Sunday, 17 September 2017
दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी
卐 श्री दादूवाणी दर्शन 卐~卐 Shri Daduvani Darshan 卐
परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी
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SATURDAY, JUNE 27, 2015

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है ।
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |
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(परिचय का अंग ४)
बादल नहिं तहं वरषत देख्या, शब्द नहीं गरजँदा ।
बीज नहीं तहं चमकत देख्या, दादू परमानन्दा ॥
बादलों के बिना ही आज्ञा चक्र के ऊपर अमृत स्थान से अमृत वृष्टि होती है । जहां आघात जन्य शब्द कभी भी नहीं होता वहां ही अनाहत ध्वनि रूप गर्जना होती है । बिजली बिना ही बिजली के सामान आत्म - ज्योति का प्रकाश चमकता हुआ दृष्टि में आता है । इन सबको देखकर हमें अति आनन्द होता है ।
ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषे मेह ।
तहं चित चातक ह्वै रह्या, दादू अधिक सनेह ॥
समाधि अवस्था में ऐसा आश्चर्य देखने में आता है - प्राकृत बादल न होने पर भी ब्रह्म - मेघ से ब्रह्म - दर्शन वर्षा होती रहती है । उस समाधि अवस्था में हमारा चित्त चातक पक्षी के समान अति प्रेम से ब्रह्म - दर्शन स्वाति बिन्दु के पान करने में अनुरक्त हुआ रहता है ।
आत्म बल्लीतरु
ऐसा एक अनूप फल, बीज बाकुला नाँहि ।
मीठा निर्मल एक रस, दादू नैनहुं माँहि ॥
अपने ज्ञान का परिचय दे रहे हैं - जीवात्मा रूप बेलि जब मननादि साधन - जल से वृद्धि को प्राप्त हुई, तब उसके उपमा रहित ब्रह्म ज्ञान रूप एक ऐसा फल लगा है, जिस में अज्ञान – बीज नहीं है, भोग - वासना छिलका नहीं है । सँशय - विपर्य्य दोषों से रहित होने से निर्मल है । आनन्द - मधुरता से सम्पन्न है, सदा एक रस है और हमारे विचार - नेत्रों में स्थित है ।
वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनँत ।
कीमत नहिं करतार की, ऐसा है भगवँत ॥
तेज स्वरूप ब्रह्म अनन्त है । ब्रह्म के स्वरूप प्रकाश का आदि अन्त नहीं ज्ञात होता । विश्व का आदि कर्त्ता होने से उसकी महिमा रूप कीमत, उसके कार्य से पूर्ण रूप से नहीं हो सकती । ऐसा विलक्षण ब्रह्म का स्वरूप है ।
नूर सरीखा नूर है, तेज सरीखा तेज ।
ज्योति सरीखी ज्योति है, दादू खेले सेज ॥
उस ब्रह्म स्वरूप के समान उसी का स्वरूप है । उसके तेज सदृश उसी का तेज है । उसकी ज्ञान ज्योति के समान उसी की ज्ञान ज्योति है । किसी प्रकार भी उसके विवर्त्त - सँसार के किसी भी व्यक्ति, वस्तु आदि की उपमा उसे नहीं दी जा सकती । उसकी अष्टदल - कमल - शय्या पर हम उससे दर्शनानन्द का अनुभव रूप खेल खेलते रहते हैं ।
तेज पुँज की सुन्दरी, तेज पुँज का कंत ।
तेज पुँज की सेज पर, दादू बन्या वसँत ॥
आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन रूप होने से तेजो राशि है । अत: तेजो राशि ब्रह्म – स्वामी और तेजो राशि हमारी आत्मा - सुन्दरी, तेज - पुँज ब्रह्म की शय्या अष्टदल - कमल पर दोनों की एकता होने से वसँत बन गई है अर्थात् हमें वसँत के समान अखँड आनन्द का अनुभव हो रहा है । शँका - वसँत में तो वृक्षों के पुष्पों की अधिकता होने से पुष्प - वर्षा होती रहती है और नर - नारी फाग खेलते हैं ।
घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धार ।
दादू भीजे आतमा, को साधू पीवनहार ॥
समाधि अवस्था में प्राकृत मेघ समूह के बिना ही ब्रह्म - झरने से निर्मल ब्रह्म - दर्शन – धारा बरसती है, उससे जीवात्मा भीगता है अर्थात् दर्शन में निमग्न होकर शाँति प्राप्त करता है, किन्तु ब्रह्म के साथ अभेद होना रूप पान तो कोई विरला सँत ही करता है । दर्शन तो योगियों को समाधि में हो जाते हैं परन्तु ब्रह्म से अभेद तो ज्ञानी योगी का ही होता है ।
कामधेनु दुहि पीजिये, ताको लखे न कोइ ।
दादू पीवै प्यास सौं, महारस मीठा सोइ ॥
जो कामनाओं को पूर्ण करने वाली ब्रह्म - कामधेनु है, उसे कोई भी बहिर्मुख प्राणी नहीं देख सकता । साधको ! तुम अन्तर्मुख वृत्ति करके ध्यान - दोहन द्वारा उसके दर्शन - दुग्ध का पान करो । जो कोई दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा वाला ज्ञान द्वारा ब्रह्म - दर्शन - महारस पान करता है तो उसके लिये वह ब्रह्म - दर्शन अति मधुर हो जाता है ।
कामधेनु दुहि पीजिये, अगम अगोचर जाइ ।
दादू पीवै प्रीति सौं, तेज पुँज की गाइ ॥
ज्ञान - ज्योति राशि ब्रह्म - कामधेनु गो का दर्शन दुग्ध हम तो अति प्रेम से पान करते हैं । साधको ! तुम षट् प्रमाण की अविषय, इन्द्रियातीत निर्विकल्प समाधि अवस्था में जाकर, ब्रह्म - कामधेनु का अभेद - दर्शन दुग्ध अहँ ब्रह्मास्मि अखँड वृत्ति दोहन क्रिया द्वारा पान करो ।
ऐसी एकै गाइ है, दूझै बारह मास ।
सो सदा हमारे संग है, दादू आतम पास ॥
वह एक मात्र ब्रह्म - गो ही ऐसी विलक्षण है जो बारह मास ही दर्शन - दुग्ध देती रहती है । ब्रह्म साक्षात्कार होने पर ब्रह्मात्मा का अभेद ही सदा भासता रहता है । वह ब्रह्म - गो आत्मा के अभेद भाव से अति निकट होने से सदा हमारे साथ ही है ।
परिचय आत्म बल्ली तरु
तरुवर शाखा मूल बिन, धरती पर नाँहीं ।
अविचल अमर अनन्त फल, सो दादू खाहीं ॥
ब्रह्म, आत्मा का वृक्ष - बेलि के रूप में परिचय दे रहे हैं - शुद्ध ब्रह्म - वृक्ष पृथ्वी पर नहीं लगता, कारण, वह तो सँपूर्ण भौतिक प्रपँच का अधिष्ठान है, अधिष्ठान विवर्त्त के आश्रय कैसे रह सकता है । न उसका कोई कारण रूप मूल और न कार्य रूप शाखा है । शुद्ध ब्रह्म किसी का कारण - कार्य नहीं हो सकता । उसी अविचल, अनन्त, ब्रह्म - वृक्ष का साक्षात्कार रूप फल हम साधक लोग खाते हैं अर्थात् ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं ।
प्राण तरुवर सुरति जड़, ब्रह्म भूमि ता माँहि ।
रस पीवे फूले फले, दादू सूखे नाँहि ॥
ब्रह्म की आधारता का परिचय दे रहे हैं - प्राणधारी साधक सँत ही तरुवर है । उसकी ब्रह्माकार वृत्ति ही जड़ है । ब्रह्म ही भूमि है । ब्रह्म - भूमि में स्थित रहकर सँत - तरुवर, उसी का चिन्तन - रस पान करता रहता है । इसी कारण सँत - तरुवर प्रेमाभक्ति - फूल और ज्ञान - फलों से सम्पन्न रहता है और शोक, मोहादि ताप से नहीं सूखता ।
आशिकाँ१ मस्ताने आलम२, खुरदनी३ दीदार४ ।
चँद५ रह६ चे७ कार८ दादू, यार९ माँ१० दिलदार११ ॥
साधकों की अनन्यता बता रहे हैं - सँसार२ में भगवान् के प्रेमी१ - जन भगवद् - दर्शन४ रूप भोजन३ करके और उदार११ ईश्वर रूप प्रेमपात्र९ का प्रेम - रस१० पान करके मस्त रहते हैं । उन्हें स्वर्गादि के साधन रूप अल्प५ मार्गों९ से क्या७ काम८ है ? वे स्वर्गादिक प्राप्ति के साधन नहीं करते । रह के स्थान में दह पाठ भी मिलता है, चन्द दह का अर्थ १४ लोक करते हैं ।
दादू देखि देखि सुमिरण करै, देखि देखि लै लीन ।
देखि देखि तन मन विलै, देखि देखि चित दीन ॥
भगवन्नाम महिमा, शास्त्र व सँत वाणियों में पुन: २ देख कर नाम स्मरण करते रहते हैं । सँसार में बारम्बार विक्षेप का अनुभव करके चित्त को भगवद्ध्यान में ही लगाते हैं । बारम्बार विचार द्वारा सँसार को असार समझकर अन्त:करण की वृत्ति ब्रह्म में ही लीन करते हैं । शरीर, मनादि को ब्रह्म का विवर्त्त समझकर बाधितानुवृत्ति से ब्रह्म में विलीन करके अभेद रूप से निरन्तर ब्रह्म का ही साक्षात्कार करते रहते हैं ।
दादू माटी के मुकाम का, सब को जानें जाप ।
एक आध अरवाह का, विरला आपैं आप ॥
स्थूल शरीर की रक्षादि के लिये सकाम जप करना तो सभी मानव जानते हैं किन्तु आत्मा को परमात्मा से मिलाने योग्य निष्काम भाव से जप करने वाले तो कोई २ साधक ही होते हैं और उनमें भी ब्रह्म को अपना स्वरूप जानकर स्वरूपानन्द में निमग्न रहने वाला तो कोई विरला ही होता है ।
दादू राम नाम सौं मिल रहे, मन के छाड़ि विकार ।
तो दिल ही माँहीं देखिये, दोनों का दीदार ॥
यदि मन के कामादिक सम्पूर्ण विकारों का त्याग करके वृत्ति राम - नाम से अभेद हो जाय तब तो सन्त रूप सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म तथा आत्मा - परमात्मा के दर्शन अपने हृदय में ही किये जा सकते हैं ।
दादू सेवक सांई का भया, तब सेवक का सब कोइ ।
सेवक सांई को मिल्या, तब सांई सरीखा होइ ॥
जब सन्त - सेवक परमात्मा का बन जाता है, तब परमात्मा का सब ऐश्वर्य सँत का हो जाता है और जब सन्त - सेवक परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, तब वह परमात्मा रूप ही बन जाता है ।
aneela at 3:58:00 PM No comments:
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दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।
चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya~
परमात्म शांती से दोषों की निवृत्ति होती है…
परमात्म शांती से भाग्य की रेखाए बदलती है..
