाम. 17
रिञ्चलिक थ्व शिवे नीति ललकानां,
न्यञ्चद पतीर थिलके नितिले विभन्थी,
मन्जु प्रसन्न मुख पद्म विहारी लक्ष्मी,
पिन्चथपथ्र रुचिर ह्रुधि न समिन्धं. 18
सम्यग् ब्रुवोव् थ्व विलास भूवोव् स्मराम,
समुग्ध मन्मध सरासन चारु रूपे,
हरुन मध्य गूदा निहिथं हर दीर्य लक्ष्यं,
यन्मूल यन्थ्रिथ कदक्ष सारैर विभिन्नं, 19
कमर सिथ सिथ रुचा स्रवनन्थ दीर्घ,
भिम्भोक दंबर ब्रुथो निभ्र्थनुकंप,
संमथुक मयि भवन्थु पिनाकी वक्त्र,
भिम्बम्भुजा जन्म मधुप सथि, थेय कदक्ष. 20
लग्नभिरम मृगनभि विचिथ्र पत्रं,
मग्नं प्रभसमुदये थ्व गण्ड बिम्भं,
चिथे विभथु सथथं मणि कुन्दलोध्य,
द्रन्थानु बिम्भ परि चुम्बिथमंबिके न. 21
स्थानो सदा भ्ग्वथ परियथ निधनं,
प्रनधापि प्रविरल स्मिथ लोभनेयं,
स्थानी कुरुश्व गिरिजे, थ्व बन्धु जीव,
श्रेणी सगन्ध मधुरं दिशनन्थरे न. 22
वन्दामहे कनक मङ्गल सुथर शोभा,
संदीप्थ कुंकुम वलिथ्राय बानगी रम्यं,
मन्दर्द्शिकस्वर विकस्वर नाध विध्य,
संधर्भ गर्भंगजे, थ्व कन्द नालं. 23
रक्षर्थमथ्र मम मूर्धनि दथ्स्व नित्यं,
दक्षरि गद परि रम्भा रसनुकूलं,
अक्षम हेम कदकन्गध रथन शोभां,
लाक्षविलं जननि, पनियुगं थ्वधीयम्. 24
जंभारि कुम्भी वरकुम्भ निभमुरोज,
कुम्भ द्वयी ललिथ संब्रुथ रथन मलं,
शम्भोर भुजैर अनुधिनं निभिदन्गपली,
संभविथं भुवन सुन्दरी, भावयाम. 25
गर्वपहे वात दलस्य थानूधरन्थे,
निर्व्यूद भासि थ्व नाभि सारस्य गधे,
सर्ववलोक रुचि मेधुर रोम वल्ली,
निर्वसिथे वसथु मय दिषणं अरली. 26
मचेदसि स्फुरथु मर राधाङ्ग भङ्गीं,
उचैर द्धधन मथिपि वरथा निधनं,
श्र्वचन्द रथन रसना कलिथन्थरीय,
प्रच्हनं अम्ब, थ्व कर्म निथम्भ बिम्बं. 27
स्यन्धनु राग माधवरी पुरारी चेथ,
संनाग बन्ध मणि वेणु कमूरु कन्दं,
बन्धि कृथेन्द्र गज पुष्कर मुग्ध रम्भं,
नन्दम सुन्दरी, शिवे, ह्रुधि संध धन. 28
मुग्धोल्लसतः कनक नूपुर नग्ध नाना,
रथन भयोर्ध्व गथय परिथोभिरममं,
चिथ प्रस्सोथि जय कहल कनथि जङ्घा,
युग्मं थ्वधीय मग नान्धिनी चिन्थयाम. 29
ग़द्वन्ग पाणि मकुतेन तधा तधा सं -,
गृष्ट गर्यो प्रनदिषु प्रणय प्रकोपे,
अश्तङ्ग पथ सहिथं प्रनथोस्मि लब्धु,
मिषतां गथिं जननि, पद पयोजयोस्थे. 30
ह्रुध्यर्पनं मम मृजन्थु तधा थ्वधन्ग,
मुध्य द्रविध्युथि भवेदिह सानु बिम्भं,
उथुङ्ग दैथ्य सुर मोउलिभिरुःयमानो,
रुद्रप्रिये, थ्व पदभ्ज भवा परागा. 31
दध्य सुखानि मम चक्र कलन्धरस्थ,
रक्थंबरण मलय धर, जपभ,
रुद्राणी पास स्रुनि चाप सरग्र हस्थ,
कस्थुरी कथिलकिनी, नव कुम्कुमर्ध्र. 32
यद पन्कजन्म निलयं कर पद्म शुम्भ,
दंभोरुहं भुवन मङ्गल मद्रियन्थे,
अम्बोर्हखा सुक्रोथोतः कर पाक मेकं,
संभवये ह्रुधि शिवे, थ्व शक्थि बेधं, 33
मन्धर कुन्ध सुषम कर पल्लवोध्यतः,
पुन्याक्षाधम पुस्थाक पूर्ण कुम्भ,
चन्द्रार्ध चारु मकुट नव पद्म संस्था,
संधेदिवीथु भवत्थि ह्यदि न स्थ्रिनेथ्र. 34
मध्ये कदम्भ वन मस्थिथ रथन दोलां,
उध्यन्नखग्र मुखारी कृथा रथन वीणां,
अथ्यन्थ नील कमनीय कलेभरं थ्वाम्,
उथ्सङ्ग ललिथ मनोज्ञा सुखी मुपस्य. 35
वर्थमहे मनसि संधदधीं निथन्थ,
रक्थां वरा भय विराजि कररविन्धां,
ऊद्वेल मध्य वसथीं, मधुरङ्गी, मायां,
ठथ्वथ्मिकाम् हग्वथीम्, भवथीं भजन्थ. 36
शंभु प्रियं ससि कला कलिथवथंसां,
संभविथभाय वरं कुस पास पाणिं,
संपाद प्रधान निरथं, भुवनेस्वरीम् थ्वम्,
शुम्भज्जप रुचमपर कृपां उपासे. 37
आरूद थुङ्ग थुरगां मृदु बहु वल्लीं,
आरूद पास स्रुनि वेथ्र लथं, त्रिनेथ्रं,
आरोपिथा मखिल संथनने प्रगथ्भं,
आराधयामि भवथि मनसा मंनोग्नं. 38
कर्मथ्मिके, जय जय अखिल धर्म मूर्थे,
चिन्मथ्रिके जय, जय त्रिगुण स्वरूपे,
कल्माष घर्मम पिसुनान करुणा मृथर्ध्रै,
समर्ज्य समय गभिषिञ्च द्रुगञ्जलैर न, 39
शन्नामसि थ्वमधि दैवथमक्षरानां,
वर्ण थ्र्योधिथ मनु प्रक्रुथिस्थ्वमेव,
ठ्वन्नम विस्व मनु शक्थि कालं थ्वदन्यथ्,
किन्नाम दैवथमिहस्थि समास्थ मूर्थे. 40
य कपि विस्व जन मोहन दिव्य मया,
श्री काम वैरी वपुरार्ध हरानुभव,
प्रकस्यथे ज्ञगधीस्वरि, स थ्वमस्मन्,
मूकान अन्य सरनान परि पाहि धीनान. 41
कर्थ्रै नमोस्थु जगथोनिखिल स्य भर्थ्यै,
हर्थ्यै नमोस्थु विधि विष्णु हरथम शक्थ्यै,
भ्क्थ्यै नमोस्थु भुवनाभि मथ प्रसूथ्यै,
मुक्थ्यै नमोस्थु मुनि मण्डल दृश्य मूर्थ्यै. 42
षड वक्त्र हस्थि मुख जुष्टा पदस्य भरथु,
रिष्टोप गुहाण सुधप्लुथ मानसस्य,
दृष्ट्या निपीय वदनेन्दु मक्षिनङ्गे,
थुष्ट्या स्थिथे, विथार देवी, दयवोकान. 43
यन्थन्थरं भविथ्रु भूथ भवं मया यतः,
श्र्वप्न प्रजा गर सुषुप्थि शुप्थिषि वङ्ग मनोङ्गै,
नित्यं थ्वदर्चन कलासु समास्थ मेथातः,
भक्थानुकंपिनि, ममास्थु थ्व प्रसादतः. 44
श्र्वहेथि सागर सुथेथि, सुरपगेथि,
व्याहर रूप सुशमेथि, हरि प्रियेथि,
नीहार सैल थानयेथि, प्रधाक प्रकास,
रूपं परमेस महिषीं, भवथिं भजाम. 45
हरस्फुरतः कुच गिरे, हर जीव न्धे,
हरि स्वरूपिनि, हरि प्रमुख्धि वन्ध्ये,
हेरंभ शक्थि धर नन्दिनी, हेम वर्णे,
हेय चण्डी, हैमवथि, देवी नमो नमस्थे. 46
य़ेअ थु स्वयम्वर महा स्थाव मन्थ्रमेथं,
प्रथर नरा सकल सिधि करं जपन्थि,
भूतहि प्रभाव जन रञ्जन कीर्थि सोउन्धार्य,
आरोप्य मयुरापि दीर्गमामि लभन्थे. 47
शथ कृथु प्रब्रुथ्य मर्थ्य थाथ्यभि प्रनथ्यप,
क्रम प्रस्रुथ्वर स्मिथ प्रभन्चिदस्य पङ्कजे,
हर प्रिये, वर प्रधे, दर दरेन्द्र कन्यके,
हरिध्राय समन्विथे, दरिध्रथां हर दृथं. 48
श्र्वयम्वर मन्त्रं
न्यासं
अस्य श्री स्वयम् वर मन्थरस्य
ब्रह्म ऋषि,
देवी गयथ्री चन्द,
देवी गिरि पुत्री स्वयवर देवथा,
मम अभेष सिध्यर्थे जपे विनियोग.
ध्यानं
शंभुं जगन मोहन रूप वर्णं,
विलोक्य लज्जकुलिथं, स्मिथद्यां,
मधूक मालं, स्व सखी कराभ्यां,
संबीब्रथि माद्री सुथां भजेयं.
मन्त्र
ॐ ह्रीं योगिनी योगिनी योगेस्वरि योग भयंकरी सकल स्थवर जन्गमस्य मुख हृदयं मम वासं आकर्षय आकर्षय स्वहा.
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अष्टांगी ( देवी आदिशक्ति )
01 जून 2011
काल निरंजन की चालबाजी
तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! अब आप आगे की बात कहो । चार खानियों की रचना कर फ़िर क्या किया ? यह मुझे स्पष्ट कहो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास यह काल निरंजन की चालबाजी है । जिसे पंडित काजी नहीं समझते । और वे इस भक्षक काल निरंजन को भृमवश स्वामी ( भगवान आदि ) कहते हैं । और सत्यपुरुष के नाम ग्यान रूपी अमृत को त्याग कर माया का विषय रूपी विष खाते हैं । इन चारों.. अष्टांगी ( देवी आदिशक्ति ) बृह्मा । विष्णु । महेश । ने मिलकर यह सृष्टि रचना की । और उन्होंने जीव की देह को कच्चा रंग दिया । इसीलिये मनुष्य की देह में आयु समय आदि के अनुसार बदलाव होता रहता है । 5 तत्व - प्रथ्वी । जल । वायु । अग्नि । आकाश और 3 गुण - सत । रज । तम से देह की रचना हुयी है । उसके साथ चौदह 14 यम लगाये गये हैं । इस प्रकार मनुष्य देह की रचना कर काल ने उसे मार खाया । तथा फ़िर फ़िर.. उत्पन्न किया । इस तरह मनुष्य सदा जन्म मरण के चक्कर में पङा ही रहता है । ॐकार वेद का मूल अर्थात आधार है । और इस ॐकार में ही संसार भूला भूला फ़िर रहा है ( बल्कि फ़ूला फ़ूला फ़िर रहा है - राजीव ) संसार के लोगों ने ॐकार को ही ईश्वर परमात्मा सब कुछ मान लिया । वे इसमें उलझकर सब ग्यान भूल गये । और तरह तरह से इसी की व्याख्या करने लगे । यह ॐकार ही ( भी ) निरंजन है । परन्तु आदि पुरुष का सत्यनाम जो विदेह है । उसे गुप्त समझो । काल माया से परे वह आदि नाम गुप्त ही है ।
( यह बात एक दृष्टि से सही है । परन्तु मैंने ॐकार द्वारा शरीर बनना बताया है । अतः मेरे नियमित पाठकों को भृम हो सकता है । लेकिन ..सत्यपुरुष ने जीव बीज को " सोहंग " रूप में काल पुरुष को दिया था । तब इस परिवार ने अपनी इच्छानुसार मनुष्य या अन्य जीव बनाये । और काल अदृष्य होकर मन रूप में सब जीवों के भीतर बैठ गया । अतः ये शरीर उसी का है । उसी के अधिकार में है । अतः ॐकार को काल निरंजन कह सकते हैं । क्योंकि अविनाशी " सोहंग " जीव शरीर में रहते हुये भी उससे अलग ही है । )
हे धर्मदास ! फ़िर बृह्मा ने 88 000 ऋषियों को उत्पन्न किया । जिससे काल निरंजन का बहुत प्रभाव बङ गया ( क्योंकि वे उसी का गुण तो गाते हैं ) बृह्मा से जो जीव उत्पन्न हुये । वो ब्राह्मण कहलाये । ब्राह्मणों ने आगे इसी शिक्षा के लिये शास्त्रों का विस्तार कर दिया ( इससे काल निरंजन का प्रभाव और भी बङा । क्योंकि उनमें उसी की बनाबटी महिमा गायी गयी है )
बृह्मा ने स्मृति । शास्त्र । पुराण आदि धर्म गृन्थों का विस्त्रत वर्णन किया । और उसमें समस्त जीवों को बुरी तरह उलझा दिया ( जबकि परमात्मा को जानने का सीधा सरल आसान रास्ता " सहज योग " है ) जीवों को बृह्मा ने भटका दिया । और शास्त्र में तरह तरह के कर्म कांड । पूजा । उपासना की नियम विधि बताकर जीवों को सत्य से विमुख कर भयानक काल निरंजन के मुँह में डालकर उसी की ( अलख निरंजन ) महिमा को बताकर झूठा ध्यान ( और ग्यान ) कराया । इस तरह " वेद मत " से सब भृमित हो गये । और सत्यपुरुष के रहस्य को न जान सके ।
हे धर्मदास ! निरंकार ( निरंकारी ) निरंजन ने यह कैसा झूठा तमाशा किया । उस चरित्र को भी समझो ।
काल निरंजन आसुरी भाव ( मन द्वारा ) उत्पन्न कर प्रताङित जीवों को सताता है । देवता । ऋषि । मुनि सभी को प्रताङित करता है । फ़िर अवतार ( दिखावे के लिये । निज महिमा के लिये ) धारण कर रक्षक बनता है ( जबकि सबसे बङा भक्षक स्वयँ हैं ) और फ़िर असुरों का संहार ( का नाटक ) करता है । और इस तरह सबसे अपनी महिमा का विशेष गुणगान करवाता है । जिसके कारण जीव उसे शक्ति संपन्न और सब कुछ जानकर उसी से आशा बाँधते हैं कि - यही हमारा महान रक्षक है ???
