Friday, 23 March 2018
“राम से बड़ा राम का नाम”
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गणेश जी की विभिन्न सूंड वाली आकृतियों का रहस्य
गणेश शब्द की परिभाषा व गणेश जी का परिचय- गणेश शब्द ग, ण तथा ईश शब्द से मिलकर बना है| ग शब्द ज्ञानार्थ वाचक है| ज्ञान से बुद्धि की वृद्धि होती है| ण शब्द निर्वाण वाचक है| अंतिम शब्द ईश स्वामी वाचक है| इस प्रकार संपूर्ण गणेश शब्द का अर्थ हुआ- ज्ञान-बुद्धि तथा निर्वाण के स्वामी अर्थात ब्रह्मा, परमात्मा, परमेश्वर या परमतत्व| भारतीय संस्कृति में गणेश जी अति प्राचीन देव माने गए हैं। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में भी इनका उल्लेख है इसलिए यह एक वैदिक देवता भी हैं| शिव परिवार के यह एक प्रमुख देव हैं| हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। सभी देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करने से पूर्व सर्वप्रथम इनका पूजन करना अनिवार्य माना गया है| श्री गणेश जी विघ्न विनाशक हैं। इनका जन्म भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय हुआ था। ये शिव और पार्वती के द्वितीय पुत्र हैं। भगवान गणेश का स्वरूप अत्यन्त मोहक व मंगलदायक है। वे एकदंत और चतुर्भुज हैं। अपने चारों हाथों में वे क्रमश: पाश, अंकुश, मोदक तथा वरमुद्रा धारण किए हुए हैं। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीताम्बरधारी हैं। वे रक्त चन्दन धारण करते हैं तथा उन्हें लाल रंग के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। वे प्रथम पूज्य, गणों के ईश अर्थात स्वामी, स्वस्तिकरूप तथा प्रणवस्वरूप हैं।
गणेश जी के बारह नाम व उनकी व्याख्या- ऐसा कहा जाता है कि आराध्य से भी बड़ा उनका नाम होता है| “राम से बड़ा राम का नाम” यह उक्ति इस कथन की पुष्टि करती है| इसलिए अपने आराध्य देव के नाम का जप करना भी एक प्रकार की श्रेष्ठ पूजा होती है| गणेश जी के निम्नलिखित बारह नाम मनुष्य को अनेक प्रकार की समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम हैं| विद्या, विवाह, वितीय, रोजगार, शत्रुता,गृह कलेश, मानसिक अशांति अथवा अन्य किसी भी प्रकार की समस्या क्यों न हो वह भगवान गणेश जी के इन नामों के स्मरण मात्र से दूर होने लगती हैं| गणेश जी के द्वादश नाम इस प्रकार हैं-
सुमुख- सुन्दर मुख वाले|
एकदंत- एक दांत वाले|
कपिल- जिनके विग्रह से नीले एवं पीले रंग की आभा प्रकट होती है|
गजकर्णक- हाथी के समान कान वाले|
लम्बोदर- लम्बे उदर वाले|
विकट- सर्वश्रेष्ठ|
विघ्ननाशक- विघ्नों का नाश करने वाले|
विनायक- विशिष्ट नायक|
धुम्रकेतु- धुएं जैसी रंग की ध्वजा वाले|
गणाध्यक्ष- गणों के स्वामी|
गजानन- हाथी के मुख वाले|
भालचंद्र- मस्तक पर चन्द्र कला धारण करने वाले|
गणेश जी से संबंधित विभिन्न कथाएँ तथा कुछ विशेष तथ्य – प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में भगवान गणेश जी से संबंधित अनेक कथाओं व कुछ विशेष तथ्यों का वर्णन हैं| जोकि इस प्रकार है-