परमात्म शांती से परमात्म सामर्थ्य आता है..
परमात्म ज्ञान से सुख दुःख में समता आती है.
परमात्म सुमिरन से राग द्वेष इर्षा शांत होती है..
परमात्मा के प्यारे संतो के संपर्क से प्रेमा भक्ति का रसास्वाद मिलता है…।
भक्ति सकल साधन कर मुला
मिल ही जो होए संत अनुकूला
सभी सुखद साधनो का मूल है भगवान की भक्ति,…
संत भक्त की भक्ति का आस्वादन मिलता है..
धन तो वेश्याओं के पास, किन्नरो के पास, लोफरो के पास भी होता है…धन होना बड़ी बात नहीं..
सत्ता होना बड़ी बात नहीं…
लेकिन जिन की भगवान में भक्ति है ऐसे संतो का संग होना बहोत बड़ी बात है…
भगवान की प्रीति का सदगुण, भगवान के प्यारे संतो के संग का सदगुण
भाग्य के कठिन अंक को भी मिटा देता है…।
aneela at 3:32:00 PM No comments:
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दादू सुध बुध आत्मा, सतगुरु परसे आइ ।
दादू भृंगी कीट ज्यों, देखत ही ह्वै जाइ ॥
दादू भृंगी कीट ज्यूं, सतगुरु सेती होइ ।
आप सरीखे कर लिये, दूजा नाहीं कोइ ॥
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साभार ~ Pannalal Ranga ~
चौबीसवाँ गुरू भृंगी(बिलनी) कीड़ा:--भृंगी कीड़ा अन्य कीड़े को ले जाकर और दीवार पर रखकर अपने रहने की जगह को बन्द कर देता है, लेकिन वह कीड़ा भय से उसी भृंगी कीड़े का चिंतन करते-करते, अपने प्रथम शरीर का त्याग किए बिना ही, उसी शरीर में तद्रूप हो जाता है| अतः जब उसी शरीर से चिंतन किए रूप की प्राप्ति हो जाती है, तब दूसरे शरीर का तो कहना ही क्या है? इसलिये मनुष्य को भी किसी दूसरी वस्तु का चिंतन न करके, केवल परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए| परमात्मा के चिंतन से साधक परमात्मा-रूप हो सकता है|
aneela at 3:28:00 PM No comments:
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॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =
अथ अध्याय ६ ~
८ आचार्य निर्भयरामजी ~
फिर राजा रणजीतसिंह को भी ज्ञात हो गया कि - जोधसिंह नारायणा दादूधाम के आचार्य निर्भयराम जी की शरण गया है । जब जैतराम जी महाराज ने सिक्ख गुरु गोविन्दसिंह जी के बाज को ज्वार चुगा दी थी तब से ही नारायणा दादूधाम की प्रतिष्ठा पंजाब में बहुत हो गई थी । रणजीतसिंह भी नारायणा दादूधाम की उक्त घटना को जानते थे और वर्तमान आचार्य निर्भयराम जी कीर्ति भी रणजीतसिंह जानते थे । निर्भयरामजी महाराज ने जोधसिंह को पुन: राज्य प्राप्ति का साधन - “हरि, गुरु, संतों की सेवा करो ।” यही बताया है । और जोधसिंह ने अपने स्थान में - हरि, गुरु, भक्त, संतों की सेवा करना भी आरंभ कर दिया था । उक्त सब बातों का विचार करके रणजीतसिंह जोधसिंह के पास आया और जोधसिंह को हरि भक्ति में अनुरक्त और संत सेवा में लगा देखकर अति प्रसन्न हुआ और उसका राज्य लौटा दिया । इससे जोधसिंह का निर्भयराम के वचनों पर और भी अधिक दॄढ विश्वास हो गया था । उसने निर्भयरामजी महाराज को अपने गुरु मानकर पर्वत के पास नदी के तट पर संतों के लिये निवास स्थान बनाया और उसमें संतों की सेवा करते हुये हरि भजन करने लगा ।(गुरु पद्धति से )
इस जोध की कथा संबन्धी एक कवित्त देखिये -
चातुरमास सु पारिये बाग सु ह्वै परसाद जु पांति तियारा ।
आप कह्यो हम जीमत नांहिन दोय घ़डी गये जीमन धारा ।।
सेवक संत कियो हठ बूझत, जोध प्रजुद्ध जमाति जु भारा ।
मंगल ब्यौर मंगाय लियो उत कोस दशोतर बैठ निहारा ।। ४९ ।। प्र. ३३ उक्त कवित्त से ध्वनित होता है कि - चातुर्मास के समय आचार्य निर्भयरामजी महाराज बाग में विराजे थे, उस समय जिस सेवक की रसोई थी उसने आकर प्रार्थना की - महाराज ! प्रसाद तैयार है, पंक्ति की भी तैयारी हो गई है, पधारिये । आचार्य निर्भयराम जी महाराज ने कहा - अभी हम नहीं जीमेंगे, थो़डे ठहरो । फिर दो घ़डी व्यतीत होने पर महाराज ने कहा - अब जीमेंगे, पंक्ति की तैयारी करो । फिर पंक्ति लग गई ।
(क्रमशः)
aneela at 3:25:00 PM No comments:
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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - सवैया ग्रन्थ - (सुन्दर विलास)
(२६ . बिचार को अंग)
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी(सम्पादक), पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
२६ . बिचार को अंग =
एक ही बिचार करि सुख दुख सम जांनै,
एक ही बिचार करि मल सब धोइ है ।
एक ही बिचार करि संसार समुद्र तिरै,
एक ही बिचार करि पारंगत होई है ॥
एक ही बिचार करि बुद्धि नाना भाव तजै,
एक ही बिचार करि दूसरौ न कोइ है ।
एक ही बिचार करि सुन्दर सन्देह मिटै,
एक ही बिचार करि एक ब्रह्म जोइ है ॥ ३ ॥
एकान्ततः विचार करते करते तुम सुख दुःख आदि द्वन्द्वों में समता ला पाओगे तथा अपमे चित्त को सभी मलों से(विकारों) से स्वच्छ कर सकोगे । इस एक विचार पद्धति से ही तुम इस भवसागर को पार कर सकोगे । तथा इस विचार के द्वारा सभी सांसारिक दुःखों से भी मुक्त हो सकोगे । इस विचारसरिणि के माध्यम से ही तुम्हारी बुद्धि में स्थित जगत् के प्रति नानात्व भाव(एताद्विषयक द्वैत भाव) मिट सकेगा । इस के मिटाने का अन्य कोई उपाय इस ‘विचार’ के अतिरिक्त नहीं है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - इस ‘विचारपद्धति’ के द्वारा ही अपने मन के ब्रह्मविषयक सभी सन्देह मिटाये जा सकते हैं तथा उस ब्रह्म से संयुक्त हुआ जा सकता है ॥ ३ ॥
(क्रमशः)
aneela at 3:16:00 PM No comments:
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|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |
त्रयोदश बिंदु -
शिष्य धीराजी -
एक दिन आमेर में एक धीराजी नामक सज्जन दादूजी का दर्शन करने आये और प्रणाम करके दादूजी के सामने बैठ गये | फिर हाथ जोड़कर धैर्य पूर्वक बोले - "स्वामीजी महाराज ! आज आप के दर्शन करके मैं धन्य हो गया हूँ | फिर भी आप से एक प्रश्न करता हूं | आप त्रिकालदर्शी महान् संत हैं, मेरे प्रश्न का उचित उत्तर ही देंगे | ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है | भगवन् ! संसार में ज्ञान नाना प्रकार के हैं किन्तु आपके विचार में प्रभु की प्राप्ति कराने वाला शुद्ध ज्ञान कौनसा है ? साधक किस ज्ञान का विचार करे ? आप कृपा करके बतावें | तब दादूजी ने कहा -
"प्रेम भक्ति दिन दिन बधे, सोई ज्ञान विचार |
दादू आतम शोध कर, मथकर काढ्या सार ||"
जिस ज्ञान के द्वारा प्रतिदिन प्रेमा भक्ति की वृद्धि हो, उसी विचार का ज्ञान करना चाहिये | पूर्वकाल के साधकों ने प्रेमाभक्ति से अन्तःकरण को मल विक्षेप की निवृत्ति द्वारा सुद्ध तथा स्थिर करके फिर निदिध्यासन रूप मन्थन से ब्रह्म का साक्षात्कार रूप सार निकाला था | तुम भी उक्त प्रकार ज्ञान का साधन करके प्रेमाभक्ति द्वारा प्रभु को प्राप्त करके परम तृप्ति का लाभ उठाओ | उक्त उपदेश सुन कर धीराजी अति प्रसन्न हुये और दादूजी महाराज के शिष्य बन कर दादूजी महाराज की साधन पद्धति के अनुसार साधन करके परम तृप्ति को प्राप्त हुये हैं | धीराजी सौ शिष्यों में हैं |
(क्रमशः)
aneela at 3:10:00 PM No comments:
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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२६२.(गुजराती) जलद त्रिताल ~
ते हरि मलूं मारो नाथ !
