कबीरदास कबीर की बाल-लीला कबीर के काल में, काशी में जलन के रोग का प्रकोप था। एक दिन बालक कबीर धूल- मिट्टी से खेल रहे थे। उसी समय एक वृद्धा स्री आयी और कबीर से अपने जलन- रोग का उपचार करने को बोली। बालक कबीर ने थोड़ी- सी धूल वृद्धा पर डाल दी। वह आरोग्य होकर खुशी- खुशी घर चली गई। नीरु के घर मांस आने से कबीर का अंतःध्र्यान हो जाना आस- पास के मुसलमानों ने, एक व्यक्ति को बहका कर नीरु के घर मेहमान बनाकर भेजा और उस मेहमान से कह दिया कि वह नीरु को मांस खिलाने को कहेगा। उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया। वह मांस खिलाने का हठ करने लगा। नीरु के लाख समझाने और कहने पर भी वह नहीं माना। अंत में नीरु जाति- समाज के डर से मांस लाने को तैयार हो गया। किसी ने सच ही कहा है :- ""जाति- पाति हुर्मत के गाहक। तिनको डर उर पैठयो नाहक।।'' कबीर जान गए कि नीरु ने मांस लाया है। संध्या में सभी लड़के खेलकर अपने- अपने घर आये, किंतु कबीर नहीं आये। नीमा ने आस- पास के लड़कों से कबीर के बारे में पूछा, उनलोगों से कुछ पता न चल पाया, तो दोनों बहुत अधिक विकल हो गए। रातभर उन लोगों ने ना तो कुछ खाया- पिया और न ही सोए। भोर होते ही नीरु कबीर को खोजने के लिए निकल पड़ा। आस- पास के सभी नगर में नीरु ने कबीर को खोजा, किंतु कबीर का कुछ भी अता- पता न चला। अंत में नीरु पागलों की तरह हर आने- जाने वालों से कबीर के बारे में पूछता- पूछता, इधर- उधर भटकने लगा। नीरु को इस बात का डर था कि अगर वह कबीर को साथ लिए बिना घर जाएगा, तो नीमा प्राण त्याग देगी। वह स्वयं को दोषी ठहराते हुए, गंगाजी में डूबने के लिए कूद गया। नीरु गंगाजी की गहराइयों में गोता खाने लगा। अचानक उसे एहसास हुआ कि किसी ने उसका हाथ पकड़ कर बाहर कर दिया। नीरु ने जब आँख खोलकर देखा, तो सामने कबीर खड़े थे। वह बहुत प्रसन्न हुआ और कबीर साहब को गले लगाने, उसके नजदीक जाने लगा, किंतु कबीर साहब उससे दूर हो गये। वे कहने लगे, खबरदार ! मेरे शरीर को हाथ मत लगाना। तुम महाभ्रष्ट हो। कबीर के कहने का भाव समझ कर नीरु वात्सल्यभाव से बालक को फिर यह कहता हुआ पकड़ने का प्रयत्न करने लगा :- कहु प्यारे काल्ह कहँ रहेऊ हम खोजत थकित होइ गयऊ।। कबीर साहब पीछे हटते हुए बोले :- कहहिं कबीर हम उहां न जाहीं तुम आभच्छ आनेहु घरमाही।। अब नीरु को कबीर की बात समझ में आई और बोला :- कहे नीरु कर जोरि अधीना अब तो चूक सही हम कीना।। अबकी चूक बकसिये मोही हाथ जारिके विनवौं तोहीं।। यह कहते हुए नीरु रोने लगा और नकरगड़ी करने लगा, तब कबीर साहब ने कहा :- ऐसे हम नहिं जैबे भाई घर आँगन सब लीपौ जाई।। बर्तन अशुच दूर सब करिहौ करि अस्नान वस्तर तन फेरिहौ।। ऐसी करिहाँ जाई तुम, तौ पाइहो वहि ठाँउ। नाहीं तो घर को को कहै, ताजि जाऊँ यह गाउँ।। इतना सुनकर नीरु मन- ही- मन बहुत डरा और उसी क्षण घर पहुँचा तथा कबीर की आज्ञानुसार, सफाई करके