Sunday, 17 September 2017
गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना में इन पाँचों को समान ... ब्रह्मरंध्र को दशम द्वार कहा गया है।
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Gayatri Pariwar

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August 1995
सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
मानवी सत्ता का मौलिक केन्द्र-स्रोत ब्राह्मी चेतना है। पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिण ध्रुव के समान ही मानवी सत्ता के भी दी ध्रुव है-सहस्रार और मूलाधार। सहस्रार को उत्तरी ध्रुव के समतुल्य समझा जा सकता है। जिस समतुल्य समझा जा सकता है। जिस प्रकार सूर्य के अनुदान उत्तरी ध्रुव पर बरसते है और सम्पूर्ण पृथ्वी इस केन्द्र से आवश्यकता के अनुरूप शक्ति प्राप्त करती है। उसी प्रकार ब्राह्मी चेतना का चैतन्य प्रवाह अन्तरिक्ष में सतत् प्रवाहित होता रहता है। मनुष्य के शरीर में वह सहस्रार के माध्यम से अवतरित होता है तथा दक्षिणी ध्रुव मूलाधार तक पहुँचता है।
सहस्रार चक्र मस्तिष्क मध्य में अवस्थित बताया गया है। सिर के मध्य में एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल हैं उसे ही ‘सहस्रार चक्र’ कहते है। उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है। यहीं आकार कुण्डलिनी महाशक्ति शिव से मिलती है। यही से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे के पीछे बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति देकर कठपुतलियों को नचाता है। इसे आत्मा की अधिष्ठात्री स्थली भी कहते है। विराट् ब्रह्म में हलचल पैदा करने वाली सारी सूत्र शक्ति और विभाग इसी सहस्रार के आस पास फैले पड़े है।
सहस्रार का शाब्दिक अर्थ है-हजार पंखुड़ियों वाला। शास्त्रों में इसी का अलंकारिक वर्णन रूपों में किया गया है। सहस्र दल कमल, कैलाश पर्वत, शेषनाग, क्षीरसागर जैसे दिव्य सम्बोधन इसी के लिए प्रयोग किये गये है। उपाख्यान आता है कि क्षीर सागर में शेष नाग पर भगवान विष्णु शयन करते है। इस अलंकारिक वर्णन में इस तथ्य का उद्घाटन किया गया है कि जीव सत्ता के ऊर्ध्व स्थल अर्थात् देवीय गुणों सम्पन्न चेतना में ही परमात्मा अवतरित होते-निवास करते है। सहस्रार को कैलाश पर्वत के रूप में इंगित करने तथा भगवान शंकर के तप रत होने में भी उसी तथ्य का वर्णन हुआ है। यही वह केन्द्र है जहाँ जागृत होने पर कुण्डलिनी सन्मार्ग का भेदन करती हुई ब्रह्मलोक में पहुँचकर मोक्ष प्रदान करती है। इस सहस्रार चक्र तक पहुँचने पर ही साधक को अमृतपान का सुख, दिव्यदर्शन, संचालन की शक्ति ओर समाधि का आनन्द मिलता है और वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्तकाल तक ऐश्वर्य और सुखोपभोग करता है।
योग शास्त्रों के अनुसार सहस्रबाहो दोनों कनपटियों से दो-दो इंच अन्दर और भौंहों से भी लगभग तीन-तीन इंच अन्दर मस्तिष्क मध्य में महावीर नामक महारुद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति पुँज के रूप में अवस्थित है। तत्त्वदर्शियों के अनुसार यह उलटे छोटे या कटोरे के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य-उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि का वर्णन करते हुए कहा गया है-तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचोर भवति।’ अर्थात् सहस्रार को जागृत कर लेने वाला व्यक्ति सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान की सिद्धियाँ हस्तगत कर लेता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहाँ से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है ओर विश्व में जो कुछ भी मानवहित विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उसका सम्पादन करता है। मस्तिष्क मध्य स्थित इसी केन्द्र से एक विद्युत उन्मेष रह-रह कर सतत् प्रस्फुटित होता रहता है जिसे एक विलक्षण विद्युतीय फव्वारा कहा जा सकता है। वहाँ से तनिक