Tuesday 6 March 2018

शिव स्वरोदय

मुख्य मेनू खोलें Wikibooks खोजें ३ संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ शिव स्वरोदय 'शिव स्वरोदय' स्वरोदय विज्ञान पर अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है। इसमें कुल 395 श्लोक हैं। यह ग्रंथ शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया है। महेश्वरं नमस्कृत्य शैलजां गणनायकम्। गुरुं च परमात्मानं भजे संसार तारकम्।।1।। अन्वय -- महेश्वरं शैलजां गणनायकं संसारतारकं गुरुं च नमस्कृत्य परमात्मानं भजे। अर्थ:- महेश्वर भगवान शिव, माँ पार्वती, श्री गणेश और संसार से उद्धार करने वाले गुरु को नमस्कार करके परमात्मा का स्मरण करता हूँ। देवदेव महादेव कृपां कृत्वा ममोपरि। सर्वसिद्धिकरं ज्ञानं वदयस्व मम प्रभो।।2।। अन्वय -- देवदेव महादेव यम प्रभो यमोपरि कृपां कृत्वा सर्वसिद्धिकरं ज्ञानं वदयस्व। अर्थ:- माँ पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि हे देवाधिदेव महादेव, मेरे स्वामी, मुझ पर कृपा करके सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाले ज्ञान प्रदान कीजिए। कथं बह्माण्डमुत्पन्नं कथं वा परिवर्त्तते। कथं विलीयते देव वद ब्रह्माण्डनिर्णयम्।।3।। अन्वय -- देव, कथं ब्रहमाण्डं उत्पन्नं, कथं परिवर्तते, कथं विलीयते वा ब्रहमाण्ड-निर्णयं च वद। अर्थ:- हे देव, मुझे यह बताने की कृपा करें कि यह ब्रह्माण्ड कैसे उत्पन्न हुआ, यह कैसे परिवर्तित होता है, अन्यथा यह कैसे विलीन हो जाता है, अर्थात् इसका प्रलय कैसे होता है और ब्रह्माण्ड का मूल कारण क्या है? तत्त्वाद् ब्रह्याण्डमुत्पन्नं तत्त्वेन परिवर्त्तते। तत्त्वे विलीयते देवि तत्त्वाद् ब्रह्मा़ण्डनिर्णयः।।4। अन्वय-- ईश्वर उवाच - देवि, तत्वाद् ब्रह्माण्डम् उत्पन्नं, तत्वेन परिवर्त्तते, तत्वे (एव) विलीयते, तत्वाद् (एव) ब्रह्माण्डनिर्णय: (च)। अर्थ:- भगवान बोले - हे देवि, यह ब्रह्माण्ड तत्व से उत्पन्न होता है, तत्व से परिवर्तित होता है, तत्व में ही विलीन हो जाता है और तत्व से ही ब्रह्माण्ड का निर्णय होता है, अर्थात् तत्व ही ब्रह्माण्ड का मूल कारण है। (इस प्रकार सृष्टि का अनन्त क्रम चलता रहता है) तत्वमेव परं मूलं निश्चितं तत्त्ववादिभिः। तत्त्वस्वरूपं किं देव तत्त्वमेव प्रकाशय।।5।। अन्वय --देव्युवाच – देव, परं मूलं तत्वम् निश्चितम् एव कथम? तत्ववादिभि: तत्वस्वरूपं किम्? (तत्) तत्वं प्रकाशय। अर्थ:- हे देव! किस प्रकार (सृष्टि, स्थिति, संहार एवं इनके निर्णय) का मूल कारण तत्व हैं? तत्ववादियों ने उसका क्या स्वरूप बताया है? वह तत्व क्या है? निरंजनो निराकार एको देवो महेश्वरः। तस्मादाकाशमुत्पन्नमाकाशाद्वायुसंभवः।।6।। अन्वय -- ईश्वर उवाच - निरञ्जन: निराकार: एक: देव: महेष्वर: (तदेव तत् तत्वम्)। तस्माद् (एव) आकाशम् उत्पन्नम् आकाशाद् वायु: सम्भव:। अर्थ:- हे देवि, अजन्मा और निराकार एक मात्र देवता महेश्वर हैं, वे ही इस जगत प्रपंच के मूल कारण हैं। उन्हीं देव से सर्वप्रथम यह आकाश उत्पन्न हुआ और आकाश से वायु उत्पन्न हुआ। वायोस्तेजस्ततश्चापस्ततः पृथ्वीसमुद्भवः। एतानि पंचतत्त्वानि विस्तीर्णानि पंचधा ।।7।। अन्वय --वायो: तेज: तत: आप: तत: पृथिव्या: (तत्वम्) समुद्भव: (भवति)। एतानि पञ्चतत्वानि विस्तीर्णानि पञचधा। अर्थ:- वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव हुआ। इन पाँच प्रकार से ये पंच महाभूत विस्तृत होकर (समष्टि रूप से) सृष्टि करते हैं। तेभ्यो ब्रह्माण्डमुत्पन्नं तैरेव परिवर्त्तते। विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुनः।।8।। अन्वय -- तेभ्यो ब्रह्माण्डम् उत्पन्नं, तै: एव परिवर्तते, विलीयते तत्रैव एव, तत्र एव च रमते पुन:। अर्थ:- उन्हीं पंच महाभूतों से ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है, उन्हीं के द्वारा परिवर्तित होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है तथा सृष्टि का क्रम सतत् चलता रहता है। पंचतत्त्वमये देहे पंचतत्त्वानि सुन्दरि। सूक्ष्म रुपेण वर्त्तन्ते ज्ञायन्ते तत्त्वयोगिभिः।।9।। अन्वय -- (हे) सुन्दरि, पंचतत्वमये देहे पंचतत्वानि सूक्ष्मरूपेण वर्तन्ते, तत्वयोगिभि: ज्ञायन्ते। अर्थ:- हे सुन्दरि, इन्हीं पाँच तत्वों से निर्मित हमारे शरीर में ये पाँचों तत्व सूक्ष्म रूप से सक्रिय रहते हैं, जिनसे हमारे शरीर में परिवर्तन होता रहता है। इनका पूर्ण ज्ञान तत्वदर्शी योगियों को ही होता है। यहाँ तत्वायोगी का अर्थ तत्व की साधना कर तत्वों के रहस्यों के प्रकाश का साक्षात् करने वाले योगियों से है। अथ स्वरं प्रवक्ष्यामि शरीरस्थस्वरोदयम्। हंसचारस्वरूपेण भवेज्ज्ञानं त्रिकालजम्।।10।। अन्वयः अथ शरीरस्थ स्वरोदयं स्वरं प्रलक्ष्यामिं। हंसचाररुपेण त्रिकालजं ज्ञानं भवेत्। भावार्थः हे देवि, इसके बाद मैं अब तुम्हें शरीर में स्थित स्वरोदय को व्यक्त करने वाले स्वर के विषय में बताता हूँ। यह स्वर “हंस” रूप है अर्थात् जब साँस बाहर निकलती है तो ‘हं’ की ध्वनि होती है और जब साँस अन्दर जाती है तो ‘सः (सो)’ की ध्वनि होती है। इसके संचरण के स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर तीनों काल- भूत, भविष्य और वर्तमान हस्तामलवक हो जाते हैं। गुह्याद् गुह्यतरं सारमुपकार-प्रकाशनम्। इदं स्वरोदयं ज्ञानं ज्ञानानां मस्तके मणिः।।11।। अन्वयः- इदं स्वरोदयं ज्ञानं गुह्यात् गुहयतरम् सारम् उपकार-प्रकाशनम् च ज्ञानानां मस्तके मणि (इन अस्ति)। भावार्थः (हे देवि), स्वरोदय का ज्ञान अत्यन्त गोपनीय ज्ञानों से भी गोपनीय है। यह अपने ज्ञाता का हर प्रकार से हित करता है। यह स्वरोदय ज्ञान सभी ज्ञानों के मस्तक पर मणि के समान है, अर्थात् यह ज्ञानी के लिए अमूल्य रत्न से भी बढ़कर है। सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं ज्ञानं सुबोधं सत्यप्रत्ययम्। आश्चर्यं नास्तिके लोके आधारं त्वास्तिके जने।।12।। अन्वयः सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरम् (इदं) ज्ञानं सुबोधं सत्यप्रत्ययं च (अस्ति)। (इदं) लोके नास्तिके आश्चर्यं आस्तिके जने तु आधारम् (अस्ति)। भावार्थः- सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होने पर भी यह ज्ञान सुबोध और सत्य का साधन है अर्थात् सत्य का बोध कराने वाला है। यह नास्तिकों को आश्चर्य में डालने वाला और आस्तिकों के लिए उनकी आस्था का आधार है। शांते शुद्धे सदाचारे गुरूभक्त्यैकमानसे। दृढ़चित्ते कृतज्ञे च देयं चैव स्वरोदयम्।।13।। अन्वयः- शांते शुद्धे सदाचारे गुरुभक्त्या एकमानसे दृढ़चित्ते कृतज्ञे च स्वरोदयं (ज्ञानं) देयम्। भावार्थः- (हे देवि) जिस व्यक्ति की प्रकृति शांत हो गयी हो, जिसका चित्त शुद्ध हो, सदाचारी हो, अपने गुरु के प्रति एकनिष्ठ हो, जिसका निश्चय दृढ़ हो, ऐसे पुनीत आचरण वाले व्यक्ति को स्वरोदय ज्ञान की दीक्षा देनी चाहिए या ऐसा व्यक्ति स्वरोदय ज्ञान का अधिकारी होता है। दुष्टे च दुर्जने क्रुद्धे नास्तिके गुरुतल्पगे। हीनसत्त्वे दुराचारे स्वरज्ञानं न दीयते।।14।। अन्वयः- दुष्टे, दुर्जने, क्रुद्धे, नास्तिके, गुरूतल्पगे, हीनसत्त्वे दुराचारे च स्वरज्ञानं न दीयते। भावार्थः- दुष्ट, दुर्जन, क्रोधी, नास्तिक, कामुक, सत्त्वहीन और दुराचारी को स्वरोदय ज्ञान की दीक्षा कभी नहीं देनी चाहिए। शृणु त्वं कथितं देवि देहस्थ ज्ञानमुत्तमम्। येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्त्वं प्रणीयते।।15।। अन्वयः- हे देवि, त्वं देहस्थम् उत्तमं ज्ञानं शृणु, येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रणीयते। भावार्थः- हे देवि शरीर में स्थित इस उत्तम ज्ञान को सुनो, जिसे विशेष रुप जान लेने पर (व्यक्ति) सर्वज्ञ हो जाता है। स्वरे वेदाश्च शास्त्राणि स्वरे गांधर्वमुत्तमम्। स्वरे च सर्वत्रैलोक्यं स्वरमात्मस्वरुपकम्।।16।। अन्वयः- स्वरे वेदाः च शास्त्राणि च स्वरे उत्तमं गांधर्वं, स्वरे च सर्वत्रैलोक्यं स्वरम् आत्मस्वरूपकम्। भावार्थः सभी वेदों, शास्त्रों, संगीत आदि उत्तम ज्ञान स्वर में ही सन्निविष्ट है। हमारे अस्तित्व की तीनों अवस्थाएँ- चेतन, अवचेतन और अचेतन स्वर मे ही संगुम्फित हैं। (और क्या कहूँ?) स्वर ही आत्म-स्वरूप है। स्वरहीनः दैवज्ञो नाथहीनं यथा गृहम्। शास्त्रहीनं यथा वक्त्रं शिरोहीनं च यद्वपुः।।17।। अन्वयः स्वरहीनः दैवज्ञः यथा नाथहींन गृहं (भवति), यथा शास्त्रहींन वक्त्रं शिरोहीनः वपुः च। भावार्थः- स्वरोदय विज्ञान के ज्ञान के अभाव में एक ज्योतिषी वैसे ही है, जैसे बिना स्वामी का घर, शास्त्र-ज्ञान के बिना मुख और बिना शिर के शरीर। अर्थात् एक ज्योतिषि के लिए स्वर-ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। नाडीभेदं तथा प्राणतत्त्वभेदं तथैव च। सुषुम्नामिश्रभेदं च यो जानाति स मुक्तिगः।।18।। अन्वयः नाड़ीभेदं तथा प्राणतत्त्वभेदं च तथैव (तेषां) सुषुम्नामिश्रभेदं यः जानाति सः मुक्तिगः। भावार्थः- नाड़ियों, प्राणों तथा तत्त्वों के भेद का यथावत ज्ञान और सुषुम्ना के साथ उनके संयोग को जो व्यक्ति विवेक पूर्वक जानता है, वह मुक्ति पाने का अधिकारी होता है। साकारे वा निराकारे शुभवायुबलात्कृतम्। कथयन्ति शुभं केचित्स्वरज्ञाने वरानने।।19।। अन्वयः हे वरानने, स्वरज्ञाने शुभवायुबलात् साकारे निराकारे वा (किं) शुभं कृतम् इति केचित् कथयन्ति। भावार्थः- हे सुमुखि, स्वर का ज्ञान होने पर शुभ स्वर के प्रभाव से विद्वान दृष्ट और अदृष्ट जो शुभ है, उसका कथन करते है, अर्थात् दृष्ट और अदृष्ट रुप से क्या शुभ और क्या अशुभ है, बताते हैं। शिव स्वरोदय(भाग-2) इस अंक में भगवान शिव ने माँ पार्वती को विभिन्न प्रकार से स्वर की महिमा समझाई है। ब्रह्माण्ड-खण्ड-पिण्डाद्याः स्वरेणैव हि निर्मिताः। सृष्टि संहारकर्त्ता च स्वर‑ साक्षान्महेश्वरः।।20।। अन्वय -- स्वरेण एव हि ब्रह्माण्ड-खण्ड-पिण्डाद्या: निर्मिता: स्वर: च सृष्टिसंहारकर्ता साक्षात् महेश्वर:। भावार्थ -- ये विराट और लघु ब्रह्माण्ड और इनमें स्थित सभी वस्तुएं स्वर से निर्मित हैं और स्वर ही सृष्टि के संहारक साक्षात् महेश्वर (शिव) हैं। स्वरज्ञानात्परं गुह्मम् स्वरज्ञनात्परं धनम्। स्वरज्ञानत्परं ज्ञानं नवा दृष्टं नवा श्रुतम्।।21।। अन्वय -- स्वरज्ञानात् परं गुह्यं (ज्ञानं), स्वरज्ञानात् परं धन, स्वरज्ञानात् परं ज्ञानं नवा दृष्टं नवा श्रुतम्। भावार्थ& स्वर के ज्ञान से बढ़कर कोई गोपनीय ज्ञान, स्वर-ज्ञान से बढ़कर कोई धन और स्वर ज्ञान से बड़ा कोई दूसरा ज्ञान न देखा गया और न ही सुना गया है। शत्रून्हन्यात् स्वबले तथा मित्र समागमः। लक्ष्मीप्राप्तिः स्वरबले कीर्तिः स्वरबले सुखम्।।22।। अन्वय -- स्वरबले शत्रून् हन्यात् तथा मित्रसमागम स्वरबले लक्ष्मी-कीर्ति-सुखप्राप्ति:। भावार्थ& -- स्वर की शक्ति से शत्रु पराजित हो जाता है, बिछुड़ा मित्र मिल जाता है। यहाँ तक कि माता लक्ष्मी की कृपा, यश और सुख, सब कुछ मिल जाता है। कन्याप्राप्ति स्वरबले स्वरतो राजदर्शनम्। स्वरेण देवतासिद्धिः स्वरेण क्षितिपो वशः।।23।। अन्वय -- स्वरबले कन्याप्राप्ति:, स्वरतो राजदर्शनम् स्वरेण देवतासिद्धि: स्वरेण क्षितिपो वश:। भावार्थ& -- स्वर ज्ञान द्वारा पत्नी की प्राप्ति, शासक से मिलन, देवताओं की सिद्धि मिल जाती है और राजा भी वश में हो जाता है। स्वरेण गम्यते देशो भोज्यं स्वरबले तथा। लघुदीर्घं स्वरबले मलं चैव निवारयेत्।।24।। अन्वय -- स्वरेण देश: गम्यते स्वरबले भोज्यं तथा स्वरबले लघुदीर्घं मलं च एव निवारयेत्। भावार्थ& -- अनुकूल स्वर के समय यात्रा करनी चाहिए, स्वादिष्ट भोजन करना चाहिए तथा मल-मूत्र विसर्जन भी अनुकूल स्वर के काल में ही करना चाहिए। सर्वशास्त्रपुराणादि स्मृतिवेदांगपूर्वकम्। स्वरज्ञानात्परं तत्त्वं नास्ति किंचिद्वरानने।।25।। अन्वय -- हे वरानने, स्वर ज्ञानात्परं सर्वशास्त्रपुराणादिस्मृतिवेदांगपूर्वकं तत्वं किंचिद् न अस्ति। भावार्थ& -- हे वरानने, सभी शास्त्रों, वेदों, वेदान्तों, पुराणों और स्मृतियों द्वारा बताया गया कोई ज्ञान या तत्व स्वर ज्ञान से बढ़कर नहीं है। नामरूपादिकाः सर्वे मिथ्या सर्वेषु विभ्रमः। अज्ञान मोहिता मूढ़ा यावत्तत्त्वे न विद्यते।।26।। अन्वय -- यावत् तत्वे (पूर्णतया ज्ञानं) न विद्यते, (तावत्) अज्ञानमोहिता: मूढ़ा: सर्वेषु सर्वे नामादिका: मिथ्या विभ्रम: (जायते)। भावार्थ& -- जब तक तत्वों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हम अज्ञान के वशीभूत होकर नाम आदि के मिथ्या भवजाल में फंसे रहते हैं। इदं स्वरोदयं शास्त्रं सर्वशास्त्रोत्तमोत्तमम्। आत्मघट प्रकाशार्थं प्रदीपकलिकोपमम्।।27।। अन्वय -- सर्वशास्त्रोत्तमोत्तमम् इदं स्वरोदयं शास्त्रम् (यत्) आत्मघटं प्रकाशार्थं प्रदीपकलिकोपमम् भावार्थ& -- स्वरोदय शास्त्र सभी उत्तम शास्त्रों में श्रेष्ठ है जो हमारे आत्मारूपी घट (घर) को दीपक की ज्योति के रूप में आलोकित करता है। यस्मै कस्मै परस्मै वा न प्रोक्तं प्रश्नहेतवे। तस्मादेतत्स्वयं ज्ञेयमात्मनोवाऽत्मनात्मनि।।28।। अन्वय -- यस्मै, कस्मै, परस्मै वा प्रश्नहेतवे (मात्रमेव) न प्रोक्तं, तस्माद् एतद् स्वयं आत्मना आत्मानि आत्मन: ज्ञेयम्। भावार्थ& -- इस परम विद्या का उद्देश्य मात्र भौतिक जगत सम्बन्धी अथवा अन्य उपलब्धियों से जुड़े प्रश्नों के उत्तर पाना नहीं है। बल्कि आत्म-साक्षात्कार हेतु इस विद्या को स्वयं सीखना चाहिए और निष्ठापूर्वक इसका अभ्यास करना चाहिए। न तिथिर्न च नक्षत्रं न वारो ग्रहदेवताः। न च विष्टिर्व्यतीपातो वैधृत्याद्यास्तथैव च।।29।। अन्वय -- न तिथि:, न नक्षत्रं न वार: (न) ग्रहदेवता:, न च विष्टि:, व्यतीपात: वैधृति-आद्या: तथैव च। भावार्थ& स्वरज्ञानी को किसी काम को प्रारम्भ करने के लिए ज्योतिषीय दृष्टिकोण से शुभ तिथि, नक्षत्र, दिन, ग्रहदेवता, भद्रा, व्यतिपात और योग (वैधृति आदि) आदि के विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अर्थात् कार्य के अनुकूल स्वर और तत्व के उदय काल में कभी भी कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। कुयोगो नास्तिको देवि भविता वा कदाचन। प्राप्ते स्वरबले शुद्धे सर्वमेव शुभं फलम्।।30।। अन्वय -- हे देवि, (कश्चित) कदाचन कुयोगो नास्तिको भविता, (अपि) शुद्धे स्वरबले प्राप्ते (तस्मै) सर्वम् एवं शुभं फलम् प्राप्तम्। भावार्थ& हे देवि, यदि कोई व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी नास्तिक हो जाये, तो स्वरोदय ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह पुन: पावन हो जाता है और उसे भी शुभ फल ही मिलते हैं। देहमध्ये स्थिता नाड्यो बहुरूपाः सुविस्तरात्। ज्ञातव्याश्च बुधैर्नित्यं स्वदेहज्ञानहेतवे।।31।। अन्वय – देहमध्ये स्थिताः ना़ड्यः सुविस्तरात् बहुरूपाः। बुधैः स्वदेहज्ञानहेतवे नित्यं ज्ञातव्याः। भावार्थ - मनुष्य के शरीर में अनेक नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है। बुद्धिमान लोगों को अपने शरीर को अच्छी तरह जानने के लिए इनके विषय में अवश्य जानना चाहिए। नाभिस्थानककन्दोर्ध्वमंकुरा इव निर्गताः। द्विसप्ततिसहस्त्राणि देहमध्ये व्यवस्थिताः।।32।। अन्वय – नाभिस्थानककन्दोर्ध्वम् अंकुरा इव निर्गताः व्यवस्थिताः (नाड्यः) देहमध्ये द्विसप्ततिसहस्त्राणि। भावार्थ – शरीर में नाभि केंद्र से ऊपर की ओर अंकुर की तरह निकली हुई हैं और पूरे शरीर में व्यवस्थित ढंग से फैली हुई हैं। नाडीस्था कुण्डली शक्तिर्भुजङ्गाकारशायिनी। ततो दशोर्ध्वगा नाड्यो दशैवाधः प्रतिष्ठिताः।।