सबकी गठरी लाल है। बस, उस गठरी को खोलना नहीं जानते हैं- 'इस विधि भयो कंगाल।' यानी इसी वजह से कंगाल के कंगाल रह गए। कुछ नहीं हाथ लगा।
इस संसार के अंदर आए, जो खोजा, वह मिला भी। ज्ञान खोजा, तो ज्ञान मिला। और फिर क्या हो जाता है मनुष्य के साथ? फिर वह छोटी-छोटी बातों में खो जाता है। कोई भी व्यक्ति खो देने के लिए ज्ञान को नहीं पाता है। ज्ञान को पाने का अर्थ है अपने आपको पाना, अपने आपको समझना, अपने अंदर स्थित उस शांति का अनुभव करना, अपने अंदर स्थित उस परमात्मा का अनुभव करना। यही असली बात है।
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जीवन मंत्र
जीवन मंत्र
हमारे इस संसार में बहुत तरह के लोग होते हैं, हमें उन्हें वैसे ही स्वीकार करना चाहिए।ऐसे भी लोग हैं जिनमें बहुतप्रतिरोध है, कोई बात नहीं, उन्हें उनकी खुद की रफ़्तार से चलने दो।देखियेइस धरती पर खरगोश भी हैं, हिरन भी हैं और घोंघे भी हैं।आप एक घोंघे सेखरगोश के जैसे भागने की उम्मीद नहीं कर सकते, हैं न । अगर कोई घोंघे कीरफ़्तार से चल रहा है जबकि बाकी सब हिरन के जैसे दौड़ रहे हैं तो उसे चलनेदो।ये विश्व ऐसा ही है, मुस्कुराओ और आगे बढ़ो।
अभिनन्दन
हम लोगों आजकल रोजानाकिसी न किसी का अभिनन्दनकरते हैं, आनंद बांटते हैं, ये सब एक बहुत औपचारिक स्तर पर रह कर करते हैं, करते हैं न? जब कोई पानी का गिलास लाता है, तब हम उसको कहते हैं, "आपकाबहुत बहुत धन्यवाद", इसमें बहुत बहुत का कोई अर्थ नहीं होता ।जब आप सहारारेगिस्तान में हों, और सच में बहुत प्यासे हो और कोई आपको एक गिलास पानी देदे और कहें "आपका बहुत बहुत धन्यवाद", वहां ये वास्तविक है ।
क्षमा
यदि आप किसी को क्षमा नहीं करते हो तब आप लगातारसारे समय उनके ही विषय में सोचते रहते हो।क्या किसी के लिए गुस्से कोसंभाल कर रखना आसान है ? हे ईश्वर, इसमें इतनी शक्ति नष्ट होती है।क्या आपजानते हैं कि आप दूसरों को क्षमा क्यों करते हैं? ये आपके खुद के लिए होताहै।जब आप एक अपराधी को एक पीड़ित के जैसे देखते हैं तब आप उन्हें आसानी सेक्षमा कर पाते हैं।हर अपराधी अनभिज्ञता से, संकीर्ण मानसिकता से पीड़ितहोताहै।वो जीवन की विशालता और खूबसूरती को नहीं जानते और इसीलिए वो दूसरों कीपरवाह न करके सिर्फ अपने ही बारे में सोच कर ऐसी मूर्खतापूर्ण गलतियाँ करबैठते हैं।ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका मन, उनकी मानसिकता संकीर्ण है, इसलिएहमें उन्हें माफ़ कर देना चाहिए।फिर आप देखिये शायद उन्हें कभी आपके जैसेकुछ बड़ा सोचने और करने का अवसर कभी नहीं मिला, इसलिए आपको उनके प्रतिकरुणा रखते हुए उन्हें क्षमा कर देनी चाहिए। आध्यात्मिकता
आध्यात्मिकता तब होती है जब आप अपने अस्तित्व सेवास्तव रूप में जुड़ जाते हैं ।जीवन में जब हम हमेशा केवल ऊपर ऊपर से सबसेव्यवहार करते हैं, और जब उस गहराई की कमी होती है तब जीवन बहुत नीरस औरबेकार सा लगने लगता है । हमें वास्तविकता, सच्चाई, और एक वास्तविक दिल सेदिल के रिश्ते के स्तर पर बढ़ना चाहिए, इस ही को मैं आध्यात्मिकता कहताहूँ ।
क्रोध हर समय क्रोध से मुक्त नहीं होना चाहिये। ज़रूरतपड़ने पर क्रोध को एक औज़ार की तरह प्रयोग करो। मैं ऐसा करने का प्रयत्नकरता था, पर बहुत सफल नहीं रहा। कभी कभी मैं अपना क्रोध दिखाने का प्रयत्नकरता हूं, पर इससे कोई फ़ायदा नहीं होता क्योंकि मुझे जल्दी ही हंसी आ जातीहै और बाकी सब लोग भी साथ में हंसने लगते हैं। लोग विश्वास ही नहीं करतेकि मैं गुस्सा हूं।पर, कभी कभी क्रोध अच्छा होता है। ख़ासतौर परजब दुनिया में भ्रष्टाचार है, अन्याय है, और हर तरह के लोग हैं जो हर तरहके ग़लत काम करते हैं और तुम्हारा फ़ायदा उठाते हैं। ऐसी स्थिति में येआवश्यक है कि तुम थोड़ा भंवों को चढ़ाओ, गुस्सा दिखाओ, ये अच्छा रहेगा।पर ये ख़्याल रखना कि तुम गुस्सा दिखाओ पर उसे अपने हृदय में मत उतारो, परेशान मत हो।
श्रद्धा
हम मोबाईल मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं ।अगरआप अंक दबाते रहें पर अंदर सिम कार्ड ना हो तो क्या कोई फायदा होगा? अगरसिम कार्ड है पर रेंज नहीं है तो क्या कुछ होगा? अगर रेंज भी है पर बैटरीनहीं है तो क्या कुछ होगा? साधना सिम कार्ड है, रेंज श्रद्धा है। अगर आपप्रार्थना करते हैं और आपको लगता है कि ईश्वर आपकी प्रार्थना नहीं सुन रहेतो आपके पास सिम कार्ड ही नहीं है। किसी प्रार्थना का असर नहीं होगा ऐसे में।सत्संग चार्ज की तरह है। मंदिर सोकेट की तरह हैं जहाँ बैटरी चार्ज होतीहै। अगर हम मंदिरमें ही झगड़ा करते हैं तो वो शुद्ध चेतना तो रह ही नहींजाती। वहाँ ईश्वर का वास कैसे होगा? जहाँ सब खुश होते हैं, वहाँ ईश्वरका वास होता है। जब मन खुश होता है तो हमारा भी काम होता है और हम मेंदूसरो को आशीर्वाद करने की क्षमता भी आती है। आत्मा में सब गुण निहित हैं।आत्म ज्ञान से यह सब गुण उजागर होते हैं। अगर आप लोगों कोआशीर्वाद करतेहैं, लोगों का शुभ चाहते हैं तो सब होने लगता है।
