Sunday 17 September 2017

एकै साधे सब सधै ,सब साधे  सब जाय ,

कबीरा खडा़ बाज़ार में The Blog By KANISHKA KASHYAP.It Speaks in volume against West sponsored Cultural Infiltration.  search OCT 18 एकै साधे सब सधै ,सब साधे सब जाय , रहिमन मूलहिं सींचिबो ,फ़ुलै फ़लै अगाय। अब्दुल अब्दुल रहीम -ए - खानेखाना चाह गई चिंता मिटी ,मनवा बे -परवाह , जिनको कछु न चाहिए ,वे साहन के साह। रहीम जी कहते हैं : अगर मनुष्य के मन से इच्छा समाप्त हो जाए तो उसकी सब चिंताएं मिट जातीं हैं । जिनको कुछ नहीं चाहिए वे सब राजाओं के राजा हैं क्योंकि वे हर हाल में खुश रहते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमारी चिंताएं ,हमारी इच्छाओं के कारण ही बढ़ती जाती हैं अत :हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। जो रहीम उत्तम प्रकृति ,का करी सकत कुसंग , चन्दन विष व्यापत नहीं ,लिपटे रहत भुजंग। रहीम कहते हैं कि जो लोग अच्छी प्रकृति के होते हैं बुरा साथ भी उनका कुछ नहीं कर सकता। जैसे चन्दन के पेड़ पर सांप लिपटे रहते हैं फिर भी चन्दन में जहर नहीं होता कहने का तात्पर्य है कि हमें अपने चरित्र को इतना बलवान बनाना चाहिए कि उस पर किसी भी बाहरी ताकत का प्रभाव न पड़ सके । रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सून , पानी गए न ऊबरे ,मोती मानुष चून। रहीम कहते हैं कि पानी के बिना सब सूना है। पानी के बिना मोती अर्थात संपत्ति मनुष्य और चूना अर्थात धरती सब बेकार हैं। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का चरित्र पानी की तरह होना चाहिए क्योंकि पानी जीवन में सबसे मह्त्वपूर्ण वस्तु होती है।पानी के बिना सब बेकार होता है। कही रहीम सम्पति सगे ,बनत बहुत बहु रीत , बिपति कसौटी जे कसे ,तेई सांचे मीत। रहीम कहते हैं कि संपत्ति होने पर तो सब ही आपके सगे सम्बन्धी और मित्र बनते हैं ,उनकी कसौटी मुसीबत के क्षणों में ही होती है। जो हर प्रकार की मुसीबत में आपका साथ निभाते हैं और आपका साथ नहीं छोड़ते वही सच्चे मित्र कहलाते हैं। जाल परे जल जाती बहि ,तज मीनन को मोह , रहिमन मछली नीर को ,तऊ न छाँडति मोह . पानी व मछली से भरे तालाब में जाल फैंकने से पानी तो मछली को छोड़कर जाल से बाहर निकल जाता है परन्तु मछली पानी के मोह में अपने प्राणों को त्याग देती है। तरुवर फल नहीं खात है ,सरवर पियत न पान , कहि रहीम परकाज हित ,सम्पति -सचहिं सुजान। रहीम कहते हैं वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाते हैं ,न ही तालाब अपना पानी स्वयं पीते हैं ,ये तो दूसरों की भूख व प्यास मिटाते हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि संपत्ति का संचयन अपने लिए न करके दूसरों की सहायता के लिए करना चाहिए। सन्देश है पेड़ और सरोवरों की तरह परोपकारी बनो। थोथे बादर क्वार के ,जो रहीम घहरात , धनी पुरुष निर्धन भये ,करें पाछिली बात। रहीम कहते हैं कि वही बादल गरजते हैं जो बारिश नहीं करते (जो गरजते हैं वे बरसते नहीं )परन्तु उनकी गर्जना से यही आभास होता है कि ये बारिश अवश्य करेंगे। उसी प्रकार धनी व्यक्ति गरीब हो जाने पर बीते समय की डींगें हांकते रहते हैं ,मानो अब भी उनका वही समय चल रहा है।थोथा चना बाजे घना। धरती की -सी रीत है ,सीत ,घाम औ मेह , जैसी परे सो सही रहे ,त्यों रहीम यह देह। जिस तरह धरती गर्मी -सर्दी और बरसात की मार को अपनी देह में सह जाती है ,उसी प्रकार मनुष्य का वही शरीर ,शरीर कहलाता है जो विपत्ति को सह जाता है। एकै साधे सब सधै ,सब साधे सब जाय , रहिमन मूलहिं सींचिबो ,फ़ुलै फ़लै अगाय। प्रस्तुत दोहे में रहीम ने मनुष्य की ईश्वर के प्रति भक्ति भाव को अभिव्यक्त किया हैकि यदि मनुष्य एक ही ईश्वर अर्थात परब्रह्म की उपासना करे तो उसके सभी मनोरथ पूरे हो सकते हैं। यदि वह अपने आपको और अपने मन को स्थिर न रखते हुए कभी किसी देवी - देवता और कंभी किसी और देवी -देवता को पूजेगा तो उसकी मनोकामना कभी भी पूरी नहीं हो पायेगी।