Saturday, 17 March 2018

पूर्ण पुरुष के गुण गुरुगोविंदसिंह

मुख्य मेनू खोलें खोजें 4 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ। किसी अन्य भाषा में पढ़ें गुरु गोबिन्द सिंह दशम सिख गुरु, खालसा के संस्थापक | "दशमेश" यहां पुनर्निर्देश करता है। अन्य के लिए दशमेश (बहुविकल्पी) देखें। गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: २२ दिसम्बर १६६६, मृत्यु: ७ अक्टूबर १७०८) सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। गुरु गोबिन्द सिंह जी ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ जन्म गोबिन्द राय 22 दिसंबर, 1666 पटना बिहार, भारत मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 (उम्र 42) नांदेड़, महाराष्ट्र, भारत पदवी सिखों के दसवें और अंतिम गुरु प्रसिद्धि कारण दसवें सिख गुरु, सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति पूर्वाधिकारी गुरु तेग बहादुर उत्तराधिकारी गुरु ग्रंथ साहिब जीवनसाथी माता जीतो, माता संदरी, माता साहिब दीवान बच्चे अजीत सिंह जुझार सिंह जोरावर सिंह फतेह सिंह माता-पिता गुरु तेग बहादुर, माता गूजरी सिख धर्म पर एक श्रेणी का भाग सिख सतगुरु एवं भक्त सतगुरु नानक देव · सतगुरु अंगद देव सतगुरु अमर दास  · सतगुरु राम दास · सतगुरु अर्जन देव  ·सतगुरु हरि गोबिंद  · सतगुरु हरि राय  · सतगुरु हरि कृष्ण सतगुरु तेग बहादुर  · सतगुरु गोबिंद सिंह भक्त कबीर जी  · शेख फरीद भक्त नामदेव धर्म ग्रंथ आदि ग्रंथ साहिब · दसम ग्रंथ सम्बन्धित विषय गुरमत ·विकार ·गुरू गुरद्वारा · चंडी ·अमृत नितनेम · शब्दकोष लंगर · खंडे बाटे की पाहुल गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सर्वस्वदानी' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म संपादित करें पटना साहिब गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में २२ दिसम्बर १६६६ को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे, वहीं पर अब तखत श्री पटना साहिब स्थित है। १६७० में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मर्च १६७२ में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है। गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे। काश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध शिकायत को लेकर तथा स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण ११ नवम्बर १६७५ को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन २९ मार्च १६७६ को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। १०वें गुरु बनने के बाद भी आपकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा धनुष चलाना आदि सम्मिलित था। १६८४ में उन्होने चंडी दी वार कि रचना की। १६८५ तक आप यमुना नदी के किनारे पाओंटा नामक स्थान पर रहे। गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।[1] आनन्दपुर साहिब को छोड़कर जाना और वापस आना संपादित करें अप्रैल 1685 में, सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया। सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये। मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुऐ| मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा में बहूत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की। <ग्रंथों की सूची > सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया था। विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया। भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये। 1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगज़ेब लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा। खालसा पंथ की स्थापना संपादित करें गुरु गोविन्द सिंह तथा पंज प्यारे(भाई थान सिंह गुरुद्वारा में) गुरु गोबिन्द सिंह मार्ग गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया। सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया। उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा।[2] इधर 27 दिसम्बर सन्‌ 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावतसिंह व फतेहसिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है। 8 मई सन्‌ 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन्‌ 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी। गुरु गोविंदजी के बारे में लाला दौलतराय, जो कि कट्टर आर्य समाजी थे, लिखते हैं 'मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंदसिंह में मिलते हैं।' अतः लाला दौलतराय ने गुरु गोविंदसिंहजी के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक अच्छी पुस्तक लिखी है। इसी प्रकार मुहम्मद अब्दुल लतीफ भी लिखता है कि जब मैं गुरु गोविंदसिंहजी के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ तो मुझे समझ में नहीं आता कि उनके किस पहलू का वर्णन करूँ। वे कभी मुझे महाधिराज नजर आते हैं, कभी महादानी, कभी फकीर नजर आते हैं, कभी वे गुरु नजर आते हैं। सिखों के दस गुरू हैं। एक हत्यारे से युद्ध करते समय गुरु गोबिंद सिंह जी के छाती में दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी। जिसके कारण 18 अक्टूबर, 1708 को 42 वर्ष की आयु में नान्देड में उनकी मृत्यु हो गयी। [3] रचनायें संपादित करें दशम ग्रन्थ की पाण्डुलिपि का प्रथम पत्र। दशम ग्रन्थ में प्राचीन भारत की सन्त-सैनिक परम्परा की कथाएँ हैं। जाप साहिब : एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन अकाल उस्तत: अकाल पुरख की अस्तुति एवं कर्म काण्ड पर भारी चोट बचित्र नाटक : गोबिन्द सिंह की सवाई जीवनी और आत्मिक वंशावली से वर्णित रचना चण्डी चरित्र - ४ रचनाएँ - अरूप-आदि शक्ति चंडी की स्तुति। इसमें चंडी को शरीर औरत एवंम मूर्ती में मानी जाने वाली मान्यताओं को तोड़ा है। चंडी को परमेशर की शक्ति = हुक्म के रूप में दर्शाया है। एक रचना मार्कण्डेय पुराण पर आधारित है। शास्त्र नाम माला : अस्त्र-शस्त्रों के रूप में गुरमत का वर्णन। अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते : बुद्धिओं के चाल चलन के ऊपर विभिन्न कहानियों का संग्रह। ज़फ़रनामा : मुगल शासक औरंगजेब के नाम पत्र। खालसा महिमा : खालसा की परिभाषा और खालसा के कृतित्व। सन्दर्भ संपादित करें ↑ "गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी - उनकी पत्नियाँ ". 1Hindi.com. http://www.1hindi.com/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9-guru-gobind-singh-ji-biography-history-in-hindi/. अभिगमन तिथि: 2006-11-07. ↑ "गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी हिंदी में - खालसा/Khalsa की स्थापना ". 1HINDI. http://www.1hindi.com/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9-guru-gobind-singh-ji-biography-history-in-hindi/. अभिगमन तिथि: 2006-11-07. ↑ "गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी - गुरु गोबिंद सिंह जी की मृत्यु कब हुई थी?". WWW.1HINDI.COM. http://www.1hindi.com/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9-guru-gobind-singh-ji-biography-history-in-hindi/. अभिगमन तिथि: 2006-11-07. इन्हें भी देखें संपादित करें खालसा दशम ग्रन्थ तखत श्री पटना साहिब हजूर साहिब (नान्देड) बाहरी कड़ियाँ संपादित करें एक विलक्षण व्यक्तित्व (सरदार गुरचरन सिंह गिल) श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी - ६ गुरुओं, ३० संतों एवं ३ गुरुघर के श्रद्धालुओ की बाणी का संग्रह संत सिपाही थे गुरु गोबिन्द सिंह संवाद Last edited 3 months ago by संजीव कुमार RELATED PAGES दसम ग्रंथ ख़ालसा पंज प्यारे सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

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