Sunday, 17 September 2017

गायत्री तीनों देवों का स्वरूप है।

इन्द्राणी : "हे इन्द्र तुम अत्यन्त गमनशील होकर वृषाकपि के पास जाते हो, तुम सोमपान के लिए नहीं जाते-इन्द्र सर्वश्रेष्ठ है।"

इस प्रकार पुराण वास्तव में हमारी पुरा-वैदिक संस्कृति की सम्वाहक हैं, जिनके द्वारा संरक्षित होकर वैदिक गाथाएं-लोकमानस में आज भी रची-बसी हैं। भारतीय चिन्तन ने विज्ञान के विकास में जो अप्रतिम योगदान दिया है, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं यह काव्यात्मक शैली में रचित कथाएं, जो हमारी भविष्य दृष्टा ऋषियों की उर्वर मेघा का परिणाम हैं।

इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए  प्रो. मैक्समूलर ने अपने Biographical essays में लिखा है "To Swami Dayanand everything contained in vedas, was not only perfect truth, but he went one step further and, by their interpretation, succeded in persuading others that every thinq worth knowing even the most recent invenions of modern science were  alluded to, in vedas; steam engins, electricity, telegraph and wireless, morco gram were shown to have been known at least in the germs, to the poets of vedas."

प्रख्यात अमेरिकन इन्डालोजिस्ट Mrs. Wheeler Willox ने लिखा है - "We have all hear and read about the ancient relegion of India. It is the land of great vedas the most remarkable work, containing not only relegious ideas or a pertect life, but also facts which all science has since  proved true,  electricity, radium, electrons, air ships, all seem to be known to Siers, who founded vedas".

वेदों में यह सभी विज्ञान सम्मत तथ्य विविध छन्दों- गायत्री, उष्णित, अनुष्टुप, वृहति, पंक्ति, त्रिष्टुभ एवं जगति के माध्यम से विर्णत हैं। परन्तु पौराणिक संस्कृत वांग्मय में विर्णत विज्ञान कथाओं की चर्चा के पूर्व एक वैदिक राष्ट्रगीत दृष्टव्य है-

आ ब्रह्मा ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जागताम।
आ राष्ट्रे राजन्य: इषव्योति ज्योति व्याधी महारथो जायताम।
दोग्ध्री धेनुर्वोदानउवानाशु: सप्ति पुरन्धिर्योषा
विष्णु रथेष्ठा समेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम।
निकामें निकामें न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधाय पच्यन्ताम।
योग क्षेत्रो न: कल्पताम।।

(यजुर्वेद सं. 22/22)
इसका काव्यानुवाद निम्नवत् है-  
भारत वर्ष हमारा प्यारा, अखिल विश्व से न्यारा।
सब साधन रहे सम्मुत भगवन! देश हमारा।
हों ब्राह्मण विद्वान राष्ट्र में ब्रह्मतेज व्रतधारी।
महारथी हो शूर धनुर्धर क्षत्रिय लक्ष्य प्रहारी।
गौवें भी अति मधुर दुग्ध की रहें बहाती धारा।।
राष्ट्र के बलवान वृषभ, बोझ उठाएं भारी।
अश्व वायुगामी हो दुर्गम पथ में विचरणकारी।
जिनकी गति लख समीर भी हो लज्जातुर भारी।।
महिलायें हो सती सुन्दरी सद्गुण युक्त सयानी।
रथारूढ़ भारत वीरों की करें विजय अगवानी।
जिनकी गुणगाथा से गुंजित हो दिगन्त यह सारा।।
यज्ञ निरत भारत सुत हों शूर सुकृत अवतारी।
युवक यहां के सौम्य सुशिक्षित बली सरल सुविचारी।
समय-समय पर आवश्यकता वश धन सरस नीर बरसायें।
औषध में लगे प्रचुर फल जो स्वत: पक जायें
योग हमारा क्षेम हमारा स्वत: सिद्ध हो सारा।।