जोवा ने मारो तन तपे, केवी पेरें पामूं साथ ॥ टेक ॥
ते कारण हूँ आकुल व्याकुल, ऊभी करूं विलाप ।
स्वामी मारो नैणें निरखूं, ते तणों मनें ताप ॥ १ ॥
एक वार घर आवे वाहला, नव मेलूं कर हाथ ।
ये वीनती सांभल स्वामी, दादू तारो दास ॥ २ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विनती कर रहे हैं हे हरि ! आप ही हमारे नाथ हो, आप हम से अब मिलिये । आपको देखने के लिये मेरा शरीर विरह की ताप से जल रहा है । मैं आपका साथ किस तरह प्राप्त कर सकूँगी ? मैं आपके दर्शनों के लिये व्याकुल हो रही हूँ और अन्तःकरण मैं एक निश्चय से खड़ी - खड़ी विलाप करती हूँ । आप मेरे स्वामी हो, मैं ज्ञानरूप नेत्रों से आपका दर्शन करूं । हे नाथ ! आपका दर्शन न पाने से ही मुझे दुःख हो रहा है । हे प्यारे प्रीतम ! आप एक दफा हमारे हृदयरूप घर में आ जाओ, तो फिर हम आपका हाथ नहीं छोड़ेंगे । हे हमारे स्वामी परमेश्वर ! हमारी विनती स्वीकार कीजिए । हम आपही के दास हैं ।
aneela at 2:58:00 PM No comments:
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FRIDAY, JUNE 26, 2015

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है ।
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |
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(परिचय का अंग ४)
दादू तिस सरवर के तीर, जप तप सँयम कीजिये ।
तहं सन्मुख सिरजनहार, प्रेम पिलावे पीजिये ॥
उस सहज शून्य - ब्रह्म सरोवर के ब्रह्माकार - वृत्ति रूप तट पर अर्थात् ब्रह्माकार - वृत्ति रखते हुये ही इन्द्रिय - निग्रह रूप तप और मनोनिग्रह रूप सँयमपूर्वक ब्रह्म नाम का जप करो । इस साधना की परिपाकावस्था में परमात्मा सन्मुख प्रकट रूप से भासते हैं और अपना प्रेम - रस पान कराते हैं । तुम भी उक्त प्रकार साधन करके उनके प्रेम - रस का पान करो ।
दादू तिस सरवर के तीर, चरण कमल चित लाइया ।
तहं आदि निरंजन पीव, भाग हमारे आइया ॥
उस सहज शून्य - ब्रह्म सरोवर के ब्रह्माकार - वृत्ति - तट पर हमने ब्रह्म स्वरूप चतुर्थ पाद में मन लगाया अर्थात् ध्यान द्वारा मन को ब्रह्म में स्थापन किया, तब उसी अवस्था में हमारे भाग्यवश सँसार का आदि माया रहित प्रियतम ब्रह्म हमें प्राप्त हुआ है ।
दादू सहज सरोवर आतमा, हँसा करैं किलोल१ ।
सुख सागर सूभर२ भर्या, मुक्ताहल मन मोल ॥
सहज - शून्य निर्विकल्प ब्रह्म - सरोवर में सँतात्मा - हँस ब्रह्मानन्द का अनुभव रूप क्रीड़ा१ करते हैं । उज्ज्वल नित्य सुख स्वरूप ब्रह्म समुद्र तो सर्वत्र परिपूर्ण२ रूप से भरा है अर्थात् व्यापक है । तथापि जो अपना मन - समर्पण रूप मूल्य देते हैं, वे ही उसके दर्शन रूप मोती प्राप्त करते हैं, अन्य नहीं ।
शून्य सरोवर हँस मन, मोती आप अनँत ।
दादू चुगि चुगि चँचु भरि, यों जन जीवें सँत ॥
निर्विकल्प समाधि ही सरोवर है और वह अनन्त ब्रह्म स्वयँ ही सत् चित्, आनन्द, अखँडादि निज नाम भेद से मोती रूप बना हुआ है । साधक सँतों का मन ही उक्त मोतियों को पुन: २ चुनकर अपनी वृत्ति रूप चँचु में भरता है अर्थात् इच्छानुसार चिन्तन करता हुआ तदाकार होता है । इस प्रकार ही साधन करके सँत जन ब्रह्म से अभिन्न होकर सदा जीवित रहते हैं ।
दादू सरवर सहज का, तामें प्रेम तरँग ।
तहं मन झूले आतमा, अपने सांई संग ॥
परा - भक्ति की सहजावस्था ही मानो सरोवर है । जैसे स्थिर सरोवर में वायु से कभी – कभी तरँग उठ जाती है, वैसे ही सहजावस्था में भी पूर्वकृत भक्ति की स्मृति आ जाने से प्रभु - प्रेम की तरँग उठ जाती है । जैसे तरँग सरोवर से ऊंची उठती हुई भी सरोवर के साथ ही रहती है, वैसे ही सँतात्मा अपने प्रभु के साथ रहते हुये भी चित्त - वृत्ति द्वारा भजनानन्द में झूलते हैं किन्तु तरँग के समान थोड़ी देर में ही पुन: सहजावस्था में आकर अद्वैत रूप हो जाते हैं, भिन्न नहीं रहते ।
दादू देखूँ निज पीव को, दूसर देखूँ नाँहि ।
सबै दिसा सौं सोध कर, पाया घट ही माँहि ॥
विवेक, भक्ति, योग, ज्ञानादि सँपूर्ण साधन रूप दिशाओं से खोजकर हमने अपने शरीर के भीतर हृदय - प्रदेश में प्रभु को प्राप्त किया है और अब निरँतर सँपूर्ण परिस्थितियों में अपने प्रियतम परमात्मा का ही साक्षात्कार करते हैं, उससे भिन्न मायिक प्रपँच को सत्य रूप से नहीं देखते ।
दादू देखूँ निज पीव को, देखत ही दुख जाइ ।
हूं तो देखूँ पीव को, सब में रह्या समाइ ॥
जब हम अपने प्रभु को देखते हैं तो देखते ही हमारा साँसारिक विक्षेप जन्य दु:ख शाँत हो जाता है । इस कारण हम तो अब व्यापक रूप से सब में समाये हुये प्रभु को ही देखते हैं ।
दादू देखूँ निज पीव को, और न देखूँ कोइ ।
पूरा देखूँ पीव को, बाहर भीतर सोइ ॥
ब्रह्माण्ड के बाहर और भीतर परिपूर्ण रूप से हम प्रभु को देख रहे हैं । अब तो यही अभिलाषा रहती है - निरँतर अपने प्रियतम प्रभु को ही देखते रहें, प्रभु से भिन्न कुछ भी न देखें ।
दादू देखूँ निज पीव को, सोई देखन जोग ।
परकट देखूँ पीव को, कहां बतावें लोग ॥
सकाम कर्म करने कराने वाले लोक हृदय में प्रभु को कहां बताते हैं ? वे तो वैकुण्ठादि लोकों में ही बताते हैं किन्तु हम तो प्रत्यक्ष रूप से अपने हृदय में और विचार द्वारा सर्वत्र व्यापक रूप से प्रभु को देख रहे हैं और वही देखने योग्य है । अत: हम तो मायिक प्रपँच का बाध करके निरँतर सर्वस्थ अपने प्रियतम प्रभु को ही देखते हैं ।
परिचय जिज्ञासु उपदेश
दादू देखु दयालु को, सकल रह्या भरपूर ।
रोम - रोम में रम रह्या, तूं जनि जाने दूर ॥
जिज्ञासु को साक्षात्कार की प्रेरणा रूप उपदेश कर रहे हैं - परमात्मा को अपने से दूर किसी लोक विशेष में रहने वाला मत समझ । तू विचार द्वारा उस दयालु प्रभु को देख, वह व्यापक होने से तेरे रोम - रोम में रम रहा है और सँपूर्ण विश्व में भी परिपूर्ण है ।
दादू देखु दयालु को, सन्मुख सांई सार ।
जीधर देखूँ नैन भर, तीधर सिरजनहार ॥
