Sunday 17 September 2017

इस 10 दशम द्वार में जिस गुरू भक्त की सुरत ...

ⓘ Optimized 20 hours agoView original http://greatsaint-kabeer.blogspot.com/2012/01/?m=1   मंगलवार, जनवरी 31, 2012 सुन्दरी से सुनही बनी सुन साहब के खेल  पण्डित और मशालची । दोनों सूझे नाहिं । औरन करें चाँदना । आप अँधेरे माँहि । करनी तज कथनी कथें । अज्ञानी दिन रात । कूकर ज्यों भूँकत फ़िरे । सुनी सुनाई बात । कथनी के शूरे घने । कथे अडम्बर ज्ञान । बाहर जबाब आवे नहीं । लीद करें मैदान । चण्डाली के चौक में । सतगुरु बैठे जाये । चौंसठ लाख गारत गये । दो रहे सतगुरु पाये । भङवा भङवा सब कहें । जानत नाहीं खोज । गरीब कबीर करम से । बाँटत सर का बोझ । नाम बिना सूना नगर । पङया सकल में शोर । लूट न लूटी बन्दगी । हो गया हँसा भोर । अदली आरती अदल अजूनी । नाम बिना सब काया सूनी । झूठी काया खाल लुहारा । इङा पिंगला सुषमना द्वारा । कृतघ्नी भूले नर लोई । जा घट निश्चय नाम न होई । सो नर कीट पतंग भुजंगा । चौरासी में धर है अंगा । न जाने ये काल की कर डारे । किस विधि हल जा पासा वे । जिन्हा दे सिर ते मौत खुङगदी । उन्हानूँ केङा हाँसा वे । साधु मिले साडी शादी ( खुशी ) होंदी । बिछङ दा दिल गिरि ( दुख ) वै । अखदे नानक सुनो जिहाना । मुश्किल हाल फ़कीरी वे । बिनु उपदेश अचम्भ है । क्यों जीवत है प्राण । बिनु भक्ति कहाँ ठौर है । नर नहीं पाषाण । एक हरि के नाम बिनु । नारि कुतिया हो । गली गली भौंकत फ़िरे । टूक न डारे कोय । बीबी परदे रही थी । डयौङी लगती बार । गात उघारे फ़िरती है । बन कुतिया बाजार । नकबेसर नक से बनी । पहनत हार हमेल । सुन्दरी से सुनही ( कुतिया ) बनी । सुन साहब के खेल । राजा जनक से नाम ले । कीन्ही हरि की सेव । कह कबीर बैकुण्ठ में । उलट मिले शुकदेव । सतगुरु के उपदेश का । लाया एक विचार । जो सतगुरु मिलते नहीं । जाता नरक द्वार । नरक द्वार में दूत सब । करते खैंचातान । उनते कबहूँ न छूटता । फ़िर फ़िरता चारों खान । चार खान में भरमता । कबहूँ न लगता पार । सो फ़ेरा सब मिट गया । सतगुरु के उपकार । गुरु बङे गोविन्द से । मन में देख विचार । हरि सुमरे सो रह गये । गुरु भजे हुये पार । गंगा काठे घर करे । पीवे निर्मल नीर । मुक्ति नहीं हरि नाम बिन । सतगुरु कहें कबीर । तीरथ कर कर जग मुआ । उङे पानी नहाय । राम नाम ना जपा । काल घसीटे जाय । पीतल का ही थाल है । पीतल का लोटा । जङ मूरत को पूजते । फ़िर आवेगा टोटा । पीतल चमचा पूजिये । जो थाल परोसे । जङ मूरत किस काम की । मत रहो भरोसे । भूत रमे सो भूत है । देव रमे सो देव । राम रमे सो राम है । सुनो सकल सुर मेव । कबीर इस संसार को । समझाऊँ कै बार । पूँछ जो पकङे भेङ की । उतरा चाहे पार । गुरु बिनु यज्ञ हवन जो करहीं । मिथ्या जाय कबहूँ न फ़लहीं । माई मसानी शेर शीतला । भैरव भूत हनुमन्त । परमात्मा उनसे दूर है । जो इनको पूजन्त । सौ वर्ष तो गुरु की सेवा । एक दिन आन उपासी । वो अपराधी आत्मा । परे काल की फ़ाँसी । गुरु को तजै । भजै जो आना । ता पशुवा को । फ़ोकट ज्ञाना । देवी देव ठाङे भये । हमको ठौर बताओ । जो मुझको पूजे नहीं । उनको लूटो खाओ । काल जो पीसे पीसना । जोरा है पनिहार । ये दो असल मजूर हैं । सतगुरु के दरबार । साथी हमारे चले गये । हम भी चालनहार । कोए कागज में बाकी रही । ताते लागी वार । देह पङी तो क्या हुआ । झूठा सभी पटीट । पक्षी उङया आकाश कूँ । चलता कर गया बीट । बेटा जाया खुशी हुयी । बहुत बजाये थाल । आना जाना लग रहा । ज्यों कीङी का नाल । पतझङ आवत देखकर । वन रोवे मन माँहि । ऊँची डाली पात थे । अब पीले हो जाँहि । पात झङता यूँ कहे । सुन भई तरुवर राय । अब के बिछुङे नहीं मिला । कहाँ गिरूँगा जाय । तरुवर कहता पात से । सुनो पात एक बात । यहाँ की यही रीत है । एक आवत एक जात । पर द्वारा स्त्री का खोले । सत्तर जन्म अँधा हो डोले । सुरापान मध माँसाहारी । गबन करें । भोगे पर नारी । सत्तर जन्म कटत हैं शीश । साक्षी साहब हैं जगदीश । पर नारी न परसियो । मानो वचन हमार । भवन चर्तुदश तासु सिर । त्रिलोकी का भार । पर नारी न परसियो । सुनो शब्द सलतंत । धर्मराय के खम्ब से । अर्ध मुखी लटकंत । गुरु की निन्दा । सुने जो काना । ताको निश्चय नरक निदाना । अपने मुख जो निन्दा करहीं । शूकर श्वान गर्भ में परहीं । सन्त मिलन को जाईये । दिन में कई कई बार । आसोजा का मेह ज्यों । घना करे उपकार । कबीर दर्शन साधु का । साहिब आवे याद । लेखे में वो ही घङी । बाकी के दिन बाद । कबीर दर्शन साधु का । मुख पर बसे सुहाग । दर्श उन्हीं को होत हैं । जिनके पूरन भाग । इच्छा कर मारे नहीं । बिन इच्छा मर जाये । कह कबीर तास का । पाप नहीं लगाये । गुरु द्रोही की पेड पर । जो पग आवे वीर । चौरासी निश्चय पङे । सतगुरु कहें कबीर । जान बूझ सांची तजे । करें झूठ से नेह । जाकी संगत हे प्रभु । सपने में ना देय । माँस भखे और मद पिये । धन वैश्या सों खायें । जुआ खेल चोरी करे । अन्त समूला जाय । यह अर्ज गुफ़तम पेश तो । दर कून करतार । हक्का कबीर करीम तू । बे एव परवर दिगार । ( श्री गुरु ग्रन्थ साहिब । पृष्ठ 721 महला 1 । राग तिलंग ) RAJEEV BABA पर मंगलवार, जनवरी 31, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: रविवार, जनवरी 29, 2012 और खाओ माँस मछली..फ़िर देखो होता है क्या ?  मांस अहारी मानई । प्रत्यक्ष राक्षस जानि । ताकी संगति मति करै । होइ भक्ति में हानि । मांस मछलिया खात हैं । सुरापान से हेत । ते नर नरकै जाहिंगे । माता पिता समेत । मांस मांस सब एक है । मुरगी हिरनी गाय । जो कोई यह खात है । ते नर नरकहिं जाय । जीव हनै हिंसा करै । प्रगट पाप सिर होय । निगम पुनि ऐसे पाप तें । भिस्त गया नहिं कोय । तिल भर मछली खाय के । कोटि गऊ दै दान । काशी करौत ले मरै । तौ भी नरक निदान । बकरी पाती खात है । ताकी काढी खाल । जो बकरी को खात है । तिनका कौन हवाल । अंडा किन बिसमिल किया । घुन किन किया हलाल । मछली किन जबह करी । सब खाने का ख्याल । मुल्ला तुझै करीम का । कब आया फरमान । घट फोरा घर घर दिया । साहब का नीसान । काजी का बेटा मुआ । उर मैं सालै पीर । वह साहब सबका पिता । भला न मानै बीर । पीर सबन को एक सी । मूरख जानैं नाहिं । अपना गला कटाय कै । भिश्त बसै क्यों नाहिं । जोरी करि जबह करै । मुख सों कहै हलाल । साहब लेखा मांग सी । तब होसी कौन हवाल । जोर कीयां जुलूम है । मागै जबाब खुदाय । खालिक दर खूनी खडा । मार मुही मुँह खाय । गला काटि कलमा भरै । कीया कहै हलाल । साहब लेखा मांगसी । तब होसी कौन हवाल । गला गुसा कों काटिये । मियां कहर कौ मार । जो पांचू बिस्मिल करै । तब पावै दीदार । कबिरा सोई पीर हैं । जो जानै पर पीर । जो पर पीर न जानि है । सो काफिर बेपीर । कहता हूं कहि जात हूं । कहा जो मान हमार । जाका गला तुम काटि हो । सो फिर काटै तुम्हार । हिन्दू के दया नहीं । मिहर तुरक के नाहिं । कहै कबीर दोनूं गया । लख चैरासी मांहि । मुसलमान मारै करद सों । हिंदू मारे तलवार । कह कबीर दोनूं मिल । जावैं यम के द्वार । पानी पृथ्वी के हते । धूंआं सुनि के जीव । हुक्के में हिंसा घनी । क्यों कर पावै पीव । छाजन भोजन हक्क है । और दोजख देइ । गऊ अपनी अम्मा है । इस पर छुरी न बाह । गरीबदास घी दूध को । सब ही आत्म खाय । दिन को रोजा रहत हैं । रात हनत हैं गाय । यह खून वह बंदगी । कहुं क्यों खुशी खुदाय । खूब खाना है खीचडी । मांहीं परी टुक लौन । मांस पराया खाय कै । गला कटावै कौन । मुसलमान गाय भखी । हिन्दु खाया सूअर । गरीबदास दोनों दीन से । राम रहिमा दूर । जीव हिंसा जो करत हैं । या आगै क्या पाप । कंटक जूनि जिहान में । सिंह भेढिया और सांप । आप कबीर अल्लाह हैं । बख्सो अब की बार । दासगरीब शाह कुं । अल्लाह रूप दीदार । RAJEEV BABA पर रविवार, जनवरी 29, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: दादू और कबीर । दादू द्वारा कबीर बन्दगी  जिन मोकुं निज नाम दिया । सोइ सतगुरु हमार । दादू दूसरा कोई नहीं । कबीर सृजनहार । दादू नाम कबीर की । जै कोई लेवे ओट । उनको कबहू लागे नहीं । काल बज्र की चोट । दादू नाम कबीर का । सुनकर कांपे काल । नाम भरोसे जो नर चले । होवे न बंका बाल । जो जो शरण कबीर के । तर गए अनन्त अपार । दादू गुण कीता कहे । कहत न आवै पार । कबीर कर्ता आप है । दूजा नाहिं कोय । दादू पूरन जगत को । भक्ति दृढ़ावत सोय । ठेका पूरन होय जब । सब कोई तजै शरीर । दादू काल गजे नहीं । जपै जो नाम कबीर । आदमी की आयु घटै । तब यम घेरे आय । सुमिरन किया कबीर का । दादू लिया बचाय । मेटि दिया अपराध सब । आय मिले छन माँह । दादू संग ले चले । कबीर चरण की छांह । सेवक देव निज चरण का । दादू अपना जान । भृंगी सत्य कबीर ने । कीन्हा आप समान । दादू अन्तरगत सदा । छिन छिन सुमिरन ध्यान । वारु नाम कबीर पर । पल पल मेरा प्रान । सुन सुन साखी कबीर की । काल नवावै माथ । धन्य धन्य हो तिन लोक में । दादू जोड़े हाथ । केहरि नाम कबीर का । विषम काल गज राज । दादू भजन प्रताप ते । भागे सुनत आवाज । पल एक नाम कबीर का । दादू मन चित लाय । हस्ती के अश्वार को । श्वान काल नहीं खाय । सुमरत नाम कबीर का । कटे काल की पीर । दादू दिन दिन ऊँचे । परमानन्द सुख सीर । दादू नाम कबीर की । जो कोई लेवे ओट । तिनको कबहुं ना लगई । काल बज्र की चोट । और संत सब कूप हैं । केते झरिता नीर । दादू अगम अपार है । दरिया सत्य कबीर । अबही तेरी सब मिटै । जन्म मरन की पीर । स्वांस उस्वांस सुमिर ले । दादू नाम कबीर । कोई सर्गुन में रीझ रहा । कोई निर्गुण ठहराय । दादू गति कबीर की । मोते कही न जाय । जिन मोकुं निज नाम दिया । सोइ सतगुरु हमार । दादू दूसरा कोई नहीं । कबीर सृजनहार । RAJEEV BABA पर रविवार, जनवरी 29, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: नानक साहब द्वारा कबीर साहब की बन्दगी ।  