विशेष - कुछ पाठकों ने कहा था कि लिखा है - अवतार विष्णु लेते हैं ।.. ऐसा काल निरंजन खुद विष्णु को मायाशक्ति से भरमाता है । यानी खुद को छिपाये रखने हेतु अवतार में जिक्र विष्णु ( खुद विष्णु से भी ) का करता है । और राम ..कृष्ण ये दो अवतार खुद लेता है । यह बात यहाँ स्पष्ट हो गयी । )
वह अपनी रक्षक कला दिखाकर अन्त में सव जीवों का भक्षण कर लेता है ( यहाँ तक कि अपने पुत्र बृह्मा विष्णु महेश को भी नहीं छोङता ) जीवन भर उसके नाम ग्यान जप पूजा आदि के चक्कर में पङा जीव अन्त समय पछताता है । जब काल उसे बेरहमी से खाता है ( मृत्यु से कुछ पहले अपनी आगामी गति पता लग जाती है )
हे धर्मदास ! अब आगे सुनो । बृह्मा ने 68 तीर्थ स्थापित कर पाप पुण्य और कर्म अकर्म का वर्णन किया । फ़िर बृह्मा ने 12 राशि । 27 नक्षत्र । 7 वार और 15 तिथि का विधान रचा । इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र की रचना हुयी । अब आगे की बात सुनो ।
*******
शीघ्र प्रकाशित होगा ।
पर 6/01/2011 09:42:00 pm
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अनुराग सागर के सम्पूर्ण लिंक्स
▼
04 सितंबर 2013
अनुराग सागर के सम्पूर्ण लिंक्स
अक्सर सत्यकीखोज के पाठक इंटरनेट पर `अनुराग सागर' को पढ़ने या डाउनलोड करने के लिये लिंक की माँग करते रहे हैं । जबकि यह मैंने विभिन्न लेखों के माध्यम से सम्पूर्ण रूप से ब्लाग पर पोस्ट कर दी थी लेकिन व्यस्तता के चलते उस समय मैं लिंकों को सहेजना भूल गया ।
हमारे शिष्य स्वपनिल तिवारी ने इस कार्य में मेरी मदद की और उन सभी लिंक्स को खोजकर सत्यकीखोज के पाठकों हेतु एक ही जगह उपलब्ध कराया । इस पेज पर अलग अलग शीर्षकों से सभी लिंक मौजूद हैं । बस वे कृमबद्ध अवश्य नहीं हैं लेकिन उससे ग्रन्थ को समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी । क्योंकि शीर्षक के तहत लेख के प्रारूप में पूरा ही वर्णन मिल जाता है । वैसे इसी पेज में अनुराग सागर के डाउनलोड का पीडीएफ़ लिंक भी मौजूद है ।
**************
http://greatsaint-kabeer.blogspot.in/2010/12/blog-post.html
अनुराग सागर की संक्षिप्त कहानी
http://greatsaint-kabeer.blogspot.in/2011/06/blog-post_21.html
धर्मदास यह कठिन कहानी..गुरुमत ते कोई बिरले जानी
http://greatsaint-kabeer.blogspot.in/2011/06/blog-post_22.html
साधु का मार्ग बहुत ही कठिन है
http://greatsaint-kabeer.blogspot.in/2011/06/blog-post_25.html
(विदेह स्वरूप सार शब्द
http://greatsaint-kabeer.blogspot.in/2012/02/blog-post.html
काल निरंजन जग भरमावे
***********
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/03/blog-post_28.html
अपना होय तो दियो बतायी । कबीर साहब और धर्मदास
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_28.html
राम नाम की उत्पत्ति
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_29.html
अष्टांगी कन्या और काल निरंजन
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_30.html
अष्टांगी का बृह्मा गायत्री और पुहुपावती को शाप देना
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_31.html
काल निरंजन का धोखा
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_404.html
त्रिदेव द्वारा प्रथम समुद्र मंथन
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_5853.html
बृह्मा और गायत्री का अष्टांगी से झूठ बोलना
http://ohmygod-rajeev.blogspot.in/2011/05/blog-post_7828.html
वेद की उत्पत्ति
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कपटी काल निरंजन का चरित्र
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Saturday, 24 March 2018
रहिमन’ धागा प्रेम को, मत तोड़ो चटकाय
रहीम के दोहे (भाग 2)
1: ध्यान और वन्दना
जेहि ‘रहीम’ मन आपनो कीन्हो चारु चकोर।
निसि-वासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिस किसी ने अपने मन को सुन्दर चकोर बना लिया, वह नित्य निरन्तर, रात और दिन, श्रीकृष्णरूपी चन्द्र की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है। (सन्दर्भ-चन्द्र का उदय रात को होता है, पर यहाँ वासर अर्थात दिन भी आया है, अत: वासर का आशय है नित्य निरन्तर से।)
‘रहिमन’ कोऊ का करै, ज्वारी,चोर,लबार।
जो पत-राखनहार है, माखन-चाखनहार॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिसकी लाज रखनेवाले माखन के चाखनहार अर्थात रसास्वादन लेनेवाले स्वयं श्रीकृष्ण हैं,उसका कौन क्या बिगाड़ सकता है? न तो कोई जुआरी उसे हरा सकता है, न कोई चोर उसकी किसी वस्तु को चुरा सकता है और न कोई लफंगा उसके साथ असभ्यता का व्यवहार कर सकता है। (सन्दर्भ-जुआरी का आशय है यहां शकुनि से, जिसने युधिष्ठर को धूर्ततापूर्वक जुए में बुरी तरह हरा दिया था।
ब्रह्मा द्वारा जब ग्वाल-बालों की गांए चुरा ली गयीं, तब श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा की थी। इसी प्रकार दुष्ट दु:शासन द्वारा साड़ी खींचने पर आर्त द्रौपदी की लाज श्रीकृष्ण ने बचाई थी।)
2: अनन्यता
‘रहिमन’ गली है सांकरी, दूजो नहिं ठहराहिं।
आपु अहै, तो हरि नहीं, हरि, तो आपुन नाहिं॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : जबकि गली सांकरी है, तो उसमें एक साथ दो जने कैसे जा सकते है? यदि तेरी खुदी ने सारी ही जगह घेर ली तो हरि के लिए वहां कहां ठौर है? और, हरि उस गली में यदि आ पैठे तो फिर साथ-साथ खुदी का गुजारा वहां कैसे होगा? मन ही वह प्रेम की गली है, जहां अहंकार और भगवान् एक साथ नहीं गुजर सकते, एक साथ नहीं रह सकते।
अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
‘रहिमन’ ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिए काहि॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : अमरबेलि में जड़ नहीं होती, बिलकुल निर्मूल होती है वह; परन्तु प्रभु उसे भी पालते-पोसते रहते हैं। ऐसे प्रतिपालक प्रभु को छोड़कर और किसे खोजा जाय?
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
‘रहिमन’ मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : धन्य है मीन की अनन्य भावना! सदा साथ रहने वाला जल मोह छोड़कर उससे विलग हो जाता है, फिर भी मछली अपने प्रिय का परित्याग नहीं करती उससे बिछुड़कर तड़प-तड़पकर अपने प्राण दे देती है।
धनि ‘रहीम’ गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौर को भाय॥4॥
शब्दार्थ / अर्थ : धन्य है मछली की अनन्य प्रीति! प्रेमी से विलग होकर उसपर अपने प्राण न्यौछावर कर देती है। और, यह भ्रमर, जो अपने प्रियतम कमल को छोड़कर अन्यत्र उड़ जाता है!
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आप फिर जाय॥5॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिन आँखों में प्रियतम की सुन्दर छबि बस गयी, वहां किसी दूसरी छबि को कैसे ठौर मिल सकता है? भरी हुई सराय को देखकर पथिक स्वयं वहां से लौट जाता है। (मन-मन्दिर में जिसने भगवान को बसा लिया, वहां से मोहिनी माया, कहीं ठौर न पाकर, उल्टे पांव लौट जाती है।)
3:प्रेम
‘रहिमन’ पैड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
बिलछत पांव पिपीलिको, लोग लदावत बैल॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : प्रेम की गली में कितनी ज्यादा फिसलन है! चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं इस पर। और, हम लोगों को तो देखो, जो बैल लादकर चलने की सोचते है! (दुनिया भर का अहंकार सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रेम के विकट मार्ग पर चल सकता है? वह तो फिसलेगा ही।)
‘रहिमन’ धागा प्रेम को, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गांठ पड़ जाय॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : बड़ा ही नाजुक है प्रेम का यह धागा। झटका देकर इसे मत तोड़ो, भाई! टूट गया तो फिर जुड़ेगा नहीं, और जोड़ भी लिया तो गांठ पड़ जायगी। (प्रिय और प्रेमी के बीच दुराव आ जायगा।)
‘रहिमन’ प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : सराहना ऐसे ही प्रेम की की जाय जिसमें अन्तर न रह जाय। चूना और हल्दी मिलकर अपना-अपना रंग छोड़ देते है। (न दृष्टा रहता है और न दृश्य, दोनों एकाकार हो जाते हैं।)
कहा करौं वैकुण्ठ लै, कल्पबृच्छ की छांह।
‘रहिमन’ ढाक सुहावनो, जो गल पीतम-बाँह॥4॥
शब्दार्थ / अर्थ : वैकुण्ठ जाकर कल्पवृक्ष की छांहतले बैठने में रक्खा क्या है, यदि वहां प्रियतम पास न हो! उससे तो ढाक का पेड़ ही सुखदायक है, यदि उसकी छांह में प्रियतम के साथ गलबाँह देकर बैठने को मिले।
जे सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
‘रहिमन’ दाहे प्रेम के, बुझि-बुझिकैं सुलगाहिं॥5॥
शब्दार्थ / अर्थ : आग में पड़कर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने वाले प्रेमीजन बुझकर भी सुलगते रहते है। (ऐसे प्रेमी ही असल में ‘मरजीवा’ हैं।)
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
‘रहिमन’ फिर-फिर पोइए, टूटे मुक्ताहार॥6॥
शब्दार्थ / अर्थ : अपना प्रिय एक बार तो क्या, सौ बार भी रूठ जाय, तो भी उसे मना लेना चाहिए। मोतियों के हार टूट जाने पर धागे में मोतियों को बार-बार पिरो लेते हैं न!
यह न ‘रहीम’ सराहिये, देन-लेन की प्रीति।
प्रानन बाजी राखिये, हार होय कै जीत॥7॥
शब्दार्थ / अर्थ : ऐसे प्रेम को कौन सराहेगा, जिसमें लेन-देन का नाता जुड़ा हो! प्रेम क्या कोई खरीद-फरोख्त की चीज है? उसमें तो लगा दिया जाय प्राणों का दांव, परवा नहीं कि हार हो या जीत!
‘रहिमन’ मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥8॥
शब्दार्थ / अर्थ : प्रेम का मार्ग हर कोई नहीं तय कर सकता। बड़ा कठिन है उस पर चलना, जैसे मोम के बने घोड़े पर सवार हो आग पर चलना।
वहै प्रीत नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।
घटत-घटत ‘रहिमन’ घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत॥9॥
शब्दार्थ / अर्थ : कौन उसे प्रेम कहेगा, जो धीरे-धीरे घट जाता है? प्रेम तो वह, जो एक बार किया, तो घटना कैसा! वह रेत तो है, नहीं, जो हाथ में लेने पर छन-छनकर गिर जाय। (प्रीति की रीति बिलकुल ही निराली है।)
4: राम-नाम
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
‘रहिमन’ जगत-उधार को, और न कछू उपाय॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : संसार-सागर के पार ले जानेवाली नाव राम की एक शरणागति ही है। संसार के उद्धार पाने का दूसरा कोई उपाय नहीं, कोई और साधन नहीं।
मुनि-नारी पाषान ही, कपि,पशु,गुह मातंग।
तीनों तारे रामजू, तीनों मेरे अंग॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : राम ने पाषाणी अहल्या को तार दिया, वानर पशुओं को पार कर दिया और नीच जाति के उस गुह निषाद को भी! ये तीनों ही मेरे अंग-अंग में बसे हुए हैं– मेरा हृदय ऐसा कठोर है, जैसा पाषाण। मेरी वृत्तियां, मेरी वासनाएं पशुओं की जैसी हैं, और मेरा आचरण नीचतापूर्ण है। तब फिर, तुझे तारने में तुम्हे संकोच क्या हो रहा है, मेरे राम!
राम नाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।
कहि ‘रहीम’ क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : राम-नाम की महिमा मैंने पहचानी नहीं और पूजा-पाठ करता रहा। बात बिगड़ती ही गयी। यमदूत मेरी एक नहीं सुनेंगें, मेरी लाज नहीं बचेगी।
राम-नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि।
कहि ‘रहिम’ तिहि आपुनो, जनम गंवायो बाधि॥4॥
शब्दार्थ / अर्थ : राम-नाम का माहात्म्य तो मैंने जाना नहीं और जिसे जानने का जतन किया, वह सारा व्यर्थ था। राम का ध्यान तो किया नहीं और विषय-वासनाओं से सदा लिपटा रहा। (पशु नीरस खली को तो बड़े स्वाद से खाते हैं, पर गुड़ की डली जबरदस्ती बेमन से गले के नीचे उतारते हैं।)
5:मित्र
मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय।
‘रहिमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : सच्चा मित्र वही है, जो विपदा में साथ देता है। वह किस काम का मित्र, जो विपत्ति के समय अलग हो जाता है? मक्खन मथते-मथते रह जाता है, किन्तु मट्ठा दही का साथ छोड़ देता है,
जिहि ‘रहीम’ तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।
तासों दु:ख-सुख कहन की, रही बात अब कौन॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिस प्रिय मित्र ने तन और मन पर कब्जा कर रक्खा है और हृदय मे जो सदा के लिए बस गया है, उससे सुख और दु:ख कहने की अब कौन-सी बात बाकी रह गयी है? (दोनों के तन एक हो गये, और मन भी दोनों के एक ही।)
जे गरीब सों हित करें, धनि ‘रहीम’ ते लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण-मिताई-जोग॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : धन्य हैं वे, जो गरीबों से प्रीति जोड़ते है! बेचारा सुदामा क्या द्वारिकाधीश कृष्ण की मित्रता के योग्य था?
6:उपालम्भ
जो ‘रहीम’ करबौ हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
तो काहे कर पर धर््यौ, गोवर्धन गोपाल॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : हे गोपाल, ब्रज को छोड़कर यदि तुम्हें उसका यही हाल करना था, तो उसकी रक्षा करने के लिए अपने हाथ पर गोवर्धन पर्वत को क्यों उठा लिया था? (प्रलय जैसी घनघोर वर्षा से व्रजवासियों को त्राण देने के लिए पर्वत को छत्र क्यों बना लिया था?)
हरि’रहीम’ ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
खेंचि आपनी ओर को, डारि दियौ पुनि दूर॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : जैसे धनुष पर चढ़ाया हुआ तीर पहले तो अपनी तरफ खींचा जाता है, और फिर उसे छोड़कर बहुत दूर फेंक देते हैं। वैसे ही हे नाथ! पहले तो आपने कृपाकर मुझे अपनी और खींच लिया। और फिर इस तरह दूर फेंक दिया कि मैं दर्शन पाने को तरस रहा हूँ।
‘रहिमन’ कीन्ही प्रीति, साहब को भावै नहीं।
जिनके अगनित मीत, हमें गरीबन को गनैं॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : मैंने स्वामी से प्रीति जोड़ी, पर लगता है कि उसे वह अच्छी नहीं लगी। मैं सेवक तो गरीब हूं, और, स्वामी के अगणित मित्र हैं। ठीक ही है, असंख्य मित्रों वाला स्वामी गरीबों की तरफ क्यों ध्यान देने लगा!
7: कितना बड़ा आश्चर्य है!
बिन्दु में सिन्धु समान, को अचरज कासों कहैं।
हेरनहार हिरान, ‘रहिमन’ आपुनि आपमें॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : अचरज की यह बात कौन तो कहे और किससे कहे: लो, एक बूँद में सारा ही सागर समा गया! जो खोजने चला था, वह अपने आप में खो गया। (खोजनहारी आत्मा और खोजने की वस्तु परमात्मा। भ्रम का पर्दा उठते ही न खोजनेवाला रहा और न वह, कि जिसे खोजा जाना था। दोनों एक हो गए। अचरज की बात कि आत्मा में परमात्मा समा गया। समा क्या गया, पहले से ही समाया हुआ था।)
‘रहिमन’ बात अगम्य की, कहनि-सुननि की नाहिं।
जे जानत ते कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : जो अगम है उसकी गति कौन जाने? उसकी बात न तो कोई कह सकता है, और न वह सुनी जा सकती है। जिन्होंने अगम को जान लिया, वे उस ज्ञान को बता नहीं सकते, और जो इसका वर्णन करते है, वे असल में उसे जानते ही नहीं।
8:चेतावनी
सदा नगारा कूच का, बाजत आठौं जाम।
‘रहिमन’ या जग आइकै, को करि रहा मुकाम॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : आठों ही पहर नगाड़ा बजा करता है इस दुनिया से कूच कर जाने का। जग में जो भी आया, उसे एक-न-एक दिन कूच करना ही होगा। किसी का मुकाम यहां स्थायी नहीं रह पाया।
सौदा करौ सो कहि चलो, ‘रहिमन’ याही घाट।
फिर सौदा पैहो नहीं, दूरि जात है बाट॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : दुनिया की इस हाट में जो भी कुछ सौदा करना है, वह कर लो,गफलत से काम नहीं बनेगा। रास्ता वह बड़ा ही लम्बा है, जिस पर तुम्हे चलना होगा। इस हाट से जाने के बाद न तो कुछ खरीद सकोगे, और न कुछ बेच सकोगे।
‘रहिमन’ कठिन चितान तै, चिंता को चित चैत।
चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव-समेत॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : चिन्ता यह चिता से भी भंयकर है। सो तू चेत जा। चिता तो मुर्दे को जलाती है, और यह चिन्ता जिन्दा को ही जलाती रहती है।
कागज को सो पूतरा, सहजहिं में घुल जाय।
‘रहिमन’ यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत जाय॥4॥
शब्दार्थ / अर्थ : शरीर यह ऐसा हैं, जैसे कागज का पुतला, जो देखते-देखते घुल जाता है। पर यह अचरज तो देखो कि यह साँस लेता है, और दिन-रात लेता रहता हैं।
तै ‘रहीम’ अब कौन है, एतो खैंचत बाय।
जस कागद को पूतरा, नमी माहिं घुल जाय॥5॥
शब्दार्थ / अर्थ : कागज के बने पुतले के जैसा यह शरीर है। नमी पाते ही यह गल-घुल जाता है। समझ में नहीं आता कि इसके अन्दर जो साँस ले रहा है, वह आखिर कौन है?
‘रहिमन’ ठठरि धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गाँठि जुगति की खुल गई, रही धूरि की धूरि॥6॥
शब्दार्थ / अर्थ : यह शरीर क्या है, मानो धूल से भरी गठरी। गठरी की गाँठ खुल जाने पर सिर्फ धूल ही रह जाती है। खाक का अन्त खाक ही है।
9:लोक-नीति
‘रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे। हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढेंकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।
सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम।
हित अनहित तब जानिये, जा दिन अटके काम॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : आपस में मिलते हैं तो सभी सबसे राम-राम, सलाम और जुहार करते हैं। पर कौन मित्र है और कौन शत्रु, इसका पता तो काम पड़ने पर ही चलता है। तभी, जबकि किसीका कोई काम अटक जाता है।
खीरा को सिर काटिकै, मलियत लौन लगाय।
‘रहिमन’ करुवे मुखन की, चहिए यही सजाय॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : चलन है कि खीरे का ऊपरी सिरा काट कर उस पर नमक मल दिया जाता है। कड़ुवे वचन बोलनेवाले की यही सजा है।
जो ‘रहीम’ ओछो बढ़ै, तो अति ही इतराय।
प्यादे से फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय॥4॥
शब्दार्थ / अर्थ : कोई छोटा या ओछा आदमी, अगर तरक्की कर जाता हैं, तो मारे घमंड के बुरी तरह इतराता फिरता है। देखो न, शतरंज के खेल में प्यादा जब फरजी बन जाता है, तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
‘रहिमन’ नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।
दूध कलारिन हाथ लखि, सब समुझहिं मद ताहि॥5॥
शब्दार्थ / अर्थ : नीच लोगों का साथ करने से भला कौन कलंकित नहीं होता है! कलारिन(शराब बेचने वाली) के हाथ में यदि दूध भी हो, तब भी लोग उसे शराब ही समझते हैं।
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
केहि की प्रभुता नहिं घटी पर-घर गये ‘रहीम’॥6॥
शब्दार्थ / अर्थ : गंगा की कितनी बड़ी महिमा है, पर समुद्र में पैठ जाने पर उसकी महिमा घट जाती है। घट क्या जाती है, उसका नाम भी नहीं रह जाता। सो, दूसरे के घर, स्वार्थ लेकर जाने से, कौन ऐसा है, जिसकी प्रभुता या बड़प्पन न घट गया हो?
