इतिहास के अद्भुत रहस्य SATURDAY, APRIL 8, 2017 द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास ( भाग 2) आचार्य राधेश्याम द्विवेदी द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास ( भाग 2) आचार्य राधेश्याम द्विवेदी (टिप्पणीः- इस श्रंखला को उपलब्घ प्रमाणों के आधार पर तैयार किया गया है। इसे और प्रमाणिक बनाने के लिए सुविज्ञ पाठकों व विद्वानों के विचार व सुझाव सादर आमंत्रित है।) गोत्र का सामान्य अर्थः- गोत्र का सामान्य अर्थ है कि कोई व्यक्ति किस ऋषिकुल में से उतर कर इस धरा पर अवतरित हुआ है। उसका जन्म किस ऋषिकुल से संबन्धित है। किसी व्यक्ति की वंश परंपरा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता रहा है। सभी जन किसी न किसी ब्राह्मण ऋषि की ही संतान होते है। इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ या सम्बद्ध रहा वह उस ऋषि का वंशज कहा जाने लगा। गोत्रों की उत्पत्ति सर्व प्रथम ब्राह्मणो मे ही हुई थी क्योकि यह वर्ग ही ज्ञान से इसे स्मरण रखने में समर्थ था। धीरे धीरे जब ब्राह्मण वर्ग का विस्तार हुआ तब अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के लिए उत्तरवर्तियों ने अपने आदि पुरुषों के नाम पर अपने अपने गोत्र का विस्तार मानने लगे। इन गोत्रों के मूल ऋषि - अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, तथा कुशिक थे। इनके वंशज अंगिरस, भार्गव,आत्रेय, काश्यप, वशिष्ठ अगस्त्य, तथा कौशिक कहे जाने लगे। इन गोत्रों के अनुसार प्रत्येक इकाई को “गण”नाम दिया गया। यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा। कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर अन्यानेक शाखाये बनाई गई। इस तरह इन सप्त ऋषियों के पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण करने लगे। वेदों का अध्ययन करने पर सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है।जो ब्राह्मण के वंशज हुए और उन्हें के गोत्र से ब्राह्मणों का विकास हुआ। वे नाम क्रमशः इस प्रकार है- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक। गोत्र शब्द का शाव्दिक अर्थः- गोत्र शब्द का शाव्दिक अर्थ गो और त्र शव्द से बना है। गो का मतलब पृथ्वी भी है और ‘त्र’ का अर्थ रक्षा करने वाला भी है। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करने वाले ऋषि से है। भगवान् ने भी ब्राह्मणों को सभी से श्रेष्ठ इसलिए कहा क्योंकि ब्राह्मण शास्त्र के साथ शस्त्र भी उठा कर पृथ्वी की रक्षा कर सकते हैं। इसलिए ब्राह्मण सदैव पूजनीय रहा है।गो शब्द इंद्रियों का वाचक भी है। ऋषि मुनि अपनी इंद्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनो का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्र कारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे। जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा पड़ गई। गोत्र का इतिहासः-भविष्य पुराण में ब्राम्हण के गोत्रों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्व की आर्यावनी नाम की देवकन्या पत्नी हुई। इन्द्रकी आज्ञासे दोनों कुरुक्षेत्रवासिनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण्व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे। एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और आर्यों की समृद्धि के लिये उन्हे वरदान दिया। वर के प्रभाव से कण्व के आर्य बुद्धि वाले दस पुत्र हुए -जिनके नाम उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, द्विवेदी, त्रिवेदी, पाण्डेय और चतुर्वेदी है। इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण भी था। इन लोगो ने नतमस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदादेवी ने अपनी कन्याए प्रदान की। वे क्रमशः उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, त्रिवेदिनी पाण्ड्यायनी और चतुर्वेदिनी कहलायीं। फिर उन कन्याओ के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम है- कश्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि वसिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगडत्र अंगिरा, श्रृंगी, कात्यायन और याज्ञवल्क्य हुए। इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं जातिवादी व्यवस्था की शुरुवातः-जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत यह रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर गोत्र का नाम चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है। अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते। जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते।मानव जीवन में जाति की तरह गोत्रों का बहुत महत्त्व है ,यह हमारे पूर्वजों का याद दिलाता है साथ ही हमारे संस्कार एवं कर्तव्यों को भी याद दिलाता रहता है। इससे व्यक्ति के वंशावली की पहचान होती है एवं हर व्यक्ति अपने को गौरवान्वित महसूस करता है । हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए जाते हंै। ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ऋषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है। इनकी उत्पत्ति कैसे हुई इस सम्बंध में धार्मिक ग्रन्थों का आश्रय लेना पड़ता है। (क्रमशः अगले अंक में……….) Radheyshyam Dwivedi at 10:13 PM Share  No comments: Post a Comment ‹ › Home View web version ABOUT ME  Radheyshyam Dwivedi  View my complete profile Powered by Blogger. 