वह सदा दुखी ही रहेगा और इस तरह उसका कल्याण भी नहीं हो पायेगा। यह सब उसी प्रकार है जैसे कोई माली किसी पेड़ की जड़ को सींचता है तो वह पेड़ फलता फूलता है। लेकिन यदि माली पेड़ की जड़ के स्थान पर उसकी पत्तियाँ ,डाल -डालियों (शाखाओं ),फूलों की पंखुड़ी आदि को ही अलग -अलग सींचता रहेगा तो एक दिन वह पेड़ ही नष्ट हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यहाँ यह है कि हमें सदैव मूल को ही सींचना चाहिए तभी सही फल की प्राप्ति होगी। रहिमन वे नर मर चुके जे कछु मांगन जाहिँ , उनते पहले वे मुए ,जिन मुख निकसत नाहिं। रहीम इस दोहे के मार्फ़त हमें कह रहें हैं कि वे लोग जो किसी से कुछ मांगने जाते हैं ,वे मरे हुए के समान ही हैं,(मांगन मरण समान )लेकिन मांगने वाले व्यक्ति से भी पहले वे लोग मर चुकें हैं जिनके मुख से याचक को देने के लिए कुछ नहीं निकलता। अर्थात मांगना तो बुरी बात है ही लेकिन उससे भी बुरी बात तो यह है कि कोई आपसे कोई कुछ मांग रहा है और आप उसे दुत्कार के भगा देते हो। वे लोग तो उस व्यक्ति से पहले ही मर चुके होते हैं जिनके मुख से ना निकलती है। जो रहीम गति दीप की ,कुल सपूत गति सोय, बारे उजियारो करै ,बढ़े अंधेरो होय। इस दोहे के माध्यम से रहीम हमें दीपक और सुपुत्रों की जानकारी दे रहे हैं। रहीम कहते हैं कि दीपक और सुपुत्रों की स्थिति एक सामान होती है। जब दीपक जलता है तो उसके जलने से चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फ़ैल जाता है। और जब बुझ जाता है तो चारों तरफ अन्धेरा छा जाता है। ठीक उसी प्रकार जिस घर में सुपुत्र होता है उसकी कीर्ति और यश चारों और फैलता है और जब सुपुत्र उस घर या कुल से चला जाता है तो वह घर फिर सूना सूना हो जाता है। दीपक और सुपुत्र अपने कार्यों से संसार में चारों तरफ अपनी कीर्ति स्थापित करते हैं। जे गरीब सों हित करें ,ते रहीम बड़ लोग , कहा सुदामा बापुरो ,कृष्ण मिताई जोग। रहीम ने इस दोहे के माध्यम से हमें बड़े और महान लोगों के बारे में बताने का प्रयास किया है। रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति गरीबों के हितों का ख्याल रखता है उसकी हर समय सहायता करता है वही महान या बड़ा होता है। जो व्यक्ति अपना ही भला सोचते हैं ,ऐसे लोग स्वार्थी होते हैं। ऐसे लोग कभी भी किसी का भला नही कर सकते।ये तो सदैव अपने स्वार्थों की सिद्धि में ही विरत रहतें हैं और किसी के लाभ का कुछ सोचते ही नहीं। यहाँ पर रहीम कृष्ण और सुदामा का उदाहरण देकर बताते हैं कि सुदामा एक गरीब ब्राह्मण ही था उसके पास कोई धन -दौलत नहीं थी जबकि श्री कृष्ण द्वारिका के राजा थे ,वे तो सदा से ही वैभवशाली थे। दोनों की मित्रता विधार्थी जीवन में ही गुरु संदीपन के यहाँ हुई थी। दोनों ने साथ -साथ शिक्षा ग्रहण की थी। दोनों में घनिष्ट मित्रता थी। श्री कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा की सहायता कर उसे भी ऐश्वर्य प्रदान कर अपने जैसा बना लिया था। इसीलिए तो श्रीकृष्ण आज भी महान और पूजनीय हैं ।दोनों की मित्रता के गुणगान आज भी बड़े आदर से किये जाते हैं। टूटे सुजन मनाइए जो टूटे सौ बार , रहिमन फिरि -फिरि , पोहिए ,टूटे मुक्ताहार। रहीम यहाँ प्रियजनों -सुजनों के महत्व को बता रहे हैं। रहीम कहते हैं जो भी हमारा प्रियजन (सज्जन पुरुष )हमसे रूठ जाए तो उसे मना लेना चाहिए। भले हमें उसे सौ बार ही क्यों न मनाना पड़े ,प्रियजन को हमेशा ही मना लेना चाहिए। रहीम प्रियजनों की तुलना मोतियों से करते हुए कहते हैं जिसप्रकार सच्चे मोतियों की माला के बार बार टूटने पर भी हर बार मोतियों को पिरोकर हार बना लिया जाता है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति की शोभा उसके प्रियजनों से ही होती है। जिस प्रकार हार गले में पहनने के बाद ही सुशोभित होता है। Posted 18th October 2013 by Virendra Kumar Sharma 0 Add a comment  Loading

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