उस दयालु प्रभु को विचार द्वारा देख, वह सँसार का सार तत्व प्रभु तेरे सन्मुख आने वाले सर्व पदार्थों में स्थित होने से तेरे सन्मुख ही है । तेरे अन्त:करण की वृत्ति प्रत्येक पदार्थ में स्थित चेतन का आवरण भँग करके उसे ही देखती है । हम तो बुद्धि नेत्र में अद्वैत विचार भर के जिधर देखते हैं, उधर वह ब्रह्म ही भासता है ।
दादू देखु दयालु को, रोक रह्या सब ठौर ।
घट - घट मेरा सांईयाँ, तूँ जनि जाणै और ॥
तू परम दयालु प्रभु को अपने आत्मस्वरूप से भिन्न मत समझ । वह हमारा प्रभु प्रत्येक घट में तथा दूध में मक्खन के समान विश्व के प्रत्येक परमाणु में अन्तर्हित रूप से स्थित है । उसे विचार द्वारा देख, तुझे अवश्य भासेगा ।
परिचय पतिव्रत
सदा लीन आनन्द में, सहज रूप सब ठौर ।
दादू देखे एक को, दूजा नाँही और ॥
साक्षात्कार सम्बन्धी पतिव्रत दिखा रहे हैं - विश्व के सभी स्थलों में माया रहित सहज स्वरूप ब्रह्म स्थित है । हम सदा आन्तर वृत्ति से उसी के आनन्द में निमग्न रहे हैं और बाह्य दृष्टि से भी सर्वत्र सब वस्तुओं में उसी को सत्य रूप से देखते हैं, अन्य कोई भी हमें सत्य नहीं भासता ।
जागत जगपति देखिये, पूरण परमानन्द ।
सोवत भी सांई मिले, दादू अति आनन्द ॥
हम जाग्रतावस्था में विश्व में परिपूर्ण जगतपति परमानन्द रूप ब्रह्म को ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा देखते रहते हैं और सोते समय भी तैजस् तथा प्राज्ञ के लक्ष्यार्थ रूप प्रभु हम से मिले हुये ही रहते हैं । इस प्रकार कभी भी वियोग न होने से हमें नित्यानन्द का अनुभव होता रहता है ।
दह दिशि दीपक तेज के, बिन बाती बिन ते ।
चहुं दिशि सूरज देखिये, दादू अद्भुत खेल ॥
ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करने से ध्यान की परिपाकावस्था में बिना बत्ती और बिना ते के ही दसों दिशाओं में दिव्य तेजोमय दीपक दृष्टि में आते हैं और कभी कभी चारों ओर सूर्य ही सूर्य दीख पड़ते हैं । ऐसा ज्योतिर्मय अद्भुत खेल उस समय देखने में आता है । बाह्य एक सूर्य भी अपने ताप से सबको जलाने लगता है किन्तु वहां के अनेक सूर्य भी नहीं तपाते, यह अद्भुतता है ।
सूरज कोटि प्रकाश है, रोम रोम की लार ।
दादू ज्योति जगदीश की, अंत न आये पार ॥
जगत् के स्वामी ब्रह्म की ज्योति का प्रकाश शरीर के प्रत्येक रोम के साथ कोटि सूर्यों के समान प्रतीत होता है । इस प्रकाश का कभी भी अन्त नहीं होता । विचार द्वारा निश्चय होता है कि - ब्रह्म की ज्योति का प्रकाश ब्रह्म रूप होने से अपार है ।
सूरज नहीं तहं सूरज देखे, चँद नहीं तहं चँदा ।
तारे नहीं तहं झिलमिल देख्या, दादू अति आनँदा ॥
उस ध्यानावस्था में बाह्य सूर्य चन्द्रमा नहीं होने पर भी हमने सूर्य - चन्द्रमा देखे हैं । बाह्य तारे न होने पर भी तारों की ज्योति की झिलमिलाहट देखी है । उक्त ब्रह्म - ज्योति रूप विभूतियों के दर्शन से वहां अति आनन्द का अनुभव होता है ।
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मति बुद्धि विवेक विचार बिन, माणस पशु समान ।
समझायां समझै नहीं, दादू परम गियान ॥
================================
साभार ~ Rp Tripathi ~
** महत्बपूर्ण प्रश्न :: और :: आपके अति-महत्वपूर्ण विचार **
सम्मानित मित्रो ;
शास्त्रों में, 84 लाख योनियों में, मानव शरीर को, सबसे उत्तम शरीर, कहा गया है !! परन्तु प्रथम दर्शन में तो, मानव-शरीर में, कोई विशेषता नजर नहीं आती ? इससे तो वृक्ष या पशु-पक्षियों के शरीरों की ही जीवित और मृत दोनों अवस्थाओं में, अधिक उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है !!
उदाहनार्थ :--
वृक्ष, जिन्दा या मरने(सूखने) के बाद भी उपयोगी हैं !! मोर के पंख, शरीर में रहते या उससे अलग रहकर, दोनों अवस्था में ही, मनमोहक और पवित्र बने रहते हैं ? जिन्दा गाय का दूध ही नहीं, वरन उसके तो मल-मूत्र भी परम गुणकारी हैं ; और मरने के बाद तो उसका चमड़ा भी, पैरों की रक्षा करता है !! आदि ... आदि ..!!
परन्तु,
जिन्दा या मृत मानव-शरीर से निकलने वाली, ऐंसी कोई वस्तु नजर नहीं आती ? जिसे पवित्र या उपयोगी कहें ?
आहार-निद्रा-भय-मैथुन भी,
सभी योनियों के जीवों में सामान हैं !! अर्थात खाना पीना, डर और उससे बचाव, बच्चे पैदा करना और उनका भरण-पोषण तो, मनुष्य योनि और अन्य योनियों में, समान हैं !!
और यदि यह कहा जाए कि --
मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी, अपनी अपनी मर्यादाओं(प्रकृति) में जीते हैं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी !!
क्योंकि वह सदैव,
ऋतू-काल के अनुरूप योनाचरण करते हैं !! भोजन भी वही करते हैं, जो इनके लिए प्राकृतिक(अर्थात, जन्म से पूर्व निर्धारित) हैं !!
गाय, करोङों जानवरों के बीच भी होने पर, घाँस-भूषा ना होने पर, भूँखों मर जाती है, परन्तु किसी जानवर को मारकर नहीं खाती !!
या शेर, हरी हरी कोपलों की घाँस से भरे हुए जंगल में होने पर भी, यदि प्रकृति-प्रदत्त(अर्थात, जन्म से पूर्व निर्थारित) भोजन, माँस नहीं हैं, तो कभी घाँस खाकर अपनी, जान नहीं बचाता ; मरना पसंद करता है !! आदि .... आदि ..!!
तो फिर सम्मानित मित्रो,
ऐसा क्या है ? जिससे यह मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ है ?
क्या मनुष्य को,
प्राकृतिक(अर्थात, उसके जन्म से पूर्व सनातन काल से उसके रचियता द्वारा निर्धारित) आहार-विहार की मर्यादाओं पर चलने की कोई आवश्यकता नहीं है ?
अर्थात,
परमात्मा कृष्ण द्वारा, भगवत गीता में, निर्देशित, और चित्रांकित किये गए सन्देश पर, विचार करने की आवश्यकता नहीं है..? क्या स्वतंत्रता का अर्थ, स्वछँदता(मन माना आचरण) होता है ?
क्या आप सभी सम्मानित मित्र,
इस महत्बपूर्ण प्रश्न पर, अपने-अपने महत्पूर्ण विचारों को, बहुत ही संक्षेप में अवगत करा कर, अनुग्रहीत करेंगे ?