MONDAY, APRIL 10, 2017
द्विवेदी ब्राह्मण के प्रमुख गोत्र का इतिहास ( भाग 3) आचार्य राधेश्याम द्विवेदी
द्विवेदी ब्राह्मण के प्रमुख गोत्र का इतिहास (भाग 3)
आचार्य राधेश्याम द्विवेदी
(टिप्पणीः- इस श्रंखला को उपलब्घ प्रमाणों केआधार पर तैयार किया गया है। इसे औरप्रमाणिक बनाने के लिए सुविज्ञ पाठकों वविद्वानों के विचार व सुझाव सादर आमंत्रित है।)
प्रमुख गोत्र:-
भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश)- भारद्वाज ऋषि के चारपुत्र बाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों सेबताई जाती है (१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार। कन्चनियाँ और लाठीयारीइन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जोवास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन इनके पिताक्रमश उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थेपरन्तु वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एकपोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजाके कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलायाजिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तोदूसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमेकन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे कीगादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगेंद्य सरार केदुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएवइनको तीन के समकक्ष माना जाता हैद्य सावरणगोत्र ( पाण्डेय वंश) सावरण ऋषि के तीन पुत्रबताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलनरहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता हैजिनके तीन गाँव निम्न हैंद्य (१) इन्द्रपुर (२)दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)
शान्डिल्य गोत्र:- शांडिल्य नाम गोत्रसूची में है, अतरू पुराणादि में शांडिल्य नाम से जो कथाएँमिलती हैं, वे सब एक व्यक्ति की नहीं हो सकतीं।छांदोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद् में शांडिल्यका प्रसंग है। पंचरात्र की परंपरा में शांडिल्यआचार्य प्रामाणिक पुरुष माने जाते हैं।शांडिल्यसंहिता प्रचलित हैय शांडिल्य भक्तिसूत्रभी प्रचलित है। इसी प्रकार शांडिल्योपनिषद् नामका एक ग्रंथ भी है, जो बहुत प्राचीन ज्ञात नहींहोता। युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों मेंशांडिल्य का नाम है। राजा सुमंतु ने इनको प्रचुरदान दिया था, यह अनुशासन पर्व (137। 22) सेजाना जाता है। अनुशासन 65.19 से जाना जाताहै कि इसी ऋषि ने बैलगाड़ी के दान को श्रेष्ठ दानकहा था। शांडिल्य नामक आचार्य अन्य शास्त्रों मेंभी स्मृत हुए हैं। हेमाद्रि के लक्षणप्रकाश मेंशांडिल्य को आयुर्वेदाचार्य कहा गया है। विभिन्नव्याख्यान ग्रंथों से पता चलता है कि इनके नाम सेएक गृह्यसूत्र एवं एक स्मृतिग्रंथ भी था। शाण्डिल्यऋषि के १२ पुत्र थे जो इन १२ गाँवो में प्रभुत्वरखते थे- १ सांडी २ सोहगौरा ३ संरयाँ ४ श्रीजन५ धतूरा ६ भगराइच ७ बलुआ ८ हरदी ९ झूड़ीयाँ१० उनवलियाँ ११ लोनापार १२ कटियारी। इन्हेआज बरगाव ब्राम्हण के नाम से भी जाना जाताहै।