Tuesday, 30 January 2018

धातुपुष्ट कर के स्तम्भन शक्ति बढाने

वीर्य गाढ़ा और धातुपुष्ट कर के स्तम्भन शक्ति बढाने वाला बबूल.बहुत कम लोगों को पता है के बिलकुल सरल सा दिखने वाला और आसानी से सभी जगह उपलब्ध बबूल के इस प्रयोग को तीन महीने करने से धातु कमजोरी नष्ट होकर, धातु पुष्ट होती है, शीघ्रपतन नष्ट हो कर स्तम्भन शक्ति बढती है. शुक्राणुओं में वृद्धि होती है. आइये जाने इस प्रयोग को करने की विधि.ज़रूरी सामग्री.बबूल की कच्ची फलियाँ (जिनमे अभी बीज ना आये हों.)बबूल के कोमल ताज़े पत्तेबबूल की गोंद (यह अगर वृक्ष से ना मिले तो यह पंसारी से मिल जाएगी.)उपरोक्त सामग्री बराबर मात्रा में ले लीजिये.बनाने की विधि.शीघ्रपतन दूर करने के लिए बिना बीज वाली बबूल कि कच्ची फलियाँ, बबूल की कोमल पत्तियां और बबूल की गोंद तीनो को समभाग (बराबर मात्रा) में लेकर सुखा लीजिये. सूखने पर कूट पीसकर कपड छान कर लें. अभी इसके बराबर वजन की मिश्री मिला लें और दोबारा तीन बार कपड छान कर लीजिये. अभी इस चूर्ण को कांच की शीशी में भर कर उपयोग के लिए रख लीजिये. रोज़ सुबह और रात में सोते समय एक एक खाने का चम्मच गर्म दूध के साथ तीन महीने तक सेवन करें.मूत्र विकार में.पेशाब की रुकावट और जलन को ठीक करने के लिए बबूल की गोंद को पानी में घोलकर पीना चाहिए, बबूल कि कच्ची फलियाँ छाया में सुखाकर देशी घी में तल कर उनका चूर्ण बना लें. इस चूर्ण को शक्कर के साथ 10 ग्राम मात्रा में सुबह शाम लेने से भी मूत्र विकार सम्बन्धी रोग ठीक हो जाते हैं.  बबूल की गोंद कि 2 से 3 ग्राम मात्रा को 150 मिली जल में घोलकर एक बार लें.बबूल परिचय.बबूल जिसको कीकर, किक्कर, बाबला, बामूल आदि नामो से जाना जाता है. इसका पेड़ कांटेदार, बड़े या छोटे रूप में पुरे देश में सभी गाँवों शहरो में आसानी से मिल जाता है. इसके तीन भेद है – तेलिया बबूल, कोडिया बबूल और राम काँटा बबूल. इनमे से तेलिया बबूल मध्य आकार का होता है. कोडिया बबूल का वृक्ष मोटा व् छाल रूखी होती है. यह विदर्भ व् खानदेश में होता है. राम काँटा बबूल कि शाखाएं ऊपर उठी हुयी और झाड़ू कि तरह होती हैं. यह पंजाब राजस्थान व् दक्षिण में पाया जाता है.गोंद या फली की उपलब्धतावैसे तो ये गोंद बहुत आसानी से हर जगह उपलब्ध हो जाती है, मगर फिर भी अगर आपको ये ना मिले तो आप इसको जितेंदर जी से 7073796173 पर फ़ोन पर मंगवा सकते हैं. ध्यान रहे के जितेंदर जी ये पंसारी की कच्ची औषधियां बेचते हैं वो कोई वैद नहीं हैं. उनके पास आपको बबूल की फली भी मिल जाएगी. जो घुटनों और जिनके धातु गिरती है या शीघ्र पतन की समस्या हो उनके लिए बहुत उपयोगी है.