खरच बढ्यो उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।
कहु ‘रहीम’ कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥7॥
शब्दार्थ / अर्थ : राजा भी निठुर बन गया, जबकि खर्च बेहद बढ़ गया और उद्यम मे कमी आ गयी। ऐसी दशा में जीना दूभर हो जाता है, जैसे जरा से जल में मछली का जीना।
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
ताको बुरो न मानिये, लेन कहां सूँ जाय॥8॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिसकी जैसी जितनी बुद्धि होती है, वह वैसा ही बन जाता है, या बना-बना कर वैसी ही बात करता है। उसकी बात का इसलिए बुरा नहीं मानना चाहिए। कहां से वह सम्यक बुद्धि लेने जाय?
जिहि अंचल दीपक दुर््यो, हन्यो सो ताही गात।
‘रहिमन’ असमय के परे, मित्र सत्रु ह्वै जात॥9॥
शब्दार्थ / अर्थ : साड़ी के जिस अंचल से दीपक को छिपाकर एक स्त्री पवन से उसकी रक्षा करती है, दीपक उसी अंचल को जला डालता है। बुरे दिन आते हैं, तो मित्र भी शत्रु हो जाता है।
‘रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ॥10॥
शब्दार्थ / अर्थ : आंसू आंखों में ढुलक कर अन्तर की व्यथा प्रकट कर देते हैं। घर से जिसे निकाल बाहर कर दिया, वह घर का भेद दूसरों से क्यों न कह देगा?
‘रहिमन’ अब वे बिरछ कह, जिनकी छाँह गंभीर।
बागन बिच-बिच देखिअत, सेंहुड़ कुंज करीर॥11॥
शब्दार्थ / अर्थ : वे पेड़ आज कहां, जिनकी छाया बड़ी घनी होती थी! अब तो उन बागों में कांटेदार सेंहुड़, कंटीली झाड़ियाँ और करील देखने में आते हैं।
‘रहिमन’ जिव्हा बावरी, कहिगी सरग पताल।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥12॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्या किया जाय इस पगली जीभ का, जो न जाने क्या-क्या उल्टी-सीधी बातें स्वर्ग और पाताल तक की बक जाती है! खुद तो कहकर मुहँ के अन्दर हो जाती है, और बेचारे सिर को जूतियाँ खानी पड़ती है!
‘रहिमन’ तब लगि ठहरिए, दान, मान, सनमान।
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान॥13॥
शब्दार्थ / अर्थ : तभी तक वहां रहा जाय, जब तक दान, मान और सम्मान मिले। जब देखने में आये कि मान-सम्मान घट रहा है, तो तत्काल वहां से चल देना चाहिए।
‘रहिमन’ खोटी आदि को, सो परिनाम लखाय।
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय॥14॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिसका आदि बुरा, उसका अन्त भी बुरा। दीपक आदि में अन्धकार का भक्षण करता है, तो अन्त में वमन भी वह कालिख का ही करता हैं। जैसा आरम्भ, वैसा ही परिणाम।
‘रहिमन’ रहिबो वह भलो, जौं लौं सील समुच।
सील ढील जब देखिए, तुरंत कीजिए कूच ॥15॥
शब्दार्थ / अर्थ : तभी तक कहीं रहना उचित हैं, जब तक की वहाँ शील और सम्मान बना रहे । शील-सम्मान में ढील आने पर उसी वक्त वहाँ से चल देना चाहिए ।
धन थोरो, इज्जत बड़ी, कहि ‘रहीम’ का बात।
जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माहिं समात ॥16॥
शब्दार्थ / अर्थ : पैसा अगर थोडा है, पर इज्जत बड़ी है, तो यह कोइ निन्दनीय बात नहीं । खानदानी घर की स्त्री चिथड़े पहनकर भी अपने मान की रक्षा कर लेती हैं
धनि ‘रहीम’ जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन हैं, जगत पियासो जाय ॥17॥
शब्दार्थ / अर्थ : कीचड़ का भी पानी धन्य हैं,जिसे पीकर छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी तृप्त हो जाते हैं। उस समुन्द्र की क्या बड़ाई, जहां से सारी दुनिया प्यासी ही लौट जाती हैं ?
अनुचित बचत न मानिए, जदपि गुरायसु गाढ़ि ।
हैं ‘रहीम’ रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥18॥
बड़ो की भी ऐसी आज्ञा नहीं माननी चाहिए, जो अनुचित हो। पिता का वचन मानकर राम वन को चले गए । किन्तु भरत ने बड़ो की आज्ञा नहीं मानी, जबकी उनको राज करने को कहा गया था फिर भी राम के यश से भरत का यश महान् माना जाता हैं । (तुलसीदास जी ने बिल्कुल सही कहा हैं कि ‘जग जपु राम, राम जपु जेही’ अर्थात् संसार जहां राम का नाम का जाप करता हैं, वहां राम भरत का नाम सदा जपते रहते हैं ।
अब ‘रहीम’ मुसकिल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम ।
सांचे से तो जग नहीं, झुठे मिलै न राम ॥19॥
शब्दार्थ / अर्थ : बडी मुश्किल में आ पड़े कि ये दोनों ही काम बड़े कठिन हैं । सच्चाई से तो दुनिया दारी हासिल नही होती हैं, लोग रीझते नही हैं, और झूठ से राम की प्राप्ति नहीं होती हैं । तो अब किसे छोडा जाए, और किससे मिला जाए ?
आदर घटै नरेस ढिग बसे रहै कछु नाहीं ।
जो ‘रहीम’ कोटिन मिलै, धिक जीवन जग माहीं ॥20॥
शब्दार्थ / अर्थ : राजा के बहुत समीप जाने से आदर कम हो जाता है। और साथ रहने से कुछ भी मिलने का नही। बिना आदर के करोड़ों का धन मिल जाए, तो संसार में धिक्कार हैं ऐसे जीवन को !
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरै, ‘रहिमन’ पेड़ बबूल॥21॥
शब्दार्थ / अर्थ : बबूल का पेड़ खुद अपने लिए भी किस काम का? न तो डालें हैं, न पत्ते हैं और न फल और फूल ही। दूसरों को भी रोक लेता है, उन्हें आगे नहीं बढ़ने देता।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
‘रहिमन’ मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥22॥
शब्दार्थ / अर्थ : एक ही काम को हाथ में लेकर उसे पूरा कर लो। सबमें अगर हाथ डाला, तो एक भी काम बनने का नहीं। पेड़ की जड़ को यदि तुमने सींच लिया, तो उसके फूलों और फलों को पूर्णतया प्राप्त कर लोगे।
अन्तर दावा लगि रहै, धुआं न प्रगटै सोय।
के जिय जाने आपनो, जा सिर बीती होय॥23॥
शब्दार्थ / अर्थ : आग अन्तर में सुलग रही है, पर उसका धुआं प्रकट नहीं हो रहा है। जिसके सिर पर बीतती है, उसीका जी उस आग को जानता है। कोई दूसरे उस आग का यानी दु:ख का मर्म समझ नहीं सकते।
कदली,सीप,भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥24॥
शब्दार्थ / अर्थ : स्वाती नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसके गुण अलग-अलग तीन तरह के देखे जाते है ! कदली में पड़ने से, कहते है कि, उस बूंद का कपूर बन जाता है ! ओर,अगर सीप में वह पड़ी तो उसका मोती हो जाता है ! साप के मुहँ के में गिरने से उसी बूँद का विष बन जाता है ! जैसी संगत में बैठोगे, वेसा ही परिणाम उसका होगा ! (यह कवियों की मान्यता है, ओर इसे ‘कवि समय’ कहते है !)
कमला थिर न ‘रहिम’ कहि, यह जानत सब कोय !
पुरूष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय ॥25॥
लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती ! मूढ़ जन ही देखते है कि वह उनके घर में स्थिर होकर बेठ गइ है । लक्ष्मी प्रभु की पत्नी है, नारायण की अर्धांगिनी है। उस मूर्ख की फजीहत कैसे नहीं होगी, जो लक्ष्मी को अपनी कहकर या अपनी मानकर चलेगा।
करत निपुनई गुन बिना, ‘रहिमन’ निपुन हजूर।
मानहुं टेरत बिटप चढि, मोहि समान को कूर॥26॥
शब्दार्थ / अर्थ : बिना ही निपुणता और बिना ही किसी गुण के जो व्यक्ति बुद्धिमानों के आगे डींग मारता फिरता है। वह मानो वृक्ष पर चढ़कर घोषणा करता है निरी अपनी मूर्खता की।
कहि ‘रहिम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
बिपति-कसौटी जे कसे, सोई सांचे मीत॥27॥
शब्दार्थ / अर्थ : धन सम्पत्ति यदि हो, तो अनेक लोग सगे-संबंधी बन जाते है। पर सच्चे मित्र तो वे ही है, जो विपत्ति की कसौटी पर कसे जाने पर खरे उतरते है। सोना सच्चा है या खोटा, इसकी परख कसौटी पर घिसने से होती है। इसी प्रकार विपत्ति में जो हर तरह से साथ देता हैं, वही सच्चा मित्र है।
कहु ‘रहीम’ कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥28॥
शब्दार्थ / अर्थ : बेर और केले के साथ-साथ कैसे निभाव हो सकता है ? बेर का पेड़ तो अपनी मौज में डोल रहा है, पर उसके डोलने से केले का एक-एक अंग फटा जा रहा है । दुर्जन की संगती में सज्जन की ऐसी ही गति होती है ।
कहु ‘रहीम’ कैतिक रही, कैतिक गई बिहाय ।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछीताय ॥29॥
शब्दार्थ / अर्थ : आयु अब कितनी रह गयी है, कितनी बीत गई है । अब तो चेत जा । माया में, ममता में और मोह में फँसकर अन्त में फछतावा ही साथ लेकर तू जायगा ।
काह कामरी पामड़ी, जाड़ गए से काज ।
‘रहिमन’ भूख बुताइए, कैस्यो मिले अनाज ॥30॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्या तो कम्बल और क्या मखमल का कपड़ा ! असल में काम का तो वही है, जिससे कि जाड़ा चला जाय । खाने को चाहे जैसा अनाज मिल जाय, उससे भूख बुझनी चाहिए । (तुलसीदासजी ने भी यही बात कही है कि ;- का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच । काम जो आवै कामरी, का लै करै कमाच ॥)
कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों बैर ।
‘रहिमन’ बसि सागर विषे, करत मगर सों बैर ॥31॥
शब्दार्थ / अर्थ : सहजोर के साथ बैर बिसाहने से कमजोर का कैसे निबाह होगा ? सबल दबोच लेगा निर्बल को। समुद्र के किनारे रहकर यह तो मगर से बैर बाँधना हुआ ।
कोउ ‘रहीम’ जहिं काहुके, द्वार गए पछीताय ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै ले जाय ॥32 ॥
शब्दार्थ / अर्थ : किसी के दरवाजे पर जाकर पधताना नहीं चाहिए । धनी के द्वार तो सभी जाते हैं । यह विपत्ति कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती है !
खैर , खुन, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान ।
‘रहिमन’ दाबे ना दबै, जानत सकल जहान ॥35॥
शब्दार्थ / अर्थ : दिनिया जानती है कि ये चीजें दबाने से नहीं दबतीं, छिपाने से नहीं छिपतीं : खैर अर्थात कुशल , खून (हत्या), खाँसी, खुशी बैर, प्रीति और मदिरा-पान ।
[खैर कत्थे को भी कहते हैं, जिसका दाग कपड़े पर साफ दीख जाता है ।]
गरज आपनी आप सों , ‘रहिमन’ कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जात लजाय ॥34 ॥
शब्दार्थ / अर्थ : अपनी गरज की बात किसी से कही नहीं जा सकती । इज्जतदार आदमी ऐसा करते हुए शर्मिन्दा होता है, अपनी गरज को वह मन में ही रखता है । जैसे कि किसी कुलवधू को पराये घर में जाते हुए शर्म आती है ।
छिमा बड़ेन को चाहिए , छोटन को उतपात ।
का ‘रहीम’ हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥35॥
शब्दार्थ / अर्थ : बड़े आदमियों को क्षमा शोभा देती है । भृगु मुनि ने विष्णु को लात मारदी, तो उससे उनका आदर कहाँ कम हुआ ?
जब लगि वित्त न आपुने , तब लगि मित्र न होय ।
‘रहिमन’ अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय ॥36॥
शब्दार्थ / अर्थ : तब तक कोई मित्रता नहीं करता, जबतक कि अपने पास धन न हो । बिना जल के सूर्य भी कमल से अपनी मित्रता तोड़ लेता है ।
जे ‘रहीम’ बिधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढ़ि ॥37॥
शब्दार्थ / अर्थ : विधाता ने जिसे बड़ाई देकर बड़ा बना दिया, उसमें दोष कोई निकाल नहीं सकता । चन्द्रमा सभी नक्षत्रों से अधिक प्रकाश देता है, भले ही वह दुबला और कूबड़ा हो ।
जैसी परै सो सहि रहे , कहि ‘रहीम’ यह देह ।
धरती ही पर परग है , सीत, घाम औ’ मेह ॥38॥
शब्दार्थ / अर्थ : जो कुछ भी इस देह पर आ बीते, वह सब सहन कर लेना चाहिए । जैसे, जाड़ा, धूप और वर्षा पड़ने पर धरती सहज ही सब सह लेती है । सहिष्णुता धरती का स्वाभाविक गुण है ।
जो घर ही में गुसि रहे, कदली सुपत सुडील ।
तो ‘रहीम’ तिनते भले, पथ के अपत करील ॥39॥
शब्दार्थ / अर्थ : केले के सुन्दर पत्ते होते हैं और उसका तना भी वैसा ही सुन्दर होता है । किन्तु वह घर के अन्दर ही शोभित होता है । उससे कहीं अच्छे तो करील हैं , जिनके न तो सुन्दर पत्ते हैं और न जिनका तन ही सुन्दर है, फिर भी करील रास्ते पर होने के कारण पथिकों को अपनी ओर खींच लेता है ।
जो बड़ेन को लघु कहै, नहिं ‘रहीम’ घटि जाहिं ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं ॥40 ॥
शब्दार्थ / अर्थ : बड़े को यदि कोई छोटा कह दे, तो उसका बड़प्पन कम नहीं हो जाता । गिरिधर श्रीकृष्ण मुरलीधर कहने पर कहाँ बुरा मानते हैं ?
जो ‘रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे इजियारो लगे , बढ़े अंधेरो होय ॥41॥
शब्दार्थ / अर्थ : दीपक की तथा कुल में पैदा हुए कुपूत की गति एक-सी है । दीपक जलाया तो उजाला हो गया और बुझा दिया तो अन्धेरा-ही-अंधेरा । कुपूत बचपन में तो फ-यारा लगता है और बड़ा होने पर बुरी करतूतों से अपने कुल की कीर्ति को नष्ट कर देता है ।
जो ‘रहीम’ मन हाथ है, तो तन कहुँ किन जाहि ।
जल में जो छाया परे ,काया भीजति नाहिं ॥42॥
शब्दार्थ / अर्थ : मन यदि अपने हाथ में है, अपने काबू में है, तो तन कहीं भी चला जाय, कुछ बिगड़ने का नहीं । जैसे काया भीगती नहीं है, जल में उसकी छाया पड़ने पर । [जीत और हार का कारण मन ही है, तन नहीं : ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार ‘।]
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खात ॥43॥
शब्दार्थ / अर्थ : संतजन जिन विषय-वासनाओं का त्याग कर देते हैं, उन्हीं को पाने के लिए मूढ़ जन लालायित रहते हैं । जासे वमन किया हुआ अन्न कुत्ता बड़े स्वाद से खाताहै ।
तबही लौं जीवो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित होय ‘रहीम’ ॥44॥
शब्दार्थ / अर्थ : जीना तभी तक अच्छा है, जबतक कि दान देना कम न हो संसार में दान-रहित जीवन कुत्सित है । उसे सफल कैसे कहा जा सकता है ?
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान ।
कहि ‘रहीम’ परकाज हित, संपति सँचहिं सुजान ॥45॥
शब्दार्थ / अर्थ : वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और तालाब अपना पानी स्वयं नहीं पीते । दूसरों के हितार्थ ही सज्जन सम्पत्ति का संचय करते हैं । उनकी विभूति परोपकार के लिए ही होती है ।
थोथे बादर क्वार के, ज्यों ‘रहीम’ घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भये, करैं पाछिली बात ॥46॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्वार मास में पानी से खाली बादल जिस प्रकार गरजते हैं, उसी प्रकार धनी मनुष्य जब निर्धन हो जाता है, तो अपनी बातों का बारबार बखान करता है ।
थोरी किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ।
ज्यों ‘रहीम’ हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ॥47॥
शब्दार्थ / अर्थ : अगर बड़ा आदमी थोड़ा सा भी काम कुछ कर दे, तो उसकी बड़ी प्रशंसा की जाती है । हनुमान इतना बड़ा द्रोणाचल उठाकर लंका ले आये, तो भी उनकी कोई ‘गिरिधर’ नहीं कहता । (छोटा-सा गोवर्धन पहाड़ उठा लिया, तो कृष्ण को सभी गिरिधर कहने लगे ।)
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखे न कोय ।
जो ‘रहीम’ दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय ॥48॥
शब्दार्थ / अर्थ : गरीब की दृष्टि सब पर पड़ती है, पर गरीब को कोई नहीं देखता । जो गरीब को प्रेम से देखता है, उसकी मदद करता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान हो जाता है ।
दोनों ‘रहिमन’ एक से, जौ लों बोलत नाहिं ।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं ॥49॥
शब्दार्थ / अर्थ : रूप दोनों का एक सा ही है, धोखा खा जाते हैं पहचानने में कि कौन तो कौआ है और कौन कोयल । दोनों की पहचान करा देती है, वसन्त ऋतु, जबकि कोयल की कूक सुनने में मीठी लगती है और कौवे का काँव-काँव कानों को फाड़ देता है । (रूप एक-सा सुन्दर हुआ, तो क्या हुआ ! दुर्जन और सज्जन की पहचान कडुवी और मीठी वाणी स्वयं करा देती है ।)
धूर धरत नित सीस पै, कहु ‘रहीम’ केहि काज ।
जेहि रज मुनि-पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज ॥50॥
शब्दार्थ / अर्थ : हाथी नित्य क्यों अपने सिरपर धूल को उछाल-उछालकर रखता है ? जरा पूछो तो उससे उत्तर है:- जिस (श्रीराम के चरणों की) धूल से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गयी थी, उसे ही गजराज ढूंढता है कि वह कभी तो मिलेगी ।
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत ।
ते ‘रहीम’ पसु से अधिक, रीझेहु कछू न देत ॥51॥
शब्दार्थ / अर्थ : गान के स्वर पर षीझ कर मृग अपना शरीर शिकारी को सौंप देता है । और मनुष्य धन-दौलत पर प्राण गंवा देता है । परन्तु वे लोग पशु से भी गये बीते हैं, जो रीझ जाने पर भी कुछ नहीं देते । (सूम का यशोगान कितना सटीक हुआ है इस दोहे में !)
