Friday 23 March 2018

पंचकोश साधना

पंचकोश साधना इस ब्लॉग का उद्देश्य पंचकोश साधना में रूचि कहने वाले सभी मित्रों के साथ साधना सम्बन्धी चर्चा करना एवम इस महान साधना का विश्व के प्रत्येक कोने तक प्रसार करना है। यह साधना पूर्णतः निःशुल्क और जाति धर्म उम्र की परिधि से ऊपर उठकर मनुष्य में देवत्व का अवतरण करती है। ▼ 4 विज्ञानमय कोश अन्नमय ,प्राणमय और मनोमय इन तीन कोशों के उपरांत आत्मा का चौथा आवरण,गायत्री का चौथा मुख विज्ञानमय कोश है।आत्मोन्नति की चतुर्थ भूमिका में  विज्ञानमय कोश की साधना की जाती है।विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान।साधारण ज्ञान द्वारा हम लोकव्यवहार को,अपनी शारीरिक,व्यापारिक,सामाजिक,कलात्मक,धार्मिक। समस्याओं को समझते हैं। स्थूल में इसी साधारण ज्ञान की शिक्षा मिलती है।राजनीति,अर्थशास्त्र,शिल्प, रसायन,चिकित्सा,संगीत,वक्तृत्व,   लेखन, व्यवसाय,कृषि,निर्माण,उत्पादन,आदि विविध बातों की जानकारी विविध प्रकार से की जाती है।इन जानकारियों के आधार पर शरीर से सम्बन्ध रखने वाला सांसारिक जीवन चलता है।जिसके पास यह जानकारियाँ जितनी अधिक होंगी,जो लोक व्यवहार में जितना अधिक प्रवीण होगा,उतना ही उसका सांसारिक जीवन उन्नत,यशस्वी,प्रतिष्ठित,सम्पन्न एवं ऐश्वर्यवान होगा। किन्तु इस साधारण ज्ञान का परिणाम स्थूल शरीर तक ही सीमित है।आत्मा का उससे कुछ हितसाधन नहीं हो सकता।देखा जाता है कि कई व्यक्ति धनवान,प्रतिष्ठित,नेता और गुणवान होते हुए भी आत्मिक दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं। कई कई मनुष्य आत्मा -परमात्मा के बारे में बहुत बातें करतेहैं।ईश्वर,जीव,प्रकृति,वेदांत,योग आदि के बारे में बहुत सी बातें पढ़ सुनकर अपनी जानकारी बढ़ा लेते हैं तथा साथियों पर अपनी विशेषता की छाप जमाते हैं।इतना करते हुए भी वस्तुतः उनकी आत्मिक धारणाएं बड़ी निर्बल होती हैं।श्रद्धा और विश्वास की दृष्टि से उनकी स्थिति साधारण लोगों से कुछ अच्छी नहीं होती। गीता,उपनिषद्,रामायण,वेदशास्त्र आदि सद्ग्रन्थों के पढ़ने एवं सत्पुरुषों के प्रवचन सुनने से आत्मिक विषयों की जानकारी बढ़ती है।जो उस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले जिज्ञासुओं के लिए आवश्यक भी है।परन्तु इन विषयों की विस्तृत जानकारी प्राप्त होने पर भी यह आवश्यक नहीं कि उस व्यक्ति को आत्मज्ञान हो ही जाए।इसमें तो सन्देह नहीं कि शिक्षा प्राप्त करना,भाषा ज्ञान,शास्त्राध्ययन आदि जीवन के विकास के लिए आवश्यक है और इनके द्वारा आध्यात्मिक प्रगति में भी सहायता मिलती है।प्रत्येक व्यक्ति कबीर,रैदास और तुकाराम की तरह सामान्य प्रेरणा पाकर ही आत्मज्ञानी नहीं बन सकता ,पर वर्तमान समय में लोगों ने भौतिक जीवन को इतना अधिक महत्व दे दिया है,धनोपार्जन को वे इतना सर्वोपरि गुण मानते हैं कि अध्यात्म की ओर उनकी दृष्टि ही नहीं जाती,उल्टा वे उसे अनावश्यक समझने लग जाते हैं। भृगु पूर्ण विद्वान थे,वेद-वेदान्तों के पूरे ज्ञाता थे।फिर भी जानते थे कि मुझे आत्मज्ञान,ब्रह्मज्ञान,विज्ञान प्राप्त नहीं है,इसलिए वरुण के पास जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि 'हे भगवन् !मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दीजिए।'वरुण ने भृगु को कोई पुस्तक नहीं पढ़ाई और न कोई लम्बा चौड़ा प्रवचन ही सुनाया।वरन् उन्होंने आदेश दिया कि -'तप करो'।तप करने से एक एक कोश को पार करते हुए क्रमशः उन्होंने ब्रह्म को प्राप्त किया।ऐसी ही अनेक कथाएँ हैं।उद्दालक ने श्वेतकेतु को,ब्रह्मा ने इन्द्र को,अंगिरा ने विवस्वान को इसी प्रकार तप करके ब्रह्म को जानने का आदेश किया था। ज्ञान का। अभिप्राय है जानकारी।विज्ञान का अभिप्राय है श्रद्धा,धारणा,मान्यता,अनुभूति।आत्मविद्या के सभी जिज्ञासु यह जानते हैं कि "आत्मा अमर है,शरीर से भिन्न है,ईश्वर का अंश है,सच्चिदानंद स्वरूप है" परन्तु इस जानकारी का एक कण भी अनुभूति भूमिका में नहीं होता।स्वयं को तथा दूसरों को मरते देख कर हृदय विचलित हो जाता है।शरीर के लाभों के लिए आत्मा के लाभों की उपेक्षा  प्रतिक्षण होती रहती है । दीनता,अभाव,तृष्णा,लालसा हर घड़ी सताती रहती है।तब कैसे कहा जाए कि आत्मा की अमरता,शरीर की भिन्नता तथा ईश्वर के अंश होने की मान्यता पर हमें श्रद्धा है,आस्था,विश्वास है। अपने सम्बन्ध में तात्विक मान्यता स्थिर करना और उसका पूर्णतया अनुभव करना यही विज्ञान का उद्देश्य है।आमतौर से लोग अपने को शरीर मानते हैं,स्थूल शरीर से जैसे हम हैं,वही उनकी आत्म मान्यता है।जाति, वंश,प्रदेश,संप्रदाय,व्यवसाय, पद ,विद्या,धन,आयु स्थिति,लिंग आदि के आधार पर वह मान्यता बनाई जाती है कि मैं कौन हूँ? यह प्रश्न पूछने पर कि 'आप कौन हैं ' लोग इन्हीं बातों के आधार पर अपना परिचय देते हैं ।अपने को समझते भी वे यही हैं।इस मान्यता के आधार पर ही अपने स्वार्थों का निर्धारण होता है।जिस स्थिति में स्वयं हैं उसी स्थिति का अहंकार अपने में जाग्रत् होता है और स्थिति तथा अहंकार की पूर्ति,तुष्टि तथा संतुष्टि जिस प्रकार होनी सम्भव दिखाई पड़ती है,वही जीवन की अंतरंग नीति बन जाती है । बाहर से लोग धर्म और सदाचार की,सिद्धांतों और आदर्शों की बातें करते रहते हैं,पर उनका अंत:करण उसी दिशा में कार्य करता है,जिस ओर उनकी अंतरंग जीवन नीति प्रेरणा देती है।जब अपने को शरीर मान लिया गया है,तो शरीर का सुख ही। अभीष्ट होना चाहिए।इन्द्रिय भोगों की, मौज मजे की,मान बढ़ाई की,ऐश आराम की प्राप्ति ही शरीर का सुख है,इन सुखों के लिए धन की आवश्यकता है।अस्तु,धन को अधिक से अधिक जुटाना और भोग ऐश्वर्य में निमग्न रहना यही प्रधान कार्यक्रम हो जाता है।इसके अतिरिक्त जो किया जाता है,वह तो एक प्रकार की तफरीह के लिए,विनोद के लिए होता है।ऐसे लोग कभी कभी धर्म चर्चा या पूजा पाठ भी करते देखे जाते हैं ।यह उनका मन बहलाव मात्र है।स्थिर लक्ष्य तो उनका वही रहेगा,जो आत्ममान्यता के आधार पर निर्धारित किया गया है।आमतौर से आज यही भौतिक दृष्टि सर्वत्र दृष्टिगोचर है।धन और भोग की छीना झपटी में लोग एकदूसरे से बाजी मारने में इसी दृष्टिकोण के कारण जी जान से जुटे हुए हैं।परिणामस्वरूप जिन कलह क्लेशों का  सामना करना पड़ रहा है वह सामने है। विज्ञान इस अज्ञान रूपी अंधकार से हमें बचाता है ।जिस मनोभूमि में पहुँच कर जीव यह अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं वस्तुतः"आत्मा ही हूँ" उस मनोभूमि को विज्ञानमय कोश कहते हैं।अन्नमय कोश में जब तक जीव की स्थिति रहती है,तब तक वह अपने को स्त्री -पुरुष,मनुष्य,पशु, मोटा -पतला,पहलवान, काला,गोरा आदि शरीर सम्बन्धी भेदों से पहचानता है।जब प्राणमय कोश में जीव की स्थिति होती है तो,गुणों के आधार पर अपनत्व का बोध होता है। शिल्पी,संगीतज्ञ,वैज्ञानिक,मूर्ख,कायर,शूरवीर,लेखक,वक्ता,धनी गरीब आदि की मान्यताएं प्राण भूमिका में होती हैं।मनोमय कोश की स्थिति में पहुँचने पर अपने मन की मान्यता स्वभाव के आधार पर होती है। लोभी,दम्भी,चोर,उदार,विषयी,संयमी,नास्तिक,आस्तिक,स्वार्थी,परमार्थी,दयालु,निष्ठुर आदि कर्तव्य और धर्म की औचित्य -अनौचित्य सम्बन्धी मान्यताएं जब अपने सम्बन्ध में बनती हों ,उन्हींपर विशेष ध्यान रहता हो तो समझना चाहिए कि जीव मनोमय भूमिका की तीसरी कक्षा में पहुंचा हुआ है।