Tuesday, 19 September 2017
शब्द कहै सौ कीजिये, बहुतक गुरु लबार अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार
दुख ना लगे, सोई शब्द उचार
तपत मिटी सीतल भया, सोई शब्द ततसार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जिन शब्दों से दूसरों को कष्ट न हो उनका ही उच्चारण करो। जिससे दुःखी मनुष्य का संतप्त मन भी प्रसन्न हो जाये ऐसी ही वाणी बोलें।
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संत कबीर वाणीः जो सत्य हो उसी के अनुसार बोलें
31/07/2008 – 09:51
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शब्द कहै सो कीजिये, बहुतक गुरु लबार
अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो शब्द सत्य के अनुसार है उसी का विचार कर कहो। अधिक बोलने वाले गुरु बहुत है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को बातें बनाकर ठगते हैं। ऐसे गुरुओं की बात पर विचार न कर अपने विवेक क अनुसार वचन बोलो।
शब्द पाय सुरति राखहि, सो पहुंचे दरबार
कहैं कबीर तहां देखिए, बैठा पुरुष हमार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो सत्य वचनों के ज्ञान को ग्रहण कर लेता है वह परमात्मा की भक्ति पा लेता है। उसे ऐसा लगता है कि वह भगवान की दरबार में ही बैठा है।
…………………………………………….
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संत कबीर वाणी:पत्थर के सालिग्राम का भरोसा नहीं
29/07/2008 – 07:11
1 Votes
कबीर पाहन पूजि के, होन चहै भौ पार
भींजि पानि भेदे नदी, बूड़ै, जिन सिर भार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य पत्थरों की पूजाकर इस संसार के भवसागर को पार करना चाहते हैं वह अपने अज्ञान का एक बहुत भारी बोझ अपने सिर पर बोझा उठाये होते हैं और इसलिये डूब जायेंगे।
कबीर जेसा आतमा, तेता सालिगराम
बोलनहारा पूजिये, नहिं पाहन सो काम
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस विश्व में सभी प्रकार के देहधारियों में बसने वाला जीवात्मा सालिग्राम (परमात्मा) का ही रूप है। जो बोलते और चलते हैं उनको तो पूजा जा सकता है पर पत्थर पूजने से कोई लाभ नहीं है।
कबीर सालिगराम का, मोहि भरोसा नांहि
काल कहर की चोट में, बिनसि जाय छिन मांहि
संत कबीरदास जी कहते हैं कि पत्थर के सालिग्राम का भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि क्रुर काल की चोट वह सहन नहीं कर पाता और उसे कोई दूसरा छीन भी सकता है।
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संत कबीर वाणी:सच्चे भक्त हो तो निंदा करना त्याग दो
27/07/2008 – 09:16
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माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त मेंे स्थान देती है।
तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।
जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो
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संत कबीर वाणीःअलख ने ही रचा है यह सब संसार
26/07/2008 – 07:05
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काम कनागत कारटा, आनदेव का खाय
कहैं कबीर समुझै नहीं, बांधा जमपुर जाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो श्राद्ध का काम कराते हैं और अन्य देवों को चढ़ायी हुई सामग्री खाते हैं वह अज्ञानी नहीं जानते कि अपने साथ पाप बांधकर यमपुर जाना है।
देवि देव मानै सबै, अलख न मानै कोय