33।। अन्वय - नाडीस्था भुजङ्गाकारशायिनी कुण्डलीशक्तिः। ततो दश उर्ध्वगा नाड्यः दश एव अधः प्रतिष्ठिताः। भावार्थ – इन नाड़ियों में सर्पाकार कुण्डलिनी शक्ति सोती हुई निवास करती है। वहां से दस नाड़ियां ऊपर की ओर गयी हैं और दस नीचे की ओर। द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यो चतुर्विंशति सङ्ख्यया। प्रधाना दशनाड्यस्तु दशवायुप्रवाहिकाः।।34।। अन्वय – द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यः सङ्ख्यया चतुर्विशति, (तेषु) दशवायुप्रवाहिकाः दशनाड्यस्तु प्रधानाः। भावार्थ – दो-दो नाड़ियाँ शरीर के दोनों ओर तिरछी गयी हैं। इस प्रकार दस ऊपर, दस नीचे और चार शरीर के दोनों तिरछी जाने वाली नाड़ियाँ संख्या में चौबीस हैं। किन्तु उनमें दस नाडियाँ मुख्य हैं जिनसे होकर दस प्राण हमारे शरीर में निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं। तिर्यगूर्ध्वास्तथाSधःस्था वायुदेहसमन्विताः। चक्रवत्संस्थिता देहे सर्वाः प्राणसमाश्रिताः।।35।। अन्वय - तिर्यग्-ऊर्ध्वाः तथा अधः देहे वायुसमन्विताः चक्रवत् सर्वाः (नाड्यः) देहे प्राणसमाश्रिताः संस्थिताः। भावार्थ – ऊपर और नीचे विपरीत कोणों से निकलने वाली ये नाड़ियाँ शरीर में जहाँ आपस में मिलती हैं वहाँ ये चक्र का आकार बना लेती हैं। किन्तु इनका नियंत्रण प्राण शक्ति से ही होता है। तासां मध्ये दश श्रेष्ठा दशानां तिस्र उत्तमाः। इडा च पिङ्गला चैव सषुम्ना च तृतीयका।।36।। अन्वय – तासां मध्ये दश (नाड्यः) श्रेष्ठाः, दशानाम् (अपि) तिस्रः उत्तमाः – इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयका। भावार्थ – इन चौबीस नाडियों में दस श्रेष्ठ हैं और उनमें भी तीन सर्वोत्तम हैं – इडा, पिंगला और सुषुम्ना। गांधारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी। अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी तथा।।37।। अन्वय – गांधारी, हस्तिजिह्वा च पूषा यशस्विनी चैव अलम्बुषा, कुहूः शङ्खिनी चैव दशमी तथा। भावार्थ – उक्त तीन नाड़ियों के अलावा सात नाड़ियाँ हैं – गांधारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी। शिव स्वरोदय(भाग-3) इस अंक में नाड़ियों की स्थिति तथा प्राणों के नाम सहित स्थान का विवरण दिया जा रहा हैः- इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे स्मृता। सुषुम्ना मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि।।38।। अन्वय – वामे भागे इडा स्थिता, दक्षिणे (भागे) पिङ्गला स्मृता, मध्यदेशे तु सुषुम्ना वाम चक्षुषि गान्धारी। दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे। यशस्विनी वामकर्णे आनने चाप्यलम्बुषा।।39।। अन्वय – दक्षिणे (चक्षुषि) हस्तिजिह्वा, दक्षिणे कर्णे पूषा, वाम कर्णे यशस्विनी आनने च अलम्बुषा। कुहूश्च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने तु शङ्खिनी। एवं द्वारं समाश्रित्य तिष्ठन्ति दशनाडिकाः।।40।। अन्वय –लिङ्गदेशे तु कुहूः मूलस्थाने तु च शङ्किनी। एवं द्वारं समाश्रित्य दशनाडिकाः तिष्ठन्ति। इडा पिङ्गला सुषुम्ना च प्राणमार्गे समाश्रिताः। एता हि दशनाड्यस्तु देहमध्ये व्यवस्थिताः।।41।। अन्वय –प्राणमार्गे इडा पिङ्गला सुषुम्ना च समाश्रिताः। देहमध्ये तु एताः दश नाड्यः व्यवस्थिताः भावार्थः - उक्त चार श्लोकों को अर्थ सुविधा की दृष्टि से एक साथ लिया जा रहा है। शरीर के बाएँ भाग में इडा नाड़ी, दाहिने भाग में पिंगला, मध्य भाग में सुषुम्ना, बाईं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिह्वा, दाहिने कान में पूषा, बाएँ कान में यशस्विनी, मुखमण्डल में अलम्बुषा, जननांगों में कुहू और गुदा में शांखिनी नाड़ी स्थित है। इस प्रकार से दस नाड़ियाँ शरीर के उक्त अंगों के द्वार पर अर्थात् ये अंग जहाँ खुलते हैं, वहाँ स्थित हैं। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्राण मार्ग में स्थित हैं। इस प्रकार दस नाडियाँ उक्त अंगों में शरीर के मध्य भाग में स्थित हैं। (38-41 तक) नामान्येतानि नाडीनां वातानान्तु वदाम्यहम्। प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च।।42।। नागः कूर्मोऽथकृकलो देवदत्तो धनञ्जयः। हृदि प्राणो वसेन्नित्यमपानो गुह्यमण्डले।।43।। समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः। व्यानो व्यापि शरीरेषु प्रधानाः दशवायवः।।44।। प्राणाद्याः पञ्चविख्याताः नागाद्याः पञ्चवायवः। तेषामपि पञ्चनां स्थानानि च वदाम्यहम्।।45।। उद्गारे नाग आख्यातः कूर्मून्मीलने स्मृतः। कृकलो क्षुतकृज्ज्ञेय देवदत्तो विजृंम्भणे।।46।। न जहाति मृतं वापिसर्वव्यापि धनञ्जयः। एते नाडीषु सर्वासु भ्रमन्ते जीवरूपिणः।।47।। भावार्थ - हे शिवे, नाड़ियों के बाद अब मैं तुम्हें इनसे संबंधित वायुओं (प्राणों) के विषय में बताऊँगा। इनकी भी संख्या दस है। दस में पाँच प्रमुख प्राण है और पाँच सहायक प्राण हैं। पाँच मुख्य वायु (प्राण) है- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। सहायक प्राण वायु हैं - नाग, कूर्म, कृकल (कृकर), देवदत्त और धनंजय। प्रमुख पाँच प्राणों की स्थिति निम्नवत है। प्राण वायु स्थिति प्राण हृदय अपान उत्सर्जक अंग समान नाभि उदान कंठ व्यान पूरे शरीर में पाँच सहायक प्राण-वायु के कार्य निम्न लिखित हैं- सहायक प्राण-वायु कार्य नाग डकार आना कूर्म पलकों का झपकना कृकल छींक आना देवदत्त जम्हाई आना धनंजय यह पूरे शरीर में व्याप्त रहता है मृत्यु के बाद भी कुछ तक समय यह शरीर में बना रहता है। इस प्रकार ये दस प्राण वायु दस नाड़ियो से होकर शरीर में जीव के रुप में भ्रमण करते रहते हैं, अर्थात् सक्रिय रहते हैं। इन श्लोकों के अन्वय की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यहाँ इनके अन्वय नहीं दिए जा रहे हैं। प्रकटं प्राणसञ्चारं लक्ष्येद्देहमध्यतः। इडापिङ्गलासुषुम्नाभिर्नाडीभिस्तिसृभिबुधः।।48।। अन्वय – इडा-पिङ्गला-सुषु्म्नाभिः तिसृभिः नाडीभिः बुधः देहमध्यतः प्राणसञ्चारं प्रकटं लक्ष्येत्। भावार्ध – इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना तीनों नाड़ियों की सहायता से शरीर के मध्य भाग में प्राणों के संचार को प्रत्यक्ष करना चाहिए। यहाँ शरीर के मध्य के दो अर्थ निकलते हैं- पहला नाभि और दूसरा मेरुदण्ड। इडा वामेव विज्ञेया पिङ्गला दक्षिणे स्मृता। इडानाडीस्थिता वामा ततो व्यस्ता च पिङ्गला।।49।। अन्वय – इडा नाड़ी वामे विज्ञेया पिङ्गला (च) दक्षिणे स्मृता। (अतएव) इडा वामा पिङ्गला ततो व्यस्ता (इति कथ्यते)। भावार्थ – इडा नाडी बायीं ओर स्थित है तथा पिङ्गला दाहिनी ओर। अतएव इडा को वाम क्षेत्र और पिंगला को दक्षिण क्षेत्र कहा जाता है। इडायां तु स्थितश्चन्द्रः पिङ्गलायां च भास्करः। सुषुम्ना शम्भुरूपेण शम्भुर्हंसस्वरूपतः।।50।। अन्वय – चन्द्रः इडायां तु स्थितः भास्करः पिङ्गलायां च सुषुम्ना शम्भुरूपेण। शम्भु हंसस्वरूपतः। भावार्थ – चंद्रमा इडा नाडी में स्थित है और सूर्य पिङ्गला नाडी में तथा सुषुम्ना स्वयं शिव-स्वरूप है। भगवान शिव का वह स्वरूप हंस कहलाता है, अर्थात् जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं और श्वाँस अवरुद्घ हो जाती है। क्योंकि- हकारो निर्गमे प्रोक्त सकारेण प्रवेशणम्। हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिरुच्यते।।51।। अन्वय – (श्वासस्य) निर्गमे हकारः प्रोक्तः प्रवेशणं सकारेण (च)। हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिः उच्यते। भावार्य - तंत्रशास्त्र और योगशास्त्र की मान्यता है कि जब हमारी श्वाँस बाहर निकलती है तो “हं” की ध्वनि निकलती है और जब श्वाँस अन्दर जाती है तो “सः (सो)” की। हं को शिव- स्वरूप माना जाता है और सः या सो को शक्ति-रूप। शक्तिरूपस्थितश्चन्द्रो वामनाडीप्रवाहकः। दक्षनाडीप्रवाहश्च शम्भुरूपो दिवाकरः।।52।। अन्वय – वामनाडीप्रवाहकः चन्द्रः शक्तिरूपस्थितः दक्षनाडीप्रवाहः च दिवाकरः शम्भुरूपः। भावार्थ - वायीं नासिका से प्रवाहित होने वाला स्वर चन्द्र कहलाता है और शक्ति का रूप माना जाता है। इसी प्रकार दाहिनी नासिका से प्रवाहित होने वाला स्वर सूर्य कहलाता है, जिसे शम्भु (शिव) का रूप माना जाता है। श्वासे सकारसंस्थे तु यद्दाने दीयते बुधैः। तद्दानं जीवलोकेSस्मिन् कोटिकोटिगुणं भवेत्।।53।। अन्वय – सकारसंस्थे तु बुधैः यद् दाने दीयते तद् दानं अस्मिन् जीवलोके कोटि-कोटिगुणं भवेत्। भावार्थ – श्वास लेते समय विद्वान लोग जो दान देते हैं, वह दान इस संसार में कई करोड़गुना हो जाता है। अनेन लक्षयेद्योगी चैकचित्तः समाहितः। सर्वमेवविजानीयान्मार्गे वै चन्द्रसूर्ययोः।।54।। अन्वय – एकचित्तः योगी चन्द्रसूर्ययोः मार्गे लक्षयेत् अनेन (सः) समाहितः (भूत्वा) सर्वमेव विजानीयात्। भावार्थ – एकाग्रचित्त होकर योगी चन्द्र और सूर्य नाड़ियों की गतिविधियों के द्वारा सबकुछ जान लेता है। ध्यायेत्तत्त्वं स्थिरे जीवे अस्थिरे न कदाचन। इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य महालाभो जयस्तथा।।55।। अन्वय – स्थिरे जीवे तत्त्वं ध्यायेत् कदाचन न (ध्यायेत्)। (अनेन) तस्य इष्टसिद्धिः महालाभः जयः तथा भवेत्। भावार्थ – जब मन एकाग्र हो तो तत्त्व चिन्तन करना चाहिए। किन्तु जब मन अस्थिर हो तो ऐसा करना उचित नहीं है। जो ऐसा करता है उसे इष्ट-सिद्धि, हर प्रकार के लाभ और सर्वत्र विजय उपलब्ध होते हैं। चन्द्रसूर्यसमभ्यासं ये कुर्वन्ति सदा नराः। अतीतानागतज्ञानं तेषां हस्तगतं भवेत्।।56।। अन्वय – ये नराः चन्द्रसूर्यसमभ्यासं कुर्वन्ति अतीतानागतज्ञानं तेषां हस्तगतं भवेत्। भावार्थ – जो मनुष्य (साधक) अभ्यास करके चन्द्र और सूर्य नाडियों में सन्तुलन बना लेते हैं, वे त्रिकालज्ञ हो जाते हैं। वामे चाSमृतरूपा स्याज्जगदाप्यायनं परम्। दक्षिणे चरभागेन जगदुत्पादयेत्सदा।।57।। अन्वय - वामे अमृतरूपा (इडा) चरभागेन जगत् परं अप्यायनं स्यात् दक्षिणे च (पिंगला) सदा जगत् उत्पादयेत्। भावार्थ – बायीं ओर स्थित इडा नाडी अमृत प्रवाहित कर शरीर को शक्ति और पोषण प्रदान करती है तथा दाहिनी ओर स्थित पिंगला नाडी शरीर को विकसित करती है। मध्यमा भवति क्रूरा दुष्टा सर्वत्र कर्मसु। सर्वत्र शुभकार्येषु वामा भवति सिद्धिदा।।58।। अन्वय – मध्यमा (सुषुम्ना) सर्वत्र कर्मषु दुष्टा क्रूरा भवति वामा (इडा च) शुभकार्येषु सर्वत्र सिद्धिदा भवति। भावार्थ – मध्यमा अर्थात सुषुम्ना किसी भी काम के लिए सदा क्रूर और असफलता प्रदान करने वाली है (आध्यात्मिक साधना या उपासना आदि को छोड़कर)। अर्थात् उत्तम भाव से किया कार्य भी निष्फल होता है। जबकि इडा नाडी के प्रवाह काल में किये गये शुभकार्य सदा सिद्धिप्रद होते हैं। निर्गमे तु शुभा वामा प्रवेशे दक्षिणा शुभा। चन्द्रः समस्तु विज्ञेयो रविस्तु विषमः सदा।।59।। अन्वय – निर्गमे वामा शुभा (भवति) प्रवेशे (च) दक्षिणा शुभा (भवति)। चन्द्रः तु समः रविः तु सदा विषमः विज्ञेयः। भावार्थ – बाएँ स्वर के प्रवाह के समय घर से बाहर जाना शुभ होता है और दाहिने स्वर के प्रवाह काल में अपने घर में या किसी के घर में प्रवेश शुभ दायक होता है। चन्द्र स्वर को सदा सम और सूर्य स्वर को विषम समझना चाहिए। अर्थात् चन्द्र स्वर को स्थिर और सूर्य स्वर को चंचल या गतिशील मानना चाहिए। चन्द्रः स्त्री पुरुषः सूर्यश्चन्द्रो गौरोSसितो रविः। चन्द्रनाडी प्रवाहेण सौम्यकार्याणि कारयेत्।।60।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। अतएव इसका अन्वय करना आवश्यक नहीं है। भावार्थ – चन्द्र नाडी का प्रवाह स्त्री रूप या शक्ति स्वरूप तथा सूर्य नाडी का प्रवाह पुरुष रूप या शिव स्वरूप माना जाता है। चन्द्र नाडी गौर तथा सूर्य नाडी श्याम वर्ण की मानी जाती है। चन्द्र नाडी के प्रवाह काल में सौम्य कार्य करना उचित है। सूर्यनाडीप्रवाहेण रौद्रकर्माणि कारयेत्। सुषुम्नायाः प्रवाहेण भुक्तिमुक्ति फलानि च।।61।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय आवश्यक नहीं है। भावार्थ – सूर्य नाडी के प्रवाह काल में श्रमपूर्ण कठोर कार्य करना चाहिए और सुषुम्ना के प्रवाह काल में इन्द्रिय सुख तथा मोक्ष प्रदान करने वाले कार्य करना चाहिए। शिव स्वरोदय(भाग-4) आदौ चन्द्रः सिते पक्षे भास्करो हि सितेतरे। प्रतिपत्तो हि दिनान्याहुस्त्रिणित्रिणि कृतोदयः।।62।। अन्वयः सिते पक्षे आदौ चन्द्रः सितेतरे हि भास्करः। प्रतिपत्तो त्रिणि-त्रिणि दिनानि कृतोदयः आहुः। भावार्थ- शुक्ल पक्ष में प्रथम तीन दिन सूर्योदय के समय चन्द्र स्वर प्रवाहित होता है और कृष्ण पक्ष में सूर्य स्वर और तीन-तीन दिन पर इनके उदय का क्रम बदलता रहता है। इस प्रकार स्वरोदय काल का क्रम समझना चाहिए। सार्धद्विघटिके ज्ञेयः शुक्ले कृष्णे शशी रविः। वहत्यैकदिनेनैव यथा षष्टिघटी क्रमात्।।63।। अन्वयः शुक्ले शशी कृष्णे रविः षष्टिघटीक्रमात् सार्धद्विघटिके एक दिनेन एव वहति (इति) ज्ञेतः। भावार्थः पिछले श्लोक में बताए गए क्रम से शुक्ल पक्ष में चन्द्र स्वर और कृष्ण पक्ष में सूर्य स्वर प्रतिदिन क्रम से ढाई-ढाई घटी अर्थात एक-एक घंटे साठ घटियों में प्रवाहित होते हैं यदि उनमें किसी प्रकार का अवरोध न किया जाए। घटी के हिसाब से साठ घटी का दिन-रात होता है। इस प्रकार ढाई घटी का एक घंटा होता है। वहेयुस्तद्घटीमध्ये पञ्चतत्त्वानि निर्देशयेत्। प्रतिपत्तो दिनान्याहुर्विपरीते विवर्जयेत्।।64।। अन्वय :- तदघटीमध्ये पंचतत्त्वानि वहेयुः। प्रतिपत्तो दिनानि निर्देशयेत् विपरीते (तु) विवर्जयेत् (इति) आहुः। भावार्थः प्रत्येक नाड़ी के एक घंटे के प्रवाह काल में पाँचो तत्त्वों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश का उदय होता है। यदि उपर्युक्त श्लोकों में बताए गए क्रम से प्रातःकाल स्वरों का क्रम न हो तो उन्हें परिवर्तित कर ठीक कर लेना चाहिए, अन्यथा कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। शुक्लपक्षे भवेद्वामा कृष्णपक्षे च दक्षिणा। जानीयात्प्रतिपत्पूर्वं योगी तद्यतमानसः।।65।। अन्यव :- शुक्लपक्षे वामाभवेद् कृष्णपक्षे च दक्षिणा प्रतिपत्पूर्वं तद् मानसः योगी जानीयात्। भावार्थः- शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को इड़ा तथा कृष्ण-पक्ष की प्रतिपदा को पिंगला नाड़ी चलनी चाहिए। तब योगी को दत्तचित्त होकर कार्य करना चाहिए। उसमें उसे सफलता मिलती है। शशाङ्कं वारयेद्रात्रौ दिवा वारयेत्भास्करम्। इत्याभ्यासरतो नित्यं स योगी नात्र संशयः।।66।। अन्वय :- (यः) रात्रौ शशाङ्कं वारयेत् दिवा (च) भास्करं वारयेत् सः योगी, न अत्रसंशयः। भावार्थः- रात में चन्द्रनाड़ी और दिन में सूर्यनाड़ी को रोकने में जो सफल हो जाता है वह निस्सन्देह योगी है। सूर्येण बध्यते सूर्यः चन्द्रश्चन्द्रेण बध्यते। यो जानाति क्रियामेतां त्रैलोक्यं वशगं क्षणात्।।67।। अन्यवः सूर्येण सूर्यः बध्यते चन्देण च चन्द्रः बध्यते, यः एतां क्रियां जानाति(तस्य) त्रैलोक्यं क्षणात् वशगं (भवेत्)। भावार्थ- सूर्यनाड़ी द्वारा अर्थात् पिंगला नाड़ी द्वारा सूर्य को अर्थात् शरीर में स्थित प्राण ऊर्जा को नियंत्रित किया जाता है तथा चन्द्र नाड़ी अर्थात् इड़ा नाड़ी द्वारा चन्द्रमा को वश में किया जा सकता है। यहाँ चन्द्रमा मन का संकेतक है। अर्थात् इडा द्वारा मन को नियंत्रित किया जाता है। इस क्रिया को जो जानता है और उसका अभ्यास करके दक्षता प्राप्त कर लेता है, वह तत्क्षण, तीनों लोकों का स्वामी बन जाता है। उदयं चन्द्रमार्गेण सूर्येणास्तमनं यदि। तदा ते गुणसंघाता विपरीतं तु विवर्जयेत्।।68।। अन्वयः यदि चन्द्रमार्गेण उदयं सूर्येण (च) अस्तमनं (भवेत्) तदा ते (नाड्यो) गुण संघाता, (परन्तु) विपरीतं विवर्जयेत्। भावार्थ- यदि चन्द्र नाड़ी में स्वर का उदय हो और सूर्यनाड़ी में उसका समापन हो, तो ऐसी स्थिति में मिली सम्पति कल्याणकारी होती है। परन्तु यदि स्वरों का क्रम उल्टा हो, तो कोई लाभ नहीं मिलेगा। अतएव उसे छोड़ देना चाहिए। गुरुशुक्रबुधेन्दूनां वासरे वामनाडिका। सिद्धिदा सर्वकार्येषु शुक्लपक्षे विशेषतः।।