Sunday, 17 September 2017
महाविवर
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MANTRA-TANTRA-YANTRA SECRETS
 harivsrcsharma
2 years ago
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तांत्रिक अभिकर्म से प्रतिरक्षण हेतु उपाय
१. पीली सरसों, गुग्गल, लोबान व गौघृत इन सबको मिलाकर इनकी धूप बना लें व सूर्यास्त के 1 घंटे भीतर उपले जलाकर उसमें डाल दें। ऐसा २१ दिन तक करें व इसका धुआं पूरे घर में करें। इससे नकारात्मक शक्तियां दूर भागती हैं।
२. जावित्री, गायत्री व केसर लाकर उनको कूटकर गुग्गल मिलाकर धूप बनाकर सुबह शाम २१ दिन तक घर में जलाएं। धीरे-धीरे तांत्रिक अभिकर्म समाप्त होगा।
३. गऊ, लोचन व तगर थोड़ी सी मात्रा में लाकर लाल कपड़े में बांधकर अपने घर में पूजा स्थान में रख दें। शिव कृपा से तमाम टोने-टोटके का असर समाप्त हो जाएगा।
४. घर में साफ सफाई रखें व पीपल के पत्ते से ७ दिन तक घर में गौमूत्र के छींटे मारें व तत्पश्चात् शुद्ध गुग्गल का धूप जला दें।
५. कई बार ऐसा होता है कि शत्रु आपकी सफलता व तरक्की से चिढ़कर तांत्रिकों द्वारा अभिचार कर्म करा देता है। इससे व्यवसाय बाधा एवं गृह क्लेश होता है अतः इसके दुष्प्रभाव से बचने हेतु सवा 1 किलो काले उड़द, सवा 1 किलो कोयला को सवा 1 मीटर काले कपड़े में बांधकर अपने ऊपर से २१ बार घुमाकर शनिवार के दिन बहते जल में विसर्जित करें व मन में हनुमान जी का ध्यान करें। ऐसा लगातार ७ शनिवार करें। तांत्रिक अभिकर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा।
६. यदि आपको ऐसा लग रहा हो कि कोई आपको मारना चाहता है तो पपीते के २१ बीज लेकर शिव मंदिर जाएं व शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाकर धूप बत्ती करें तथा शिवलिंग के निकट बैठकर पपीते के बीज अपने सामने रखें। अपना नाम, गौत्र उच्चारित करके भगवान् शिव से अपनी रक्षा की गुहार करें व एक माला महामृत्युंजय मंत्र की जपें तथा बीजों को एकत्रित कर तांबे के ताबीज में भरकर गले में धारण कर लें।
७. शत्रु अनावश्यक परेशान कर रहा हो तो नींबू को ४ भागों में काटकर चौराहे पर खड़े होकर अपने इष्ट देव का ध्यान करते हुए चारों दिशाओं में एक-एक भाग को फेंक दें व घर आकर अपने हाथ-पांव धो लें। तांत्रिक अभिकर्म से छुटकारा मिलेगा।
८. शुक्ल पक्ष के बुधवार को ४ गोमती चक्र अपने सिर से घुमाकर चारों दिशाओं में फेंक दें तो व्यक्ति पर किए गए तांत्रिक अभिकर्म का प्रभाव खत्म हो जाता है।
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कुंडलिनी और ब्रह्मरंध्र [सहस्त्रार ]
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शिर के मध्य से (ब्रह्मरंध्र) में 1 हजार पंखुड़ियों का कमल है उसे ही सहस्रार चक्र कहते हैं |उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है |यहीं आकर कुण्डलिनी शिव से मिल गई है। इसे आत्मा का स्थान, सूत्रात्मा धाम आदि कहते हैं। यहीं से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे में बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति दे-देकर कठपुतलियों को नचाया करता है। विराट् ब्रह्माण्ड में हलचल पैदा करने वाली सूत्र शक्ति और विभाग इस सहस्रार कमल के आसपास फैल पड़े हैं। यहीं अमृत पान का सुख, विश्व-दर्शन संचालन की शक्ति और समाधि का आनन्द मिलता है। यहाँ तक पहुँचना बड़ा कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव ऐश्वर्य और सौंदर्यवान युवती पत्नियों का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छः चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानना, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियाँ पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।
सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतम लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।
सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अन्दर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में “महाविवर” नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुँज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे “दशम द्वार” या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। ध्यान बिन्दु उपनिषद् में कहा है-
मस्तकेमणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित्।
तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत्॥(46)
अर्थात्-मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है जो उसे जानते हैं वहीं योगी है। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेढ़ स्थान के नीचे है |इस स्थान पर पहुँचने की शक्यों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति” अर्थात् वह परम विज्ञानी, त्रिकालदर्शी और सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है वह चाहे जो कुछ करे उसे कोई पाप नहीं होता। उसे कोई जीत नहीं सकता।