Monday, 29 January 2018

वैदिक वाङ्मय 

Phonetic Go  देवनागरी खोज कस्टम खोज परिणाम देखे   वैदिक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप   वैदिक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप संस्कृत साहित्य की शब्द-रचना की दृष्टि से 'वेद' शब्द का अर्थ ज्ञान होता है, परंतु इसका प्रयोग साधारणतया ज्ञान के अर्थ में नहीं किया जाता। हमारे महर्षियों ने अपनी तपस्या के द्वारा जिस 'शाश्वत ज्योति' का परम्परागत शब्द-रूप से साक्षात्कार किया, वही शब्द-राशि 'वेद' है। वेद अनादि हैं और परमात्मा के स्वरूप हैं। महर्षियों द्वारा प्रत्यक्ष दृष्ट होने के कारण इनमें कहीं भी असत्य या अविश्वास के लिये स्थान नहीं है। ये नित्य हैं और मूल में पुरुष-जाति से असम्बद्ध होने के कारण अपौरुषेय कहे जाते हैं। प्रामाणिकता वेद अनादि अपौरुषेय और नित्य हैं तथा उनकी प्रामाणिकता स्वत: सिद्ध है, इस प्रकार का मत आस्तिक सिद्धान्तवाले सभी पौराणिकों एवं सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के दार्शनिकों का है। न्याय और वैशेषिक के दार्शिनकों ने वेद को अपौरुषेय नहीं माना है, पर वे भी इन्हें परमेश्वर (पुरुषोत्तम)- द्वारा निर्मित, परंतु पूर्वानुरूपी का ही मानते हैं। इन दोनों शाखाओं के दार्शनिकों ने वेद को परम प्रमाण माना है और आनुपूर्वी (शब्दोच्चारणक्रम)- को सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक अविच्छिन्न-रूप से प्रवृत्त माना है। जो वेद को प्रमाण नहीं मानते, वे आस्तिक नहीं कहे जाते। अत: सभी आस्तिक मतवाले वेद को प्रमाण मानने में एकमत हैं, केवल न्याय और वैशेषिक दार्शनिकों की अपौरुषेय मानने की शैली भिन्न है। नास्तिक दार्शनिकों ने वेदों को भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा रचा हुआ ग्रन्थ माना है। चार्वाक मतवालों ने तो वेद को निष्क्रिय लोगों की जीविका का साधन तक कह डाला है। अत: नास्तिक दर्शन वाले वेद को न तो अनादि न अपौरुषेय, और न नित्य ही मानते हैं तथा न इनकी प्रामणिकता में ही विश्वास करते हैं। इसीलिये वे नास्तिक कहलाते हैं। आस्तिक दर्शनशास्त्रों ने इस मत का युक्ति, तर्क एवं प्रमाण से पूरा खण्डन किया है। वेद चार हैं वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं। उनके नाम हैं- ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। द्वापर युग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो 'ऋक्', 'यजु:' और 'साम'- इन तीन शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। यहाँ यह कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि परमपिता परमेश्वर ने प्रत्येक कल्प के आरम्भ में सर्वप्रथम ब्रह्माजी (परमेष्ठी प्रजापति)- के हृदय में समस्त वेदों का प्रादुर्भाव कराया था, जो उनके चारों मुखों में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। ब्रह्मा जी की ऋषि संतानों ने आगे चलकर तपस्या द्वारा इसी शब्द-राशि का साक्षात्कार किया और पठन-पाठन की प्रणाली से इनका संरक्षण किया। त्रयी विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन ही शैलियाँ होती हैं; जो पद्य (कविता), गद्य और गान रूप से जन-साधारण में प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम रहता है। अत: निश्चित अक्षर-संख्या और पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या और पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं हैं, वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजु:' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र 'साम' कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये 'त्रयी' शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। 'त्रयी' शब्द से ऐसा नहीं समझना चाहिये कि वेदों की संख्या ही तीन हैं, क्योंकि 'त्रयी' शब्द का व्यवहार शब्द-प्रयोग की शैली के आधार पर है। श्रुति-आम्नाय वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरु मुख से श्रवण कर स्वयं अभ्यास करने की प्रक्रिया अब तक है। आज भी गुरु मुख से श्रवण किये बिना केवल पुस्तक के आधार पर ही मन्त्राभ्यास करना निन्दनीय एवं निष्फल माना जाता है। इस प्रकार वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से गुरु मुख से श्रवण करने एवं उसे याद करने का अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को 'श्रुति' भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है। इस कारण इसका नाम 'आम्नाय' भी है। त्रयी, श्रुति और आम्नाय- ये तीनों शब्द आस्तिक ग्रन्थों में वेद के लिये व्यवहृत किये जाते हैं। चार वेद उस समय (द्वापरयुग की समाप्ति के समय) में भी वेद का पढ़ाना और अभ्यास करना सरल कार्य नहीं था। कलि युग में मनुष्यों की शक्तिहीनता और कम आयु होने की बात को ध्यान में रखकर वेद पुरुष भगवान नारायण के अवतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी महाराज ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग आजकल ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध हैं। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक- इन चार शिष्यों ने अपने-अपने अधीत वेदों के संरक्षण एवं प्रसार के लिये शाकल आदि भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। उन शिष्यों के मनोयोग एवं प्रचार के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम से आज तक प्रसिद्ध हो रही हैं। यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शाखा के नाम से सम्बन्धित कोई भी मुनि मन्त्रद्रष्टा ऋषि नहीं है और न वह शाखा उसकी रचना है। शाखा के नाम से सम्बन्धित व्यक्ति का उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्रचार एवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड में भिन्न वर्गीकरण वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है, जिससे प्राणि मात्र इस असार संसार के बन्धनों के मूलभूत कारणों को समझकर इससे मुक्ति पा सके। अत: वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड –इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरूपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से बहुत अधिक है। कर्मकाण्ड में यज्ञानुष्ठान-सम्बन्धी विधि-निषेध आदि का सर्वांगीण विवेचन है। इस भाग का प्रधान उपयोग यज्ञानुष्ठान में होता है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको 'ऋत्विक' कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विजों के चार गण हैं। समस्त ऋत्विक् चार वर्गों में बँटकर अपना-अपना कार्य करते हुए यज्ञ को सर्वागींण बनाते हैं। गणों के नाम हैं- होतृगण, अध्वर्युगण, उद्गातृगण और ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों या वर्गों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं। उनका विभाजन इस प्रकार किया गया है- ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम ऋग्वेद इसलिये पड़ा है कि इसमें 'ऋक्' संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता है। इसमें होतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजु:) स्वरूप के भी कुछ मन्त्र हैं। इसकी मन्त्र-संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा अधिक है। इसके कई मन्त्र अन्य वेदों में भी मिलते हैं। सामवेद में तो ऋग्वेद के मन्त्र ही अधिक हैं। स्वतन्त्र मन्त्र कम हैं। यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्टान-सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम यजुर्वेद इसलिये पड़ा है कि इसमें 'गद्यात्मक' मन्त्रों की अधिकता है। इसमें कुछ पद्यबद्ध , मन्त्र भी हैं जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी हैं। इसके कुछ मन्त्र अथर्ववेद में भी पाये जाते हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (1) शुक्लयजुर्वेद और (2) कृष्णयजुर्वेद। सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है कि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं। इसके अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इस ब्रह्मवर्ग का कार्य है यज्ञ की देख-रेख करना, समय-समय पर नियमानुसार निर्देश देना, यज्ञ में ऋत्विजों एवं यजमान के द्वारा कोई भूल हो जाय या कमी रह जाय तो उसका सुधार या प्रायश्चित्त करना। अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अत: इसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति-सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करने वाले भी मन्त्र हैं। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध हैं। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्य विषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यत: अथर्व नाम के महार्षि द्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नाम अथर्ववेद है। कुछ मन्त्र सभी वेदों में या एक-दो वेदों में समान-रूप से मिलते हैं, जिसका कारण यह है कि चारों वेदों का विभाजन यज्ञानुष्ठान के ऋत्विक जनों के उपयोगी होने के आधार पर किया गया है। अत: विभिन्न यज्ञावसरों पर विभिन्न वर्गों के ऋत्विजों के लिये उपयोगी मन्त्रों का उस वेद में आ जाना स्वाभाविक है, भले ही वह मन्त्र दूसरे ऋत्विक के लिये भी अन्य अवसर पर उपयोगी होने के कारण अन्यत्र भी मिलता हो। वेदों का विभाजन और शाखा-विस्तार आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द राशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती हैं- याज्ञिक दृष्टि, प्रायोगिक दृष्टि और साहित्यिक दृष्टि। याज्ञिक दृष्टि इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखा का विस्तार हुआ है। प्रत्येक वेद की अनेक शाखाएँ बतायी गयी हैं। यथा-ऋग्वेद की 21 शाखा, यजुर्वेद की 101 शाखा, सामवेद की 1,000 शाखा और अथर्ववेद की 9 शाखा- इस प्रकार कुल 1,131 शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है। अन्य वेदों की अपेक्षा ऋग्वेद में मन्त्र-संख्या अधिक है, फिर भी इसका शाखा-विस्तार यजुर्वेद और सामवेद की अपेक्षा कम है। इसका कारण यह है कि ऋग्वेद में देवताओं के स्तुति रूप मन्त्रों का भण्डार है। स्तुति-वाक्यों की अपेक्षा कर्मप्रयोग की शैली में भिन्नता होनी स्वाभाविक है। अत: ऋग्वेद की अपेक्षा यजुर्वेद की शाखाएँ अधिक हैं। गायन-शैली की शाखाओं का सर्वाधिक होना आश्चर्यजनक नहीं है। अत: सामवेद की 1000 शाखाएँ बतायी गयी हैं। फलत: कोई भी वेद शाखा-विस्तार के कारण एक-दूसरे से उपयोगिता, श्रद्धा एवं महत्त्व में कम-ज़्यादा नहीं है। चारों का महत्त्व समान है। उपर्युक्त 1,131 शाखाओं में से वर्तमान में केवल 12 शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। वे हैं— ऋग्वेद की 21 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन-शाखा। यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से केवल 4 शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त हैं- तैत्तिरीय शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ शाखा और कपिष्ठल शाखा। शुक्लयजुर्वेद की 15 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त हैं- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा। सामवेद की 1000 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा। अथर्ववेद की 9 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा। अध्ययन-शैली उपर्युक्त 12 शाखाओं में से केवल 6 शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है, जो नीचे दी जा रही है- ऋग्वेद में केवल शाकल-शाखा, कृष्णयजुर्वेद में केवल तैत्तिरीय शाखा और शुक्लयजुर्वेद में केवल माध्यन्दिनीय शाखा तथा काण्व-शाखा, सामवेद में केवल कौथुम-शाखा, अथर्वेवेद में केवल शौनक-शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किंतु उनसे उस शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं। कृष्णयजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा महाराष्ट्र में तथा सामवेद की जैमिनीय शाखा केरल के कुछ व्यक्तियों के ही उच्चारण में सीमित हैं। प्रायोगिक दृष्टि इसके अनुसार प्रत्येक शाखा के दो भाग बताये गये हैं। एक मन्त्र-भाग और दूसरा ब्राह्मण-भाग। मन्त्र-भाग मन्त्र-भाग उस शब्दराशि को कहते हैं, जो यज्ञ में साक्षात्-रूप से प्रयोग में आती है। ब्राह्मण-भाग ब्राह्मण शब्द से उस शब्दराशि का संकेत है, जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द), कथा, आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की प्रवृत्ति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने की पद्धति बताना, उसकी उपपत्ति और विवेचन के साथ उसके रहस्य का निरूपण करना है। इस प्रायोगिक दृष्टि के दो विभाजनों में साहित्यिक दृष्टि के चार विभाजनों का समावेश हो जाता है। साहित्यिक दृष्टि इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- संहिता वेद का जो भाग प्रतिदिन विशेषत: अध्ययनीय है, उसे 'संहिता' कहते हैं। इस शब्द राशि का उपयोग श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञानुष्ठानों में होता है। प्रत्येक वेद की अलग-अलग शाखा की एक-एक संहिता है। वेदों के अनुसार उनको- ऋग्वेद-संहिता, यजुर्वेद- संहिता, सामवेद-संहिता और अथर्ववेद-संहिता कहा जाता है। इन संहिताओं के पाठ में उनके अक्षर, वर्ण, स्वर आदि का किंचित मात्र भी उलट-पुलट न होने पाये, इसलिये प्राचीन अध्ययन-अध्यापन के सम्प्रदाय में संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ-ये तीन प्रकृति पाठ और जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रथ तथा घन- ये आठ विकृति पाठ प्रचलित हैं। ब्राह्मण वह वेद-भाग जिसमें विशेषतया यज्ञानुष्ठान की पद्धति के साथ-ही-साथ तदुपयोगी प्रवृत्ति का उद्बोधन कराना, उसको दृढ़ करना तथा उसके द्वारा फल-प्राप्ति आदि का निरूपण विधि एवं अर्थवाद के द्वारा किया गया है, 'ब्राह्मण' कहा जाता है। आरण्यक वह वेद-भाग जिसमें यज्ञानुष्ठान-पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एवं फल आदि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया है, 'आरण्यक' कहलाता है। यह भाग मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुकाकर सांसारिक बन्धनों से ऊपर उठाता है। अत: इसका विशेष अध्ययन भी संसार के त्याग की भावना के कारण वानप्रस्थाश्रम के लिये अरण्य (जंगल)- में किया जाता है। इसीलिये इसका नाम 'आरण्यक' प्रसिद्ध हुआ है। उपनिषद वह वेद-भाग