जा अलेख का सब किया, तासों बेमुख होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी मनुष्य अपने सामने देवी देवताओं को तो मानते हैं परंतु जो निराकार परमात्मा उसे कोई नहीं मानता जिसने इस सारे संसार की रचना की है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास के अत्यंत विरोधी थे। जीवन और मृत्यु को लेकर जितना ढोंग हमारे समाज में हैं वह कहीं अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है। इनमें एक हैं श्राद्ध कर्म करवाना और उसका भोजन करना। देखा जाये तो यह देह पांच तत्वों से बनी है जिसका संचालन इसे धारण करने वाला जीवात्मा करता है और उसके निकल जाने के बाद यह देह तो मिट्टी है पर इसी को लेकर लोग अपने प्रियजनों की मृत्यु पर जो दिखावे का शोक व्यक्त करते हुए जो भोजन आदि कराते हैं उसका कोई औचित्य नहीं है। इससे जीवित लोग केवल अपनी आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं ताकि जो विपन्न लोग ऐसा करने मेंे असमर्थ हैं वह उनसे प्रभावित रहें।
सच तो यह है कि इस दृश्व्य जगत को देखकर लोग पत्थर की मूर्तियों को पूजते हैं पर इसका निर्माण करने वाले निरंकार अलख ईश्वर की उपासना कोई नहीं करता। सभी मनुष्य केवल जीवन भर अपनी आंखों से देखी माया के इर्दगिर्द ही घूमते हैं। जो निराकार परब्रह्म हैं उसमें ध्यान लगाकर उसकी भक्ति करने के लिये कोई तैयार नहीं होता जबकि भक्ति और ज्ञान की प्राप्ति उसी निष्काम भक्ति से प्राप्त होता है।
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संत कबीर वाणीःअपना इष्टदेव बदलकर भक्ति करने वाला तर नहीं सकता
25/07/2008 – 10:23
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कामी तरि, क्रोधी तरै, लोभी तरै अनन्त
आन उपासी कृतधनी, तरै न गुरु कहन्त
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कामी और क्रोधी तर सकते हैं और लोभी भी इस भव सागर से तरकर परमात्मा को पा सकते हैं पर जो अपने इष्ट देव की उपासना त्यागता है और गुरु का संदेश नहीं मानता वह कभी तर नहीं सकता।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर कबीरदास जी के इस दोहे का आशय समझें तो उनके अनुसार वह उस हर व्यक्ति को अपने इष्ट देव की उपासना न छोड़ने का संदेश दे रहे हैं। एक तरह से धर्म परिवर्तन को एक भ्रम बता रहे हैं। उस समय धर्म शब्द उस रूप में प्रचलित नहीं था जिस तरह आज है बल्कि लोगों को अपने अपने इष्ट देवों को उपासक के रूप में पहचान थी यही कारण है कि कबीरदास जी के साहित्य में धर्मों के नाम नहीं मिलते बल्कि सभी लोगों को एक समाज मानकर उन्होंने अपनी बात कही है।
दरअसल धर्म का आशय यह है कि निंरकार परमात्मा की उपासना, परोपकार, दान और सभी के साथ सद्व्यवहार करना। वर्तमान समय में इष्ट देवों की उपासना के नाम पर धर्म बनाकर भ्रम फैला दिया गया है और विश्व के अनेक भागों में कई लोगोंं को धन तथा रोजगार का लालच या जीवन का भय दिखाकर धर्म परिवर्तन करवाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे कई समाचार आते हैं कि अमुक जगह धर्म अमुक ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ऐसा समाचार केवल भारत में नहीं अन्य देशों से भी आते है। यह केवल कुछ लोगों का भ्रम है या वह भ्रम फैलाने और प्रचार पाने के लिये ऐसा करते हैं।
देख जाये तो परमात्मा एक ही है सब मानते हैं। लोग उसे विभिन्न रूपों और नामों से जानते हैं। ऐसे में उसके किसी स्वरूप का बदलकर दूसरे स्वरूप में पूजने का आशय यही है कि आदमी भ्रमित हैं। हमारे देश में तो चाहे आदमी कैसा भी हो किसी न किसी रूप में उसकी उपासना करता है। कोई न कोई पवित्र ग्रंथ ऐसा है जिसे पढ़ता न हो पर मानता है। ऐसे में वह एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे की उपासना और एक पवित्र ग्रंथ को छोड़कर दूसरा पढ़ने लगता है तो इसका आशय यह है कि उसकी नीयत ठीक नहीं और जो इसके लिये प्रेरित कर रहे हैं उन पर भी संदेह होता है। संत कबीरदास जी के कथानुसार ऐसे लोग कभी जीवन में तर नहीं सकते भले ही दुष्ट और कामी लोग तर जायें। संत कबीरदास जी तो निरंकार के उपासक थे और वर्तमान में तो पूरा विश्व एक ही परमात्मा को मानता है और ऐसे में उसके स्वरूप को बदलकर दूसरे के रूप में पूजना वह स्वार्थ और लोभ का परिणाम मानकर सभी को उसके लिये रोकने का संदेश कबीरदास जी देते थे।