69।। अन्वय- शुक्लपक्षे विशेषतः गुरुशुक्रबुधेन्दूनां वासरे वामनाडिकासर्वकार्येषु सिद्धिदा (भवति)। भावार्थः शुक्ल पक्ष में विशेषकर सोम, बुध, गुरु और शुक्रवार को चन्द्रनाड़ी अर्थात् वायीं नासिका से स्वर के प्रवाह काल में किए गए सभी कार्यों में सफलता मिलती है। अर्काङ्गारकसौरीणां वासरे दक्षनाडिका। स्मर्तव्या चरकार्येषु कृष्णपक्षे विशेषतः।।70।। अन्वयः कृष्णपक्षे विशेषतः अर्काङ्गारकसौरीणां वासरे चरकार्येषु दक्षनाडिका स्मर्तव्या। भावार्थः कृष्ण पक्ष में विशेषकर रवि, मंगल और शनिवार को सूर्यनाडी के प्रवाह काल में किए गए अस्थायी फलदायक कार्यों में सफलता मिलती है। प्रथमं वहते वायुः द्वितीयं च तथानलः। तृतीयं वहते भूमिश्चतुर्थं वरुणो वहेत्।।71।। अन्वयः प्रथम वायुः वहते द्वितीयं च तथानलः तृतीयं भूमिः वहते चतुर्थं वारुणो वहेत्। भावार्थः यहाँ प्रत्येक नाड़ी के प्रवाह में पंच महाभूतों के उदय का क्रम बताया गया है, अर्थात् स्वर प्रवाह के प्रारम्भ में वायु तत्त्व का उदय होता है, तत्पश्चात् अग्नितत्त्व, फिर पृथ्वी तत्त्व, इसके बाद जल तत्त्व और अन्त में आकाश तत्त्व का उदय होता है। सार्धद्विघटिके पंचक्रमेणैवोदयन्ति च। क्रमादेकैकनाड्यां च तत्त्वानां पृथगुद्भवः।।72।। अन्वयः श्लोक अन्वित क्रम में है। इसलिए इसके अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थः जैसा कि तिरसठवें श्लोक में आया है कि हर नाड़ी में स्वरों का प्रवाह ढाई घटी अर्थात् एक घंटे का होता है। इस ढाई घटी या एक घंटे के प्रवाह-काल में पाँचों तत्त्व पिछले श्लोक में बताए गए क्रम से उदित होते हैं। इन तत्त्वों का प्रत्येक नाड़ी में अलग-अलग अर्थात् चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी दोनों में अलग-अलग किन्तु एक ही क्रम में तत्त्वों का उदय होता है। अहोरात्रस्य मध्ये तु ज्ञेया द्वादश संक्रमाः। वृष-कर्कट-कन्यालि-मृग-मीना निशाकरे।।73।। अन्वयः अहोरात्र्यस्य मध्ये तु द्वादश सङ्क्रमाः ज्ञेयाः। (तेषु) निशाकरे वृष-कर्कट-कन्यालि-मृग-मीना (राशवः वसन्ते) भावार्थः दिन और रात, इन चौबीस घंटों में बारह संक्रम अर्थात् राशियाँ होती हैं। इनमें वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियाँ चन्द्रनाडी में स्थित हैं। मेषसिंहौ च कुंभश्च तुला च मिथुनं धनुम्। उदये दक्षिणे ज्ञेयः शुभाशुभविनिर्णयः।।74।। अन्वयः मेषसिंहौ च कुम्भश्च तुला च मिथुनं धनुं दक्षिणे उदये शुभाशुभविनिर्णयः। भावार्थः मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुम्भ राशियाँ सूर्य नाड़ी में स्थित हैं। शुभ और अशुभ कार्यां के निर्णय हेतु इनका विचार करना चाहिए। इस अंक में स्वर विशेष के प्रवाह-काल में किए जाने वाले कार्य विशेष का उल्लेख किया जा रहा है। तिष्ठेत्पूर्वोत्तरे चन्द्रो भानु: पश्चिमदक्षिणे। दक्षनाडया: प्रसारे तु न गच्छेद्याम्यपश्चिमे॥ (75) अन्वय - चन्द्र: पूर्वोत्तरे तिष्ठेत् भानु: पश्चिमदक्षिणे। (अतएव) दक्षनाडया: प्रसारे याम्यपश्चिमे तु न गच्छेत्। भावार्थ - चन्द्रमा का सम्बन्ध पूर्व और उत्तर दिशा से है और सूर्य का दक्षिण और पश्चिम दिशा से। अतएव दाहिनी नाक से साँस चलते समय दक्षिण और पश्चिम दिशा की यात्रा प्रारम्भ नहीं करनी चाहिए। वमाचारप्रवाहे तु न गच्छेत्पूर्वउत्तरे। परिपंथिभयं तस्य गतोऽसौ न निवर्तते॥ (76) अन्वय - वामाचार प्रवाहे तु पूर्वउत्तरे न गच्छेत्। (यत:) तस्य परिपंथिभयं असौ गत: न निवर्तते। भावार्थ - इडा् नाड़ी के प्रवाह के समय उत्तर एवं पूर्व दिशा की यात्रा आरम्भ नहीं करनी चाहिए। 'क्योंकि इड़ा के प्रवाह काल में यात्रा के आरम्भ करने पर रास्ते में डाकुओं द्वारा लुटने का भय होता है या यात्रा से वह घर नहीं लौट पाता। तत्र तस्मान्न गंतव्यं बुधै: सर्वहितैषिभि:। तदा तत्र तु संयाते मृत्युरेव न संशय:॥ (77) अन्वय - तस्मात् बुधै: सर्वहितैषिभि: तत्र न गंतव्यम्। तदा तु संयाते मृत्यु एव न तत्र संशय:। भावार्थ - अतएव बुद्धिमान लोग सफलता पाने के उद्देश्य से वर्जित नाड़ी के प्रवाह के दौरान वर्जित दिशा की यात्रा प्रारम्भ नहीं करते, अन्यथा मृत्यु अवश्यंभावी है। शुक्लपक्षे द्वितीयायामर्के वहति चन्द्रमा:। दृश्यते लाभद: पुसां सौम्ये सौख्यं प्रजायते। (78) अन्वय - शुक्लपक्षे द्वितीयायाम् अर्के (यदि) चन्द्रमा वहति, पुसां सौम्ये लाभद: दृश्यते सौख्यं (च) प्रजायते। भावार्थ - यदि शुक्ल पक्ष की द्वितीया को सूर्योदय के समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो लाभ और मित्र के मिलने की संभावना अधिक होती है। सूर्योदये यदा सूर्यश्चन्द्रश्चन्द्रोदये भवेत्। सिध्यन्ति सर्वकार्याणि दिवारात्रिगतान्यपि॥ (79) अन्वय - यदा सूर्योदये सूर्य: चन्द्रोदये (च) चन्द्र: भवेत्, (तदा) दिवारात्रिगतान्यपि सर्वाणि कार्याणि सिध्यन्ति। भावार्थ - जब सूर्योदय के समय सूर्य स्वर और चन्द्रोदय के समय चन्द्र स्वर बहे, तो उस दिन किए गए सभी कार्य सफल होते हैं। चन्द्रकाले यदा सूर्यश्चन्द्र: सूर्योदये भवेत्। उद्वेग: कलहो हानि: शुभं सर्व निवारयेत्॥ (80) अन्वय - यदा चन्द्रकाले सूर्य: सूर्योदये चन्द्र: भवेत् (तदा) उद्वेग:, कलह:, हानि: (भवेत्) शुभं सर्वं निवारयेत्। भावार्थ - लेकिन जब सूर्योदय के समय चन्द्र नाड़ी और चन्द्रोदय के समय सूर्य नाड़ी प्रवाहित हो, तो उस दिन किए सारे कार्य संघर्षपूर्ण और निष्फल होते हैं। सूर्यस्यवाहे प्रवदन्ति विज्ञा: ज्ञानं ह्रगमस्य तु निश्चयेन। श्वासेन युक्तस्य तु शीतरश्मे:, प्रवाहकाले फलमन्यथा स्यात्॥ (81) अन्वय - विज्ञा: अगमस्य हिज्ञानं प्रवदन्ति (यत्) सूर्य वाहे निश्चयेन (किन्तु) शीतरश्मे: श्वासेन युक्तस्य प्रवाहकाले अन्यथा फलं स्यात्॥ भावार्थ - विद्वान लोग कहते हैं कि सूर्य स्वर के प्रवाह काल में किए गए कार्यों में अभूतपूर्व सफलता मिलती है, जबकि चन्द्रस्वर के प्रवाह काल में किए गए कार्यों में ऐसा कुछ नहीं होता। इस अंक का प्रतिपाद्य विषय है कि यदि नियत तिथि को प्रात:काल नियत स्वर प्रवाहित न हो तो किस प्रकार के दुष्परिणाम सामने आते हैं या आने की संभावना बनती है। यदा प्रत्यूषकालेन विपरीतोदयो भवेत्। चन्द्रस्थाने वहत्यर्को रविस्थाने च चन्द्रमा:॥ (82) अन्वय - यदा प्रत्यूषकालेन विपरीतोदय: भवेत् (अर्थात्) चन्द्रस्थाने अर्क: वहति रविस्थाने चन्द्रमा: च। प्रथमे मन उद्वेगं धनहानिर्द्वितीयके। तृतीये गमनं प्रोक्तमिष्टनाशं चतुर्थके ॥ (83) अन्वय - प्रथमे मन-उद्वेगं द्वितीयके धनहानि: तृतीय गमनं प्रोक्तं चतुर्थक इष्टनाशम्। पंचमे राज्य-विध्वंसं षष्ठे सर्वार्थनाशनम्। सप्तमे व्याधिदु:खानि अष्टमे मृत्युमादिशेत्॥ (84) अन्वय - यह श्लोक अन्वित क्रम होने से अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ - समझने की सुविधा हेतु तीनों श्लोकों का भावार्थ एक साथ दिया जा रहा है। प्रात: काल में (सूर्योदय के समय) यदि विपरीत स्वर प्रवाहित होता है, अर्थात् प्रात:काल सूर्य स्वर के स्थान पर चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और चन्द्र स्वर के स्थान पर सूर्य स्वर प्रवाहित हो, तो प्रथम काल खण्ड में मानसिक चंचलता होती है, दूसरे कालखण्ड में धनहानि, तीसरे में यात्रा (अनचाही) चौथे में असफलता, पॉचवें में राज्य विध्वंस, छठवें में सर्वनाश, सातवें में शरीर व्याधि और कष्ट तथा आठवें कालखण्ड में मृत्यु। (82 - 84 श्लोक) कालत्रये दिनान्यष्टौ विपरीतं यदा वहेत्। तदा दुष्टफलं प्रोक्तं किंचिन्यूनं तु शोभनम॥ (85) अन्वय - यह श्लोक भी अन्विति क्रम में है, अतएव इसका अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ - आठ दिनों तक निरन्तर प्रात:, दोपहर और सायंकाल यदि विपरीत स्वर चले, तो सभी कार्यों में असफलता मिलती है और कीर्ति लेशमात्र भी नहीं मिलती। प्रातर्मध्याहृयोश्चन्द: सांयकाले दिवाकर:। तदा नित्यं जयो लाभो विपरीतं विवर्जयेत्॥ (86) अन्वय - यह श्लोक भी अन्विति क्रम में है अतएव इसका अन्वय आवश्यक नहीं है। भावार्थ - यदि सूर्योदय काल और मध्याह्न में चन्द्र स्वर और सूर्यास्त के समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो तो उस दिन हर तरह की सफलता मिलती है। लेकिन स्वरों का क्रम यदि उल्टा हो, तो शुभ कार्यों को न करना ही बुद्धिमानी है। वामे वा दक्षिणे वापि यत्र संक्रमते शिव:। कृत्वा त्पादमादौ च यात्रा भवति सिद्धिदा॥ (87) अन्वय - यह श्लोक भी अन्विति क्रम में है अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ - यात्रा प्रारम्भ करते समय जिस नाक से साँस चल रही हो वही पैर घर से पहले निकाल कर यात्रा करनी चाहिए। इस प्रकार यात्रा निर्विघ्न सफल होती है। चन्द्र: समपद: कार्यो रविस्तु विषम: सदा। पूर्णपादं पुरस्कृत्य यात्रा भवति सिद्धिदा॥ (88) अन्वय - आवश्यकता नहीं है। भावार्थ - यदि चन्द्र स्वर प्रवाहित हो तो समसंख्या में तथा सूर्य स्वर के प्रवाह के समय विषम संख्या में कदम भरना चाहिए। इससे यात्रा सिद्धिप्रद होती है। शिव स्वरोदय(भाग-5) इस अंक में मनोकामना की सिद्धि के संदर्भ में दिए गए श्लोकों पर चर्चा की जा रही है। यत्रांगे वहते वायुस्तदंगस्यकरस्तलाम् सुप्तोत्थितो मुखं स्पृष्ट्वा लभते वांछितं फलम् ॥ (89) अन्वय - सुप्तोत्थित: अंगे वायु: वहते तदगस्य कर: तलाम् मुखं स्पृष्ट्वा वांछितं फलं लभते। भावार्थ - प्रात: काल उठकर यह जाँच करनी चाहिए कि स्वर किस नासिका से प्रवाहित हो रहा है। इसके बाद जिस नासिका से स्वर चल रहा हो उस हाथ के करतल (हथेली) को देखना चाहिए और उसी से चेहरे का वही भाग स्पर्श करना चाहिए। अर्थात् यदि बायीं नासिका से साँस चल रही हो तो बाँए हाथ की हथेली ऊपर से नीचे तक देखनी चाहिए और उससे चेहरे का बायाँ हिस्सा स्पर्श करना चाहिए। यदि दाहिना स्वर चल रहा हो तो दाहिने हाथ से स्पर्श करना चाहिए। ऐसा करने से वांछित फल मिलता है। वैसे स्वर-विज्ञानियों ने यह भी सलाह दी है कि विस्तर से उतरते समय (प्रात:काल) उसी ओर का पैर जमीन पर सबसे पहले रखना चाहिए जिस नाक से साँस चल रही हो। परदत्ते तथा ग्राह्ये गृहन्निर्गमनेऽपि च। यदंगे वहते नाड़ी ग्राहयं तेन करांघ्रिणा॥ (90) अन्वय - यह श्लोक अन्विति क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ - दान देते समय अथवा कुछ भी देते समय या लेते समय उसी हाथ का प्रयोग करना चाहिए जिस नासिका से स्वर प्रवाहित हो रहा हो। इसी प्रकार यात्रा शुरू करते उसी ओर के पैर को घर से पहले निकालना चाहिए जिस नासिका से स्वर प्रवाहित हो रहा हो। । न हानि: कलहो नैव कंटकैर्नापि भिद्यते। निवर्तते सुखी चैव सर्वोपद्रव वर्जित:॥ (91) अन्वय - यह श्लोक की लगभग अन्वित क्रम में है। इसलिए अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ - उपर्युक्त श्लोक में बताए गए तरीके को जो अपनाते हैं, उन्हें न कभी नुकसान होता है और न ही अवांछित व्यक्तियों से कष्ट होता है। बल्कि इससे उन्हें सुख और शान्ति मिलती है। गुरु- बंधु- नृपामात्येष्वन्येषु शुभदायिनी। पूर्णांगे खलु कर्त्तव्या कार्यसिद्धिर्मन:स्थिता॥ (92) अन्वय - यह श्लोक भी अन्तिम क्रम में है। भावार्थ - जब अपने गुरु, राजा, मित्र या मंत्री का सम्मान करना हो तो उन्हें अपने सक्रिय स्वर की ही ओर रखना चाहिए। अरिचौराधर्मधर्मा अन्येषां वादिनिग्रह:। कर्त्तव्या: खलु रिक्तायां जयलाभसुखार्थिभि:॥ (93) अन्वय - जयलाभसुखार्थिभि: अरि-चौराधर्मधर्मा अन्वेषां वादिनिग्रह: रिक्तायां खलु कर्तव्या:। भावार्थ - जय, लाभ और सुख चाहने वाले को अपने शत्रु, चोर, साहूकार, अभियोग लगाने वाले को रोकने हेतु उन्हें अपने निष्क्रिय स्वर की ओर, अर्थात जिस नासिका से स्वर प्रवाहित न हो उस ओर रखना चाहिए। दूरदेशे विधातव्यं गमनं तु हिमद्युतौ। अभ्यर्णदेशे दीप्ते तु कारणाविति केचन॥ (94) अन्वय - दूरदेशे गमनं हिमद्युतौ केचन अभ्यर्णदेशे दीप्ते कारणौ इति विधातव्यम्। भावार्थ - लम्बी यात्रा का प्रारम्भ बाएँ स्वर के प्रवाह काल में करना चाहिए और कम दूरी की यात्रा दाहिने स्वर के प्रवाह काल में करनी चाहिए। यत्किंचित्पूर्वमुद्दिष्टं लाभादि समरागम:। तत्सर्वं पूर्णनाडीषु जायते निर्विकल्पकं। (95) अन्वय - अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ - उपर्युक्त फल मनुष्य को तभी मिलते हैं, जब वह ऊपर बताए गए तरीकों को अपनाता है। ऐसा करने पर निश्चित सफलता मिलती है। पिछले अंक में सक्रिय और निष्क्रिय स्वरों में किए कार्यों के परिणामों चर्चा की गयी थी। वही क्रमशः दिया जा रहा है। शून्यनाड्या विपर्यस्तं यत्पूर्वं प्रतिपादितम्। जायते नान्यथा चैव यथा सर्वज्ञभाषितम्।।96।। अन्वय – शून्यनाड्या विपर्यस्तं यत्पूर्वं प्रतिपादितं (तत्सर्वं भवति) न अन्यथा जायते यथा सर्वज्ञभाषितम्। भावार्थ – उपर्युक्त श्लोकों में बताए गई विधियों के विपरीत अर्थात सक्रिय स्वर के विपरीत यदि हम निष्क्रिय स्वर में कार्य करते हैं, तो निश्चित रूप से विपरीत और अवांछित परिणाम होते हैं। व्यवहारे खलोच्चाटे द्वेषिविद्यादिवञ्चके। कुपितस्वामिचौराद्ये पूर्णस्थाः स्युर्भयङ्कराः।।97।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में ही है, अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ – यदि किसी के सक्रिय स्वर की ओर कोई दुष्ट या धोखेबाज, शत्रु, ठग, नाराज स्वामी अथवा चोर दिखाई पड़ जाय, तो समझना चाहिये कि उसे खतरा है अर्थात वह सुरक्षित नहीं है। दूराध्वनि शुभश्चन्द्रो निर्विघ्नोSभीष्टसिद्धिदः। प्रवेशकार्यहेतौ च सूर्यनाडीप्रशस्यते।98।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम है। भावार्थ – लम्बी यात्रा का आरम्भ करते समय फलदायक है और किसी कार्यवश किसी के घर में प्रवेश करते समय सूर्य स्वर का सक्रिय होना फलप्रद होता है। अयोग्ये योग्यता नाड्या योग्यस्थानेप्ययोग्यता। कार्यानुबन्धनो जीवो यथा रुद्रस्तथाचरेत्।99।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – जिस व्यक्ति को स्वरोदय विज्ञान की जानकारी नहीं है और वह स्वर के विपरीत अपने कार्य करता है, तो वह उस कार्य के बंधन में बँधा रहता है। इस लिए सदा स्वर के अनुकूल कार्य करना चाहिए। चन्द्रचारे विषहते सूर्यो बलिवशं नयेत्। सुषुम्नायां भवेन्मोक्ष एको देवस्त्रिधा स्थितः।।100।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में होने के कारण इसका अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ - चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में विष से दूर रहना चाहिए। सूर्य स्वर के प्रवाह काल में किसी व्यक्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। शून्य स्वर अर्थात सुषुम्ना नाड़ी के प्रवाह काल में मोक्ष-कारक कार्य करना चाहिए। इस प्रकार एक ही स्वर तीन अलग-अलग रूपों में काम करता है। शुभान्यशुभकार्याणि क्रियन्तेSहर्निशं यदा। तदा कार्यानुरोधेन कार्यं नाडीप्रचालनम्।।101।। अन्वय – यदा अहर्निशं शुभान्यशुभकार्याणि क्रियन्ते तदा कार्यानुरोधेन नाडीप्रचालनं कार्यम्। भावार्थ – जब दिन अथवा रात के समय किसी व्यक्ति को शुभ-अशुभ कोई भी कार्य करना हो, तो उसे आवश्यकता के अनुसार अपनी नाडी को बदल लेना चाहिए। शिवस्वरोदय के इस अंक में इडा नाड़ी के प्रवाह-काल में किए जाने वाले कार्यों का विवरण दिया जा रहा है। समझने की सुविधा की दृष्टि से 102 से 105 तक के श्लोकों को भावार्थ के लिए एक साथ लिया जा रहा है। स्थिरकर्मण्यलङ्कारे दूराध्वगमने तथा। आश्रमे धर्मप्रासादे वस्तूनां सङ्ग्रहेSपि च।।