चेतना
चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में और अपने आप से औरअपने परिवेश से अपने संबंध को सुदृढ़ करने के लिये क्या करना चाहिये? येकुछ सक्षम सूत्र हैं - उप्युक्त भोजन : भोजन से हमारे मन परअसर पड़ता है। जैन परंपरा में मन पर भोजन के प्रभाव के विषय में बहुत शोधकिया है । आयुर्वेद, चीनी चिकित्सा पद्दति एवं विश्व की अन्य कई प्राचीनपरंपराओं में भोजन से होने वाले मन पर प्रभाव को पहचाना था। आधुनिक विज्ञानभी इस बात की पुष्टि करता है कि भोजन सेहमारी भावनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भावनात्म्क रूप से परेशान बच्चेअधिक भोजन लेते हैं और मोटापे के शिकार हो जाते हैं। एक संतुलित आहार काहमारी भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव होता है और इसका असर हमारी चेतना परहोता है। हल्का या मध्यम व्यायाम| पंचकर्म : आयुर्वेद कीप्राचीन चिकित्सा परंपरा में भीतरी सफ़ाई की एक प्रक्रिया है जिसे पंचकर्मकहते हैं। पंचकर्म में शामिल होती हैं - मालिश प्रक्रिया, निर्धारित भोजन, और शरीर की भीतरी सफ़ाई। इससे हज़ारों लोगों को तनाव से मुक्त होने में औरअपने व्यवहार में आये विकारों से मुक्त होने में सहायता मिली है। साथ ही, ये कई बीमारियों से छुटकारा दिलाता है। योग, ध्यान और प्राणायाम :योग, ध्यान और प्राणायाम। अपने शरीर और पर्यावरण को सम्मान की दृष्टि सेदेखने में ये बहुत सहायक हैं। ये अपने शरीर और पर्यावरण को प्रदूषण सेमुक्त रखने में सहायक होता है और भावनात्मक असंतुलन से भी मुक्त करता है। संगीत और नृत्य : इनसे शरीर और मन में तारतम्यता और समतुलना आती है।खासतौर पर उस संगीत से जो कि बहुत तेज़ और कोलाहलपूर्ण ना हो। शांतिदायकसंगीत हमारे मन और शरीर में एक स्पंदन पैदा करता है जो कि समतुलना लाता है, जैसे कि शास्त्रीय और लोक संगीत। प्रकृति : प्रकृति के साथ समय बिताना, मौन रहना, प्रार्थना करना..ये बहुत सहायक हैं अपने मन के साथ रहने में। और फिर सेवा। यह जीवन में संतुष्टि के लिए अनिवार्य है।
संस्कृत
यदि बच्चा संस्कृत पढ़ता है, वो कोई भी भाषाअच्छे से और जल्दी से सीख सकता है, और उसका दिमाग कंप्यूटर के लिए भी अधिकतीक्ष्ण हो जाता है। इंग्लैंड में इस विषय पर १५ साल की खोज हुई। भारत की IT के क्षेत्र में उन्नति का एक महत्वपूर्ण कारण पृष्ठभूमि में संस्कृतभाषा की नींव है। इस खोज के बाद लंदन के ३ महत्वपूर्ण स्कूलों में संस्कृतभाषा ज़रुरी कर दी गई है। और हमारे यहाँ संस्कृत भूले जा रहे हैं। आपरशियन,इटैलियन, जर्मन और अंग्रेज़ी भाषाको ही लेते हैं तो इसमें ५० प्रतिशत शब्द संस्कृत भाषा से हैं। तमिल भाषाके इलावा बाकी सब भारतीय भाषाओं में संस्कृत भाषा के अधिकतम अंश हैं। ’संस्कृत भाषा भारत की राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए’ - एक वोट की कमी के कारणयह बिल पार्लियामेंट में पास नहीं हो सका। हाल ही में TV में आया था किसबसे पहला हवाई जाहज भारत ने विश्व को दिया। यह इंग्लैंड के अखबार में भीआया था।
बुरी आदतें
बुरी आदतें सिर्फ़ तीन ही तरह से छूट सकती हैं: एक तो लालच से। अगर कोई तुमसे कहे कि तुम एक महीने धूम्रपान नहीं करोगे तोतुम्हें एक मिलियन डौलर मिलेंगे, तो तुम कहोगे, ‘एक महीने क्यों, मैं ३५दिनों तक धूम्रपान नहीं करूंगा। पांच दिन अधिक धूम्रपान नहीं करूंगा, किकहीं गिनती में कोई कमी ना रह जाये।’ लालच से तुम उन आदतों से छूट सकते होजो तुम्हें पसंद नहीं हैं। दूसरा उपाय है भय। अगर कोई कहे कि तुम्हें धूम्रपान करने से विभिन्न प्रकार के कैंसर हो जायेंगे, तब तुम धूम्रपान को हाथ भी नहीं लगाओगे। तीसरा उपाय है, जिससे तुम प्रेम करते हो उससे वादा करना। अगर तुम अपने प्रियजन से वादा करते हो तब भी तुम धूम्रपान छोड़ दोगे। मैं इस तीसरे उपाय के पक्ष में हूं।या फिर, अंततः तुम खुद ही जान जाओगे कि, ‘ओह! इस में बहुत तकलीफ़ है। मैंइस आदत को बरकरार रख कर दुख ही पा रहा हूं।’ तो, एक दिन जब तुम ये जानजाओगे तो वो आदत स्वतः छूट जायेगी।
प्रेम का प्रमाण
कभी भी एक दूसरे से प्रेम का प्रमाण मत मांगना।ये मत पूछना, ‘क्या तुम मुझे सचमुच प्रेम करते हो? तुम मुझे पहले जैसाप्रेम नहीं करते।’ अपने प्रेम को प्रमाणित करना बहुत बोझिल कार्य है। अगरकोई तुम से कहे कि अपने प्रेम को प्रमाणित करो तो तुम कहोगे, ‘हे भगवान!मैं इस व्यक्ति को कैसे बताऊं ?’ हर काम कुछ ख़ास अदाज़ में और मुस्कुरातेहुये करो।
विरोधाभास