इससे चौथी कक्षा विज्ञान भूमिका है,जिसमें पहुँचकर जीव अपने को यह अनुभव करने लगता है कि मैं शरीर से,गुणों से,स्वभाव से ऊपर हूँ,मैं ईश्वर का राजकुमार ,अविनाशी आत्मा हूँ। जीभ से अपने को आत्मा कहने वाले असंख्य लोग हैं,उन्हें आत्मज्ञानी नहीं कह सकते।आत्मज्ञानी वह है,जो दृढ़ विश्वास और पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने भीतर यह अनुभव करता है कि  "मैं विशुद्ध हूँ,आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं।"शरीर मेरा वाहन है।प्राण मेरा अस्त्र है।मन मेरा सेवक है।मैं इन सबसे ऊपर,इन सबका स्वामी आत्मा हूँ।मेरे स्वार्थ इनसे अलग हैं,मेरे लाभ और स्थूल शरीर के लाभों में,स्वार्थों में भारी अंतर है।इस अन्तर को समझ कर जीव अपने लाभ,स्वार्थ,हित और कल्याण के लिए कटिबद्ध होता है,आत्मोन्नति के लिए अग्रसर होता है,तो उसे अपना स्वरूप और भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है। विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुंचे हुए जीव का दृष्टिकोण सांसारिक जीवों से भिन्न होता है।गीता में योगी का लक्षण बताया गया है कि जब सब जीव होते हैं। ,तब योगी जागता है और जब सब जीव जागते हैं,तब योगी सो जाता है।इन आलंकारिक शब्दों में रात को जागने और। दिन में सोने का विधान  नहीं है।वरन् यह बताया गया है कि जिन चीज़ों के लिए साधारण लोग बेतरहइच्छुक,प्यासे, लालायित, सतृष्ण और आकांक्षी रहते हैं,योगी का मन उधर से फिर जाता है;क्योंकि वह देखता है कि कामिनी और कंचन की माया शरीर को गुदगुदाती है, पर आत्मा को ले बैठती है।इससे क्षणिक सुख के लिए स्थिर आनंद का नाश करना उचित नहीं है।जिन धन-संतान,कुटुम्ब -कबीला,शत्रु -मित्र,हानि -लाभ,आगा-पीछा,निन्दा -स्तुति आदि की समस्याओं में साधारण लोग बेतरह फंसे रहते हैं,ये बातें योगी के लिए अबोध बच्चों की 'बालक्रीड़ा' अधिक कुछ भी महत्व की दिखाई नहीं देती।इसलिए वे उनकी ओर से उदासीन हो जाते हैं।वे इस झमेले को बहुत कम महत्व देते हैं।फलस्वरूप ये समस्याएं उनके लिए अपने आप सुलझ जाती हैं या समाप्त हो जाती हैं। जिन कार्यों में,विचारों में,कामी लोग, मायाग्रस्त व्यक्ति अत्यंत मोहग्रस्त होकर चिपके रहते हैं,उनकी ओर से योगी मुँह फेर लेते हैं।इस प्रकार वह वहाँ सोया हुआ माना जाता है,जहाँ कि अन्य जीव जागते हैं।इसी प्रकार जिन कार्यों की ओर संयम,त्याग,परमार्थ,आत्मलाभ की ओर सांसारिक जीवों का बिल्कुल ध्यान नहीं होता,उनमें योगी दत्तचित्त होकर संलग्न रहता है।इस स्थिति के बारे में ही गीता में कहा गया है कि जब जीव होते हैं ,तब योगी जागता है। शरीर यात्रा के लिए प्रायः सभी मनुष्यों को मिलता -जुलता कार्यक्रम रखना पड़ता है,पर योगी और भोगी के जीवन तथा रीति में भारी अंतर होता है।प्रायः सभी लोग तड़के,नित्य कर्म से निवृत्त होते और भोजन करके काम में लगते हैं।शाम तक जो श्रम करना पड़ता है,उसमें से अधिकांश समय ,अन्न,वस्त्र,जीवन आश्रितों की व्यवस्था में लग जाता है।शाम को फिर नित्य कर्म,भोजन और रात को सो जाना।इस धुरी पर सबका जीवन घूमता है,परन्तु अंत:स्थिति में जमीन आसमान का भेद है।एक मनुष्य अपने शरीर के सुख के लिए धन और भोग इकट्ठे करने की योजना सामने रखकर अपने हर विचार और कार्य को करता है,जबकि दूसरा अपने को आत्मा समझकर,आत्म-कल्याण की नीति पर चलता है,तो ये विभिन्न दृष्टिकोण ही एक के कामों को पुण्य एवं यज्ञ बना देते हैं और दूसरे के काम पाप एवं बन्धन बन जाते हैं। आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार ,आत्मलाभ,आत्मप्राप्ति,आत्मदर्शन,आत्मकल्याण को जीवन -लक्ष्य माना गया है।यह लक्ष्य तभी पूरा होता है,जब हमारी अन्त:चेतना अपने बारे में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास भावना के साथ यह अनुभव करे कि मैं वस्तुतः परब्रह्म परमात्मा का अविच्छिन्न अंश,अविनाशी -आत्मा हूँ।इस भावना की पूर्णता,परिपक्वता एवं सफलता का नाम ही आत्मसाक्षात्कार है। आत्मसाक्षात्कार की चार साधनाएँ नीचे दी जाती हैं, १- सोSहं साधना,२-आत्मानुभूति, ३-स्वर संयम,४-ग्रन्थि-भेद।यह चारों ही विज्ञानमय कोश को प्रबुद्ध करने वाली हैं। सोऽहम् साधना आत्मा के सूक्ष्म अन्तराल में अपने आप के  सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान मौजूद है। वह अपनी स्थिति की  घोषणा प्रत्येक क्षण करती रहती है ताकि बुद्धि भ्रमित न  हो और अपने स्वरूप को न भूले। थोड़ा-सा ध्यान देने  पर आत्मा की इस घोषणा को हम स्पष्ट रूप से सुन  सकते हैं। उस ध्वनि पर निरन्तर ध्यान दिया जाय तो  उस घोषणा के करने वाले अमृत भण्डार आत्मा तक भी  पहुँचा जा सकता है। जब एक साँस लेते हैं तो वायु प्रवेश के साथ-साथ  एक सूक्ष्म ध्वनि होती है जिसका शब्द “सो ो ो ो ो ''  जैसा होता है। जितनी देर साँस भीतर ठहरती है अर्थात् स्वाभाविक कुंभक होता है उतनी देर आधे 'ऽऽऽऽ' की सी  विराम ध्वनि होती है और जब साँस बाहर निकलती है तो  '' हं...... '' जैसी ध्वनि निकलती है। इन तीनों ध्वनियों  पर ध्यान केन्द्रित करने से, अजपा-जाप की 'सोऽहम् ''  साधना होने लगती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व नित्यकर्म से निबट कर  पूर्व को मुख करके किसी शान्त स्थान पर बैठिये। मेरुदण्ड सीधा रहे। दोनों हाथों को समेट कर गोदी में रख लीजिए नेत्र बन्द कर रखिये। जब नासिका द्वारा वायु  भीतर प्रवेश करने लगे, तो सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को सजग  करके ध्यानपूर्वक अवलोकन कीजिए कि वायु के  साथ-साथ ‘सो' की सूक्ष्म ध्वनि हो रही है। इसी प्रकार  जितनी देर सांस रुके 'अ ' और वायु निकलते समय ‘ हं '  की ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित कीजिये। साथ ही हृदय  स्थिति सूर्य-चक्र के प्रकाश बिन्दु में आत्मा के तेजोमय  स्फुल्लिंग की श्रद्धा कीजिए। जब साँस भीतर जा रही हो  और 'सो' की ध्वनि हो रही हो तब अनुभव कीजिए कि  यह तेज बिन्दु परमात्मा का प्रकाश है 'स' अर्थात् परमात्मा  'ऽहम् '' अर्थात्- मैं। जब वायु बाहर निकलने और ‘हं’ की  ध्वनि हो तब उसी प्रकाश बिन्दु में भावना कीजिए कि  यह मैं हूँ।'' सोऽहम् साधना में 'अ' की विराम भावना परिवर्तन  के अवकाश का प्रतीक है। आरम्भ में उस हृदय-चक्र स्थिति बिन्दु को ‘सो' ध्वनि के समय ब्रह्म माना जाता है  और पीछे उसी की 'हं' धारणा में जीव भावना हो जाती  हैं। बस भाव परिवर्तन के लिए 'अ' का अवकाश काल  रखा गया है इसी प्रकार जब 'हं' समाप्त हो जाय, वायु  बाहर निकल जाय और नया वायु प्रवेश करे उस समय  भी दीन-भाव हटाकर उस तेज बिन्दु में ब्रह्म भाव बदलने  का अवकाश मिल जाता है। वह दोनों ही अवकाश 'अऽऽ  ऽ' के समान हैं, इनकी ध्वनि सुनाई नहीं देती। शब्द  तो सो'ऽहं'  का ही होता है। ‘सो' ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब है। 'ऽ' प्रकृति का  प्रतिनिधि है। 'हं' जीव का प्रतीक हैं। ब्रह्म, प्रकृति और  जीव का सम्मिलन इस अजपा-जाप में होता है। सोऽहम्-  साधना में तीनों महाकारण एकत्रित हो जाते हैं, जिनके  कारण आत्म-जागरण का स्वर्ण सुयोग एक साथ ही  उपलब्ध होने लगता है। सोहम्' साधना की उन्नति जैसे-जैसे होती जाती है  वैसे ही वैसे विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता जाता है।  