******** ॐ कृष्णम वन्दे जगत गुरुम ********
aneela at 5:54:00 PM No comments:
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दादू चारै चित दिया, चिन्तामणि को भूल ।
जन्म अमोलक जात है, बैठे माँझी फूल ॥
भरी अधौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाइ ।
दादू शूकर स्वान ज्यों, ज्यों आवै त्यों खाइ ॥
दादू खाटा मीठा खाइ करि, स्वादैं चित दीया ।
इन में जीव विलंबिया, हरि नाम न लीया ॥
एक सेर का ठांवड़ा, क्योंही भर्या न जाइ ।
भूख न भागी जीव की, दादू केता खाइ ॥
पशुवां की नांई भर भर खाइ, व्याधि घणेरी बधती जाइ ।
पशुवां नांई करै अहार, दादू बाढै रोग अपार ॥
===============================
साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~
-कसाई की दुकान में बंधा हुआ बकरा घास चरता है, मुग्ध होकर...
उसके सामने कोई सब्जी आदि का छिलका फेंक दो तो वह खाने को टूट पड़ता है। कसाई के हाथ में पड़ा हुआ बकरा अपनी मौत को नहीं देखता। वह बुद्धू नहीं सोच पाता भागने की बात और खाने में मुग्ध रहता है, लेकिन न मालूम कसाई कब आए और कान पकड़कर उसे कतलखाने में ले जाए-वैसे ही हम लोग हैं। न मालूम कब काल हमलोगों के कान पकड़कर ले जाएगा पता नहीं, पर अज्ञानी लोग संसार को राजसुख जैसा समझकर मुग्ध हो जाते है।
सर अवसर जाने नहीं, पेट भरन सो काम।
मनुष्य का शरीर मिला, सत्संग मिला, सद्गुरु मिले, इतना सुंदर अवसर है, इसको तो वह जानता नहीं है, बस पेट भरने की ही इन्हें चिंता लगी रहती है। बहनों को भोजन बनाने की चिंता और भाइयों को भोजन जुटाने की चिंता। बस भोजन और भोजन। पेट-पेट। पेट परमात्मा ने नहीं दिया जैसे शाप ही दे दिया। पशु-पक्षी लोग जैसे पेट भरने के पीछे बेहाल हैं, वैसे ही मनुष्य भी पेट के पीछे बेहाल है।
कबीर साहब कहते है, भक्त पेट के पीछे बेहाल नहीं रहता।
क्षूधा काली कूकरी , करे भजन में भंग ।
वाको टुकड़ा डाल के , भजन कर निसंग।।
अर्थात् भूख काली कुतिया है, जो भजन-सुमिरण में विघ्न डालती है। अतः उसे टुकड़ा डालो और भजन करो। शरीर के भरण-पोषण के लिए अर्थोपार्जन चाहिए। शरीर के रक्षार्थ वह भी करो, लेकिन वही जीवन का लक्ष्य नहीं बना लो। उसे ही जीवन का सब कुछ मत समझ लो। पेट पालने के लिए मनुष्य का तन लेकर दुनिया में तुम नहीं आए। अगर पेट पालना ही कर्तव्य होता तो इतनी विकसित बुद्धि भगवान क्यों देते? मनुष्य क्यों बनाते? घोड़ा, गधा, गाय क्यों नहीं बना देते? इसका मतलब है कि तुम्हारा कर्तव्य केवल पेट भरने तक नहीं है। तुम इस अवसर को चुको नहीं। परमात्मा की पुकार को सुनो। परमात्मा ने तुम्हारे हृदयद्वार में जो दस्तक दी है, इस आवाज पर विश्वास करो और जानो कि परमात्मा आपसे प्यार करते हैं और आपको अपनाना चाहते हैं। वे आपलोगों से आग्रह करते हैं कि आप भी परमात्मा को अपना लो। आप परमात्मा को अपना लोगे तो सफल, शांत और लक्ष्य को प्राप्त करके मस्त-मग्न हो जाओगे |
aneela at 5:49:00 PM No comments:
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॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =
अथ अध्याय ६ ~
८ आचार्य निर्भयरामजी ~
महाराज रात को आकर अपनी शय्या पर बैठ कर भजन करने लगे । प्रात: सब साधुओं को दर्शन हो गये । साधुओं ने पूछा भी, कहां पधार गये थे ? तब आपने कह दिया । किसी बात का निर्णय करने गये थे । दूसरे दिन पंक्ति के समय फिर कहा - आप संतों के प्रताप से हमको भोजन के लिये अच्छे - अच्छे माल मिलते हैं । संतों ने कहा - महाराज यह तो आपका ही प्रताप है, जो हमको अच्छे - अच्छे माल मिलते हैं । तब जो रोटी रात को आचार्य जी को मिली थी उनको आचार्य जी अपने साथ ही पंक्ति में ले आये थे, उनको खोलकर संतों को दिखाते हुये कहा - संतों मेरा तो यह प्रताप है । मैंने कल अकेले जाकर मेरे प्रताप का निर्णय कर लिया है । रोटियां देखकर सब संत मौन रहे । इससे सूचित होता है कि आचार्य निर्भयराम जी महाराज में अभिमान का लेश भी नहीं था ।
(गुरु पद्धति ग्रंथ से)
राजा जोधसिंह को राज्य प्राप्ति ~
पंजाब देश के राजा जोधसिंह का राज्य रणजीतसिंह ने छीन लिया था । जोधसिंह अपना राज्य छिन जाने से अति व्यथित हुआ । किन्तु इस राजा ने नारायणा दादूधाम के आचार्य निर्भयरामजी महाराज की गुण गाथा बहुत सुन रखी थी । अत: जोधसिंह पंजाब से नारायणा दादूधाम में आचार्य निर्भयरामजी महाराज के पास आया । दर्शनकर सत्यराम बोलते हुये साष्टांग दंडवत की फिर हाथ जोडकर सामने बैठ गया । फिर अवकाश देखकर उसने अपना सारा दु:ख आचार्य निर्भयराम जी को सुनाकर कहा - मैं आप का यश सुनकर आपकी शरण आया हूं, मेरी लज्जा अब आप ही रखेंगे । आचार्य निर्भयराम जी महाराज ने राजा जोधसिंह को धैर्य बंधाते हुये कहा - तुम भय मत करो, तुम्हारी व हमारी दोनों की लाज तो प्रभु रखने वाले हैं । अब तुम अपने देश को जाकर हरि, गुरु, संतों की सेवा करो, भगवान् तुम पर दया ही करेंगे । आचार्य निर्भयरामजी का उक्त उपदेश सुनकर जोधसिंह ने अपने हृदय में दॄढ रुप से वह उपदेश धारण कर लिया ।
(क्रमशः)
aneela at 5:42:00 PM No comments:
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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - सवैया ग्रन्थ - (सुन्दर विलास)
(२६ . बिचार को अंग)
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी(सम्पादक), पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
२६ . बिचार को अंग =
देखै तौ बिचार करि सुनै तौ बिचार करि,
बोलै तो बिचार करि करै तो बिचार है ।
खाइ तौ बिचार करि पीवै तो बिचार करि,
सोवै तौ बिचार करि तौ ही तौ ऊबार है ॥
बैठै तो बिचार करि उठै तो बिचार करि,
चलै तो बिचार करि सोई मत सार है ॥
देइ तौ बिचार करि लेइ तौ बिचार करि,
सुन्दर बिचार करि ताही निरधार है ॥ २ ॥
इस व्यावहारिक जगत् में लोकव्यवहार करते समय साधक को देखना, सुनना और बोलना - ये तीनों ही बातें विचारपूर्वक करनी चाहिये । खाना, पीना तथा सोना भी विचारपूर्वक करना चाहिये । तभी इस जगत् से उसका उद्धार हो सकता है । इसी तरह बैठना, उठना, चलना - यह सब भी विचारपूर्वक करना चाहिये । इसी में साधक का हित है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - साधक को यहाँ देना, लेना आदि व्यवहार भी विचारपूर्वक करना है । यदि उसे इस जगत् से छुटकारा पाना गई तो उसे ‘विचारपूर्वक कार्य करना है’ - यह निश्चय कर लेना है ॥ २ ॥
(क्रमशः)
aneela at 5:33:00 PM No comments:
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|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |
त्रयोदश बिंदु -
शिष्य भवनजी -
एक दिन आमेर में भवनजी नामक सज्जन दादूजी के दर्शन करने दादूजी के पास आये और प्रणाम करके बैठ गये फिर बोले - भगवन् ! मुझे आमेर में आने पर ज्ञात हुआ कि आज कल दादूजी महाराज यहां हैं | तब मैं आपके दर्शनार्थ आपके पास आया हूँ | आपका नाम तो मैं बहुत सुनता रहता था किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन तो आज ही कर सका हूँ | आपके दर्शन से मुझे बहुत आनन्द प्राप्त हुआ है | भगवन् ! विवेक की बातें तो बहुत लोग करते हैं किन्तु जिस व्यक्ति का विवेक उत्तम हो उसके क्या लक्षण होते हैं | लक्षण बिना जाने पूरा ज्ञान नहीं होता है और अनेक बार धोखा भी हो जाता है | इसलिये पूछ रहा हूँ | आप बताने की अवश्य कृपा करें | भवनजी का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी बोले -
"सहज विचार सुख में रहै, दादू बड़ा विवेक |
मन इन्द्रिय पसरे नहीं, अंतर राखे एक ||"