आशय यह यही है कि बचपन से जिस इष्ट का माना उसे छोड़कर दूसरे की उपासना नहीं करना चाहिए। न ही अपने गुरु, माता पिता और बंधुओं द्वारा सुझाये गये इष्ट के अलावा किसी और का विचार नहीं करना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो वह स्वार्थ से प्रेरित है और स्वार्थ से की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की चाहे जो भी इष्ट हो उसकी निष्काम भक्ति करना चाहिए।
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in adhyatm, अध्यात्म, संदेश, संस्कृति, सत्संग, समाज, हिन्दू, hindu, internet | Tagged adhyatm, अध्यात्म, संदेश, संस्कृति, सत्संग, समाज, हिन्दी दोहे, हिन्दू, hindu, internet, kabir | Comments (1)
हमें लगाने दो सब तरफ हिट की कील-हास्य कविता
21/07/2008 – 15:16
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घर में घुसते ही बोला फंदेबाज
‘शंका तो हमें रास्ते में ही हो गयी थी कि
आज होगी तुम्हारे लिये जश्न की शाम
सामने होगी बोतल और हाथ में होगा जाम
बा ने बताया था फोन पर कि
ब्लाग चोरी होने के बाद तुम्हारे
पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे
उछल कूद कर रहे हो इतनी कि
सिर के बाकी बाल भी झड़ रहे
क्या किसी अंग्रेज ब्लागर से की थी
अपना ब्लाग चुराने की डील
बड़ा बुरा हो रहा है हमें फील
देश में क्या कम ब्लागर थे
जो विदेश से ले आये हिट होने के लिये ऊर्जा
अपने लोगों के सीने में ठोक दी कील’
नोट-यह इस ब्लाग दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका” की मूल रचना है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है। अगर किसी को यह कहीं अन्य प्रकाशित मिले तो इस ब्लाग https://deepakraj.wordpress.com पर सूचित करे।
दीपक भारतदीप, लेखक संपादक
ग्लास को मूंह लगाने के बाद
फिर उसे रखते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘कमबख्त आज अच्छे दिन भी
तुम्हारा आना हुआ है
अंतर्जाल पर ब्लाग चोरी होना
सम्मान की बात समझी जाती है
कोई भाग्यशाली ही होता है
जिसके हिस्से यह घटना पेश आती है
यहां सभी हिट होने के लिये मरे जा रहे हैं
नैतिकता और भक्ति का तो बस नाम लेते हैं सब
अपने ऊपर दो नंबर की गठरी ले जा रहे हैं
पहले लोग अपने यहां छापे पड़वाते थे
अपने यहां इज्जत बढ़ाने के लिये
अब फिर रहे हैं अपना सामान
चोरी कराने के लिये
कर लेते हैं डील
फिर करवाते हैं अपने हिट होने की फील
चोरी हो जाने पर कोई नहीं रोता
हो जाने पर ही हिट होने की चैन की नींद सोता
चोरी होने को सामान बहुत है
पर उसे उठाने वाले बहुत कम है
किसका उठायें और किसका नहीं
चोरों को भी यही गम है
देश में भला किससे चोरी करवाते
विदेश में ब्लागर तो छिपा रहेगा
देश का होता तो पता नहीं
कब पाला बदल जाता
और हम अपनी असलियत कब तक छिपाते
हमने नहीं की
हम क्या जाने तकनीकी के बारे में
कोई प्रशंसक ही कर आया है
हमारा ब्लाग चुराने की डील
किसने की और कैसे की, इससे क्या मतलब
हमें तो बस गाना है अपना गुड फील
जब तक किसी विदेशी से हाथ न मिलायें
भला इस देश में कौन इज्जत करता है
शादी हो या व्यापार
हर कोई विदेश में डील के लिये मरता है
चोरी हुआ हमारा ब्लाग
जो कि हिट की शर्त पूरी करने के लिये काफी है
अब तुम पर हास्य कवितायें लिखते हुए
हमेशा रहे फ्लाप
तो अपना रुतवा विदेशियों के दम पर दिखायेंगे
सारा जमाना जा रहा है
हम भी जरा चलकर देखें
फिर अपनी असलियत पर लौट आयेंगे
अपने घर का चिराग तेल से नहीं
विदेशी ऊर्जा से जलायेंगे
अभी तो चीयर्स करो
तकनीकी से हम दोनों हैं पैदल
जिसमें अपना फायदा दिखे वही कहो
और हिट पाने में मस्त रहो
चोरी के मामले में डाल दो ढील
देशभक्ति तुम संभालों
हमें लगाने दो सब तरफ हिट की कील
…………………………………………..
नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता है इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। अगरकिसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in अनुभूति, अभिव्यक्ति, कला, कविता, क्षणिका, मस्तराम, व्यंग्य, शब्द, शायरी, समाज, हास्य-व्यंग्य, हिन्दी शायरी, bharat, friends, hindi poem, india, inglish, internet, mastram, shayri, vyangya, web bhaskar, web dunia, web duniya, web times | Tagged अनुभूति, अभिव्यक्ति, कला, कविता, क्षणिका, दीपक भारतदीप., मस्तराम, व्यंग्य, शब्द, शायरी, समाज, हास्य-व्यंग्य, हिन्दी शायरी, bharat, blogger, bloging, Blogroll, Deepak bharatdeep, E-patrika, education, friends, hindi kavia, hindi life, hindi megzine, hindi poem, hindi thougnt, india, inglish, internet, kabir, life, mastram, Media, shaayree, shayri, vyangya, web bhaskar, web dunia, web duniya, web jagran, web nav bharat, web panjab kesri, web patrika, web times | Comments (0)
संत कबीर वाणीःपराई स्त्री से संपर्क रखना लहसुन खाने के समान
19/07/2008 – 10:07
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नारी नरक न जानिये, सब संतन की खान
जामें हरिजन ऊपजै, सोई रतन की खान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि नारी को नरक नहीं समझना चाहिए वह तो सब संतों की जननी है। उससी कोख से ही सभी भक्त उत्पन्न हुए। वह मनुष्यों में अनमोल रत्न पैदा करने वाली खान है।
जग में भक्त कहावई, चुटकी चून न देय
सिध जोरू का ह्नै रहा, नाम गुरु का लेय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने आपको इस जगत में भगत भी कहलाना चाहता है पर एक मुट्ठी भर दान भी किसी को नहीं दे सकता। वाणी से सद्गुरु का नाम लेता है पर नारी का असली भक्त रहता है।
परनारी का राचना, ज्यूं लहसुन की खान
कोने बैठ खाइये, परगट होय निदान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ संपर्क रखना जैसे लहसून खाने के समान है। चाहे कितने भी एकांत में पराई नारी से संपर्क रखो उसकी गंध छिपाये नहीं छिप सकती।
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in adhyatm, अध्यात्म, संदेश, संस्कार, समाज, साधना, hindi article | Tagged adhyatm, अध्यात्म, संदेश, संस्कार, समाज, साधना, हिन्दी सहित्य, hindi article, kabir | Comments (2)
संत कबीर वाणी:नाक तक खाना भरे वह साधू नहीं
23/06/2008 – 09:13
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जीभ स्वाद के कूप में, जहां हलाहल काम
अंग अविद्या ऊपजै, जाय हिये ते नाम
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक जीभी स्वाद के गहरे कुऐं में है तब तक आदमी में अज्ञान रहेगा और वह परमात्मा के नाम से दूर ही रहेगा क्योंकि उसमें विष अपना काम करता है।
अहार करै मन भावता, जिभ्या केरे स्वाद
नाक तलक पूरन भरै, क्यों कहिये वे साध
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी जीभ के स्वाद में पड़कर अपने मन को पसंद आने वाले आहार की खोज में लगा रहता है। वह नाक तक खाना भर लेता है फिर उसे साधु कैसे कहा जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर देखें तो अब सामान्य आदमी केवल खाने के लिये ही अपना जीवन गुजार रहा है। लोग अपने घर के बने भोजन से कहीं अधिक बाहर के भोजन को पसंद करने लगे हैं। चटपटे मसालेदार व्यंजन जो खाने में स्वादिष्ट लगते हैं पर उनका प्रभाव स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता उनको उदरस्थ करने में जुटी भीड़ कहीं भी देखी जा सकती हैं। कितनी विचित्र बात है कि आदमी अपने घर में अपने खाने की सामग्री ढंक कर रखता है और अगर कहीं वह खुली छूट जाये तो उसको बाहर फैंक देता है क्योंकि उसमें कीड़ों के होने की आशंका हो जाती है पर वही बाहर दुकानों और होटलों पर खुले में रखे व्यंजन खाने में बहुत रुचि लेता है जिसके बारे में उस स्वयं पता ही नहीं होता कि कब से वह खुले पड़ें हैं। अधिकतर स्वास्थ्य विशेषज्ञ लोगों को बाहर की चीजें खाने से रोकने की राय देते हैं पर लोग उनकी अनदेखी कर विषैले पदार्थ स्वाद के ग्रहण करते है और फिर बीमार पड़ते हैं। आजकल जिस तरह बीमार लोगों की संख्या बढ़ रही है उसको देखकर यह चिंता का विषय है। अगर देह में विकार हों तो आदमी के मन में भक्ति और सत्संग की भावना पैदा नहीं होती यह समझ लेना चाहिए।