नानकशाह कीन्हा तप भारी । सब विधि भये ज्ञान अधिकारी । भक्ति भाव ताको समिझाया । तापर सतगुरु कीनो दाया । जिंदा रूप धरयो तब भाई । हम पंजाब देश चलि आई । अनहद बानी कियौ पुकारा । सुनि कै नानक दरश निहारा । सुनि के अमर लोक की बानी । जानि परा निज समरथ ज्ञानी । नानक जी बोले - आवा पुरूष महागुरु ज्ञानी । अमरलोकी सुनी न बानी । अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी । कहँ अमरलोक रहा निज धामी । काहु न कही अमर निज बानी । धन्य कबीर परम गुरु ज्ञानी । कोई न पावै तुमरो भेदा । खोज थके बृह्मा चहुँ वेदा । जिन्दा जी बोले - नानक तव बहुतै तप कीना । निरंकार बहुते दिन चीन्हा । निरंकार ते पुरूष निनारा । अजर द्वीप ताकी टकसारा । पुरूष बिछोह भयौ तव जब ते । काल कठिन मग रोकयो तब ते । इत तव सरिस भक्त नहिं होई । क्यों कि परम पुरूष न भेटेंउ कोई । जब ते हम ते बिछुरे भाई । साठ हजार जन्म भक्त तुम पाई । धरि धरि जन्म भक्ति भल कीना । फिर काल चक्र निरंजन दीना । गहु मम शब्द तो उतरो पारा । बिन सत शब्द लहै यम द्वारा । तुम बड़ भक्त भवसागर आवा । और जीव की कौन चलावा ? निरंकार सब सृष्टि भुलावा । तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा । नानक जी बोले - धन्य पुरूष तुम यह पद भाखी । यह पद हमसे गुप्त कह राखी । जब लों हम तुमको नहिं पावा । अगम अपार भरम फैलावा । कहो गोसाँई हमते ज्ञाना । परम पुरूष हम तुमको जाना । धनि जिंदा प्रभु पुरूष पुराना । बिरले जन तुमको पहचाना । जिन्दा जी बोले - भये दयाल पुरूष गुरु ज्ञानी । दियो पान परवाना बानी । भली भई तुम हमको पावा । सकलो पंथ काल को ध्यावा । तुम इतने अब भये निनारा । फेरि जन्म ना होय तुम्हारा । भली सुरति तुम हमको चीन्हा । अमर मंत्र हम तुमको दीन्हा । स्व समवेद हम कहि निज बानी । परम पुरूष गति तुम्हैं बखानी । नानक जी बोले - धन्य पुरूष ज्ञानी करतारा । जीव काज प्रकटे संसारा । धनि करता तुम बन्दी छोरा । ज्ञान तुम्हार महाबल जोरा । दिया नाम दान किया उबारा । नानक अमर लोक पग धारा । नानक साहब द्वारा कबीर साहब की बन्दगी । वाह वाह कबीर गुरु पूरा है । पूरे गुरु की मैं बलि जावाँ । जाका सकल जहूरा है । अधर दुलिच परे है गुरुन के । शिव बृह्मा जह शूरा है । श्वेत ध्वजा फहरात गुरुन की । बाजत अनहद तूरा है । पूर्ण कबीर सकल घट दरशै । हरदम हाल हजूरा है । नाम कबीर जपै बड़ भागी । नानक चरण को धूरा है । RAJEEV BABA पर रविवार, जनवरी 29, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: कबीर द्वारा अपना परिचय देना  तीन लोक पिंजरा भया । पाप पुण्य दो जाल । सभी जीव भोजन भये । एक खाने वाला काल । इच्छा रूपी खेलन आया । तातैं सुख सागर नहीं पाया । बिन ही मुख सारंग राग सुन । बिन ही तंती तार । बिना सुर अलगोजे बजैं । नगर नांच घुमार । घण्टा बाजै ताल नग । मंजीरे डफ झांझ । मूरली मधूर सुहावनी । निसबासर और सांझ । बीन बिहंगम बाजहिं । तरक तम्बूरे तीर । राग खण्ड नहीं होत है । बंध्या रहत समीर । तरक नहीं तोरा नहीं । नांही कशीस कबाब । अमृत प्याले मध पीवैं । ज्यों भाटी चवैं शराब । मतवाले मस्तानपुर । गली गली गुलजार । संख शराबी फिरत हैं । चलो तास बजार । संख संख पत्नी नाचैं । गावैं शब्द सुभान । चंद्र बदन सूरजमुखी । नांही मान गुमान । संख हिंडोले नूर नग । झूलैं संत हजूर । तख्त धनी के पास कर । ऐसा मुलक जहूर । नदी नाव नाले बगैं । छूटैं फुहारे सुन्न । भरे होद सरवर सदा । नहीं पाप नहीं पुण्य । ना कोई भिक्षुक दान दे । ना कोई हार व्यवहार । ना कोई जन्मे मरे । ऐसा देश हमार । जहां संखों लहर मेहर की उपजैं । कहर जहां नहीं कोई । दास गरीब अचल अविनाशी । सुख का सागर सोई । आत्म प्राण उद्धार हीं । ऐसा धर्म नहीं और । कोटि अश्वमेघ यज्ञ । सकल समाना भौर । चौरासी बंधन कटे । कीनी कलप कबीर । भवन चतुरदश लोक सब । टूटे जम जंजीर । अनंत कोटि बृह्माण्ड में । बंदी छोड़ कहाय । सो तौ एक कबीर हैं । जननी जन्या न माय । शब्द स्वरूप साहिब धनी । शब्द सिंध सब माँहि । बाहर भीतर रमि रहया । जहाँ तहां सब ठांहि । जल थल पृथ्वी गगन में । बाहर भीतर एक । पूरण बृह्म कबीर हैं । अविगत पुरूष अलेख । सेवक होय करि ऊतरे । इस पृथ्वी के माँहि । जीव उद्धारन जगत गुरु । बार बार बलि जांहि । काशीपुरी कस्त किया । उतरे अधर अधार । मोमन कूं मुजरा हुवा । जंगल में दीदार । कोटि किरण शशि भान सुधि । आसन अधर बिमान । परसत पूरण बृह्म कूं । शीतल पिंडरू प्राण । गोद लिया मुख चूंबि करि । हेम रूप झलकंत । जगर मगर काया करै । दमकैं पदम अनंत । काशी उमटी गुल भया । मोमन का घर घेर । कोई कहै बृह्मा विष्णु हैं । कोई कहै इन्द्र कुबेर । कोई कहै छल ईश्वर नहीं । कोई किंनर कहलाय । कोई कहै गण ईश का । ज्यूं ज्यूं मात रिसाय । कोई कहै वरूण धर्मराय है । कोई कोई कहते ईश । सोलह कला सुभांन गति । कोई कहै जगदीश । भक्ति मुक्ति ले ऊतरे । मेटन तीनूं ताप । मोमन के डेरा लिया । कहै कबीरा बाप । दूध न पीवै न अन्न भखै । नहीं पलने झूलंत । अधर अमान धियान में । कमल कला फूलंत । काशी में अचरज भया । गई जगत की नींद । ऐसे दुल्हे ऊतरे । ज्यूं कन्या वर बींद । खलक मुलक देखन गया । राजा प्रजा रीत । जंबू दीप जहान में । उतरे शब्द अतीत । दुनी कहै योह देव है । देव कहत हैं ईश । ईश कहै परबृह्म है । पूरण बीसवे बीस । आदि अंत हमरा नहीं । मध्य मिलावा मूल । बृह्म ज्ञान सुनाईया । धर पिंडा अस्थूल । श्वेत भूमिका हम गए । जहां विश्वम्भरनाथ । हरियम हीरा नाम दे । अष्ट कमल दल स्वांति । हम बैरागी बृह्म पद । सन्यासी महादेव । सोहं मंत्र दिया शंकर कूं । करत हमारी सेव । हम सुल्तानी नानक तारे । दादू कूं उपदेश दिया । जाति जुलाहा भेद न पाया । कांशी माहे कबीर हुआ । सतयुग में सतसुकृत कहैं टेरा । त्रेता नाम मुनिन्द्र मेरा । द्वापर में करूणामय कहलाया । कलियुग में नाम कबीर धराया । चारों युगों में हम पुकारै । कूक कहया हम हेल रे । हीरे मानिक मोती बरसें । ये जग चुगता ढेल रे । सतगुरु पुरुष कबीर हैं । चारों युग प्रवान । झूठे गुरुवा मर गए । हो गए भूत मसान । जैसे माता गर्भ को । राखे जतन बनाय । ठेस लगे तो क्षीण होवे । तेरी ऐसे भक्ति जाय । रहे नल नील जतन कर हार । तब सतगुरू से करी पुकार । जा सत रेखा लिखी अपार । सिन्धु पर शिला तिराने वाले । धन धन सतगुरु सत कबीर । भक्त की पीर मिटाने वाले । कबीर तीन देव को सब कोई ध्यावै । चौथे देव का मरम न पावै । चौथा छाड़ पंचम को ध्यावै । कहै कबीर सो हम पर आवै । ओंकार निश्चय भया । यह कर्ता मत जान । सांचा शब्द कबीर का । परदे मांही पहचान । राम कृष्ण अवतार हैं । इनका नांही संसार । जिन साहेब संसार किया । सो किन्हूं न जनमया नार । चार भुजा के भजन में । भूलि परे सब संत । कबिरा सुमिरो तासु को । जाके भुजा अनंत । समुद्र पाट लंका गये । सीता को भरतार । ताहि अगस्त मुनि पीय गयो । इनमें को करतार । गिरवर धारयो कृष्ण जी । द्रोणागिरि हनुमंत । शेष नाग सब सृष्टि सहारी । इनमें को भगवंत । काटे बंधन विपति में । कठिन किया संग्राम । चिन्हों रे नर प्राणियां । गरुड बड़ो की राम । कह कबीर चित चेतहं । शब्द करौ निरूवार । श्रीरामहि कर्ता कहत हैं । भूलि परयो संसार । जिन राम कृष्ण व निरंजन कियो । सो तो करता न्यार । अंधा ज्ञान न बूझई । कहै कबीर विचार । *************** धर्मदास यहाँ घना अंधेरा । बिन परचय जीव जम का चेरा । काल डरै करतार से । जय जय जय जगदीश । जौरा जौरी झाड़ती । पग रज डारे शीश । काल जो पीसै पीसना । जौरा है पनिहार । ये दो असल मजूर हैं । मेरे साहेब के दरबार । जीवन तो थोड़ा भला । जै सत सुमरण हो । लाख वर्ष का जीवना । लेखे धरे ना को । रामानंद अधिकार सुनि । जुलहा एक जगदीश । दास गरीब बिलंब ना । ताहि नवावत शीश । रामानंद कूं गुरु कहै । तनसैं नहीं मिलात । दास गरीब दर्शन भये । पैडे लगी जुं लात । पंथ चलत ठोकर लगी । रामनाम कहि दीन । दास गरीब कसर नहीं । सीख लई प्रबीन । आडा पडदा लाय करि । रामानंद बूझंत । दास गरीब कुलंग छबि । अधर डाक कूदंत । कौन जाति कुल पंथ है । कौन तुम्हारा नाम । दास गरीब अधीन गति । बोलत है बलि जांव । जाति हमारी जगतगुरु । परमेश्वर पद पंथ । दास गरीब लिखति परै । नाम निंरजन कंत । रे बालक सुन दुर्बद्धि । घट मठ तन आकार । दास गरीब दरद लगया । हो बोले सिरजनहार । तुम मोमन के पालवा । जुलहै के घर बास । दास गरीब अज्ञान गति । एता दृढ़ विश्वास । मान बडाई छांडि करि । बोलौ बालक बैंन । दास गरीब अधम मुखी । एता तुम घट फैंन । तर्क तलूसैं बोलतै । रामानंद सुर ज्ञान । दास गरीब कुजाति है । आखर नीच निदान । कबीर साहब का उत्तर - महके बदन खुलास कर । सुनि स्वामी प्रबीन । दास गरीब मनी मरै । मैं आजिज आधीन । मैं अविगत गति से परै । चार बेद से दूर । दास गरीब दशौं दिशा । सकल सिंध भरपूर । सकल सिंध भरपूर हूँ । खालिक हमरा नाम । दास गरीब अजाति हूँ । तैं जूं कहया बलि जांव । जाति पाति मेरे नहीं । नहीं बस्ती नहीं गाम । दास गरीब अनिन गति । नहीं हमारे नाम । नाद बिंद मेरे नहीं । नहीं गुदा नहीं गात । दास गरीब शब्द सजा । नहीं किसी का साथ । सब संगी बिछरू नहीं । आदि अंत बहु जांहि । दास गरीब सकल वंसु । बाहर भीतर माँहि । ए स्वामी सृष्टा मैं । सृष्टि हमारै तीर । दास गरीब अधर बसूं । अविगत सत्य कबीर । पौहमी धरणि आकाश मैं । मैं व्यापक सब ठौर । दास गरीब न दूसरा । हम समतुल नहीं और । हम दासन के दास हैं । करता पुरुष करीम । दास गरीब अवधूत हम । हम बृह्मचारी सीम । । सुनि रामानंद राम हम । मैं बावन नरसिंह । दास गरीब कली कली । हमहीं से कृष्ण अभंग । हमहीं से इंद्र कुबेर हैं । बृह्मा बिष्णु महेश । दास गरीब धरम ध्वजा । धरणि रसातल शेष । सुनि स्वामी सति भाखहूँ । झूठ न हमरै रिंच । दास गरीब हम रूप बिन । और सकल प्रपंच । गोता लाऊं स्वर्ग सैं । फिरि पैठूं पाताल । गरीब दास ढूंढत फिरूं । हीरे माणिक लाल । इस दरिया कंकर बहुत । लाल कहीं कहीं ठाव । गरीब दास माणिक चुगैं । हम मुरजीवा नांव । मुरजीवा माणिक चुगैं । कंकर पत्थर डारि । दास गरीब डोरी अगम । उतरो शब्द अधार । बोलत रामानंदजी । हम घर बडा सुकाल । गरीबदास पूजा करैं । मुकुट फही जदि माल । सेवा करौं संभाल करि । सुनि स्वामी सुर ज्ञान । गरीबदास शिर मुकुट धरि । माला अटकी जान । स्वामी घुंडी खोलि करि । फिर माला गल डार । गरीबदास इस भजन कूं । जानत है करतार । डयौढी पडदा दूरि करि । लीया कंठ लगाय । गरीबदास गुजरी बहुत । बदनैं बदन मिलाय । मन की पूजा तुम लखी । मुकुट माल परबेश । गरीबदास गति को लखै । कौन वरण क्या भेष । यह तौ तुम शिक्षा दई । मानि लई मनमोर । गरीबदास कोमल पुरूष । हमरा बदन कठोर । सुनि बच्चा मैं स्वर्ग की । कैसैं छांडौं रीति । गरीबदास गुदरी लगी । जनम जात है बीत । चार मुक्ति बैकुंठ मैं । जिनकी मोरै चाह । गरीबदास घर अगम की । कैसैं पाऊं थाह । हेम रूप जहाँ धरणि है । रतन जडे बौह शोभ । गरीबदास बैकुंठ कूं । तन मन हमरा लोभ । शंख चक्र गदा पदम हैं । मोहन मदन मुरारि । गरीबदास मुरली बजै । सुरग लोक दरबारि । दूधौं की नदियां बगैं । सेत वृक्ष सुभान । गरीबदास मंदल मुक्ति । सुरगापुर अस्थान । रतन जडाऊ मनुष्य हैं । गण गंधर्व सब देव । गरीबदास उस धाम की । कैसैं छाडूं सेव । ऋग युज साम अथर्वणं । गावैं चारौं वेद । गरीबदास घर अगम की । कैसैं जानो भेद । चार मुक्ति चितवन लगी । कैसैं बंचूं ताहि । गरीबदास गुप्तार गति । हमकूं द्यौ समझाय । सुरग लोक बैकुंठ है । यासैं परै न और । गरीबदास षट शास्त्र । चार बेद की दौर । चार बेद गावैं तिसैं । सुर नर मुनि मिलाप । गरीबदास धु्रव पोर जिस । मिटि गये तीनूं ताप । प्रहलाद गये तिस लोक कूं । सुरगा पुरी समूल । गरीबदास हरि भक्ति की । मैं बंचत हूँ धूल । बिंद्रावन गये तिस लोक कूं । सुरगा पुरी समूल । गरीबदास उस मुक्ति कूं । कैसैं जाऊं भूल । नारद बृह्मा तिस रटैं । गावैं शेष गणेश । गरीबदास बैकुंठ सैं । और परै को देश । सहंस अठासी जिस जपैं । और तैतीसौं सेव । गरीबदास जासैं परै । और कौन है देव । । सुनि स्वामी निज मूल गति । कहि समझाऊं तोहि ।