निज कर क्रिया ‘रहीम’ कहि, सिधि भावी के हाथ ।
पाँसा अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ ॥52॥
शब्दार्थ / अर्थ : कर्म करना तो अपने हाथ में है, पर उसकी सफलता दैव के हाथ में है । देख लो न चौपड़ के खेल में– पांसा अपने हाथ में है, पर दाँव अपने हाथ में नहीं ।
पन्नगबेलि पतिव्रता , रिति सम सुनो सुजान ।
हिम ‘रहीम’ बेली दही, सत जोजन दहियान ॥53॥
शब्दार्थ / अर्थ : सज्जनो, ध्यान देकर सुनो । पान की बेल पतिव्रता की भाँति है; प्रेम करने और उसे निभाने में दोनों ही समान हैं । पान की बेल पाला पड़ने से जल जाती है और पतिव्रता पति के विरह में जलती रहती है ।
पावस देखि ‘रहीम’ मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन ॥54॥
शब्दार्थ / अर्थ : वर्षा ऋतु आने पर कोयल ने मौनव्रत ले लिया, यह सोचकर कि अब हमें कौन पूछेगा ? अब तो मेंढ़क ही बोलेंगे, उन्हीं वक्ताओं के भाषण होंगे अब ।
बड़ माया को दोष यह , जो कबहूं घटि जाय ।
तो ‘रहीम’ मरोबो भलो, दुख सहि जियै बलाय ॥55॥
शब्दार्थ / अर्थ : धन सम्पत्ति का बहुत बड़ा दोष यह है :- यदि वह कभी घट जाय, तो उस दशा में मर जाना ही अच्छा है । दुःख झेल-झेलकर कौन जिये ?
बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु ‘रहीम’ पहिचानि ॥56॥
शब्दार्थ / अर्थ : बड़े लोग जब किसी गरीब का दुखड़ा सुनते हैं, तो उनके हृदय में दया उमड़ आती है । भगवान की कब जान पहचान थी (ग्राह से ग्रस्त) गजेन्द्र के साथ ?
बड़े बड़ाई ना करैं , बड़ो न बोले बोल ।
‘रहिमन’ हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल ॥57॥
शब्दार्थ / अर्थ : जो सचमुच बड़े होते हैं, वे अपनी बड़ाई नहीं किया करते, बड़े-बड़े बोल नहीं बोला करते । हीरा कब कहता है कि मेरा मोल लाख टके का है । [छोटे छिछोरे आदमी ही बातें बना-बनाकर अपनी तारीफ के पुल बाँधा करते हैं ।]
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय ।
‘रहिमन’ फाटे दूध को, मथै न माखन होय ॥58॥
शब्दार्थ / अर्थ : लाख उपाय क्यों न करो, बिगड़ी हुई बात बनने की नहीं । जो दूध फट गया, उसे कितना ही मथो, उसमें से मक्खन निकलने का नहीं ।
भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन ।
भजन तजन से बिलग है, तेहि ‘रहीम’ तू जान ॥59॥
शब्दार्थ / अर्थ : भजूँ तो मैं किसे भजूं ? और तजूं तो कहो किसे तजूँ ? तू तो उस परमतत्व का ज्ञान प्राप्त कर, जो भजन अर्थात राग-अनुराग एवं त्याग से, इन दोनों से बिल्कुल अलग है, सर्वथा निर्लिप्त है ।
भार झोंकि कै भार में, ‘रहिमन’ उतरे पार ।
पै बूड़े मँझधार में , जिनके सिर पर भार ॥60॥
शब्दार्थ / अर्थ : अहम् को यानी खुदी के भार को भाड़ में झोंककर हम तो पार उतर गये । बीच धार में तो वे ही डूबे, जिनके सिर पर अहंकार का भार रखा हुआ था, या जिन्होंने स्वयं भार रख लिया था
भावी काहू ना दही, भावी-दह भगवान् ।
भावी ऐसी प्रबल है, कहि ‘रहीम’ यह जान ॥61॥
शब्दार्थ / अर्थ : भावी अर्थात् प्रारब्ध को कोई नहीं जला सका, उसे जला देने वाला तो भगवान् ही है । समझ ले तू कि भावी कितनी प्रवल है । भगवान् यदि बीच में न पड़ें तो होनहार होकर ही रहेगी ।
भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप ।
‘रहिमन’ गिरि ते भूमि लौं, लखौ एकै रूप ॥62॥
शब्दार्थ / अर्थ : राजा की दृष्टि में गुणी छोटे हैं, और गुणी राजा को छोटा मानते हैं । पहाड़ पर चढ़ कर देखो तो न तो कोई बड़ा है, न कोई छोटा, सब समान ही दिखाई देंगे ।
माँगे घटत ‘रहीम’ पद , किती करो बढ़ि काम ।
तीन पैड़ बसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥63॥
शब्दार्थ / अर्थ : कितना ही महत्व का काम करो, यदि किसी के आगे हाथ फैलाया, तो ऊँचे-ऊँचे पद स्वतः छोटा हो जायेगा । विष्णु ने बड़े कौशल से राजा बलि के आगे सारी पृथ्वी को मापकर तीन पग बताया, फिर भी उनका नाम ‘बामन ही रहा ।(वामन से बन गया बावन अर्थात् बौना ।)
माँगे मुकरि न को गयो , केहि न त्यागियो साथ ।
माँगत आगे सुख लह्यो, तै ‘रहीम’ रघुनाथ ॥64॥
शब्दार्थ / अर्थ : माँगने पर कौन नहीं हट जाता ? और, ऐसा कौन है, जो याचक का साथ नहीं छोड़ देता ? पर श्रीरघुनाथजी ही ऐसै हैं, जो माँगने से भी पहले सब कुछ दे देते हैं, याचक अयाचक हो जाता है । (श्रीराम के द्वारा विभीषण को लंका का राज्य दे डालने से यही आशय है, जबकि विभीषण ने कुछ भी माँगा नहीं था ।)
मूढ़मंडली में सुजन , ठहरत नहीं बिसेखि ।
स्याम कचन में सेत ज्यो, दूरि कीजियत देखि ॥65॥
शब्दार्थ / अर्थ : मूर्खों की मंडली में बुद्धिमान कुछ अधिक नहीं ठहरा करते । काले बालों में से जैसे सफेद बाल देखते ही दूर कर दिया जाता है ।
यद्यपि अवनि अनेक हैं , कूपवंत सरि ताल ।
‘रहिमन’ मानसरोवरहिं, मनसा करत मराल ॥66॥
शब्दार्थ / अर्थ : यों तो पृथ्वी पर न जाने कितने कुएँ, कितनी नदियाँ और कितने तालाब हैं, किन्तु हंस का मन तो मानसरोवर का ही ध्यान किया करता है ।
यह ‘रहीम’ निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर, प्रीति, अभ्यास, जस होत होत ही होय ॥67॥
शब्दार्थ / अर्थ : बैर, प्रीति, अभ्यास और यश इनके साथ संसार में कोई भी जन्म नहीं लेता । ये सारी चीजें तो धीरे-धीरे ही आती हैं ।
यह ‘रहीम’ माने नहीं , दिल से नवा न होय ।
चीता, चोर, कमान के, नवे ते अवगुन होय ॥68॥
शब्दार्थ / अर्थ : चीते का, चोर का और कमान का झुकना अनर्थ से खाली नहीं होता है । मन नहीं कहता कि इनका झुकना सच्चा होता है । चीता हमला करने के लिए झुककर कूदता है । चोर मीठा वचन बोलता है, तो विश्वासघात करने के लिए । कमान (धनुष) झुकने पर ही तीर चलाती है ।
यों ‘रहीम’ सुख दुख सहत , बड़े लोग सह सांति ।
उवत चंद जेहिं भाँति सों , अथवत ताही भाँति ॥69॥
शब्दार्थ / अर्थ : बड़े आदमी शान्तिपूर्वक सुख और दुःख को सह लेते हैं । वे न सुख पाकर फूल जाते हैं और न दुःख में घबराते हैं । चन्द्रमा जिस प्रकार उदित होता है, उसी प्रकार डूब भी जाता है ।
रन,बन व्याधि, बिपत्ति में, ‘रहिमन’ मरै न रोय ।
जो रक्षक जननी-जठर, सो हरि गए कि सोय ॥70॥
शब्दार्थ / अर्थ : रणभूमि हो या वन अथवा कोई बीमारी हो या विपदा हो, इन सबके मारे रो-रोकर मरना नहीं चाहिए । जिस प्रभु ने माँ के गर्भ में रक्षा की, वह क्या सो गया है ?
‘रहिमन’ आटा के लगे, बाजत है दिन-राति ।
घिउ शक्कर जे खात हैं , तिनकी कहा बिसाति ॥71॥
शब्दार्थ / अर्थ : मृदंग को ही देखो । जरा-सा आटा मुँह पर लगा दिया, तो वह दिन रात बजा करता है, मौज में मस्त होकर खूब बोलता है । फिर उनकी बात क्या पूछते हो, जो रोज घी शक्कर खाया करते हैं !
‘रहिमन’ ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति ।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत ॥72॥
शब्दार्थ / अर्थ : ओछे आदमी के साथ न तो बैर करना अच्छा है, और न प्रेम । कुत्ते से बैर किया, तो काट लेगा, और प्यार किया तो चाटने लगेगा ।
‘रहिमन’ कहत सु पेट सों, क्यों न भयो तू पीठ ।
रीते अनरीते करै, भरे बिगारत दीठ ॥73॥
शब्दार्थ / अर्थ : पेट से बार-बार कहता हूँ कि तू पीठ क्यों नहीं हुआ ? अगर तू खाली रहता है, भूखा रहता है तो अनीति के काम करता है । और, अगर तू भर गया, तो तेरे कारण नजर बिगड़ जाती है, बदमाशी करने को मन हो आता है । इसलिए तुझसे तो पीठ कहीं अच्छी है ।
‘रहिमन’ कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत द्वै टूक ।
चतुरन के कसकत रहै, समय चूक की हूक ॥74॥
शब्दार्थ / अर्थ : यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति समय चूक गया, तो उसका पछतावा हमेशा कष्ट देता रहता है । कठोर कुठार बनकर उसकी कसक कलेजे के दो टुकड़े कर देती है ।
‘रहिमन’ चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर ॥75॥
शब्दार्थ / अर्थ : यह देखकर कि बुरे दिन आगये, चुप बैठ जाना चाहिए । दुर्भाग्य की शिकायत क्यों और किस से की जाय ? जब अच्छे दिन फिरेंगे, तो बनने में देर नहीं लगेगी । इस विश्वास का सहारा लेकर तुम चुपचाप बैठे रहो ।
‘रहिमन’ छोटे नरन सों, होत बड़ो नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बनै, सौ चूहों के चाम ॥76॥
शब्दार्थ / अर्थ : छोटे आदमियों से कोई बड़ा काम नहीं बना करता, सौ चूहों के चमड़े से भी जैसे नगाड़ा नहीं मढ़ा जा सकता ।
‘रहिमन’ जग जीवन बड़े काहु न देखे नैन ।
जाय दशानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥77॥
शब्दार्थ / अर्थ : दुनिया में किसी को अपने जीते-जी बड़ाई नहीं मिली । रावण के रहते हुए बन्दरों ने लंका को लूट लिया । उसकी आँखों के सामने ही उसका सर्वस्व नष्ट हो गया ।
‘रहिमन’ जो तुम कहत हो, संगति ही गुन होय ।
बीच उखारी रसभरा, रस काहे ना होय ॥78॥
शब्दार्थ / अर्थ : तुम जो यह कहते हो कि सत्संग से सद्गुण प्राप्त होते हैं । तो ईख के खेत में ईख के साथ-साथ उगने वाले रसभरा नामक पौधे से रस क्यों नहीं निकलता ?
‘रहिमन’ जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाव ।
जो बासर को निसि कहै, तौ कचपची दिखाव ॥79॥
शब्दार्थ / अर्थ : अगर मालिक के साथ रहना चाहते हो तो, हमेशा उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते रहो । अगर वह कहे कि यह दिन नहीं , यह तो रात है, तो तुम आसमान में तारे दिखाओ । (अगर रहना है, तो खिलाफ में कुछ मत कहो, और अगर साफ-साफ कह देना है, तो वहाँ से फौरन चले जाओ ‘रहना तो कहना नहीं, कहना तो रहना नहीं ।)
‘रहिमन’ तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर-बस परे, परोस-बस, परे मामिला जानि ॥80॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्या तो हित है और क्या अनहित, इसकी पहचान तीन प्रकार से होती है : दूसरे के बस में होने से, पड़ोस में रहने से और मामला मुकदमा पड़ने पर ।
‘रहिमन’ दानि दरिद्रतर , तऊ जाँचिबे जोग ।
ज्यों सरितन सूखा परे, कुँआ खदावत लोग ॥18॥
शब्दार्थ / अर्थ : दानी अत्यन्त दरिद्र भी हो जाय, तो भी उससे याचना की जा सकती है । नदियाँ अब सूख जाती हैं तो उनके तल में ही लोग कुएँ खुदवाते हैं ।
‘रहिमन’ देखि बड़ेन को , लघु न दीजिए डारि ।
जहाँ काम आवै सुई , कहा करै तरवारि ॥82॥
शब्दार्थ / अर्थ : बड़ी चीज को देखकर छोटी चीज को फेंक नहीं देना चाहिए । सुई जहाँ काम आती है, वहाँ तलवार क्या काम देगी ? मतलब यह कि सभी का स्थान अपना-अपना होता है ।
‘रहिमन’ निज मन की बिथा, मनही राखो गोय ।
सुनि अठिलैहैं लोग सब , बाँटि न लैहैं कोय ॥83॥
शब्दार्थ / अर्थ : अन्दर के दुःख को अन्दर ही छिपाकर रख लेना चाहिए, उसे सुनकर लोग उल्टे हँसी करेंगे कोई भी दुःख को बाँट नहीं लेगा ।
‘रहिमन’ निज सम्पति बिना, कोउ न विपति-सहाय ।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय ॥84॥
शब्दार्थ / अर्थ : काम अपनी ही सम्पत्ति आती है, कोई दूसरा विपत्ति में सहायक नहीं होता है । पानी न रहने पर कमल को सूखने से सूर्य बचा नहीं सकता ।
‘रहिमन’ पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरै , मोती, मानुष, चून ॥85॥
शब्दार्थ / अर्थ : अपनी आबरू रखनी चाहिए , बिना आबरू के सब कुछ बेकार है । बिना आब का मोती बेकार, और बिना आबरू का आदमी कौड़ी काम का भी नहीं, और इसी प्रकार चूने में से पानी यदि जल गया, तो वह बेकार ही है ।
‘रहिमन’ प्रीति न कीजिए , जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन ॥86॥
शब्दार्थ / अर्थ : ऐसे आदमी से प्रेम न जोड़ा जाय, जो ऊपर से तो मालूम दे कि वह दिल से मिला हुआ है, लेकिन अंदर जिसके कपट भरा हो । खीरे को ही देखो, ऊपर से तो साफ -सपाट दीखता है, पर अंदर उसके तीन-तीन फाँके हैं ।
‘रहिमन’ बहु भेषज करत , व्याधि न छाँड़त साथ ।
खग, मृग बसत अरोग बन , हरि अनाथ के नाथ ॥87॥
शब्दार्थ / अर्थ : कितने ही इलाज किये, कितनी ही दवाइयाँ लीं, फिर भी रोग ने पिंड नहीं छोड़ा । पक्षी और हिरण आदि पशु जंगल में सदा नीरोग रहते हैं भगवान् के भरोसे, क्योंकि वह अनाथों का नाथ है ।
‘रहिमन’ भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोऊ मरि जात ॥88॥
शब्दार्थ / अर्थ : औषधियों के बल पर यदि काल को लकहीं जीत लिया गया होता तो, दुनिया के बड़े-बड़े समर्थ और शक्तिशाली मौत के पंजे से साफ बच जाते ।
‘रहिमन’ मनहिं लगाईके, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥89॥
शब्दार्थ / अर्थ : मन को स्थिर करके कोई क्यों नहीं देख लेता, इस परम सत्य को कि, मनुष्य को वश में कर लेना तो बात ही क्या, नारायण भी वश में हो जाते हैं ।
‘रहिमन’ मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव ।
जो डिगहै तो फिर कहूँ, नहिं धरने को पाँव ॥90॥
शब्दार्थ / अर्थ : हाँ, यह मार्ग प्रेम का मार्ग है । कोई नासमझ इस पर पैर न रखे । यदि डगमगा गये तो, फिर कहीं पैर धरने की जगह नहीं । मतलब यह कि बहुत समझ-बूझकर और धीरज और दृढ़ता के साथ प्रेम के मार्ग पर पैर रखना चाहिए ।
‘रहिमन’ यह तन सूप है, लीजे जगत पछोर ।
हलुकन को उड़ि जान दे, गरुए राखि बटोर ॥91 ॥
शब्दार्थ / अर्थ : तेरा यह शरीर क्या है, मानो एक सूप है । इससे दुनिया को पछोर लेना, यानी फटक लेना चाहिए जो सारहीन हो, उसे उड़ जाने दो, और जो भारी अर्थात् सारमय हो, उसे तू रख ले । (हलके से आशय है कुसंग से और गरुवे यानी भारी से आशय है सत्संग से, वह त्यागने योग्य है, और यह ग्रहण करने योग्य ।)
‘रहिमन’ राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय ।
कहा बापुरो भानु है, तप्यो तरैयन खोय ॥92॥
शब्दार्थ / अर्थ : ऐसे ही राज्य की सराहना करनी चाहिए, जो चन्द्रमा के समान सभी को सुख देनेवाला हो । वह राज्य किस काम का, जो सूर्य के समान होता है, जिसमें एक भी तारा देखने में नहीं आता । वह अकेला ही अपने-आप तपता रहता है । [तारों से आशय प्रजाजनों से है, जो राजा के आतंक के मारे उसके सामने जाने की हिम्मत नहीं कर सकते, मुंह खोलने की बात तो दूर !}
‘रहिमन’ रिस को छाँड़ि के, करौ गरीबी भेस ।
मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारी देस ॥93 ॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्रोध को छोड़ दो और गरीबों की रहनी रहो । मीठे वचन बोलो और नम्रता से चलो, अकड़कर नहीं । फिर तो सारा ही देश तुम्हारा है ।
‘रहिमन’ लाख भली करो, अगुनी न जाय ।
राग, सुनत पय पिअतहू, साँप सहज धरि खाय ॥94॥
शब्दार्थ / अर्थ : लाख नेकी करो, पर दुष्ट की दुष्टता जाने की नहीं । सांप को बीन पर राग सुनाओ, और दूध भी पिलाओ, फिर भी वह दौड़कर तुम्हें काट लेगा । स्वभाव ही ऐसा है । स्वभाव का इलाज क्या ?