जिसके मन इन्द्रिय विषयों में नहीं जाते, जो चित्त को एक आन्तर आत्मा में ही रखता है और सहज स्वरूप ब्रह्म विचार द्वारा ब्रह्मानन्द में ही निमग्न रहता है, उसका विवेक श्रेष्ठ है |
"मन इन्द्रिय पसरे नहीं, अहनिशि एक ध्यान |
पर उपकारी प्राणियां, दादू उत्तम ज्ञान ||"
जिसके मन इन्द्रिय विषयों में नहीं फैलते, दिनरात निरंतर एक परब्रह्म के ध्यान में ही अनुरक्त रहते हैं और जो सत्योपदेश द्वारा परोपकार करता रहता है, उस प्राणी का ज्ञान उत्तम है | दादूजी का उक्त उपदेश सुनकर तथा अपने प्रश्न का उचित उत्तर मिलने पर भवनजी की श्रद्धा दादूजी पर बहुत बढ़ गई फिर दादूजी के ही शिष्य हो गये और उत्तम विवेक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उक्त लक्षणों को अपने में लाने का प्रयत्न करने लेगे | ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं |
(क्रमशः)
aneela at 5:29:00 PM No comments:
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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२६१.(गुजराती) जलद त्रिताल ~
चरण देखाड़ तो प्रमाण ।
स्वामी माहरे नैणें निरखूं, मांगू येज मान ॥ टेक ॥
जोवूं तुझनें आशा मुझनें, लागूं येज ध्यान ।
वाहलो मारो मलो रे सहिये, आवे केवल ज्ञान ॥ १ ॥
जेणी पेरें हूँ देखूं तुझने, मुझनें आलो जाण ।
पीव तणी हूँ पर नहिं जाणूं, दादू रे अजाण ॥ २ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विनती कर रहे हैं कि हे हमारे स्वामी परमेश्वर ! आपके चरणों का हमें दर्शन दिखाओ, तब ही आपका भक्त - वत्सल बिड़द सिद्ध होगा । हे स्वामी ! मैं अपने नेत्रों से आपका दर्शन कर सकूँ, यही आपसे मांगता हूँ । यह मेरी प्रार्थना स्वीकार करो । मेरे अन्तःकरण में आपके दर्शन देखने की आशा लग रही है । इसीलिये मैं आपका ध्यान करता हूँ । हे बिरहीजनों ! हमारी बुद्धि में अद्वैत - ज्ञान प्रगट होवे, तब तो हम प्रीतम प्यारे से मिले हुए ही हैं । हे परमेश्वर ! जिस प्रकार हम आपको देख सकें, ऐसा ही अपने स्वरूप का उत्तम ज्ञान हमें दीजिये । हे पीव ! मैं आपका ही अंश हूँ, परन्तु आपका आदि, मध्य और अन्त नहीं जानता । इसलिये मैं अज्ञानी ही हूँ ।
पतिर्भव रतिं देहि, मतिरस्तु पदाम्बुजे ।
भक्तवत्सल किं ब्रूमः त्वदन्या नैव नो गतिः ॥
आप हमारे स्वामी होकर हमें प्रेमाभक्ति प्रदान करें, जिससे हमारा मन व बुद्धि आपके चरण - कमलों में लगे रहें, तभी हमारी सद्गति होगी, इससे अधिक क्या कहें ? आप तो स्वयं भक्तवत्सल हो ।
aneela at 5:20:00 PM No comments:
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THURSDAY, JUNE 25, 2015

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है ।
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |
<<<<(७)>>>>
(परिचय का अंग ४)
दादू पसु१ पिरँनि२ के, पेही३ मँझि कलूब४ ।
बैठौ आहे बीच में, पाण५ जो महबूब६ ॥
जो सँसार बन्धन से मुक्त करने वाले, अपने५ आत्म स्वरूप प्रेम - पात्र६ स्वामी३ हैं, वे तेरे शरीर के मध्य हृदय४ में ही स्थित हैं, उन परम - प्रिय२ परमेश्वर के वास्तव स्वरूप को देख१ ।
परिचय लै लक्षण सहज
जहां आत्म तहं राम है, सकल रह्या भरपूर ।
अन्तरगति ल्यौ लाइ रहु, दादू सेवक सूर ॥
आन्तर आत्मा में वृत्ति लगाने से सहज ही साक्षात्कार के लक्षण प्रकट हो जाते हैं, यह कह रहे हैं - साधक ! तुम अपने अन्त:करण की वृत्ति को आन्तर आत्मा में लगावे रहो, जहां आत्मा है, वहां ही राम है । आत्मा में वृत्ति स्थिर होने पर सेवक को परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हुआ, सूर्य के समान प्रकट रूप से भासने लगता है ।
नैनहुं वाला निरख कर, दादू घालै हाथ ।
तब ही पावे राम - धन, निकट निरंजन नाथ ॥
आत्मानात्म विवेक - नेत्र वाला जिज्ञासु अनात्म रूप सँसार को मिथ्या देखकर, सत्य - स्वरूप आत्मा की ओर अन्त:करण - वृत्ति रूप हाथ डालता है अर्थात् आत्मा में वृत्ति स्थिर करता है, तब ही निदिध्यासन द्वारा ज्ञान - नेत्र की ज्योति बढ़ाकर विश्व के स्वामी माया रहित राम रूप धन को अत्यन्त समीप, आत्म स्वरूप से प्राप्त करता है ।
परिचय जिज्ञासु उपदेश
पहली लोचन दीजिये, पीछे ब्रह्म दिखाइ ।
दादू सूझे सार सब, सुख में रहे समाइ ॥
साक्षात्कार के इच्छुक जिज्ञासुओं को उपदेश कर रहे हैं - हे जिज्ञासु जनो ! प्रथम अपने विवेक - विचार - नेत्रों को ब्रह्म की ओर लगाओ अर्थात् ब्रह्म विचार करो । पीछे विचार की प्रौढ़ावस्था में तुम्हें ब्रह्म अपने आत्म रूप से ही दिखाई देगा । जब तुम्हें सँपूर्ण विश्व के सार स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार हो जायगा, तब तुम्हारा मन सुख - स्वरूप ब्रह्म में ही निमग्न होकर रहेगा ।
जहां राम तहं मैं नहीं, मैं तहं नाहीं राम ।
दादू महल बारीक है, द्वै को नाहीं ठाम ॥
जिस अद्वैतावस्था में राम का साक्षात्कार होता है, वहां “मैं ज्ञानी हूं, मैं गुणी हूं” इत्यादिक अहँकार रूप “मैं” नहीं होता और जहां तक उक्त “मैं” होता है, वहां तक राम का साक्षात्कार नहीं होता । जिसमें सँसार विवर्त्त रूप से बसता है, वह अधिष्ठान चेतन रूप महल अति सूक्ष्म है । उसमें द्वैत - भाव को स्थान नहीं मिलता ।
मैं नाहीं तहं मैं गया, एकै दूसर नांहिं ।
नाहीं को ठाहर घणी, दादू निज घर मांहिं ॥
जिस ब्रह्म में अनात्म अहँता ममता नहीं है, उसको मैं प्राप्त हुआ हूं । उसे प्राप्त होते ही आत्मा उसमें अद्वैत रूप से होकर रहता है, द्वैत रूप से नहीं । अपने स्वस्वरूप ब्रह्म - घर में अनात्म अहँकार शून्य आत्मस्थिति को प्राप्त हुये ज्ञानी - सँत के लिए ब्रह्मानन्द रूप स्थान बहुत है, अज्ञानी के लिए किंचित् भी नहीं है ।
दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होइ ।
जब यहु आपा मिट गया, तब दूजा नाहीं कोइ ॥
जब तक अनित्य देहादिक में आत्म - भ्राँति - रूप अहँकार रहता है, तब तक ही आत्मा और ब्रह्म में द्वैत भासता है । जब उक्त मिथ्या अभिमान ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है, तब अपने आत्मस्वरूप ब्रह्म को छोड़कर भिन्न कुछ नहीं प्रतीत होता । एक मात्र अद्वैत ब्रह्म ही भासता है ।
दादू है को भै घणा, नाहीं को कुछ नांहिं ।
दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब मांहिं ॥
जब तक अनात्म अहँकारादिक द्वैत - भाव अन्त:करण में है, तब तक उसको जन्मादि सँसार का विशाल भय बना ही रहता है । जिसके हृदय में उक्त द्वैत – भाव नहीं रहकर, अद्वैत – भाव प्राप्त हो गया, उसको जन्मादि सँसार का भय लेश मात्र भी नहीं रहता । अत: हे साधक ! “अहँ, मम, त्वँ” आदि अनात्म अहँकार से रहित होकर अपने आत्म स्वरूप ब्रह्म में अद्वैत - भाव से स्थित रहो ।
उभय असमाव
तन मन नाहीं मैं नहीं, नहिं माया नहिं जीव ।
दादू एकै देखिये, दह दिशि मेरा पीव ॥
अद्वैत स्थिति में द्वैत नहीं रहता, यह कह रहे हैं - स्थूल शरीर, मन, अहँकार, माया और जीवत्व भाव, ये सब द्वैत, अद्वैत स्थिति में नहीं रहता । उस समय तो एक मात्र हमारे प्रियतम ही अद्वैत रूप से दसों दिशाओं में देखने में आते हैं ।
पति पहचान
दादू पाणी माँहैं पैसि कर, देखे दृष्टि उघार ।
जलाबिम्ब सब भर रह्या, ऐसा ब्रह्म विचार ॥
ब्रह्म पहचान की युक्ति बता रहे हैं - जैसे जल में गोता लगाकर नेत्र खोल के देखने से सर्वत्र जल ही जल भरा दृष्टि आता है, वैसे ही ब्रह्म विचार द्वारा अन्त:करण की वृत्ति को ब्रह्म में लीन करने पर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म ही ब्रह्म भासता है । अकबर बादशाह ने प्रश्न किया था, ज्ञान द्वारा ब्रह्म भासने में कोई दृष्टाँत बताइये ?