एक कथा के अनुसार शनिदेव की दृष्टि बालक गणेश के ऊपर पड़ने से उनका सिर धड़ से अलग हो गया था। इस पर दुःखी माँ पार्वती से ब्रह्मा जी बोले- जिसका सिर सर्वप्रथम मिले उसे ही बालक गणेश के सिर पर लगा दो। पहला सिर हाथी के बच्चे का ही मिला था वही शिशु गणेश के सिर पर लगा दिया गया और इस प्रकार गणेश ‘गजानन’ कहलाए|
एक अन्य आख्यान के अनुसार भगवान गणेश जी को द्वारपाल नियुक्त करके माँ पार्वती स्नान करने चली गई। इतने में वहाँ भगवान शिव आए और भवन में प्रवेश करने लगे। गणेश जी ने जब उन्हें अन्दर जाने से रोका तो क्रोधित भगवान शिव ने उनका सिर काट दिया था। जब माँ पार्वती को इस पूरे घटनाक्रम का पता चला तो दुःख के मारे वो विलाप करने लगीं| भगवान शिव ने माँ पार्वती को समझाने का भरसक प्रयास किया परंतु माँ पार्वती शिवलोक छोड़कर जाने की जिद करने लगीं| यह सब देखकर भगवान शिव ने तुरंत ही अपने सभी गणों को चारों दिशाओं में दौड़ा दिया और गणेश जी का कटा हुआ सिर खोजने का आदेश दिया| शिवजी के समस्त गण चारों दिशाओं में चक्कर लगाकर आ गए किन्तु उन्हें गणेश जी का सिर कहीं नहीं मिला| तब विष्णु जी वहाँ पधारे और उन्होंने सभी गणों को आदेश दिया की जो माता अपने शिशु की तरफ पीठ करके सोती हुई मिले, उसके शिशु का सिर ले आएं| बहुत खोजबीन के बाद अंत में एक हथिनी अपने शिशु की तरफ पीठ किए सोती हुई मिली| शिवजी के गण उस हथिनी के बच्चे का सिर काटकर ले आये| भगवान शिव ने गणेश जी के धड़ पर हथिनी के बच्चे का सिर रखकर प्राण फूंक दिए| इस प्रकार गणेश जी फिर से जीवित हो गए| माँ पार्वती गणेश जी का नया स्वरूप देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और भगवान शिव ने गणेश जी को अपना पुत्र स्वीकार कर लिया| भगवान शिव ने गणेश जी को अनेक दुर्लभ वरदान प्रदान करते हुए उन्हें प्रथम पूज्य देव का पद भी प्रदान किया|
गणेश जी एकदंत कैसे बने इस संबंध में भी एक कथा प्रचलित है कि भगवान शिव और माँ पार्वती अपने शयन कक्ष में विश्राम कर रहे थे और गणेश जी द्वारपाल के रूप में पहरा दे रहे थे| इतने में परशुराम वहाँ आए और भगवान शिव से मिलने का अनुरोध करने लगे। जब गणेश जी ने उन्हें रोकने की चेष्टा की तो क्रोधित होकर परशुराम जी ने अपने फरसे से उनका एक दांत तोड दिया और इस प्रकार गणेश जी एकदंत बन गए।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार माँ पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनायी, जिसका मुख हाथी के समान था। फिर उस आकृति को उन्होंने गंगा जी में डाल दिया। गंगाजी में पड़ते ही वह आकृति विशालकाय बनकर जीवित हो गयी। पार्वती जी ने उसे पुत्र कहकर संबोधित किया। ब्रह्मा जी ने उन्हें गणों का आधिपत्य प्रदान करके गणेश नाम दे दिया|
श्रीगणेश जी विद्या-बुद्धि और समस्त सिद्धियों के दाता तथा थोड़ी उपासना से प्रसन्न हो जाते हैं
गणेश जी का जप मंत्र- ॐ गं गणपतये नम: है।
ऋद्धि-सिद्धि गणेश जी की पत्नियाँ हैं तथा शुभ व लाभ इनके पुत्र माने गए हैं|
गणेश जी को मोदक, दूर्वा, लाल पुष्प, सुपारी व सिंदूर अत्यंत प्रिय हैं|
गणेश जी को तुलसीपत्र अर्पित करना वर्जित है|