रुक-रुक कर एक फुलझड़ी सी जली रहती है हृदय की धड़कन में भी ऐसे ही मध्यवर्ती विराम- सिस्टम और डायनेमो ‘ अर्थात् लपडप–लपडप के मध्य रहते है। मस्तिष्कीय मध्य में स्थित इस बिन्दु से भी तरह की गतिविधियाँ संचालित होती रहती है। वैज्ञानिक इन उन्मेषों को मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों की सक्रियता-स्फुरणा का मुख्य आधार मानते है। संत कबीर ने इसी के बारे में कहा है- हृदय बीच अनहत बाजे, मस्तक बीच फव्वारा यह फव्वारा ही रेटीकूलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम ‘ है।
मस्तिष्क में विलक्षण शक्ति केन्द्रों की बात अब वैज्ञानिक भी मानते है। प्रख्यात न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. स्मिथ के अनुसार ‘प्यारे इन्टेलिजेन्स’ सद्बुद्धि मानवी मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों से नियंत्रित होती है यह सबकी साझेदारी का उत्पादन है। यही वह सार भाग है जिससे व्यक्तित्व का स्वरूप बनता और निखरता है। स्मृति, विश्लेषण, संश्लेषण, चयन, निर्धारण, आदि की क्षमताएँ मिलकर ही मानसिक स्तर की बनाती है। इनका सम्मिश्रण, उत्पादन कहाँ होता है? वे परस्पर कहाँ गुँथती हैं? इसका ठीक से निर्धारण तो नहीं हो सका, पर समझा गया है कि वह स्थान लघु मस्तिष्क-सेरिवेलम में होना चाहिये। यही वह मर्मस्थल है, जिसका थोड़ा सा विकास-परिष्कार संभव हो सके तो व्यक्तित्व का ढाँचा समुन्नत हो सकता है। इसी केन्द्र स्थान को अध्यात्म शास्त्रियों ने बहुत समय पूर्व जाना और उसका नामकरण ‘सहस्रार चक्र’ किया है।
शरीर शास्त्र के अनुसार मोटे विभाजन की दृष्टि से मस्तिष्क को पाँच भागों में विभक्त किया गया है- (1) बृहद् मस्तिष्क-सेरिव्रम (2) लघु मस्तिष्क- सेरिवेलम (3) मध्य मस्तिष्क-मिड ब्रेन (4) मस्तिष्क सेतु-पाँन्स (5) सुषुम्ना शीर्य -मेडुला आँवलाँगेटा। इनमें से अन्तिम तीन को संयुक्त रूप से मस्तिष्क स्तम्भ ब्रेन स्टीम भी कहते है। इस तरह मस्तिष्क के गहन अनुसंधान में ऐसी कितनी ही सूक्ष्म परतें आती है जो सोचने-विचारने सहायता देने भर का नहीं, वरन् समूचे व्यक्तित्व के निर्माण में भारी योगदान करती है। वैज्ञानिक इस तरह की विशिष्ट क्षमताओं का केन्द्र ‘फ्रन्टललोब ‘ को मानते है जिसके द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व, आकांक्षायें, व्यवहार प्रक्रिया, अनुभूतियाँ संवेदनाएँ आदि अनेक महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों का निर्माण और निर्धारण होता हैं इस केन्द्र को प्रभावित कर सकना किसी औषधि उपचार या शल्य क्रिया से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए योग साधना की ध्यान धारण जैसी उच्चस्तरीय प्रक्रियायें ही उपयुक्त हो सकती है, जिन्हें कुण्डलिनी जागरण के नाम से जाना जाता है।
अध्यात्म शास्त्र के अनुसार मस्तिष्क रूपी स्वर्ग लोक में यों तो तैंतीस कोटि देवता रहते, पर उनमें से पाँच मुख्य हैं। इन्हीं का समस्त देव स्थान पर नियंत्रण है। उक्त मस्तिष्कीय पाँच क्षेत्रों को पाँच देव परिधि कह सकते है। इन्हीं के द्वारा पाँच कोशों की पाँच शक्तियों का संचार-संचालन होता है। गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना में इन पाँचों को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिलता है तदनुसार इस ब्रह्मलोक में, देवलोक में निवास करने वाला जीवात्मा स्वर्गीय परिस्थितियों के बीच रहता हुआ अनुभव करता है।
यह एक प्रकार से विभाजन की बात हुई है। अनेक विद्वान एक ही तथ्य को विभिन्न प्रकार से विवेचन करते है। मस्तिष्क के विभाजन तथा सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार एक ही तथ्य के भिन्न-भिन्न विवेचन मिलते है। शास्त्रों में इसी को अमृत कलश ‘ कहा गया है। उसमें से सोमरस स्रवित होने की चर्चा है। देवता इसी अमृत कलश से सुधा पान करते अजर अमर बनते है। वर्तमान वैज्ञानिक की मान्यतानुसार मस्तिष्क में एक विशेष द्रव भरा रहता है जिसे ‘सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड’ कहते है यही मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है। मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है। मस्तिष्कीय झिल्लियों से यह झरता रहता है और विभिन्न केन्द्रों तथा सुषुम्ना में सोखा जाता हैं।