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संत कबीर वाणीःजिनके बाल सफेद हो गये वह भी अज्ञानी हैं
10/06/2008 – 08:46
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आंखि न देखि बावरा,शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहूं निपट अजानसंत शिरोमिणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग अपनी देह की अवस्था का विचार नहीं करते। इन बावलों को आंख से दिखते नहीं है और कानों से उपदेश और संतों के प्रवचन सुनाई नहीं देते है। सिर के बाल पूरी तरह सफेद हो और तब भी अज्ञानी हैं।
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावैं जम के द्वारा
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति सत्य शब्द नहीं मानता न ही धर्म आदि का विचार करता। वह बिना सत्संग और भगवान भक्त के बिना ही मृत्यू को प्राप्त होता है।
संक्षिप्त व्याख्या-इस देश में इतने सारे कथित संत और उनके शिष्य हैं और इतने सारे धार्मिक अनुष्ठान होते हैं पर फिर भी समाज निरंतर संस्कृति, संस्कार और साहित्य के क्षेत्र में पतन की तरफ जा रहा है। लोग अपने संस्कारों को निरर्थक, संस्कृति को पिछड़ा और धार्मिक साहित्य को अप्रासंगिक मानने लगे हैं। इसका कारण यह है कि हमारे देश में पाखंड बहुत बढ़ चुका है। लोग ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाते हैं पर आखें होते हुए भी देखते नहीं, कान से सुनी बात दूसरे कान से निकाल देते हैं और बुद्धि का उपयोग करना तो उनको निरर्थक समय नष्ट करना होता है। वैसे वह फिल्मी और राजनीतिक विषयों पर बातचीत कर अपने आपको विद्वान और ज्ञानी समझते हैं पर सत्संग की बात करो तो कहते हैं-‘इनसे कोई संसार थोड़े ही चलता है।’
आधुनिक शिक्षा से भारतीय अध्यात्म विषय को दूर रखने की वजह से आजकल लोगों में मानसिक विकृतियां जन्म ले चुकी हैं। ऐसे में वही लोग थोड़ा बहुत ज्ञान धारण किये हुए हैं जिनको माता पिता या किसी योग्य गुरू द्वारा उससे परिचित कराया गया है वरन लोग तो मन की आखों से दृष्टिहीन, कान से बहरे और बुद्धि से विवेकहीन हो गये हैं। उनको केवल सांसरिक विषय ही प्रिय लगते हैं।
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in adhyatm, संस्कार, संस्कृति, समाज, dharm, dohe, hindi, hindu | Tagged adhyatm, चिन्तन, शास्त्र, संस्कार, संस्कृति, समाज, dharm, dohe, hindi, hindu, kabir | Comments (3)
संत कबीर वाणी:चुंबक की तरह प्रभाव डाले वही शब्द प्रशंसनीय
07/06/2008 – 09:11
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सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय
विघ छोड़ै निरबिस रहै, सक दिन दूखा जाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने अंदर तभी शीतलता की अनुभूति हो सकती है जब हर स्थिति के लिए हृदय में समान भाव आ जाये। भले ही अपने काम में विघ्न-बाधा आती रहे और सभी दिन दुःख रहे तब भी आदमी के मन में शांति हो-यह तभी संभव है जब वह अपने अंतर्मन में सभी स्थितियों के लिए समान भाव रखता हो।
यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि उसी शब्द के प्रभाव की प्रशंसा की जाती है जो सभी लोगों के हृदय में चुंबक की तरह प्रभाव डालता है। जो मधुर वचन नहीं बोलते या रूखा बोलते हैं वह कभी भी अपने जीवन के संकटों से कभी उबर नहीं सकते।