किसी ऐसे एक फ़िल्म की कल्पना करो जिस में कोईविलेन ना हो। कल्पना करो कि केवल एक हीरो है, जो खाता है, सोता है, और बसयूं ही रहता है, कोई काम नहीं करता है। क्या तुम ऐसी फ़िल्म देखोगे? विरोधाभासी मूल्य एक दूसरे के पूरक होते हैं। कांटे और पंखुड़ियां, दोनो हीहैं। आप दोनों में से किसी को भी चुन सकते हैं।ईश्वर आपके भीतर हैं। कभी वे सोते हैं, कभी छुप जाते हैं, कभी जागृत होते हैं और कभी नाचते हैं। थोड़ीसाधना के बाद ईश्वर जागृत हो जाते हैं। तब वे चैतन्य होते हैं। अपने भीतर के देवी देवता को जगाओ!एक पत्थर, महसूस नहीं कर सकता है पर एक मनुष्य महसूस कर सकता है। अपनेभीतर के देवत्व को जगाना अति आवश्यक है। इीलिये भारत में सुबह कुछ स्तोत्रगाये जाते हैं, ‘हे ईश्वर, आप जागे और हमें आशीर्वाद दें!’ एक स्तर से येअजीब लगता है क्योंकि बच्चे को जगाना माता पिता का कार्य है, परंतु यहाँमनुष्य, ईश्वर के लिये गाते हैं कि जागो और सृष्टि को आशीर्वाद दो। इसविरोधाभास में अस्तित्व का गहरा रहस्य छुपा है।
क्रोध
क्रोध का जन्म उत्तमता के प्रति तुम्हारे प्रेमके कारण ही होता है। अपने जीवन में तृटियों के लिये स्थान रखो। उन सब बातोंकी एक सूची बनाओ जो तुम्हें खराब लगती हैं। फिर अपने आस पास के लोगों सेकहो कि वे उस सूची में लिखी सभी बातें करें! जब तुम क्रोधित हो जाओ तो उससंवेदना को महसूस करो। देखो तुम्हारे दांत कैसे भिंच जाते हैं। मन कैसा होजाता है। कुछ लंबी गहरी सांसे लो और देखो अगर पहले की संवेदना से कुछ फ़र्कहै। हालांकि क्रोध के मामले में मेरा अनुभव नहीं है, क्योंकि मुझे येसमस्या कभी नहीं हुई है। तो मेरी सलाह, अच्छी नहीं भी हो सकती है । तुम औरलोगों से पूछो। यहाँ कई ऐसे लोग हैं जो तुम्हें बता सकते हैं। सुदर्शनक्रिया के नियमित अभ्यास से क्रोध शांत पड़ जाता है।
बंधन
मानव जीवन में बंधन का अर्थ है जो बांधता है, औररक्षा का अर्थ है बचाना। एक ऐसा बंधन जो आपकी रक्षा करता है – ज्ञान केसाथ बंधना, गुरु के साथ बंधना, सत्य के साथ बंधना, आत्मा के साथ बंधना – येसब आपकी रक्षा करते हैं। एक रस्सी का उपयोग आपको बचाने के लिये भी हो सकताहै और आपका गला घोटने के लिये भी हो सकता है। आपका छोटा मन और सांसारिकताआपका गला घोट सकते हैं। आपका बृहद मन और ज्ञान आपकी रक्षा करते हैं। इसबंधन से आप बंधते हैं सत्संग से, गुरु से, सत्य से, ऋषियों के प्राचीनज्ञान से, और वही आपका रक्षक है। जीवन में ऐसा बंधन आवश्यक है। उस बंधन कोदिव्य बनाइये जिससे कि जीवन बंधन से मुक्त हो।
सत्संग
ऐसे महापुरुषों के सत्संग में आदरपूर्वक जावें ।दर्शक बनकर नहीं याचक बनकर, एक नन्हें-मुन्ने निर्दोष बालक बनकर जो उन्नतकिस्म के भगवदभक्त हैं अथवा ईश्वर के आनंद में रमण करने वाले तत्त्ववेत्तासंत हैं, तो साधक के दिल का खजाना भरता रहता है। सो संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की। बिन खेती के बाड़ किस काम की ? वे नूर बेनूर भले जिनमें पिया की प्यास नहीं।। जिनमें यार की खुमारी नहीं, ब्रह्मानंद की मस्तीनहीं, वे नूर बेनूर होते तो कोई हरकत नहीं। प्रसिद्धि होने पर साधक केइर्दगिर्द लोगों की भीड़ बढ़ेगी, जगत का संग लगेगा, परिग्रह बढ़ेगा और साधनलुट जायेगा। अतः अपने-आपको साधक बतलाकर प्रसिद्ध न करो, पुजवाने और मान कीचाह भूलकर भी न करो। जिस साधक में यह चाह पैदा हो जाती है, वह कुछ हीदिनों में भगवत्प्राप्ति का साधक न रहकर मान भोग का साधक बन जाता है। अतःलोकैषणा का विष के समान त्याग करना चाहिए।
सुख-दुःख
इस जगत में सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक आदिद्वन्द्व शरीर के धर्म हैं। जब तक शरीर है, तब तक ये आते जाते रहेंगे, कभीकम तो कभी अधिक होते रहेंगे। उनके आने पर तुम व्याकुल मत होना। तुम पूर्णआत्मा हो, अविनाशी हो और सुख-दुःख आने जाने वाले हैं। वे भला तुम्हें कैसेचलायमान कर सकते हैं ? उनका तो अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। वस्तुतः, वेतो तुम्हारे अस्तित्व का आधार लेकर प्रतीत होते हैं। तुम उनसे भिन्न होऔर उन्हें प्रकाशित करने वाले हो। अतः उन्हें देखते रहो, सहन करो औरगुजरने दो। सर्वदा आनंद में रहो एवं शांतमना होकर रहो, सहन करो और गुजरनेदो। सुख-दुःख देने वाले कोई पदार्थ नहीं होते हैं वरन् तुम्हारे मन के भावही सुख-दुःख पैदा करते हैं। इस विचार को सत् वस्तु में लगाकर अपने-आपमेंमग्न रहो और सदैव प्रसन्नचित्त रहो। उद्यम न त्यागो। प्रारब्ध पर भरोसाकरना कमजोरी का लक्षण है।
माता, पिता एवं गुरू मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। हर संतान माता, पिता एवं गुरू को ईश्वर के समान पूजनीय समझे। उनके प्रतिअपने कर्त्तव्य का पालन अवश्य करो, जो कर्त्तव्यपालन ठीक से करता है वहीश्रेष्ठ है। माता, पिता एवं सच्चे सदगुरू की सेवा बड़े-में-बड़ा धर्म है।गरीबों की यथासम्भव सहायता करो। रास्ते से भटके हुए लोगों को सन्मार्ग कीओर चलने की प्रेरणा दो परंतु यह सब करने के साथ उस ईश्वर को भी सदैव यादकरते रहो जो हम सभी का सर्जनहार,पालनहार एवं तारणहार है। उसके स्मरण से हीसच्ची शांति, समृद्धि तथा सच्चा सुख प्राप्त होगा।
आप सभी के अंतर्मन में स्थापित ब्रह्मस्वरूप को प्रणाम करते हुए वेदांत - दर्शन (ब्रह्मसूत्र ) का पहला अध्याय शुभारंभ किया जा रहा है ।
॥ एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः। रूद्र आप सब का कल्याण करें ॥
परमात्मा कौन है ?