आत्म-ज्ञान बढ़ता है और धीरे-धीरे आत्म साक्षात्कार की स्थिति निकट आती चलती है। आगे चलकर साँस पर  ध्यान जमाना छूट जाता है और केवल मात्र हृदय स्थित  सूर्य-चक्र में विशुद्ध ब्रह्म तेज के ही दर्शन होते हैं।  उस समय समाधि की सी अवस्था हो जाती है। हंस योग  की परिपक्वता से साधक ब्राह्मी स्थिति का अधिकारी हो  जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने विज्ञानमय कोश की  साधना के लिए ''आत्मानुभूति'' की विधि बताई है।  उनके अमेरिकन शिष्य रामाचरक ने इस विधि को  ‘मेण्टल डेवलपमेण्ट ' नामक पुस्तक में विस्तारपूर्वक  लिखा है। आत्मानुभूति योग १- किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइये।  निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिए  चुनना चाहिए। इस प्रकार का एक स्थान घर का स्वच्छ  हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा  उपवन भी। हाथ-मुँह धोकर साधना के लिए बैठना  चाहिए। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार, वृक्ष या मसनद  के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है। सुविधापूर्वक बैठ जाइये तीन लम्बे-लम्बे श्वाँस लीजिए। पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर  निकालना और फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा श्वाँस  कहलाता है। तीन पूरे श्वाँस लेने से हृदय और फुफ्फुस  की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है। जै स्नान  करने, हाथ पाँव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है तीन पूरे साँस लेने के बाद शरीर को शिथिल  कीजिए और हर अंग में से खिंचकर प्राणशक्ति हृदय में  एकत्रित हो रही है, ऐसा ध्यान कीजिए। हाथ, पाँव आदि  सभी अंग प्रत्यंग शिथिल, ढीले, निर्जीव, निष्प्राण हो गये हैं  ऐसी भावना करनी चाहिए। ''मस्तिष्क से जब विचार-  धारायें और कल्पनायें शान्त हो गयी हैं और समस्त शरीर  के अन्दर एक शान्त नीला आकाश व्याप्त हो रहा है।''  ऐसी शान्त, शिथिल अवस्था को प्राप्त करने के लिए  कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से  कुछ दिन में अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव  होती जाती है। शरीर भली प्रकार शिथिल हो जाने पर हृदय स्थान  में एकत्रित अँगूठे के बराबर, शुभ् श्वेत ज्योति-स्वरूप,-  प्राण शक्ति का ध्यान करना चाहिए। ''अजर, अमर,  शुद्ध, बुद्ध, चेतन, पवित्र ईश्वरीय अंश आत्मा मैं हूँ।  मेरा वास्तविक स्वरूप यही है, मैं सत् चित्त आनन्द-स्वरूप आत्मा हूँ।'' उस ज्योति के कल्पना नेत्रों से दर्शन करते  हुए उपरोक्त भावनायें मन में रखनी चाहिए। २- उपरोक्त शिथिलासन के साथ आत्म दर्शन  करने की साधना इस योग में प्रथक साधना है। जब यह  साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाय तो आगे की सीढ़ी  पर पैर रखना चाहिए। दूसरी भूमिका में साधना का  अभ्यास नीचे दिया जाता है। ३- ऊपर लिखी हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश  में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए। उस आकाश में  बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति-स्वरूप आत्मा को  अवस्थित देखिये। ''मैं ही यह प्रकाशवान आत्मा हूँ''- ऐसा  निश्चय संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर  निस्पन्द अवस्था में पड़ा हुआ देखिये, उसके अंग-प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। यह हर एक कल पुर्जा  मेरा औजार है, मेरा वस्त्र है। यह यन्त्र मेरी इच्छानुसार  क्रिया करने के लिये प्राप्त हुआ है। इस बात को बार-बार मन में दुहराइये। इस निस्पन्द शरीर में खोपड़ी का  ढक्कन उठाकर ध्यानावस्था से मन और बुद्धि को दो  सेवक शक्तियों के रूप में देखिये। वे दोनों हाथ बाँधे  आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े  हैं। बस शरीर और मन बुद्धि को देखकर प्रसन्न हूजिए  कि इच्छानुसार कार्य करने के लिये यह मुझे प्राप्त हुए  हैं। मैं उनका उपयोग सच्चे आत्म- स्वार्थ के लिए ही  करूँगा, यह भावनायें बराबर उस ध्यानावस्था में आपके  मन में गूँजती रहनी चाहिए। ४- जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने  लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए। अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में  अवस्थित देखिये ''मैं समस्त भूमण्डल पर अपनी प्रकाश  किरणें फेंक रहा हूँ। संसार मेरा कर्म-क्षेत्र और लीलाभूमि  है, भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को में इच्छित  प्रयोजनों के लिये काम में लाता हूँ पर वे मेरे ऊपर प्रभाव  नहीं डाल सकतीं। पंचभूतों की गतिविधि के कारण जो  हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद  और मनोरंजक दृश्य मात्र हैं, मैं किसी भी सांसारिक  हानि-लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध, चैतन्य, सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूँ। मैं आत्मा हूँ महान् आत्मा हूँ। महान् परमात्मा का विशुद्ध स्फुर्लिंग हूँ। '' यह मन्त्र मन ही मन जपिये। तीसरी भूमिका का ध्यान जब अभ्यास के कारण  पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय और हर घडी़ वह भावना  रोम-रोम में प्रतिभासित होने लगे तो समझना चाहिए कि  इस साधना की सिद्धावस्था प्रान्त हो गई, यह जागृत  समाधि या जीवन-मुक्त अवस्था कहलाती हैं। आत्म- चिन्तन की साधना रात को सब कार्यों से निवृत्त होकर जब सोने का  समय हो तो सीधे चित्त लेट जाइये। पैर सीधे फैला  दीजिए, हाथों को मोड़कर पेट पर रख लीजिए। सिर  सीधा रहे। पास में दीपक जल रहा हो तो बुझा दीजिए या  मन्द कर दीजिए। नेत्रों को अधखुला रखिए।  अनुभव कीजिए कि आपका आज का एक दिन एक  जीवन था। अब जबकि एक दिन समाप्त हो रहा है तो  एक जीवन की इतिश्री हो रही है। निद्रा एक मृत्यु है।  अब इस घड़ी में एक दैनिक जीवन को समाप्त करके  मृत्यु की गोद में जा रहा हूँ। आज के जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि से  समालोचना कीजिए। प्रातःकाल से लेकर सोते समय  तक के कार्यों पर दृष्टिपात कीजिए। मुझ आत्मा के लिए  वह कार्य उचित था या अनुचित ? यह उचित था तो  जितनी सावधानी एवं शक्ति के साथ उसे करना चाहिए  था उसके अनुसार किया या नहीं ? बहुमूल्य समय का  कितना भाग उचित रीति से, कितना अनुचित रीति से,  कितना निरर्थक रीति से व्यतीत किया ? वह दैनिक  जीवन सफल रहा या असफल ? आत्मिक पूँजी में लाभ  हुआ या घाटा ? सद्वृतियाँ प्रधान रही या असद्वृत्तियाँ ?  इस प्रकार के प्रश्नों के साथ दिनभर के कार्यों का भी  निरीक्षण कीजिए। जितना अनुचित हुआ हो उसके लिए आत्म-देव के  सम्मुख पश्चाताप है। जो उचित हुआ हो उसके लिए  परमात्मा को धन्यवाद दीजिए और प्रार्थना कीजिए कि  आगामी जीवन में, कल के जीवन में, उस दिशा में विशेष  रूप से अग्रसर करें। इसके पश्चात् शुभ वर्ण आत्म-ज्योति का ध्यान करते हुए निद्रा देवी की गोद में सुखपूर्वक चले  जाइये। दूसरी साधना प्रातःकाल जब नींद पूरी तरह खुल जाय तो अँगड़ाई  लीजिए। तीन पूरे लम्बे साँस खींचकर सचेत हो जाइये। भावना कीजिए कि आज नया जीवन ग्रहण कर रहा  हूँ। नया जन्म धारण करता हूँ। इस जन्म को इस  प्रकार खर्च करूँगा कि आत्मिक पूँजी में अभिवृद्धि हो। कल के दिन पिछले दिन जो भूलें हुई थी, आत्म-देव के  सामने जो पश्चाताप किया था, उसका ध्यान रखता हुआ  आज के दिन का अधिक उत्तमता के साथ उपयोग  करूँगा। दिन भर के कार्यक्रम की योजना बनाइये। इन  कार्यों में जो खतरा सामने आने को है उसे विचारिये और  उससे बचने के लिए सावधान हो जाइये। उन कार्यों से  जो आत्म-लाभ होने वाला है वह अधिक हो, इसके लिए  और तैयारी कीजिए। यह जन्म, यह दिन, पिछले की  अपेक्षा अधिक सफल हो, यह चुनौती अपने आपको दीजिए  और उसे साहसपूर्वक स्वीकार कर लीजिए।         