102।। वापीकूपताडागादिप्रतिष्ठास्तम्भदेवयोः। यात्रादाने विवाहे च वस्त्रालङ्कारभूषणे।।103।। शान्तिके पौष्टिके चैव दिव्यौषधिरसायने। स्वस्वामीदर्शने मित्रे वाणिज्ये कणसंग्रहे।।104।। गृहप्रवेशे सेवायां कृषौ च बीजवपने। शुभकर्मणि संघे च निर्गमे च शुभः शशि।।105।। अन्वय – स्थिर-कर्मणि शुभः शशी निर्गमे (यथा) अलङ्कारे दूराध्वगमने आश्रमे धर्मप्रासादे वस्तूनां संग्रहे अपि च वापीकूपताडागादिप्रतिष्ठास्तम्भदेवयोः यात्रा दाने विवाहे च वस्त्रालङ्कारभूषणे शान्तिके पौष्टिके चैव दिव्यौषधिरसायने स्वस्वमीदर्शने मित्रे वाणिज्ये कण-संग्रहे गृहप्रवेशे सेवायां कृषौ बीजवपने शुभकर्मणि संघौ च। भावार्थ – स्थायी परिणाम देनेवाले जितने भी कार्य हैं, उन्हें इडा अर्थात बाँए स्वर के प्रवाह-काल में प्रारम्भ करना चाहिए, जैसे-सोने के आभूषण खरीदना, लम्बी यात्रा करना, आश्रम-मन्दिर आदि का निर्माण करना, वस्तुओं का संग्रह करना, कुँआ या तालाब खुदवाना, भवन आदि का शिलान्यास करना, तीर्थ-यात्रा करना, विवाह करना या विवाह तय करना, वस्त्र तथा आभूषण खरीदना, ऐसे कार्य जो शान्ति-पूर्वक योग्य हों उन्हें करना, पोषक पदार्थ ग्रहण करना, औषधि सेवन करना, अपने मालिक से मुलाकात करना, मैत्री करना, व्यापार करना, अन्न संग्रह करना, गृह-प्रवेश करना, सेवा करना, खेती करना, बीज बोना, शुभ कार्यों में लगे लोगों के दल से मिलना आदि। अगले सात श्लोकों अर्थात 106 से 112 तक के श्लोकों को अर्थ समझने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए एक साथ लिया जा रहा है। विद्यारम्भादिकार्येषु बान्धवानां च दर्शने। जन्ममोक्षे च धर्मे च दीक्षायां मंत्रसाधने।।106।। कालविज्ञानसूत्रे तु चतुष्पादगृहागमे। कालव्याधिचिकित्सायां स्वामीसंबोधने तथा।।107।। गजाश्वरोहणे धन्वि गजाश्वानां च बंधने। परोपकारणे चैव निधीनां स्थापने तथा।।108।। गीतवाद्यादिनृत्यादौ नृत्यशास्त्रविचारणे। पुरग्रामनिवेशे च तिलकक्षेत्रधारणे।।109।। आर्तिशोकविषादे च ज्वरिते मूर्छितेSपि वा। स्वजनस्वामीसम्बन्धे अन्नादेर्दारुसङ्ग्रहे।।110।। स्त्रीणां दन्तादिभूषायां वृष्टरागमने तथा। गुरुपूजाविषादीनां चालने च वरानने।।111।। इडायां सिद्धदं प्रोक्तं योगाभ्यासादिकर्म च। तत्रापि वर्जयेद्वायुं तेज आकाशमेव च।।112।। अन्वय – ये सभी श्लोक लगभग अन्वित क्रम में हैं, अतएव इनका अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ – उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त निम्नलिखित कार्य भी चन्द्र नाड़ी के प्रवाह- काल में प्रारम्भ करना चाहिए- अक्षरारम्भ, मित्र-दर्शन, जन्म, मोक्ष, धर्म, मंत्र-दीक्षा लेना, मंत्र जप या साधना करना, काल-विज्ञान (ज्योतिष) का अभ्यास करना, नये मवेशी को घर लाना, असाध्य रोगों की चिकित्सा, मालिक से संवाद, हाथी और घोड़े की सवारी या उन्हें घुड़साल में बाँधना, धनुर्विद्या का अभ्यास, परोपकार करना, धन की सुरक्षा करना, नृत्य, गायन, अभिनय, संगीत और कला आदि का अध्ययन करना, नगर या गाँव में प्रवेश, तिलक लगाना, जमीन खरीदना, दुखी और निराश लोगों या ज्वर से पीड़ित या मूर्छित व्यक्ति की सहायता करना अपने सम्बन्धियों या स्वामी सम्पर्क करना, ईंधन तथा अन्न संग्रह करना, वर्षा के आगमन के समय स्त्रियों के लिए आभूषण आदि खरीदना, गुरु की पूजा, विष-बाधा को दूर करने के उपाय, योगाभ्यास आदि कार्य इडा नाड़ी के प्रवाह-काल में सिद्धिप्रद होते हैं। लेकिन इडा नाड़ी में वायु, अग्नि अथवा आकाश तत्त्व सक्रिय हो वैसा नहीं होता, अर्थात इन तत्त्वों के इडा में प्रवाहित हो तो उक्त कार्य को न करना ही श्रेयस्कर है। सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति दिवारात्रिगतान्यपि। सर्वेषु शुभकार्येषु चन्द्रचारः प्रशास्यते।।113। अन्वय – दिवारात्रिगतान्यपि सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति, (अतएव) सर्वेषु शुभकार्येषु चन्द्रचारः प्रशास्यते। भावार्थ – दिन हो अथवा रात इडा के प्रवाह-काल में किए गए सभी कार्य सिद्ध होते हैं, अतएव सभी कार्यों के लिए चन्द्र अर्थात इडा नाड़ी का ही चुनाव करना चाहिए। पिंगला नाड़ी के प्रवाह-काल में किए जानेवाले कार्य पिछले अंक में इडा नाड़ी के प्रवाह-काल में किए जानेवाले कार्यों के विवरण दिए गए थे। इस अंक में पिंगला नाड़ी के प्रवाह-काल में किए जानेवाले कार्यों के विवरण प्रस्तुत हैं। इस संदर्भ में यहाँ आठ श्लोक दिए गए हैं। समझने की सुविधा की दृष्टि से इनके भावार्थ एक साथ दिए जा रहे हैं। कठिन-क्रूर-विद्यानां पठने पाठने तथा। स्त्रीसङ्ग-वेश्यागमने महानौकाधिरोहणे।।114।। भ्रष्टकार्ये सुरापाने वीरमन्त्राद्युपासने। विह्वलोध्वंसदेशादौ विषदाने च वैरिणाम्115।। शास्त्राभ्यासे च गमने मृगयापशुविक्रये। इष्टिकाकाष्ठपाषाणरत्नघर्षणे दारुणे।।116।। गत्यभ्यासे यन्त्रतन्त्रे दुर्गपर्वतारोहणे। द्यूते चौर्ये गजाश्वादिरथसाधनवाहने।।117।। व्यायामे मारणोच्चाटे षट्कर्मादिसाधने। यक्षिणी-यक्ष-वेताल-विष-भूतादिनिग्रहे।।118।। खरोष्ट्रमहीषादीनां गजाश्वरोहणे तथा। नदीजलौघतरणे भेषजे लिपिलेखने।।119।। मारणे मोहने स्तम्भे विद्वेषोच्चाटने वशे। प्रेरणे कर्षणे क्षोभे दाने च क्रय-विक्रये।।120।। प्रेताकर्षण-विद्वेष-शत्रुनिग्रहणेSपि च। खड्गहस्ते वैरियुद्धे भोगे वा राजदर्शने। भोज्ये स्नाने व्यवहारे दीप्तकार्ये रविः शुभः।।121।। भावार्थ – पिंगला नाड़ी के प्रवाह के समय निम्नलिखत कार्य प्रारम्भ करने के सुझाव दिए गए हैं जिससे सफलता मिले- कठिन तथा क्रूर विद्याओं का अध्ययन और अध्यापन, स्त्री-समागम, वेश्या-गमन, जलयान की सवारी, भ्रष्ट कार्य, सुरापान, वीर-मंत्रों आदि की साधना, शत्रु पर विजय या उसे विष देना, शास्त्रों का अध्ययन, शिकार करना, पशुओं का विक्रय, ईंट तथा खपरे बनाना, पत्थर तोड़ना, लकड़ी काटना, रत्न-घर्षण, दारुण कार्य करना, गति का अभ्यास, यंत्र-तंत्र की उपासना, किले या पहाड़ पर चढ़ना, जुआ खेलना, चोरी करना, हाथी या घोड़े की सवारी करना या उन्हें नियंत्रित करना, व्यायाम करना; मारण, उच्चाटन, मोहन (वशीकरण), स्तम्भन, शान्ति और विद्वेषण तांत्रिक षट्कर्म की साधना करना, यक्ष-यक्षिणी, वेताल आदि सूक्ष्म जगत के जीवों से सम्बन्धित साधना या सम्पर्क करना, विषधारी जन्तुओं को नियंत्रित करना; गधे, घोड़े, ऊँट, हाथी अथवा भैसे आदि की सवारी, नदी या समुद्र को तैरकर पार करना, औषधि का सेवन, पत्राचार करना, प्रेरित करना, कृषि कार्य, किसी को क्षुब्ध करना, दान लेना-देना, क्रय-विक्रय, प्रेतात्मओं का आह्वान, शत्रु को नियंत्रित करना या उससे युद्ध करना, तलवार धारण करना, इन्द्रिय सुख का भोग, राज-दर्शन, दावत खाना, स्नान, कठोर कार्य और व्यवहार करना आदि में सूर्य-प्रवाह शुभ होता है।114-121।। भुक्तमार्गेण मन्दाग्नौ स्त्रीणां वश्यादिकर्मणि। शयनं सूर्यवाहेन कर्त्तव्यं सर्वदा बुधैः।।122।। अन्वय – सर्वदा बुधैः भुक्तमार्गेण मन्दाग्नौ स्त्रीणां वश्यकर्मणि शयनं सूर्यवाहेन कर्तव्यम्।122। भावार्थ – भूख जाग्रत करना, किसी स्त्री को नियंत्रित करना और सोना आदि कार्य बुद्धिमान लोग सफल होने के लिए सूर्य नाड़ी के प्रवाह काल में करते हैं। क्रूराणि सर्वकर्माणि चराणि विविधानि च। तानि सिद्धयन्ति सूर्येण नात्र कार्या विचारणा।।123।। अन्वय – क्रूराणि सर्वकर्मणि विविधानि चराणि च तानि सूर्येण सिद्धयन्ति, अत्र न विचारणा कर्या।123। भावार्थ – सभी प्रकार के क्रूर कार्य और विविध चर कार्य (अस्थायी प्रकृति वाले कार्य) सूर्य नाड़ी के प्रवाह काल में करने पर सिद्ध होते हैं, किसी प्रकार का इसमें संशय नहीं। शिव स्वरोदय(भाग-6) सुषुम्ना नाड़ी क्षणं वामे क्षणं दक्षे यदा वहति मारुतः। सुषुम्ना सा च विज्ञेया सर्वकार्यहरा स्मृता।।124।। अन्वय- यदा मारुतः क्षणं वामे क्षणं दक्षे वहति सा सुषुम्ना विज्ञेया सर्वकार्यहारा च स्मृता।124। भावार्थ- जब साँस थोड़ी-थोड़ी देर में बाँए से दाहिने और दाहिने से बाँए बदलने लगे तो समझना चाहिए कि सुषुम्ना नाड़ी चल रही है। इसी को शून्य स्वर भी कहा जाता है और यह सब कुछ नष्ट कर देता है। तस्यां नाड्यां स्थितो वह्निर्ज्वलते कालरूपकः। विषवत्तं विजानीयात् सर्वकार्यविनाशनम्।।125।। अन्वय- तस्यां नाड्यां स्थितः वह्निः कालरूपकः ज्वलते, तं सर्वकार्य-विनाशनं विषवत् विजानीयात्।125। भावार्थ- उस नाड़ी में अर्थात् सुषुम्ना में अग्नि तत्व का प्रवाह काल-रूप होता है। सभी शुभ और अशुभ कार्यों के फल को जलाकर भस्मीभूत कर देता है, अतएव इसे विष के समान समझना चाहिए। यदानुक्रममुल्लङ्घ्य यस्य नाडीद्वयं वहेत्। तदा तस्य विजानीयादशुभं नात्र संशयः।।126।। अन्वय- यदा यस्य नाडीद्वयं अनुक्रमम् उल्लङ्घ्य वहेत् तदा तस्य अशुभं विजानीयात्, अत्र न संशयः।126। भावार्थ- यदि किसी की चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी अपने क्रम में न प्रवाहित होकर एक ही नाड़ी काफी लम्बे समय तक प्रवाहित होती रहे तो समझना चाहिए कि उसका कुछ अशुभ होना है, इसमें कोई संशय नहीं है। क्षणं वामे क्षणं दक्षे विषमं भावमादिशेत्। विपरीतं फलं ज्ञेयं ज्ञातव्यं च वरानने।।127।। अन्वय- वरानने, क्षणं वामे क्षणं दक्षे भावं विषमम् आदिशेत्, ज्ञेयं फलं विपरीतं च ज्ञातव्यम्।127। भावार्थ- हे सुमुखि, जब क्षण-क्षण में बायीं और दाहिनी नाड़ियाँ अपना क्रम बदलती रहें तो ये विषम भाव की द्योतक होती हैं और उस समय किया गया कार्य आशा के विपरीत फल प्रदान करता है (पर आध्यात्मिक साधनाओं को छोड़कर)। उभयोरेव सञ्चार विषवत्तं विदुर्बुधैः। न कुर्यात्क्रूरं सौम्यानि तत्सर्वं विफलं भवेत्।।128।। अन्वय- (यदि) उभयोः सञ्चारः (भवति) बुधाः तं विषवत् विदुः, (अत एव) क्रूरं सौम्यानि न कुर्यात्। तत्सर्वं विफलं भवेत्। भावार्थ- विद्वान लोग दोनों नाड़ियों का एक साथ प्रवाहित होना विष की तरह मानते हैं। अतएव उस समय क्रूर और सौम्य दोनों ही तरह के कार्यों को न करना ही उचित है। क्योंकि उनका वांछित फल नहीं मिलता है। जीविते मरणे प्रश्ने लाभालाभे जयाजये। विषमे विपरीते च संस्मरेज्जगदीश्वरम्।।129।। अन्वय- यह श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ- सुषुम्ना के प्रवाह काल में जीवन, मृत्यु, लाभ, हानि, जय और पराजय आदि के प्रश्न पर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए, अर्थात आध्यात्मिक साधना करना चाहिए। ईश्वरे चिन्तिते कार्यं योगाभ्यासादिकर्म च। अन्यतत्र न कर्त्तव्यं जयलाभसुखैषिभिः।।130।। अन्वय- (सुषुम्नाप्रवाहकाले) जयलाभसुखैषिभिः ईश्वरे चिन्तिते योगाभ्यासादिकर्म च कार्यं, अन्यतत्र (किमपि) न कर्त्तव्यम्। भावार्थ- सुषुम्ना नाड़ी के प्रवाह-काल में जय, लाभ और सुख चाहनेवाले को ईश्वर का चिन्तन और योगाभ्यासादि कर्म करना चाहिए, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना चाहिए। सूर्येण वहमानायां सुषुम्नायां मुहुर्मुहुः। शापं दद्याद्वरं दद्यात्सर्वथैव तदन्यथा।।131।। अन्वय- यह श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय आवश्यक नहीं है। भावार्थ- सूर्य स्वर के प्रवाह के बाद बार-बार सुषुम्ना के प्रवाहित होने पर न ही किसी को शाप देना चाहिए और न ही वरदान। क्योंकि इस स्थिति में सब निरर्थक होता है। नाडीसङ्क्रमणे काले तत्त्वसङ्गमनेSपि च। शुभं किञ्चन्न कर्त्तव्यं पुण्यदानानि किञ्चन।।132।। अन्वय- श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ- स्वरों के संक्रमण और तत्त्वों के संक्रमण के समय अर्थात दो स्वरों और दो तत्त्वों के मिलन के समय कोई भी शुभ कार्य- पुण्य, दानादि कार्य नहीं करना चाहिए। विषमस्योदयो यत्र मनसाऽपि चिन्तयेत्। यात्रा हानिकरो तस्य मृत्युः क्लेशो न संशयः।।133।। अन्वय - श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ - विषम स्वर के प्रवाह काल में यात्रा प्रारम्भ करने का विचार मन में उठने नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे यात्रा में कठिनाई तो आती ही है, हानि भी होती है। यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है। पुरो वामोर्ध्वतश्चन्द्रो दक्षाधः पृष्ठतो रविः। पूर्णा रिक्ताविवेकोSयं ज्ञातव्यो देशिकैः सदा।।134।। अन्वय- यह श्लोक भी लगभग अन्वित क्रम में है। भावार्थ- यदि चन्द्र स्वर प्रवाहित हो रहा हो और कोई सामने से आए, बायें से आए अथवा ऊपर से या सामने, बायें या ऊपर की ओर विराजमान हो, तो समझना चाहिए कि उससे आपका काम पूरा होगा। इसी प्रकार जब सूर्य नाड़ी प्रवाहित हो रहा हो, तो नीचे, पीछे अथवा दाहिने से आनेवाला या उक्त दिशाओं में विराजमान व्यक्ति आपको शुभ संदेश देगा या आपका काम पूरा करेगा। किन्तु यदि स्थितियाँ इनके विपरीत हों, तो देशिकों (आध्यात्मिक गुरुजनों) को समझना चाहिए कि वह काल बिलकुल रिक्त और अविवेकपूर्ण है, अर्थात कार्य में सफलता के लिए उचित समय नहीं है। ऊर्ध्ववामाग्रतो दूतो ज्ञेयो वामपथि स्थितः। पृष्ठे दक्षे तथाSधस्तात्सूर्यवाहागतः शुभः।।135।। अन्वय- (चन्द्रस्वरप्रवाहे) वामपथि ऊर्ध्ववामाग्रतः तथा (एव) सूर्यवाहे दक्षे पृष्ठे अधस्तात् स्थितः आगतः (वा) दूतः शुभः ज्ञेयः। भावार्थ- पिछले श्लोक की ही भाँति इस श्लोक में भी वे ही बातें दूत के बारे में कही गयी हैं, अर्थात चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में यदि कोई दूत बायें, ऊपर या सामने से आए अथवा सूर्य-स्वर के प्रवाह-काल में यदि वह दाहिने, नीचे या पीछे से आए तो समझना चाहिए कि वह कोई शुभ समाचार लाया है। ऐसा न हो तो विपरीत परिणाम समझना चाहिए। अनादिर्विषमः सन्धिर्निराहारो निराकुलः। परे सूक्ष्मे विलीयते सा संध्या सद्भिरुच्यते।।136।। अन्वय- श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ- जब इडा और पिंगला स्वर एक-दूसरे में लय हो जाते हैं, तो वह समय बड़ा ही भीषण होता है। अर्थात् सुषुम्ना स्वर का प्रवाह-काल बड़ा ही विषम होता है। क्योंकि सुषुम्ना को निराहार और स्थिर माना गया है। वह सूक्ष्म तत्त्व में लय हो जाती है जिसे सज्जन लोग संध्या कहते हैं। न वेदं वेद इत्याहुर्वेदो वेदो न विद्यते। परमात्मा वेद्यते येन स वेदो वेद उच्यते।।137।। अन्वय- वेदं न वेद इति आहुः वेदो न वेदः विद्यते, (अपितु) परमात्मा येन विद्यते स वेदो वेद उच्यते। भावार्थ- ज्ञानी लोग कहते हैं कि वेद स्वयं वेद नहीं होते, बल्कि ईश्वर का ज्ञान जिससे होता है उसे वेद कहते हैं, अर्थात जब साधक समाधि में प्रवेश कर परम चेतना से युक्त होता है उस अवस्था को वेद कहते हैं। न संध्या संधिरित्याहुः संध्या संधिर्निगद्यते। विषमः संधिगः प्राण स संधिजः संधिरुच्यते।।138।। अन्वय- (रात्रिदिवसयोः) संधिः इति न संध्या आहुः, (इयं) संन्धिः (सामान्यरूपेण) सन्ध्या निगद्यते, (अपितु) सः विषमः सन्धिगः सन्धिजः प्राणः सन्धिः उच्यते। भावार्थ – दिन और रात का मिलन संध्या नहीं है, यह तो मात्र एक बाह्य प्रक्रिया है। वास्तविक संध्या तो सुषुम्ना नाड़ी में स्वर के प्रवाह को कहते हैं। देव देव महादेव सर्वसंसारतारक। स्थितं त्वदीयहृदये रहस्यं वद मे प्रभो।।139।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – माँ पार्वती भगवान शिव से पूछती हैं – हे देवाधिदेव, हे महादेव, हे जगत के उद्धारक, अपने हृदय में स्थित इस गुह्य ज्ञान के बारे में और अधिक बताने की कृपा करें। स्वरज्ञानरहस्यात्तु न काचिच्चेष्टदेवता। स्वरज्ञानरतो योगी स योगी परमो मतः।।140।