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव |त्वमेव माता च पिता त्वमेव | त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव | त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव | त्वमेव सर्वं मम देवदेव || मुकं करोति वाचलं पंगुं लंघयते गिरिम l यत्कृपा तमहं वन्दे परमानंदमाधवं ll
अर्थात ~ हे परमात्मा तू ही माता है, पिता भी तू ही है, तू ही भाई, तू ही सखा (सहायक) है तू ही ज्ञान तथा तू ही धन है हे देवों के देव । मेरे लिए सभी कुछ तू ही है । हे माधव यदि आपकि कृपा हो तो गुँगे भी बोल सकते है पंगु पर्वत लांघ सकते है हे परमानन्द आपको मेरा नमन है । तो ऐसे हैं हमारे परमात्मा उनको बारम्बार नमन ।
आइये इस परमात्मा के खोज में शुरू करते है ब्रह्म सूत्र के प्रथम पाद से :-
॥१.१.१.॥ अथातो ब्रह्मजिज्ञासा॥
अथ = अब , अतः = यहाँ से , ब्रह्मजिज्ञासा = ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ किया जाता है ।
इस सूत्र में ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ करने की बात कहकर यह सूचित किया गया है की ब्रह्म कौन है ? इसका स्वरुप क्या है ? वेदांत में उसका वर्णन किस प्रकार हुआ है ? इत्यादि सभी ब्रह्मविषयक बातों का विवेचन किया जाना है । ॥ १.१.२ ॥ जन्माद्यस्य यतः ॥ जन्मादि = जन्म आदि (उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय ) , अस्य = इस जगत के , यतः = जिससे होते हैं , वह ब्रह्म है ।
इस पद की सामान्य व्याख्या यह है की जो जड़ - चेतनात्मक जगत सर्वसाधारण के देखने , सुनने और अनुभव में आ रहा है , जिसकी अद्भुत रचना के किसी एक अंश पर भी विचार करने से बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित होना पड़ता है , इस विचित्र विश्व के जन्म आदि जिससे होते हैं अर्थात जो सर्वशक्तिमान परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्ति से इस सम्पूर्ण जगत की रचना कर्ता है तथा इसका धारण पोषण तथा नियमित रूप से संचालन कर्ता है एवं फिर प्रलयकाल आने पर जो इस समस्त विश्व को अपने में विलीन कर लेता है , वह परमात्मा ही ब्रह्म है ।
श्रीमद भागवत में भी यही कहा गया है-
|| परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ||
अर्थात इस परमेश्वरी की ज्ञान , बल और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है । ॥ १.१.३ ॥ शास्त्रयोनित्वात ॥
अर्थात ~ शास्त्र (वेद) के योनि-कारण अर्थात प्रमाण होने से ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध होता है एवं शास्त्र में उस ब्रह्म को जगत का कारण बताया ,इसलिए (इसको जगत का कारन मानना उचित है )। वेद में जिस प्रकार ब्रह्म के सत्य , ज्ञान और "अनंत सत्यं ज्ञान्मनतम ब्रह्म "(तै.उ.) और आदि लक्षण बताये गए हैं , उसी प्रकार उसको जगत का कारण भी बताया गया है ।
"एष योनिः सर्वस्य " (मा. उ.) ~ यह परमात्मा सम्पूर्ण जगत का कारण है ।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति । (तै.उ.) ये सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी निससे उत्पन्न होते हैं , उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अंत में प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं , उसको जानने की इच्छा कर , वही ब्रह्म है ।
प्रभु श्रीकृष्ण जब अर्जुन को विराट रूप के बारे में जानकारी देते हैं तो अर्जुन भी कहते हैं "नमः पुरस्तादतथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व । अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः । (गीता)" हे अनंत सामर्थ्यों वाले। आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार है। हे सर्वात्मन। आपके लिए सब और से ही नमस्कार हो । क्योँकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किये हुए हैं , इससे आप ही सर्वरूप हैं अर्थात सब कुछ आप ही हैं । ॥ १.१.४॥ इक्षातेर्नारशब्दम ॥
ईक्षते = श्रुति में ईक्ष (संभावना करना या कल्पना करना ) शब्द का प्रयोग होने के कारण , अशब्दम = शब्द प्रमाण शून्य प्रधान ( त्रिगुणात्मक जड़ प्रकृत्ति ) , न = जगत का कारण नहीं । उपनिषद में जहाँ सृष्टि का प्रसंग आया है वहां ईक्ष धातु की क्रिया का प्रयोग हुआ है , जैसे सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं ब्रह्म – तत् सत्यं – स आत्मा – तत्वमसि। (सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयावस्था में भी यह जगत् अपने कारण में विद्यमान था। असद्वा इदमग्र आसीत्- सृष्टि के पूर्व ये सब लोक-लोकान्तर अदृश्य-से, असत्-से थे। आत्मैवेदमग्र आसीत्- सृष्टि से पूर्व प्रलयावस्था में भी आत्मा थे ही। ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्- इन आत्माओं को कर्मानुसार फल देनें के लिए, सृष्टि का निर्माण करनेवाले ब्रह्म तो अनादि काल से हैं ही... छा.उ.६.२.१) इस प्रकार प्रकरण आरंभ करके तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति (छान्दोग्य उप0 , ६.२.३ ) " तदैक्षत " यह विचारणीय प्रश्न है कि जगत् का मूल तत्त्व जड़ है अथवा चेतन ? नैयायिक और वैशेषिक जड़ परमाणुओं से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं । सांख्य मत में जड़ प्रधान सृष्टि का कृर्त्तृकारण है । अपितु वेदान्त चेतन ब्रह्म को जगत् का मूल कारण मानता है और कहता है की - उस सत ने ईक्षण `संकल्प किया की मैं बहुत हो जाऊं ,अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊं `। इसी प्रकार दूसरी जगह भी ' आत्मा वा इदमेकमेवाग्र आसीत ' इस प्रकार आरम्भ करके ' स इक्षत लोकान्नु सृजै ' (ऐ.