परमात्मा का ध्यान कीजिए और प्रसन्न मुद्रा में  एक चैतन्य ताजगी उत्साह, आशा एवं आत्म विश्वास की  भावनाओं के साथ उठकर शैय्या का परित्याग कीजिए।  शैय्या के नीचे पैर रखना मानो आज के नव जीवन में  प्रवेश करना है। इस आत्म-चिन्तन की साधना से दिन-दिन शरीराभ्यास घटने लगता है। शरीर को लक्ष्य करके किए  जाने वाले विचार और कार्य शिथिल होने लगते हैं तथा  विचाराधारा एवं कार्य प्रणाली समुन्नत होती हैं, जिसके  द्वारा आत्म-लाभ के लिए अनेक प्रकार के पुण्य आयोजन  होते हैं। स्वर योग विज्ञानमय कोश, वायु प्रधान कोश होने के कारण  उसकी स्थिति में वायु संस्थान विशेष रूप से सजग रहता  है। इस वायु तत्व पर यदि अधिकार प्राप्त कर लिया  जाय तो अनेक प्रकार से अपना हित सम्पादन किया जा  सकता है। स्वर शास्त्र के अनुसार श्वाँस-प्रश्वाँस के मार्गों को  नाडी़ कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या ७२००  है। इनको नसें न समझना चाहिए स्पष्टतः यह  प्राण-वायु आवागमन के मार्ग हैं। नाभि में इसी प्रकार की  एक नाड़ी कुण्डली के आकार में है। जिसमें से १- इड़ा,  २- पिंगला ३- सुषुम्ना ४- गंधारी, ५- हस्त-जिह्वा ६- पूषा,  ७- यशश्विनी, ८- अलंबुषा, १ - कुहू तथा १०- शंखिनी  नामक दस नाड़ियाँ निकली हैं और यह शरीर के विभिन्न  भागों की ओर चली जाती हैं। इनमें से पहली तीन प्रधान  हैं। इड़ा को चन्द्र' कहते हैं जो बाँये नथुने में है। पिंगला  को सूर्य' कहते हैं, यह दाहिने नथुने में है। सुषुम्ना को  वायु कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य में है। जिस प्रकार  संसार में सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से अपना-अपना काम करते हैं उसी प्रकार इड़ा, पिंगला भी इस जीवन में  अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। इन तीनों  के अतिरिक्त अन्य सात प्रमुख नाड़ियों के स्थान इस  प्रकार हैं- गंधारी नाक में, हस्त-जिह्वा दाहिनी आँख में,  पूषा दाहिने कान में, यशश्विनी बाँये कान में, अलम्बुषा  मुख में, कुहू लिंग देश में और शंखिनी गुदा में। इस प्रकार  शरीर के दस द्वारों में दस नाड़ियाँ हैं। हठयोग में नाभिकन्द अर्थात् कुण्डलिनी स्थान गुदा  द्वार से लिंग देश की ओर दो अँगुल हटकर मूलाधार चक्र  माना गया है। स्वर योग से वह स्थिति माननीय न  होगी। स्वर योग शरीर शास्त्र से सम्बन्ध रखता है और  शरीर की नाभि या मध्य केन्द्र गुदा-मूल में नहीं वरन्  उदर की टुण्डी में ही हो सकता है। इसलिए यहाँ नाभि  देश का तात्पर्य उदर की टुण्डी मानना ही ठीक है। श्वाँस  क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उदर से ही है। इसलिए  प्राणायाम द्वारा उदर घर्षण संस्थान तक प्राण वायु को ले  जाकर नाभि केन्द्र से इस प्रकार घर्षण किया जाता है वहाँ  की सुप्त शक्तियों का जागरण हो सके। चन्द्र और सूर्य की अदृश्य रश्मियों का प्रभाव स्वरों  पर पड़ता है। सब जानते हैं कि चन्द्रमा का गुण शीतल  और सूर्य का ऊष्ण है। शीतलता से स्थिरता, गम्भीरता,  विवेक, प्रवृत्ति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से तेज,  शौर्य, चञ्चलता, उत्साह, क्रियाशीलता, बल आदि गुणों का  आविर्भाव होता है। मनुष्य को सांसारिक जीवन में  शान्तिपूर्ण और अशान्तिपूर्ण दोनों ही तरह से काम पड़ते  हैं। किसी भी काम का अन्तिम परिणाम उसके आरम्भ पर  निर्भर है। इसलिए विवेकी पुरुष अपने कमी को आरम्भ  करते समय यह देख लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की  स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार काम करने के अनुकूल है  कि नहीं ? एक विद्यार्थी को रात में उस समय पाठ याद  करने के लिए दिया जाय जब कि उसकी स्वाभाविक  स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद  न कर सकेगा। यदि यही पाठ उसे प्रातःकाल की अनुकूल  स्थिति में दिया जाय तो आसानी से सफलता मिल जायेगी।  ध्यान, भजन- पूजा, मनन, चिन्तन के लिए एकान्त की  आवश्यकता है, किन्तु उत्साह भरने और युद्ध के लिए  कोलाहलपूर्ण वातावरण की, बाजों की घोर ध्वनि की  आवश्यकता होती है। ऐसी उचित स्थितियों में किये कार्य  अवश्य ही फलीभूत होते हैं। दृष्टिकोण के आधार पर  स्वर-योगियों ने आदेश किया है कि विवेकपूर्ण और स्थायी  कार्य चन्द्र स्वर में किए जाने चाहिए जैसे- विवाह, दान,  मन्दिर, कुआँ, तालाब बनाना, नवीन वस्त्र धारण   करना, घर बनाना, आभूषण बनबाना, शान्ति के काम  पुष्टि के काम, शफाखाना, ओषधि देना, रसायन बनाना  मैत्री व्यापार, बीज बोना, दूर की यात्रा, विद्यारम्भ धर्म,  यज्ञ, दीक्षा, मन्त्र, विद्याभ्यास, क्रिया, आदि। यह सब  कार्य ऐसे हैं जिनमें अधिक गम्भीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य  करने की आवश्यकता है, इसलिए इनका आरम्भ भी ऐसे  ही समय में होना चाहिए जब शरीर के सूक्ष्म कोश  चन्द्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहे हों। स्वर बदलना कुछ विशेष कार्यों के सम्बन्ध में स्वर शास्त्रज्ञों के  जो अनुभव हैं उनकी जानकारी सर्वसाधारण के लिए  बहुत ही सुविधाजनक होगी। बताया गया है कि प्रस्थान  करते समय चलित स्वर के शरीर भाग को हाथ से स्पर्श  करके उस चलित स्वर वाले कदम को आगे बढ़ाकर (यदि  चन्द्र नाड़ी चलती है तो ४ बार और सूर्य-स्वर है तो ५  बार उसी पैर को जमीन पर पटक कर) प्रस्थान करना  चाहिए। यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो  अचलित स्वर (जो स्वर न चल रहा हो) के पैर को पहले  आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए और अचलित स्वर  की ओर उस पुरुष को करके बातचीत करनी चाहिए।  इसी रीति से उसकी बढ़ी हुई उष्णता को अपना अचलित  स्वर की ओर का शान्त भाग अपनी आकर्षण विद्युत को  खींचकर शान्त बना देगा और मनोरथ में सिद्धि प्राप्त  होगी। गुरु, मित्र, अफसर, राजदरबार से जबकि बाम  स्वर चलित हो तब वार्तालाप या कार्यारम्भ करना  ठीक है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब कार्य अत्यन्त ही  आवश्यक हो सकता है किन्तु उस समय स्वर विपरीत  चलता है। तब क्या उस कार्य के किए बिना ही बैठा  रहना चाहिए ? नहीं ऐसा करने की जरूरत नहीं है।  