Monday 19 March 2018

पूर्ण संत : तत्वदर्शी सन्त 

Kabir Gyan Path to Satlok (our origin) ▼ सतगुरु: तत्वदर्शी सन्त पहचाने सतगुरु : पूर्ण संत : तत्वदर्शी सन्त  परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। “सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“ सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।। जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा। परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा। वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।। एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।। गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है। जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै, वाके संग सभि राड़ बढ़ावै। या सब संत महंतन की  करणी,  धर्मदास  मैं  तो  से  वर्णी।। कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी नकली संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।          कबीर, सतगुरु  शरण  में  आने से, आई टले बलाय।                   जै मस्तिक में सूली हो वह कांटे में टल जाय।। भावार्थ:- सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से उपदेश लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने से प्रारब्ध कर्म के पाप अनुसार यदि भाग्य में सजाए मौत हो तो वह पाप कर्म हल्का होकर सामने आएगा। उस साधक को कांटा लगकर मौत की सजा टल जाएगी। संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै। ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।। आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै। प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।। सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः              प्रणवैः  शस्त्राणाम्  रूपम्  पयसा  सोमः  आप्यते ।।यजु: 19.25।। अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चौथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।( यजु: 19.25) भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है। सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम्              वैश्वदैवम्   सरस्वत्या   तृतीयम्   आप्तम्   सवनम्  ।।यजु: 19.26।। अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है। (यजु: 19.26) भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्र 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः, मध्यान्ह तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्यांह को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है। (यजु: 19.26) सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्              दक्षिणा  श्रद्धाम्  आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते ।।यजु: 19.30।। अनुवादः- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है। (यजु: 19.30) भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा। (यजु: 19.30) तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया, उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः, तत्त्वदर्शिनः ।।गीता 4.34।। अनुवाद: (तत्) तत्वज्ञान को (विद्धि) समझ उन पूर्ण परमात्मा के वास्तविक ज्ञान व समाधान को जानने वाले संत को (प्रणिपातेन) भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी (सेवया) सेवा करनेसे और कपट छोड़कर (परिप्रश्नेन) सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे (ते) वे (तत्वदर्शिनः) पूर्ण ब्रह्म को तत्व से जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी (ज्ञानिनः) ज्ञानी महात्मा तुझे उस (ज्ञानम्) तत्वज्ञानका (उपदेक्ष्यन्ति) उपदेश करेंगे। (गीता 4.34) कबीर, गुरू बिन माला  फेरते  गुरू  बिन  देते दान ।           गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो  वेद पुराण ।। सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8 मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्। त्रितस्य नाम जनयन्मधु  क्षरन्निन्द्रस्य  वायुं  सख्याय  वर्धयन् ।।साम 3.5.8।। सन्धिछेदः-मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। ।।साम 3.5.8।। शब्दार्थ (पूव्र्यः) सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से(परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है। (साम 3.5.8) भावार्थ:- इस मन्त्र में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्र भक्त को पवित्र करके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। (साम 3.5.8) विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षी हैं कि पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है तथा तीन मंत्र के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है। गरीब दास जी वाणी: गरीब, चौरासी बंधन कटे, कीनी कलप कबीर।  