उ.१.१.१) अर्थात उसने ईक्षण - विचार किया की निश्चय ही मैं लोकों की रचना करूँ । ईश्वरीय मन के एक विचार ने ही सृष्टि की रचना की। संभवतः अंत में इसी मन की इच्छा से सृष्टि समाप्त भी होगी। ब्रह्माण्ड का शाब्दिक अर्थ एक विशाल अंड(गोला) ही है, महाभारत के प्रथम अध्याय में इसके बारे वृहत विवेचना की गयी है और कहा है की इसी अंड से सब कुछ उत्पन्न हुआ है-मूर्त अथवा अमूर्त। तथा यह विचार वैज्ञानिक अवधारणा से भी मेल खाता है जिसके अनुसार सारा द्रव्य एक बिंदु पे संकेंद्रित था। परन्तु त्रिगुणात्मिका प्रकृति जड़ है , इसमें ईक्षण या संकल्प नहीं बन सकता ; क्योंकि वह (ईक्षण) चेतन का धर्म है , अतः शब्द प्रमाणरहित प्रधान (जड़ प्रकृत्ति ) को जगत का उत्पादन कारण नहीं माना जा सकता । ॥ १.१.६॥ गौणश्चेन्नात्मशब्दात ॥
चेत = यदि कहो ; गौण = ईक्षण का प्रयोग गौण वृत्ति से (प्रकृत्ति के लिए )हुआ है , न = तो यह ठीक नहीं है ; आत्मशब्दात = क्योंकि वहां आत्मा शब्द का प्रयोग है ।
व्याख्या -- ऊपर उद्धरित की हुई ऐतेरेय की श्रुति में ईक्षण का कर्ता आत्मा को बताया गया है ; अतः गौण - वृत्ति से भी उसका सम्बन्ध प्रकृत्ति के साथ नहीं हो सकता । इसलिए प्रकृत्ति को जगत का कारन मानना वेड के अनुकूल नहीं है । आत्मा शब्द का प्रयोग तो मन , इन्द्रिय और शारीर के लिए भी आता है ; अतः उक्त श्रुति में आत्मा को गौणरूप से प्रकृति का वाचक मानकर उसे जगत का कारन मान लिया जय तो क्या आपत्ति है ? ॥ १.१.७॥ तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात ॥
तन्निष्ठस्य= उस जगत्कारण (परमात्मा) में स्थित होनेवाली की ; मोक्षोपदेशात = मुक्ति बतलायी गयी है ; इसलिए (वहां प्रकृति को जगत्कारण नहीं माना जा सकता ।
तैत्तिरीयोपनिषद की दूसरी वल्ली के सातवें अनुवाक में जो सृष्टि का प्रकरण आया है , वहां स्पष्ट कहा गया है की -
यह जीवात्मा जब उस देखने में न आने वाले , अहंकार रहित , न बतलाये जाने वाले , स्थान रहित आनंदमय परमात्मा में निर्भय निष्ठां करता है - अविचल भाव से स्थित होता है , तब यह अभय पद को पा लेता है ।
इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद में भी श्वेतकेतु के प्रति उसके पिता ने उस परम कारण में स्थित होने का फल मोक्ष बताया है ; किन्तु प्रकृति में स्थित होने से मोक्ष होना कदापि संभव नहीं है, अतः उपर्युक्त श्रुतियों में आत्मा शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है, इसलिए प्रकृति को जगत का कारण नहीं माना जा सकता । ॥ १.१.८॥ हेयत्वावचनाच्च ॥
हेयत्वावचनात=त्यागने योग्य नहीं बताये जाने के कारण ; च=भी (उस प्रसंज्ञ में आत्मा शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है ) आत्म नहीं त्याज्य पर जगत निमित परब्रह्म। कर निष्ठा आत्म – परमात्म बिन श्रम पा परब्रह्म ।।
अर्थात ~ यदि आत्मा शब्द वहां गौणवृत्ति से प्रकृति का वाचक होता तो आगे चलकर उसे त्यागने के लिए कहा जाता और मुख्या आत्मा में निष्ठां करने का उपदेश दिया जाता ; किन्तु ऐसा कोई वचन उपलब्ध नहीं होता है । जिसको जगत का कारण बताया गया है , उसी में निष्ठां करने का उपदेश दिया गया है ; अतः परब्रह्म परमात्मा ही आत्मा शब्द का वाच्य है और वही इस जगत का निमित्त एवं उपादान कारण है । ॥१.१.९॥ स्वाप्ययात ॥
स्वाप्ययात = अपने में विलीन होना बताया गया है ; इसलिए ( सत- शब्द भी जड़ प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता )
अर्थात ~ छान्द्ग्योपनिषद में कहा गया है की ' यत्रैतत पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनं स्वपितित्याचक्षते' (६। ८।१ )इस का अर्थ यह है की - हे सौम्य ! जिस अवस्था में यह पुरुष ( जीवात्मा ) सोता है , उस समय यह सत (अपने कारण ) से संपन्न (संयुक्त ) होता है ; स्व -अपने में ,अपित-विलीन होता है , इसलिए इसे 'स्वपिति' कहते हैं । यहाँ स्व (अपने) में विलीन होना कहा गया है ; अतः यह संदेह हो सकता है की स्व जीवात्मा का वाचक है , इसलिए वही जगत का कारण है , परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है , क्योंकि पहले जीवात्मा का सत( जगत के कारण ) से संयुक्त होना बताकर उसी सत को पुनः स्व नाम से कहा गया है और उसी में जीवात्मा के विलीन होने की बात कही गयी है । विलीन होने वाली वस्तु से लय का अधिष्ठान भिन्न होता है ; अतः यहाँ लीन होने वाली वस्तु जीवात्मा है और जिसमें वह लीन होता है वह परमात्मा है । इसलिए यहाँ परमत्मा को ही सत के नाम से जगत का कारण बताया गया है , एवं यही मानना ठीक है ।
॥१.१.१०॥ गतिसामान्यात ॥ गतिसामान्यात=सभी उपनिषद वाक्यों का प्रवाह सामान रूप से चेतन को ही जगत का कारण बताने में है , इसलिए (जड़ प्रकृति को जगत का कारण नहीं माना जा सकता ) । अर्थात ~ 'तस्माद वा एतस्मादात्मनः आकाशः संभूतः' (तै.उ. २/१) 'निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्द इस परमात्मा से आकाश उत्पन्न हुआ है । ' आत्मत एवेदं सर्वम (छा . उ. ७/२६/१) - परमात्मा से ही यह सब कुछ उत्पन्न हुआ है । ' आत्मन एष प्राणों जायते ' (प्र. उ. 3/3 ) - परमात्मा से यह प्राण उत्पन्न होता है । 'एतास्माज्जायते प्राणों मनः सर्वेन्द्रियाणि च ; खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।'(मु. उ. २/१/३) - इस परमेश्वर से प्राण उत्पन्न होता है ; तथा मन (अन्तःकरण) ,समस्त इन्द्रियां आकाश ,वायु, तेज, जल और सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करने वाली पृथिवी ,ये सब उत्पन्न होते है । इस प्रकार सभी उपनिषद वाक्यों में सामान रूप से चेतन परमात्मा को ही जगत का कारण बताया गया है ; इस लिए जड़ प्रकृति को जगत का कारण नहीं माना जा सकता ।