कबीर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। तब कबीर नीरु के घर प्रकट हुए और नीरु तथा नीमा से कहा :- नीरु सुनहु श्रवण दे, फेर जो ऐसी होई। तब कछु मेरी दोष नहीं, जैदो जन्म बिगोई।। दोनों स्री- पुरुष ने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और कहा अब ऐसी भूल कभी न होगी। आप हमको न त्यागें। कबीर साहब की सुन्नत कुछ दिनों के बाद, समस्त जुलाहे इकट्ठा होकर नीरु से कहने लगे कि अपने रसुल अल्लाह की आज्ञा के अनुसार, अब तुम अपने पुत्र का खतना ( मुसलमानी ) कराओ। एक- एक कर सभी जोलाहे नीरु के घर इकट्ठा हुए और काजी को बुलाया गया। काजी ने नाई को कबीर साहब का खतना करने का हुक्म दिया। नाई उस्तरा लेकर कबीर साहब के पास पहुँचा। कबीर साहब ने नाई को पाँच लिंग दिखलाए और नाई से कहा, इन पाँचों में से जिसको चाहो, तू काट ले। यह स्थिति देखकर नाई भयभीत हो गया और तुरंत वहाँ से भाग गया। इस प्रकार खतना न हो सका। कुर्बानी एक बार कबीर साहब छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेल रहे थे। इसी बीच काजी ने गाय की कुर्बानी करने का प्रबंध किया, लेकिन कबीर साहब को इस बात की भनक मिल गई और खेलना छोड़ कर दौड़ते हुए गाय के पास पहुँच गए। आपने देखा कि काजी गाय को समाप्त कर चुका था। आपने काजी को अनेक उपदेश दिये, साथ- ही- साथ काजी को लज्जित भी किया। काजी लजाकर अपने अपराध के निर्मित क्षमा का प्रार्थी हुआ। आपने समाप्त गाय को जीवित कर दिया और अंतध्र्यान हो गए। कबीर साहब को नीरु के घर से भगाने का प्रयत्न नीरु के घर सिद्ध बालक को देखकर, उसकी प्रसिद्धि से आसपास के लोग नीरु से जलते थे। नीरु के द्वारा अपने घर में सदा माँस न लाने की प्रतिज्ञा कर लेने से, मांसाहारी मुसलमान उससे बहुत क्षुब्ध हो गये थे। इन सभी मुसलमानों ने उसे धर्म भ्रष्ट होते, समझकर नीरु को सुधारने की फिक्र करना प्रारंभ कर दिया। काशी के जोलहन मिली, आनि कियों परपंच। सबै कहैं नीरु तुम क्या बैठे निश्चिन्त। बेटे की तुम सुनति कराओ पंचों का तुम हाथ पुलाओ।। काजी मुलना को बुलवाओ शैनी और शराब मँगाओ।। इस प्रकार की उनकी सुनकर नीरु ने कान पर हाथ रखकर कहा :- नरु कहे सुन्नति बखाओ पै नहिं गैनी गला कटाओ।। नीरु की यह बात सुनकर उसकी जाति बिरादरी के लोगों ने उससे क्रोधित होकर कहा :- जोलहा सब तब कहैं रिसाई। वया नीरु तुम अकिल गवाँई।। अपने कुल की रीति न छोड़ो। कुल परिवार करिहें सब भांडो।। गैनी बिना कैसे बनै, मुसलमान की रीति। पीर पैगम्बर रुठिहैं, खता खाहुगे मति।। यह सुनकर नीरु कहा :- नीरु कहै सुनो रे भाई। ऐसो करौं तो पूत गँवाई।। एक बार घर आमिष आना, तेहि कारण सुत आया बिगाना।। क्या रुठे क्या खुशी हो, पीर पैगम्बर झारि। गौधात मैं ना करो, नीरु कहै पुकारि।। सभी जुलाहे कबीर साहब के अंतध्र्यान होने को जान चुके थे। वह यह भी जानते थे कि नीरु के घर मांस होने से कबीर साहब