उपरोक्त बारह गाँव के चारो तरफ इनकाविकास हुआ है ! ये कान्यकुब्ज ब्राम्हण है! इनकागोत्र श्री मुख शाण्डिल्य - त्रि - प्रवर है, श्री मुखशाण्डिल्य में घरानो का प्रचलन है, जिसमे रामघराना, कृष्ण घराना, मणि घराना है ! इन चारो काउदय सोहगौरा, गोरखपुर से है, जहा आज भी इनचारो का अस्तित्व कायम है।यही विश्व के सर्वोत्तमश्रेष्ठ उच्च कुलीन ब्राम्हण कहलाते है इनके वंशजसमय के साथ भारत के विकास के लिए लोगो कोशिक्षित करने ज्ञान बाटने के उद्देश्य से भारत केविभिन्न क्षेत्रो में जा कर बस गए और वर्तमान मेंभारत के विभिन्न क्षेत्रो में निवास करते है।
द्विवेदी उपजाति वालों के प्रमुख गोत्रः- द्विवेदीएक यर्जुवेदिय मध्यान्धनी शाखा के ब्राम्हण होतेहैं। जिनमें प्रमुख गोत्र भार्गव, बत्स, भारद्वाज, शान्डिल्य इत्यादि होते हैं। इन गोत्रों के उद्भव एवंविकास के इतिहास के बारे में विचार करेंगे।
वत्स गोत्र की पौराणिक पृष्ठभूमि- भृगु,पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रितथा वशिष्ठ आदि इन नौ मानस पुत्रों को व्रह्मा नेप्रजा उत्पत्ति का कार्य भार सौंपा था। कालान्तरमें इनकी संख्या बढ़कर 26 तक हो गई। इसकेबाद इनकी संख्या 56 हो गई। इन्हीं ऋषियों केनाम से गोत्र का प्रचलन हुआ और इनके वंशजअपने गोत्र ऋषि से संबद्ध हो गए। हरेक गोत्र मेंप्रवर, गण और उनके वंशज(व्राह्मण) हुए। कुछगोत्रों में सुयोग्य गोत्रानुयायी ऋषियों को भी गोत्रवर्धन का अधिकार दिया गया। नौ मानस पुत्रों मेंसर्वश्रेष्ठ भृगु ऋषि गोत्रोत्पन्न वत्स ऋषि को अपनेगोत्र नाम से प्रजा वर्धन का अधिकार प्राप्त हुआ।इनके मूल ऋषि भृगु रहे। इनके पांच प्रवर- भार्गव, च्यवन, आप्रवान, और्व और जमदग्नि हुए।मूल ऋषि होने के कारण भृगु ही इनके गण हुए।इनके वंशज(ब्राह्मण) शोनभद्र,(सोनभदरिया), बछ्गोतिया, बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत औरदनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण हुए। वत्ससाम्राज्य गंगा यमुना के संगम पर इलाहबाद सेदक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था। जिसकीराजधानी कौशाम्बी थी। पाली भाषा में वत्स को‘वंश’ और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में ‘वच्छ’ कहा जाता था। यह अर्धमगधी का ही प्रभाव हैकि ‘वत्स गोत्रीय’ भूमिहार ब्राह्मण अनंतर में‘वछगोतिया’ कहलाने लगेद्य छठी शताब्दी ई.पू. के सीमांकन के अनुसार वत्स जनपद के उत्तर मेंकोसल, दक्षिण में अवंती, पूरब में काशी औरमगध, तथा पश्चिम में मत्स्य प्रदेश था। कालक्रमसे वत्स गोत्र का केंद्रीकरण मगध प्रदेश मेंशोनभद्र के च्यवनाश्रम के चतुर्दिक हो गयाक्योंकि इसका प्रादुर्भाव च्यवनकुमार दधीच सेजुड़ा हुआ था। मगध प्रदेश में काशी के पूरब औरउत्तर से पाटलीपुत्र पर्यंत अंग प्रदेश से पश्चिम तकवत्स गोत्रीय समाज का विस्तार था। सम्प्रति वत्सगोत्र उत्तर प्रदेश के शोनभद्र से लेकर गाजीपुरतक तथा गया-औरंगाबाद में सोन नदी के किनारेसे लेकर पटना, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी-गोरखपुर तक फैला हुआ है।
(क्रमशः अगले अंक में……….)
Radheyshyam Dwivedi at 2:51 AM
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Brahmin Gotra nice concep in gotra vali...keep growing with good work
ReplyDeleteएक अन्य प्रकार के दूवे भी होते हैं जो सौर्य या शेर दूवे कहे जाते हैं इनका गोत्र भी गौतम है,
Deleteऐसा माना जाता है कि महर्षि गौतम के सौर्य नामक पुत्र से इनकी उत्पति हुई है,माना जाता है कि छपरा-सिवान के आस पास है और बहराइच,श्रावस्ती व बलरामपुर में भी इनकी शाखा हैं जिसमें अनेक विद्वान पुरूष जन्म लिये
ReplyDeleteघरवास के दुबे का मूल क्षेत्र बताने की क्रपा करें।
ReplyDeleteGotra kya hi
Deleteआदरणीय सरयूपारी भारद्वाज गोत्र बेलौहा द्विवेदी का गाँव बेलवा कहाँ है हमे बताने की कृपा करें। आपके जबाव का इंतेजार रहेगा
ReplyDeleteकश्यप गोत्र में दूबे कहाँ पर मिलते हैं, और वह कौन से दुबे हैं। बस्ती, देवरिया तथा गोरखपुर में कौन कौन से गांव में हैं।
ReplyDeleteजिस किसी का गोत्र ज्ञात नहीं होता वह अपने धार्मिक अनुष्ठानों में कश्यप गोत्र का प्रयोग करते हैं।कश्यप अनेक उप गोत्रों का मूल या पिता जैसे ऋषि थे। ब्रह्मण वश के वे आदि कुल गुरु या कुल पुरुष रहे।
Deleteजय राज पुर कहा पडता हैं.
ReplyDeleteSamdariya duve ka gotra kya hai
ReplyDeleteभारद्वाज गोत्र है।
Deleteपरौहा दुबे(टांड़ के) का मूल क्षेत्र और दूसरे डिटेल बताने की क्रपा करें।
ReplyDeleteमहोदय को सादर प्रणाम महोदय कृपया आप से विनम्र आग्रह है कि कंचनिया दुबे के कुल गुरू कल देवी कुल देवता कौन है व इनका मंदिर कहां पर है साथ ही साथ वर्तमान समय मे कंचनिया दुबे का मूल गांव कौन सा है गांव कहां पर है व कौन सा है कृपया हमें अवगत कराने की कृपा करें।
ReplyDeleteतथा कंचनिया दुबे की समस्त वंशावली कहां से व कैसे प्राप्त हो सकती है कृपया उपाय सुझाएं हम सदैव आपके आभारी रहेंगे।
ब्रजभूषण दुबे
ग्राम - पुरा रघुनाथपुर
पोस्ट - लाल बहादुर शास्त्री अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बाबतपुर वाराणसी पिन - 221006 उत्तर प्रदेश
भैया हम भी ढूंढ रहे है मिल जाये तो बतलाईये
DeleteAadarniya kya nam ke piche Bhargav likhne vale dvedi vanshiy Gautam gotriya ho sakte hai
ReplyDeleteउपमन्यु गोत्र घरवास के दुबे के कुल देवी कुल देवता की जानकारी देने की कृपा करें
ReplyDeleteघरवास के दुबे उपमन्यु गोत्र के कुल देवी कुल देवता की जानकारी देने की कृपा करें
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