गरीबदास भगवान कूं । राख्या जगत समोहि । तीनि लोक के जीव सब । विषय वास भरमाय । गरीबदास हमकूं जपैं । तिसकूं धाम दिखाय । जो देखैगा धाम कूं । सो जानत है मुझ । गरीबदास तोसैं कहं । सुनि गायत्री गुझ । कृष्ण विष्णु भगवान कूं । जहडायं हैं जीव । गरीबदास त्रिलोक मैं । काल कर्म शिर शीव । सुनि स्वामी तोसैं कहूँ । अगम दीप की सैल । गरीबदास पूठे परे । पुस्तक लादे बैल । पौहमी धरणि अकाश थंभ । चलसी चंदर सूर । गरीबदास रज बिरज की । कहाँ रहैगी धूर । नारायण त्रिलोक सब । चलसी इन्द्र कुबेर । गरीबदास सब जात हैं । सुरग पाताल सुमेर । । चार मुक्ति बैकुठ बट । फना हुआ कई बार । गरीबदास अलप रूप मघ । क्या जानैं संसार । कहौ स्वामी कित रहौगे । चौदह भुवन बिहंड । गरीबदास बीजक कहया । चलत प्राण और पिंड । सुन स्वामी एक शक्ति है । अरधंगी कार । गरीबदास बीजक तहां । अनंत लोक सिंघार । जैसे का तैसा रहै । परलो फना प्रान । गरीबदास उस शक्ति कूं । बार बार कुरबांन । कोटि इन्द्र बृह्मा जहाँ । कोटि कृष्ण कैलास । गरीबदास शिव कोटि हैं । करौ कौंन की आश । कोटि विष्णु जहाँ बसत हैं । उस शक्ति के धाम । गरीबदास गुल बहुत हैं । अलफ बस्त निहकाम । शिव शक्ति जासै हुए । अनंत कोटि अवतार । गरीबदास उस अलफ कूं । लखै सो होय करतार । अलफ हमारा रूप है । दम देही नहीं दंत । गरीबदास गुल सैं परै । चलना है बिन पंथ । बिना पंथ उस कंत कै । धाम चलन है मोर । गरीबदास गति ना किसी । संख सुरग पर डोर । संख सुरग पर हम बसैं । सुनि स्वामी यह सैंन । गरीबदास हम अलफ हैं । यौह गुल फोकट फैंन । जो तै कहया सौ मैं लहया । बिन देखै नहीं धीज । गरीबदास स्वामी कहै । कहाँ अलफ वौ बीज । अनंत कोटि बृह्माण्ड फण । अनंत कोटि उदगार । गरीबदास स्वामी कहै । कहां अलफ दीदार । हद बेहद कहीं ना कहीं । ना कहीं थरपी ठौर । गरीबदास निज बृह्म की । कौंन धाम वह पौर । चल स्वामी सर पर चलैं । गंग तीर सुन ज्ञान । गरीबदास बैकुंठ बट । कोटि कोटि घट ध्यान । तहां कोटि वैकुंठ हैं । नक सरवर संगीत । गरीबदास स्वामी सुनैं । जात अनन्त जुग बीत । प्राण पिंड पुर मैं धसौ । गये रामानंद कोटि । गरीबदास सर सुरग मैं । रहौ शब्दकी ओट । तहां वहाँ चित चकित भया । देखि फजल दरबार । गरीबदास सजदा किया । हम पाये दीदार । तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि । भर्म कर्म किये नाश । गरीबदास निज बृह्म तुम । हमरै दृढ़ विश्वास । सुन्न बेसुन्न सैं तुम परै । उरैं से हमरै तीर । गरीबदास सरबंग मैं । अविगत पुरूष कबीर । कोटि कोटि सजदे करैं । कोटि कोटि प्रणाम । गरीबदास अनहद अधर । हम परसैं तुम धाम । । सुनि स्वामी एक गल गुझ । तिल तारी पल जोरि । गरीबदास सर गगन मैं । सूरज अनंत करोरि । सहर अमान अनन्तपुर । रिमझिम रिमझिम होय । गरीबदास उस नगर का । मरम न जानैं कोय । । सुनि स्वामी कैसैं लखौ । कहि समझाऊं तोहि । गरीबदास बिन पर उडैं । तन मन शीश न होय । रवनपुरी एक चक्र है । तहाँ धनजय बाय । गरीबदास जीते जन्म । याकूँ लेत समाय । आसन पदम लगायकर । भिरंग नाद को खैंचि । गरीबदास अचवन करै । देवदत्त को ऐचि । काली ऊन कुलीन रंग । जाकै दो फुन धार । गरीबदास कुरंभ शिर । तास करे उद्धार । चिश्में लाल गुलाल रंग । तीनि गिरह नभ पेंच । गरीबदास वह नागनी कूँ । हौने न देवे रेच । कुंभक रेचक सब करै । ऊन करत उदगार । गरीबदास उस नागनी कूँ । जीतै कोई खिलार । कुंभ भरै रेचक करै । फिर टुटत है पौन । गरीबदास गगन मण्डल । नहीं होत है रौन । आगे घाटी बंद है । इङा पिंगला दोय । गरीबदास सुषमन खुले । तास मिलावा होय । चंदा के घर सूर रखि । सूरज के घर चंद । गरीबदास मध्य महल है । तहाँ वहाँ अजब आनन्द । त्रिवेणी का घाट है । गंग जमन गुपतार । गरीबदास परबी परखि । तहाँ सहंस मुख धार । मध्य किवारी बृह्मरंध्र । वाह खोलत नहीं कोय । गरीबदास सब जोग की । पेज पीछाड़े होय । आसन सम्पट सुधि कर । गुफा गिरद गति ढोल । गरीबदास पल पालड़ै । हीरे मानिक तोल । पान अपान समान सुध । मंदा चल महकंत । गरीबदास ठाठी बगै । तो दीपक बात बुंझत । घंटा टुटे ताल भंग । संख न सुनिए टेर । गरीबदास मुरली मुक्ति । सुनि चढ़ी हंस सुमेर । खुलहै खिरकी सहज धुनि । दम नहीं खैंच अतीत । गरीबदास एक सैन है । तजि अनभय छंद गीत । धीरैं धीरैं दाटी हैं । सुरग चढैंगे सोय । गरीबदास पग पंथ बिन । ले राखौं जहाँ तोय । सुन स्वामी सीढी बिना । चढौं गगन कैलास । गरीबदास प्राणायाम तजि । नाहक तोरत श्वास । गली गली गलतान है । सहर सलेमाबाद । गरीबदास पल बीच मैं । पूरण करौं मुराद । ज्यूं का त्यूं ही बैठि रहो । तजि आसन सब जोग । गरीबदास पल बीच पद । सर्व सैल सब भोग । पनग पलक नीचै करौ । ता मुख सहंस शरीर । गरीबदास सूक्ष्म अधरि । सूरति लाय सर तीर । सुनि स्वामी यह गति अगम । मनुष्य देव सैं दूर । गरीबदास बृह्मा थकै । किन्हैं न पाया मूर । मूल डार जाकै नहीं । है सो अनिन अरंग । गरीबदास मजीठ चलि । ये सब लोक पतंग । सुतह सिधि परकाशिया । कहा अरघ असनान । गरीबदास तप कोटि जुग । पचि हारे सुर ज्ञान । श्याम सेत नहीं लाल है । नाहीं पीत पसाव । गरीबदास कासैं कहूँ । चलै नीर बिन नाव । कोटि कोटि बैकुंठ हैं । कोटि कोटि शिव शेष । गरीबदास उस धाम मैं । बृह्मा कोटि नरेश । अवादान अमानपुर । चलि स्वामी तहां चाल । गरीबदास परलो अनंत । बौहरि न झंपै काल । अमर चीर तहां पहरि है । अमर हंस सुख धाम । गरीबदास भोजन अजर । चल स्वामी निज धाम । बोलत रामानंदजी । सुन कबीर करतार । गरीबदास सब रूप मैं । तुमहीं बोलन हार । तुम साहिब तुम संत हौ । तुम सतगुरु तुम हंस । गरीबदास तुम रूप बिन । और न दूजा अंस । मैं भगता मुक्ता भया । किया कर्म कुन्द नाश । गरीबदास अविगत मिले । मेटी मन की बास । दोहूँ ठौर है एक तूं । भया एक से दोय । गरीबदास हम कारणैं । उतरे हैं मघ जोय । गोष्टी रामानंद सैं । कांशी नगर मंझार । गरीबदास जिंद पीर के । हम पाये दीदार । बोलै रामानंद । सुनौं कबीर सुभांन । गरीबदास मुक्ता भये । उधरे पिंड अरु प्राण । तहां वहाँ चित चकित भया । देखि फजल दरबार । गरीबदास सजदा किया । हम पाये दीदार । तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि । भर्म कर्म किये नाश । गरीबदास निज बृह्म तुम । हमरै दृढ़ विश्वास । सुन्न बेसुन्न सैं तुम परै । उरैं से हमरै तीर । गरीबदास सरबंग मैं । अविगत पुरूष कबीर । कोटि कोटि सजदे करैं । कोटि कोटि प्रणाम । गरीबदास अनहद अधर । हम परसैं तुम धाम । बोलत रामानंदजी । सुन कबीर करतार । गरीबदास सब रूप मैं । तुमहीं बोलन हार । तुम साहिब तुम संत हौ । तुम सतगुरु तुम हंस । गरीबदास तुम रूप बिन । और न दूजा अंस । मैं भगता मुक्ता भया । किया कर्म कुन्द नाश । गरीबदास अविगत मिले । मेटी मन की बास । दोहूँ ठौर है एक तूं । भया एक से दोय । गरीबदास हम कारणैं । उतरे हैं मघ जोय । दहूँ ठोड़ है एक तूं । भया एक से दो । गरीबदास हम कारणे । आए हो मग जो । मैं भक्ता मुक्ता भया । कर्म कुण्द भये नाश । गरीबदास अविगत मिले । मिट गई मन की बांस । बेद हमारा भेद है । मैं बेदों में नाहीं । जिस बेद से मैं मिलूं । बेद जानते नाहीं । RAJEEV BABA पर रविवार, जनवरी 29, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: सोमवार, जनवरी 23, 2012 भजन और ध्यान की भूख पैदा होना ही आगे का रास्ता चलना है  72 प्रश्न - महाराज जी ! गुरू भाइयों से बातचीत के दौरान मालूम होता है । और मेरे साथ भी ऐसा होता है कि कभी कभी भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में खूब मन लगता है । और उसमें आनन्द आता है । और कभी भजन, सुमिरन व ध्यान के अभ्यास में कमी आ जाती है । मन ठीक से नहीं लगता है । मन में तरह तरह की हिलोरें उठती रहती हैं । और तरह तरह की विघ्न बाधायें आती रहती हैं । यह हालत एक के बाद दूसरी । दूसरी के बाद तीसरी । यानी एक के बाद एक लगातार आती ही रहती हैं । भजन ध्यान का साधन बनता बिगडता रहता है । उत्तर - जब तक श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा नहीं होगी । तब तक भजन । सुमिरन । ध्यान में रस या आनन्द नहीं आयेगा । साधक के मन में भजन, ध्यान के लिये बेकली व तडप आवश्यक है । जिससे रस और आनन्द के लिए भूख पैदा हो । भजन और ध्यान के लिए भूख पैदा होना ही आगे का रास्ता चलना है । यदि उतने से आनन्द में तृप्ति हो जाती है । तो फ़िर उसके लिये आगे का रास्ता रूक जाता है । अत: ऐसी दशा में जब विघ्न उत्पन्न हो । तो उसके लिये विरह तथा तडप उत्पन्न होती है । ऐसी दशा में अभ्यासी को घबराना नहीं चाहिये । और न ही निराश होना चाहिये । इस दशा में श्री सदगुरू देव जी महाराज के दया की आशा रखकर खूब लगन से भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान नियमित नियमानुसार करते रहना चाहिये । इससे मालिक की दया व कृपा अवश्य ही होती है ।  