‘रहिमन’ विद्या, बुद्धि नहिं, नहीं धरम,जस, दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूँछ-विषान ॥95॥
शब्दार्थ / अर्थ : न तो पास में विद्या है, न बुद्धि है, न धर्म-कर्म है और न यश है और न दान भी किसी को दिया है । ऐसे मनुष्य का पृथ्वी पर जन्म लेना वृथा ही है । वह पशु ही है बिना पूँछ और बिना सींगो का ।
‘रहिमन’ विपदाहू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय ॥96॥
शब्दार्थ / अर्थ : तब तो विपत्ति ही अच्छी, जो थोड़े दिनों की होती है । संसार में विपदा के दिनों में पहचान हो जाती है कौन तो हित करने वाला है और कौन अहित करने वाला ।
‘रहिमन’ वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं ।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।97॥
शब्दार्थ / अर्थ : जो मनुष्य किसी के सामने हाथ फैलाने जाते हैं, वे मृतक के समान हैं । और वे लोग तो पहले से ही मृतक हैं, मरे हुए हैं, जो माँगने पर भी साफ इन्कार कर देते हैं ।
‘रहिमन’ सुधि सबसे भली, लगै जो बारंबार ।
बिछुरे मानुष फिर मिलैं, यहै जान अवतार ॥98॥
शब्दार्थ / अर्थ : याद कितनी अच्छी होती है, जो बार-बार आती है । बिछूड़े हुए मनुष्यों की याद ही तो प्रभु को वसुधा पर उतारने को विवश कर देती है, भगवान् के अवतार लेने का यही कारण है , यही रहस्य है ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन-साथ ।
जो ‘रहीम’ भावी कतहुँ, होत आपने हाथ ॥99॥
शब्दार्थ / अर्थ : होनहार यदि अपने हाथ में होती, उस पर अपना वश चलता, तो माया-मृग के पीछे राम क्यों दौड़ते, और रावण क्यों सीता को हर ले जाता !
रूप कथा, पद, चारुपट, कंचन, दोहा, लाल ।
ज्यों-ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल ‘रहीम’ बिसाल ॥100॥
शब्दार्थ / अर्थ : रूप और कथा और कविता तथा सुन्दर वस्त्र एवं स्वर्ण और दोहा तथा रतन, इन सबका असली मोल तो तभी आँका जा सकता है, जबकि अधिक-से-अधिक सूक्षमता के साथ इनको देखा परखा जाय
बरु ‘रहीम’ कानन भलो, वास करिय फल भोग ।
बंधु मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग ॥101॥
शब्दार्थ / अर्थ : निर्धन हो जाने पर बन्धु-बान्धवों के बीच रहना उचित नहीं । इससे तो वन में जाकर वस जाना और वहाँ के फलों पर गुजर करना कहीं अच्छा है ।
वे ‘रहीम’ नर धन्य हैं , पर उपकारी अंग ।
बाँटनवारे को लगै, ज्यों मेंहदी को रंग ॥102॥
शब्दार्थ / अर्थ : धन्य है वे लोग, जिनके अंग-अंग में परोपकार समा गया है ! मेंहदी पीसने वाले के हाथ अपने-आप रच जाते हैं, लाल हो जाते हैं ।
सबै कहावैं लसकरी, सब लसकर कहं जाय ।
‘रहिमन’ सेल्ह जोई सहै, सोई जगीरे खाय ॥103॥
शब्दार्थ / अर्थ : सैनिक कहलाने में सभी को खुशी होती है, सभी सेना में भरती होना चाहते हैं, पर जीत और जागीर तो उसी को मिलती है, जो भाले के वार (फूलों की तरह ) सहर्ष अपने ऊपर झेल लेता है ।
समय दशा कुल देखि कै, सबै करत सनमान ।
‘रहिमन’ दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥104॥
शब्दार्थ / अर्थ : सुख के दिन देखकर अच्छी स्थिति और ऊँचा खानदान देखकर सभी आदर-सत्कार करते हैं । किन्तु जो दीन हैं, दुखी हैं और सब तरह से अनाथ हैं, उन्हें अपना लेनेवाला भगवान के सिवाय दूसरा और कौन हो सकता है !
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
सदा रहै नहिं एक सी, का ‘रहीम’ पछितात ।105॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्यों दुखी होते हो और क्यों पछता रहे हो, भाई ! समय आता है, तब वृक्ष फलों से लद जाते हैं, और फिर ऐसा समय आता है, जब उसके सारे फूल और फल झड़ जाते हैं । समय की गति को न जानने-पहचाननेवाला ही दुखी होता है ।
समय-लाभ सम लाभ नहिं , समय-चूक सम चूक ।
चतुरन चित ‘रहिमन’ लगी , समय चूक की हूक ॥106॥
शब्दार्थ / अर्थ : समय पर अगर कुछ बना लिया, तो उससे बड़ा और कौन-सा लाभ है ? और समय पर चूक गये तो चूक ही हाथ लगती है । बुद्धिमानों के मन में समय की चूक सदा कसकती रहती है ।
सर सूखे पंछी उड़े, और सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु ‘रहीम’ कहँ जाहिं ॥107॥
शब्दार्थ / अर्थ : सरोवर सूख गया, और पक्षी वहाँ से उड़कर दूसरे सरोवर पर जा बसे । पर बिना पंखों की मछलियाँ उसे छोड़ और कहाँ जायें ? उनका जन्म-स्थान और मरण-स्थान तो वह सरोवर ही है ।
स्वासह तुरिय जो उच्चरे, तिय है निहचल चित्त ।
पूरा परा घर जानिए, ‘रहिमन’ तीन पवित्त ॥108॥
शब्दार्थ / अर्थ : ये तीनों परम पवित्र हैं :- वह स्वास, जिसे खींचकर योगी त्वरीया अवस्था का अनुभव करता है, वह स्त्री, जिसका चित्त पतिव्रत में निश्चल हो गया है, पर पुरुष को देखकर जिसका मन चंचल नहीं होता । और सुपुत्र,[जो अपने चरित्र से कुल का दीपक बन जाता है।]
साधु सराहै साधुता, जती जोगिता जान ।
‘रहिमन’ साँचे सूर को, बैरी करै बखान ॥109॥
शब्दार्थ / अर्थ : साधु सराहना करते हैं साधुता की, और योगी सराहते हैं योग की सर्वोच्च अवस्था को । और सच्चे शूरवीर के पराक्रम की सराहना उसके शत्रु भी किया करते हैं ।
संतत संपति जान के , सब को सब कछु देत ।
दीनबंधु बिनु दीन की, को ‘रहीम’ सुधि लेत ॥110॥
शब्दार्थ / अर्थ : यह मानकर कि सम्पत्ति सदा रहनेवाली है धनी लोग सबको जो माँगने आते हैं, सब कुछ देते हैं । किन्तु दीन-हीन की सुधि दीनबन्धु भगवान् को छोड़ और कोई नहीं लेता ।
संपति भरम गँवाइके , हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों ‘रहीम’ ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं ॥111॥
शब्दार्थ / अर्थ : बुरे व्यसन में पड़कर जब कोई अपना धन खो देता है , तब उसकी वही दशा हो जाती है, जैसी दिन में चन्द्रमा की । अपनी सारी कीर्ति से वह हाथ धो बैठता है, क्यों कि उसके हाथ में तब कुछ भी नहीं रह जाता है ।
ससि संकोच, साहस, सलिल, मान, सनेह ‘रहीम’ ।
बढ़त-बढ़त बढ़ि जात है, घटत-घटत घटि सोम ॥112॥
शब्दार्थ / अर्थ : चन्द्रमा, संकोच, साहस, जल, सम्मान और स्नेह, ये सब ऐसे है, जो बढ़ते-बढ़ते बढ़ जाते हैं, और घटते-घटते घटने की सीमा को छू लेते हैं ।
सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक ।
‘रहिमन’ तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥113॥
शब्दार्थ / अर्थ : सूर्य शीत को भगा देता है, अन्धकार का नाश कर देना है और सारे संसार को प्रकाश से भर देता है । पर सूर्य का क्या दोष, यदि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता !
हित ‘रहीम’ इतऊ करै, जाकी जहाँ बसात ।
नहिं यह रहै, न वह रहै ,रहे कहन को बात ॥114॥
शब्दार्थ / अर्थ : जिसकी जहाँ तक शक्ति है, उसके अनुसार वह भलाई करता है । किसने किसके साथ कितना किया, उनमें से कोई नहीं रहता । कहने को केवल बात रह जाती है ।
होय न जाकी छाँह ढिग, फल ‘रहीम’ अति दूर ।
बाढेहु सो बिनु काजही , जैसे तार खजूर ॥115॥
शब्दार्थ / अर्थ : क्या हुआ, जो बहुत बड़े हो गए । बेकार है ऐसा बड़ जाना, बड़ा हो जाना ताड़ और खजूर की तरह । छाँह जिसकी पास नहीं, और फल भी जिसके बहुत-बहुत दूर हैं ।
ओछे को सतसंग, ‘रहिमन’ तजहु अंगार ज्यों ।
तातो जारै अंग , सीरे पै कारो लगे ॥116॥
शब्दार्थ / अर्थ : नीच का साथ छोड़ दो, जो अंगार के समान है । जलता हुआ अंगार अंग को जला देता है, और ठंडा हो जाने पर कालिख लगा देता है ।
‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।
जिनके अनगिनत मीत, समैं गरीबन को गनै ॥117॥
शब्दार्थ / अर्थ : मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं । उसके अनगिनत चाहक हैं , हम गरीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या !
‘रहिमन’ मोहिं न सुहाय, अमी पआवै मान बनु ।
बरु वष देय बुलाय, मान-सहत मरबो भलो ॥118॥
शब्दार्थ / अर्थ : वह अमृत भी मुझे अच्छा नहीं लगता, जो बिना मान-सम्मान के पिलाया जाय । प्रेम से बुलाकर चाहे विष भी कोई दे दे, तो अच्छा, मान के साथ मरण कहीं अधिक अच्छा है ।
10: निज बीती
चित्रकूट में रमि रहे, ‘रहिमन’ अवध-नरेस ।
जा पर बिपदा परत है , सो आवत यहि देस ॥1॥
शब्दार्थ / अर्थ : अयोध्या के महाराज राम अपनी राजधानी छोड़कर चित्रकूट में जाकर बस गये, इस अंचल में वही आता है, जो किसी विपदा का मारा होता है ।
ए ‘रहीम, दर-दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं ।
यारो यारी छाँड़िदो, वे ‘रहीम’ अब नाहिं ॥2॥
शब्दार्थ / अर्थ : रहींम आज द्वार-द्वार पर मधुकरी माँगता गुजर कर रहा है । वे दिन लद गये, तब का वह रहीम नहीं रहा । दोस्तो छोड़ दो दोस्ती, जो इसके साथ तुमने की थी ।
देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥3॥
शब्दार्थ / अर्थ : हम कहाँ किसी को कुछ देते हैं । देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है इन हाथों से दिलाने के लिए । लोगों को व्यर्थ ही भरम हो गया है कि रहीम दान देता है । मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगनेवाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो ।
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वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
यह प्रसिद्ध् हिंदी नाटक भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखा गया है ।
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
प्रहसन
नांदी
दोहा - बहु बकरा बलि हित कटैं, जाके। बिना प्रमान।
सो हरि की माया करै, सब जग को कल्यान ।।
सूत्रधार और नटी आती हैं,
सूत्रधार : अहा हा! आज की संध्या की कैसी शोभा है। सब दिशा ऐसा लाल हो रही है, मानो किसी ने बलिदान किया है और पशु के रक्त से पृथ्वी लाल हो गई है।
नटी : कहिए आज भी कोई लीला कीजिएगा?
सूत्रधार : बलिहारी! अच्छी याद दिखाई, हाँ जो लोग मांसलीला करते हैं उनकी लीला करैंगे।
नेपथ्य में, अरे शैलूषाधम! तू मेरी लीला क्या करैगा। चल भाग जा, नहीं तो तुझे भी खा जायेंगे।
दोनो संभय, अरे हमारी बात गृध्रराज ने सुन ली, अब भागना चाहिए नहीं तो बड़ा अनर्थ करैगा।
दोनो जाते हैं,
इति प्रस्तावना
प्रथम अंक
स्थान रक्त से रंगा हुआ राजभवन
नेपथ्य में, बढ़े जाइयो! कोटिन लवा बटेर के नाशक, वेद धर्म प्रकाशक, मंत्र से शुद्ध करके बकरा खाने वाले, दूसरे के माँस से अपना माँस बढ़ाने वाले, सहित सकल समाज श्री गृध्रराज महाराजाधिराज!
गृध्रराज, चोबदार, पुरोहित और मंत्री आते हैं,
राजा : बैठकर, आज की मछली कैसी स्वादिष्ट बनी थी।
पुरोहित : सत्य है। मानो अमृत में डुबोई थी और ऐसा कहा भी है-
केचित् बदन्त्यमृतमस्ति सुरालयेषु केचित् वदन्ति वनिताधरपल्लवेषु। ब्रूमो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षाः जंबीरनीरपरिपूरितमत्स्यखण्डे ।।
राजा : क्या तुम ब्राह्मण होकर ऐसा कहते हो? ऐं तुम साक्षात् ऋषि के वंश में होकर ऐसा कहते हो!