इस यजुर्वेदीय वैदिक उद्घोष को यहां पर देने का उद्देश्य उस तथ्य की ओर युवा पीढ़ी के ध्यान केा आकषिZत करना है जो राष्ट्र की भावना से समय प्रवाह में अपरिचित होती प्राचीन भारतीय संस्कृति को विस्मृति करती, ग्लोबलाइज्ड होती जा रही है।

ऋग्वेद से प्रारम्भ कर विमानों की चर्चा से रामायण, महाभारत अनेक पुराण तथा श्रीमद्भागवत भरे हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन चर्चाओं की नाभि में विज्ञानमय तथ्य, विद्यमान है जिसके बिम्ब ऋग्वेद में स्पष्ट हैं-

क्रडिं व शर्धो मारुतमनर्वाणं रथे शुभम।..... कण्वा अभिप्रगात।।

"हे मारुत: वायुओं तुम्हारा जो बल है वह हमारी क्रीड़ा का साधन बने, तुम कण्व हो, शब्द करने वाले हो, तुम्हारे बल से रथ- विमान चलते हैं, तुम्हारे बल चलित इन विमानों का कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।"

इसी भान्ति एक अन्य ऋग्वेद का मन्त्र दृष्टव्य है-
युवमेत चक्र थु: सिन्धुव प्लव आत्मन्ते दक्षिण तौरमाय
यन देव मासा निरुहथु: सुवप्तनी पेनथकम क्षोदसो मह:।
(ऋग्वेद 1, 182, 5)
किया स्वाचालित नौका निर्मित, खगसमान उड़नेवाली।
नभ में, सागर में दोनों में, सदृश गमन करने वाली।।
हो करके आरुढ़ उसी पर, नभ से सागर में आये।
तुग्र पुत्र जो भुज्यु भक्त था, व्याकुल उसके प्राण बचाये।।