सीखे सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने गुरूजनों से शब्द सीखकर उसे अपने हृदय में धारण कर उनका सदुपयोग करता है वही जीवन का आनंद उठा सकता है पर जो केवल उन शब्दों को रटता है उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता।
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संत कबीर वाणीःगरीब पर कभी हंसना नहीं चाहिए
06/06/2008 – 08:43
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अहं अगनि हिरदै, जरै, गुरू सों चाहै मान
जिनको जम नयौता दिया, हो हमरे मिहमान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब किसी मनुष्य में अहंकार की भावना जाग्रत होती है तो वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहता है। ऐसी प्रवृत्ति के लोग अपने देह को कष्ट देकर विपत्तियों को आमंत्रण भेजते हैं और अंततः मौत के मूंह में समा जाते हैं।
कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय
अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी उपलब्ध्यिों पर अहंकार करते हुए किसी निर्धन पर हंसना नहीं चाहिए। हमारा जीवन ऐसे ही जैसे समुद्र में नाव और पता नहीं कब क्या हो जाये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रू होता है। कुछ लोग अपने गुरू से कुछ सीख लेकर जब अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त कर लेते हैं तब उनमें इतना अहंकार आ जाता है कि वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहते हैं। वैसे आजकल के गुरू भी कम नहीं है वह ऐसे ही शिष्यों को सम्मान देते हैं जिसके पास माल टाल हो। यह गुरू दिखावे के ही होते हैं और उन्होंने केवल भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की विषय सामग्री को रट लिया होता है और जिसे सुनाकर वह अपने लिये कमाऊ शिष्य जुटाते हैं। गरीब भक्तों को वह भी ऐसे ही दुत्कारते हैं जैसे कोई आम आदमी। कहते सभी है कि अहंकार छोड़ दो पर माया के चक्कर में फंस गुरू और शिष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे में यह विचार करना चाहिए कि हमारा जीवन तो ऐसे ही जैसे समुद्र के मझधार में नाव। कब क्या हो जाये पता नहीं। माया का खेल तो निराला है। खेलती वह है और मनुष्य सोचता है कि वह खेल रहा है। आज यहां तो कल वहां जाने वाली माया पर यकीन नहीं करना चाहिए। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सम्मान देने का विचार मन में रखें तो बहुत अच्छा।
संपादकीय, कवितायेँ
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in adhyatm, संस्कार, संस्कृति, सत्संग, समाज, dharm, dohe, hindi article, hindu | Tagged adhyatm, संस्कार, संस्कृति, सत्संग, समाज, हिन्दी दोहे, chintn, dharm, dohe, hindi article, hindu, kabir | Comments (0)
संत कबीर वाणी:भिखारी के लिए बोलना और चोर के लिए चुप रहना अच्छा
05/06/2008 – 08:58
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चातुर को चिन्ता घनी, नहिं मूरख को लाज
सर अवसर जानै नहीं, पेट भरन सूं काज
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो चतुर और ज्ञानी होते हैं उनके ढेर सारी चिंताएं होती हैं जबकि जो अज्ञानी और मूर्ख है उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं सताती और वह शर्म से परे होता है। उसे तो किसी तरह अपना पेट भरने से मतलब होता है। वह तो समय असमय को नहंी जानता उसे तो अपना पेट भरने से मतलब होता है।
मांगन को भल बोलनो, चोरन को भल चूप
माली को भल बरसनो, धोबी को भल धूप
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भिक्षा मांगने वालों के लिए बोलना अच्छा है, क्योंकि उसी से उनको कार्य में सिद्धि मिलेगी। चोरों के लिए चुप रहना ही अच्छा है, अन्यथा उसे पकड़ लिया जायेगा। माली के लिए वर्षा का होना बहुत अच्छा है जबकि धोबी के लिए धूप अच्छी है ताकि उसके कपड़े सूखते रहें।
संपादकीय, कवितायेँ