पाँच तत्व के पाँच हैं, आठ तत्व के आठ ।
आठ तत्व का एक है, तहां निरंजन हाट ॥
पँच तन्मात्रा रूप सूक्ष्म तत्वों के कार्य पँच स्थूल भूत हैं । इन स्थूल भूतों से स्थूल शरीर बनता है । प्रकृति, महत्तत्व, अहँकार और पँच तन्मात्रा; इन अष्ट के कार्य - व्यष्टि अज्ञान, व्यष्टि बुद्धि, व्यष्टि अहँकार और व्यष्टि तन्मात्राएं, ये अष्ट हैं अथवा पुर्यष्टक हैं । इन अष्ट से एक सूक्ष्म शरीर बनता है जो स्थूल शरीर के भीतर रहता है । उस सूक्ष्म शरीर के हृदय प्रदेश - हाट में निरंजन ब्रह्म - वस्तु प्राप्त होती है ।
जहं मन माया ब्रह्म था, गुण इन्द्री आकार ।
तहं मन विरचै सबन तैं, रचि रहु सिरजनहार ॥
जिस अज्ञान दशा में इन्द्रियों के विषय गुणों का आश्रय मायिक - आकार ही मन के लिए ब्रह्म बना रहता है, वह दशा ब्रह्म साक्षात्कार में उपयोगी नहीं होती । अत: उस दशा से मन को ऊंचा उठाकर तथा सँपूर्ण मायिक प्रपँच से विरक्त होकर, सँसार का कर्त्ता ईश्वर के भजन में ही रत्त रहोगे, तब ही ब्रह्म का साक्षात्कार होगा ।
काया - शून्य पँच का बासा, आतम - शून्य प्राण प्रकासा ।
परम - शून्य१ ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला ॥
शून्य का स्पष्टिकरण कर रहे हैं - काया शून्य, स्थूलशरीर, जाग्रतावस्था में पँचकर्मेन्द्रिय, पँचज्ञानेन्द्रिय तथा पँच विषयों की सत्ता है । आत्म शून्य=सूक्ष्म शरीर स्वप्नावस्था में सूक्ष्म विषयों व प्राण की सत्ता है । परम शून्य=कारण शरीर, सुषुप्ति अवस्था में आत्मा का ब्रह्म से मेल होता है, इसीलिए इस दशा को “स्वाप्यय१ व सम्प्रसाद” पद से भी उपनिषदों में कहा गया है ।
इससे आगे तुरीयस्थान व तुरीयदशा में माया - अविद्यादि का पूर्ण नाश होने से और उससे जनित सकल प्रत्यक्ष का भी नाश हो जाने से केवल शुद्ध ब्रह्म ही बच जाता है ।(१ - इस अवस्था में जीव का लय शुद्ध चैतन्य में हो जाता है, अत: इसे स्वाप्यय कहा जाता है । इस अवस्था में आत्मा ब्रह्म में लीन होकर शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेता है । अत: "सम्यक् प्रसीदति अस्याम्”, इस व्युत्पत्ति से इसको सम्प्रसाद भी कहा जाता है ।)
दादू जहां२ तैं सब ऊपजे, चन्द सूर आकाश ।
पानी पवन पावक किये, धरती का प्रकाश ॥
स्वकल्पित अविद्या द्वारा जीव रूप को प्राप्त ब्रह्म से अर्थात् मन से चन्द्र - सूर्य आदि सभी नक्षत्र उत्पन्न होते हैं तथा जिसने आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को बना कर प्रकट किया है ।
दादू तिस सरवर के तीर, सो हँसा मोती चुने ।
पीवे नीझर नीर, सो है हँसा सो सुने ॥
उस सहज शून्य - ब्रह्म सरोवर के ध्येयाकार - वृत्ति रूप तट पर शब्द - ब्रह्म ओँकार का चिन्तन रूप मोती चुनता है, वही सारग्राहक साधक हँस है । आत्म - झरने का अनुभव जल – पान करता है अर्थात् ब्रह्मात्मा का अभेद रूप से साक्षात्कार करता है; वह साधक हँस ही नाभि - कमल के पास होने वाली “प्रणव ध्वनि” और श्वास प्रश्वास से होने वाली “सोऽहँ हँस:” रूप ब्रह्मात्मा के अभेद की बोधक ध्वनि सुनता है, तब उक्त शब्द - ब्रह्म ओंकार का चिन्तन करने वाले साधक - हँसों में यह अधिक शोभायमान होता है । (पाठान्तर - "सोऽहँ हँसा”)
aneela at 6:26:00 PM No comments:
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हरि नाम देहु निरंजन तेरा, हरि हर्ष जपै जिय मेरा ॥ टेक ॥
भाव भक्ति हेत हरि दीजे, प्रेम उमंग मन आवे ।
कोमल वचन दीनता दीजे, राम रसायन भावे ॥ १ ॥
विरह बैराग्य प्रीति मोहि दीजे, हृदय सांच सत भाखूं ।
चित चरणों चिंतामणि दीजे, अंतर दिढ़ कर राखूं ॥ २ ॥
सहज संतोष सील सब दीजे, मन निश्चल तुम्ह लागे ।
चेतन चिंतन सदा निवासी, संग तुम्हारे जागे ॥ ३ ॥
ज्ञान ध्यान मोहन मोहि दीजे, सुरति सदा सँग तेरे ।
दीन दयाल दादू को दीजे, परम ज्योति घट मेरे ॥
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साभार ~ Gauri Mahadev ~
भगवन्नाम एवं मंत्र की महिमा
शरीर छूटने के बाद भी जीवात्मा के साथ नाम का संग रहता ही है। नामजप करने वाले का देवता लोग भी स्वागत करते हैं। इतनी महिमा है भगवन्नाम जप की !