अब इस आलेख में कुछ चयनित विज्ञानकथाओं की चर्चा करना समीचीन होगा। हम सभी रिमोट चालित ड्रोनोंं रडारों की पहुंच से बाहर रहकर बच निकलने वाले वायुयानों से लम्बी दूरी तक उड़ने वाले तथा वायुमध्य में रिफयूलिंग करने वाले वायुयानों से हम परिचित हैं। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले विमानों की चर्चा से अपरिचित कोई नहीं है। मानव प्रौद्योगिकी के माध्यम से इन विमानों को लगातार विकसित कर नया रूप-देने में प्रयासरत है और आशा है कि कोई साईबोंग मनचालित-पुष्पक और सौभ की भान्ति के विमानों का नियन्त्रण भी निकट भविष्य में कर सकेगा, जिनकी चर्चा रामायण और श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में है।गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
         सर्वसुलभ समर्थ साधना गायत्री मन्त्र की महिमा गाते हुए शास्त्र और ऋषि- महर्षि थकते नहीं। इसकी प्रशंसा तथा महत्ता के सम्बन्ध में जितना कहा गया है, उतना शायद ही और किसी की प्रशंसा में कहा गया हो। प्राचीनकाल में बड़े- बड़े तपस्वियों ने प्रधान रूप से गायत्री की ही तपश्चर्याएँ करके अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। शाप और वरदान के लिए वे विविध विधियों से गायत्री का ही प्रयोग करते थे।
प्राचनीकाल में गायत्री गुरुमन्त्र था। आज भी गायत्री मन्त्र प्रसिद्ध है। अधिकांश मनुष्य उसे जानते हैं। अनेक मनुष्य किसी न किसी प्रकार उसको दुहराते या जपते रहते हैं अथवा किसी विशेष अवसर पर स्मरण कर लेते हैं। इतने पर भी देखा जाता है कि उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता। गायत्री जानने वालों में कोई विशेष स्तर दिखाई नहीं देता। इस आधार पर यह आशंका होने लगती है कि कहीं गायत्री की प्रशंसा और महिमा में वर्णन करने वालों ने अत्युक्ति तो नहीं की? कई मनुष्य आरम्भ में उत्साह दिखाकर थोड़े ही दिनों में उसे छोड़ बैठते हैं। वे देखते हैं कि इतने दिन हमने गायत्री की उपासना की, पर लाभ कुछ न हुआ, फिर क्यों इसके लिए समय बरबाद किया जाए।
कारण यह है कि प्रत्येक कार्य एक नियत विधि- व्यवस्था द्वारा पूरा होता है। चाहे जैसे, चाहे जिस काम को चाहे जिस प्रकार करना आरम्भ कर दिया जाए, तो अभीष्ट परिणाम नहीं मिल सकता। मशीनों द्वारा बड़े- बड़े कार्य होते हैं, पर होते तभी हैं जब वे उचित रीति से चलायी जाएँ। यदि कोई अनाड़ी चलाने वाला, मशीन को यों ही अन्धाधुन्ध चालू कर दे तो लाभ होना तो दूर, उलटे कारखाने के लिए तथा चलाने वाले के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है। मोटर तेज दौडऩे वाला वाहन है। उसके द्वारा एक- एक दिन में कई सौ मील की यात्रा सुखपूर्वक की जा सकती है। पर अगर कोई अनाड़ी आदमी ड्राइवर की जगह जा बैठे और चलाने की विधि तथा कल- पुर्जों के उपयोग की जानकारी न होते हुए भी उसे चलाना प्रारम्भ कर दे तो यात्रा तो दूर, उलटे ड्राइवर और मोटर यात्रा करने वालों के लिए अनिष्ट खड़ा हो जाएगा या यात्रा निष्फल होगी। ऐसी दशा में मोटर को कोसना, उसकी शक्ति पर अविश्वास कर बैठना उचित नहीं कहा जा सकता। अनाड़ी साधकों द्वारा की गयी उपासना भी यदि निष्फल हो, तो आश्चर्य की बात नहीं है।
जो वस्तु जितनी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, उसकी प्राप्ति उतनी ही कठिन भी होती है। सीप- घोंघे आसानी से मिल सकते हैं, उन्हें चाहे कोई बिन सकता है; पर जिन्हें मोती प्राप्त करने हैं, उन्हें समुद्र तल तक पहुँचना पड़ेगा और इस खतरे के काम को किसी से सीखना पड़ेगा। कोई अजनबी आदमी गोताखोरी को बच्चों का खेल समझकर या यों ही समुद्र तल में उतरने के लिए डुबकी लगाये, तो उसे अपनी नासमझी के कारण असफलता पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