जिस प्रकार जब रात को निद्रा आती है किन्तु उस समय  कुछ कार्य करना आवश्यक होता है तब चाय आदि किसी  उत्तेजक पदार्थ की सहायता से शरीर को चैतन्य करते हैं,  उसी प्रकार हम कुछ उपायों द्वारा स्वर को बदल भी  सकते है। नीचे कुछ ऐसे नियम लिखे जाते हैं। १- जो स्वर नही़ चल रहा उसे अँगूठे से दबायें और  जिस नथुने से साँस चलती है उससे हवा खीचें, फिर  जिससे श्वाँस खींची है उसे दबाकर पहले नथुने से यानी  जिस स्वर को चलाना है, उससे श्वाँस छोड़ें। इस प्रकार  कुछ देर तक बार-बार करें। श्वाँस की चाल बदल  जायेगी। २- जिस नथुने से श्वाँस चल रहा हो, उसी करवट  से लेट जावें, तो स्वर बदल जावेगा। इस प्रयोग के साथ  पहला प्रयोग करने से स्वर और भी शीघ्र बदलता है। ३- जिस तरफ का स्वर चल रहा हो, उस ओर की  काँख (बगल) में कोई सख्त चीज कुछ देर दबाकर रखो  तो स्वर बदल जाता है। पहले और दूसरे प्रयोग के साथ  यह प्रयोग भी करने से शीघ्रता होती है। ४- घी खाने से बाम स्वर और शहद खाने से  दक्षिण स्वर चलना कहा जाता है। ५- चलित स्वर में पुरानी स्वच्छ रुई का फाया  रखने से स्वर बदलता है। बहुधा जिस प्रकार बीमारी की दशा में शरीर को  रोग-मुक्त करने के लिए चिकित्सा की जाती है उसी  प्रकार स्वर को ठीक अवस्था में लाने के लिए इन उपायों  को काम में लाना चाहिए। स्वर-संयम से दीर्घ जीवन प्रत्येक प्राणी का पूर्ण आयु प्राप्त करना दीर्घ जीवी  होना उसकी श्वाँस क्रिया पर अवलम्बित है। पूर्व कमी के  अनुसार जीवित रहने के लिए परमात्मा एक नियत संख्या  में श्वाँस प्रदान करता है, वह श्वाँस समाप्त होने पर  प्राणान्त हो जाता है। इस खजाने को जो प्राणी जितनी  होशियारी से खर्च करेगा, वह उतने ही अधिक काल तक  जीवित रह सकेगा और जो जितना व्यर्थ गँवायेगा उतनी  ही शीघ्र उसकी मृत्यु हो जायेगी। सामान्यतः हर एक  मनुष्य दिन रात में २१६०० श्वाँस लेता है। इससे कम  श्वाँस लेने वाला दीर्घजीवी होता है क्योंकि अपने धन का  जितना कम व्यय होगा, उतने ही अधिक काल तक वह  सञ्जित रहेगा। हमारे श्वाँस की पूँजी की भी यही दशा है  विश्व के समस्त प्राणियों में जो जीव जितनी कम श्वाँस  लेता है वह उतने ही अधिक काल तक जीवित रहता है।  नीचे की तालिका से इसका स्पष्टीकरण हो जाता हैं। प्राणी       श्वास की गति प्रति मिनट     पूर्ण आयु खरगोश               ३८ बार                       ८ वर्ष बन्दर                  ३२ बार                       १० वर्ष कुत्ता                 २९ बार                        ११ वर्ष घोडा़                   १९ बार                       ३५ वर्ष मनुष्य                 १३ बार                      १२० वर्ष साँप                    ८ बार                       १००० वर्ष कछुआ                  ५ बार                      २००० वर्ष साधारण काम-काज करने में १२ बार, दौड़ धूप  करने में १८ बार और मैथुन करते समय २६ बार प्रति  मिनट के हिसाब से श्वाँस चलती है, इसलिए विषयी  और लम्पट मनुष्य की आयु घट जाती है और प्राणायाम  करने वाले योगाभ्यासी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं।  यहाँ यह न सोचना चाहिए कि चुपचाप बैठे रहने से कम  साँस चलती है इसलिए निष्क्रिय बैठे रहने से आयु बढ  जायेगी, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि निकम्मे बैठे रहने से  शरीर के अन्य अंग निर्बल, अशक्त और बीमार हो जायेंगे,  तदनुसार उनकी साँस का वेग बहुत ही बढ़ जायेगा।  इसलिए शारीरिक अंगों को स्वस्थ रखने के लिए परिश्रम  करना आवश्यक है। किन्तु शक्ति के बाहर परिश्रम भी  नहीं करना चाहिए। साँस सदा पूरी और गहरी लेनी चाहिए तथा  झुककर कभी न बैठना चाहिए। नाभि तक पूरी साँस लेने  पर एक प्रकार से कुम्भक हो जाता है श्वाँसो की संख्या  कम हो जाती है। मेरुदण्ड के भीतर एक प्रकार का तरल  जीवन तत्व प्रवाहित होता रहता है जो सुषुम्ना  को बलवान् बनाये रखता है तदनुसार मस्तिष्क की  पुष्टि होती रहती है। यदि मेरुदण्ड को झुका हुआ रखा  जाय तो उस तरल तत्व का प्रवाह रुक जाता है और  निर्बल सुषुम्ना मस्तिष्क का पौषण करने से वञ्चित रह  जाती है। सोते समय चित्त होकर लेटना चाहिए इससे  सुषुम्ना स्वर चलकर विघ्न पैदा होने की सम्भावना  रहती है। ऐसी दशा में अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई  पड़ते हैं। इसलिए भोजनोपरान्त प्रथम बाँये फिर दाहिने  करवट लेना चाहिए। भोजन के बाद कम से कम  १५ मिनट आराम किए बिना यात्रा करना भी उचित  नहीं है। शीतलता से अग्नि मन्द पड़ जाती है और उष्णता से  तीव्र होती है। यह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता  है। सूर्य- स्वर में पाचन शक्ति की वृद्धि रहती है, अतएव  इसी स्वर में भोजन करना उत्तम है। इस नियम को सब  लोग जानते हैं कि भोजन उपरान्त बाँये करवट से लेटे  रहना चाहिए। उद्देश्य यही है कि बाँये करवट लेटने से  दक्षिण स्वर चलता रहता है,  जिससे पाचन-शक्ति प्रदीप्त होती है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की गति-विधि पर ध्यान  रखने से वायु-तत्व पर अपना अधिकार होता है। वायु के  माध्यम से कितनी ही ऐसी बातें जानी जा सकती हैं जिन्हें  साधारण लोग नहीं जानते। मकड़ी को वर्षा से बहुत पहले  पता लग जाता है कि मेह बरसने वाला है तदनुसार वह  अपनी रक्षा का प्रबन्ध पहले से ही कर लेती है। कारण  यह है कि वायु के साथ वर्षा का सूक्ष्म संयोग मिला रहता  है, उसे मनुष्य समझ नहीं पाता, पर मकड़ी अपनी चेतना  से यह अनुभव कर लेती है कि इतने समय बाद इतने  वेग से पानी बरसने वाला है। मकड़ी में जैसी सूक्ष्म वायु  परीक्षण चेतना होती है उससे भी अधिक प्रबुद्ध चेतना  स्वर- योगी को मिल जाती है । वह वर्षा, गर्मी को ही नहीं  वरन् उससे भी सूक्ष्म बातें, भविष्य की सम्भावनायें,  दुर्घटनायें परिवर्तनशीलतायें, विलक्षणतायें अपनी दिव्य  दृष्टि से जान लेता है। कई स्वर- ज्ञाता ज्योतिषियों की भाँति इस विद्या  द्वारा भविष्यवक्ताओं जैसा व्यवसाय करते हैं। स्वर के  आधार पर ही मूक प्रश्न, तेजी- मन्दी, खोई वस्तु का पता,  शुभ- अशुभ मुहूर्त आदि बातें बताते हैं। असफल होने की  आशंका वाले, दुस्साहसपूर्ण कार्य करने वाले लोग भी  स्वर का आश्रय लेकर अपना काम करते हैं। चोर, डाकू  आदि इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखते हैं, व्यापार,  राजद्वार, चिकित्सा आदि जोखिम और जिम्मेदारी के कामों  में भी स्वर विद्या के नियमों का ध्यान रखा जाता है। इस  सम्बन्ध में अखण्ड-ज्योति पत्रिका में समय-समय पर  तद्विषयक जानकारी प्रकाशित होती रहती है। उस  सुविस्तृत ज्ञान का विवेचन यहाँ नहीं हो सकता। इस  समय तो हमें केवल यह विचार करना है कि स्वर  साधन से विज्ञानमय कोश की सुव्यवस्था में हमें किस  प्रकार सहायता मिल सकती है। विज्ञानमय-कोश की वायु साधना १- शान्त वातावरण में मेरुदण्ड सीधा करके बैठ  जाइये और नाभि- चक्र में शुभ ज्योति-मण्डल का ध्यान  कीजिए। उस ज्योति केन्द्र में समुद्र के ज्वार-भाटे की  तरह हिलोरें उठती हुई परिलक्षित होंगी। २- यदि बाँया स्वर चल रहा होगा तो उस  ज्योति-केन्द्र का वर्ण चन्द्रमा के समान पीला होगा और  उसके बाँये भाग से निकलने वाली इड़ा नाड़ी में होकर  श्वाँस- प्रवाह का आगमन होगा। नाभि के नीचे की और  मूलाधार चक्र (गुदा और लिंग का मध्यवर्ती भाग) में होती  हुई मेरुदण्ड में होकर मस्तिष्क के ऊपर भाग की परिक्रमा  करती हुई नासिका के बाँये नथुने तक इड़ा नाड़ी जाती  है। नाभि-केन्द्र के बाम भाग की क्रियाशीलता के कारण  यह नाड़ी का काम करती है और बाँया स्वर चलता है।  