पुरोहित : हाँ हाँ! हम कहते हैं और वेद, शास्त्र, पुराण, तंत्र सब कहते हैं। ”जीवो जीवस्य जीवनम्“
राजा : ठीक है इसमें कुछ संदेह नहीं है।
पुरोहित : संदेह होता तो शास्त्र में क्यों लिखा जाता। हाँ, बिना देवी अथवा भैरव के समर्पण किए कुछ होता हो तो हो भी।
मंत्री : सो भी क्यों होने लगा भागवत में लिखा है।
”लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना।“
पुरोहित : सच है और देवी पूजा नित्य करना इसमें कुछ सन्देह नहीं है, और जब देवी की पूजा भई तो माँस भक्षण आ ही गया। बलि बिना पूजा होगी नहीं और जब बलि दिया तब उसका प्रसाद अवश्य ही लेना चाहिए। अजी भागवत में बलि देना लिखा है, जो वैष्णवों का परम पुरुषार्थ है।
‘धूपोपहारबलिभिस्सर्वकामवरेश्वरीं’
मंत्री : और ‘पंचपंचनखा भक्ष्याः’ यह सब वाक्य बराबर से शास्त्रों में कहते ही आते हैं।
पुरोहित : हाँ हाँ, जी, इसमें भी कुछ पूछना है अभी साक्षात् मनु जी कहते हैं-
‘न मांस भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने’
और जो मनुजी ने लिखा है कि-
‘स्वमांसं परमांसेन यो बर्द्धयितुमिच्छति’
सो वही लिखते हैं।
‘अनभ्यच्र्य पितृन् देवान्’
इससे जो खाली मांस भक्षण करते हैं उनको दोष है। महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मण गोमाँस खा गये पर पितरों को समर्पित था इससे उन्हें कुछ भी पाप न हुआ।
मंत्री : जो सच पूछो तो दोष कुछ भी नहीं है चाहे पूजा करके खाओ चाहे वैसे खाओ।
पुरोहित : हाँ जी यह सब मिथ्या एक प्रपंच है, खूब मजे में माँस कचर-कचर के खाना और चैन करना। एक दिन तो आखिर मरना ही है, किस जीवन के वास्ते शरीर का व्यर्थ वैष्णवों की तरह क्लेश देना, इससे क्या होता है।
राजा : तो कल हम बड़ी पूजा करैंगे एक लाख बकरा और बहुत से पक्षी मँगवा रखना।
चोबदार : जो आज्ञा।
पुरोहित : उठकर के नाचने लगा, अहा-हा! बड़ा आनंद भया, कल खूब पेट भरैगा।
ख्राग कान्हरा ताल चर्चरी,
धन्य वे लोग जो माँस खाते।
मच्छ बकरा लवा समक हरना चिड़ा भेड़ इत्यादि नित चाभ जाते ।।
प्रथम भोजन बहुरि होई पूजा सुनित अतिही सुखमा भरे दिवस जाते।
स्वर्ग को वास यह लोक में है तिन्हैं नित्य एहि रीति दिन जे बिताते ।।
नेपथ्य में वैतालिक,
राग सोरठ।
सुनिए चित्त धरि यह बात।
बिना भक्षण माँस के सब व्यर्थ जीवन जात।
जिन न खायो मच्छ जिन नहिं कियो मदिरा पान।
कछु कियो नहिं तिन जगत मैं यह सु निहचै जान ।।
जिन न चूम्यौ अधर सुंदर और गोल कपोल।
जिन न परस्यौ कुंभ कुच नहिं लखी नासा लोल ।।
एकहू निसि जिन न कीना भोग नहिं रस लीन।
जानिए निहचै ते पशु हैं तिन कछू नहिं कीन ।।
दोहा: एहि असार संसार में, चार वस्तु है सार।
जूआ मदिरा माँस अरु, नारी संग बिहार ।।
क्योंकि-
”माँस एव परो धर्मो मांस एव परा गतिः।
मांस एव परो योगी मांस एव परं तपः ।।“
हे परम प्रचण्ड भुजदण्ड के बल से अनेक पाखण्ड के खष्ड को खण्डन करने वाले, नित्य एक अजापुत्र के भक्षण की सामथ्र्य आप में बढ़ती जाय और अस्थि माला धारण करने वाले शिवजी आप का कल्याण करैं आप बिना ऐसी पूजा और कौन करे। आकर बैठता है,
पुरोहित : वाह वाह! सच है सच है।
नेपथ्य में,
पतीहीना तु या नारी पत्नीहीनस्तु नः पुमान्।
उभाभ्यां षण्डरण्डाभ्यान्न दोषो मनुरब्रबीत ।।
सब चकित होकर,
ऐसा मालूम होता है कि कोई पुनर्विवाह का स्थापन करने वाला बंगाली आता है।
बड़ी धोती पहिने बंगाली आता है,
बंगाली : अक्षर जिसके सब बे मेल, शब्द सब बे अर्थ न छंद वृत्ति, न कुछ, ऐसे भी मंत्र जिसके मुँह से निकलने से सब काय्र्यों के सिद्ध करने वाले हैं ऐसी भवानी और उनके उपदेष्टा शिवजी इस स्वतंत्र राजा का कल्याण करैं।
राजा दण्डवत् करके बैठता है,
राजा : क्यों जी भट्टाचार्य जी पुनर्विवाह करना या नहीं।
बंगाली : पुनर्विवाह का करना क्या! पुनर्विवाह अवश्य करना। सब शास्त्र को यही आज्ञा है, और पुनर्विवाह के न होने से बड़ा लोकसान होता है, धर्म का नाश होता है, ललनागन पुंश्चली हो जाती है जो विचार कर देखिए तो विधवागन का विवाह कर देना उनको नरक से निकाल लेना है और शास्त्र की भी आज्ञा है।
”नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।।
ब्राह्मणों ब्राह्मणों गच्छेद्यती गच्छेत्तपस्विनी।
अस्त्री को विधवां, गच्छेन्न दोषो मनुरब्रवीत् ।।“
राजा : यह वचन कहाँ का है?
बंगाली : यह वचन श्रीपराशर भगवान् का है जो इस युग के धर्मवक्ता हैं।
यथा - ‘कलौ पाराशरी स्मृतिः’
राजा : क्यों पुरोहित जी, आप इसमें क्या कहते हैं?
पुरोहित : कितने साधारण धर्म ऐसे हैं कि जिनके न करने से कुछ पाप नहीं होता, जैसा-”मध्याद्दे भोजनं कुर्यात्“ तो इसमें न करने से कुछ पाप नहीं है, वरन व्रत करने से पुण्य होता है। इसी तरह पुनर्विवाह भी है इसके करने से कुछ पाप नहीं होता और जो न करै तो पुण्य होता है। इसमें प्रमाण श्रीपाराशरीय स्मृति में-
"मृते भर्तरि या नारी ब्रह्मचय्र्यव्रते स्थिता।
सा नारी लभते स्वर्गं यावच्चंद्रदिवाकरौ ।।"
इस वचन से, और भी बहुत जगह शास्त्र में आज्ञा है, सो जो विधवा विवाह करती हैं उनको पाप तो नहीं होता पर जो नहीं करतीं उनको पुण्य अवश्य होता है, और व्यभिचारिणी होने का जो कहो सो तो विवाह होने पर भी जिस को व्यभिचार करना होगा सो करै ही गी जो आप ने पूछा वह हमारे समझ में तो यों आता है परन्तु सच पूछिए तो स्त्री तो जो चाहे सो करै इन को तो दोष ही नहीं है-
‘न स्त्री जारेण दुष्यति’। ‘स्त्रीमुखं तु सदा शुचि’।
‘स्त्रियस्समस्ताः सकला जगत्सु’। ‘व्यभिचारादृतौ शुद्धिः’।
इनके हेतु तो कोई विधि निषेध है ही नहीं जो चाहैं करैं, चाहै जितना विवाह करैं, यह तो केवल एक बखेड़ा मात्र है।
सब एक मुख होकर, सत्य है, वाह वे क्यों न हो यथार्थ है।
चोबदार : सन्ध्या भई महाराज!
राजा : सभा समाप्त करो।
इति प्रथमांक
द्वितीय अंक
स्थान पूजाघर।
राजा, मंत्री, पुरोहित और उक्त भट्टाचाय्र्य आते हंै और अपने-अपने स्थान पर बैठते हैं।,
चोबदार : आकर, श्रीमच्छंकराचाय्र्यमतानुयायी कोई वेदांती आया है।
राजा : आदरपूर्वक ले आओ।
विदूषक आया,
विदूषक : हे भगवान् इस बकवादी राजा का नित्य कल्याण हो जिससे हमारा नित्य पेट भरता है। हे ब्राह्मण लोगो! तुम्हारे मुख में सरस्वती हंस सहित वास करै और उसकी पूंछ मुख में न अटवै। हे पुरोहित नित्य देवी के सामने मराया करो और प्रसाद खाया करो।
बीच में चूतर फेर-कर बैठ गया,
राजा : अरे मूर्ख फिर के बैठ।
विदूषक : ब्राह्मण को मूर्ख कहते हो फिर हम नहीं जानते जो कुछ तुम्हें दंड मिलै, हाँ!
राजा : चल मुझ उद्दंड को कौन दंड देने वाला है।
विदूषक : हाँ फिर मालूम होगा।
ख्वेदांती आए,
राजा : बैठिए।
वेदांती : अद्वैतमत के प्रकाश करने वाले भगवान् शंकराचार्य इस मायाकल्पित मिथ्या संसार से तुझको मुक्त करैं।
विदूषक : क्यों वेदांती जी, आप माँस खाते हैं कि नहीं?
वेदांती : तुमको इससे कुछ प्रयोजन है?
विदूषक : नहीं, कुछ प्रयोजन तो नहीं है। हमने इस वास्ते पूछा कि आप वेदांती अर्थात् बिना दाँत के हैं सो आप भक्षण कैसे करते होंगे।
ख्वेदांती टेढ़ी दृष्टि से देखकर चुप रह गया। सब लोग हँस पड़े,
विदूषक : बंगाली से, तुम क्या देखते हो? तुम्हें तो चैन है। बंगाली मात्र मच्छ भोजन करते हैं।
बंगाली : हम तो बंगालियों में वैष्णव हैं। नित्यानंद महाप्रभु के संप्रदाय में हैं और मांसभक्षण कदापि नहीं करते और मच्छ तो कुछ माँसभक्षण में नहीं।
वेदांती : इसमें प्रमाण क्या?
बंगाली : इसमें यह प्रमाण कि मत्स्य की उत्पत्ति वीर्य और रज से नहीं है। इनकी उत्पत्ति जल से है। इस हेतु जो फलादिक भक्ष्य हैं तो ये भी भक्ष्य हैं।
पुरोहित : साधु-सधु! क्यों न हो। सत्य है।
वेदांती : क्या तुम वैष्णव बनते हो? किस संप्रदाय के वैष्णव हो?
बंगाली : हम नित्यानंद महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण ही हैं, इसमें प्रमाण श्रीभागवत में-
कृष्णवर्णं त्विषाऽकृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदैः।
यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति ह्यणुमेधसा ।।
वेदांती : वैष्णवों के आचाय्र्य तो चार हैं। तो तुम इन चारों से विलक्षण कहाँ से आए?
अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः।
राजा : जाने दो, इस कोरी बकवाद का क्या फल है?
ख्नेपथ्य में,
उमासहायं परमेश्वरं विभुं त्रिलोचनं नीलकंठं दयालुम्।
पुनः, गोविन्द नारायण माधवेति।
पुरोहित : कोई वैष्णव और शैव आते हैं।
राजा : चोबदार, जा करके अन्दर से ले आओ। ख्चोबदार बाहर गया, वैष्णव और शैव को लेकर फिर आया,
ख्राजा ने उठकर दोनों को बैठाया,
दोनों-शंख कपाल लिए कर मैं, कर दूसरे चक्र त्रिशूल सुधारे।
माल बनी मणि अस्थि की कंठ मैं, तेज दसो दिसि माँझ पसारे ।।
राधिका पारवती दिसि बाम, सबैं जगनाशन पालनवारे।
चंदन भस्म को लेप किए हरि ईश, हरैं सब दुःख तुम्हारे ।।
बंगाली : महाराज, शैव और वैष्णव ये दोनों मत वेद के बाहर हैं।
सर्वे शाक्त द्विजाः प्रोक्ता न शैवा न च वैष्णवाः।
आदिदेवीमुपासन्ते गायत्रीं वेदमातरम् ।।
तथा : तस्मन्माहेश्वरी प्रजा।
इस युग का शास्त्र तंत्र है।
कृते श्रुत्युक्तमार्गाश्च त्रेतायां स्मृतिभाषिताः।
द्वापरे वै पुराणोक्ताः कलावागमसंभवाः ।।
और कंठी रुद्राक्ष तुलसी की माला तिलक यह सब अप्रमाण है।
शैव : मुंह सम्हाल के बोला करो, इस श्लोक का अर्थ सुनो, सर्वे शाक्ता द्विजाः प्रोक्ताः परंतु, शैवा वैष्णवा न शाक्ताः प्रोक्ताः। जो केवल गायत्री की उपासना करते हैं वे शाक्त हैं। ‘पुराणे हरिणा प्रोक्तौ मार्गो द्वौ शैववैष्णवौ’। और वेदों करके वेद्य शिव ही हैं।
बंगाली : भवव्रतधारा ये च ये च तान्समनुव्रताः।
पाखण्डिनश्च ते सव्र्वे सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ।।
इस वाक्य में क्या कहते हैं?
शैव : इस वाक्य में ठीक कहते हैं। इसके आगे वाले वाक्यों से इसको मिलाओ। यह दोनों तांत्रिकों ही के वास्ते लिखते हैं। वह शैव कैसे कि-
‘नष्टशौचा मूढ़धियो जटा भस्मास्थिधारिणः।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ।।’
तो जहाँ दैव सुरा और आसव यही है अर्थात् तांत्रिक शैव, कुछ हम लोग शुद्ध शैव नहीं।
राजा : भला वैष्णव और शैव माँस खाते हैं कि नहीं?
शैव : महाराज, वैष्णव तो नहीं खाते और शैवों को भी न खाना चाहिए परंतु अब के नष्ट बुद्धि शैव खाते हैं।
पुरोहित : महाराज, वैष्णवों का मत तो जैनमत की एक शाखा है और महाराज दयानंद स्वामी ने इन सबका खूब खण्डन किया है, पर वह तो देवी की मूर्ति भी तोड़ने को कहते हैं। यह नहीं हो सकता क्योंकि फिर बलिदान किसके सामने होगा?
नेपथ्य में, नारायण
राजा : कोई साधु आता है।
धूर्तशिरोमणि गंडकीदास का प्रवेश,
राजा : आइए गंडकीदास जी।
पुरोहित : गंडकीदासजी हमारे बडे़ मित्र हैं। यह और वैष्णवों की तरह जंजाल में नहीं फँसे हैं। यह आनंद से संसार का सुख भोग करते हैं।
गंडकीदास : ख्धीरे से पुरोहित से, अजी, इस सभा में हमारी प्रतिष्ठा मत बिगाड़ो। वह तो एकांत की बात है।
पुरोहित : वाह जी, इसमें चोरी की कौन बात है?
गंडकी : ख्धीरे से, यहाँ वह वैष्णव और शैव बैठे हैं।
पुरोहित : वैष्णव तुम्हारा क्या कर लेगा! क्या किसी की डर पड़ी है?
विदूषक : महाराज, गंडकीदास जी का नाम तो रंडादासजी होता तो अच्छा होता।
राजा : क्यों?
विदूषक : यह तो रंडा ही के दास हैं।
आशङ्खचक्रातबाहुदण्डा गृहे समालिगितघालरण्डाः।
अथच-भण्डा भविष्यन्ति कलौ प्रचण्डाः।
रण्डामण्डलमण्डनेषु पटवो धूर्ताः कलौ वैष्णवाः।
शैव, वैष्णव और वेदांती: अब हम लोग आज्ञा लेते हैं। इस सभा में रहने का हमारा धर्म नहीं।
विदूषक : दंडवत्, दंडवत् जाइए भी किसी तरह।
सब जाते हैं,
विदूषक : महाराज, अच्छा हुआ यह सब चले गए। अब आप भी चलें। पूजा का समय हुआ।
राजा : ठीक है।
जवनिका गिरती है,
तृतीय अंक
स्थान- राजपथ
पुरोहित गले में माला पहिने टीका दिए बोतल लिए उन्मत्त सा आता है,
पुरोहित : ख्घूमकर, वाह भगवान करै ऐसी पूजा नित्य हो, अहा! राजा धन्य है कि ऐसा धर्मनिष्ठ है, आज तो मेरा घर माँस मदिरा से भर गया। अहा! और आज की पूजा की कैसी शोभा थी, एक ओर ब्राह्मणों का वेद पढ़ना, दूसरी ओर बलिदान वालों का कूद-कूदकर बकरा काटना ‘वाचं ते शुंधामि’, तीसरी ओर बकरों का तड़पना और चिल्लाना, चैथी ओर मदिरा के घड़ों की शोभा और बीच में होम का कुंड, उसमें माँस का चटचटाकर जलना अैर उसमें से चिर्राहिन की सुगंध का निकलना, वैसा ही लोहू का चारों ओर फैलना और मदिरा की छलक, तथा ब्राह्मणों का मद्य पीकर पागल होना, चारों ओर घी और चरबी का बहना, मानो इस मंत्र की पुकार सत्य होती थी।
‘घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः’
अहा! वैसी ही कुमारियों की पूजा-
‘इमं ते उपस्थं मधुना सृजामि प्रजापतेर्मुखमेतद्द्वितीयं तस्या योनिं परिपश्यंति घीराः।’
अहा हा! कुछ कहने की बात नहीं है। सब बातें उपस्थित थीं।
‘मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः’
ऐसे ही मदिरा की नदी बहती थी। कुछ ठहर कर, जो कुछ हो मेरा तो कल्याण हो गया, अब इस धर्म के आगे तो सब धर्म तुच्छ हैं और जो मांस न खाय वह तो हिन्दू नहीं जैन है। वेद में सब स्थानों पर बलि देना लिखा है। ऐसा कौन सा यज्ञ है जो बिना बलिदान का है और ऐसा कौन देवता है जो मांस बिना ही प्रसन्न हो जाता है, और जाने दीजिए इस काल में ऐसा कौन है जो मांस नहीं खाता? क्या छिपा के क्या खुले खुले, अँगोछे में मांस और पोथी के चोंगे में मद्य छिपाई जाती है। उसमें जिन हिंदुओं ने थोड़ी भी अंगरेजी पढ़ी है वा जिनके घर में मुसलमानी स्त्री है उनकी तो कुछ बात ही नहीं, आजाद है। ख्सिर पकड़ कर, हैं माथा क्यों घूमता है? अरे मदिरा ने तो जोर किया। उठकर गाता है,।
जोर किया जोर किया जोर किया रे, आज तो मैंने नशा जोरे किया रे।
साँझहि से हम पीने बैठे पीते पीते भोर किया रे ।। आज तो मैंने.