“कलौ चण्डीविनायकौ” इस उक्ति के अनुसार कलियुग में दुर्गाजी के अलावा गणेश जी की पूजा तुरंत फलदायी मानी गई है|
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार गणेश जी की एक अथवा तीन परिक्रमा करने का विधान है|
पंचदेवों(गणेशजी, विष्णुजी, शिवजी ,दुर्गाजी व सूर्य यह पंचदेव हैं) में भगवान गणेश जी का प्रमुख स्थान है।
घर के मंदिर तथा मुख्यद्वार पर गणेश जी की प्रतिमा को विधिवत स्थापित करके पूजा-अर्चना करने से अनेक प्रकार के वास्तु दोषों का शमन होता है|
भगवान गणेश विद्या-बुद्धि के अधिष्ठाता हैं। वे साक्षात प्रणवस्वरुप हैं। उनके श्री विग्रह का ध्यान, उनके मंगलमय नाम का जप और उनकी पूजा-अर्चना करने से कुशाग्र बुद्धि की प्राप्ति होती है|
गणेश जी की विभिन्न सूंड वाली आकृतियों का रहस्य– भगवान गणेश जी की विभिन्न सूंड वाली आकृतियों का अलग-अलग महत्व है| जिसकी जानकारी निम्नलिखित है-
गणेश जी की जिस मूर्ति में सूंड का अग्र भाग दाई ओर मुड़ा हो तो उस मूर्ति को दक्षिणमुखी अथवा दक्षिणाभिमुखी कहते हैं।
यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू। यह दाईं बाजू सूर्य नाड़ी को दर्शाती है।
जिसकी सूर्य नाड़ी अधिक कार्यरत होती है वह शक्तिशाली होने के साथ-साथ तेजस्वी भी होता है।
दाईं ओर सूंड वाले गणपति को जागृत तथा अत्यंत तेजस्वी माना जाता है।
ऐसी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती बल्कि कर्मकांड के विशेष नियमों को ध्यान में रखकर ही की जाती है|
विधि विधान से पूजन न होने पर दक्षिणमुखी गणेश जी रुष्ट हो सकते हैं जिससे मनुष्य को अनेक संकटों का सामना करना पड़ सकता है|
इसलिए भगवान गणेश जी की ऐसी मूर्ति केवल मंदिरों में रखने के लिए ही प्रशस्त मानी गई है जहाँ सभी देवी-देवताओं की विधि-विधान पूर्वक पूजा होती है|
गणेश जी की जिस मूर्ति में सूंड का अग्र भाग बाईं ओर मुड़ा हो उसे वाममुखी कहते हैं। वाम अर्थात बाईं ओर यानी उत्तर दिशा।
बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है जो की शीतलता की प्रतीक है तथा पूर्व दिशा के अतिरिक्त उतर दिशा भी पूजा-अर्चना के लिए अत्यंत शुभ मानी गई है|
इसलिए घर में अधिकतर वाममुखी गणपति की ही पूजा-अर्चना की जाती है।
वाममुखी गणेश जी को गृहस्थ जीवन के लिए शुभ माना जाता है|
इनकी पूजा में भी विशेष नियमों व विधि-विधान का पालन नहीं करना पड़ता है|
वाममुखी गणेश जी शीघ्र प्रसन्न होकर मात्र सरल पूजा-अर्चना से ही संतुष्ट हो जाते हैं|
घर अथवा निवासस्थल पर वाममुखी गणेश जी की ही पूजा करना श्रेष्ठ है क्योंकि इस स्वरुप में गणेश जी शीघ्र क्रोधित नहीं होते तथा त्रुटियाँ होने पर क्षमा प्रदान करते हैं|
गणेश जी की सीधी सूंड वाली मूर्ति को सुष्मना नाड़ी से प्रभावित माना जाता है और इनकी पूजा रिद्धि-सिद्धि, कुण्डलिनी जागरण, मोक्ष, समाधि आदि के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। साधू-सन्यासी व सिद्ध पुरुष मोक्ष प्राप्ति हेतु गणेश जी के इसी स्वरुप की आराधना करते हैं|
On Apr 24 2017 / Tags:
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