अमृत कलश में सोलह पटल गिनाये गये हैं। इसी प्रकार कहीं-कहीं सहस्रार की सोलह पंखुड़ियों का वर्णन है। यह मस्तिष्क के ही सोलह महत्वपूर्ण विभाग-विभाजन है। शिव संहिता में भी सहस्रार की सोलह कलाओं का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘कपाल के मध्य चन्द्रमा के समान प्रकाशमान सोलह कलायुक्त सहस्रार की यह सोलह कलायें मस्तिष्क के सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड से सम्बन्धित मस्तिष्क के सोलह भाग है। इन सभी विभागों में शरीर को संचालित करने वाले एवं अतीन्द्रिय क्षमताओं से युक्त अनेक केन्द्र है। सहस्रार अमृत कलश को जागृत कर योगीजन उन्हें अधिक सक्रिय बनाकर असाधारण लाभ प्राप्त करते है। योग शास्त्रों में इन्हीं ही ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते है षट्चक्रों निरूपण नामक योग ग्रंथि के अनुसार इस सहस्रार कमल की साधना से योगी का चित्त स्थिर होकर आत्म-भाव में लीन हो जाता है। तब वह समग्र शक्तियों से सम्पन्न हो जाता हैं। और भव-बंधन से छूट जाता है। सहस्रार से निस्सृत हो रहे अमृत पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।
सहस्रार क्या है? इसका उत्तर शरीर शास्त्र के अनुसार अब इतना मात्र जा सकता है कि मस्तिष्क के माध्यम से समस्त शरीर के संचालन के लिए जो विद्युत उन्मेष पैदा होते है, वे आहार से नहीं, वरन् मस्तिष्क के एक विशेष संस्थान से उद्भूत होते है। वह मनुष्य का अपना उत्पादन नहीं, वरन् दैवी अनुदान हैं अध्यात्मवेत्ता इसे ही ‘सहस्रार चक्र’ कहते है जिसका सम्बन्ध ब्रह्मरंध्र से होता है। ब्रह्मरंध्र को दशम द्वार कहा गया है। नौ द्वार है- दोनों नथुने, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो मल-मूत्र के छिद्र। दसवाँ ब्रह्मरंध्र है। योगी जन इसी से होकर प्राण त्यागते हैं मरणोपरान्त कपाल क्रिया करने का उद्देश्य यही है कि प्राण का कोई अंश शेष रह गया हो तो वह उसी में होकर निकले और ऊर्ध्वगामी प्राप्त करे। योगशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मसत्ता का ब्रह्मसत्ता का ब्रह्माण्डीय चेतना का मानव शरीर में प्रवेश सहस्रार स्थित इसी मार्ग से होता है। इसी के माध्यम से दिव्य शक्तियों तथा दिव्य अनुभूतियों का आदान-प्रदान होता है। सहस्रार और ब्रह्मरंध्र मिलकर एक संयुक्त इकाई यूनिट के रूप में काम करते है। अतः योग साधना में इन्हें संयुक्त रूप में प्रयुक्त प्रभावित करने का विधान है।
मानव काया की धुरी उत्तरी ध्रुव सहस्रार और ब्रह्मरंध्र ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क बनाकर आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त करता है। भौतिक ऋद्धियाँ और आत्मिक सिद्धियाँ जागृत सहस्रार के सहारे निखिल ब्रह्माण्ड से आकर्षित की जा सकती है। सहस्रार में जैसा भी चुम्बकत्व होता है। उसी स्तर का अदृश्य उपार्जन उसके स्तर एवं व्यक्तित्व का सूक्ष्म निर्धारण करता है। चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है, उसका केन्द्र यही है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्मिक चिन्तन से लेकर भक्ति योग तक की समस्त साधनायें यहीं से फलित होती और विकसित होती है। ओजस् तेजस और ब्रह्मवर्चस् के रूप में पराक्रम, विवेक एवं आत्मबल की उपलब्धियों का अभिवर्धन यहीं से उभरता है। ईश्वरीय अनुदान इसी पर अवतरित होता है। इस सहस्रार चक्र की साधना द्वारा वह क्षमता विकसित की जा सकती है जिसमें चैतन्य प्रवाहों को ग्रहण कर अपने को दैवीय गुणों से सुसम्पन्न बनाया जा सकें।
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