मंत्र के पाँच अंग होते हैं - ऋषि, देवता, छंद, बीज, कीलक।
हरेक मंत्र के ऋषि होते हैं। वे मंत्र के द्रष्टा होते हैं, कर्ता नहीं। ऋषयो मंत्रदृष्टारः न तु कर्तारः। गायत्री मंत्र के ऋषि विश्वामित्र हैं।
प्रत्येक मंत्र के देवता होते हैं। जैसे, गायत्री मंत्र के देवता भगवान सूर्य हैं। ॐ नमः शिवाय मंत्र के देवता भगवान शिव हैं। हरि ॐ मंत्र के देवता हरि हैं। गणपत्य मंत्र के देवता भगवान गणपति हैं। ओंकार मंत्र के देवता व्यापक परमात्मा हैं।
प्रत्येक मंत्र का छंद होता है जिससे उच्चारण-विधि का अनुशासन होता है। गायत्री मंत्र का छंद गायत्री है। ओंकार मंत्र का छंद भी गायत्री ही है।
प्रत्येक मंत्र का बीज होता है। यह मंत्र को शक्ति प्रदान करता है।
प्रत्येक मंत्र का कीलक अर्थात् मंत्र की अपनी शक्ति होती है। मंत्र की अपनी शक्ति में चार शक्तियाँ और जुड़ जाती हैं तब वह मंत्र सामर्थ्य उत्पन्न करता है।
मान लो, आपको नेत्रज्योति बढ़ानी है तो ॐ गायत्री मंत्र गायत्री छंद विश्वामित्र ऋषिः सूर्यनारायण देवता अथः नेत्रज्योतिवृद्धि अर्थे जपे विनियोगः। ऐसा कहकर जप आरम्भ करें। अगर बुद्धि बढ़ानी है तो बुद्धि प्रकाश अर्थे जपे विनियोगः। ईश्वर प्राप्ति करनी है तो ईश्वरप्राप्ति अर्थे जपे विनियोगः। ऐसा कहकर जप आरम्भ करें।
कोई भी वैदिक मंत्र ईश्वरप्राप्ति के काम आ सकता है, कष्ट मिटाने या पापनाश के काम भी आ सकता है। वही मंत्र सफलता के रास्ते ले जाने में मदद कर सकता है और आत्म विश्रांति पाने के काम भी आ सकता है। जैसे – आप हरि ॐ तेजी से अर्थात् ह्रस्व जपते हैं तो आपके पाप नष्ट होते हैं, सात्त्विक परमाणु पैदा होते हैं, दीर्घ जपते हैं तो कार्य साफल्य की शक्ति बढ़ती है, मन्त्र जपते हैं तो मन परमात्मा में शांत होने लगता है।
थोड़ा कम खाओ और चबा-चबाकर खाओ। प्रातः कालीन सूर्य की किरणों में बैठकर लम्बा श्वास लो, धीरे-धीरे श्वास छोड़ो, फिर रं-रं का जप करो। यह प्रयोग आपका अग्नितत्त्व बढ़ायेगा। आपका पाचनतंत्र ठीक हो जायेगा। अम्ल पित्त गायब हो जायेगा। इससे केवल अम्लपित्त ही मिटेगा या भूख ही बढ़ेगी ऐसी बात नहीं है। इससे आपके पाप-ताप भी मिटेंगे और भगवान आप पर प्रसन्न होंगे।
आप अपने कमरे में बैठकर फोन द्वारा भारत से अमेरिका बात कर सकते हो। जब आप सेल्युलर फोन के बटन दबाते हो तो वह कृत्रिम उपग्रह से जुड़कर अमेरिका में घंटी बजा देता है। यंत्र में इतनी शक्ति है तो मंत्र में तो इससे कई गुना ज्यादा शक्ति है। क्योंकि यंत्र तो मानव के मन ने बनाया है जबकि मंत्र की रचना किसी ऋषि ने भी नहीं की है। मंत्र तो ऋषियों से भी पहले के हैं। उन्होंने मंत्र की अनुभूतियाँ की हैं।
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#daduji
कलियुग घोर अंधार है, तिसका वार न पार ।
दादू तुम बिन क्यों तिरै, समर्थ सिरजनहार ॥
टीका ~ हे समर्थ परमेश्वर ! यह कलियुग भयंकर अन्धकार रूप है । इसमें धर्म अधर्म का विचार लोप - सा हो रहा है । इसकी अनीतियों का कोई पार नहीं है । हे समर्थ सिरजनहार परमेश्वर ! आपके सहारे के बिना, जीव इस संसार से कैसे तिर सकते हैं ? आप तारोगे तब तिरेंगे ॥
राम विमुख जुग जुग दुखी, लख चौरासी जीव ।
जामै मरै जग आवटै, राखणहारा पीव ॥
टीका ~ हे राम ! आपसे विमुख होकर यह जीव, चौरासी लाख योनि के कष्ट को जुग - जुग में प्राप्त होता है, जन्मता है, मरता है और जगत में आध्यात्मिक आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से तप्त रहता है । हे मुख प्रीति के विषय पीव परमेश्वर ! आप ही इन दुःखों से रक्षा करने वाले हो ॥
साँई साचा नाम दे, काल झाल मिट जाइ ।
दादू निर्भय ह्वै रहे, कबहूँ काल न खाइ ॥
टीका ~ हे सत्य स्वरूप स्वामी परमेश्वर ! आप अपने सत्य स्वरूप नाम का निष्काम स्मरण हमको दीजिये, जिससे काम आदि काल और आशा तृष्णा रूपी काल की झाल नष्ट हो जाय और फिर हम आपके नाम को जप कर निर्भय पद को प्राप्त होवें । फिर कभी भी काल हमारा स्पर्श नहीं कर सकता ॥
aneela at 6:10:00 PM No comments:
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#daduji
॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =
अथ अध्याय ६ ~
८ आचार्य निर्भयरामजी ~
पत्र की नकल ~
श्री महाराजाधिराज राजराजेश्वर सूबेदार जसवन्तराव होल्कर आलीजा बहादुर के सरकार सूं सनद कर दई अहलकार कर पद दाज सरकार को मालुम हो, आगे स्वामी निर्भयराम जी दादूपंथी नारायणा में स्थान राखें हैं सो इन्हों सूं कोई तरह की मुजम्मत न करणी, बने सो टहल करणी और जो जामदार भेजो तो खुराक लेनी, राजीना माफ करना । जो इस सरकार में, घराने में होय सो, इनको इस प्रकार ही माने जाय । उक्त पत्र से ज्ञात होता है कि इन्दौर नरेश की निर्भयरामजी महाराज पर अच्छी श्रद्धा थी, तब ही ऐसा पत्र लिखवाकर भेजा था ।
आचार्य निर्भयराम जी की सरलता ~
आचार्य निर्भयराम जी महाराज में सरलता, नम्रता आदि दैवी गुण अति मात्रा में थे । उन में अभिमान का तो लेश भी नहीं था । जब वे हरियाणा की रामत कर रहे थे, तब एक दिन पंक्ति के समय सुन्दर भोजन सामने आने पर पंक्ति में बैठे हुये संतों से कहने लगे आप संत लोगों के प्रताप से हम को भी भोजन के लिये ऐसे - ऐसे माल प्राप्त होते हैं । तब पास बैठे हुये संतों ने कहा - महाराज आप के साथ रहने से ही हमारे पेट भरते हैं । यह सब तो आप का ही प्रताप है । संतों की उक्त बात सुनकर आचार्य निर्भयराम जी महाराज उस समय तो मौन रहे । किन्तु अपने मन में यह निश्चय कर लिया कि - इस का निर्णय शीघ्र ही करना चाहिये किस के प्रताप से माल मिलते हैं । फिर कुछ दिन पश्चात् एक दिन सायंकाल के समय साधुओं से छिप कर अकेले ही निकल गये । वहां से थो़डी ही दूर पर एक छोटा ग्राम था, उस की चौपा़ड में आकर बैठ गये । उन को वहां बैठे देखकर एक व्यक्ति ने उनको भोजन के लिये पूछा भोजन करेंगे ? महाराज ने कहा - करेंगे । वह अपने घर गया और दो मोटी - मोटी मिस्सी रोटी लाकर महाराज को दी । फिर वह तो अपने घर चला गया । महाराज ने दोनों रोटी अपने एक छोटे कपडे में बांधली, फिर वे भी वहां से चल दिये । साधुओं ने महाराज को खोजा तो अवश्य किन्तु नहीं मिले । तब सोचा वे कोई बालक तो हैं नहीं अपनी इच्छा से कहीं चले गयें हैं । या तो रात में आ ही जायेंगे, नहीं आये तो प्रात: पता लगायेंगे ।
(क्रमशः)
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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - सवैया ग्रन्थ - (सुन्दर विलास)
(२६ . बिचार को अंग)
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी(सम्पादक), पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
२६ . बिचार को अंग =
मनहर छंद
प्रथम श्रवन कर चित्त एकाअग्र धरि,
गुरु संत आगम कहैं सु उर धारिये ।
दुतीय मनन बारंबार ही बिचार देखै,
जोई कछु सुनै ताहि फेरै कैं संभरिये ॥
त्रितीय ताही प्रकार निदिध्यास नीकैं करि,
निहसंग बिचरत आपुनपौ टारिये ।
सो साक्षत्कार याही साधन करत होइ,
सुन्दर कहत द्वैत बुद्धि कौं निवारिये ॥ १ ॥
द्वैत बुद्धि - निवारणपाय : जिज्ञासु को साधना आरम्भ करते समय सर्वप्रथम श्रवण करणा चाहिये । अर्थात् इस विषय में गुरु, सन्त या शास्त्र जो उपदेश करें, उस को सावधान होकर सुनना चाहिये । इसके बाद, उस उपदेश पर मन में बार बार मनन(विचार) करना चाहिये । जो कुछ गुरु, सन्त या शास्त्र से सुना है उस का मन में बार बार मन्थन करना चाहिये । फिर तृतीय अवस्था में उस मनन किये हुए विचार का निदिध्यासन(पुनः पुनः चिन्तन) करना चाहिये । इस प्रकार निरन्तर चिन्तन कर संसार के प्रति अपना ममत्व हटाना चाहिए । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - इस तीन विधियों का निरन्तर प्रयोग करते हुए जिज्ञासु साधक को अपनी द्वैत बुद्धि का निवारण करना चाहिये; तभी साक्षात्कार हो पाता है ॥१॥
(क्रमशः)
aneela at 5:59:00 PM No comments:
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