यों गायत्री में अन्य समस्त मन्त्रों की अपेक्षा एक खास विशेषता यह है कि नियत विधि से साधना न करने पर भी साधक की कुछ हानि नहीं होती। परिश्रम भी निष्फल नहीं जाता, कुछ न कुछ लाभ ही रहता है, पर उतना लाभ नहीं होता, जितना कि विधिपूर्वक साधना के द्वारा होना चाहिए। गायत्री की तान्त्रिक उपासना में तो अविधि साधना से हानि भी होती है, पर साधारण साधना में वैसा कोई खतरा नहीं है, तो भी परिश्रम का पूरा प्रतिफल न मिलना भी तो एक प्रकार की हानि ही है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य उतावली, अहमन्यता, उपेक्षा के शिकार नहीं होते और साधना मार्ग पर वैसी ही समझदारी से चलते हैं, जैसे हाथी नदी पार करते समय थाह ले- लेकर धीरे- धीरे आगे कदम बढ़ाता है।
प्रतिबन्ध क्या? क्यों? :—कुछ औषधियाँ नियत मात्रा में लेकर नियत विधिपूर्वक तैयार करके रसायन बनायी जाएँ और नियत मात्रा में नियत अनुपात के साथ रोगी को सेवन करायी जाएँ, तो आश्चयर्जनक लाभ होता है; परन्तु उन्हीं औषधियों को चाहे जिस तरह, चाहे जितनी मात्रा में लेकर चाहे जैसा बना डाला जाए और चाहे जिस रोगी को, चाहे जितनी मात्रा में, चाहे जिस अनुपात में सेवन करा दिया जाए, तो निश्चय ही परिणाम अच्छा न होगा। वे औषधियाँ जो विधिपूर्वक प्रयुक्त होने पर अमृतोपम लाभ दिखाती थीं, अविधिपूर्वक प्रयुक्त होने पर निरर्थक सिद्ध होती हैं। ऐसी दशा में उन औषधियों को दोष देना न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। गायत्री साधना भी यदि अविधिपूर्वक की गयी है, तो वैसा लाभ नहीं दिखा सकती जैसा कि विधिपूर्वक साधना से होना चाहिए।
पात्र- कुपात्र कोई भी गायत्री शक्ति का मनमाने प्रयोग न कर सके, इसलिए कलियुग से पूर्व ही गायत्री को कीलित कर दिया गया है। कीलित करने का अर्थ है- उसके प्रभाव को रोक देना। जैसे किसी गतिशील वस्तु को कहीं कील गाढक़र जड़ दिया जाय तो उसकी गति रुक जाती है, इसी तरह मन्त्रों को सूक्ष्म शक्ति से कीलित करने की व्यवस्था रही है। जो उसका उत्कीलन जानता है, वही लाभ उठा सकता है। बन्दूक का लाइसेन्स सरकार उन्हीं को देती है जो उसके पात्र हैं। परमाणु बम का रहस्य थोड़े- से लोगों तक सीमित रखा गया है, ताकि हर कोई उसका दुरुपयोग न कर डाले। कीमती खजाने की तिजोरियों में बढिय़ा चोर ताले लगे होते हैं ताकि अनधिकारी लोग उसे खोल न सकें। इसी आधार पर गायत्री को कीलित किया गया है कि हर कोई उससे अनुपयुक्त प्रयोजन सिद्ध न कर सके।
पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार गायत्री को वसिष्ठ और विश्वामित्र जी ने शाप दिया कि ‘उसकी साधना निष्फल होगी’। इतनी बड़ी शक्ति के निष्फल होने से हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने प्रार्थना की कि इन शापों का विमोचन होना चाहिए। अन्त में ऐसा मार्ग निकाला गया कि जो शाप- विमोचन की विधि पूरी करके गायत्री साधना करेगा, उसका प्रयत्न सफल होगा और शेष लोगों का श्रम निरर्थक जाएगा। इस पौराणिक उपाख्यान में एक भारी रहस्य छिपा हुआ है, जिसे न जानने वाले केवल ‘शापमुक्ताभव’२ मन्त्रों को दुहराकर यह मान लेते हैं कि हमारी साधना शापमुक्त हो गयी।
२(परम्परागत साधना में गायत्री मन्त्र- साधना करने वालों को उत्कीलन करने की सलाह दी गई है। उसमें साधक निर्धारित मन्त्र पढक़र ‘शापमुक्ताभव’ कहता है।)
