Monday 19 March 2018

साधू और संत में क्या अंतर 

विशुद्धब्लॉग साधू और संत में क्या अंतर है ?  विशुद्ध चैतन्य 3 वर्ष ago Advertisements   एक मित्र ने प्रश्न किया था, “साधू और संत में क्या अंतर है ? सामान्यतः लोग साधू और संत की परिभाषा या अर्थ एक ही मानते हैं जैसे कि जो संसार की सब मोह माया त्याग कर ,लोगों को ज्ञान बांटता चले,और जनमानस के भलाई के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन दे दे। हिंदी में ‘संत’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता है—1.सामान्य अथवा व्यापक अर्थ में 2.रूढ़ अथवा संकुचित अर्थ में। व्यापक रूप में संत का तात्पर्य है—पवित्रात्मा, परोपकारी, सदाचारी। ‘हिंदी शब्द सागर’ में संत का अर्थ दिया गया है—साधु, त्यागी, महात्मा, ईश्वर भक्त धार्मिक पुरुष। ‘मानक हिंदी कोष’ में संत शब्द को ‘संस्कृत संत’ से निष्पन्न मानते हुए उसका अर्थ किया गया है—1. साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागीपुरुष, सज्जन, महात्मा 2.परम धार्मिक और साधु व्यक्ति। ‘आप्टे’ के कोश में संत शब्द के दस अर्थ मिलते हैं जिनमें मुख्य हैं—सदाचारी, बुद्धिमान, विद्वान, साधु, पवित्रात्मा आदि। व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘संत शब्द’ संस्कृत के सन् का बहुवचन है। सन् शब्द भी अस्भुवि (अस=होना) धातु से बने हुए ‘सत’ शब्द का पुर्लिंग रूप है जो ‘शतृ’ प्रत्यय लगाकर प्रस्तुत किया जाता है और जिसका अर्थ केवल ‘होनेवाला’ या ‘रहने वाला’ हो सकता है। इस प्रकार ‘संत’ शब्द का मौलिक अर्थ ‘शुद्ध अस्तित्व’ मात्र का बोधक है। डॉ. पीतांबरदत्त बड़थवाल के अनुसार ‘संत’ शब्द की संभवतः दो प्रकार की व्युत्पत्ति हो सकती है। या तो इसे पालिभाषा के उस ‘शांति’ शब्द से निकला हुआ मान सकते हैं जिसका अर्थ निवृत्ति मार्गी या विरागी होता है अथवा यह उस ‘सत’ शब्द का बहुवचन हो सकता है जिसका प्रयोग हिंदी में एकवचन जैसा होता है और इसका अभिप्राय एकमात्र सत्य में विश्वास करने वाला अथवा उसका पूर्णतः अनुभव करने वाला व्यक्ति समझा जाता है इसके अतिरिक्त ‘संत’ शब्द की व्युत्पत्ति शांत, शांति, सत् आदि से भी बताई गई है। कुछ विद्वानों ने इसे अंग्रेजी के शब्द सेंट (Saint) समानार्थक उसका हिंदी रूपांतर सिद्ध करने का प्रयास किया है। ‘तैत्तरीय उपनिषद’ में इसका प्रयोग ‘एक’ एवं अद्वितीय परमतत्व के लिए भागवत में इसका प्रयोग ‘पवित्रता’ के अर्थ में किया गया है और बताया गया है कि संसार को पवित्र करने वाले तीर्थों को भी संत पवित्र करने वाले होते हैं। एक अन्य विद्वान मुनिराम सिंह ने ‘पहाड़दोहा’ में संत को ‘निरंजन’ अथवा ‘परमतत्व’ का पर्याय माना है। कबीरदास के अनुसार जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, ईश्वर से प्रेम करता है और विषयों से असंपृक्त रहता है, वही संत है। लेकिन मैं दोनों में ही भेद मानता हूँ जैसे कि साधू अर्थात साधक, सात्विक गुणों को धारण करते हुए सत्यमार्ग पर चलने वाला | और संत का अर्थ है शांत प्रवृति का स्वामी, ऐसा व्यक्ति जो जिस भी क्षेत्र में हो, निश्चल मन व भाव से कर्मरत हो, जिसमें व्यग्रता , चंचलता न हो, जो धीर-गंभीर हो, जो प्रकृति के नियमों व सिद्धांतों का आदर करता हो, जो स्वयं को बाह्य दिखावों या दबावों से मुक्त हो, जो सामाजिक सुधार व हितार्थ कार्य या उपदेश या आदर्श प्रस्तुत करता हो, जो स्वतंत्र हो निर्णय लेने के लिए, जो भयमुक्त हो सत्य कहने से, जो अनाचार, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध किसी से भी टकराने का साहस रखता हो, और जो समाज के लिए प्राण भी दांव पर लगा देता हो… जैसे कि संत वेलेंटाइन, कबीर, स्वामी विवेकानंद, ओशो… आदि | समाज साधू, संत या सन्यासी का अर्थ भिक्षुक, लंगोट-धारी व तांत्रिकों, अघोरिया को मानता है | जो कि गलत है | संत या साधू होना एक स्वभाव है कोई समाज या संगठन नहीं | साधू या संत मौलिक गुण है, वह सभी के प्रति समभाव रखता है और भेदभाव से मुक्त होता है इसलिए वे किसी सम्प्रदाय, वर्ण या जाति के अंतर्गत नहीं आते | वे व्यक्तिगत रूप से किसकी अराधना या साधना करते हैं, यह उनका व्यक्तिगत विषय होता है, वे दूसरों पर थोपते नहीं | उनका प्रमुख उद्देश्य होता है मानव हित, मानवधर्म, व सनातन (प्राकृतिक, खगोलीय) नियम या धर्म के प्रति लोगों को जागरूक करना | वे उपलब्ध साधनों वे सुविधाओं का प्रयोग करते हुए केवल जनमानस को जागरूक करने में ही रत रहते हैं | चूँकि वे निरंतर चिंतन में रहते हैं, इसलिए वे एकांत में चले जाते हैं | एकांत में वे साधना करके या चिंतन मनन करके सामाजिक कुरीतियों से पहले स्वयं को मुक्त करते हैं और फिर प्रयोग करके होने वाले प्रभाव को समझते हैं और फिर वे समाज को बताते हैं कि ये कुरीतियाँ त्याग देने में ही भलाई है | वे भीख माँगते हुए शायद न भी मिलें क्योंकि प्रकृति स्वयं उनकी व्यवस्था करती है | वे दरिद्र भी हो सकते हैं और धनी भी, लेकिन वे तांत्रिक या जादूगर नहीं होते | उनसे आप आध्यात्मिक चर्चा कर सकते हैं, लेकिन भभूत आदि से बिमारी दूर करने या कोई चमत्कार दिखाने की आशा नहीं कर सकते | अंत में यह ध्यान रखें कि वास्तविक साधू या संतों का कोई समाज या संगठनं नहीं होता | एक साधू या संत की तुलना दूसरे से नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे एक दूसरे से बिलकुल भिन्न भी हो सकते हैं जैसे कि दुर्वासा, परशुराम, वाल्मीकि, वशिष्ट, द्रोण, कबीर, ओशो… आदि | ~विशुद्ध चैतन्य https://www.facebook.com/vishuddhablog Advertisements श्रेणियाँ: धर्म-अधर्म व पाखण्ड टिप्पणी करे विशुद्धब्लॉग Powered by WordPress.com. Back to top Advertisements

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