भवन चतुरदश लोक सब, टूटे जम जंजीर।। गरीब, अनंत कोटि ब्रांड में, बंदी छोड़ कहाय।  सो तौ एक कबीर हैं, जननी जन्या न माय।। गरीब, शब्द स्वरूप साहिब धनी, शब्द सिंध सब माँहि।  बाहर भीतर रमि रह्या, जहाँ तहां सब ठांहि।। गरीब, जल थल पृथ्वी गगन में, बाहर भीतर एक।  पूरणब्रह्म कबीर हैं, अविगत पुरूष अलेख।। गरीब, सेवक होय करि ऊतरे, इस पृथ्वी के माँहि।  जीव उधारन जगतगुरु, बार बार बलि जांहि।। गरीब, काशीपुरी कस्त किया, उतरे अधर अधार।  मोमन कूं मुजरा हुवा, जंगल में दीदार।। गरीब, कोटि किरण शशि भान सुधि, आसन अधर बिमान।  परसत पूरणब्रह्म कूं, शीतल पिंडरू प्राण।। गरीब, गोद लिया मुख चूंबि करि, हेम रूप झलकंत।  जगर मगर काया करै, दमकैं पदम अनंत।। गरीब, काशी उमटी गुल भया, मोमन का घर घेर।  कोई कहै ब्रह्मा विष्णु हैं, कोई कहै इन्द्र कुबेर।। गरीब, कोई कहै छल ईश्वर नहींं, कोई किंनर कहलाय।  कोई कहै गण ईश का, ज्यूं ज्यूं मात रिसाय।। गरीब, कोई कहै वरूण धर्मराय है, कोई कोई कहते ईश।  सोलह कला सुभांन गति, कोई कहै जगदीश।। गरीब, भक्ति मुक्ति ले ऊतरे, मेटन तीनूं ताप।  मोमन के डेरा लिया, कहै कबीरा बाप।। गरीब, दूध न पीवै न अन्न भखै, नहींं पलने झूलंत।  अधर अमान धियान में, कमल कला फूलंत।। गरीब, काशी में अचरज भया, गई जगत की नींद।  ऎसे दुल्हे ऊतरे, ज्यूं कन्या वर बींद।। गरीब, खलक मुलक देखन गया, राजा प्रजा रीत।  जंबूदीप जिहाँन में, उतरे शब्द अतीत।। गरीब, दुनी कहै योह देव है, देव कहत हैं ईश।  ईश कहै पारब्रह्म है, पूरण बीसवे बीस।। गरीब दास जी वाणी: मन तू चल रे सुख के सागर जहाँ  शब्द  सिन्धु  रत्नागर । कोटि जन्म तोहे भ्रमत हो गए  कुछ ना हाथ लगा रे । कुकर  शुकर  खर  भया बौरे   कवुआ हंस  बुगा रे । कोटि जन्म तू राजा किन्हा मिटी न मन की आशा । भिक्षुक होकर दर-2 हांडया मिला न निर्गुण राशा । इन्द्र कुबेर  इश की  पदवी ब्रह्म वरूण  धर्मराया । विष्णु नाथ के  पुर को  जाकर  फेर  अपूठा  आया । असंख्य जन्म तोहे मर तयाँ होगे जीवित क्यों ना मरै रे । द्वादश मध्य महल मठ बौरे   बहुर  ना  देह धरै रे । दोजख  भीस्त  सभी   तैं देखे राज  पाठ के रसिया । तीन लोक से  तृप्त नाहीं   यह  मन  भोगी  खसिया । सतगुरु मिले तो इच्छा मेटे   पद मिल  पदे समाना । चल हंसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना । चार मुक्ति  जहाँ चम्पि करती  माया हो रही  दासी । दास गरीब  अभय पद  परसै  मिले राम  अविनाशी ।  भावार्थ:- जिस ज्ञान के आधार से ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की व काल ब्रह्म की साधना करके साधक जन्म मृत्यु के महाकष्ट को भोग रहा है तथा देव बन कर देव लोक में सुख भोगने की इच्छा, इन्द्र बन कर इन्द्र लोक में सुख भोगने की इच्छा, तप करके राज्य भोगने की इच्छा करता है। वह प्राणी अपने भक्ति कर्मों के पुण्यों के समाप्त होने के पश्चात् अन्य प्राणियों के शरीरों में भयंकर कष्ट भोगता है। इच्छा को केवल सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त ही समाप्त कर सकता है तथा यथार्थ भक्ति मार्ग पर लगा कर अमर पद अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त कराता है। ‘‘स्वर्ग के राजा इन्द्र की पदवी को प्राप्त करके भी प्राणी पुनः जन्म प्राप्त करता है’’  अग्नि लगा दिया   जद लम्बा फूकं दिया उस ठाई । पुराण उठाकर  पण्डित  आए   पीछे गरूड़ पढ़ाई ।। नर  सेती   फिर  पशुवा  किजे  गधा  बैल  बनाई । छप्पन भोग कहा मन बौरे किते कुरड़ी चरने जाई ।। प्रेत शिला पर जाय विराजे   पितरों पिण्ड भराई । बहुर श्राद्ध खाने को आऐ   काग भए  कलि माहीं ।। जै सतगुरू की  संगत करते   सकल  कर्म कट जाई ।  अमर पुरी   पर आसन होते    जहाँ धूप  ना छांई ।। कबीर तत्वज्ञान को संत गरीबदास जी बता रहे हैं:- पितरों आदि के पिण्ड दान करते हुए अर्थात् श्राद्ध कर्म करते-करते भी पशु-पक्षी व भूत प्रेत की योनियों में प्राणी पड़ते हैं तो वह श्राद्ध कर्म किस काम आया? फिर कहा है कि यदि सतगुरू (तत्वज्ञान दाता तत्वदर्शी संत) का संग करते अर्थात् उसके बताए अनुसार भक्ति साधना करते तो सर्व कर्म कट जाते। न पशु बनते, न पक्षी, न पितर बनते, न प्रेत। सीधे सतधाम (शाश्वत स्थान) पर चले जाते जहां जाने के पश्चात् फिर लौट कर इस संसार में किसी भी योनि में नहीं आते  Home View web version About Me Alok Dass View my complete profile Powered by Blogger.

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