ख्गिरता पड़ता नाचता है,
रामरस पीओ रे भाई, जो पीए सो अमर होय जाई
चैके भीतर मुरदा पाकैं जवेलै नहाय कै ऐसेन जनम जर जाई ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे जो बकरी पत्ती खात है ताकि काढ़ी खाल।
अरे जो नर बकरी खात है तिनको कौन हवाल ।।
रामरस पीओ रे भाई
यह माया हरि की कलवारिन मद पियाय राखा बौराई।
एक पड़ा भुइँया में लोटै दूसर कहै चोखी दे माई ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे चढ़ी है सो चढ़ी नहिं उतरन को नाम।
भर रही खुमारी तब क्या रे किसी से है काम ।।
रामरस पीओ रे भाई
मीन काट जल धोइए खाए अधिक पियास।
अरे तुलसीप्रीत सराहिए मुए मीत की आस ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे मीन पीन पाठीन पुराना भरि भरि भार कंहारन आना।
महिष खाइ करि मदिरा पाना अरे गरजा रे कुंभकरन बलवाना ।।
रामरस पीओ रे भाई
ऐसा है कोई हरिजन मोदी तन की तपन बुझावैगा।
पूरन प्याला पिये हरी का फेर जनम नहिं पावैगा ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे भक्तों ने रसोईं की तो मरजाद ही खोई।
कलिए की जगह पकने लगी रामतरोई रे ।।
रामरस पीओ रे भाई
भगतजी गदहा क्यों न भयो।
जब से छोड़ो माँस-मछरिया सत्यानाश भयो ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे एकादशी के मछली खाई।
अरे कबौं मरे बैवुं$ठै जाई ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे तिल भर मछरी खाइबो कोटि गऊ को दान।
ते नर सीधे जात है सुरपुर बैठि बिमान ।।
रामरस पीओ रे भाई
कंठी तोड़ो माला तोड़ो गंगा देहु बहाई।
अरे मदिरा पीयो खाइ कै मछरी बकरा जाहु चबाई ।।
रामरस पीओ रे भाई
ऐसी गाढ़ी पीजिए ज्यौं मोरी की कीच।
घर के जाने मर गए आप नशे के बीच ।।
रामरस पीओ रे भाई
नाचता नाचता गिर के अचेत हो जाता है,
ख्मतवाले बने हुए राजा और मंत्री आते हैं,
राजा : मंत्री, पुरोहित जी बेसुध पड़े हैं।
मंत्री : महाराज, पुरोहित जी आनंद में हैं। ऐसे ही लोगों को मोक्ष मिलता है।
राजा : सच है। कहा भी है-
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा पतित्वा धरणीतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा नरो मुक्तिमवाप्नुयात् ।।
मंत्री : महाराज, संसार के सार मदिरा और माँस ही हैं।
‘मकाराः पझ् दुल्र्लभाः।’
राजा : इसमें क्या संदेह।
वेद वेद सबही कहैं, भेद न पायो कोय।
बिन मदिरा के पान सो, मुक्ति कहो क्यों होय ।।
मंत्री : महाराज, ईश्वर ने बकरा इसी हेतु बनाया ही है, नहीं और बकरा बनाने का काम क्या था? बकरे केवल यज्ञार्थ बने हैं और मद्य पानार्थ।
राजा : यज्ञो वै विष्णुः, यज्ञेन यज्ञमयजंति देवाः, ज्ञाद्भवति पज्र्जन्यः, इत्यादि श्रुतिस्मृति में यज्ञ की कैसी स्तुति की है और ”जीवो जीवस्य जीवन“ जीव इसी के हेतु हैं क्योंकि-”माँस भात को छोड़िकै का नर खैहैं घास?“
मंत्री : और फिर महाराज, यदि पाप होता भी हो तो मूर्खों को होता होगा। जो वेदांती अपनी आत्मा में रमण करने वाले ब्रह्मस्वरूप ज्ञानी हैं उनको क्यों होने लगा? कहा है न-
यावद्धतोस्मि हंतास्मीत्यात्मानं मन्यतेऽस्वदृक्।
तावदेवाभिमानज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ।।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः ।।
नैनं छिदंति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।।
अच्छेद्योयामदह्योयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।।
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
इससे हमारे आप से ज्ञानियों को तो कोई बंधन ही नहीं है। और सुनिए, मदिरा को अब लोग कमेटी करके उठाना चाहते हैं वाह बे वाह!
राजा : छिः अजी मद्यपान गीता में लिखा है ”मद्याजी माँ नमस्कुरु।“
मंत्री : और फिर इस संसार में माँस और मद्य से बढ़कर कोई वस्तु है भी तो नहीं।
राजा : अहा! मदिरा की समता कौन करेगा जिसके हेतु लोग अपना धर्म छोड़ देते हैं। देखो-
मदिरा ही के पान हित, हिंदू धर्महि छोड़ि।
बहुत लोग ब्राह्मो बनत, निज कुल सों मुख मोड़ि ।।
ब्रांडी को अरु ब्राह्म को, पहिलो अक्षर एक।
तासों ब्राह्मो धर्म में, यामें दोस न नेक ।।
मंत्री : महाराज, ब्राह्मो को कौन कहे हम लोग तो वैदिक धर्म मानकर सौत्रमणि यज्ञ करके मदिरा पी सकते हैं।
राजा : सच है, देखो न-
मदिरा को तो अंत अरु आदि राम को नाम।
तासों तामैं दोष कछू नहिं यह बुद्धि ललाम ।।
तिष्ठ तिष्ठ क्षण मद्य हम पियैं न जब लौं नीच।
यह कहि देवी क्रोंध सों हत्यौ शंुभ रन बीच ।।
मद पी विधि जग को करत, पालत हरि करि पान।
मद्यहि पी के नाश सब करत शंभु भगवान ।।
विष्णु वारुनी, पोर्ट पुरुषोत्तम मद्य मुरारि।
शांपिन शिव, गौड़ी गिरिश, ब्रांडी ब्रह्म विचारि ।।
मंत्री : और फिर महाराज, ऐसा कौन है जो मद्य नहीं पीता, इससे तो हमीं लोग न अच्छे जो विधिपूर्वक वेद की रीति से पान करते हैं और यों छिपके इस समय में कौन नहीं करता।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अरु सैयद सेख पठान।
दै बताई मोहि कौन जो करत न मदिरा पान ।।
पियत भट्ट के ठट्ट अरु गुजरातिन के वृंद।
गौतम पियत अनंद सों पियत अग्र के नंद ।।
ब्राह्मण सब छिपि छिपि पियत जामैं जानि न जाय।
पोथी के चोंगान भरि बोतल बगल छिपाय ।।
वैष्णव लोग कहावही कंठी मुद्रा धारि।
छिपि छिपि कैं मदिरा पियहिं, यह जिय मांझि विचारि ।।
होटल में मदिरा पियैं, चोट लगे नहिं लाज।
लोट लए ठाढ़े रत टोटल देवै काज ।।
राजा राजकुमार मिलि बाबू लीने संग।
बार-बधुन लै बाग में पीअत भरे उमंग ।।
राजा : सच है, इसमें क्या संदेह है?
मंत्री : महाराज, मेरा सिर घूमता है और ऐसी इच्छा होती है कि कुछ नाचूं और गाऊं,
राजा : ठीक है मैं भी नाचूं-गाऊंगा, तुम प्रारंभ करो।
मंत्री उठकर राजा का हाथ पकड़कर गिरता-पड़ता नाचता और गाता है,
पीले अवधू के मतवाले प्याला प्रेम हरी रस का रे।
तननुं तननुं तननुं में गाने का है चसका रे ।।
निनि धध पप मम गग गिरि सासा भरले सुर अपने बस का रे।
धिधिकट धिधिकट धिधिकट धाधा बजे मृदंग थाप कस कारे ।।
तीले अवधू के.।
भट्टी नहिं सिल लोढ़ा नहीं घोरधार।
पलकन की फेरन में चढ़त धुआंधार ।।
पीले अवधू के.।
कलवारिन मदमाती काम कलोल।
भरि भरि देत पियलवा महा ठठोल ।।
पीले अवधू के.।
अरी गुलाबी गाल को लिए गुलाबी हाथ।
मोहि दिखाव मद की झलक छलक पियालो साथ ।।
पीले अवधू के.।
बहार आई है भर दे बादए गुलगूँ से पैमाना।
रहै लाखों बरस साकी तेरा आबाद मैखाना ।।
सम्हल बैठो अरे मस्तो जरा हुशियार हो जाओ।
कि साकी हाथ में मै का लिए पैमाना आता है ।।
उड़ाता खाक सिर पर झूमता मस्ताना आता है।
पीले अवधू के.-अहाँ अहाँ अहाँ ।।
यह अठरंग है लोग चतुरंग ही गाते हैं।
न जाय न जाय मो सों मदवा भरीलो न जाय
तब फिर कहाँ से-
ड्रिंक डीप आॅर टेस्ट नाॅट द पीयरियन स्प्रिंग
क्तपदा कममच वत जंेजम दवज जीम चपमतपंदेचतपदहण्
पीले अवधू के मतवाले प्याला प्रेम हरा रस का रे।
एक दूसरे के सिर पर धौल मारकर ताल देकर नाचते हैं। फिर एक पुरोहित का सिर पकड़ता है दूसरा पैर और उसको लेकर नाचते हैं,
जवनिका गिरती है।
चतुर्थ अंक
स्थान-यमपुरी
यमराज बैठे हैं, और चित्रगुप्त पास खड़े हैं,
(चार दूत राजा, पुरोहित, मंत्री, गंडकीदास, शैव और वैष्णव को पकड़ कर लाते हैं)
१ दूत : ख्राजा के सिर में धौल मारकर, चल बे चल, अब यहाँ तेरा राज नहीं है कि छत्र-चंवर होगा, फूल से पैर रखता है, चल भगवान् यम के सामने और अपने पाप का फल भुगत, बहुत कूद-कूद के हिंसा की और मदिरा पी, सौ सोनार की न एक लोहार की।
ख्दो धौल और लगाता है,
२ दूत : पुरोहित को घसीटकर, चलिए पुरोहित जी, दक्षिणा लीजिये, वहाँ आपने चक्र-पूजन किया था, यहाँ चक्र में आप मे चलिए, देखिए बलिदान का कैसा बदला लिया जाता है।
३ दूत : मंत्री की नाक पकड़कर, चल बे चल, राज के प्रबन्ध के दिन गये, जूती खाने के दिन आये, चल अपने किये का फल ले।
४ दूत : ख्गंडकीदास का कान पकड़कर झोंका देकर, चल रे पाखंडी चल, यहाँ लंबा टीका काम न आवेगा। देख वह सामने पाखंडियों का मार्ग देखने वाले सर्प मुंह खोले बैठे हैं।
सब यमराज के सामने जाते हैं,
यम. : वैष्णव और शैव से, आप लोग यहाँ आकर मेरे पास बैठिए।
वै. और शै. : जो आज्ञा। यमराज के पास बैठ जाते हैं,
यम : चित्रगुप्त देखो तो इस राजा ने कौन-कौन कर्म किये हैं।
चित्र. : बही देखकर, महाराज, सुनिये, यह राजा जन्म से पाप में रत रहा, इसने धर्म को अधर्म माना और अधर्म को धर्म माना जो जी चाहा किया और उसकी व्यवस्था पण्डितों से ले ली, लाखों जीव का इसने नाश किया और हजारों घड़े मदिरा के पी गया पर आड़ सर्वदा धर्म की रखी, अहिंसा, सत्य, शौच, दया, शांति और तप आदि सच्चे धर्म इसने एक न किये, जो कुछ किया वह केवल वितंडा कर्म-जाल किया, जिसमें मांस भक्षण और मदिरा पीने को मिलै, और परमेश्वर-प्रीत्यर्थ इसने एक कौड़ी भी नहीं व्यय की, जो कुछ व्यय किया सब नाम और प्रतिष्ठा पाने के हेतु।
यम : प्रतिष्ठा कैसी, धर्म और प्रतिष्ठा से क्या सम्बन्ध?
चित्र. : महाराज सरकार अंगरेज के राज्य में जो उन लोगों के चित्तानुसार उदारता करता है उसको ”स्टार आफ इंडिया“ की पदवी मिलती है।
यम. : अच्छा! तो बड़ा ही नीच है, क्या हुआ मैं तो उपस्थित ही हूँ।
”अंतःप्रच्छन्न पापानां शास्ता वैवस्वतो यमः“
भला पुरोहित के कर्म तो सुनाओ।
चित्र. : महाराज यह शुद्ध नास्तिक है, केवल दंभ से यज्ञोपवीत पहने है, यह तो इसी श्लोक के अनुरूप है-
अंतः शाक्ता बहिःशैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः।
नानारूपधराः कौला विचरन्ति महीतले ।।
इसने शुद्ध चित्त से ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं किया, जो-जो पक्ष राजा ने उठाये उसका समर्थन करता रहा और टके-टके पर धर्म छोड़ कर इसने मनमानी व्यवस्था दी। दक्षिणा मात्र दे दीजिए फिर जो कहिए उसी में पंडितजी की सम्मति है, केवल इधर-उधर कमंडलाचार करते इसका जन्म बीता और राजा के संग से माँस-मद्य का भी बहुत सेवन किया, सैकड़ों जीव अपने हाथ से वध कर डाले।
यम. : अरे यह तो बड़ा दुष्ट है, क्या हुआ मुझसे काम पड़ा है, यह बचा जी तो ऐसे ठीक होंगे जैसा चाहिए। अब तुम मंत्री जी के चरित्र कहो।
चित्र. : महाराज, मंत्रीजी की कुछ न पूछिए। इसने कभी स्वामी का भला नहीं किया, केवल चुटकी बजाकर हां में हां मिलाया, मुंह पर स्तुति पीछे निंदा, अपना घर बनाने से काम, स्वामी चाहे चूल्हे में पड़े, घूस लेते जनम बीता, मांस और मद्य के बिना इसने न और धर्म जाने न कर्म जाने-यह मंत्री की व्यवस्था है, प्रजा पर कर लगाने में तो पहले सम्मति दी पर प्रजा के सुख का उपाय एक भी न किया।
यम. : भला ये श्रीगंडकीदासजी आये हैं इनका पवित्र चरित्र पढ़ो कि सुनकर कृतार्थ हों, देखने में तो बड़े लम्बे-लम्बे तिलक दिये हैं।
चित्र. : महाराज ये गुरु लोग हैं, इनके चरित्र कुछ न पूछिये, केवल दंभार्थ इनका तिलक मुद्रा और केवल ठगने के अर्थ इनकी पूजा, कभी भक्ति से मूर्ति को दंडवत् न किया होगा पर मंदिर में जो स्त्रियाँ आईं उनको सर्वदा तकते रहे; महाराज, इन्होंने अनेकों को कृतार्थ किया है और समय तो मैं श्रीरामचंद्रजी का श्रीकृष्ण का दास हूँ पर जब स्त्री सामने आवे तो उससे कहेंगे मैं राम तुम जानकी, मैं कृष्ण तुम गोपी और स्त्रियाँ भी ऐसी मूर्ख कि फिर इन लोगों के पास जाती हैं, हा! महाराज, ऐसे पापी धर्मवंचकों को आप किस नरक में भेजियेगा।
नेपथ्य में बड़ा कलकल होता है,
यम. : कोई दूत जाकर देखो यह क्या उपद्रव है।
१ दूत : जो आज्ञा। ख्बाहर जाकर फिर आता है, महाराज, संयमनीपुरी की प्रजा बड़ी दुखी है, पुकार करती है कि ऐसे आज कौन पापी नरक में आए हैं जिनके अंग के वायु से हम लोगों का सिर घूमा जाता है और अंग जलता है। इनको तो महाराज शीघ्र ही नरक में भेजें नहीं तो हम लोगों के प्राण निकल जायंगे!
यम : सच है, ये ऐसे ही पापी हैं, अभी मैं इनका दंड करता हूँ, कह दो घबड़ायंे न।
२ दूत : जो आज्ञा। ख्बाहर जाकर फिर आता है,
यम : ख्राजा से, तुझ पर जो दोष ठहराए गए हैं बोल उनका क्या उत्तर देता है।
राजा : हाथ जोड़कर, महाराज, मैंने तो अपने जान सब धर्म ही किया कोई पाप नहीं किया, जो मांस खाया वह देवता-पितर को चढ़ाकर खाया और देखिए महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मणों ने भूख के मारे गोवध करके खा लिया पर श्राद्ध कर लिया था इससे कुछ नहीं हुआ।
यम. : कुछ नहीं हुआ, लगें इसको कोड़े।
२ दूत : जो आज्ञा। कोड़े मारता है,
राजा : हाथ से बचा-बचाकर, हाय-हाय, दुहाई-दुहाई, सुन लीजिए-
सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालंजरे गिरौ।
चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे ।।
तेपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः।
प्रस्थिता दीर्घमध्वानं यूयं किमवसीदथ ।।
यह वाक्य लोग श्राद्ध के पहिले श्राद्ध शुद्ध होने को पढ़ते हैं फिर मैंने क्या पाप किया। अब देखिए, अंगरेजों के राज्य में इतनी गोहिंसा होती है सब हिंदू बीफ खाते हैं उन्हें आप नहीं दंड देते और हाय हमसे धार्मिक की यह दशा, दुहाई वेदों की दुहाई धर्म शास्त्र की, दुहाई व्यासजी की, हाय रे, मैं इनके भरोसे मारा गया।
यम. : बस चुप रहो, कोई है? यह अंधतामिस्र नामक नरक में जायगा। अभी इसको अलग रखो।
१ दूत : जो आज्ञा महाराज। पकड़-खींचकर एक ओर खड़ा करता है,
यम. : पुरोहित से, बोल बे ब्राह्मणधम! तू अपने अपराधों का क्या उत्तर देता है।
पुरो. : हाथ जोड़कर, महाराज, मैं क्या उत्तर दूंगा, वेद-पुराण सब उत्तर देते हैं।
यम. : लगें कोड़े, दुष्ट वेद-पुराण का नाम लेता है।
२ दूत : जो आज्ञा। कोड़े मारता है,
पुरो. : दुहाई-दुहाई, मेरी बात तो सुन लीजिए। यदि मांस खाना बुरा है तो दूध क्यों पीते हैं, दूध भी तो मांस ही है और अन्न क्यों खाते हैं अन्न में भी तो जीव हैं और वैसे ही सुरापान बुरा है तो वेद में सोमपान क्यों लिखा है और महाराज, मैंने तो जो बकरे खाए वह जगदंबा के सामने बलि देकर खाए, अपने हेतु कभी हत्या नहीं की और न अपने राजा साहब की भाँति मृगया की। दुहाई, ब्राह्मण व्यर्थ पीसा जाता है। और महाराज, मैं अपनी गवाही के हेतु बाबू राजेंद्रलाल के दोनों लेख देता हूँ, उन्होंने वाक्य और दलीलों से सिद्ध कर दिया है कि मांस की कौन कहे गोमांस खाना और मद्य पीना कोई दोष नहीं, आगे के हिंदू सब खाते-पीते थे। आप चाहिए एशियाटिक सोसाइटी का जर्नल मंगा के देख लीजिए।
यम. : बस चुप, दुष्ट! जगदंगा कहता है और फिर उसी के सामने उसी जगत् के बकरे को अर्थात् उसके पुत्र ही को बलि देता है। अरे दुुष्ट, अपनी अंबा कह, जगदंबा क्यों कहता है, क्या बकरा जगत् के बाहर है? चांडाल सिंह को बलि नहीं देता-‘अजापुत्रं बलिं दद्याद्दैवोदुर्बलघातकः’ कोई है? इसको सूचीमुख नामक नरक में डालो। दुष्ट कहीं का, वेद-पुराण का नाम लेता है। मांस-मदिरा खाना-पीना है तो यों ही खाने में किसने रोका है धर्म को बीच में क्यों डालता है, बाँधो।
२ दूत : जो आज्ञा महाराज। बाँध कर एक ओर खड़ा करता है,।
यम. : मंत्री से, बोल बे, तू अपने अपराधों का क्या उत्तर देता है?