अंतध्र्यान हो जाते हैं, इसलिए सब विद्वेशियों और पक्षपातियों ने मिलकर नीरु को बहकाकर उसके द्वारा गोहत्या कराना चाहा, जिससे कबीर साहब नीरु के घर से रुष्ट होकर चले जाए। किंतु जब सब जुलाहों तथा काजी मुसलमानों ने देखा कि नीरु उनकी चाल में नहीं पड़ने वाला है, तो वह दूसरी चाल चले और छल से कहा :- जोलहन मिली छल से कहयो, और करु सब साज नीरु तुमरे कारने गैनी आयड बाज।। उनलोगों ने विचार किया कि नीरु के अनजाने में गाय जबह करेंगे, जिसको देखकर कबीर वहाँ से भाग जाएँ। काजी सहित अन्य मुसलमानों ने अवसर पाकर चुपचाप गाय मंगाकर, जबह कर दिया। नीरु इस काण्ड से एकदम अज्ञान थे। यद्यपि उन दुष्टों के इस गुप्त काण्ड को किसी ने नहीं जाना, परंतु अंतध्र्यानी सर्वज्ञ कबीर साहब ने इस बात को जान लिया। वह बच्चों के साथ खेल रहे थे। खेल छोड़कर वहाँ से दौड़े और गाय हत्या के स्थान पर पहुँचे तथा काजी से कहा :- हो काजी यह किन फरमाये, किनके माता तुम छुरी चलाये। जिसका छीर जु पीजिए तिसको कहिए माए।। तिसपर छुरी चलाऊँ, किन यह दिया दिढाय।। यह सुन काजी ने उत्तर दिया :- सुन कबीर बडन सो, होत आई यह बात। गोस कुतुब औ औलिया, हजरत नबी जमात।। कबीर साहब ने काजी की बात सुनकर कहा, ऐ काजी ! और मुल्ला तथा दूसरे मुसलमानों! तुमलोग गफलत में पड़कर नाना प्रकार से जीवों को सताने को धर्म मानते हो। वास्तव में यह तुमको नर्क तक ले जाने वाला रास्ता है। आदम आदि सुधि नहिं पायी । मामा हौब्बा कहते आयी।। तब नहिं होते तुरुक औ हिंदू। मायको रुधिन पिता को बिंदू।। तब नहिं होते गाय कसाई। तब बिसमिल किन फरमायी।। तब नहिं रहो कुल औ जाति। दोजख विहिरत कहाँ उत्पाती।। मन मसले की खबर न जाने। मति भुलान हो छीन बखाने।। संयागेकर गुण रखे, बिन जोगे गुण जाय। जिह्मवा स्वाद कारने, क्रीन्हे बहुत उपास।। कबीर साहब की ये बातों को सुनकर काजी मुल्ला सभी बहुत क्रोधित हुए और कहने लगे कि नीरु का यह लड़का काफिर हो गया है। ये नबी पैगम्बर पीर औलिया सबको तुच्छ समझता है और स्वयं को बड़ा ज्ञानी। उनके क्रोध को देखकर नीमा और नीरु दोनों बहुत डर गये, किंतु कबीर साहब ने निर्भय होकर विनयपूर्वक काजी से पूछने लगे :- केहि कारण तुम इहवां आयौ। यहि जगह किन तुमहिं बुलाया काजी ने कहा :- जोलहन मोहिं बुलायऊ, तोहो सुन्नत काज। अब तुम मुस्लिम होयके, रोजा करहु निमाज।। कलमा पढो नबी का, छोड़हु कुफुर की बात। तब तुम बहिश्तहि जाहुगे बैठहु नबी जमात।। काजी की बात सुनकर कबीर साहब ने कहा :- जिन्ह कमला कलिमांहि पढ़ाया। कुदरत खोज उनहु नंहि पाया। करमत करम करै करतूती। वेद किताब भाया सब रीती।। कमरत सो जों गाय औतरिया। करमत सो जो नामसिं धरिया। करमत सुन्निति और जनेऊ। हिंदू तुरुक न जाने भेऊ।। पानी पवन संजोयके, रचिया इ उत्पात। सून्द्यहिं सुरत समानिया, कासो कहिये जात।। काजी, मुल्लाहों व कबीर के आपस में बहस को देखकर वहाँ भीड़ जमा हो गयी। भीड़ में से एक हिंदू ने कबीर से कहा कि तुमको अपने धर्म का नियम मानना चाहिए। काजी और मुल्ला, जो कि धर्म के रक्षक और उपदेशक हैं, उनकी आज्ञा से तुमको अपनी सुन्नत करवा लेनी चाहिए। जैसे देखो हमारे धर्म में भी प्रत्येक बालक की जनेऊ होती है, वरन् उसको शूद्र के तुल्य माना जाता है। वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने एक मत होकर कहा कि इसको पकड़ कर बाँधों और सुन्नत कर दो। काजी ने लोगों की बातों से सहमत होकर कुछ मुस्टंडे मुसलमानों को आज्ञा दिया कि कबीर को रस्सी से बाँधों। काजी के आज्ञानुसार बाँधकर, सभी लोग नाई की खोज करने लगे। नाई पहले ही भयभीत होकर भाग चुका था। काजी घबरा कर इधर- उधर भागता हुआ नाई को ढ़ूढ़ रहा था। उस समय काजी को कबीर साहब ने कहा :- काजी तुम कौन किताब बखाना। झंखत बकत रहो निसि बासर मति एको नहि जाना।। सकति न मानो सुनति करत हो मैं न बेदांगा भाई। जो खुदाय तुव सुनति करत तो आप काटि किन आई।। इतना कहकर कबीर साहब उठ खड़े हुए। उनके शरीर से बंधा सभी बाँध खुद ही खुलकर गिर पड़ा। रस्सी को टूटता देखकर, सभी लोग आश्चर्य चकित हो गये। कबीर ने काजी से कहा :- कहे कबीर सुनोहो काजी ! यह सब अहे शैतानी बाजी। छि: ! छि: ! क्या इसी को मुसलमान कहते हैं। यदि तरीका जो मुसलिम होई। तौपै दोजख परै न कोई।। कबीर ने मुस्कराते हुए काजी से कहा, तुमको स्वयं मुसलमानी का पता नहीं है और मुझको मुसलमान बनाने आये हो :-- तुम तो मुस्लिम भये नहिं भाई। कैसे मुस्लिम करहू आयी। काजी के करतूत और उनकी बयानी को देखकर कबीर ने एक बार फिर कहा :- भूला वे अहमक नदाना। हरदम रामहिं न जाना।। टेक।। बरबस आनिके गाय पछाए, गला काहि जिख आप लिया। जीता जीव मुर्दा करि डाला, तिसको कहत हलाल किया। जाहि मांस को पाक कहत है, ताकि उत्पत्ति सुन भाई। रज बीरज सो मास उपाना, सोई नापाक तुम खाई। अपनो दोष कहत नाहिं अहमक, कहत हमारे बड़ेन किया। उनकी खुब तुम्हारी गर्दन, जिन तुमको उपदेश दिया। सियाही गयी सुफैदी आयी, दिल सुकेद अजंहु न हुआ। रोजा नामाज बांग बया कीजै, हजुरे भीतर बैठ मुआ। पण्डित वेद पुरान पढ़ै, मुलना पढ़ै जो कुराना। कहै कबीर वे नरके गये, गिन हरदम रामहिं ना जाना। इतना कहकर कबीर साहब मरी हुई गाय के पास गये :- बहुविधि से काजी को समझायी। महापाप जीव घात बहायी।ं फिर कबीर ग ढिए जायी। मरी गाय तिहिं काल जिवाभी।। जैसे ही कबीर साहब ने गाय के पीठ पर हाथ फेरा, गाय जीवित होकर उठ बैठी। कबीर साहब ने गाय को गंगा में स्नान कराकर, नगर में स्वतंत्र घूमने को छोड़ दिया और स्वयं भी नीरु और नीमा के घर को उसी दिन से छोड़ दिया। कई दिनों तक नीरु और नीमा को कबीर साहब का दर्शन न हुआ। ये दोनों उनके विरह में, बहुत अधिक विकल होकर पागलों की तरह जहाँ- तहाँ घूमने लगे। अंत में करुणामय कबीर ने करुणा करके दोनों को बाहर किसी दूसरे स्थान पर दर्शन दिया। फिर भी उनके घर नहीं गये। कुछ भक्तों ने काशी से बाहर एक कुटी बांध दी। वे इसी कुटी में रहने लगे। कुछ दिनों के बाद नीमा और नीरु भी वहीं आकर रहने लगे। बालक कबीर का काफिर की व्याख्या करना बालक कबीर साहब जब छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेलते थे, तब सदैव "राम- राम', "गोविंद- गोविंद', "हरि- हरि' कहा करते थे। यह सुनकर मुसलमान लोग कहते थे कि यह लड़का कट्टर काफिर होगा। बालक कबीर ने उन मुसलमानों को जवाब दिया कि :- -- काफिर वह होगा, जो दूसरों का माल लूटता होगा। -- काफिर वह होगा, जो कपट भेष बनाकर संसार को ठगता होगा। -- काफिर वह होगा, जो निर्दोष जीवों को काटता होगा। -- काफिर वह होगा, जो मांस खाता होगा। -- काफिर वह होगा, जो मदिरा पान करता होगा। -- काफिर वह होगा, जो दुराचार तथा बटमारी करता होगा। फिर मैं कैसे काफिर हूँ ? उसी समय आपने यह साखी कहा - गला काटकर बिसमिल करें, ते काफिर बेबूझ। औरन को काफिर कहै, अपनी कुफ्र न सूझ।। बालक कबीर वैष्णव के रुप म ें बालक कबीर ने एक बार अपने गले में यज्ञोपवीत व माथे पर तिलक डाल लिया। ब्राह्मणों ने देखा तो कहने लगे कि यह तो मेरा धर्म है, तुम्हारा धर्म तो दूसरा है। तूने यह वैष्णव वेष कैसे बना लिया ? और तू ""राम- राम'' ""गोविंद- गोविंद'' क्यों कहता है ? यह तो तुम्हारा धर्म नहीं है। तब कबीर साहब ने उनलोगों को उत्तर देते हुए कहा कि गोविंद व राम तो हमारे हृदय में बसे हुए हैं। तुम्हारे कैसे हुए ? तुम गीता पढते हो, परंतु सांसारिक धन के लिए सदैव द्वार- द्वार दौड़ते ही रहते हो और हम तो गोविंद के अतिरिक्त अन्य किसी को जानते ही नहीं हैं। आपने ये शब्द कहा:- मेरी लिह्मवा बिस्तू लैनाचरायन हिरदे बसे गोविंद। जम द्वारे जब पूछि परे तब का करे मुकुंदा।। टेक।। हम घर सूत तनै नित ताना, कंठ जनेऊ तुम्हारे। तुम नित बांचत गीता गायत्री, गोविंद हिरदे हमारे।। हम गोरु तुम ग्वाल गुसाई, जनम जनम रखवहो। कबहिं न बार सो पार चराये, तुम कैसे खसम हमारे।। तुम बामन हम काशी के जुलहा, बूझो मेरा गयाना। तुम खोजत नित भुपति राजे, हरि संग मेरा ध्याना।। मुसलमानों और हिंदूओं, दोनों का अपने- अपने धर्म के पैगम्बर व भगवान के नाम पर अड़े रहने और ""राम- राम'' ""गोविंद- गोविंद'' को अपना भगवान कहने पर कबीर ने कहा :- भाई दुई जगदीश कहांते आये कौने मति भरमाया। अल्लाह राम करीमा केलव हरि हजरत नाम धराया।। गहना एक कनक ते बनता तामें भख न दूजा। कहव कहन सुनत को दुई कर आये इक निमाज इक पूजा।। वहि महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिये। कोई हिंदू काई तुरक कहखे एक जमीं पर रहिये।। वेद किताब पढ्ैं व खुतबा वे मुलना वे पांडे। विगत विगत कै नाम धरावें एक भटिया के भांडे।। कहै कबीर वे दूनो भूले रामे किन्हु न पाया। वे खसिया व गाय कटावें वादे जन्म गवांया।। कबीर साहब का रामानंद स्वामी वैष्णव के पास जाना कबीर साहब जब पाँच वर्ष के हुए, तो