॥ १.१.११ ॥ श्रुतत्वाच्च ॥
श्रुतत्वात = श्रुतियों द्वारा जगह - जगह यही बात कही गयी है , इसलिए ; च = भी (परब्रह्म परमेश्वर ही जगत का कारण सिद्ध होता है ) ।
अर्थात ~ 'स कारणं कारणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः । (श्वेता . ६।९ ) - वह परमात्मा सबका परम कारण तथा समस्त कारणों के अधिष्ठ्ताओं का भी अधिपति है । कोई भी न तो इसका जनक है और न स्वामी ही है । ' स विश्वकृत (श्वेता . ६।१६ )- वह परमात्मा समस्त विश्व का सृष्टा है । 'अतः समुद्रा गिरयाश्च सर्वे (मु . उ. २।१।९ ) - इस परमेश्वर से समस्त समुद्र और पर्वत उत्पन्न हुए हैं । इत्यादि रूप से उपनिषदों में स्थान -स्थान पर यही बात कही गयी है की सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञ , परब्रह्म परमेश्वर ही जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है ; जड़ प्रकृति नहीं । स्वाप्ययात १.१.९ सूत्र में जीवात्मा के स्व ( परमात्मा ) में विलीन होने की बात कहकर यह सिद्ध किया गया की जड़ प्रकृति जगत का कारण नहीं है । किन्तु स्व शब्द प्रत्येक चेतन ( जीवात्मा ) के अर्थ में भी प्रसिद्द है ; अतः यह सिद्ध करने के लिए प्रत्येकचेतन (जीवात्मा ) भी जगत का कारण नहीं है , आगे प्रकरण आरंभ किया जाता है । तैत्तिरीयोपनिषद की ब्रह्मानन्दवल्ली में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए सर्वात्म स्वरुप परब्रह्म परमेश्वर से ही आकाश आदि के क्रम से सृष्टि बताई गयी है ( अनु.१ ,६,७ ) । उसी प्रसंग में अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय और आनंदमय इन पञ्च पुरुषों का वर्णन आया है । वहां क्रमशः अन्नमय का प्राणमय को , प्राणमय का मनोमय को , मनोमय को विज्ञानमय को और विज्ञानमय को आनंदमय का अंतरात्मा बताया गया है । आनंदमय का अंतरात्मा किसी को नहीं बताया गया है ; अपितु उसी से जगत की उत्पत्ति का कारण बताकर आनंद की महिमा का वर्णन करते हुए सर्वात्मा आनंदमय को जानने का फल उसी को प्राप्ति बताया गया और ब्रह्मानन्दवल्ली को समाप्त कर दिया गया है । यहाँ यह प्रश्न उठता है की इस प्रकरण में आनंदमय नाम से किसका वर्णन हुआ है - परमेश्वर का ? जीवात्मा का ? अथवा अन्य किसी का ? इस पर कहते हैं -
॥ १.१.१२॥ आनदमयोऽभ्यासात ॥
आनन्दमयः = आनंदमय शब्द ( यहाँ परब्रह्म परमेश्वर का ही वाचक है ) ; अभ्यासात् = श्रुति में बारंबार 'आनद' शब्द का ब्रह्म के लिए प्रयोग होने के कारण।
अर्थात ~ किसी बात को दृढ़ करने के लिए बारंबार दुहराने को अभ्यास कहते हैं । तैत्तिरीय तथा बृहदारण्यक आदि अनेकों उपनिषद में आनंद शब्द का ब्रह्म के अर्थ में बारम्बार प्रयोग हुआ है ; जैसे तैत्तिरीय उपनिषद की ब्रह्मवल्ली के छठे अनुवाक में बारम्बार आनंदमय शब्द का वर्णन करके सातवें अनुवाक में उसके लिए 'रसो वै सः । रसँह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । को ह्योवान्यात कः प्राण्याद यदेष आकाश आनंदों न स्यात । एष ह्योवानन्दयाती । (२। ७ ) अर्थात 'वह आनंदमय ही रसस्वरुप है , यह जीवात्मा इस रस स्वरुप परमात्मा को पाकर आनंदयुक्त हो जाता है । यदि वह आकाश की भांति परिपूर्ण आनंदस्वरूप परमात्मा नहीं होता तो कौन जीवित रह सकता , कौन प्राणों की क्रिया कर सकता है? सचमुच यह परमात्मा ही सबको आनंद प्रदान करता है ।' ऐसा कहा गया है तथा 'सैषाऽऽनन्दस्य मिमाँसा भवति ',एत्मानान्दमयमात्मानमुपसंक्रामती' । (तै॰ उ॰ २। ८ ) 'आनंदम ब्राह्मणों विद्वान न बिभेति कुतश्चन ' (तै॰ उ॰ २।९ ) 'आनंदों ब्रह्मेति व्यजानात '(तै॰ उ॰ ३।६ ) 'विज्ञानमानन्दनं ब्रह्म ' (बृह॰ उ॰ 3। ९ । २८) - इत्यादि प्रकार से श्रुतियों में जगह-जगह परब्रह्म के अर्थ में 'आनंद' एवं 'आनंदमय' शब्द का प्रयोग हुआ है । इसलिए 'आनंदमय' नाम से यहाँ उस सर्वशक्तिमान , समस्त जगत के परम कारण , सर्वनियंता, सर्वव्यापी , सबके आत्मस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर का ही वर्णन है , अन्य किसी का नहीं। यहाँ यह शंका होती है की ' आनंदमय ' शब्द में जो मयट् प्रत्यय है वह विकार अर्थ का बोधक है और परब्रह्म परमात्मा निर्विकार है । अतः जिस प्रकार अन्नमय आदि शब्द ब्रह्म के वाचक नहीं है , वैसे ही , उन्हीं के साथ आया हुआ यह शब्द 'आनंदमय' शब्द भी परब्रह्म का वाचक नहीं होना चाहिए । इस पर कहते हैं -
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अनमोल वचन