महापुरूषों ने यह बताया है कि साधक जितना रास्ता चलता है । और परमार्थ पथ पर अग्रसर होता जाता है । उतनी ही अधिक विघ्न बाधायें सामने आती हैं । नित्य नयी तरंगे लेकर काम । क्रोध । लोभ । मोह । माया तथा अहंकार के रूप में विघ्न आते हैं । अत: इनसे बचने के लिये केवल एकमात्र सहारा श्री सदगुरू भगवान का ही रह जाता है । अर्थात श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया का सहारा लेकर इन विघ्न बाधाओं को काटते रहना चाहिये । श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया से साहस और पुरूषार्थ के साथ चलकर श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा से धीरे धीरे माया मोह के प्रभाव पर विजय पाना चाहिये । साधक एक न एक दिन सफ़लता प्राप्त कर ही लेगा । ऐसी धुन गुरू में लगे । जैसे तन में प्रान । एक पलक बिसरूं नहीं । हे परिपूरण काम । बिना श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा व दया के काम । क्रोध । लोभ । मोह । मोह । माया । अहंकार से लडना सम्भव नहीं है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया या सम्बल लिये बिना साधक आगे नहीं बढ सकता है । ऐसा होने से साधक के मन में मालिक के प्रति प्रेम, दीनता और आश्रय बढते जाते हैं । और जब श्री सदगुरू की दया से विघ्न कटने लग जाते हैं । तो प्रभु प्रेम विशेष रूप से उभरने लगता है । जिसके फ़ल स्वरूप साधक तीवृता से परमार्थ पथ पर बढने लगता है । उसका मन मानस स्वच्छ होने लगता है । और उसकी बढत इस ढंग से होने लगती है । जिससे वह इस माया देश से ऊपर उठकर ऊंचे देश यानी दयाल देश का वासी बन जाता है । यह सब कुछ हमारे  श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा व दया की बख्शीश या देन है । नियम निभाये दास ये । प्रभु दीजो यही आशीष । मेरे दामन में भरो । प्रभु दया की बख्शीश । जो साधक श्री सदगुरू के स्वरूप को अगुआ करके चलेगा । यानी श्री सदगुरू देव जी महाराज का आश्रय लेकर कोई भी कार्य करेगा । उसे प्रभु की कृपा से विघ्न बाधायें बहुत ही कम असर करेंगी । यदि माया अपने दल बल का थोडा बहुत वेग दिखायेगी । तो भी श्री सदगुरू देव जी महाराज अपनी दया से अपने शिष्य के ऊपर आई विघ्न बाधाओं का शीघ्र निवारण कर देंगे । इस प्रकार साधक अपने श्री सदगुरू देव महाराज पर आश्रित रहकर भजन । सुमिरन । ध्यान तथा भक्ति की साधन करता है । तथा सदा अपने मन को उनके श्री चरण कमलों में लवलीन रखता है । उससे माया भी डरती है । क्योंकि वह जानती है कि यहां मेरा वश नहीं चलेगा । इसलिये सभी साधकों को सीख दी जाती है कि कोई भी कार्य, चाहे सामाजिक कार्य हो । या आध्यात्मिक कार्य । सदा सर्वदा श्री सदगुरू देव महाराज को आगे रखकर ही करोगे । तो सदा सफ़लता प्राप्त करते रहोगे । गुरू अतिरिक्त और नहीं ध्यावे । गुरू सेवा रत शिष्य कहावे । इस तरह से अपने इष्ट देव पर न्यौछावर हों । तब वे कृपालु, दयालु अपने वह प्रेमाभक्ति देते हैं । जो सारे सुखों का मूल है । जब हम उन पर अपने आपको कुर्बान कर देते हैं । हम पर उन्हें पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यह हमारी  हर आज्ञा का पालन करेगा । तब वे अपने सेवा का अवसर प्रदान करते हैं । अत: हमें पूर्ण रूपेण श्री सदगुरू देव भगवान की श्री चरण शरण में अर्पित होना चाहिये । तभी तो लोग कहते हैं कि न हमने हंस के पाया है । न हमने रो के पाया है । जो कुछ भी हमने पाया है । श्री सदगुरू का हो के पाया है । बिना श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा के साधक के अन्दर भजन । सुमिरन । ध्यान व भक्ति की प्रक्रिया यानी आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो पाती । जिन साधक जिज्ञासु पर श्री सदगुरू देव जी महाराज की महती कृपा होती है । उनको गुरू के प्रेम की अमूल्य निधि प्राप्त हो जाती है । उन्हें उसको बनाये रखने के लिये भजन । सुमिरन । ध्यान का नियमित अभ्यास नियमानुसार करते रहना चाहिये । साधक को इसे बनाये रखने के लिये नियमित अभ्यास करना अति आवश्यक है । जब कभी भजन । सुमिरन । ध्यान करते समय ध्यान में रूकावट पडे । तो घबराना नहीं चाहिये । मालिक की दया का सहारा लेकर बार बार कोशिश पर कोशिश जारी रखे रहना चाहिए । ऐसा करने से मालिक की दया से भजन, सुमिरन व ध्यान होने लग जायेगा । और रस व आनन्द भी मिलने लगेगा । यही तो श्री सदगुरू की दया का प्रताप है । श्री सदगुरू ने अति दया कर । दिया नाम का दान । जपे जो श्रद्धा भाव से । पूरण होवें सब काम । भजन में जब सांसारिक विचार आवे । तो भरसक उन्हें हटाकर अपने मन को भजन । सुमिरन । ध्यान में  लगाना चाहिये । यदि सांसारिक विचार न हटें । तो मालिक के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में मन को घुमा फ़िरा कर लगाते रहना चाहिये । यदि इतना करने पर भी मन न लगे । तो मालिक से दीन भाव से प्रार्थना करें कि - हे मालिक ! मेरा तन, मन, धन सब आपका है । हे मालिक ! मेरे मन को अपने चरणों की प्रीति की डोर मे बांध कर अपने साथ हमेशा जोडे रहिये । और मेरा मन भजन, सुमिरन, ध्यान के रस में हमेशा हमेशा सराबोर किये रहिये । इससे मेरे मन में शान्ति व आनन्द प्राप्त हो जायेगा । माया और भक्ति दोनों इकट्ठी नहीं रह सकतीं । यह मेरा दिल मालिक का मन्दिर है । इष्टदेव का उपासना स्थल है । इसी उपासना स्थल में मालिक के नाम का भजन, मालिक के स्वरूप का ध्यान करें । और इसी भजन और ध्यान के रस में सदा डूबे रहें । यह श्री सदगुरू महाराज की महती दया है । और सभी साधकों को इसे बनाये रखने के लिये भजन भक्ति का अभ्यास करना अति आवश्यक है । ऐसा करने से शान्ति का अनुभव होता है । ऐसी दशा में जितनी देर तबियत चाहे । उतनी देर भजन ध्यान करता रहे । और मन में शान्ति की भावना लेकर उठे । सन्त सदगुरू जीवों के परम हितैषी होते हैं । वे संसार में आकर सदा परमार्थ एवं परोपकार में संलग्न रहते हैं । और अपने भक्तों को भक्ति की सच्ची दात प्रदान कर उनके दुख, कष्ट को हरते हैं । उनकी आत्मा का कल्याण करते हैं । उन्हें चौरासी 84 के चक्कर से मुक्ति दिलाते हैं । अपने सुकोमल तन पर अनेकों कष्ट सहन करके भी वे सदा भक्तों की भलाई करने में सदा लगे रहते हैं । जीवों के कल्याण हित । निरत रहे दिन रैन । पावन तन पर कष्ट सहें । देवें सुख और चैन ।  सन्तों महापुरूषों का कहना है- परमारथ के कारने । सन्त लिया औतार । सन्त लिया औतार । जगत को राह चलावैं । भक्ति करैं उपदेश । ज्ञान दे नाम सुनावैं । प्रीत बढावैं जगत में । धरनी पर डोलौं । कितनौ कहे कठोर वचन । वे अमृत बोलौं । उनको क्या है चाह । सहत हैं दुख घनेरे । जीव तारन के हेतु । मुलुक फ़िरते बहुतेरे । पलटू सदगुरू पायके । दास भया निरवार । परमारथ के कारने । सन्त लिया औतार । 73 प्रश्न - अभ्यास करते करते यानी भजन, ध्यान करते करते किसी किसी को नींद आने लगती है । और अभ्यासी सो जाता है । किसी किसी को तो गहरी नींद में नाक बजने लग जाती है । जागने पर सोचता है कि बडी गहरी समाधि लग गयी है । क्या यह सचमुच समाधि की हालत होती है ? उत्तर - यह धोखा है । भजन । सुमिरन । ध्यान में जब नींद आने लग जाती है । तो वह एक प्रकार का विघ्न है । इसे तन्द्रा कहते हैं । और यह जागृत तथा सोने के बीच की हालत है । प्रारम्भिक अभ्यास में यह दशा किसी किसी को होती है । जब नींद आती मालूम पडे । तो भजन करना छोडकर उठ जाय । और कुछ देर टहल घूम ले । यदि आवश्यकता समझे । तो मुंह हाथ धोकर । कुल्ला कर ले । सिर धो ले । फ़िर अभ्यास में बैठ जाय । ज्यादा खाना खाकर भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना में बैठने से ऐसा अक्सर होता है । खाली पेट भजन । सुमिरन । ध्यान में आन्तरिक स्मरण करता रहे । तो ऐसा अभ्यास  करते रहने से कुछ ही समय में सारी विघ्न बाधायें दूर हो जायेंगी । इसके अतिरिक्त तीन प्रकार के विघ्न और भी हैं । जो अभ्यासी के मार्ग में बाधा डालते हैं । 1 विक्षेप 2 कषाय और 3 रसा स्वाद । 1 विक्षेप - जब भजन और ध्यान में मन लगता है । तब कभी कभी ऐसा होता है कि झटके के साथ एकदम चित्त उधर से हट जाता है । जैसे किसी ने अचानक आकर पुकारा । या आवाज दी । या हाथ से हिलाकर उठाना चाहा । या मन में अचानक कोई सांसारिक तरंगे ऐसी उठीं । जिसके कारण चित्त चलायमान हो गया । या कोई कीडा । मच्छर । चींटी इत्यादि ने काट लिया । यह केवल कुछ उदाहरण हैं । जिससे विक्षेप का अर्थ स्पष्ट हो जाय । इस प्रकार की अनेक विघ्न बाधायें विक्षेप के अन्तर्गत आती है । और इसके कारण अभ्यासी भजन और ध्यान को एकदम छोड देता है । इसका उपाय यह है कि इन कारणों की पहले से रोक थाम करे । भजन, ध्यान में बैठने के लिये साफ़ सुथरी जगह पर बैठ कर भजन ध्यान करे । घर परिवार के लोगों को समझा दे कि भजन ध्यान के समय कोई जोर से न बोले । इशारे इशारों से काम ले लें । बहुत जरूरी पडने पर धीरे धीरे बोलकर काम चलावें । जिससे कि अभ्यासी के भजन, ध्यान में बाधा न पडे । जब तक भजन ध्यान की एकाग्रता Concentration में परिपक्वता नहीं आ जाती । तब तक यह दशा रहती है । अभ्यास करते करते जब एकाग्रता में  दृणता आ जाती है । तब इस प्रकार के विघ्न बाधायें नहीं डालते । फ़िर चाहे कोई सिर पर ढोल बजाता रहे । अभ्यासी के चित्त को डिगा नहीं सकता । महर्षि वाल्मीकि के ऊपर दीमकों ने घर बना लिया था । रामकृष्ण परमहंस जब पंचवटी में ध्यान करने बैठते थे । तो मच्छर उनके शरीर पर इस प्रकार लिपट जाते थे कि जैसे वे कोई कपडा ओढे हों । पल पल जो सुमिरन करे । मन में श्रद्धा धार । आधि व्याधि नासे सकल । पावै सुख अपार । 2 कषाय - कभी भजन व ध्यान के समय अभ्यासी के मन में ऐसे विचार उठते हैं । या ऐसे दृश्य सामने आते हैं । जिन्हें उसने वर्तमान जन्म में न देखा है । न सुना है । और न जिनका कोई आधार है । ऐसे विचार पूर्ण जन्मों के कर्मों के परिणामस्वरूप होते हैं । और मन की गुनावन से पैदा होते हैं । बिना थोडी देर अपना प्रभाव दिखाये यह नहीं जाते हैं । जो अभ्यासी गुरू को आगे रखता है । और प्रेम तथा विरह को दृढ़ता से पकडकर चलता है । उसे इस प्रकार के विघ्न कम सताते हैं । जब कभी ऐसे विचार आकर घेरें । उस समय अभ्यासी को चाहिये कि भजन के साथ साथ श्री सदगुरू भगवान के स्वरूप का ध्यान करे । कुछ ही समय में यह विचार हट जायेंगे । और भजन, ध्यान के आनन्द का रस मिलने लग जायेगा । साथ ही साधक का मन उत्साहित होकर और ज्यादा से ज्यादा समय भजन । भक्ति व सेवा । पूजा । दर्शन में लगने लगता है । और  आनन्दित भी होता है । तथा अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज को प्रसन्नचित्त व आनन्द विभोर करके सन्तुष्ट कर लेता है । और जब श्री सदगुरू सन्तुष्ट हो जाते हैं । तो वे अपने शिष्य व साधक को अपने दया से मोक्ष प्रदान कर देते हैं । गुरू नाम का सुमिरन किये । जन्म यह निश्चय जीता संवर । मोक्ष मिल जाता दास को । दया का हाथ होता सर । 