वसिष्ठ का अर्थ है- ‘विशेष रूप से श्रेष्ठ गायत्री साधना में जिन्होंने विशेष रूप से श्रम किया है, जिसने सवा करोड़ जप किया होता है, उसे वसिष्ठ पदवी दी जाती है। रधुवंशियों के कुल गुरु सदा ऐसे ही वसिष्ठ पदवीधारी होते थे। रघु, अज, दिलीप, दशरथ, राम, लव- कुश आदि इन छ: पीढिय़ों के गुरु एक वसिष्ठ नहीं बल्कि अलग- अलग थे, पर उपासना के आधार पर इन सभी ने वसिष्ठ पदवी को पाया था। वसिष्ठ का शाप मोचन करने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के वसिष्ठ से गायत्री साधना की शिक्षा लेनी चाहिए, उसे अपना पथ- प्रदर्शक नियुक्त करना चाहिए। कारण है कि अनुभवी व्यक्ति ही यह जान सकता है कि मार्ग में कहाँ क्या- क्या कठिनाइयाँ आती हैं और उनका निवारण कैसे किया जा सकता है?
जब पानी में तैरने की शिक्षा किसी नये व्यक्ति को दी जाती है, तो कोई कुशल तैराक उसके साथ रहता है, ताकि कदाचित् नौसिखिया डूबने लगे तो वह हाथ पकडक़र उसे खींच ले और उसे पार लगा दे तथा तैरते समय जो भूल हो रही हो, उसे समझाता- सुधारता चला जाए। यदि कोई शिक्षक तैराक न हो और तैरना सीखने के लिए बालक मचल रहे हों, तो कोई वृद्ध विनोदी पुरुष उन बालकों को समझाने के लिए ऐसा कह सकता है कि- ‘बच्चो! तालाब में न उतरना, इसमें तैराक गुरु का शाप है। बिना गुरु के शापमुक्त हुए तैरना सीखोगे, तो वह निष्फल होगा।’ इन शब्दों में अहंकार तो है, शाब्दिक अत्युक्ति भी इसे कह सकते हैं, पर तथ्य बिल्कुल सच्चा है। बिना शिक्षक की निगरानी के तैरना सीखने की कोशिश करना एक दुस्साहस ही है।
सवा करोड़ गायत्री जप की साधना करने वाले गायत्री उपासक वसिष्ठ की संरक्षकता प्राप्त कर लेना ही वसिष्ठ शाप- मोचन है। इससे साधक निर्भय, निधडक़ अपने मार्ग पर तेजी से बढ़ता चलता है। रास्ते की कठिनाइयों को वह संरक्षक दूर करता चलता है, जिससे नये साधक के मार्ग की बहुत- सी बाधाएँ अपने आप दूर हो जाती हैं और अभीष्ट उद्देश्य तक जल्दी ही पहुँच जाता है।
गायत्री को केवल वसिष्ठ का ही शाप नहीं, एक दूसरा शाप भी है, वह है विश्वामित्र का। इस रत्न- कोष पर दुहरे ताले जड़े हुए हैं ताकि अधिकारी लोग ही खोल सकें; ले भागू, जल्दबाज, अश्रद्धालु, हरामखोरों की दाल न गलने पाए। विश्वामित्र का अर्थ है- संसार की भलाई करने वाला, परमार्थी, उदार, सत्पुरुष, कर्त्तव्यनिष्ठ। गायत्री का शिक्षक केवल वसिष्ठ गुण वाला होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसे विश्वामित्र गुण वाला भी होना चाहिए। कठोर साधना और तपश्चर्या द्वारा बुरे स्वभाव के लोग भी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। रावण वेदपाठी था, उसने बड़ी- बड़ी तपश्चर्याएँ करके आश्चर्यजनक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इस प्रकार वह वसिष्ठ पदवीधारी तो कहा जा सकता है, पर विश्वामित्र नहीं; क्योंकि संसार की भलाई के, धर्माचार्य एवं परमार्थ के गुण उनमें नहीं थे। स्वार्थी, लालची तथा संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग चाहे कितने ही बड़े सिद्ध क्यों न हों, शिक्षण किये जाने योग्य नहीं, यही दुहरा शाप विमोचन है। जिसने वसिष्ठ और विश्वामित्र गुण वाला पर्थ- प्रदर्शक, गायत्री- गुरु प्राप्त कर लिया, उसने दोनों शापों से गायत्री को छुड़ा लिया। उनकी साधना वैसा ही फल उपस्थित करेगी, जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है।
              गायत्री परिवारगायत्री कोई स्वतन्त्र देवी- देवता नहीं है। यह तो परब्रह्म परमात्मा का क्रिया भाग है। ब्रह्म निर्विकार है, अचिन्त्य है, बुद्धि से परे है, साक्षी रूप है, परन्तु अपनी क्रियाशील चेतना शक्ति रूप होने के कारण उपासनीय है और उस उपासना का अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त होता है। ईश्वर- भक्ति, ईश्वर- उपासना, ब्रह्म- साधना, आत्म- साक्षात्कार, ब्रह्म- दर्शन, प्रभुपरायणता आदि पुरुषवाची शब्दों का जो तात्पर्य और उद्देश्य है, वही ‘गायत्री उपासना’ आदि स्त्री वाची शब्दों का मन्तव्य है।