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ - माँ पार्वती के ऐसा पूछने पर भगवान शिव बोले- हे सुन्दरि, स्वरज्ञान सर्वश्रेष्ठ और अत्यन्त गुप्त विद्या है एवं सबसे बड़ा इष्ट देवता है। इस स्वर-ज्ञान में जो योगी सदा रत रहता है, वह योगी सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। पञ्चतत्त्वाद्भवेत्सृष्टिस्तत्त्वे तत्त्वं प्रलीयते। पञ्चतत्त्वं परं तत्त्वं तत्त्वातीतं निरञ्जनः।।141।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – पूरी सृष्टि पाँच तत्त्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी) से ही रची गयी है और वह इन्हीं तत्त्वों में विलीन होती है। परम तत्त्व इन तत्त्वों से बिलकुल परे है और वह निरंजन है, अर्थात् अजन्मा है। तत्त्वानां नामविज्ञेयं सिद्धयोगेन योगिभिः। भूतानां दुष्टचिह्नानि जानातीह स्वरोत्तमः।।142।। अन्वय – योगिभिः सिद्धयोगेन तत्त्वानां नामविज्ञेयम्। (सः) स्वरोत्तमः (योगी) भूतानां दुष्टचिह्नानि इह जानाति। भावार्थ – योगी लोग सिद्ध योग से तत्त्वों को जान लेते हैं। वे स्वरज्ञानी इन पंच महाभूतों के दुष्प्रभावों को भली-भाँति समझते हैं और इसलिए वे भी इनसे परे हो जाते हैं। पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च। पञ्चभूतात्मकं विश्वं यो जानाति स पूजितः।।143।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – पंच भूतों से निर्मित सृष्टि को तत्त्व के रूपों में, अर्थात पृथिवी, जल, तेज (अग्नि), वायु और आकाश को उनके सूक्ष्म रूपों में उन्हें जान लेता है, उनका साक्षात्कार कर लेता है, वह पूज्य बन जाता है। सर्वलोकस्थजीवानां न देहो भिन्नतत्त्वकः। भूलोकसत्यपर्यन्तं नाडीभेदः पृथक् पृथक्।।144।। अन्वय – भूलोकात्सत्यपर्यन्तं सर्वलोकस्थजीवानां देहो न भिन्नतत्त्वकः, (परन्तु) नाडीभेदः पृथक् पृथक्। भावार्थ – भूलोक से सत्यलोक तक सभी लोकों में अस्तित्व-गत देह में तत्त्व भिन्न नहीं होते, अर्थात् पाँच तत्त्वों से ही निर्मित होता है। लेकिन अस्तित्व प्रत्येक स्तर पर नाड़ियों का भेद अलग हो जाता है। वामे वा दक्षिणे वाSपि उदयाः पञ्च कीर्तिताः। अष्टधा तत्त्वविज्ञानं श्रृणु वक्ष्यामि सुन्दरि।।145।। अन्वय - वामे वा दक्षिणे वाSपि उदयाः पञ्च कीर्तिताः, (अत एव) हे सुन्दरि, अष्टधा तत्त्वविज्ञानं श्रृणु वक्ष्यामि। भावार्थ – भगवान शिव कहते हैं कि चाहे बाँया स्वर चल रहा हो या दाहिना, दोनों ही स्वरों के प्रवाह-काल के दौरान बारी-बारी से पंच महाभूतों का उदय होता है। हे सुन्दरि, तत्व-विज्ञान आठ प्रकार का होता है। उन्हें मैं बताता हूँ, ध्यान से सुनो। प्रथमे तत्त्वसङ्ख्यानं द्वितीये श्वासन्धयः। तृतीये स्वरचिह्नानि चतुर्थे स्थानमेव चः।।146।। पञ्चमे तस्य वर्णाश्च षष्ठे तु प्राण एव च। सप्तमे स्वादसंयुक्ता अष्टमे गतिलक्षणम्।।147।। अन्वय – ये दोनों श्लोक अन्वित क्रम में हैं, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – पहले भाग में तत्त्वों की संख्या होती है, दूसरे भाग में स्वर का मिलन होता है, तीसरे भाग में स्वर के चिह्न होते हैं और चौथे भाग में स्वर का स्थान आता है। पाँचवें भाग उनके (तत्त्वों के) वर्ण (रंग) होते हैं। छठवें भाग में प्राण का स्थान होता है। सातवें भाग में स्वाद का स्थान होता है और आठवें में उनकी दिशा। एवमष्टविधं प्राणं विषुवन्तं चराचरम्। स्वरात्परतरं देवि नान्यथा त्वम्बुजेक्षणे।।148।। अन्वय – हे अमबुजेक्षणे देवि, एवमष्टविधं प्राणं चराचरं विषुवन्तम्, अत एव स्वरात्परतरन्तु नान्यथा (स्यात्)। भावार्थ - हे कमलनयनी, इस प्रकार यह प्राण आठ प्रकार से सम्पूर्ण चर और अचर विश्व में व्याप्त है, अतएव स्वर-ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। निरीक्षितव्यं यत्नेन सदा प्रत्यूषकालतः। कालस्य वञ्चानार्थाय कर्म कुर्वन्ति योगिनः।।149।। अन्वय – (अत एव) सदा प्रत्यूषकालतः यत्नेन निरीक्षितव्यम्। योगिनः कालस्य वञ्चानार्थाय कर्म कुर्वन्ति। भावार्थ – अतएव तड़के उठकर भोर से ही यत्न पूर्वक स्वर का निरीक्षण करना चाहिए। इसीलिए काल के बन्धन से मुक्त होने के लिए योगी लोग स्वर-ज्ञान में विहित कर्म करते हैं, अर्थात् स्वर-ज्ञान के अन्तर्गत बताई गयी विधियों का अभ्यास करते हैं। शिव स्वरोदय(भाग-7) इस अंक में वे श्लोक आए हैं जिसमें पंच महाभूतों की पहिचान से सम्बन्धित विचार किया गया है। श्रुत्योरङ्गुष्ठकौ मध्याङ्गुल्यौ नासापुटद्वये। वदनप्रान्तके चान्याङ्गुलीयर्दद्याच्च नेत्रयोः।।150।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ – इस श्लोक मे षण्मुखीमुद्रा (योनिमुद्रा) की विधि बतायी गयी है। इस मुद्रा के अभ्यास से रंगों द्वारा तत्त्वों की पहिचान की जाती है। इसमें हाथ के दोनों अंगूठों द्वारा दोनों कान, माध्यिका अंगुलियों से दोनों नासिका छिद्र, अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियों से मुख और तर्जनी अंगुलियों से दोनों आँखें बन्द करनी चाहिए। इसे षण्मुखी मुद्रा कहा गया है। वैसे महान स्वरयोगी परमहंस सत्यानन्द जी महाराज ने इसके अभ्यास की निम्नलिखित विधि बतायी है- सर्वप्रथम किसी भी ध्यानोपयोगी आसन में बैठें। आँखें बन्द कर लें, काकीमुद्रा में मुँह से साँस लें, साँस लेते समय ऐसा अनुभव करें कि प्राण मूलाधार से आज्ञाचक्र की ओर ऊपर की ओर अग्रसर हो रहा है। साँस को जितनी देर तक आराम से रोक सकते हैं, अन्दर रोकें। साथ ही जैसा श्लोक में आँख, नाक, कान आदि अंगुलियों से बन्द करने को कहा गया है, वैसा करें, खेचरी मुद्रा (जीभ को उल्टा करके तालु से लगाना) के साथ अर्ध जालन्धर बन्ध लगाएँ (थोड़ा सिर इस प्रकार झुकाना कि ठोड़ी छाती को स्पर्श न करे) और चेतना को आज्ञाचक्र पर टिकाएँ। सिर को सीधा करें और नाक से सामान्य ढंग से साँस छोड़ें। यह एक चक्र हुआ। ऐसे पाँच चक्र करने चाहिए। प्रत्येक चक्र के बाद कुछ क्षणों तक विश्राम करें, आँख बन्द रखें। अभ्यास के बाद थोड़ी देर तक शांत बैठें और चिदाकाश (आँख बन्द करने पर सामने दिखने वाला रिक्त स्थान) को देखें। इसमें दिखायी पड़ने वाले रंग से सक्रिय तत्त्व की पहिचान करते हैं, अर्थात् पीले रंग से पृथ्वी, सफेद रंग से जल, लाल रंग से अग्नि, नीले या भूरे रंग से वायु और बिल्कुल काले या विभिन्न रंगों के मिश्रण से आकाश तत्त्व समझना चाहिए। अस्यान्तस्तु पृथिव्यादि तत्त्वज्ञां भवेत्क्रमात्। पीतश्वेतारुणश्यामैर्विनदुभिर्निरूपाधिकम्।।151।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय आवश्यक नही है। भावार्थ – षण्मुखी मुद्रा के अभ्यास के अंत में तत्त्व प्रकट होते हैं, अर्थात् चिदाकाश में रंग पीला, सफेद, लाल, नीला तथा अनेक वर्णों का मिश्रण (बिन्दुदार) दिखायी देता है। आपः श्वेतं क्षितिः पीता रक्तवर्णो हुताशनः। मरुतो नीलजीमूत आकाश सर्ववर्णकः।।152।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ - जल तत्त्व का रंग सफेद, पृथ्वी तत्त्व का पीला, अग्नि तत्त्व का लाल, वायु तत्त्व का नीला या भूरा और आकाश तत्त्व का मिश्रित रंग होता है। दर्पणेन समालोक्य तत्र श्वासं विनिक्षिपेत्। आकारैस्तु विजानीयात्तत्त्वभेदं विचक्षणः।।153।। चतुरस्रं चार्धचन्द्रं त्रिकोणं वर्त्तुलं स्मृतम्। विन्दुभिस्तु नभो ज्ञेयमाकारैस्तत्त्वलक्षणम्।।154।। अन्वय – ये श्लोक भी अन्वित क्रम में हैं, अतएव अन्वय आवश्यक नही है। भावार्थ – इन श्लोकों में दर्पण के माध्यम से आकार द्वारा तत्त्वों को पहचानने का तरीका बताया गया है। एक क्रम में होने के कारण दोनों श्लोकों को एक साथ लिया जा रहा है। इसके अनुसार दर्पण चेहरे के पास लाकर उसपर साँस छोड़ते हैं। परिणाम स्वरूप वाष्प-कण से दर्पण पर आकृति बनती है। उस आकृति से सक्रिय तत्त्व की पहिचान होती है, अर्थात् चतुर्भुज की आकृति बनने पर स्वर में पृथ्वी तत्त्व को सक्रिय मानना चाहिए, अर्द्धचन्द्र सी आकृति बने तो जल तत्त्व, त्रिभुजाकार हो तो अग्नि तत्त्व, वृत्ताकार वायु तत्त्व और बिना किसी निश्तित आकृति के वाष्प-कण इधर-उधर बिखरे हों तो आकाश तत्त्व को सक्रिय मानना चाहिए। मध्ये पृथ्वी ह्यधस्चापश्चोर्ध्वं वहति चानलः। तिर्यग्वायुप्रवाहश्च नभो वहति सङ्क्रमे।।155।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय आवश्यक नही है। भावार्थ – इस श्लोक में स्वर के प्रवाह की दिशा में विचलन से तत्त्वों की पहिचान का तरीका बताया गया है। वैसे यह विधि काफी सजग निरीक्षण के लम्बे अभ्यास के बाद ही इस विधि से स्वर में सक्रिय तत्त्व की पहिचान सम्भव है। इसमें यह बताया गया है कि पृथ्वी तत्त्व का प्रवाह मध्य में, जल तत्त्व का नीचे की ओर, अग्नि तत्त्व का ऊपर की ओर तथा वायु तत्त्व का प्रवाह तिरछा होता है। जब साँस दोनों नासिका-रन्ध्रों से समान रूप से एक साथ प्रवाहित हो, तो आकाश तत्त्व को सक्रिय समझना चाहिए। स्कंधद्वये स्थितो वह्निर्नाभिमूले प्रभञ्जनः। जानुदेशे क्षितिस्तोयं पादान्ते मस्तके नभः।।156।। अन्वय – वह्निः स्कन्धद्वये स्थितः प्रभञ्जनः नाभिदेशे क्षितिः जानुदेशे तोयं पादान्ते नभः (च) मस्तके। भावार्थ – इस श्लोक में शरीर में पंचमहाभूतों की स्थिति बताई गयी है। अग्नि तत्त्व का स्थान दोनों कंधों में, वायु का नाभि में, पृथ्वी का जाँघों में, जल का पैरों में और आकाश तत्त्व का स्थान मस्तक में कहा गया है। माहेयं मधुरं स्वादे कषायं जलमेव च। तीक्ष्णं तेजस्समीरोSम्ल आकाशं कटुकं तथा।।157।। अन्वय – स्वादे माहेयं मधुरं जलं कषायं च तेजः तीक्ष्णं समीरोSम्लं आकाशं कटुकं तथा। भावार्थ - इस श्लोक में पंच महाभूतों के स्वाद के विषय में चर्चा की गयी है। पृथ्वी का स्वाद मधुर, जल का कषाय, अग्नि का तीक्ष्ण, वायु का अम्लीय (खट्टा) और आकाश का स्वाद कटु बताया गया है। अष्टङ्गुलं वहेद्वायुरनलश्चतुरङ्गुलम्। द्वादशाङ्गुलं माहेयं वारुणं षोडशाङ्गुलम्।।158।। अन्वय – वायुः अष्टाङ्गुलं वहेत् अनलश्च चतुरङ्गुलं माहेयं द्वादशाङ्गुलं वारुणं षोडशाङ्गुलम्। भावार्थ – यहाँ श्वाँस में पंच महाभूतों के उदय के अनुसार इसमें (प्रश्वास) की लम्बाई में परिवर्तन की ओर संकेत किया गया है। जब साँस में वायु तत्त्व की प्रधानता या उसका उदय हो, तो प्रश्वास की लम्बाई आठ अंगुल, अग्नि तत्त्व के उदय काल में चार अंगुल, पृथ्वी तत्त्व के समय बारह अंगुल और जल तत्त्व के समय सोलह अंगुल होती है। उर्ध्वं मृत्युरधः शान्तिस्तिर्यगुच्चाटनं तथा। मध्ये स्तम्भं विजानीयान्नभः सर्वत्र मध्यमम्।।159।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – जब स्वर का प्रवाह ऊपर की ओर हो, अर्थात स्वर में अग्नि तत्त्व प्रवाहित हो, तो मारण की साधना प्रारम्भ करना उचित है। स्वर की गति नीचे की ओर हो, अर्थात स्वर में जल तत्त्व का उदय काल शांतिपूर्ण कार्य के लिए उचित होता है। स्वर का प्रवाह यदि तिरछा हो, अर्थात वायु तत्त्व का उदयकाल हो, तो उच्चाटन जैसी साधना के प्रारम्भ के लिए उचित समय होता है। पर स्वर का प्रवाह मध्य में होने पर, अर्थात पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह-काल में स्तम्भन सम्बन्धी साधना का प्रारम्भ ठीक होता है। लेकिन आकाश तत्त्व के उदय काल को मध्यम, अर्थात किसी भी कार्य के लिए अनुपयोगी बताया गया है। पृथिव्यां स्थिरकर्माणि चरकर्माणि वारुणे। तेजसि क्रूरकर्माणि मारणोच्चाटनेSनिले।।160।। अन्वय – पृथिव्यां स्थिरकर्माणि वारुणे चरकर्माणि तेजसि क्रूरकर्माणि अनिले मारणोच्चाटने। भावार्थ – पृथ्वी तत्त्व के उदय-काल में स्थायी प्रकृति के कार्य का प्रारम्भ श्रेयस्कर होता है, जल तत्त्व के समय अस्थायी कार्य, अग्नि तत्त्व के समय श्रम-साध्य कठिन कार्य तथा वायु तत्त्व के प्रवाह में मारण, उच्चाटन जैसे दूसरों को हानि पहुँचाने कार्य करने चाहिए। व्योम्नि किञ्चिन्न कर्तव्यमभ्यसेद्योगसेवनम्। शून्यता सर्वकार्येषु नात्र कार्या विचारणा।।161।। अन्वय - व्योम्नि किञ्चिन्न कर्तव्यम् योगसेवनम् अभ्यसेद् सर्वकार्येषु शून्यता नात्र कार्या विचारणा। भावार्थ – आकाश तत्त्व के प्रवाह काल में कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। यह समय केवल योग का अभ्यास करने योग्य है। यह सभी कार्यों के परिणाम को शून्य कर देता है, अर्थात कोई फल नहीं मिलता। इसलिए योग साधना के अलावा और कोई कार्य करने के विषय में सोचना भी नहीं चाहिए। पृथ्वीजलाभ्यां सिद्धिः स्यान्मृत्युर्वह्नौ क्षयोSनिले। नभसो निष्फलं सर्वं ज्ञातव्यं तत्त्ववादिभिः।।162।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – पृथ्वी और जल तत्त्वों के प्रवाह काल में प्रारम्भ किए कार्य सिद्धिदायक होते हैं, अग्नि तत्त्व में प्रारम्भ किए गए कार्य मृत्युकारक, अर्थात नुकसानदेह होते हैं, वायु तत्त्व में प्रारम्भ किए गए कार्य सर्वनाश करनेवाले होते हैं, जबकि आकाश तत्त्व के प्रवाह काल में शुरु किए गए कार्य कोई फल नहीं देते, ऐसा तत्त्ववादियों का मानना है। चिरलाभः क्षितेर्ज्ञेयस्तत्क्षणे तोयतत्त्वतः। हानिः स्यान्हि वाताभ्यां नभसो निष्फलं भवेत्।।163।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ:- पृथ्वी तत्व के प्रवाह काल में प्रारम्भ किये गये कार्य में स्थायी लाभ मिलता है, जल तत्व में दक्षिण लाभ मिलता है, अग्नि और वायु तत्व हानिकारक होते हैं और आकाश तत्व परिणामहीन होता है। पीतः शनैर्मध्यवाही हनुर्यावद् गुरुध्वनिः। कवोष्णः पार्थिवो वायुः स्थिरकार्यप्रसाधकः।।164।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ:- पृथ्वी तत्व का वर्ण पीला है। यह धीमी गति से मध्य में प्रवाहित होता है। इसकी प्रकृति हल्की और उष्ण है। ठोढ़ी तक इसकी ध्वनि होती है। इसके प्रवाह के दौरान किए गए कार्यों में भी स्थायी रूप से सफलता मिलती है। अधोवाही गुरुध्वानः शीघ्रगः शीतलःस्थितः। यः षोडशाङ्गुलो वायुः स आपः शुभकर्मकृत।।165।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ:- जल तत्व श्वेत वर्ण का होता है। इसका प्रवाह तेज और नीचे की ओर होता है। इसके प्रवाह काल में साँस की आवाज अधिक होती है और इस समय साँस सोलह अंगुल (लगभग 12 इंच) लम्बी होती है। इसकी प्रकृति शीतल है। इसके प्रवाह काल में प्रारम्भ किये गये कार्य सफलता (क्षणिक) मिलती है। आवर्तगश्चात्युष्णश्च शोणाभश्चतुरङ्गुलः। उर्ध्ववाहि च यः क्रूरः कर्मकारी स तेजसः।।166।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ:- अग्नि तत्व रक्तवर्ण है। यह घुमावदार तरीके से प्रवाहित होता है। इसकी प्रकृति काफी उष्ण है। इसके प्रवाह काल में साँस की लम्बाई चार अंगुल और ऊपर की ओर होती है। इसे क्रूरतापूर्ण कार्यों के लिए उपयोगी बताया गया है। उष्णः शीतः कृष्णवर्णस्तिर्यगान्यष्टकाङ्गुलः। वायुः पवनसंज्ञस्तु चरकर्मप्रसाधकः।।167।। अन्वय:- वायु: पवनसंज्ञस्तु कृष्णवर्ण: तिर्यग्गामी उष्ण: शीत: अष्टकाड्ग़ुल: चर-कर्मप्रसाधकरश्च। भावार्थ:- वायु तत्व कृष्ण वर्ण (गहरा नीला रंग) है, इसके प्रवाह के समय साँस की लम्बाई आठ अंगुल और गति तिर्यक (तिरछी) होती है। इसकी प्रकृति शीतोष्ण हैं। इस अवधि में गति वाले कार्यों को प्रारम्भ करने पर निश्चित रूप से सफलता मिलती है। परमपूज्य परमहंस सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज ने इसके विषय में लिखा है कि भीड़-भाड़वाले प्लेटफार्म पर ट्रेन छूट रही हो और उसे पकड़ने के लिए आप दौड़ लगा रहे हैं। ऐसे समय में यदि स्वर में वायु तत्त्व वर्तमान हो, निश्चित रूप से आप ट्रेन पकड़ने में सफल होंगे। यः समीरः समरसः सर्वतत्त्वगुणावहः। अम्बरं तं विजानीयात् योगिनां योगदायकम्।।