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in adhyatm, संस्कार, संस्कृति, सत्संग, समाज, साहित्य, dharm, hindi article, hindu | Tagged adhyatm, संस्कार, संस्कृति, सत्संग, समाज, साहित्य, हिन्दी दोहे, chintn, dharm, hindi article, hindu, kabir | Comments (1)
संत कबीर वाणी:प्रपंची गुरूओं से कोई लाभ नहीं
04/06/2008 – 09:04
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शब्द कहै सौ कीजिये, बहुतक गुरु लबार
अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो सत्य का शब्द हो उसी के अनुसार कार्य करो। इस संसार में कई ऐसे गुरू हैं जो पांखडी और प्रपंची होते हैं। वह अपने स्वार्थ के अनुसार कार्य करते हुए उपदेश देते हैं और उनसे कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संबंध में मेरे द्वारा एक आलेख अन्य ब्लाग पर लिखा गया था जो यहां प्रस्तुत है।
आज के कथित संत और भक्त प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं
भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की और एक बार वहाँ से निकले तो फिर चल पड़े अपने जीवन पथ पर। फिर विश्वामित्र का सानिध्य प्राप्त किया और उनसे अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होने अपना जीवन समाज के हित में लगा दिया न कि केवल गुरु के आश्रमों के चक्कर काटकर उसे व्यर्थ किया। भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि संदीपनि से शिक्षा पाई और फिर धर्म की स्थापना के लिए उतरे तो वह कर दिखाया। न गुरु ने उन्हें अपने पास बाँध कर रखा न ही उन्होने हर ख़ास अवसर पर जाकर उनंके आश्रम पर कोई पिकनिक नहीं मनाई। अर्जुन ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और अवसर आने पर अपने ही गुरु को परास्त भी किया। आशय यह है कि इस देश में गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है जिसमें गुरु अपने शिष्य को अपना ज्ञान देकर विदा करता है और जब तक शिष्य उसके सानिध्य में है उसकी सेवा करता है। उसके बाद चल पड्ता है अपने जीवन पथ पर और अपने गुरु का नाम रोशन करता है।
भारत की इसी प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा का बखान करने वाले गुरु आज अपने शिष्यों को उस समय गुरु दीक्षा देते हैं जब उसकी शिक्षा प्राप्त करने की आयु निकल चुकी होती है और फिर उसे हर ख़ास मौके पर अपने दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कई तथाकथित गुरु पूरे साल भर तमाम तरह के पर्वों के साथ अपने जन्मदिन भी मनाते हैं और उस पर अपने इर्द-गिर्द शिष्यों की भीड़ जमा कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. यहाँ इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की भारतीय जीवन दर्शन में जन्मदिन मनाने की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जिसका पालन यह लोग कर रहे हैं.
भारत में गुरु शिष्य की परंपरा एक बहुत रोमांचित करने वाली बात है, पूरे विश्व में इसकी गाथा गाई जाती है पर आजकल इसका दोहन कुछ धर्मचार्य अपने भक्तो का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं वह उसका प्रतीक बिल्कुल नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में गुरु की आवश्यकता होती है और खासतौर से उस समय जब जीवन के शुरूआती दौर में एक छात्र होता है। अब गुरुकुल तो हैं नहीं और अँग्रेज़ी पद्धति पर आधारित शिक्षा में गुरु की शिक्षा केवल एक ही विषय तक सीमित रह गयी है-जैसे हिन्दी अँग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञानआदि। शिक्षा के समय ही आदमी को चरित्र और जीवन के गूढ रहस्यों का ज्ञान दिया जाना चाहिए। यह देश के लोगों के खून में ही है कि आज के कुछ शिक्षक इसके बावजूद अपने विषयों से हटकर शिष्यों को गाहे-बगाहे अपनी तरफ से कई बार जीवन के संबंध में ज्ञान देते हैं पर उसे औपचारिक मान कर अनेक छात्र अनदेखा करते हैं पर कुछ समझदार छात्र उसे धारण भी करते हैं.