मनीषा देह दुर्लभ, मिलिहो न बारम्बार! तरुवर ते फल झारी पड़ा, बहुरि न लगे डार!! प्रभु को पाने की अभिपषा अर्थात प्यास वैसे तो यू ही करोडो में से किसी एक को ही जगती है, शौभाग्य शाली है वह आत्मा जिसमे यह प्यास जगी. लेकिन भगवान् का भी आज व्यापारीकरण कर दिया गया है ! हालाकि संतो, ऋषियो और महात्माओ ने कलियुग को प्रभु की भक्ति का द्सबसे उत्तम समय बताया है! गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है;- कलियुग केवल नाम अधारा! सुमत -सुमत नर उतरेही पारा!! जन्म- मरण के भाव सागर से पार होने के लिए कलियुग में भक्ति , प्रार्थना, योग एवं ध्यान साधना का मार्ग सुगम होगा! एक तो कलियुग में इन्सान प्रभु की अपेक्षा धन एवं ऐश्वर्य की तरफ दोड रहा है दूसरे इसके बिलकुल विपरीत आज के कलियुग में तमाम लोभी-लालची लोगो ने भी गुरु या संतो का वेश धारण कर भक्ति को व्यापर बना दिया है ! यह मानवता के लिए और मानव जाति के लिए दुःख की बात है, क्योकि जिस गुरु को मोह, लोभ और मद आदि को छोड़कर प्रभु भक्ति में लीन होने की शिक्षा मानव को देनी चाहिए वही गुरु लालच के वशीभूत होकर अनेक पर्लोभन भी शिष्यों को जकड़े हुए है! किसी को भी यह ख्याल तक नहीं आता की भक्ति गुरु तक ही ख़त्म नहीं करनी है अपितु भक्ति के माध्यम से परमात्मा को जानना और पाना भी है! जिसे देखो गुरु बनकर शिष्यों को पकडे बैठा है, कि किसी दूसरे के पास जाकर ज्ञान न शीख ले! जैसे मनुष्य आज मनुष्य न होकर एक ग्राहक मात्र बनकर रह गया है, कि दूसरे के पास गया और उनकी दुकानदारी प्रभावित हो जाएगी यही चिंता है आज के गुरुओ को? जबकि ये आधुनिक गुरु लोभ के कारण स्वयं के लिए नरक को तैयार कर रहे है!मै इस फेस बुक और ट्रस्ट के माध्यम से सभी प्रभु के प्यासों को सरोबर का मार्ग दिखने का प्रयत्न कर रह हू! क्योकि भक्ति है;- भक्ति के इस मंदिर में जो गया वो न तन लेकर लौटा और ना मन ही लेकर लौटा! भक्ति मार्ग में तन- मन सोपे बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता, लेकिन क्योकि पुरुष का ह्रदय कठोर होता है इसीलिए पुरुष प्रुरी तरह समर्पण नहीं कर पाता जिस कारण वह अपने अहंकार अर्थात मै का विसर्जन नहीं कर पाता जबकि नारी स्वभाव से ही प्रेम क़ी मूर्ति अर्थात कोमल ह्रदय क़ी स्वामिनी होती है, प्रकृति ने भी नारी को कोमल बनाया है अतः प्रेमअग्नि मोमबत्ती क़ी तरह पिघल जाती है! इसीलिए भक्ति के क्षेत्र में नारी हमेशा पुरुषो से आगे निकल जाती है ! नारी जब प्रेम करती है तो समग्रता के साथ करती है, लेकिन यदि नारी का प्रेम सम्पूर्ण से ना हो तो समझ लेना क़ि उसने प्रेम ही नहीं किया! यह आग का दरिया है, यहाँ डूब कर जाना है ! प्रेम गीतों को अक्सर लोग गाते है और गुनगुनाते भी है , लेकिन विरले ही प्रेम के अर्थो को जान पाते है? कोई एक होता है जो गुरु या परमेश्वर क़ी कृपा से अश्रु- सरोवर में गहरे तक डूबकर स्नान कर पाता है! संतो के सामान उनका जीवन भी एक काव्य क़ी तरह बन जाता है! प्रेम ही जिनका ओढना होता है और प्रेम ही उनका बिछौना होता है ! उनका समस्त आस्तित्व प्रेम क़ी एक पुकार होता है! ह्रदय के उस अंतपुर क़ी झाकी को जहा से प्रभु को देखा जाता है उसे वही कोई एक विरला करोडो में कोई एक ही देख पाता है! जिस पर गुरु क़ी कृपा हो गयी हो और जिसने समस्त के लिए स्वयं का समर्पण कर दिया हो! गुरु को तुम्हारा धन नहीं चाहिए और ना ही गुरु को तुम्हारी प्रतिष्ठा या पद से कोई सरोबर है! तुम कहते तो हो क़ि प्रभु मेरी नैया को भवसागर से पार लगाना लेकिन स्वयं नाव बनने के लिए तैयार नहीं हो? नाव को बनाने के लिए पहले पेड़ को स्वयं जड़ो से कट-कर अलग होना होगा फिर उसमे से छोटे-छोटे तख्ते काटे जायेंगे जिसके बाद अर्थात अंत में उसमे कीले ठोकी जाएँगी जो तख्तो को एक दुसरे से मजबूती से जोड़ेंगी! यह पेड़ के रूप में तुम स्वयं हो, तख़्त के रूप में तुम्हे अपने अन्दर से काम. क्रोध. मोह. लोभ. लालच आदि विकारो को समझ सकते हो! यह तन विष क़ी बेलरी, गुरु अमृत क़ी खान ! शीश दिए जो सतगुरु मिले, तो भी सस्ता जान!! जब तक तुम्हे परमात्मा ना मिले, तब तक तुम अकेले हो- अकेले हो और बस अकेले हो! खुद को कितना भी क्यों ना बहका लो, कितनी भी झूठी तसल्ली क्यों ना खुद को दो और दूसरो को भी दे दो, कितना ही क्यों ना सत्य भुलाने का प्रयत्न करो, मगर हर झूठ के पीछे सत्य खड़ा है क़ि तुम अकेले हो! दो- चार दिन सपने से खुश भले ही हो जाओ, कुछ समय के लिए अपनी आँखों को तृप्ति दे तो सकते हो, लेकिन झूठी तसल्ली के अतिरिक्त कुछ भी अंतिम परिणाम हाथ में नहीं आएगा?जो साथी तुमने जन्म के बाद बनाये है वे सब छुट जायेंगे, और कोई ना छुड़ा सकेगा तो मृत्यु साथ छुड़ा देगी! मृत्यु के बाद सभी को तुमसे छुट ही जाना है, तुमसे उम्हरे सभी साथी तब छुटेंगे जब तुम्हे साथी क़ी जरुरत होगी, तुम कहते हो क़ि मित्र वही है जो बुरे वक्त में काम आये. बिलकुल सही है लेकिन क्या मृत्यु से बड़ा भी कोई बुरा वक्त तुम्हारे जीवन में होगा? लेकिन मृत्यु के वक्त कोई काम नहीं आएगा? ना तुम्हारे द्वारा पढ़ी गयी पुस्तके, ना गाए गए गीत और ना मांग के लिए क़ी गयी पूजा. जिसे करके तुमने धार्मिक होने का अहंकार पाल लिया! सब तुम्हे विदा दे देंगे? चिता में चढोगे तो अकेले, कब्र में उतरोगे तो भी अकेले ही ! उस अनंत अंधकार में- जिसका नाम मृत्यु है- कोई ना तुम्हारे साथ जायेगा तथा कोई हाथ बढाकर तुम्हारे सांत्वना देने के लिए भी नहीं कहेगा ( भले ही सारे जीवन भर तुम उनके लिए लोगो ले गले काटते रहे. तरह -तरह से पाप कमाते रहे. चाह अपराध करके कमाते रहे जीव हत्या करीने से भी नहीं चुके. यह भी नहीं सोचा क़ी यह जीव भी उसी परमात्मा का बनाया हुआ है जीने तुम्हे बनाया था? या अन्य तरीको से लोगो को सताया) क़ि रुको मै भी तुम्हारे साथ मृत्यु लोक में चलता हू! ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,(स्वामी सरस्वती)