मंत्री : आप ही आप, मैं क्या उत्तर दूँ, यहाँ तो सब बात बेरंग है। इन भयावनी मूर्तियों को देखकर प्राण सूखे जाते हैं उत्तर क्या दूं। हाय-हाय, इनके ऐसे बड़े-बडे दाँत हैं कि मुझे तो एक ही कवर कर जायंगे।
यम. : बोल जल्दी।
३ दूत : एक कोड़ा मारकर, बोलता है कि नहीं।
मंत्री : हाथ जोड़कर, महाराज, अभी सोचकर उत्तर देता हूँ। कुछ सोचकर, चित्रगुप्त से, आप मुझे एक बेर राज्य पर भेज दीजिए, मैंने जितना धन बड़ी-बड़ी कठिनाई और बड़े-बड़े अधर्म से एकत्र किया है सब आपको भेंट करूंगा और मैं निरपराधी कुटुंबी हूँ मुझे छोड़ दीजिये।
चित्र : क्रोध से, अरे दुष्ट, यह भी क्या मृत्युलोक की कचहरी है कि तू हमें घूस देता है और क्या हम लोग वहाँ के न्यायकत्र्ताओं की भांति जंगल से पकड़ कर आए हैं कि तुम दुष्टों के व्यवहार नहीं जानते। जहाँ तू आया है और जो गति तेरी है वही घूस लेने वालों की भी होगी।
यम. : क्रो ध से, क्या यह दुष्ट द्रव्य दिखाता है? भला रे दुष्ट! कोई है इसको पकड़कर कुंभीपाक में डालो।
३ दूत : जो आज्ञा महाराज। पकड़कर खींचता है,।
यम. : अब आप बोलिए बाबाजी, आप अपने पापों का क्या उत्तर देते हैं?
गंडकी. : मैं क्या उत्तर दूँगा। पाप पुण्य जो करता है, ईश्वर करता है इसमें मनुष्य का क्या दोष है?
ईश्वरः सर्व भूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सव्र्वभूतानि यंत्ररूढ़ानि मायया ।।
मैं तो आज तक सव्र्वदा अच्छा ही करता रहा।
यम. : कोई है? लगें कोड़े दुष्ट को, अब ईश्वर फल भी भुगतैगा। हाय हाय, ये दुष्ट दूसरों की स्त्रियों को माँ और बेटी कहते हैं और लंबा लंबा टीका लगाकर लागों को ठगते हैं।
४ दूत : महाराज यह किस नरक में जायगा! कोड़े मारता है।,
गंडकी : हाय-हाय दुहाई, अरे कंठी-टीका कुछ काम न आया। अरे कोई नहीं है जो इस समय बचावै।
यम. : यह दुष्ट रौरव नरक में जायगा जहाँ इसको ऐसे ही अनेक धर्मवंचक मिलेंगे। ले जाओ सबको।
ख्चारों दूत चारों को पकड़कर घसीटते और मारते हैं और चारों चिल्लाते हैं,
चारों : अरे ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।’
हाय रे ‘अग्निष्टोमे पशुमालभेत्।’
अरे बाप रे ”सौत्रमण्यां सुरां पिबेत्।“
भैया रे ”श्रोत्रं ते शुंधामि।“
यही कहकर चिल्लाते हैं और दूत लोग उसको घसीटकर मारते-मारते ले जाते हैं,
यम. : शैव और वैष्णव से, आप लोगों की अकृत्रिम भक्ति से ईश्वर ने आपको कैलास और बैकुंठ वास की आज्ञा दी है सो आ लोग जाइए और अपने सुकृत का फल भोगिए। आप लोगों ने इस धर्म वंचकों की दशा तो देखी ही है, देखिए पापियों की यह गति होती है और आप से सुकृतियों को ईश्वर प्रसन्न होकर सामीप्य मुक्ति देता है, सो लीजिए, आप लोगों को परम पद मिला। बधाई है, कहिए इससे भी विशेष कोई आपका हित हो तो मैं पूर्ण करूं।
शै. और वै. : हाथ जोड़कर, भगवन् इससे बढ़कर और हम लोगों का क्या हित होगा। तथापि यह नाटकाचाय्र्य भरतऋषि का वाक्य सफल हो।
निज स्वारथ को धरम-दूर या जग सों होई।
ईश्वर पद मैं भक्ति करैं छल बिनु सब कोई ।।
खल के विष-बैनन सों मत सज्जन दुख पावैं।
छुटै राजकर मेघ समय पै जल बरसावैं ।।
कजरी ठुमरिन सों मोड़ि मुख सत कविता सब कोइ कहैं।
यह कवि बानी बुध-बदन में रवि ससि लौं प्रगटित रहै ।।
सब जाते हैं,
-जवनिका गिरती है।-
इति चतुर्थो।
समाप्तं प्रहसनं।
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Friday, 23 March 2018
नाड़ी शोधन
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Home / YOGA / नाड़ी शोधन प्राणायाम का सही तरीका और लाभ
नाड़ी शोधन प्राणायाम का सही तरीका और लाभ
नाड़ी शोधन प्राणायम से सूर्य स्वर और चंद्र स्वर में बैलेंस बनता है।
आपने नाड़ी शोधन प्राणायाम के बारे में जरूर सुना होगा। आज हम आपको इस प्राणायाम को करने का सही तरीका और इससे होने वाले फायदों के बारे में बतायेंगे। सबसे पहले तो ये समझें कि नाड़ीशोधन है क्या। योग विज्ञान के मुताबिक, हमारे शरीर में 72 हजार से ज्यादा नाड़ियां हैं। हर एक का अलग अलग काम है। मॉडर्न साइंस इन्हें नहीं खोज पाया मगर पुराने ग्रंथ इसकी गवाही देते हैं।
बहरहाल हम अभी दो नाडि़यों की बात करते हैं सूर्य नाड़ी और च्रंद नाड़ी। हमारी नाक के बायें छेद से जुड़ी है चंद्र नाड़ी और दायें से सूर्य नाड़ी। हम नाक के दोनों छेदों – नसिकाओं से सांस नहीं लेते। जब हम बाईं नसिका से सांस ले रहे होते हैं तो योग की भाषा में हम कहते हैं कि हमारा चंद्र स्वर चल रहा है। जब हम दाईं नसिका से सांस ले रहे होते हैं तो हम कहते हैं कि हमारा सूर्य स्वर चल रहा है।
क्या है नाड़ी शोधन
चंद्र स्वर से हमारे शरीर में ठंडक पहुंचती है और मन शांत होता है वहीं सूर्य स्वर गर्मी देने वाला होता है और इससे हमारा तेज बढ़ता है। नाड़ी शोधन का मकसद इन दोनों में बैलेंस करना होता है। इससे हमारे सिंपेथेटिक और पैरा सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम पर असर पड़ता है।
नाड़ी शोधन करने का सही तरीका
अपनी कमर को सीधा रखते हुए पदमासन, अर्ध पदमासन या सुखासन जिसमें भी आप सुविधा के हिसाब से बैठ पायें उसमें बैठ जायें। गर्दन आपकी न तो ऊपर की ओर उठेगी न नीचे की ओर झुकेगी। गर्दन की सही पोजीशन क्या रहे इसे नापने का सबसे आसान तरीका ये है कि अपनी गर्दन से सटाकर चार उंगलियों का गैप रखें। बस गर्दन यहीं रहेगी, बहुत हल्की सी झुकी हुई।
दाहिने हाथ के अंगूठे से दाईं नसिका को बंद करें, मध्यमा यानी मिडिल फिंगर से बाईं नसिका को बंद करें। चाहें तो तर्जनी उंगली यानी फोर फिंगर को अपनी आई ब्रो, भौं के बीच में रख लें। वैसे फोर फिंगर को बीच में रखना जरूरी नहीं।
आपका दायां हाथ जितना हो सके उतना बॉडी से सटा रहे। उसे उठायें नहीं क्योंकि अगर आपने उसे उठा लिया तो थोड़ी ही देर में आपका हाथ दुखने लगेगा।
योग में सांस लेने को पूरक, सांस छोड़ने को रेचक और सांस रोकने को कुंभक कहते हैं। जब सांस लेकर रोकी जाये तो उसे आतंरिक कुंभक और जब सांस छोड़कर रोकी जाये तो उसे बाहरी कुंभक कहते हैं।
आंखें कोमलता से बंद कर लें। गर्मी के मौसम में चंद्र स्वर या यानी बाईं नसिका से सांस भरते हुए इसे शुरू करें और सर्दी के मौसम में सूर्य स्वर यानी दाईं नसिका से सांस लेते हुए शुरू करें।
मान लें अभी गर्मी चल रही है तो अपने अंगूठे से दाईं नसिका को दबा लें और बाईं नसिका से सांस भरें दाईं नसिका से छोड़ें फिर दाईं नसिका से सांस लें और बाईं से छोड़ें। यही क्रम चलता रहेगा। सांस लंबा और गहरा लें, जबरदस्ती न करें। कोशिश करें कि आपकी सांस लेने की आवाज न आये।
अगर कर सकते हैं तो पूरक और रेचक का अनुपात 1: 2 रखें यानी अगर सांस लेने में 5 सेकेंड का वक्त लगता है तो सांस छोड़ने में 10 सेकेंड का वक्त लगे।
अब अगर कर सकते हैं तो धीरे धीरे कुंभक करें यानी सांस भरने के बाद जितना आसानी से रुका जा सके रुकें और सांस छोड़ने के बाद जितना आसानी से रुक सकते हैं रुकें। ध्यान रखें जबरदस्ती कतई नहीं करनी है। वरना
प्राणायाम का अर्थ ही खत्म हो जायेगा। सबकुछ सहज भाव से चलने दें।
इसके आगे जा सकते हैं तो फिर कुंभक में भी पूरक से दोगुना समय लगायें यानी सांस लेने में अगर 5 सेंकेंड लगे तो कुंभक (आंतरिक) में 10 सेकेंड, फिर रेचक (सांस छोड़ना) में 10 सेकेंड फिर कुंभक (बाहरी) में 10 सेकेंड। आपको एक एक करके आगे बढ़ना है।
पहले केवल सांस लें और छोड़ें। फिर सांस लेने और छोड़ने में 1 और 2 का रेशो रखें। फिर 1, 2 और 2 के रेशो में सांस लें, सांस रोकें और सांस छोड़ें। इसके बाद 1, 2, 2 और 2 के रेशो में सांस लें, सांस रोकें, सांस छोड़ें, फिर सांस रोकें।
बाईं नसिका से सांस लेना, दाईं से छोड़ना और फिर दाईं नसिका से सांस लेना और बाईं से छोड़ने को एक आवृति माना जाता है। आप नौ बार यानी नौ आवृति करें।
इस प्राणायाम को आप दिन में तीन बार सुबह, दोपहर और शाम को कर सकते हैं। वैसे सुबह का वक्त सबसे अच्छा होता है।
नाड़ी शोधन के लाभ
इससे दोनों नाड़ियों में बैलेंस बनता है। बॉडी का तापमान सही बना रहता है।
नर्वस सिस्टम ताकतवर बनता है।
मन का झुकाव अच्छे व्यवहार और सादगी की ओर बढ़ता है।
इसमें कुंभक करने से ऑक्सीजन फेफड़ों के आखिरी हिस्सों तक पहुंचती है। इससे खून में मौजूद गंदगी बाहर निकलती है।
फेफड़ों की ताकत बढ़ती है और उनके काम करने की ताकत बढ़ती है।
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HomeAYUSHनाड़ीसोधन प्राणायाम विधि, लाभ और सावधानियां
नाड़ीसोधन प्राणायाम विधि, लाभ और सावधानियां July 27, 2016 AYUSH 1 Comment
नाड़ीसोधन प्राणायाम क्या है?
नाड़ीसोधन प्राणायाम को अनुलोम-विलोम के रुप में भी जाना जाता है। नाड़ीसोधन प्राणायाम या अनुलोम-विलोम को अमृत कहा गया है और स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम प्राणायामों से एक है। कहा जाता है की शायद ही कोई ऐसी बीमारी हो जिसको अनुलोम विलोम से फायदा न पहुँचता हो।
शास्त्रों में नाड़ीसोधन प्राणायाम
हठयौगिक शास्त्रों में कहा गया है कि साधक को हमेशा बारी-बारी से एक-दूसरे नासिका छिद्र से श्वास लेना और छोड़ना चाहिए। जब श्वास लेना पूरा हो जाए तो दाहिनी नासिका को अंगूठे और बाईं नासिका को अनामिका और छोटी उंगली से दोनों नासिकाओं को बंद कर दें। अब अपने हिसाब से कुंभक करें। और उसके बाद श्वास बाहर छोड़ा जाता है (घेरंडसंहिता 5/53)।
शिवसंहिता के अनुसार, अच्छे साधक दाहिने अंगूठे से पिंगला (दाहिनी नासिका) को बंद करते हैं और इदा (बायीं नासिका) से श्वास लेते हैं और श्वास रोककर, जबतक संभव हो, वायु को अपने अंदर रखते हैं। अब दाहिनी नासिका से धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हैं। फिर, दाहिनी नासिका से श्वास लेते हैं, इसे रोकते हैं और बाद बायीं नासिका से धीरे-धीरे वायु बाहर छोड़ते हैं (शिवसंहिता 3/22-23)।
नाड़ीसोधन प्राणायाम की विधि
किसी भी आरामदायक योग पोज़ में बैठें, बेहतर होगा यदि आप ध्यान वाले मुद्रा में बैठते हैं। लेकिन अगर कोई तकलीफ हो तो पैर खोलकर दीवार के सहारे या कुर्सी पर भी बैठ सकते हैं।
आपका कमर, सिर और रीढ़ की हड्डी सीधा होना चाहिए।
आंखें बंद रखें और अपने श्वास पर ध्यान दें।
अब आप दाहिने अंगूठे से पिंगला (दाहिनी नासिका) को बंद करें और इदा (बायीं नासिका) से धीरे धीरे श्वास लें।
जब आप पूरा श्वास भर लें तो इदा (बायीं नासिका) को भी बंद करें और अपने क्षमता के अनुसार श्वास को रोकें।
श्वास को न रोक पाने पर पिंगला (दाहिनी नासिका) से धीरे धीरे श्वास छोड़े।
फिर आप पिंगला (दाहिनी नासिका) से ही श्वास लें और इदा (बायीं नासिका) को बंद रखें।
जब पूरा श्वास भर जाये तो पिंगला (दाहिनी नासिका) को बंद करें और कुम्भक करें।
और फिर धीरे धीरे इदा (बायीं नासिका) से श्वास को निकाले।
ये नाड़ीसोधन प्राणायाम का एक चक्र है। शुरूआत में 3 से 5 मिनट के लिए 5 बार अभ्यास करें। इसे क्षमता के अनुसार कई बार दोहराया जा सकता है। ध्यान रहे जब आप श्वास निकालते हैं तो आवाज बिल्कुल ना हो।
नाड़ीसोधन प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम के अभ्यास से नाड़ी (तंत्रिका) की सारी अशुद्धियां शुद्ध हो जाती हैं और इससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में मदद मिलती है।
चिंता एवं तनाव को कम करने के लिए यह रामबाण है।
मस्तिष्क के बायें और दायें भाग में संतुलन करता है और सोचने एवं समझने में सुधार ले कर आता है।
यह ऊर्जा प्रवाह करने वाले तंत्र को शुद्ध करने में मदद करता है।
मानसिक शांति, ध्यान और एकाग्रता में सुधार लाने के लिए यह उत्तम प्राणायाम है।
ऊर्जा प्रवाह को खोलता है, उनमें से रुकावटों को दूर करता है और पूरे शरीर में ऊर्जा का मुक्त प्रवाह करता है।
मस्तिष्क को रक्त की आपूर्ति बढ़ाता है।
यह आपके प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करता है।
उच्च रक्तचाप का प्रबंधन करने में मदद करता है।
हमारे शरीर की हर एक कोशिका को कार्य करने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन उपलब्ध करता है।
पाचन में पर्याप्त ऑक्सीजन भेज कर भोजन को पचाने में मदद करता है।
शरीर से कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरे विषैले गैसों को निकलने में मदद करता है।
मस्तिष्क में उत्तेजक केन्द्रों को शांत करता है।
मांसपेशियों को मजबूत करता है और डायाफ्राम की गतिशीलता पर नियंत्रण पाने में मदद करता है, ये पेट के आवाज में सुधार करता है।
अस्थमा के लिए लाभकारी है।
एलर्जी को कम करने में भी बहुत सहायक है।
तनाव से संबंधित हृदय की बीमारियां को रोकता है।
अनिद्रा को कम करने में सहायक है।
पुराने दर्द, अंतःस्रावी असंतुलन, व्याग्रता, तनाव इत्यादि के लिए भी बहुत प्रभावी है।
नाड़ीसोधन प्राणायाम की सावधानियां
यह प्राणायाम खाली पेट करनी चाहिए।
शुरुआत में श्वास को रोकने (कुंभक) से बचना चाहिए।
इस प्राणायाम को करते समय जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
जहाँ तक भी हो सके इसे बहुत ही शांत भाव में करना चाहिए।
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तनवी प्रकृति रचनाकार एवं स्वास्थ मंच लेखिका होने के नाते वैकल्पिक चिकित्सा जैसे आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्ध, होमियोपैथी (आयूष), हेल्थ, फिटनेस और पर्सनल केयर को आपके सामने सरलता एवं सहजता के साथ पेश करती हैं ।
One Response
Essence MAY 18, 2017
That’s logically shown
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