168।। अन्वय - श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय करने की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – जब स्वर में उक्त सभी तत्त्वों का संतुलन हो और उनके यथोक्त गुण उपस्थित हों तो उसे योगियों को मोक्ष प्रदान करनेवाला आकाश तत्त्व समझना चाहिए, अर्थात आकाश तत्त्व में अन्य चार तत्त्वों का संतुलन पाया जाता है और उनके गुण भी पाए जाते हैं तथा इसके प्रवाह काल किए गये योग-साधना में पूर्णरूप से सिद्धि मिलती है। पीतवर्णं चतुष्कोणं मधुरं मध्यमाश्रितम्। भोगदं पार्थिवं तत्त्वं प्रवाहे द्वादशाङ्गुलम्।।169।। अन्वय - पार्थिवं तत्त्वं पीतवर्णं चतुष्कोणं मधुरं मध्यमाश्रितम् भोगदं प्रवाहे (च) द्वादशाङ्गुलम्। भावार्थ – पृथ्वी तत्त्व का पीला, वर्ग का आकार, मधुर स्वाद, गति मध्य और प्रवाह बारह अंगुल (लगभग नौ इंच) होता है। इसे भोग-विलास के लिए उपयुक्त बताया गया है। श्वेतमर्धेन्दुसंकासः स्वादु काषायमार्द्रकम्। लाभकृद्वारुणं तत्त्वं प्रवाहे षोडशाङ्गुलम्।।170।। अन्वय - वारुणं तत्त्वं श्वेतमर्धेन्दुसंकासः स्वादु काषायमार्द्रकं लाभकृत् प्रवाहे षोडशाङ्गुलम्। भावार्थ – जल तत्त्व का रंग श्वेत होता है, आकार अर्धचन्द्र की तरह, स्वाद कषाय और स्वभाव शीतल होता है। इसके प्रवाह काल में साँस की लम्बाई सोलह अंगुल (लगभग बारह इंच) होती है। यह हमेशा लाभकारी होता है। रक्तं त्रिकोणं तीक्ष्णं च उर्ध्वभागप्रवाहकम्। दीप्तं च तेजसं तत्त्वं प्रवाहे चतुरङ्गुलम्।।171।। अन्वय - तेजसं तत्त्वं रक्तं त्रिकोणं तीक्ष्णं च उर्ध्वभागप्रवाहकं दीप्तं च प्रवाहे चतुरङ्गुलम्। भावार्थ – अग्नि तत्त्व का रंग लाल (रक्त जैसा लाल), आकार त्रिभुज, प्रवाह ऊपर की होता है। इस तत्त्व के प्रवाह काल में साँस की लम्बाई चार अंगुल (लगभग तीन इंच) होती है। इसकी प्रकृति गरम होती है और यह अशुभ कार्य का प्रेरक होता है तथा सदा अहितकर फल देता है। नीलं ववर्तुलाकारं स्वादाम्लतिर्यगाश्रितम्। चपलं मारुतं तत्त्वं प्रवाहेSष्टाङ्गुलं स्मृतम्।।172।। अन्वय - मारुतं तत्त्वं नीलं ववर्तुलाकारं स्वादाम्लतिर्यगाश्रितं चपलं प्रवाहेSष्टाङ्गुलं स्मृतम्। भावार्थ – वायु तत्त्व का रंग नीला, गोल आकार और अम्लीय स्वाद होता है। इसकी गति तिरछी होती है और इसके प्रवाह काल में साँस की लम्बाई आठ अंगुल (लगभग छः इंच)। इसकी प्रकृति चंचल होती है। इसके प्रवाहकाल में प्रारम्भ किये गये कार्य का परिणाम विनाशकारी होते हैं। वर्णाकारं स्वादवाहे अव्यक्तं सर्वगामिनम्। मोक्षदं नभसं तत्त्वं सर्वकार्येषु निष्फलम्।।173।। अन्वय - नभसं तत्त्वं वर्णाकारं स्वादवाहे अव्यक्तं सर्वगामिनं मोक्षदं सर्वकार्येषु निष्फलम्। भावार्थ – आकाश तत्त्व का रंग पहचानना कठिन होता है। यह स्वादहीन और प्रत्येक दिशा में गतिवाला होता है। यह मोक्ष प्रदान करता है। आध्यात्मिक साधना के अतिरिक्त अन्य कार्यों में कोई फल नहीं प्राप्त होता है। पृथ्वीजले शुभे तत्त्वतेजो मिश्रफलोदयम्। हानिमृत्युकरौ पुंसामशुभौ व्योममारुतौ।।174।। अन्वय - पृथ्वीजले शुभे तत्त्वतेजो मिश्रफलोदयं पुंसां व्योममारुतौ हानिमृत्युकरौ अशुभौ (च)। भावार्थ – पृथ्वी तत्त्व और जल तत्त्व कार्य आरम्भ करने के लिए शुभ होते हैं, अर्थात उनके परिणाम अच्छे होते हैं। अग्नि तत्त्व के प्रवाह काल में प्रारम्भ किए गए कार्य का परिणाम मिला-जुला होता है। जबकि वायु तत्त्व और आकाश तत्त्व के प्रवाह काल में कार्य के आरम्भ के परिणाम हानि और सर्वनाश से भरे बताए गए हैं। आपूर्वपश्चिमे पृथ्वीतेजश्च दक्षिणे तथा। वायुश्चोत्तरदिग्ज्ञेयो मध्ये कोणगतं नभः।।175।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – इस श्लोक में तत्त्वों की दिशाओं के संकेत किए गए हैं। पृथ्वी तत्त्व पूर्व और पश्चिम दिशा में, अग्नि तत्त्व दक्षिण में, वायु तत्त्व उत्तर में और आकाश तत्त्व मध्य में कोणगत होता है। चन्द्रे पृथ्वीजलैयातांसूर्येSग्निर्वा यदा भवेत्। तदा सिद्धिर्न सन्देहः सौम्यासौम्येषु कर्मसु।।176।। अन्वय - चन्द्रे पृथ्वीजले याते सूर्येSग्निर्वा यदा भवेत् सौम्यासौम्येषु कर्मसु तदा सिद्धिः, न (अत्र) सन्देहः। भावार्थ – जब चन्द्र स्वर में पृथ्वी अथवा जल तत्त्व अथवा सूर्य स्वर में अग्नि तत्त्व के प्रवाह काल में प्रारम्भ किए गए सभी प्रकार के कार्यों में सिद्धि मिलती है, इसमें कोई सन्देह नहीं, अर्थात् इस अवधि में प्रारम्भ किए गए शुभ, अशुभ, स्थायी या अस्थायी सभी कार्य सफल होते हैं। लाभः पृथ्वीकृतोSह्नि स्यान्निशायां लाभकृज्जलम्। वह्नौ मृत्युः क्षयो वायुर्नभस्थानं दहेत्क्वचित्।।177।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – जब दिन में पृथ्वी तत्त्व और रात मे जल तत्त्व प्रवाहित हो तो निश्चित रूप से लाभ होता है। अग्नि तत्त्व का प्रवाह काल किसी कार्य के लिए मृत्युकारक कहा गया है और वायु तत्त्व का प्रवाह काल सर्वनाश का कारक। आकाश तत्त्व का प्रवाह काल कोई परिणाम नहीं देता। जीवितव्ये जये लाभे कृष्यां च धनकर्मणि। मन्त्रार्थे युद्धप्रश्ने च गमनागमने तथा।।178।। अन्वय – दोनों श्लोक अन्वित क्रम में हैं, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ - समझने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए यहाँ दोनों श्लोकों को एक साथ लिया जा रहा है। जीवन, जय, लाभ, खेती, मंत्र, युद्ध एवं यात्रा के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाने पर उस समय प्रवाहित होने वाले तत्त्व को समझना चाहिए और तदनुरूप उत्तर देना चाहिए। जल तत्त्व के समय शत्रु का आने की संभावना होती है। पृथ्वी तत्त्व का काल शुभ होता है, अर्थात शत्रु पर विजय का संकेतक है। वायु तत्त्व के प्रवाह काल को शत्रु का पलायन समझना चाहिए। लेकिन वायु तत्त्व और आकाश तत्त्व के समय हानि तथा मृत्यु की अधिक संभावना रहती है। पृथीव्यां मूलचिन्ता स्याज्जीवनस्य जलवातयोः। तेजसा धातुचिन्ता स्याच्छून्याकाशतो वदेत्।।180।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – इस श्लोक में मन में उदित होने वाले विचारों के द्वारा तत्त्वों को पहचानने की विधि का संकेत किया गया है। जब मन में भौतिकता से संबंधित विचार उठ रहे हों, तो समझना चाहिए कि उस समय पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित हो रहा है, अर्थात स्वर में पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता है। जब खुद के विषय में विचार उठें, तो जल तत्त्व अथवा वायु तत्त्व की प्रधानता समझनी चाहिए। अग्नि तत्त्व की प्रधानता होने पर मन में धातुजनित धन सम्बन्धी विचार उठते हैं। पर आकाश तत्त्व की प्रधानता के समय व्यक्ति का मन लगभग विचार-शून्य होता है। शिव स्वरोदय(भाग-8) पृथिव्यां बहुपादाः स्युर्द्विपदस्तोयवायुतः। तेजस्येव चतुस्पादो नभसा पादवर्जितः।।181।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, इसलिए अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ – जब स्वर में पृथ्वी तत्त्व सक्रिय हो तो अनेक कदम चलिए। जल तत्त्व और वायु तत्त्व के प्रवाह काल में दो कदम चलें तथा अग्नि तत्त्व के प्रवाहित होने पर चार कदम। किन्तु जब आकाश तत्त्व स्वर में प्रधान हो, अर्थात सक्रिय हो, तो एकदम न चलें। कुजोवह्निः रविः पृथ्वीसौरिरापः प्रकीर्तितः। वायुस्थानास्थितो राहुर्दक्षरन्ध्रः प्रवाहकः।।182।। अन्वय – यह स्वर भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ - सूर्य स्वर (दाहिने स्वर) में अग्नि तत्त्व के प्रवाहकाल में मंगल, पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह काल में सूर्य (ग्रह), जल तत्त्व के प्रवाह में शनि तथा वायु तत्त्व के प्रवाह काल में राहु का निवास कहा गया है। जलं चन्द्रो बुधः पृथ्वी गुरुर्वातः सितोSनलः। वामनाड्यां स्थिताः सर्वे सर्वकार्येषु निश्चिताः।।183।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में ही है। भावार्थ – पर बाएँ स्वर (इडा नाड़ी) में जल तत्त्व के प्रवाह काल में चन्द्र ग्रह, पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह में बुध, वायु तत्त्व के प्रवाह में गुरु और अग्नि तत्त्व में शुक्र का निवास मना जाता है। उपर्युक्त अवधि में उक्त सभी ग्रह सभी कार्यों के लिए शुभ माने गये हैं। एक बात ध्यान देने की है कि यहाँ केतु का स्थान नहीं बताया गया है, पता नहीं क्यों। पृथ्वीबुधो जलादिन्दुः शुक्रो वह्निरविकुजः। वायुराहुः शनी व्योमगुरुरेव प्रकीर्तितः।।184।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – इस श्लोक में भी उपर्युक्त श्लोक की ही भाँति कुछ बातें बताई गयी हैं। इस श्लोक के अनुसार पृथ्वी तत्त्व बुध के, जल तत्त्व चन्द्र और शुक्र के, अग्नि तत्त्व सूर्य और मंगल के, वायु तत्त्व राहु और शनि के तथा आकाश तत्त्व गुरु के महत्व को निरूपित करते हैं। अर्थात इन तत्त्वों के अनुसार काम करनेवाले को यश मिलता है। प्रश्वासप्रश्न आदित्ये यदि राहुर्गतोSनिले। तदासौ चलितो ज्ञेयः स्थानांतरमपेक्षते।।185।। आयाति वारुणे तत्त्वे तत्रैवास्ति शुभं क्षितौ। प्रवासी पवनेSन्यत्र मृत्युरेवानले भवेत्।।186।। अन्वय – ये दोनों श्लोक भी अन्वित क्रम में हैं। अतएव इनका भी अन्वय नहीं दिया जा रहा है। साथ ही दोनों श्लोकों में प्रश्नों से सम्बन्धित हैं। इसलिए इनका अर्थ एक साथ किया जा रहा है। भावार्थ – यदि कोई आदमी कहीं चला गया हो और दूसरा व्यक्ति उसके बारे में प्रश्न करता है, तो स्वर और उनमें तत्त्वों के उदय के अनुसार परिणाम को जानकर सही उत्तर दिया जा सकता है। भगवान शिव कहते हैं कि दाहिना स्वर चल रहा हो, स्वर में राहु हो (अर्थात पिंगला नाड़ी में वायु तत्त्व सक्रिय हो) और प्रश्नकर्त्ता दाहिनी ओर हो, तो इसका अर्थ हुआ कि वह व्यक्ति जहाँ गया था वहाँ से किसी दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान कर गया है। यदि प्रश्न काल में जल तत्त्व (शनि हो) सक्रिय हो, तो समझना चाहिए कि गया हुआ आदमी वापस आ जाएगा। यदि पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता के समय प्रश्न पूछा गया हो, तो समझना चाहिए कि गया हुआ व्यक्ति जहाँ भी है कुशल से है। पर प्रश्न के समय यदि स्वर में अग्नि तत्त्व (मंगल हो) का उदय हो, तो समझना चाहिए कि वह आदमी अब मर चुका है। पार्थिवे मूलविज्ञानं शुभं कार्यं जले तथा। आग्नेयं धातुविज्ञानं व्योम्नि शून्यं विनिर्दिशेत्।।187।। अन्वय – श्लोक लगभग अन्वित क्रम में है। अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह काल में दुनियादारी के कामों में पूरी सफलता मिलती है, जल तत्त्व का प्रवाह काल शुभ कार्यों में सफलता देता है, अग्नि तत्त्व धातु सम्बन्धी कार्यों के लिए उत्तम है और आकाश तत्त्व चिन्ता आदि परेशानियों से मुक्त करता है। तुष्टिपुष्टि रतिःक्रीडा जयहर्षौ धराजले। तेजो वायुश्च सुप्ताक्षो ज्वरकम्पः प्रवासिनः।।188।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – अतएव जब पृथ्वी और जल तत्त्व के प्रवाह काल में किसी प्रवासी के विषय में प्रश्न पूछा जाय तो समझना चाहिए कि वह कुशल से है, स्वस्थ और खुश है। पर यदि प्रश्न के समय अग्नि तत्त्व और वायु तत्त्व प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि जिसके विषय में प्रश्न पूछा गया है उसे शारीरिक और मानसिक कष्ट है। गतायुर्मृत्युराकाशे तत्त्वस्थाने प्रकीर्तितः। द्वादशैताः प्रयत्नेन ज्ञातव्या देशिकै सदा।।189।। अन्वय – आकाशे तत्त्वस्थाने गतायुः मृत्युश्(च) प्रकीर्तितः। (अनेन) देशिकैः एताः द्वादशाः (प्रश्नाः) प्रयत्नेन सदा ज्ञातव्याः। भावार्थ – यदि प्रश्न काल में आकाश तत्त्व प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि जिसके विषय में प्रश्न पूछा गया वह अपने जीवन के अंतिम क्षण गिन रहा है। इस प्रकार तत्त्व-ज्ञाता इन बारह प्रश्नों के उत्तर जान लेता है। पूर्वायां पश्चिमे याम्ये उत्तरस्यां तथाक्रमम्। पृथीव्यादीनि भूतानि बलिष्ठानि विनिर्विशेत्।।190।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में पृथ्वी आदि तत्त्व अपने क्रम के अनुसार प्रबल होते हैं, ऐसा तत्त्वविदों का मानना है। श्लोक संख्या 175 में तत्त्वों की दिशओं का विवरण देखा जा सकता है। पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च। पञ्चभूतात्मको देहो ज्ञातव्यश्च वरानने।।191।। अन्वय – हे वरानने, पृथिवी आपः तथा तेजो वायुः आकाशञ्च पञ्चभूतात्मकः देहः ज्ञातव्यः। भावार्थ – हे वरानने, यह देह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों तत्त्वों से मिलकर बना है, ऐसा समझना चाहिए। इन श्लोकों में पाँच तत्त्वों का शरीर में स्थान और उनके गुणों पर प्रकाश डाला गया है। अस्थिमांसं त्वचा नाडी रोमञ्चैव तु पञ्चमम्। पृथ्वीपञ्चगुणा प्रोक्ता ब्रह्मज्ञानेन भाषितम्।।192।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ – पृथ्वी तत्त्व के पाँच गुण अस्थि, मांस, त्वचा, स्नायु तथा रोम बताए गए हैं, ऐसा ब्रह्मज्ञानियों का मानना है। शुक्रशोणितमज्जाश्च मूत्रं लाला च पञ्चमम्। आपः पञ्चगुणाप्रोक्ता ब्रह्मज्ञानेन भाषितम्।।193।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – शुक्र (वीर्य), रक्त, मज्जा, मूत्र और लार ये पाँच गुण जल तत्त्व के माने गए हैं, ऐसा ब्रह्मज्ञानियों का कहना है। क्षुधा तृषा तथा निद्रा कान्तिरालस्यमेव च। तेजः पञ्चगुणा प्रोक्ता ब्रह्मज्ञानेन भाषितम्।।194।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – भूख, प्यास, नींद, शारीरिक कान्ति और आलस्य ये पाँच गुण अग्नि तत्त्व के कहे गए हैं, ऐसा ब्रह्मज्ञानी कहते हैं। धावनं चलनं ग्रन्थिः संकोचनप्रसारणम्।। वायो पञ्चगुणा प्रोक्ता ब्रह्मज्ञानेन भाषितम्।।195।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – वायु तत्त्व के पाँच गुण- दौड़ना, चलना, ग्रंथिस्राव, शरीर का संकोचन (सिकुड़ना) और प्रसार (फैलाव) बताए गए हैं, ऐसा ब्रह्मज्ञानी कहते हैं। रागद्वेषौ तथा लज्जा भयं मोहश्च पञ्चमः। नभः पञ्चगुणा प्रोक्ता ब्रह्मज्ञानेन भाषितम्।।196।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – राग, द्वेष, लज्जा, भय और मोह आकाश तत्त्व के ये पाँच गुण कहे गए हैं, ऐसा ब्रह्मज्ञानियों का मत है। पृथिव्याः पलानि पञ्चाशच्चत्वारिंशत्तथाम्भसः। अग्नेस्त्रिंशत्पुनर्वायो विंशतिर्नभसो दश।।197।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय आवश्यक नहीं है। भावार्थ – शरीर का पचास भाग पृथ्वी तत्त्व, चालीस भाग जल तत्त्व, तीस भाग अग्नि तत्त्व, बीस भाग वायु तत्त्व और दस भाग आकाश तत्त्व मानना चाहिए। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि पाठक उपर्युक्त विभाजन प्रतिशत में न समझें, बल्कि यह एक अनुपात है। पुनः इसे श्लोक संख्या 199 में स्पष्ट किया गया है। पृथिव्यां चिरकालेन लाभश्चापः क्षणात्भवेत्। जायते पवने स्वल्पः सिद्धौSप्यग्नौ विनश्यति।।198।। अन्वय - पृथिव्यां चिरकालेन लाभश्चापः क्षणात्भवेत् पवने स्वल्पः जायते सिद्धौSप्यग्नौ विनश्यति। भावार्थ – इसीलिए पृथ्वी तत्त्व के प्रवाहकाल में किया गये कार्य में दीर्घकलिक सफलता मिलती है, जबकि जल तत्त्व के प्रवाहकाल में किये गये कार्य में सफलता मिलती है, वायु तत्त्व के प्रवाहकाल में किए गए कार्य में मामूली सफलता मिलती है और अग्नि तत्त्व के प्रवाह के समय किए गए कार्य में घोर असफलता मिलती है। पृथिव्याः पञ्च ह्यपां वेदा गुणास्तेजोद्विवायुतः। नभस्येकगुणश्चैव तत्त्वज्ञानमिदं भवेत्।।199।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – पाँच भाग पृथ्वी, चार भाग जल, तीन भाग अग्नि, दो भाग वायु और एक भाग आकाश है। इसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्व का 5:4:3:2:1 अनुपात समझना चाहिए। फूत्कारकृत्प्रस्फुटिता विदीर्णा पतिता धरा। ददाति सर्वकार्येषु अवस्थासदृशं फलम्।।