यही कारण है कि आज अपने विषयक ज्ञान में प्रवीण तो बहुत लोग हैं पर आचरण, नैतिकता और अध्यात्म ज्ञान की लोगों में कमी पाई जाती है। इस वजह से लोगों के दिमाग में तनाव होता है और उसको उससे मुक्ति दिलाने के लिए धर्मगुरू आगे आ जाते हैं। आज इस समय देश में धर्म गुरु कितने हैं और उनकी शक्ति किस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। तमाम तरह के आयोजनों में आप भीड़ देखिए। कितनी भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस पर एक प्रख्यात लेखक जो बहुत समय तक प्रगतिशील विचारधारा से जुडे थे का मैने एक लेख पढ़ा था तो उसमें उन्होने कहा था की ”हम इन धर्म गुरुओं की कितनी भी आलोचना करें पर यह एक वास्तविकता है कि वह कुछ देर के लिए अपने प्रवचनों से तनाव झेल रहे लोगों को मुक्त कर देते हैं।”
मतलब किसी धार्मिक विचारधारा के एकदम विरोधी उन जैसे लेखक को भी इनमें एक गुण नज़र आया। यह आज से पाँच छ: वर्ष पूर्व मैने आलेख पढ़ा था और मुझे ताज्जुब हुआ-मेरा मानना था कि उन लेखक महोदय ने अगर भारतीय आध्यात्म का अध्ययन किया होता तो उनको पता लगता कि भारतीय आध्यात्म में वह अद्वितीय शक्ति है जिसके थोड़े से स्पर्श में ही आदमी का मन प्रूफुल्लित हो जाता है। मगर वह कुछ देर के लिए ही फिर निरंतर अभ्यास नो होने से फिर तनाव में आ जाते हैं।
एक बात बिल्कुल दावे के साथ मैं कहता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति में बचपन से ही आध्यात्म के बीज नहीं बोए गये तो उमरभर उसमें आ नहीं सकते और जिसमें आ गये उसका कोई धर्म के नाम पर शोषण नहीं कर सकता।
संपादकीय, कवितायेँ
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संत कबीर वाणी:अहिरन की चोरी कर, सुई का करें दान
30/05/2008 – 08:32
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अहिरन की चोरी करै, करे सुई का का दान
ऊंचा चढि़ कर देखता, केतिक दूर विमान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में तमाम तरह के अपराध और चालाकियां कर धन कमाता है पर उसके अनुपात में नगण्य धन दान कर अपने मन में प्रसन्न होते हुए फिर आसमान की ओर दृष्टिपात करता है कि उसको स्वर्ग मेेंं ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूरी पर रह गया है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आंखों से देख नहीं पाता, कानों से शब्द पर रहे जाते हैं और सिर के बाद सफेद होने के बावजूद भी मनुष्य अज्ञानी रह जाता है और माया के जाल में फंसा रहता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-बिना अफरातफरी के कोई भी धनी नहीं बन सकता है-ऐसा मानने वाले बहुत हैं तो हम स्वयं देख भी सकते हैं। धनी होने के बाद समाज में प्रतिष्ठा पाने के मोह से लोग दान करते हैं। कहीं मंदिर में घंटा चढ़ाकर, पंखे या कूलर लगवाकर या बैंच बनवाकर उस पर अपना नाम खुदवाते हैं। एक तीर से दो शिकार-दान भी हो गया और नाम भी हो गया। फिर मान लेते हैं कि उनको स्वर्ग का टिकट मिल गया। यह दान कोई सामान्य वर्ग के व्यक्ति नहीं कर पाते बल्कि जिनके पास तमाम तरह के छल कपट और चालाकियों से अर्जित माया का भंडार है वही करते हैं। उन्होंने इतना धन कमाया होता है कि उसकी गिनती वह स्वयं नहीं कर पाते। अगर वह इस तरह अपने नाम प्रचारित करते हुए दान न करें तो समाज में उनका कोई नाम भी न पहचाने। कई धनपतियों ने अपने मंदिरों के नाम पर ट्रस्ट बनाये हैं। वह मंदिर उनकी निजी संपत्ति होते हैं और वहां कोई इस दावे के साथ प्रविष्ट नहीं हो सकता कि वह सार्वजनिक मंदिर है। इस तरह उनके और कुल का नाम भी दानियों में शुमार हो जाता है और जेब से भी पैसा नहीं जाता। वहां भक्तों का चढ़ावा आता है सो अलग। ऐसे लोग हमेशा इस भ्रम में जीते हैं कि उनको स्वर्ग मिल जायेगा।
संपादकीय, कवितायेँ
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दीपक भारतदीप द्धारा | Also posted in adhyatm, ज्ञान, संस्कार, संस्कृति, सत्संग, समाज, हिन्दी साहित्य, hindi article | Tagged adhyatm, चिन्त्तन, ज्ञान, संस्कार, संस्कृति, सत्संग, समाज, हिन्दी साहित्य, hindi article, kabir | Comments (0)
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