ब्रह्मरंध्र एक प्रकार से जीवात्मा का कार्यालय है |इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहाँ तक हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्त्वदर्शन के अनुसार यहाँ 17 तत्त्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुँज विद्यमान् हैं जो दृश्य जगत में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते। समस्त ज्ञानवाहक सूत्र और बात नाड़ियाँ यहीं से निकल कर सारे शरीर में फैलती हैं। सूत्रात्मा इसी भास्कर श्वेत दल कमल में बैठा हुआ चाहे जिस नाड़ी के माध्यम से शरीर के किसी भी अंग को आदेश-निर्देश और सन्देश भेजता ओर प्राप्त करता रहता है। वह किसी भी स्थान में हलचल पैदा कर सकता है किसी भी स्थान की बिना किसी बाध्य-उपकरण के सफाई ओर प्राणवर्धा आदि, जो हम सब नहीं कर सकते वह सब कुछ कर सकता है। यह सब ज्योति पुञ्जों के स्स्रण आकुंचन-प्रकुञ्चन आदि से होता है। नाक, जीभ, नेत्र, कर्ण, त्वचा इन सभी स्थूल इन्द्रियों को यह प्रकाश-गोलक ही काम कराते हैं और उन पर नियन्त्रण सहस्रारवासी परमात्मा का होता है। ध्यान की पूर्वावस्था में यह प्रकाश टिमटिमाते जुगनू चमकते तारे, चमकीली कलियाँ, मोमबत्ती, आधे या पूर्ण चन्द्रमा आदि के प्रकाश-सा झलकता है। धीरे-धीरे उनका दिव्य रूप प्रतिभासित होने लगता है उससे स्थूल इन्द्रियों की गतिविधियों में शिथिलता आने लगती है और आत्मा का कार्य-क्षेत्र सारे विश्व में प्रकाशित होने लगता है।
सामान्य व्यक्ति को केवल अपने शरीर और सम्बन्धियों तक ही चिन्ता होती है | पर योगी की व्यवस्था का क्षेत्र सारी पृथ्वी, और दूसरे लोकों तक फैल जाता है | उसे यह भी देखना पड़ता है कि ग्रह-नक्षत्रों की क्रियायें भी तो असंतुलित नहीं हो रही। स्थूल रूप से इन गतिविधियों से पृथ्वी वासी भी प्रभावित होते रहते हैं इसलिये अनजाने में ही ऐसी ब्राह्मी स्थिति का साधक लोगों का केवल हित संपादित किया करता है। उसे जो अधिकार और सामर्थ्य मिली होती हैं वह इतने बड़े उत्तरदायित्व को संभालने की दृष्टि से ही होती है। वैसे वह भले ही शरीरधारी दिखाई दे पर उसे शरीर की सत्ता का बिलकुल ज्ञान नहीं होता। वह सब कुछ जानता, देखता, सुनता और आगे क्या होने वाला है वह सब पहचानता है।
विज्ञानमय कोष और मनोमय कोष के अध्यक्ष मन और बुद्धि यहीं रहते हैं और ज्ञानेन्द्रियों से परे दूर के या कहीं भी छिपे हुए पदार्थों के समाचार पहुँचाते रहते हैं। आत्म-संकल्प जब चित्त वाले क्षेत्र से बुद्धि क्षेत्र में पदार्पण करता है तब दिव्य दृष्टि बनती है और वह आज्ञा चक्र से निकल कर विश्व ब्रह्माण्ड में जो अनेक प्रकार की रश्मियाँ फैली हैं उनसे मिलकर किसी भी लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेती है। विद्युत तरंगों के माध्यम से जिस प्रकार दूर के अन्तरिक्ष यानों को पृथ्वी से ही दाहिने-बायें (ट्रीवर्स) किया जा सकता है। जिस प्रकार टेलीविजन के द्वारा कहीं का भी दृश्य देखा जा सकता है उसी प्रकार बुद्धि और संकल्प की रश्मियों से कहीं के भी दृश्य देखे जाना या किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करना मनुष्य को भी सम्भव हो जाता है। मुण्डक और छान्दोग्य उपनिषदों में क्रमशः खण्ड 2 और 9 में इन साक्षात्कारों का विशद वर्णन है और कहा गया है-हिरण्यभये परेकोणे विरजं ब्रह्म निष्फलं, तच्छुत्रं ज्योतिषाँ ज्योति तद् परात्मनो बिदुः” अर्थात् आत्मज पुरुष इस हिरण्मयं कोष में शुभ्रतम ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं |….
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“गायत्री मंत्र” की सम्पूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण महत्व, अर्थ
,ॐ भूर्भुवः स्व:
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्यः धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।
हे प्रभु! आप हमारे जीवन के दाता हैं
आप हमारे दुख़ और दर्द का निवारण करने वाले हैं
आप हमें सुख़ और शांति प्रदान करने वाले हैं
हे संसार के विधाता
हमें शक्ति दो कि हम आपकी उज्जवल शक्ति प्राप्त कर सकें
क्रिपा करके हमारी बुद्धि को सही रास्ता दिखायें
मंत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या
गायत्री मंत्र के पहले नौं शब्द प्रभु के गुणों की व्याख्या करते हैं
ॐ = घेर
भूर = मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला
भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला
स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला
तत = वह, सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल
वरेण्यं = सबसे उत्तम
भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला
देवस्य = प्रभु
धीमहि = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान)
धियो = बुद्धि, यो = जो, नः = हमारी, प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना)
इस प्रकार से कहा जा सकता है कि गायत्री मंत्र में तीन पहलूओं क वर्णन है – स्त्रोत, ध्यान और प्रार्थना ।
सबसे पवित्र मन्त्र
‘गायत्री’, ‘सावित्री’ और ‘सरस्वती’ एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं। इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही हैं। भगवान व्यास कहते हैं- “जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है। गायत्री मन्त्र ऋक्, यजु, साम, काण्व, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है, किन्तु सर्वत्र एक ही मिलता है। इसमें चौबीस अक्षर हैं।
महत्त्व
गायत्री सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम मंत्र है। जो कार्य संसार में किसी अन्य मंत्र से हो सकता है, गायत्री से भी अवश्य हो सकता है। इस साधना में कोई भूल रहने पर भी किसी का अनिष्ट नहीं होता, इससे सरल, श्रम साध्य और शीघ्र फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है। समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर में कही गयी है। अथर्ववेद में गायत्री को आयु, विद्या, संतान, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है। विश्वामित्र ऋषि ने कहा है, “गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। संपूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री की एक कला के समान भी नहीं हैं।”

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