200।। अन्वय - फूत्कारकृत्प्रस्फुटिता विदीर्णा पतिता धरा सर्वकार्येषु अवस्था सदृशं फलं ददाति। भावार्थ – फुत्कारती हुई प्रस्फुटित, विदीर्ण और पतित पृथ्वी अपनी अवस्था के अनुसार सभी कार्यों में अपना प्रभाव डालती है। धनिष्ठा रोहिणी ज्येष्ठाSनुराधा श्रवणं तथा। अभिजिदुत्तराषाढा पृथ्वीतत्त्वमुदाहृतम्।।201।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – धनिष्ठा, रोहिणी, ज्येष्ठा, अनुराधा, श्रवण, अभिजित् और उत्तराषाढ़ा नक्षत्रों का सम्बन्ध पृथ्वी तत्त्व से है। पूर्वाषाढा तथा श्लेषा मूलमार्द्रा च रेवती। उत्तराभाद्रपदा तोयं तत्त्वं शतभिषक् प्रिये।।202।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – पूर्वाषाढा, श्लेषा, मूल, आर्द्रा, रेवती, उत्तराभाद्रपद और शतभिषा नक्षत्र जल तत्त्व से सम्बन्धित हैं। भरणी कृत्तिकापुष्यौ मघा पूर्वा च फाल्गुनी। पूर्वाभाद्रपदा स्वाती तेजस्तत्त्वमिति प्रिये।।203।। अन्वय – प्रिये, भरणी कृत्तिकापुष्यौ मघा पूर्वा च फाल्गुनीपू र्वाभाद्रपदा स्वाती तेजस्तत्त्वमिति। भावार्थ – हे प्रिये, भरणी, कृत्तिका, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद और स्वाति नक्षत्रों का अग्नि तत्त्व से सम्बन्ध है। विषाखोत्तरफाल्गुन्यौ हस्तचित्रे पुनर्वसुः। अश्विनी मृगशीर्ष च वायुतत्त्वमुदाहृतम्।।204।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – विषाखा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, अश्विनी और मृगषिरा नक्षत्रों का सम्बन्ध वायु तत्त्व से है। वहन्नाडीस्थितो दूतो यत्पृच्छति शुभाशुभम्। तत्सर्वं सिद्धिमापनोति शून्ये शून्यं न संशयः।।205।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – इस श्लोक में चर्चित विवरण इसके पूर्व भी आ चुका है। यहाँ यह बताया गया है कि यदि प्रश्न पूछने वाला सक्रिय स्वर की ओर स्थित है तो उसके प्रश्न का उत्तर सकारात्मक समझना चाहिए। परन्तु यदि निष्क्रिय स्वर की ओर है तो अशुभ फल समझना चाहिए। पूर्णोSपि निर्गमश्वासे सुतत्त्वेSपि न सिद्धिदः। सूर्यश्चन्द्रो तथा नृणां सन्देहे सर्वसिद्धिदः।।206।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – दोनों स्वर सक्रिय रहने पर अनुकूल तत्त्व भी निष्फल परिणाम देते हैं। किन्तु यदि सूर्य स्वर अथवा चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और प्रश्नकर्त्ता सक्रिय स्वर की ओर बैठा हो तो उसके प्रश्न का उत्तर वांछित फल प्रदान करनेवाला होगा। तत्त्वे रामो जयं प्राप्तः सुतत्त्वे च धनञ्जयः। कौरवा निहताः सर्वे युद्धे तत्त्वविपर्ययात्।।207।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – अनुकूल तत्त्वों के कारण ही भगवान राम और अर्जुन युद्ध में विजय पाए। परन्तु प्रतिकूल तत्त्वों के कारण ही सभी कौरव युद्ध में मारे गए। जन्मान्तरीयसंस्कारात्प्रसादादथवा गुरोः। केषाञ्चिज्जायते तत्त्ववासना विमलात्मना।।208।। अन्वय – तत्त्ववासना जन्मान्तरीयसंस्कारात् अथवा गुरोः प्रसादाद् केषाञ्चित् विमलात्मना जायते। भावार्थ – पूर्व जन्म के संस्कार अथवा गुरु की कृपा से किसी विरले शुद्धचित्तात्मा को ही तत्त्वों का सम्यक ज्ञान मिलता है। लं बीजं धरणीं ध्यायेच्चतुरस्रां सुपीतभाम्। सुगन्धां स्वर्णवर्णाभां प्राप्नुयाद्देहलाघवम्।।209।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – वर्गाकार पीले स्वर्ण वर्ण की आभा वाले पृथ्वी-तत्त्व का, जिसका बीज मंत्र लं है, ध्यान करना चाहिए। इसके द्वारा शरीर को इच्छानुसार हल्का और छोटा करने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। वं बीजं वारुणं ध्यायेदर्धचन्द्रं शशिप्रभम्। क्षुत्तृष्णादिसहिष्णुत्वं जलमध्ये च मज्जनम्।।210।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – अर्धचन्द्राकार चन्द्र-प्रभा वर्णवाले जल-तत्त्व का, जिसका बीज मंत्र वं है, ध्यान करना चाहिए। इससे भूख-प्यास आदि को सहन करने और इच्छ्नुसार जल में डूबने की क्षमता प्राप्त होती है। रं बीजमग्निजं ध्यायेत्त्रिकोणमरुणप्रभम्। बह्वन्नपानभोक्तृत्वमातपाग्निसहिष्णुता।।211।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – त्रिकोण आकार और लाल (सूर्य के समान) वर्ण वाले अग्नि-तत्त्व का ध्यान करना चाहिए। इसका बीज मंत्र रं है। इससे बहुत अधिक भोजन पचाने और सूर्य तथा अग्नि के प्रचंड ताप को सहन करने की क्षमता प्राप्त होती है। यं बीजं पवनं ध्यायेद्वर्त्तुलं श्यामलप्रभम्। आकाशगमनाद्यं च पक्षिवद्गमनं तथा।।212।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – वृत्ताकार श्याम-वर्ण (कहीं-कहीं गहरे नीले रंग का उल्लेख) की आभावाले वायु-तत्त्व का ध्यान करना चाहिए। इसका बीज-मंत्र यं है। इसका ध्यान करने से आकाश में पक्षियों के समान उड़ने की क्षमता या सिद्धि प्राप्त होती है। हं बीजं गगनं ध्यायेन्निराकारं बहुप्रभम्। ज्ञानं त्रिकालविषयमैश्वर्यमणिमादिकम्।।213।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – निराकार आलोकमय आकाश तत्त्व का हं सहित ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने से साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है और उसे अणिमा आदि अष्ट-सिद्धियों का ऐश्वर्य प्राप्त होता है। शिव स्वरोदय(भाग-9) स्वरज्ञानं धनं गुप्तं धनं नास्ति ततः परम्। गम्यते तु स्वरज्ञानं ह्यनायासं फलं भवेत्।।214।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव इसके अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ- भगवान शिव कहते हैं कि हे देवि, स्वरज्ञान से बड़ा कोई भी गुप्त ज्ञान नहीं है। क्योंकि स्वर-ज्ञान के अनुसार कार्य करनेवाले व्यक्ति सभी वांछित फल अनायास ही मिल जाते हैं। श्री देव्युवाच देव देव महादेव महाज्ञानं स्वरोदयम्। त्रिकालविषयं चैव कथं भवति शंकर।।215।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – देवी भगवान शिव से कहती हैं- हे देवाधिदेव महादेव, आपने मुझे स्वरोदय का सर्वोच्च ज्ञान प्रदान किया। मुझे अब यह बताने की कृपा करें कि स्वरोदय ज्ञान के द्वारा कोई कैसे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल का ज्ञाता हो सकता है। ईश्वर उवाच अर्थकालजयप्रश्नशुभाशुभमिति त्रिधा। एतत्त्रिकालविज्ञानं नान्यद्भवति सुन्दरि।।216।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ - माँ पार्वती के इस प्रकार पूछने पर भगवान शिव ने कहा- हे सुन्दरि, काल के अनुसार सभी प्रश्नों के उत्तर तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- विजय, सफलता और असफलता। स्वरोदय के ज्ञान के अभाव में इन तीनों को समझ पाना कठिन है। तत्त्वे शुभाशुभं कार्यं तत्त्वे जयपराजयौ। तत्त्वे सुभिक्षदुर्भिक्षे तत्त्वं त्रिपादमुच्यते।।217।। अन्वय - तत्त्वं त्रिपादमुच्यते, तत्त्वे शुभाशुभं कार्यं तत्त्वे जयपराजयौ तत्त्वे सुभिक्षदुर्भिक्षे (च)। भावार्थ – तत्त्व को त्रिपाद कहा गया है, अर्थात् तत्त्व के द्वारा ही शुभ और अशुभ, जय और पराजय तथा सुभिक्ष और दुर्भिक्ष को जाना जा सकता है। श्री देव्युवाच देव देव महादेव सर्वसंसारसागरे। किं नराणां परं मित्रं सर्वकार्यार्थसाधकम्।।218।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – भगवान शिव का ऐसा उत्तर पाकर माँ पार्वती ने पुनः उनसे पूछा- हे देवाधिदेव महादेव, सम्पूर्ण भवसिन्धु में मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र कौन है और यहाँ वह कौन सी वस्तु है जो उसके सभी कार्यों को सिद्ध करता है? ईश्वर उवाच प्राण एव परं मित्रं प्राण एव परः सखा। प्राणतुल्यो परो बंधुर्नास्ति नास्ति वरानने।।219।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – माँ पार्वती को उत्तर देते हुए भगवान शिव ने कहा- हे वरानने, इस संसार में प्राण ही सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा सखा है। इस जगत में प्राण से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है। श्रीदेव्युवाच कथं प्राणस्थितो वायुर्देहः किं प्राणरूपकः। तत्त्वेषु सञ्चरन्प्राणो ज्ञायते योगिभिः कथम्।।220।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – माँ पार्वती भगवान शिव से पूछती हैं- प्राण की हवा में स्थिति किस प्रकार होती है, शरीर में स्थित प्राण का स्वरूप क्या है, विभिन्न तत्त्वों में प्राण (वायु) किस प्रकार कार्य करता है और योगियों को इसका ज्ञान किस प्रकार होता है? शिव उवाच कायानगरमध्यस्थो मारुतो रक्षपालकः। प्रवेशे दशाङ्गुलः प्रोक्तो निर्गमे द्वादशाङ्गुलः।।221।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – भगवान शिव माँ पार्वती को बताते हैं- इस शरीर रूपी नगर में प्राण-वायु एक सैनिक की तरह इसकी रक्षा करता है। श्वास के रूप में शरीर में प्रवेश करते समय इसकी लम्बाई दस अंगुल और बाहर निकलने के समय बारह अंगुल होता है। गमने तु चतुर्विशन्नेत्रवेदास्तु धावने। मैथुने पञ्चषष्ठिश्च शयने च शताङ्गुलम्।।222।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है। प्राणस्य तु गतिर्देविस्वभावाद्द्वादशाङ्गुलम्। भोजने वमने चैव गतिरष्टादशाङ्गुलम्।।223।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – हे देवि, साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है, पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है। एकाङ्गुले कृते न्यूने प्राणे निष्कामता। आनन्दस्तु द्वितीये स्यात्कविशक्तिस्तृतीयके।।224।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – भगवान शिव अब इन श्लोकों में यह बताते हैं कि यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं। इस श्लोक में बताया गया है कि यदि प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है। वाचासिद्धिश्चतुर्थे च दूरदृष्टिस्तु पञ्चमे। षष्ठे त्वाकाशगमनं चण्डवेगश्च सप्तमे।।225।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – साँस की लम्बाई चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि, पाँच अंगुल कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं। अष्टमे सिद्धयश्चैव नवमे निधयो नव। दशमे दशमूर्तिश्च छाया चैकादशे भवेत्।।226।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ – यदि श्वास की लम्बाई आठ अंगुल कम हो जाय, तो साधक को आठ सिद्धियों की प्राप्ति होती है, नौ अंगुल कम होने पर नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं, दस अंगुल कम होने पर अपने शरीर को दस विभिन्न आकारों में बदलने की क्षमता आ जाती है और ग्यारह अंगुल कम होने पर शरीर छाया की तरह हो जाता है, अर्थात् उस व्यक्ति की छाया नहीं पड़ती है। द्वादशे हंसचारश्च गङ्गामृतरसं पिबेत्। आनखाग्रं प्राणपूर्णे कस्य भक्ष्यं च भोजनम्।।227।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – श्वास की लम्बाई बारह अंगुल कम होने पर साधक अमरत्व प्राप्त कर लेता है, अर्थात् साधना के दौरान ऐसी स्थिति आती है कि श्वास की गति रुक जाने के बाद भी वह जीवित रह सकता है, और जब साधक नख-शिख अपने प्राणों को नियंत्रित कर लेता है, तो वह भूख, प्यास और सांसारिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है। एवं प्राणविधिः प्रोक्तः सर्वकार्यफलप्रदः। ज्ञायते गुरुवाक्येन न विद्याशास्त्रकोटिभिः।।228।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ - ऊपर बताई गई प्राण-विधियाँ सभी कार्यों में सफलता प्रदान करती हैं। लेकिन प्राण को नियंत्रित करने की विधियाँ गुरु के सान्निध्य औरर कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है, विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन मात्र से नहीं। प्रातःश्चन्द्रो रविः सायं यदि दैवान्न लभ्यते। मध्याह्नमध्यरात्रश्च परतस्तु प्रवर्त्तते।।229।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि सबेरे चन्द्र स्वर और सायंकाल सूर्य स्वर संयोग से न प्रवाहित हों, तो वे दोपहर में या अर्धरात्रि में प्रवाहित होते हैं। दूरयुद्धे जयीचन्द्रः समासन्ने दिवाकरः। वहन्नाड्यागतः पादः सर्वसिद्धिप्रदायकः।।230।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – दूर देश में युद्ध करनेवाले को चन्द्र स्वर के प्रवाहकाल में युद्ध के लिए प्रस्थान करना चाहिए और पास में स्थित देश में युद्ध करने की योजना हो तो सूर्य स्वर के प्रवाहकाल में प्रस्थान करना चाहिए। इससे विजय मिलती है। अथवा प्रस्थान के समय जो स्वर चल रहा हो, वही कदम पहले उठाकर युद्ध के लिए प्रस्थान करने से भी वह विजयी होता है। यात्रारम्भे विवाहे च प्रवेशे नगरादिके। शुभकार्याणि सिद्धयन्ति चन्द्रचारेषु सर्वदा।।231।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यात्रा, विवाह अथवा किसी नगर में प्रवेश के समय चन्द्र स्वर चल रहा हो, तो सदा सारे कार्य सफल होते हैं, ऐसा स्वर-वैज्ञानिकों का मत है। अयनतिथिदिनेशैःस्वीयतत्त्वे च युक्ते यदि वहति कदाचिद्दैवयोगेन पुंसाम्। स जयति रिपुसैन्यं स्तम्भमात्रस्वरेण प्रभवति नहि विघ्नं केशवस्यापि लोके।।232।। भावार्थ – सूर्य अथवा चन्द्रमा के अयन के समय यदि अनुकूल तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, कुम्भक करने मात्र से अर्थात् साँस को रोक लेने मात्र से बिना युद्ध किए विजय मिलती है, चाहे शत्रु कितना भी बलशाली क्यों न हो। ‘जीवं रक्ष जीवं रक्ष’ जीवाङ्गे परिधाय च। जीवो जपति यो युद्धे जीवं जयति मेदिनीम्।।233।। भावार्थ – जो व्यक्ति अपनी छाती को कपड़े से ढककर ‘जीवं रक्ष’ मंत्र का जप करता है, वह विश्व-विजय करता है। भूमौ जले च कर्त्तव्यं गमनं शान्तकर्मसु। वह्नौ वायौ प्रदीप्तेषु खे पुनर्न भयेष्वपि।।234।। भावार्थ – जब स्वर में पृथ्वी या जल तत्त्व का उदय हो तो वह समय चलने-फिरने और शांत प्रकृति के कार्यों के उत्तम होता है। वायु और अग्नि तत्त्व का प्रवाह काल गतिशील और कठिन कार्यों के उपयुक्त होता है। लेकिन आकाश तत्त्व के प्रवाहकाल में कोई भी कार्य न करना ही उचित है। जीवेन शस्त्रं बध्नीयाज्जीवेनैव विकाशयेत्। जीवेन प्रक्षिपेच्छस्त्रं युद्धे जयति सर्वदा।।235।। भावार्थ – युद्ध में शत्रु का सामना करते समय जो स्वर प्रवाहित हो रहा हो, उसी हाथ में शस्त्र पकड़कर उसी हाथ से शत्रु पर प्रहार करता है, तो शत्रु पराजित हो जाता है। आकृष्य प्राणपवनं समारोहेत वाहनम्। समुत्तरे पदं दद्यात् सर्वकार्याणि साधयेत्।।236।। भावार्थ – यदि किसी सवारी पर चढ़ना हो साँस अन्दर लेते हुए चढ़ना चाहिए और उतरते समय जो स्वर चल रहा हो वही पैर बढ़ाते हुए उतरना चाहिए। ऐसा करने पर यात्रा निरापद और सफल होती है। अपूर्णे शत्रुसामग्रीं पूर्णे वा स्वबलं तथा। कुरुते पूर्णतत्त्वस्थो जयत्येको वसुन्धराम्।।237।। भावार्थ – यदि शत्रु का स्वर पूर्णरूप से प्रवाहित न हो और वह हथियार उठा ले, किन्तु अपना स्वर पूर्णरूपेण प्रवाहमान हो और हम हथियार उठा लें, तो शत्रु पर ही नहीं पूरी दुनिया पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। या नाडी वहते चाङ्गे तस्यामेवाधिदेवता। सन्मुखेSपिदिशा तेषां सर्वकार्यफलप्रदा।।238।। भावार्थ – जब व्यक्ति की उचित नाड़ी में उचित स्वर प्रवाहित हो, अभीष्ट देवता की प्रधानता हो और दिशा अनुकूल हो, तो उसकी कभी कामनाएँ निर्बाध रूप से पूरी होती हैं। यहाँ यह पुनः ध्यान देने की बात है कि श्लोक संख्या 75 के अनुसार चन्द्र स्वर (बाँए) की दिशा उत्तर और पूर्व एवं सूर्य स्वर (दाहिने) की पश्चिम और दक्षिण। आदौ तु क्रियते मुद्रा पश्चाद्युद्धं समाचरेत्। सर्पमुद्रा कृता येन तस्य सिद्धिर्न संशयः।।