इस तथ्य को भावना के दिव्य नेत्रों द्वारा भली- भाँति चित्र  वत् पर्यवेक्षण कीजिए। ३- यदि दाहिना स्वर चल रहा होगा तो नाभि केन्द्र  का ज्योति मण्डल सूर्य के समान तनिक लालिमा लिए हुए  श्वेत वर्ण का होगा और उसके दाहिने भाग में से  निकलने वाली पिंगला नाड़ी में होकर श्वाँस-प्रश्वाँस  क्रिया होगी। नाभि के नीचे मूलाधार में होकर मेरुदण्ड  तथा मस्तिष्क में होती हुई दाहिने नथुने तक पिंगला नाड़ी  गई है और नाभि चक्र के दाहिने भाग में चैतन्यता होती है  और दाहिना स्वर चलता है, इस सूक्ष्म क्रिया की  ध्वनि-शक्ति द्वारा मनोयोगपूर्वक निरीक्षण करना चाहिए  कि वस्तुस्थिति ध्यान क्षेत्र में चित्र के समान स्पष्ट रूप  से परिलक्षित होने लगे।    ४- जब स्वर सन्धि होती है तो नाभि चक्र स्थिर हो  जाता है, उसमें कोई हलचल नहीं होती और न उतनी  देर तक वायु का आवागमन होता है। इस सन्धिकाल में  तीसरी नाड़ी मेरुदण्ड में अत्यन्तद् रूत वेग से बिजली के  समान किंचित है, साधारणत: एक क्षण के सौवें भाग में  यह कौंध जाती है, इसे ही सुषुम्ना कहते हैं। ५- सुषुम्ना का जो विद्युत प्रवाह है वही आत्मा की  चञ्चल झाँकी है। आरम्भ में यह झाँकी एक हलके झपट्टे  के समान किंचित प्रकाश की मन्द किरण जैसी होती है।  साधना से यह चमक अधिक प्रकाशवान और अधिक देर  ठहरने वाली होती है। कुछ दिनों में वर्षा काल में बादलों  के मध्य चमकने वाली बिजली के समान उसका प्रकाश  और विस्तार होने लगता है। सुषुम्ना ज्योति में कहीं रंगों  की आभा होना उसका सीधा, टेढ़ा तिरछा या बर्तुलाकर  होना आत्मिक स्थिति का परिचायक है। तीन गुण, पाँच  तत्व, संस्कार एवं अन्तःकरण की जैसी स्थिति होती है,  उसी के अनुरूप सुषुम्ना का रूप ध्यानावस्था में  दृष्टिगोचर होता है। ६- इड़ा पिंगला की क्रियायें जब स्पष्ट दीखने लगें  तब उनका साक्षी रूप से अवलोकन किया कीजिए। नाभि  चक्र के जिस भाग में ज्वार-भाटा आ रहा होगा वही स्वर  चल रहा होगा और केन्द्र में इसी आधार पर सूर्य या  चन्द्रमा का रंग होगा। यह क्रिया जैसे-जैसे हो रही है  उसको स्वाभाविक रीति से होते हुए देखते रहना चाहिए।  एक साँस के भीतर पूरा प्रवेश होने पर जब लौटती है तो  उसे ''अभ्यन्तर सन्धि'' और जब साँस पूरी तरह बाहर  निकलकर नई साँस भीतर जाना आरम्भ करती है तब  उसे 'बाह्य सन्धि' कहते हैं। इन कुम्भक कालों में सुषुम्ना  की द्रुत गतिगामिनी विद्युत आभा का अत्यन्त चपल प्रकाश  विशेष सजगतापूर्वक दिव्य नेत्रों से देखना चाहिए। ७- जब इड़ा बदलकर पिंगला में या पिंगला  बदलकर इड़ा में जाती है अर्थात् एक स्वर जब दूसरे में  परिवर्तित होता है तो सुषुम्ना की सन्धि बेला आती है।  अपने आप स्वर बदलने के अवसर पर स्वाभाविक  सुषुम्ना का प्राप्त होना प्राय: कठिन होता है। इसलिए  स्वर विद्या के साधक पिछले पृष्ठों में बताऐ गए स्वर  बदलने के उपायों से वह परिवर्तन करते हैं, और तब  सुषुम्ना की सन्धि आने पर आत्मा- ज्योति का दर्शन  करते हैं। यह ज्योति आरम्भ में चञ्चल और विविध  आकृतियों की होती है और अन्त में स्थिर एवं मण्डलाकर  हो जाती है। यह स्थिरता ही विज्ञानमय कोश की सफलता  है। उसी स्थिति में आत्म- साक्षात्कार होता है। सुषुम्ना में अवस्थित होना वायु पर अपना  अधिकार कर लेना है। इस सफलता के द्वारा लोक-लोकान्तरों  तक अपनी पहुँच हो जाती है और विश्व ब्रह्माण्ड पर  अपना प्रभुत्व अनुभव होता है। प्राचीन समय में  स्वर-शक्ति द्वारा अणिमा, महिमा लघिमा आदि सिद्धियाँ  प्राप्त होती थी। आज के युग-प्रवाह में वैसा तो नहीं होता  पर ऐसे अनुभव होते हैं जिनसे मनुष्य शरीर रहते हुए भी  मानसिक आवरण में देव-तत्वों की प्रचुरता हो जाती है।  विज्ञानमय कोश के विजयी को भूसुर, भूदेव या नर-  तनुधारी दिव्य आत्मा कहते हैं। ग्रंथि भेद Image source https://fractalenlightenment.com विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुँचने पर  जीव को प्रतीत होता है, कि तीन सूक्ष्म बन्धन भी मुझे  बाँधे हुए हैं। पंच-तत्वों से शरीर बना है, उस शरीर में  पाँच कोश हैं। गायत्री के यह पाँच कोश ही पाँच मुख हैं  इन पाँच बन्धनों को खोलने के लिए कोशों की  अलग-अलग साधनायें बताई गई हैं, विज्ञानमय कोश के  अन्तर्गत तीन बन्धन हैं जो पञ्च भौतिक शरीर पर न  रहने पर भी देव गन्धर्व, यक्ष भूत, पिशाच आदि योनियों  में भी वैसे ही बन्धन बाँधे रहते हैं जैसा कि शरीरधारी  का होता है। यह तीन बन्धन-ग्रन्थियाँ, रुद्र-ग्रन्थि, विष्णु-ग्रन्थि,  ब्रह्म-ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें तीन गुण भी कह  सकते हैं। रुद्र ग्रन्थि अर्थात् तम, विष्णु ग्रन्थि अर्थात् रज,  ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात् सत्। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने  पर, ऊँचा उठ जाने पर ही आत्मा शान्ति और आनन्द का  अधिकारी होता है। इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्वपूर्ण कार्य को  ध्यान में रखने के लिए कन्धे पर तीन तार का यज्ञोपवीत  धारण किया जाता है, इसका तात्पर्य यह है कि तम, रज्,  सत् के तीन गुणों द्वारा स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर बने हुए  हैं। यज्ञोपवीत के अन्तिम भाग में तीन ग्रन्थियाँ लगाई  जाती हैं इसका तात्पर्य यह है कि रुद्र ग्रन्थि विष्णु ग्रन्थि  तथा ब्रह्म ग्रन्थि से जीव बँधा पड़ा है। इन तीनों को  खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ-ऋण ऋषि-ऋण  देव-ऋण है। तम को प्रकृति, रज को जीव, सत को  आत्मा कहते हैं। व्यावहारिक जगत में तम को सांसारिक जीवन, रज  को व्यक्तिगत जीवन, सत को आध्यात्मिक जीवन कह  सकते हैं। जैसे हमारे पूर्ववर्ती लोगों ने, पूर्वजों ने अनेक  प्रकार के उपकारों, सहयोगों द्वारा निर्बल दशा से ऊँचा  उठाकर हमें बल, विद्या, बुद्धि सम्पन्न किया है वैसे ही  हमारा भी कर्तव्य है कि संसार में अपनी अपेक्षा किसी भी  दृष्टि से जो लोग पिछड़े हुए हैं उन्हें सहयोग देकर ऊँचा  उठायें। सामाजिक जीवन को मधुर बनायें। देश, जाति और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें  यही पितृ-ऋण से, पूर्ववर्ती लोगों के उपकारों से उऋण  होने का मार्ग है। व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक,  बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से सुसम्पन्न बनाना अपने  को मनुष्य जाति का सदस्य बनाना ऋषि ऋण से छूटना  है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन  आदि आकस्मिक साधनाओं द्वारा काम, क्रोध लोभ  मोह, मत्सर आदि अपवित्रताओं को हटाकर आत्मा को  परम निर्मल-देवतुल्य बनाना यह देव-ऋण से उऋण  होना है। image source auromere.wordpress.com दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर तम की अर्थ  होता है- शक्ति, रज का अर्थ होता है- साधन, सत का  अर्थ होता है- ज्ञान। इन तीनों की न्यूनता एवं विकृत  अवस्था, बन्धन कारक अनेक उलझनों, कठिनाइयों और  बुराइयों को उत्पन्न करने वाली होती है। इसलिए जब  तीनों की स्थिति सन्तोषजनक होती हैं तब त्रिगुणातीत  अवस्था प्राप्त होती है। हमको भली प्रकार यह समझ लेना  चाहिए कि परमात्मा की सृष्टि में कोई भी शक्ति या पदार्थ  दूषित अथवा भ्रष्ट नहीं है। यदि उसका सदुपयोग किया  जाय तो वह कल्याणकारी सिद्ध होगा। आत्मिक क्षेत्र में सूक्ष्म अन्वेषण करने वाले  ऋषियों ने यह पाया है कि तीन गुण, तीन शरीरों, तीन  