3 स्वाद से आशय यह है कि जो थोडा बहुत रस भजन व ध्यान में अभ्यासी को प्रारम्भिक दशा में मिलता है । उसे पाकर कभी कभी साधक बहुत मग्न हो जाता है । और भजन, ध्यान के आनन्द में विभोर होकर तृप्त हो जाता है । सन्तुष्ट हो जाता है । इसी सन्तुष्टि के फ़लस्वरूप साधक का मन भजन, सुमिरन, ध्यान में ज्यादा से ज्यादा लगने लगता है । जिससे उसे समय का ज्ञान नहीं रह पाता । उसी भजन, भक्ति में विभोर मन सदगुरू की कृपा व दया का पात्र बन जाता है । जब ऐसी दशा होती है । तो साधक को चाहिये कि अपने साधना को बढाता जाय । तथा आध्यात्मिक चढाई धीरे धीरे चढता जाय । ऐसा करने से धीरे धीरे सारी विघ्न बाधायें समाप्त हो जाती हैं । और भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में मग्न होकर मन श्री सदगुरू की दया का अमृत पान कर मस्त व मगन हो उठता है । ये सब श्री सदगुरू की कृपा की ही देन है । ऐसी स्थिति में श्री सदगुरू की चरण शरण ग्रहण किये रहे । सन्त सदगुरू के जो उपकार हैं । उनका बदला जीव क्या दे सकता है ? संत सदगुरू के उपकारों के बदले यदि जीव तीन लोक की सम्पदा भी भेंट कर दे । तो भी वह मन में यह सोचकर सकुचाता है कि मैंने कुछ भी तो भेंट नहीं किया । कथन है कि - सदगुरू के उपकार का । बदला दिया न जाय । तीन लोक की सम्पदा । भेंटत मन सकुचाय । - ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार । RAJEEV BABA पर सोमवार, जनवरी 23, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: गुरुवार, जनवरी 12, 2012 जन्त्र बिचारा क्या करे गया बजावन हार  कबीर सपने रैन के । ऊधरी आये नैन । जीव परा बहू लूट में । जागूं लेन न देन । कबीर जन्त्र न बाजई । टूट गये सब तार । जन्त्र बिचारा क्या करे । गया बजावन हार ।  कबीर रसरी पांव में । कहं सोवे सुख चैन । सांस नगारा कूच का । बाजत है दिन रैन । कबीर नाव तो झांझरी । भरी बिराने भाए । केवट सो परचे नहीं । क्यों कर उतरे पाए ।  कबीर पाँच पखेरूआ । राखा पोष लगाय । एक जु आया पारधी । लइ गया सबे उड़ाय । कबीर बेड़ा जरजरा । कूड़ा खेनहार । हरूये हरूये तर गये । बूड़े जिन सिर भार ।  एक दिन ऐसा होयगा । सबसों परे बिछोह । राजा राना राव एक । सावधान क्यों नहिं होय । ढोल दमामा दुरबरी । सहनाई संग भेरि । औसर चले बजाय के । है कोई रखे फेरि ।  मरेंगे मर जायेंगे । कोई न लेगा नाम । ऊजड़ जाय बसायेंगे । छेड़ि बसन्ता गाम । कबीर पानी हौज का । देखत गया बिलाय । ऐसे ही जीव जायगा । काल जु पहुँचा आय ।  कबीर गाफिल क्या करे । आया काल नजदीक । कान पकर के ले चला । ज्यों अजियाहि खटीक । के खाना के सोवना । और न कोई चीत । सतगुरु शब्द बिसारिया । आदि अन्त का मीत ।  हाड़ जरे जस लाकड़ी । केस जरे ज्यों घास । सब जग जरता देखि करि । भये कबीर उदास । आज काल के बीच में । जंगल होगा वास । ऊपर ऊपर हल फिरे । ढोर चरेंगे घास ।  ऊजड़ खेड़े टेकरी । धड़ि धड़ि गये कुम्हार । रावन जैसा चलि गया । लंका का सरदार । पाव पलक की सुध नहीं । करे काल का साज । काल अचानक मारसी । ज्यों तीतर को बाज ।  आछे दिन पाछे गये । गुरु सों किया न हेत । अब पछतावा क्या करे । चिड़िया चुग गई खेत । आज कहे मैं कल भजूँ । काल फिर काल । आज काल के करत ही । औसर जासी चाल ।  कहा चुनावे मेड़िया । चूना माटी लाय । मीच सुनेगी पापिनी । दौरि के लेगी आय । सातों शब्द जु बाजते । घर घर होते राग । ते मन्दिर खाली पड़े । बैठन लागे काग । RAJEEV BABA पर गुरुवार, जनवरी 12, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: तिमिर गया रवि देखते कुमति गयी गुरु ज्ञान  भक्ति पन्थ बहुत कठिन है । रती न चाले खोट । निराधार का खोल है । अधर धार की चोट । भक्तन की यह रीति है । बंधे करे जो भाव । परमारथ के कारने । यह तन रहो कि जाव ।  भक्ति महल बहु ऊँच है । दूरहि ते दरशाय । जो कोई जन भक्ति करे । शोभा बरनि न जाय । और कर्म सब कर्म है । भक्ति कर्म निहकर्म । कहे कबीर पुकारि के । भक्ति करो तजि भर्म ।  विषय त्याग बैराग है । समता कहिये ज्ञान । सुखदाई सब जीव सों । यही भक्ति परमान । भक्ति नसेनी मुक्ति की । संत चढ़े सब आय । नीचे बाधिनि लुकि रही । कुचल पड़े कू खाय ।  भक्ति भक्ति सब कोइ कहे । भक्ति न जाने मेव । पूरण भक्ति जब मिले । कृपा करे गुरुदेव । कबीर गर्ब न कीजिये । चाम लपेटी हाड़ । हयबर ऊपर छत्रवट । तो भी देवे गाड़ ।  कबीर गर्ब न कीजिये । ऊँचा देखि अवास । काल परो भुंइ लेटना । ऊपर जमसी घास । कबीर गर्ब न कीजिये । इस जीवन की आस । टेसू फूला दिवस दस । खंखर भया पलास ।  कबीर गर्ब न कीजिये । काल गहे कर केस । ना जानो कित मारिहे । कया घर क्या परदेस । कबीर मन्दिर लाख का । जड़िया हीरा लाल । दिवस चारि का पेखना । विनशि जायगा काल ।  कबीर धूल सकेलि के । पुड़ी जो बांधी येह । दिवस चार का पेखना । अन्त खेह की खेह । कबीर थोड़ा जीवना । माढे बहुत मढ़ान । सबही ऊभ पन्थ सिर । राव रंक सुल्तान ।  कबीर नौबत आपनी । दिन दस लेहु बजाय । यह पुर पटृन यह गली । बहुरि न देखहु आय । कबीर गर्ब न कीजिये । जाम लपेटी हाड़ । इक दिन तेरा छत्र सिर । देगा काल उखाड़ ।  कबीर यह तन जात है । सके तो ठोर लगाव । के सेवा कर साधु की । के गुरु के गुन गाव । कबीर जो दिन आज है । सो दिन नहीं काल । चेति सके तो चेत ले । मीच परी है ख्याल ।  कबीर खेत किसान का । मिरगन खाया झारि । खेत बिचारा क्या करे । धनी करे नहिं बारि । कबीर यह संसार है । जैसा सेमल फूल । दिन दस के व्यवहार में । झूठे रंग न भूल । RAJEEV BABA पर गुरुवार, जनवरी 12, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: गुरुवार, जनवरी 05, 2012 ईश्वर है इसका क्या प्रमाण है ?  22 प्रश्न - स्वामी जी ईश्वर है । या नहीं । इसका क्या प्रमाण है ? उत्तर - सन्त महापुरूषों का कहना है कि ईश्वर है । और हम लोगों ने उन्हें पाया है । तुम लोग खूब भजन । सुमिरन । ध्यान । नियमित नियमानुसार करोगे । तो तुम लोग भी पाओगे । सन्तों का कहता है कि भांग भांग कहने से नशा नहीं चढता । भांग लाओ । पी लो । तब कुछ नशा चढेगा । केवल भगवान या ईश्वर ईश्वर कहने से नहीं होगा । भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना करो । फ़िर उनकी कृपा की अपेक्षा करो । समय पर उनकी कृपा । तथा उनक दर्शन अवश्य पाओगे । 23 प्रश्न - हे स्वामी जी महाराज ! जप करते करते कभी कभी मन शून्य 0 हो जाता है । यह क्यों ? उत्तर - पतंजलि ने कहा है । यह शून्यपन 0 विघ्न है । श्री सदगुरू महाराज जी के बतलाये हुए नाम का भजन । सुमिरन । ध्यान । निरन्तर करते रहने से ध्यान में प्रगाढता आती है । प्रगाढता आने से प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है । और अनुभूति हो जाने से समाधि trance हो जाती है । समाधि के बाद आनन्द का प्रभाव बहुत सम्य तक बना रहता है । श्री स्वामी जी महाराज कहा करते थे कि - यह भक्ति । भजन का आनन्द जीवन भर बना रहता है । कभी भी समाप्त नहीं होता । श्री स्वामी जी महाराज 1 शिष्य को समझा रहे थे । परन्तु बालक जान कर थोडा सा एवायड कर रहे थे । फ़िर भी  मालिक तो भक्ति की खान होते हैं । जब भक्ति की खान से फ़व्वारा निकला । तो अपने शिष्य को भक्ति का खान बना दिया । और फ़िर शिष्य के कानों में श्री सदगुरू का नाम पडते ही उस शिष्य के भीतर से मानों प्रेम का फ़ुहारा उठने लगा । साधु ही साधु को पहचान सकता है । साधना करके उच्च अवस्थ प्राप्त किये बिना । उस अवस्था के व्यक्ति को पहचाना नहीं जा सकता । हीरे का मूल्य क्या सब्जी बेचने वाला लगा सकता है ? 24 प्रश्न - स्वामी जी ! कुछ महात्माओं और भक्तों का कहना है कि निर्जन स्थान में गुप्त रूप से रोते रोते मालिक को पुकारना चाहिये । चाहे 1 वर्ष तक हो । या 3 माह हो । या 3 दिन हो । साधु संग हो । निर्जन स्थान हो । जैसे नदी का किनारा । धार्मिक स्थान । बाग बगीचा । उसमें बैठकर भजन । ध्यान करना चाहिये । इन दोनों में किस पर अधिक जोर देना हमें उचित है ।  उत्तर - भजन । ध्यान दोनों एक साथ करना होगा । एकान्त में बैठ कर भजन । ध्यान करने से मन सहज ही अन्तर्मुखी हो जाता है । व्यर्थ की चिन्तायें कम हो जाती है । थोडी उन्नति हुए बिना पूर्ण निर्जन स्थान का प्रयोग नहीं किया जा सकता । बहुत लोग एकदम नि:संग होने की कोशिश करने से पागल हो जाते हैं । कोई अनिष्ट हो जाता है । भजन । सुमिरन । ध्यान करते करते कुछ अभ्यास होने पर ही एकान्त वास करें । भजन । ध्यान करते करते समाधिस्थ हुए बिना । श्री सदगुरू को अन्दर बसाये बिना । या सदगुरू के चिन्तन में लीन हुए बिना । मन ठीक तरह से नि:संग नहीं होगा । साधु सन्तों की संगति की भी सदैव आवश्यकता पडती है । 1 दिन 1 व्यक्ति श्री स्वामी जी महाराज के पास आया । उन्हें देखा । वे चुपचाप अपने में अन्दर लीन हैं । उन्हें देखकर वह सोचने लगा - ये बात नहीं करते । इनके पास आने से क्या लाभ ? यह सोचकर वह उस दिन वापस चला गया । और 1 दिन आकर उनके पास कुछ देर बैठा रहा । उस दिन उसने देखा कि स्वामी जी अन्दर यानी अपने मन ही मन किसी से बातें कर रहे हैं । कभी रो  रहे हैं । तो कभी हंस रहे हैं । उनका यह भाव देखकर उस व्यक्ति ने उस दिन कहा - जो आज सीखा है । वह हजारों पुस्तकें पढकर भी नहीं सीखा जा सकता है । श्री सदगुरू भगवान में जब ऐसी व्याकुलता आयेगी । तभी उनके दर्शन होंगे । और तभी भजन । सुमिरन । पूजा । दर्शन । ध्यान की साधना का आनन्द आएगा । 25 प्रश्न - स्वामीजी ! ध्यान में बैठने से कभी कभी मन खूब स्थिर होता है । और कभी कभी हजार चेष्टा करने पर भी स्थिर नहीं हो पाता है । सिर्फ़ इधर उधर दौडता रहता है । उत्तर - हां । ऐसा होता है । किन्तु यह पहले पहल ही होता है । समुद्र में ज्वार भाटा होता है । ठीक उसी प्रकार सभी चीजों का ज्वार भाटा होता है । साधना भजन में भी ज्वार भाटा है । इसके लिये कुछ सोचना मत । कमर कस कर नियम से लगे रहना चाहिये । श्री सदगुरू महाराज के प्रति एकनिष्ठ भक्ति भाव से साधना । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । कुछ समय तक नियमित रूप से किया जाए । तो ज्वार भाटा फ़िर नहीं उठेगा । मन स्थिर होने लगेगा । तब ध्यान की धारा अविरल प्रवाहित होने लगेगी । आसन पर बैठते ही एकदम जप ध्यान आरम्भ करना ठीक नहीं है । पहले विचार पूर्वक श्रद्धा भाव से मन को  बाहर की दुनियां से समेटना चाहिये । फ़िर अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज को । आप जहां बैठे हैं । वहीं से मन ही मन साष्टांग दण्डवत प्रणाम करना चाहिये । श्री स्वामी जी महाराज से हाथ जोडकर प्रार्थना करना चाहिये कि - हे मेरे दयासागर । परम दयालु । श्री स्वामी जी ! मेरे मालिक । मेरा मन ध्यान की तरफ़ अग्रसर कीजिये । मन की भटकन को छुडाइये प्रभु । फ़िर उसके बाद मालिक के स्वरूप का ध्यान, भजन प्रारम्भ करना चाहिये । कुछ दिन ऐसा करने पर मन धीरे धीरे स्थिर हो जायेगा । जब देखो कि मन थोडा स्थिर हो रहा है । तो उस समय काम कोई भी करो । सेवा करते रहो । लेकिन मन मालिक की तरफ़ लगाये रखो । जहां जरा भी सेवा से अवकाश मिले । तुरन्त भजन । सुमिरन । ध्यान करना चाहिये। जब अच्छा न लगे । मन स्थिर न हो । उस समय मालिक की श्री मुख वाणी का स्मरण करते रहना चाहिये । मालिक को याद करते रहना चाहिये । और उनका भजन गाना चाहिये । भजनादि गुनगुनाने से भी मन लगता है । नियमित नियमानुसार चिन्तन । मनन । और मालिक का दर्शन । आरती । पूजा । भजन । त्यौहार आदि की अदभुत छवि के ख्याल की सहायता से । मन को स्थिर करने की चेष्टा करे । मन तुरन्त स्थिर  होने लगेगा । प्रतिक्षण संघर्ष करना होगा । मन कहो । बुद्धि कहो । चाहे इन्द्रिय कहो । संघर्ष करने से सभी वश में आ जाते हैं । श्री स्वामी जी महाराज ने कहा है - संघर्ष ही है जीवन । श्री गुरूदेव ने कहा है - कांटो का गम नहीं है । समरथ है गुरू हमारा । 26 प्रश्न - श्री स्वामी जी ! क्या भजन । सुमिरन का ढोल नहीं पीटना चाहिये ? उत्तर - नहीं । कदापि नहीं । इससे अनिष्ट होता है । विभिन्न लोग विभिन्न प्रकार की बातें हंसी उडाते हैं । फ़िर यह ठीक भी नहीं है । नाना प्रकार की बातें करके लोग मन को संदिग्ध और चंचल बना देते हैं । तथा साधन में विघ्न पैदा करते हैं । यथार्थ साधक कैसा होता है । जानते हो ? यथार्थ साधक मच्छरदानी के अन्दर सोया रहता है । सब लोग सोचते हैं कि - सो रहा है । पर वह रात सुमिरन । ध्यान करके बिता देता है । सबेरे जब उठता है । तो लोग समझते हैं कि वह सोकर उठा है । पहली उमृ में ही खूब साधना । जप । ध्यान । भजन । सुमिरन । पूजा । दर्शन । सेवा । दान कर श्री सदगुरू देव जी महाराज के दर्शन । ध्यान का आनन्द पा लेना चाहिये । 1 बार जिसने स्वाद पा लिया । वह फ़िर कहां जाएगा  । उसका सिर काट लेने पर भी वह पुन: अपने भगवान । अपने प्रभु । अपने मालिक को कभी छोड नहीं सकता । अपने मालिक से मिलने को बेचैन रहता है । साधना । भजन का सुन्दर समय है । सन्धि क्षण । और गम्भीर रात्रि । साधारणतया मनुष्य वह समय व्यर्थ गवां देता है । जो लोग खूब नींद लेना चाहते हैं । यदि वे पहले पहल दिन में सो लें । और रात्रि में जागें । तो वह भी अच्छा है । रात को 3 लोग जागते हैं - 1 योगी । 2 भोगी । और 3 चोर । रात की नींद योगी । साधु के लिये नहीं है । यह बात श्री स्वामी जी महाराज अपने श्री मुख से बराबर कहा करते हैं । ऐसे प्रेमी भक्त श्री सदगुरू देव जी महाराज के सानिध्य में रहते हैं । और सदगुरू सभी को उपदेश ध्यान । धारणा । भजन । सेवा सिखलाते हैं । विभिन्न प्रकार की सेवायें करवा कर अपने शिष्य को हर प्रकार से संवारते और सम्हालते हैं । 27 प्रश्न - क्या श्री सदगुरू देव भगवान का नाम लेने से मन शुद्ध होता है ? उत्तर - अवश्य शुद्ध होता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का भजन । सुमिरन । दर्शन । सेवा । पूजा । ध्यान करने से तन और मन दोनों शुद्ध हो जाते हैं । श्री सदगुरू स्वामी जी के नाम के भजन में ऐसा विश्वास होना चाहिये कि मुझे अब डर क्या । मेरा अब बन्धन कहां । श्री सदगुरू जी से नाम दीक्षा लेकर मैं अब अमर हो गया हूं । इस तरह का अटल विश्वास रखकर मैं अब अमर हो गया हूं । इस तरह का अटल विश्वास रखकर साधना करनी चाहिये । निश्चित ही भजन । सुमिरन से तन । मन शुद्ध और शान्त हो जायेगा । ********************** ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार । RAJEEV BABA पर गुरुवार, जनवरी 05, 2012 1 टिप्पणी: बुधवार, जनवरी 04, 2012 दीक्षा लेने की क्या आवश्यकता मैं तो खुद गुरु हूँ  1 प्रश्न - स्वामी जी ! दीक्षा लेने की क्या आवश्यकता है ? स्वयं अपने बल पर साधना करने से भी तो साधना पूरी हो सकती है । ऊत्तर - श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि - हे प्रिय शिष्य ! दीक्षा लिये बिना मन की एकाग्रता नहीं होती । आज शायद तुम्हारे मन में कोई देवी देवता अच्छा लगे । कल कोई सन्त महात्मा अच्छा लगे । और अगले दिन कोई सदगुरू अच्छा लगे । परिणाम स्वरूप किसी में भी एकाग्रता नहीं हो सकती है । यदि मन स्थिर न हो । तो भगवान ( सदगुरू ) का लाभ तो दूर की बात है । मामूली सांसारिक कर्मों में भी गडबडी होने लगती है । भगवान लाभ करने के लिये श्री सदगुरू देव भगवान की नितान्त आवश्यकता है । गुरू के बतलाये हुए नाम मात्र का जप व ध्यान करने से और श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया से सब ठीक हो जाता है । या सर्व समर्थ श्री सदगुरु जी महाराज ठीक कर देते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज के वचनों पर विश्वास करके यदि निष्ठापूर्वक तथा श्रद्धा सहित भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान न करोगे । तो किसी भी हालत में कुछ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती है । धर्म का मार्ग अति कठिन है । श्री सदगुरू का आश्रय मिले बिना चाहे जितना भी बुद्धिमान क्यों न हो । कोटिश: प्रयत्न क्यों न करे । ठोकर खाकर गिर ही पडेगा । साधारण सी बात है कि चाहे जो भी कला सीखना चाहो । उस कला को प्राप्त करने के लिये उस कला के गुरू master को मानना ही पडेगा । और  उसी के निर्देशानुसार सीखना पडेगा । तब वह विधा या कला सीख पाओगे । तब फ़िर इतनी श्रेष्ठ बृह्म विधा का लाभ प्राप्त करने के लिये गुरू की आवशयकता क्यों नहीं पडेगी ? गुरू की आवश्यकता अवश्य पडेगी । और सदा पडेगी । यदि भगवान लाभ चाहते हो । तो धैर्य धारण कर भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान करते जाओ । समय आने पर सब होगा । वे खुद जानते हैं कि - वे कब दर्शन देंगे । बिना श्रद्धा के दौड धूप करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा । श्री स्वामी जी महाराज सतसंग के दौरान कहा करते थे कि समय से पहले पक्षी अपना अण्डा तक नहीं फ़ोडता है । ऐसे अवसर पर मन की अवस्था बहुत ही कष्टदायक होती है । एक बार आशा । फ़िर निराशा । कभी हंसना । कभी रोना । वस्तु लाभ न होने पर दिन इसी तरह कट जाते हैं । परन्तु उत्तम गुरू पा जाने से वे मन को इस अवस्था से भी झट से ऊपर उठा सकते हैं । किन्तु यदि बिना ठीक समय के आये इस प्रकार मन को ऊपर उठा दिया जाय । तो उसका वेग सम्हाला नहीं जा सकता । उल्टे शरीर और मन का अनिष्ट होता है । ऐसी अवस्था में बडी सावधानी से रहना पडता है । श्री सदगुरू के आश्रम में रहकर उनके उपदेश अनुसार सात्त्विक आहार । पूर्ण बृह्मचर्य पालन इत्यादि नियमों का सुचारू रूप से पालन करना पडता है । यदि ऐसा न किया जाय । तो सिर का गरम होना । सिर चकराना इत्यादि रोगों का सामना करना पडता है । 2 प्रश्न - हे श्री सदगुरू देव जी महाराज ! मुझे भजन । सुमिरन । ध्यान एक साथ करने का आदेश मिला है । परन्तु ध्यान तो बिल्कुल नहीं होता है । इसलिये मन बीच बीच में बहुत खराब हो जाता है । उत्तर - हे प्रिय भक्त ! निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक है । 1 दिन 1 भक्ति को आश्रम में ऐसा हुआ था । उस समय उसकी उमृ बहुत कम थी । भजन । सुमिरन । ध्यान करने की जो विधि बतलाई गयी थी । उसको रोज करता था । क्योंकि श्री स्वामी जी महाराज का सबको भजन । सेवा । ध्यान करने का कडा निर्देश था । उमृ कम और करने का शौक तो था ही । लेकिन मन चंचल बहुत था । जब भजन । सुमिरन । ध्यान करता । तो कभी  ध्यान होता । कभी नहीं होता था । तो मन में बडी घबराहट व बडी ग्लानि भी होती थी । श्री सदगुरू देव जी महाराज से कहने में बडा डर लगता था । 1 दिन मन में आया कि इतने दिन से यहां आया हूं । कुछ भी तो अभी नहीं बना । अर्थात न भजन होता । न ध्यान ही आता है । फ़िर क्या यहां रहूं । जाय सब चूल्हे में । श्री स्वामी जी से भी कुछ नहीं बतलाया । मन ही मन सोच रहा था कि यदि इसी तरह 2-4 दिन और चला । तो घर वापस चला जाऊंगा । ऐसा सोचता हुआ बाहर आ रहा था कि श्री स्वामी जी महाराज ने उसे देख लिया । वे अन्दर कमरे में चले गये । तब सबका नियम था कि मन्दिर में आरती । पूजा के बाद सब लोग श्री स्वामी जी के दर्शन करने के लिये जाते थे । श्री स्वामी जी महाराज का दर्शन करने के बाद सब कोई नीचे प्रसाद लेने जाते थे । जब दण्डवत प्रणाम कर उठा । तो श्री स्वामी जी महाराज बोले - देख । तू जब मन्दिर से आ रहा था । तब देखा कि तेरा मन मानों मैल से ढंक गया है । यह सब सुनकर भक्त ने सोचा । हाय रे । श्री स्वामी जी महाराज तो सब कुछ मेरे अन्दर की बात जान गये । वह बोला - मेरा मन सचमुच खराब हो गया है । आप सब कुछ जान गये हैं । तब उन्होंने उसका मुंह खोलवाकर जीभ पर कुछ लिख दिया । तुरन्त ही पहले का सारा कष्ट भूल गया । और आनन्द में विभोर हो गया । जब भी उनके पास जाता । या रहता था । हमेशा आनन्द से भरपूर रहता था । इसीलिये तो सिद्ध एवं शक्तिशाली गुरू की आवश्यकता होती है ।  