▼ अभिमान न करे * प्रयत्न न करने पर भी विद्वान लोग जिसे आदर दें, वही सम्मानित है । इसलिए दूसरों से सम्मान पाकर अभिमान न करे । * शांति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें तथा संतोष से लाभ को जीतें । * तीन चीजों पर अभिमान मत करो – ताकत, सुन्दरता, यौवन । * अपनी बुद्धि का अभिमान ही शास्त्रों की, सन्तों की बातों को अन्त: करण में टिकने नहीं देता । * अच्छाई का अभिमान बुराई की जड़ है । * आप अपनी अच्छाई का जितना अभिमान करोगे, उतनी ही बुराई पैदा होगी। इसलिए अच्छे बनो, पर अच्छाई का अभिमान मत करो । * स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता आती है । * वर्ण, आश्रम आदि की जो विशेषता है, वह दूसरों की सेवा करने के लिए है, अभिमान करने के लिए नहीं । * ज्ञान मुक्त करता है, पर ज्ञान का अभिमान नरकों में ले जाता है । * जरा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को हरता है पर अभिमान सब को हरता है । * अभिमान नरक का मूल है । * कोयल दिव्य आमरस पीकर भी अभिमान नहीं करती, लेकिन मेढक कीचड़ का पानी पीकर भी टर्राने लगता है । * कबीरा जरब न कीजिये कबुहूँ न हासिये कोए अबहूँ नाव समुद्र में का जाने का होए । * समस्त महान ग़लतियों की तह में अभिमान ही होता है । * किसी भी हालत में अपनी शक्ति पर अभिमान मत कर, यह बहुरुपिया आसमान हर घडी हजारों रंग बदलता है । * जिसे होश है वह कभी घमंड नहीं करता । * अभिमान नरक का द्वार है । * अभिमान जब नम्रता का मुखौटा पहन लेता है, तब ज़्यादा ही घृणास्पद होता है । * बड़े लोगों के अभिमान से छोटे लोगों की श्रद्धा बड़ा कार्य कर जाती है । * जिसे खुद का अभिमान नहीं, रूप का अभिमान नहीं, लाभ का अभिमान नहीं, ज्ञान का अभिमान नहीं, जो सर्व प्रकार के अभिमान को छोड़ चुका है, वही संत है । * सभी महान भूलों की नींव में अहंकार ही होता है । * नियम के बिना और अभिमान के साथ किया गया तप व्यर्थ ही होता है । * यदि कोई हमारा एक बार अपमान करे,हम दुबारा उसकी शरण में नहीं जाते । और यह मान (ईगो) प्रलोभन हमारा बार बार अपमान करवाता है । हम अभिमान का आश्रय त्याग क्यों नहीं देते ? * जिस त्याग से अभिमान उत्पन्न होता है, वह त्याग नहीं, त्याग से शांति मिलनी चाहिए, अंतत: अभिमान का त्याग ही सच्चा त्याग है । * लोभी को धन से, अभिमानी को विनम्रता से, मूर्ख को मनोरथ पूरा कर के, और पंडित को सच बोलकर वश में किया जाता है । * ज्यों-ज्यों अभिमान कम होता है, कीर्ति बढ़ती है । * जो पाप में पड़ता है, वह मनुष्य है, जो उसमें पड़ने पर दुखी होता है, वह साधु है और जो उस पर अभिमान करता है, वह शैतान होता है । * अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है । * जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है । * उद्धार वही कर सकते हैं जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने नहीं देते । * कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं । * शंति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें और संतोष से लाभ को जीतें । * उद्धार वही कर सकते हैं जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने नहीं देते । * जिसमें न दंभ है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वार्थ है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशांत है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है । * जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है ।  3 comments:  अशोकानंद भरद्वाजOctober 2, 2012 at 9:45 AM हमारे पाँच विकारों में 'काम', 'क्रोध', 'लोभ', 'मोह' और 'अहंकार' को गिना जाता है । इनमें अंतिम विकार अहंकार है, जिसे 'अभिमान' भी कहते हैं । किसी व्यक्ति के पास जब कोई विशेष पदार्थ अथवा गुण आ जाए तो वह अपने आप को सबसे श्रेष्ठ समझने लगता है । इसे अभिमान कहते हैं । अहंकार मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है । अहंकार के कई कारण होते हैं जैसे राजनीतिक सत्ता, संपत्ति, पदवी, ज्ञान, शिक्षा, सामाजिक प्रतिष्ठा, शारीरिक बल, सौंदर्य आदि । हमारा अहंकार और अभिमान ही हमें ईश्वर से दूर किए रहता है, जिसे हम भौतिकता कहते हैं । इसी के कारण जीव अपने को ईश्वर से अलग महसूस करता है, जबकि वास्तविक रूप में वह अलग नहीं होता । इस ब्रह्मा रूपी नदी में हमें तो बहते चले जाना है। हम एक क्षण के लिए बुलबुला बन जाते हैं, फिर जिस प्रकार बुलबुला फटकर नदी में ही विलीन हो जाता है उसी प्रकार हम भी वापस इसी सृष्टि में विलीन हो जाते हैं। यदि हम किसी बहती नदी से एक कमंडल पानी निकालते हैं और कमंडल के जल को यह अभिमान हो जाए कि अब उसका अलग अस्तित्व हो गया है तो यह उसकी मूर्खता कही जाएगी। इसलिए ब्रह्मा, जीव और भौतिकता इन तीनों को ऐसा भ्रम पैदा करने का मौका न दें और केवल इसी तथ्य पर विचार करें कि संपूर्ण संसार में सिर्फ ब्रह्मा ही सत्य है, उसके सिवा कोई दूसरा सत्य इस संसार में नहीं है। Reply  मदन शर्माOctober 2, 2012 at 4:57 PM इंसान और जानवर मे फ़र्क सिर्फ़ सभ्य और असभ्य का होता है} हमारी सोचने की शक्ति के कारण हम सभ्य समाज का हिस्सा हैं समाज नियमों से चलता है और जहाँ सामाजिक नियम नहीं होते उनको हम जानवर कहते हैं आप जैसे से ही कुछ अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती है ! बहुत बहुत आभार.... Reply  अशोकानंद भरद्वाजOctober 2, 2012 at 6:10 PM आभार आपका श्री मदन शर्मा जी Reply  Home View web version About Me  ASHOKANAND BHATTACHARJEE  View my complete profile Powered by Blogger. 
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