गायत्री उपासना वस्तुत: ईश्वर उपासना का एक अत्युत्तम सरल और शीघ्र सफल होने वाला मार्ग है। इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति एक सुरम्य उद्यान से होते हुए जीवन के चरम लक्ष्य ‘ईश्वर प्राप्ति’ तक पहुँचते हैं। ब्रह्म और गायत्री में केवल शब्दों का अन्तर है, वैसे दोनों ही एक हैं। इस एकता के कुछ प्रमाण नीचे देखिए—

गायत्री छन्दसामहम्। —श्रीमद् भगवद् गीता अ० १०.३५
छन्दों में मैं गायत्री हूँ।
भूर्भुव: स्वरिति चैव चतुर्विंशाक्षरा तथा।
गायत्री चतुरोवेदा ओंकार: सर्वमेव तु॥ —बृ० यो० याज्ञ० २/६६
भूर्भुव: स्व: यह तीन महाव्याहृतियाँ, चौबीस अक्षर वाली गायत्री तथा चारों वेद निस्सन्देह ओंकार (ब्रह्म) स्वरूप हैं।
देवस्य सवितुर्यस्य धियो यो न: प्रचोदयात्।
भर्गो वरेण्यं  तद्ब्रह्म धीमहीत्यथ उच्यते॥ —विश्वामित्र
उस दिव्य तेजस्वी ब्रह्म का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करता है।
अथो वदामि गायत्रीं तत्त्वरूपां त्रयीमयीम्।
यया प्रकाश्यते ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम्॥ —गायत्री तत्त्व० श्लोक १
त्रिवेदमयी (वेदत्रयी) तत्त्व स्वरूपिणी गायत्री को मैं कहता हूँ, जिससे सच्चिदानन्द लक्षण वाला ब्रह्म प्रकाशित होता है अर्थात् ज्ञात होता है।
गायत्री वा इदं सर्वम्। —नृसिंहपूर्वतापनीयोप० ४/३
यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है।
गायत्री परमात्मा। —गायत्रीतत्त्व०
गायत्री (ही) परमात्मा है।
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री। —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है।
सप्रभं सत्यमानन्दं हृदये मण्डलेऽपि च।
ध्यायञ्जपेत्तदित्येतन्निष्कामो मुच्यतेऽचिरात्॥ —विश्वामित्र
प्रकाश सहित सत्यानन्द स्वरूप ब्रह्म को हृदय में और सूर्य मण्डल में ध्यान करता हुआ, कामना रहित हो गायत्री मन्त्र को यदि जपे, तो अविलम्ब संसार के आवागमन से छूट जाता है।
ओंकारस्तत्परं ब्रह्म सावित्री स्यात्तदक्षरम्। —कूर्म पुराण उ० विभा० अ० १४/५७
ओंकार परब्रह्म स्वरूप है और गायत्री भी अविनाशी ब्रह्म है।
गायत्री तु परं तत्त्वं गायत्री परमागति:। —बृहत्पाराशर गायत्री मन्त्र पुरश्चरण वर्णनम् ४/४
गायत्री परम तत्त्व है, गायत्री परम गति है।
सर्वात्मा हि सा देवी सर्वभूतेषु संस्थिता।
गायत्री मोक्षहेतुश्च मोक्षस्थानमसंशयम्॥ —ऋषि शृंग
यह गायत्री देवी समस्त प्राणियों में आत्मा रूप में विद्यमान है, गायत्री मोक्ष का मूल कारण तथा सन्देह रहित मुक्ति का स्थान है।
गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:।
गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:॥ —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
गायत्री ही दूसरे विष्णु हैं और शंकर जी दूसरे गायत्री ही हैं। ब्रह्माजी भी गायत्री में परायण हैं, क्योंकि गायत्री तीनों देवों का स्वरूप है।

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