क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना अदृश्य केन्द्रों  पर निर्भर रहता है, सभी दशाओं को उत्तम बनाने से यह  केन्द्र उन्नत अवस्था में पहुँच सकते हैं, दूसरा उपाय यह  भी कि अदृश्य केन्द्रों को आत्मिक साधना विधि से उन्नत  अवस्था में ले जाया जाय तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर  को ऐसी स्थिति पर पहुँचाया जा सकता है कि जहाँ उनके  लिए कोई बन्धन या उलझन शेष न रहे। साधक जब विज्ञानमय कोश की स्थिति में होता है  तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानो उसके भीतर तीन  कठोर, गठीली, चमकदार हलचल करती हुई हलकी गाँठें  हैं। इनमें से एक गाँठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय  के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में  विदित होती है। इन गाँठों में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को  रुद्र ग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रन्थि और सिर वाली  को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीनों को दूसरे शब्दों में  महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं। इन तीन महाग्रन्थियों की दो सहायक ग्रन्थियाँ भी  होती हैं जो मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने  वाली ब्रह्मनाड़ी के भीतर रहती हैं। इन्हें ही चक्र भी कहते  हैं। रुद्ग्रन्थि की शाखा ग्रन्थियाँ मूलाधार चक्र और  स्वाधिष्ठान कहलाती है। विष्णु ग्रन्थि की दो शाखायें  मणिपूर चक्र और अनाहत चक्र हैं। मस्तिष्क में निवास  करने वाली ब्रह्मग्रन्थि के सहायक ग्रन्थि चक्रों  को विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र कहा जाता है। हठयोग  की विधि से षट् चक्रों का बेधन किया जाता है। इन  षट्चक्र बेधन की विधि के सम्बन्ध में अलग से प्रकाश  डाला जायेगा। यह हठयोग के अंतर्गत आती है। जिन्हें  हठयोग की अपेक्षा गायत्री की पंचमुखी साधना के  अन्तर्गत विज्ञानमय कोश में ग्रन्थिबेध करना है उन्हीं के  लिए आवश्यक जानकारी देने का यहाँ प्रयत्न किया  जायेगा। रुद्र -ग्रन्थि का आकार बेर के समान ऊपर को  नुकीला, नीचे को भारी, पैंदे में गड्ढा लिए होता है, इसका  वर्ण कालापन मिला हुआ लाल होता है। इस ग्रन्थि के दो  भाग हैं। दक्षिण भाग को रुद्र और वाम भाग को काली  कहते हैं। दक्षिण भाग के अन्तरंग गह्वर में प्रवेश करके  जब उसकी झाँकी की जाती है तो ऊर्ध्व भाग में श्वेत रंग  की छोटी-सी नाडी़ हल्का-सा श्वेत रस प्रवाहित करती  है, एक तन्तु तिरछा पीत वर्ण की ज्योति-सा चमकता है।  मध्य-भाग में एक काले वर्ण की नाड़ी साँप की तरह  मूलाधार से लिपटी हुई है। प्राण वायु का जब उस भाग से  सम्पर्क होता है तो डिम-डिम जैसी ध्वनि उसमें से  निकलती है। रुद्रग्रन्थि की आन्तरिक स्थिति की झाँकी  करके ऋषियों ने रुद्र का सुन्दर चित्र अंकित किया है।  मस्तक पर गंगा की धारा, जटा में चन्द्रमा, गले में सर्प,  डमरू की डिम-डिम ध्वनि, ऊर्ध्व भाग में त्रिशूल के रूप  में अंकित करके भगवान शंकर का ध्यान करने लायक  एक सुन्दर चित्र बना दिया। उस चित्र में अलंकारिक  रूप से रुद्रग्रन्थि की वास्तविकताएँ ही भरी गई हैं। उस  ग्रन्थि का वाम भाग जिस स्थिति में है उसी के अनुरूप  काली का सुन्दर चित्र सूक्ष्मदर्शी आध्यात्मिक चित्रकारों ने  अंकित कर दिया है। विष्णु ग्रन्थि किस वर्ण की, किस गुण की किस  आकार की, किस आन्तरिक स्थिति की, किस ध्वनि की,  किस आकृति की है, यह सब हमें विष्णु के चित्र से सहज  ही प्रतीत हो जाता है। नील वर्ण, गोल आकार, शंख  ध्वनि, कौस्तुभ मणि, बनमाला यह चित्र उस मध्य-ग्रन्थि  का सहज प्रतिबिम्ब है। जैसे मनुष्य को मुख की ओर से देखा जाय तो  उसकी झाँकी दूसरे प्रकार की होती है ओर पीठ की ओर  से देखा जाय तब यह आकृति दूसरे ही प्रकार की होती है।  एक ही मनुष्य के दो पहलू दो प्रकार के होते हैं। उसी  प्रकार एक ही ग्रन्थि दक्षिण भाग से देखने में पुरुषत्व  प्रधान आकार की और बाँई ओर से देखने पर स्त्रीत्व  प्रधान आकार की होती है। एक ही ग्रन्थि को रुद्र या  शक्ति ग्रन्थि कहा जा सकता है। विष्णु लक्ष्मी, ब्रह्मा और  सरस्वती का संयोग भी इसी प्रकार है। ब्रह्म ग्रन्थि मध्य मस्तिष्क में है। इससे ऊपर  सह-सार शतदल कमल है, यह ग्रन्थि ऊपर से चतुष्कोण  और नीचे से फैली हुई है, इसका नीचे का एक तन्तु  ब्रह्म-रन्ध्र से जुड़ा हुआ है। इसी को सहस्रमुख वाले शेष  नाग की शैय्या पर लेटे हुए भगवान की नाभि कमल से  उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है। वाम  भाग में यही ग्रन्थि चतुर्भुजी सरस्वती है। वीणा झंकार से  ओंकार ध्वनि का यहाँ निरन्तर गुञ्जार होता है। यह तीनों ग्रन्थियाँ जब तक सुप्त अवस्था में रहती  हैं, बँधी हुई रहती हैं, तब तक जीव साधारण दीन- हीन  दशा में पड़ा रहता है, अशक्ति अभाव और अज्ञात उसे नाना प्रकार से दुःख देते रहते हैं। पर जब इनका खुलना  आरम्भ होता है तो उनका वैभव बिखर पड़ता है। मुँह  बन्द कली में न रूप है, न सौन्दर्य, न गन्ध है, न  आकर्षण। पर जब वह कली खिल पड़ती है और पुष्प के  रूप में प्रकट होती है तो एक सुन्दर दृश्य उपस्थित हो  जाता है। जब तक खजाने का ताला लगा हुआ है, थैली  का मुँह बन्द है, तब तक दरिद्रता दूर नहीं हो सकती, पर  जैसे ही रत्न राशि का भण्डार खुल जाता है वैसे ही  अतुलित वैभव का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है। रात को कमल का फूल बन्द होता है तो भौंरा भी  उसमें बन्द हो जाता है, पर प्रातःकाल वह फूल फिर  खिलता है तो भौंरा बंधन- मुक्त हो जाता है। यह तीन  कलियाँ, तीन तीन ग्रन्थियाँ, जीव को बाँधे हुए हैं। जब  यह खुल जाती हैं तो मुक्ति का अधिकार स्वयंमेव ही प्राप्त  हो जाता है। इन रत्न-राशियों का ताला खुलते ही  शक्ति सम्पन्नता और प्रजा का अटूट भण्डार हस्तगत हो  जाता है। चिड़िया अपनी छाती की गर्मी से अण्डों को पकाती  हैं, चूल्हे की गर्मी से भोजन पकता है, सूर्य की गर्मी से  वृक्षों वनस्पतियों और फलों का परिपाक होता है। माता  नौ महीने तक बालक को पेट में पकाकर उसको इस  स्थिति में लाती है कि वह जीवन धारण कर सके।  विज्ञानमयकोश की यह तीन-ग्रन्थियाँ भी तप की गर्मी से  पकती हैं तप द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सरस्वती लक्ष्मी,  काली सभी का परिपाक हो जाता है। यह शक्तियाँ समदर्शी  हैं, न उन्हें किसी से प्रेम है न द्वेष। रावण जैसे असुरों ने  भी शंकरजी से वरदान पाये थे, और अनेक सुर भी कोई  सफलता नहीं प्राप्त कर पाये। इसमें साधक का पुरुषार्थ  ही प्रधान है। श्रम और प्रयत्न ही परिपक्व होकर  सफलता बन जाते हैं रुद्र, विष्णु और ब्रह्म ग्रन्थियों को खोलने के लिए  ग्रन्थि के मूल भाग में निवास करने वाली बीज शक्तियों  का संचार करना पड़ता है। रुद्र ग्रन्थि के अधोभाग में बेर  के डण्ठल की तरफ एक सूक्ष्म प्राण अभिप्रेत होता है उसे  'क्लीं' बीज कहते हैं। विष्णु ग्रन्थि के मूल में 'श्रीं' का  निवास है और ब्रह्म ग्रन्थि के नीचे 'ह्रीं' तत्व का  अवस्थान है। मूलबन्धन बाँधते हुए एक ओर से अपान  और दूसरी ओर से कूर्मप्राण को चिमटे की तरह बनाकर  रुद्र ग्रन्थि को पकड़कर रेचक प्राणायाम द्वारा दबाते हैं।  