आपने स्वयं को शिष्य बनाने के लिए रामानंद स्वामी के पास समाचार भेजा, लेकिन रामानंद स्वामी ने कबीर को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया, क्योकि स्वामी रामानंद जी कबीर को शुद्र मानते थे। कबीर वचन रामानंद गुरुदिच्छा दीजे। गुरुदच्छिना हमसे लीजो।। रामानंद वचन सूद्र के कान न लगा भाई। तीन लोक में मोर बडायी। स्वामी रामानंद जी के स्पष्ट इनकार कर दिये जाने के पश्चात, कबीर साहब वहाँ से चुपचाप लौट आये। कबीर का एक छोटा लड़का होकर स्वामी के पथ में पड़ना रामानंद स्वामी प्रत्येक रात के अंत भाम में गंगा स्नान करने के लिए जाते थे। कबीर साहब ने निश्चय किया कि जब स्वामी जी स्नान करने जाएँगे, तो छोटा बच्चा बनकर उनके मार्ग में सो जाएँ। कबीर साहब ने ऐसा ही किया। रामानंद स्वामी जी खड़ाऊँ पहनकर स्नान करने के लिए आए। जैसे ही वह सीढ़ी पर पहुँचे कि उनकी खड़ाऊँ से बालक के सिर में ठोकर लग गई। स्वामी रामानंद का कबीर साहब को शिष्य स्वीकार करना कबीर साहब कुछ लोगों के साथ रामानंद स्वामी के ठिकाने पर आये। रामानंद स्वामी उस समय किसी से नहीं मिलते थे और नहीं किसी को देखते थे। लोगों ने कबीर साहब को परदे के पीछे खड़ा कर दिया। कबीर ने स्वामी से कहा कि स्वामी जी आपने मुझे अपना शिष्य बना लिया है? स्वामी जी यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और पूछा कब ? कबीर साहब ने गंगा नदी के स्नान को जाते हुए सीढियों पर स्वामी के खड़ाऊँ की चोट को विस्तारपूर्वक बताया और कहा कि आपने मेरे माथे पर हाथ रखकर राम- राम पढ़ने को कहा था। मैं उसी दिन से आपको गुरु मानकर ""राम- राम'' पढ़ता रहता हूँ। रामानंद स्वामी जी ने कहा उस समय तो बहुत छोटा बच्चा सीढियों पर मिला था। कबीर साहब ने उत्तर दिया कि स्वामी जी वह मैं ही था और वैसा ही बच्चा बनकर स्वामी के गुफा के भीतर गए और उनके चरणों पर गिरकर कहने लगे कि मैं उस समय ऐसा ही था। कबीर साहब को इस तरह देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ। तब स्वामी जी के सबसे बड़े चेले अनंतानंद ने स्वामी जी को समझाया और कहा कि यह बालक मनुष्य नहीं, बल्कि सिद्ध का अवतार है। इस तरह स्वामी जी मान गए और कबीर साहब को अपना शिष्य बना लिया। कबीर साहब को गुरु के समान मानना स्वामी रामानंद जी के सभी शिष्य कबीर साहब को गुरु के समान मानते थे। सभी आपको अत्यंत मर्यादा एवं प्रतिष्ठा दिया करते थे। स्वयं आप भी सभी गुरु भाई से नितांत ही नम्रतापूर्वक मिलते थे। स्वामी रामानंद जी के सभी चौदह सौ चौरासी शिष्य आपके आज्ञाकारी थे और आपको सभी का सरदार बनाया गया था। | विषय सूची | छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' Content Prepared by Mehmood Ul Rehman Copyright IGNCA© 2004 सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है।
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