3 प्रश्न - आजकल बहुत से लोग दीक्षा लेकर भजन । सुमिरन । ध्यान तो करते ही नहीं । बल्कि बडी बडी डींगे मारते रहते हैं । उत्तर - बहुत धैर्य चाहिए । धैर्य धारण कर । भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना करते जाओ । जब तक तत्त्व लाभ न हो । तब तक खूब मेहनत करो । यानी खूब मेहनत । लगन । और श्रद्धा से भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना नियमित नियमानुसार सदा करते रहो । पहले पहल साधना बेगारी करने के समान नीरस मालूम पडती है । जैसे अ आ का सीखना । परन्तु धैर्य पूर्वक लगे रहने पर यानी भजन । सुमिरन । ध्यान करते रहने पर । धीरे धीरे भजन । ध्यान होने लग जाता है । और मन को शान्ति भी मिलने लग जाती है । दीक्षा लेने के बाद जो सिर्फ़ शिकायत करते हैं । और कहते हैं कि महाराज जी ! कुछ तो नहीं हो रहा है । उनकी बात 2-3 साल तक बिलकुल नहीं सुना । बल्कि उन्हें समझा बुझाकर तसल्ली देकर छोड देता था । इसके बाद वे लोग खुद ही आकर कहते थे कि - हां महाराज जी । अब कुछ कुछ हो रहा है । यह जल्दबाजी की चीज नहीं है । 2-3 साल का खूब भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना करो । फ़िर आनन्द मिलने लगेगा । तुम्हारी बात सुनकर बडा आनन्द आया । आजकल अनेक लोग काम चोरी करते हुए छल से अपना काम बन लेना चाहते हैं । पर यह आध्यात्मिकता की बात है । और सच्चे दरबार में झूठ और चापलूसी ज्यादा दिन नहीं चलती । अन्त में भाण्डा फ़ूट जाता है । RAJEEV BABA पर बुधवार, जनवरी 04, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: गुरू भक्ति योग यह योग अद्भुत है  गुरू भक्ति योग की भावना - जिस प्रकार शीघ्र ईश्वर दर्शन के लिये कलियुग में साधना के रूप में कीर्तन साधना है । ठीक उसी प्रकार इस संशय । नास्तिकता । अभिमान और अहंकार के युग में योग की 1 सनातन प्रद्धति यहां प्रस्तुत है । जिसको कहते हैं - गुरू भक्ति योग । यह योग अद्भुत है । इसकी शक्ति असीम है । इसका प्रभाव अमोघ है । इसकी महत्ता अवर्णनीय है । इस युग के लिये उपयोगी इस विशेष योग पद्धति के द्वारा आप इस हाड चाम के पार्थिव देह में रहते हुए सदगुरु भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं । इसी जीवन में आप उन्हें अपने साथ विचरण करते हुए देख सकते हैं । गुरू की यह सर्वोच्च विभावना है । और हर साधक को यह प्राप्त करना है । व्यक्तिगत गुरू को स्वीकार करना है । यह साधक की परबृह्म में विलीन होने की तैयारी है । और उस दिशा में 1 सोपान है । गुरू की विभावना के विकास के लिये व्यक्ति की गुरू के प्रति शरणागति 1 महत्त्वपूर्ण सोपान है । फ़िर साधना के किसी भी सोपान पर गुरू की आवश्यकता का इन्कार कभी नहीं हो सकता । क्योंकि आत्म साक्षात्कार के लिये तङपते हुए साधक को होने वाली परबृह्म की अनुभूति का नाम गुरू है । उसी को गुरू तत्त्व भी कहते हैं । सन्त महापुरूष उपदेश देते हैं कि - एकाग्रता ही प्रत्येक काम की सफ़लता की कुंजी है । जिस काम को एकाग्र चित्त होकर किया जाय । वह कठिन से कठिन कार्य भी सफ़ल हो जाता है । ऐसे ही प्रभु प्राप्ति में भी यदि मन को सांसारिक कामनाओं और चिन्तन से हटाकर और मन को एकाग्र चित्त कर श्री सदगुरू के भजन । सुमिरन । ध्यान में लगाया जाय । तो अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है । अभ्यास का अर्थ ही यह है कि किसी भी कार्य को नियम पूर्वक करना । अर्थात मन की चित्त वृत्तियों को एकाग्र  करने के लिये । हर समय अपने मन पर ध्यान रखना । यह ख्याल में रखना चाहिए कि सुरत को भजन । ध्यान में लीन करते हुए समाधि trance अवस्था तक पहुंचना ही जीवन का परम लक्ष्य है । इस प्रकार प्रभु प्राप्ति के अभिलाषी जिज्ञासु जन इन साधनों को ध्यान में रखते हुए अपनी चित्तवृत्तियों को माया की ओर से समेट कर श्री सदगुरू की भक्ति की ओर लगाते हैं । तथा अपने ध्यान को श्री सदगुरू के स्वरूप पर ठहराते हैं । श्री सदगुरू के नाम का भजन उनकी पूजा बन जाती है । इस प्रकार वे अपने जीवन को श्री सदगुरू के उपदेश अनुसार बनाकर लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग सुगम बनाते हैं । तथा लक्ष्य को प्राप्त करते हैं । गुरू वास्तव में उस परम ईश्वरीय शक्ति का नाम है । जो अपनी अपार दया से जीवों को ऊपर उठाने । नाम भजन के द्वारा । उनके ज्ञान नेत्र 3rd eye खोलने । मन को शुद्ध व पवित्र बनाने । तथा श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम दया से अपनी तरफ़ आकर्षित करने का काम करती है । श्री सदगुरु देव जी महाराज के वचन तो महामोह रूपी घने अन्धकार को नाश करने के लिये सूर्य की किरणों के सदृश होते हैं । उनका हर वचन जीवन में नव क्रान्ति लाने वाला होता है । प्रेमीजन उनके एक एक वचन को ह्रदय में धारण करके । उन्हें व्यवहार में लाकर । परम लाभ का अनुभव करते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने भक्तों को सीधे सादे शब्दों में यानी अपनी सहज व सरल बोलचाल की भाषा में धर्म । ज्ञान । नीति । भक्तियोग ।  सेवा का भाव । भजन । सुमिरन । पूजा । दर्शन । ध्यान के तरीके समझा दिया करते थे । श्री सदगुरू देव जी महाराज के मुखारविन्द के वाक्य आज भी भौतिकवाद से संतप्त प्राणियों को परम शान्ति और दिव्यता प्रदान करने में समर्थ हैं । आज भी हजारों लाखों साधक जिज्ञासु उन अमर वाक्यों का मनन करके अपने जीवन के परम लक्ष्य सत्य स्वरूप निज पर की प्राप्ति कर सकते हैं । भक्तजनों को भक्ति रस पिलाने और सत्य मार्ग दर्शाने के लिये श्री सदगुरू देव जी महाराज युग युग में नाना रूप धारण कर आते हैं । आगे भी मेरे श्री स्वामी जी भक्तों को दर्शन देने के लिये आते ही रहेंगे । श्री सदगुरू देव का श्रद्धा, विश्वास तथा भाव पूर्वक जो उनके अमृतरूप सतसंग के तीर्थ में गोता लगाते रहते हैं । उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । और अन्त में वे सभी पापों से छूटकर सायुज्य मुक्ति को पाते हैं । दया । क्षमा । और शान्ति स्वरूप श्री सदगुरू देव की शरण में जाने पर ही साधक परम पद एवं भक्ति का अधिकारी बनता है । RAJEEV BABA पर बुधवार, जनवरी 04, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: सोमवार, जनवरी 02, 2012 बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय और श्री गुरुतत्व  बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय - सहसदल कमल । बंकनाल । त्रिकुटी । सुन्न 0 यानी 10 दशम द्वार । महासुन्न 0 । भंवर गुफ़ा । सत्य लोक । अनामी पद ( गुप्त ) अलख लोक । अगम लोक । अकह लोक । कृम से ये मण्डल आज्ञा चक्र अर्थात 6 छठें चक्र के ऊपर के सत्यराज्य के लोक हैं । इस सत्यराज के 2 विभाग हैं - 1 बृह्माण्ड । और 2 निर्मल चैतन्य देश । बृह्माण्ड के अन्तर्गत - सहसदल कमल । बंकनाल । त्रिकुटी । और सुन्न 0 या 10 दशम द्वार मण्डल आते हैं । इन लोकों में योगमाया या विधा माया का प्रभुत्व रहता है । सुन्न 0 या 10 दशम द्वार के बाद भंवर गुफ़ा से अकह लोक तक के लोक निर्मल चैतन्य के देश अथवा दयाल देश कहलाते हैं । इस स्थान को ही सुरत का निज धाम कहते हैं । सदगुरू देव की उपासना, उनकी अनन्य भक्ति को छोडकर यहां पहुंचने का दूसरा कोई उपाय या साधना नहीं है । सहसदल कमल - सहसदल कमल को सन्तजन त्रिलोकी नाथ या निरंजन का देश कहते हैं । यहां तक पहुंचे हुए  साधक साधना की दृष्टि से ऊंचाई पर पहुंचे हुए साधक होते हैं । इनका सदगुरू में अगाध प्रेम होता है । और जिनको श्री सदगुरू के चरणों की प्यास बराबर बनी रहती है । उनको श्री सदगुरू देव महाराज ऊपर के मण्डलों में पहुंचा देते हैं । श्री सदगुरू महाराज के जो शिष्य़ हैं । वे श्री सदगुरू के नाम भजन और ध्यान के सहारे यहां पहुंचते हैं । श्री सदगुरू भगवान को अपने संग साथ रखने वाले शिष्य को वे कृपालु माया के प्रलोभनों में नहीं फ़ंसने देते हैं । त्रिकुटी - श्री सदगुरू महाराज ने अपने शिष्यों को जो परानाम का उपदेश दिया है । वह बहुत बडी अमूल्य निधि है । उस अमूल्य निधि का सदा सदा भजन । सुमिरन । ध्यान हर स्थिति में करते रहना चाहिये । ऐसे शिष्य को सदगुरू देव बंकनाल नामक सूक्ष्म मार्ग में प्रवेश दिलाकर इसके ऊपर के त्रिकुटी नामक देश में पहुंचा देते हैं । इस त्रिकुटी नामक देश का वर्णन करते हुए सन्त दरिया साहब कहते हैं - त्रिकुटी माहीं सुख घना । नाहीं दुख का लेस । जन दरिया सुख दुख नहीं । वह कोई अनुभवै देश । सन्त महापुरूषों ने अपने वचनों में कहा है कि - त्रिकुटी नामक यह मण्डल बृह्म का देश है । जैसे सहसदल कमल में अमृत बरसता रहता है । ठीक उसी प्रकार त्रिकुटी में भी अमृत बरसता रहता है । यहां पहुंचे हुये साधक की त्रिकुटी का अमृत पान करने व उसमें स्नान करने से आशा व तृष्णा की प्यास शान्त हो जाती है । यह त्रिकुटी नामक महल सम्पूर्ण विधाओं का भण्डार है । मन ।  बुद्धि । चित्त और अहंकार की गति त्रिकुटी पहुंचने तक ही रहती है । इसके आगे त्रिकुटी महल है । जहां श्री सदगुरू पूर्ण बृह्म का निवास होता है । जब साधक श्री सदगुरू की दया से बृह्म सरोवर में जाकर स्नान पान करने लग जाता है । तो वह शरीर रहते हुए भी मन, वाणी और शरीर से परे हो जाता है । ये तीनों उसे प्रभावित नहीं कर पाते हैं । जब त्रिकुटी की सन्धि में स्थिरता पूर्वक श्री सदगुरू के नाम का भजन । सुमिरन । ध्यान होने लगता है । तो प्राण इङा पिंगला नाडियों को छोडकर अवश्य ही सुषुम्रा नाङी में प्रवाहित होने लगता है । और तब अपने श्री सदगुरू देव के प्रति श्रद्धा और निष्ठा की अटूट धारा बहने लगती है । श्री सदगुरू देव महाराज ने इस प्रकार त्रिकुटी नामक मण्डल का पूर्ण रहस्य बतलाया । जिसे केवल समय के सन्त महापुरूषों की चरण शरण में जाने से ही जाना जा सकता है । केवल वाणी विलास या पुस्तकीय ज्ञान से भक्ति की आध्यात्मिक मंजिलों ( आन्तरिक मंजिलों ) को पार करना असम्भव है । इसी आन्तरिक मार्ग को पार करने के लिये परम सन्त कबीर साहब जी उपदेश देते है - त्रिकुटी में गुरूदेव का । करै जो गुरू मुख ध्यान । यम किंकर का भय मिटे । पावे पद निर्वान । सुन्न 0 या 10 दशम द्वार - जब शिष्य की सुरत श्री सदगुरू देव महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान के दृढ अभ्यास से इस त्रिकुटी नामक मण्डल में पहुंचती है । तब उसको सत शिष्य का दर्जा प्राप्त हो जाता है । फ़िर वह 10 दशम द्वार में प्रवेश करना चाहता है । इस 10 दशम द्वार में जिस गुरू भक्त की सुरत सदगुरू की कृपा से पहुंच जाती है । वही गुरू भक्त सच्चे अर्थों में सत शिष्य कहलाता है । साधु कहलाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम के भजन । सुमिरन और उनकी सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की प्रगाढता के  भाव दशा में साधक की सुरत त्रिकुटी मण्डल से चलकर जब 10 दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरू देव जी महाराज का श्रद्धा । प्रेम । प्यार के साथ इतना स्पष्ट दर्शन करती है । जितना स्पष्ट स्वच्छ दर्पण में अपना चेहरा दिखलाई देता है । तब साधक की सुरत शून्य मण्डल 0 या 10 दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा प्राप्त कर अपने को धन्य धन्य मानने लग जाती है । इस प्रकार साधक की सुरत को 10 दशम द्वार में पहुंचने से उसमें शुद्ध परमार्थ का उदय हो जाता है । अपने श्री सदगुरू देव महाराज के स्वरूप में स्फ़टिक के समान अत्यन्त उज्ज्वल सफ़ेद प्रकाश विधमान रहता है । सन्त महापुरूषों का कहना है कि शून्य मण्डल 0 या 10 दशम द्वार में अक्षय पुरूष के आसन के नीचे अमृत का 1 कुण्ड है । जिसको मान सरोवर कहते है । उसमें साधक के स्नान । पान । ध्यान करने से उसकी सुरत विशेष निर्मल हो जाती है । इसीलिये यहां पहुंची हुई सुरत की हंस गति हो जाती है । महासुन्न 0 - इसके बाद श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने ही प्रकाश के द्वारा सुरत को महासुन्न 0 के घोर अन्धकार के मैदान से पार करके ऊपर के मण्डलों में ले जाते हैं । साधक जब श्री सदगुरू देव महाराज का साथ हर  वक्त पकडे रहता है । तभी घोर अन्धकार युक्त इस विषम घाटी को पार कर पाता है । अर्थात श्री सदगुरू देव महाराज की चरण धूलि में स्नान करते हुए साधक घोर अन्धकारयुक्त महासुन्न 0 की विषम घाटी को पार करने में समर्थ हो जाता है । जिन आत्माओं को श्री सदगुरू देव महाराज भजन । सुमिरन । ध्यान का अभ्यास करवा करवाकर अपने साथ आगे ले जाते हैं । उन आत्माओं से महा शून्य 0 में फ़ंसी हुई आत्मायें प्रार्थना करती है कि अपने श्री सदगुरू देव महाराज के सम्मुख सिफ़ारिश करो कि हमें भी ऊपर ले चलें । यदि उन सन्तों की मौज हो जाती है । तो वे महा शून्य 0 की इन आत्माओं को अपने साथ आगे ले जाते हैं । भंवर गुफ़ा - पूरे गुरू की कृपा से जब साधक महाशून्य 0 से आगे की यात्रा करता है । तो सत्यराज्य के भंवर गुफ़ा नामक स्थान में पहुंचता है । जैसे सहसदल कमल नामक मण्डल बृह्माण्ड देश का पहला लोक है । उसी तरह शून्य 0 या 10 दशम द्वार निर्मल चैतन्य  देश अथवा दयाल देश का द्वार है । और भंवर गुफ़ा नामक लोक श्री सदगुरू देव महाराज के दयाल देश नामक निज धाम का पहला लोक है । महा शून्य 0 से ऊपर की ओर सूरत या चित शक्ति की 1 गुफ़ा है । जिसे भंवर गुफ़ा कहते हैं । यहां पहुंची हुई निर्मल चैतन्य सुरतें निरन्तर भिन्न भिन्न प्रकार के उत्सव मनाती रहती है । यहां की सुरते हंस कहलाती हैं । अपने श्री सदगुरू रूपी क्षीर सागर में सदा मुरली की मधुर धुन बजती रहती है । इसी मुरली की गूंज के मध्य " सोहं " की झंकार होती रहती है । यह ऐसा ही है । जैसे बूंद समुद्र को देखकर कहे कि मैं तुम्हारा ही अंश हूं । मालिक महासागर है । और जीव बूंद है । इसी तरह आत्मा सत पुरूष को देखकर कहती है कि मै श्री सदगुरू देव जी महाराज का 1 अंश हूं । सतलोक - भंवर गुफ़ा के बाद माथे में ऊपर की ओर निर्मल चैतन्य देश का सत लोक नामक मण्डल है । अपने श्री सदगुरू देव महाराज जी के श्री चरणों में निरन्तर रमे हुए दास को श्री सदगुरू देव महाराज भंवर गुफ़ा नामक मण्डल से सत लोक नामक लोक में ले जाते हैं । इस देश के मालिक का नाम सत पुरूष है । सतलोक वह स्थान है । जहां से सम्पूर्ण रचना का प्रकाश होता है । साधक सतलोक में पहुंचकर श्री सदगुरू देव महाराज में लीन रहता है । इस तरह के बूंद यहां पहुंचकर समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है । सन्त कहते हैं कि सतलोक सर्वश्रेष्ट सुन्दरता का लोक है । यहां सभी तरफ़ उच्चकोटि की सुगन्ध फ़ैली हुई है । जो साधक अपने श्री सदगुरू देव के श्री चरणों की कृपा से सतलोक में पहुंचा है । वह 16 सूर्यों के प्रकाश जैसा तेज पुंज और उज्जवल हो जाता है ।  सतलोक में पहुंचकर साधक काल की सीमा से बाहर हो जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । ध्यान करने वाले अभ्यासी सतलोक पहुंचते हैं । सतलोक पहुंचने पर ही जीव को मुक्ति लाभ होता है । जब सत लोक राह चढि जाई । तब यह जीव मुक्ति को पाई । परन्तु धन्य है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का यह कृपालु स्वभाव । जिससे प्रेरित होकर वे उस जीव को अपने पास न रखकर उसे निर्मल चैतन्य देश के सतलोक के ऊपर के मण्डलों पर भेज देते हैं । सतलोक तक पहुंचने में श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा के साथ साथ शिष्य के स्वयं के अभ्यास की भी अपेक्षा रहती है । परन्तु सतलोक तक पहुंच जाने के बाद शिष्य के प्रयास की दौड धूप समाप्त हो जाती है । यहां से ऊपर के मण्डलों में एकमात्र श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा ही अपने शिष्य को अपने प्रताप से आगे भेजती है । अनामी लोक - सतलोक के बाद और अलख लोक के बीच में अनामी पद नामक निर्मल चैतन्य देश है । इस स्थान की निर्मल सुरत को अनामी सम्भवत: इसलिये कहा जाता है कि सत्य लोक में अलख पुरूष सत्य नाम के रूप में  प्रकाशित हो जाता है । अनामी पद सत्य लोक के स्वामी सत्य नाम का पूर्ण रूप है । जिसे सन्तों ने गुप्त भेद भी कहा है । अलख लोक - श्री सदगुरू देव जी महाराज का विज्ञानमय स्वरूप शिष्य की आत्मा को ऊपर के अलख । अगम और अकह लोकों में पहुंचा देता है । यहां के मालिक का नाम अलख पुरूष है । अलख पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश विराजमान रहता है । अलख लोक के ऊपर अगम लोक नामक महाचैतन्य का लोक है । इसकी महिमा अधिक से अधिक है । इस लोक के मालिक का नाम अगम पुरूष है । अगम पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश है । महापुरूषों ने बताया है कि यह देश परम सन्तों का देश है । अकह लोक - इस अगम लोक के ऊपर जो अकह लोक है । उसका वर्णन करने में सन्त भी मौन हो गये । क्योंकि यहां का प्रकाश और यहां की निर्मलता बेअन्त है । इसका वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता है । जैसे गूंगे आदमी को मिठाई खिला दी जाय । और वह उस मिठाई के स्वाद का वर्णन न कर सके । उसी प्रकार इस लोक का वर्णन नहीं किय जा सकता है । क्योंकि यह लोक अवर्णनीय है । इसीलिये इसे अकह लोक कहते है । गुरू की कृपा से जो यहां पहुंचे हैं । वही इसका अनुभव कर पाते हैं । तभी तो सन्त भीखा साहब कहते हैं कि इसकी गति अगम्य है - भीखा बात अगम्य की । कहन सुनन में नाहिं । जो जाने सो कहे ना । कहे सो जाने नाहिं । कहने का तात्पर्य यह है कि जो साधक अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज के बताये हुए नाम का भजन । सुमिरन तथा उनकी सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान पूर्ण श्रद्धा के साथ करता जाता है । वह सदा अपनी एक के बाद दूसरी आध्यात्मिक मंजिल पर चढता चला जाता है । पल पल सुमिरन जो करे । हिरदय श्रद्धा धार । आधि व्याधि नाशे सकल । चढ जावै धुर धाम । साधक यदि नियम पूर्वक प्रतिदिन भजन । सुमिरन । ध्यान । यानी सुरत शब्द योग का अभ्यास करते हैं । तो  उनको आन्तरिक आनन्द का अनुभव होने लगता है । और उनका चित्त प्रसन्न रहने लग जाता है । यह श्री सदगुरू देव जी महाराज की प्रत्यक्ष दया और उनकी कृपा है । जो शिष्य को गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाती है । गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाने का तात्पर्य यह है कि साधक की चेतना के ज्ञानात्मक और क्रियात्मक और भावात्मक पक्ष श्री सदगुरू देव जी महाराज पर श्रद्धा और विश्वास के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा से शिष्य का ज्ञान और उसके सम्पूर्ण कर्म गुरू भक्ति के रस से सराबोर हो जाते हैं । इस भक्ति की साधना में परानाम का सुमिरन । और ध्यान अर्थात गुरू स्वरूप का अपने अन्तर्चक्षुओं 3rd eye से दर्शन करना । और उनकी मानसिक सेवा । पूजा करने का प्रधान स्थान है । इसमें अपने श्रद्धा भाव द्वारा ही श्री सदगुरू देव जी महाराज के भाव स्वरूप का भजन ध्यान किया जाता है । इस प्रकार की उपासना से गुरू भक्ति के साधक अपने श्री सदगुरू की कृपा से माथे में भाव राज्य के द्वार को खोलकर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के असीम दया से निकली हुई चेतना की निर्मल किरणों की सहायता से उनकी महिमा का रसास्वादन करते हुए उनके परम धाम की ओर बढने का सतत प्रयास करते हैं । प्रभु को प्राप्त करने के जो अभिलाषी भक्ति की साधना के द्वारा मन को इष्ट के साथ जोड लेते हैं । वही मालिक को प्राप्त कर सकते हैं । सदा सदा ही मालिक के भजन । भक्ति । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में रत रहने वाले प्रभु को प्राप्त करने के अभिलाषी शिष्य में स्वभावत: गुरू के स्वरूप उभर आते हैं । सदगुरू की प्राप्ति को ईश्वर का साक्षात अनुग्रह समझना चाहिये । गुरू का दर्शन । उनमें पूर्ण भक्ति भाव । उनकी प्रसन्नता प्राप्ति । और परिणाम स्वरूप अन्त: दर्शन की व्याकुलता । ये सभी ईश्वर के सार्थक अनुग्रह बताये गये हैं । ईश्वर के अनुग्रह कारी स्वरूप को गुरू तत्त्व कहते हैं । ************** यह लेख और - गुरु मोक्ष का द्वार हैं । श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजा गया है । आपका बहुत बहुत आभार । RAJEEV BABA पर सोमवार, जनवरी 02, 2012 कोई टिप्पणी नहीं: ‹ › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें WELCOME  RAJEEV BABA AGRA, U.P, India ये मेरे परमपूज्य गुरुदेव सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज परमहंस की तस्वीर है उनका सम्पर्क नम्बर 09639892934 है और मेरा सम्पर्क नम्बर 0 94564 32709 है इन नम्बर पर आप ब्लाग लेखों से जुडी किसी भी जिज्ञासा या आत्मज्ञान सम्बन्धित किसी भी प्रश्न का उत्तर पूछ सकते हैं । मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें Blogger द्वारा संचालित.

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