इस दबाव की गर्मी से क्लीं बीज हो जाता है। वह  नोकदार डण्ठल आकृति का बीज अपनी ध्वनि और रक्त  वर्ण प्रकाश-ज्योति के साथ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने  लगता है। इस जागृत क्लीं बीज के अग्रिम नोंक से  कुंचुकि-क्रिया की जाती है। जैसे किसी वस्तु में छेद करने  के लिए नोकदार कील कोंची जाती है, इस प्रकार  वेधन-साधना को कुंचुकी क्रिया कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि के  मूल केन्द्र में क्लीं बीज की अग्र शिखा से जब निरन्तर  कुंचुकी होती है तो प्रस्तुत कलिका में भीतर ही भीतर एक  विशेष प्रकार के लहलहाते हुए तड़ित प्रवाह उठाने पड़ते  हैं इनकी आकृति एवं गति सर्प जैसी होती है। इन तड़ित  प्रवाहों को ही शंभु के गले में फुफकारने वाले सर्प बताया  है, जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत के उच्च शिखर पर  धूम्र मिश्रित अग्नि निकलती है उसी प्रकार रुद्र ग्रन्थि के  ऊपरी भाग में पहले क्लीं बीज की अग्नि जिह्वा प्रकट  होती है। इसी का काली की बाहर निकली हुई जीभ माना  गया है। इसी को शंभु का तीसरा नेत्र भी कहते हैं। मूल- बन्ध अपान और कूर्म प्राण के आघात से  जाग्रत हुई क्लीं बीज की कुंचुकी क्रिया से धीरे-धीरे रुद्र  ग्रन्थि शिथिल होकर वैसे ही खुलने लगती है, जैसे कली  धीरे-धीरे खिलकर फूल बन जाती है। इस कमल पुष्प के  खिलने को पद्मासन कहा गया है। त्रिदेव के कमलासन  पर विराजमान होने के का तात्पर्य यही है कि वे  विकसित रूप से परिलक्षित हो रहे हैं। साधक के प्रयत्न के अनुरूप खुली हुई रुद्र ग्रन्थि  का तीसरा भाग जब प्रकटित होता है तब साक्षात रुद्र का  काली का अथवा रक्त वर्ण सर्प के समान लहलहाती हुई,  क्लीं-घोष करती हुई अग्नि शिखा का साक्षात्कार होता है। यह रुद्र जागरण साधक में अनेक प्रकार की गुप्त प्रकट  शक्तियाँ भर देता है। संसार की सब शक्तियों का मूल  केन्द्र रुद्र ग्रन्थि ही है। उसे रुद्र लोक या कैलाश भी  कहते हैं। प्रलय काल में संसार संचालिनी शक्ति व्यय  होते-होते पूर्ण शिथल होकर जब सुषुप्त अवस्था को चली  जाती है तब रुद्र का ताण्डव नृत्य होता है। उस  महामंथन से इतनी शक्ति फिर उत्पन्न हो जाती है  जिससे आगामी प्रलय तक काम चलता रहे। घड़ी में चाबी  भरने के समान रुद्र का प्रलय ताण्डव होता है। रुद्र  शक्ति की शिथिलता से जीवों की तथा पदार्थों की मृत्यु हो  जाती है। इसलिए रुद्र की मृत्यु का देखना मना है। विष्णु ग्रन्थि को जागृत करने के लिए जालन्धर  बन्ध बाँधकर 'समान' और 'उदान' प्राणों द्वारा दबाया  जाता है तो उसके मूल भाग का 'श्रीं' बीच जागृत होता  है। यह गोल गेंद की तरह है और इसकी अपनी धुरी पर  द्रूत गति से घूमने की क्रिया होती है। इस घूर्णन किया  के साथ-साथ एक ऐसी सनसनाती हुई सूक्ष्म ध्वनि होती  है जिसको दिव्य श्रोतों से 'श्रीं' जैसे सुना जाता है। श्रीं बीज को विष्णु ग्रन्थि की वाह्य परिधि में  भ्रामरी क्रिया के अनुसार घुमाया जाता है। जैसे पृथ्वी  सूर्य की परिक्रमा करती है उसी प्रकार परिभ्रमण करने को  भ्रामरी कहते हैं। विवाह में वर-वधू की भाँवरि या फेरे  पड़ना, देव-मन्दिरों तथा यज्ञ की परिक्रमा या प्रदक्षिणा  होना, भ्रामरी क्रिया का ही रूप है। विष्णु की उँगली पर  घूमता हुआ चक्र सुदर्शन चित्रित करके योगियों ने अपनी  सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव किये गये इसी रहस्य को प्रकट  किया है, 'श्रीं' बीज विष्णु ग्रन्थि की भ्रामरी गति से  परिक्रमा करने लगता है तब उस महा-तत्व का जागरण  होता है। पूरक प्राणायाम की प्रेरणा देकर समान और उदान  द्वारा जागृत किये गये श्री बीज से जब विष्णु ग्रन्थि के  वाह्य आवरण की मध्य परिधि में भ्रामरी किया की जाती है  तो उसके गुञ्जन से उसका भीतरी भाग चैतन्य होने  लगता है। इस चेतना की विद्युत तरंगें इस प्रकार उठती  हैं जैसे पक्षी के पंख दोनों बाजुओं में हिलते हैं। उसी  गति के आधार पर विष्णु का वाहन गरुड़ निर्धारित किया  गया है। इस साधना से विष्णु ग्रन्थि खुलती है और साधक  की मानसिक स्थिति के अनुरूप विष्णु लक्ष्मी या पीत वर्ण  की अग्नि-शिखा की लपटों के समान ज्योति पुञ्ज का  साक्षात्कार होता है। विष्णु का पीताम्बर इस पीत ज्योति  पुञ्ज का प्रतीक है। इस ग्रन्थि का खुलना ही बैकुण्ठ स्वर्ग  एवं विष्णु लोक को प्राप्त करना है। बैकुण्ठ या स्वर्ग को  अनन्त ऐश्वर्य का केन्द्र माना जाता है। वहाँ सर्वोत्कृष्ट  सुख साधन जो सम्भव हो सकते हैं वे प्रस्तुत हैं। विष्णु  ग्रन्थि वैभव की केन्द्र है, जो उसे खोल लेता है उसे विश्व  के ऐश्वर्य पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है। ब्रह्म- ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य भाग में सह-स्रदल।  कमल की छाया में अवस्थित है। उसे अमृत कलश कहते   हैं। बताया गया है कि सुरलोक में अमृत कलश की रक्षा  सहस्र फनों वाले शेषनाग करते हैं। इसका अभिप्राय इसी  ब्रह्म-ग्रन्थि से है। उड्डियान बन्ध लगाकर ध्यान और धनञ्जय  प्राणों द्वारा ब्रह्म-ग्रन्थि को पकाया जाता है। पकाने से  उसके मूलाधार में वास करने वाली ही शक्ति जागृत होती  है। इसकी गति को प्लावनी कहते हैं जैसे जल में लहरें  उत्पन्न होती हैं और निरन्तर आगे को ही लहराती हुई  चलती हैं उसी प्रकार ही बीज की प्लावनी गति से  ब्रह्म-ग्रन्थि को दक्षिणायन से उत्तर की ओर प्रेरित करते  हैं। चतुष्कोण ग्रन्थि के ऊर्ध्व भाग में यही ही तत्व  रुक-रुककर गाँठें-सी बनाता हुआ आगे की ओर चलता  है और अन्त में परिक्रमा करके अपने मूल संस्थान को  लौट आता है। गाँठ बाँधते चलने की नीची ऊँची गति के आधार  पर माला के दाने बनाये गये हैं। १०८ दचके लगाकर तब  एक परिधि पूरी होती है, इसलिए माला के १०८ दाने होते  हैं। इस ही तत्व की तरंगें मन्थर गति से इस प्रकार  चलती हैं जैसे हंस चलता है। ब्रह्मा या सरस्वती का  वाहन हंस इसीलिए माना गया है। वीणा के तारों की  झंकार से मिलती- जुलती 'ह्रीं' ध्वनि सरस्वती की वीणा  का परिचय देती है। कुम्भक -प्राणायाम की प्रेरणा से ही बीज की प्लावनी  क्रिया प्रारम्भ होती है। यह क्रिया निरन्तर होते रहने पर  ब्रह्म-ग्रन्थि खुल जाती है। तब उस ब्रह्म के रूप में,  सरस्वती के रूप में अथव श्वेत वर्ण प्रकम्पित शुभ ज्योति  शिखा के समान साक्षात्कार होता है। यह स्थिति आत्म-  ज्ञान, ब्रह्म प्राप्ति, ब्राह्मी स्थिति की है। ब्रह्मलोक एवं  गोलोक भी इसे कहते हैं। इस स्थिति को उपलब्ध कराने  वाला साधक ज्ञान बल से परिपूर्ण हो जाता है। इसकी  आत्मिक शक्तियाँ जागृत होकर परमेश्वर के समीप पहुँचा  देती है, अपने पिता का उत्तराधिकार उसे मिलता है और  जीवनमुक्त होकर ब्रह्मी स्थिति का आनन्द ब्रह्मानन्द  उपलब्ध करता है। षट्- चक्र का हठयोग- समस्त विधान अथवा  सहयोग का यह ग्रन्थि भेद, दोनों ही समान स्थिति के हैं।  साधक अपनी स्थिति के अनुसार उन्हें अपनाते हैं, दोनों  से ही विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता है। - लेखक - दिव्यज्ञान प्रदाता - भगवान शिव से लेकर युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य तक के अनेकों अवतारी आत्माएँ  No comments: Post a Comment Home View web version Powered by Blogger.

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