239।। भावार्थ – युद्ध करने के पहले मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, तत्पश्चात युद्ध करना चाहिए। जो व्यक्ति सर्पमुद्रा का अभ्यास करता है, उसके कार्य की सिद्धि में कोई संशय नहीं रह जाता। चन्द्रप्रवाहेSप्यथ सूर्यवाहे भटाः समायान्ति च योद्धुकामाः। समीरणस्तत्त्वविदां प्रतीतो या शून्यता सा प्रतिकार्यनाशिनी।।240।। भावार्थ – जब चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, तो एक योद्धा के लिए युद्ध हेतु प्रस्थान करने का उचित समय माना गया है। पर यदि अनुकूल स्वर प्रवाहित न हो रहा हो और सैनिक युद्ध के लिए प्रस्थान करता है, तो उसका विनाश हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं। यां दिशां वहते वायुर्युद्धं तद्दिशि दापयेत्। जयत्येव न सन्देहः शक्रोSपि यदि चाग्रतः।।241।। भावार्थ – जिस स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, उस दिशा में यदि योद्धा बढ़े तो वह इन्द्र को भी पराजित कर सकता है। यत्र नाड्यां वहेद्वायुस्तदङ्गे प्राणमेव च। आकृष्य गच्छेत्कर्णातं जयत्येव पुरन्दरम्।।242।। भावार्थ – किसी भी स्वर में यदि वायु तत्त्व प्रवाहित हो, तो प्राण को कान तक खींचकर युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर योद्धा पुरन्दर (इन्द्र) को भी पराजित कर सकता है। प्रतिपक्षप्रहारेभ्यः पूर्णाङ्गं योSभिरक्षति। न तस्य रिपुभिः शक्तिर्बलिष्ठैरपि हन्यते।।243।। भावार्थ – युद्ध के समय शत्रु के प्रहारों से अपने सक्रिय स्वर की ओर के अंगों की रक्षा कर ले, तो उसे शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता। शिव स्वरोदय(भाग-10) अङ्गुष्ठतर्जनीवंशे पादाङ्गुष्ठे तथा ध्वनिः। युद्धकाले च कर्त्तव्यो लक्षयोद्धु जयीभवेत्।।244।। अन्वय - युद्धकाले अङ्गुष्ठतर्जनीवंशे पादाङ्गुष्ठे तथा ध्वनिः च कर्त्तव्यो लक्षयोद्धु जयीभवेत्। भावार्थ – युद्ध के दौरान हाथ के अंगूठे तथा तर्जनी से अथवा पैर के अंगूठे से ध्वनि करने वाला योद्धा बड़े-बड़े बहादुर को भी युद्ध में पराजित कर देता है। निशाकरे रवौ चारे मध्ये यस्य समीरणः। स्थितो रक्षेद्दिगन्तानि जयकाञ्क्षी गतः सदा।।245।। अन्वय - जयकाञ्क्षी निशाकरे रवौ चारे मध्ये यस्य समीरणः स्थितो दिगन्तानि गतः सदा रक्षेत्। भावार्थ – विजय चाहनेवाला वीर चन्द्र अथवा सूर्य स्वर में वायु तत्त्व के प्रवाहकाल के समय यदि किसी भी दिशा में जाय तो उसकी रक्षा होती है। श्वासप्रवेशकाले तु दूतो जल्पति वाञ्छितम्। तस्यार्थः सिद्धिमायाति निर्गमे नैव सुन्दरि।।246।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – भगवान शिव कहते हैं, हे सुन्दरी (माँ पार्वती), एक दूत को अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए उसे साँस लेते समय अपनी मनोकामना व्यक्त करनी चाहिए। परन्तु यदि वह श्वास छोड़ते समय अपनी मनोकामना व्यक्त करता है, तो उसे सफलता नहीं मिलती। लाभादीन्यपि कार्याणि पृष्ठानि कीर्तितानि च। जीवे विशति सिद्धयन्ति हानिर्निःसरणे भवेत्।।247।। अन्वय – जीवे विशति लाभादीन्यपि कार्याणि पृष्ठानि कीर्तितानि च सिद्धयन्ति हानि निःसरणे हानिः भवेत्। भावार्थ – जो कार्य साँस लेते समय किए जाता है, उसमें सफलता मिलती है। पर साँस छोड़ते समय किए गए कार्य में हानि होती है। नरे दक्ष स्वकीया च स्त्रियां वामा प्रशस्यते। कुम्भको युद्धकाले च तिस्रो नाड्यस्त्रयीगतिः।।248।। अन्वय - नरे दक्ष स्वकीया च स्त्रियां वामा प्रशस्यते युद्धकाले कुम्भको च तिस्रो नाड्यस्त्रयीगतिः। भावार्थ – दाहिना स्वर पुरुष के लिए और बाँया स्वर स्त्री के लिए शुभ माना गया है। युद्ध के समय कुम्भक (श्वास को रोकना) फलदायी होता है। इस प्रकार तीनों नाड़ियों के प्रवाह भी तीन प्रकार के होते हैं। हकारस्य सकारस्य विना भेदं स्वरः कथम्। सोSहं हंसपदेनैव जीवो जपति सर्वदा।।249।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – स्वर ज्ञान “हं” और “सः” में प्रवेश किए बिना प्राप्त नहीं होता। “सोSहं” अथवा “हंस” पद (मंत्र) के सतत जप द्वारा स्वर ज्ञान की प्राप्ति होती है। शून्याङ्गं पूरितं कृत्वा जीवाङ्गे गोपयेज्जयम्। जीवाङ्गे घातमाप्नोति शून्याङ्गे रक्षते सदा।।250।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – आपत्ति सदा सक्रिय स्वर की ओर से आती है। अतएव आपत्ति के आने की दिशा ज्ञात होने पर निष्क्रिय स्वर को सक्रिय करने का प्रयास करना चाहिए। निष्क्रिय स्वर सुरक्षा देता है। वामे वा यदि वा दक्षे यदि पृच्छति पृच्छकः। पूर्णे घातो न जायेत शून्ये घातं विनिर्दिशेत्।।251।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ - जब कोई प्रश्नकर्ता युद्ध के विषय में सक्रिय स्वर की ओर से प्रश्न पूछ रहा हो और उस समय कोई भी स्वर, चाहे सूर्य या चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो युद्ध में उस पक्ष को कोई हानि नहीं होती। पर अप्रवाहित स्वर की दिशा से प्रश्न पूछा गया हो, तो हानि अवश्यम्भावी है। अगले दो श्लोकों में होनेवाली हानियों पर प्रकाश डाला गया है। भूतत्त्वेनोदरे घातः पदस्थानेSम्बुना भवेत्। उरुस्थानेSग्नितत्त्वेन करस्थाने च वायुना।।252।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि प्रश्न-काल में उत्तर देनेवाले साधक के स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित हो, समझना चाहिए कि पेट में चोट लगने की सम्भावना, जल तत्त्व, अग्नि तत्त्व और वायु तत्त्व के प्रवाह काल में क्रमशः पैरों, जंघों और भुजा में चोट लगने की सम्भावना बतायी जा सकती है। शिरसि व्योमतत्त्वे च ज्ञातव्यो घातनिर्णयः। एवं पञ्चविधो घातः स्वरशास्त्रे प्रकाशितः।।253।। अन्वय - व्योमतत्त्वे शिरसि च घातनिर्णयः ज्ञातव्यो स्वरशास्त्रे प्रकाशितः एवं पञ्चविधो घातः। भावार्थ – आकाश तत्त्व के प्रवाह काल में सिर में चोट लगने की आशंका का निर्णय बताया जा सकता है। स्वरशास्त्र इस प्रकार चोट के लिए पाँच अंग विशेष बताए गए हैं। युद्धकाले यदा चन्द्रः स्थायी जयति निश्चितम्। यदा सूर्यप्रवाहस्तु यायी विजयते सदा।।254।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि युद्धकाल में चन्द्र स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो जहाँ युद्ध हो रहा है वहाँ का राजा विजयी होता है। किन्तु यदि सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, समझना चाहिए कि आक्रामणकारी देश की विजय होगी। जयमध्येSपि संदेहे नाडीमध्ये तु लक्षयेत्। सुषुम्नायां गते प्राणे समरे शत्रुसङ्कटम्।।255।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – विजय में यदि किसी प्रकार का संदेह हो, तो देखना चाहिए कि क्या सुषुम्ना स्वर प्रवाहित हो रहा है। यदि ऐसा है, तो समझना चाहिए कि शत्रु संकट में पड़ेगा। यस्यां नाड्यां भवेच्चारस्तां दिशं युधि संश्रयेत्। तदाSसौ जयमाप्नोति नात्रकार्या विचारणा।।256।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि कोई योद्धा युद्ध के मैदान में अपने क्रियाशील स्वर की ओर से दुश्मन से लड़े तो उसमें उसकी विजय होती है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं होती। यदि सङ्ग्रामकाले तु वामनाडी सदा वहेत्। स्थायिनो विजयं विद्याद्रिपुवश्यादयोSपि च।।257।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि युद्ध के समय बायीं नाक से स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो जहाँ युद्ध हो रहा है, उस स्थान के राजा की विजय होती है, अर्थात् जिस पर आक्रमण किया गया है, उसकी विजय होती है और शत्रु पर काबू पा लिया जाता है। यदि सङ्ग्रामकाले च सूर्यस्तु व्यावृतो वहेत्। तदा यायी जयं विद्यात् सदेवासुरमानवे।।258।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – पर यदि युद्ध के समय लगातार सूर्य स्वर प्रवाहित होता रहे, तो समझना चाहिए कि आक्रमणकारी राजा की विजय होती है, चाहे देवता और दानवों का युद्ध हो या मनुष्यों का। रणे हरति शत्रुस्तं वामायां प्रविशेन्नरः। स्थानं विषुवचारेण जयः सूर्येण धावता।।259।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – जो योद्धा बाएँ स्वर के प्रवाहकाल में युद्ध भूमि में प्रवेश करता है, तो उसका शत्रु द्वारा अपहरण हो जाता है। सुषुम्ना के प्रवाहकाल में वह युद्ध में स्थिर रहता है, अर्थात् टिकता है। पर सूर्य स्वर के प्रवाहकाल में वह निश्चित रूप से विजयी होता है। युद्धे द्वये कृते प्रश्न पूर्णस्य प्रथमे जयः। रिक्ते चैव द्वितीयस्तु जयी भवति नान्यथा।।260।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि कोई सक्रिय स्वर की ओर से युद्ध के परिणाम के विषय में प्रश्न पूछे, तो जिस पक्ष का नाम पहले लेगा उसकी विजय होगी। परन्तु यदि निष्क्रिय स्वर की ओर से प्रश्न पूछता है, तो दूसरे नम्बर पर जिस पक्ष का नाम लेता है उसकी विजय होगी। पूर्णनाडीगतः पृष्ठे शून्याङ्गं च तदाग्रतः। शून्यस्थाने कृतः शत्रुर्म्रियते नात्र संशयः।।261।। अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव इसे नहीं दिया जा रहा है। भावार्थ – जब कोई सैनिक सक्रिय स्वर की दिशा में युद्ध के लिए प्रस्थान करे, तो उसका शत्रु संकटापन्न होगा। पर यदि निष्क्रिय स्वर की दिशा में युद्ध के लिए जाता है, तो शत्रु से उसका सामना होने की संभावना होगी। यदि युद्ध में शत्रु को निष्क्रिय स्वर की ओर रखकर वह युद्ध करता है, तो शत्रु की मृत्य अवश्यम्भावी है। वामाचारे समं नाम यस्य तस्य जयी भवेत्। पृच्छको दक्षिणभागे विजयी विषमाक्षरः।।262।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि प्रश्नकर्त्ता स्वरयोगी से उसके चन्द्र स्वर के प्रवाहकाल में बायीं ओर या सामने से प्रश्न करता है और उसके नाम में अक्षरों की संख्या सम हो, तो समझना चाहिए कि कार्य में सफलता मिलेगी। यदि वह दक्षिण की ओर से प्रश्न करता है और उसके नाम में वर्णों की संख्या विषम हो, तो भी सफलता की ही सम्भावना समझना चाहिए। यदा पृच्छति चन्द्रस्य तदा संधानमादिशेत्। पृच्छेद्यदा तु सूर्यस्य तदा जानीहि विग्रहम्।।263।। अन्वय – यह श्लोक भी लगभग अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि प्रश्न पूछते समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो संधि की सम्भावना समझनी चाहिए। लेकिन यदि उस समय सूर्य स्वर चल रहा हो, तो समझना चाहिए कि युद्ध के चलते रहने की सम्भावना है। पार्थिवे च समं युद्धं सिद्धिर्भवति वारुणे। युद्धेहि तेजसो भङ्गो मृत्युर्वायौ नभस्यपि।।264।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में ही है। भावार्थ – चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर प्रवाहित हो, लेकिन यदि प्रश्न के समय सक्रिय स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित हो, समझना चाहिए कि युद्ध कर रहे दोनों पक्ष बराबरी पर रहेंगे। जल तत्त्व के प्रवाह काल में जिसकी ओर से प्रश्न पूछा गया है उसे सफलता मिलेगी। प्रश्न काल में स्वर में अग्नि तत्त्व के प्रवाहित होने पर चोट लगने की सम्भावना व्यक्त की जा सकती है। किन्तु यदि वायु या आकाश तत्त्व प्रवाहित हो, तो पूछे गए प्रश्न का उत्तर मृत्यु समझना चाहिए। इन श्लोकों में भी कुछ पिछले अंकों की भाँति ही नीचे के प्रथम दो श्लोकों में प्रश्न का उत्तर जानने की युक्ति बतायी गयी है। शेष तीन श्लोकों में कार्य में सफलता प्राप्त करने के कुछ तरीके बताए गए हैं। समझने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए नीचे के प्रथम दो श्लोकों को एक साथ लिया जा रहा है- निमित्ततः प्रमादाद्वा यदा न ज्ञायतेSनिलः। पृच्छाकाले तदा कुर्यादिदं यत्नेन बुद्धिमान्।।265।। निश्चलं धरणं कृत्वा पुष्पं हस्तान्निपातयेत्। पूर्णाङ्गे पुष्पपतनं शून्यं वा तत्परं भवेत्।।266।। अन्वय – भावार्थ – यदि किन्हीं कारणों से प्रश्न पूछने के समय यदि स्वर-योगी सक्रिय स्वर का निर्णय न कर पाये, तो सही उत्तर देने के लिए वह निश्चल हो बैठ जाय और ऊपर की ओर एक फूल उछाले। यदि फूल प्रश्नकर्त्ता के पास उसके सामने गिरे, तो शुभ होता है। पर यदि फूल प्रश्नकर्त्ता के दूर गिरे या उसके पीछे जाकर गिरे, तो अशुभ समझना चाहिए। तिष्ठन्नुपविशंश्चापि प्राणमाकर्षयन्निजम्। मनोभङ्गमकुर्वाणः सर्वकार्येषु जीवति।।267।। अन्वय – तिष्ठन् उपविशन् च अपि मनोभङ्गम् अकुर्वाणः निजं प्राणं आकर्षयन् सर्वकार्येषु जीवति। भावार्थ – खड़े होकर अथवा बैठकर अपने प्राण (श्वास) को एकाग्र चित्त होकर अन्दर खींचते हुए यदि कोई व्यक्ति जो कार्य करता है उसमें उसे अवश्य सफलता मिलती है। न कालो विविधं घोरं न शस्त्रं न च पन्नगः। न शत्रु व्याधिचौराद्याः शून्यस्थानाशितुं क्षमाः।।268।। अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि कोई व्यक्ति सुषुम्ना के प्रवाहकाल में ध्यानमग्न हो, तो न कोई शस्त्र, न कोई समर्थ शत्रु और न ही कोई सर्प उसे मार सकता है। जीवेनस्थापयेद्वायु जीवेनारम्भयेत्पुनः। जीवेन क्रीडते नित्यं द्युते जयति सर्वदा।।269।। अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है। भावार्थ – यदि कोई व्यक्ति सक्रिय स्वर से श्वास अन्दर ले और अन्दर लेते हुए कोई कार्य प्रारम्भ करे तथा जूआ खेलने बैठे और सक्रिय स्वर से लम्बी साँस ले, तो वह सफल होता है। शिव स्वरोदय(भाग-11) स्वरज्ञानीबलादग्रे निष्फलं कोटिधा भवेत्। इहलोके परत्रापि स्वरज्ञानी बली सदा।। भावार्थ – जब एक करोड़ बल निष्फल हो जाते हैं, तब भी स्वरज्ञानी बलशाली बना सबसे अग्रणी होता है, अर्थात् भले ही एक करोड़ (हर प्रकार के) बल निष्फल हो जायँ, लेकिन स्वरज्ञानी का बल कभी निष्फल नहीं होता। स्वरज्ञानी इस लोक में और परलोक या अन्य किसी भी लोक में सदा शक्तिशाली होता है। दशशतायुतं लक्षं देशाधिपबलं क्वचित्। शतक्रतु सुरेन्द्राणां बलं कोटिगुणं भवेत्।। भावार्थ – एक मनुष्य के पास दस, सौ, दस हजार, एक लाख अथवा एक राजा के बराबर बल होता है। सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र का बल करोड़ गुना होता है। एक स्वरयोगी का बल इन्द्र के बल के तुल्य होता है। श्री देवी उवाच परस्परं मनुष्याणां युद्धे प्रोक्तो जयस्त्वया। यमयुद्धे समुत्पन्ने मनुष्याणां कथं जयः।। भावार्थ – इसके बाद माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि हे प्रभो, आपने यह तो बता दिया कि मनुष्यों के पारस्परिक युद्ध में एक योद्ध की विजय कैसे होती है। लेकिन यदि यम के साथ युद्ध हो, मनुष्यों की विजय कैसे होगी? ईश्वरोवाच ध्यायेद्देवं स्थिरो जीवं जुहुयाज्जीव सङ्गमे। इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य महालाभो जयस्तथा।। भावार्थ – यह सुनकर भगवान शिव बोले- हे देवि, जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर तीनों नाड़ियों के संगम स्थल आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है, उसे सभी अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, महालाभ होता है (अर्थात् ईश्वरत्व की प्राप्ति होती है) और सर्वत्र सफलता मिलती है। निराकारात्समुत्पन्नं साकारं सकलं जगत्। तत्साकारं निराकारं ज्ञाने भवति तत्क्षणात्।। भावार्थ – यह सम्पूर्ण दृश्य साकार जगत निराकार सत्ता से उत्पन्न है। जो व्यक्ति साकार जगत से ऊपर उठ जाता है, अर्थात् भौतिक चेतना से ऊपर उठकर सार्वभौमिक चेतना को प्राप्त कर लेता है, तभी उसे पूर्णत्व प्राप्त हो जाता है। इन श्लोकों में वशीकरण के तरीके बताए गए ह…

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