जिसमें विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल सम्बन्धी फलानुबन्धी कर्मों के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया है, 'उपनिषद' कहलाता है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं में है, परंतु यह बात स्पष्ट-रूप से समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान में उपनिषद संज्ञा के नाम से जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ उपनिषदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, छान्दोग्य आदि)- को छोड़कर बाक़ी के सभी उपनिषद –भाग में उपलब्ध हों, ऐसी बात नहीं है। शाखागत उपनिषदों में से कुछ अंश को सामयिक, सामाजिक या वैयक्तिक आवश्यकता के आधार पर उपनिषद संज्ञा दे दी गयी है। इसीलिए इनकी संख्या एवं उपलब्धियों में विविधता मिलती है। वेदों में जो उपनिषद-भाग हैं, वे अपनी शाखाओं में सर्वथा अक्षुण्ण हैं। उनको तथा उन्हीं शाखाओं के नाम से जो उपनिषद-संज्ञा के ग्रन्थ उपलब्ध हैं, दोनों को एक नहीं समझना चाहिये। उपलब्ध उपनिषद-ग्रन्थों की संख्या में से ईशादि 10 उपनिषद तो सर्वमान्य हैं। इनके अतिरिक्त 5 और उपनिषद (श्वेताश्वतरादि), जिन पर आचार्यो की टीकाएँ तथा प्रमाण-उद्धरण आदि मिलते हैं, सर्वसम्मत कहे जाते हैं। इन 15 के अतिरिक्त जो उपनिषद उपलब्ध हैं, उनकी शब्दगत ओजस्विता तथा प्रतिपादनशैली आदि की विभिन्नता होने पर भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि इनका प्रतिपाद्य ब्रह्म या आत्मतत्त्व निश्चयपूर्वक अपौरुषेय, नित्य, स्वत:प्रमाण वेद-शब्द-राशि से सम्बद्ध है। ऋषि, छन्द और देवता वेद के प्रत्येक मन्त्र में किसी-न-किसी ऋषि, छन्द एवं देवता का उल्लेख होना आवश्यक है। कहीं-कहीं एक ही मन्त्र में एक से अधिक ऋषि, छन्द और देवता के नाम मिलते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि एक ही मन्त्र में एक से अधिक ऋषि, छन्द और देवता क्यों हैं, यह स्पष्ट कर दिया जाय। इसका विवेचन निम्न पंक्तियों में किया गया है- ऋषि यह वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। 'यथार्थ'- ज्ञान प्राय: चार प्रकार- से होता है परम्परा के मूल पुरुष होने से, उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से, श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है। जैसे— कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश 'वंश-ब्राह्मण' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा (ऋषि) हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है। इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं। कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है। वैदिक ग्रन्थों विशेषतया पुराण-ग्रन्थों के मनन से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं। उक्त निर्देशों को ध्यान में रखने के साथ यह भी समझ लेना चाहिये कि एक ही मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं। फलत: एक मन्त्र के अनेक ऋषि होने में परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि मन्त्र ऋषियों की रचना या अनुभूति से सम्बन्ध नहीं रखता; अपितु ऋषि ही उस मन्त्र से बहिरंग रूप से सम्बद्ध व्यक्ति है। छन्द मन्त्र से सम्बन्धित (मन्त्र के स्वरूप में अनुस्यूत) अक्षर, पाद, विराम की विशेषता के आधार पर दी गयी जो संज्ञा है, वही छन्द है। एक ही पदार्थ की संज्ञा विभिन्न सिद्धान्त या व्यक्ति के विश्लेषण के भाव से नाना प्रकार की हो सकती है। अत: एक ही मन्त्र के भिन्न नाम के छन्द शास्त्रों में पाये जाते हैं। किसी भी संज्ञा का नियमन उसके तत्त्वज्ञ आप्त व्यक्ति के द्वारा ही होता है। अत: कात्यायन, शौनक, पिंगल आदि 'छन्द:शास्त्र' के आचार्यों की एवं सर्वानुक्रमणीकारों की उक्तियाँ ही इस सम्बन्ध में मान्य होती हैं। इसलिये एक मन्त्र में भिन्न नामों के छन्दों के मिलने से भ्रम नहीं होना चाहिये। देवता मन्त्रों के अक्षर किसी पदार्थ या व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ कहते हैं। यह कथन जिस व्यक्ति या पदार्थ के निमित्त होता है, वही उस मन्त्र का देवता होता है, परंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि कौन मन्त्र, किस व्यक्ति या पदार्थ के लिये कब और कैसे प्रयोग किया जाय, इसका निर्णय वेद का ब्राह्मण-भाग या तत्त्वज्ञ ऋषियों के शास्त्र-वचन ही करते हैं। एक ही मन्त्र का प्रयोग कई यज्ञिय अवसरों तथा कई कामनाओं के लिये मिलता है। ऐसी स्थिति में उस एक ही मन्त्र के अनेक देवता बताये जाते हैं। अत: उन निर्देशों के आधार पर ही कोई पदार्थ या व्यक्ति 'देवता' कहा जाता है। मन्त्र के द्वारा जो प्रार्थना की गयी है, उसकी पूर्ति करने की क्षमता उस देवता में रहती है। लौकिक व्यक्ति या पदार्थ ही जहाँ देवता हैं, वहाँ वस्तुत: वह दृश्य जड पदार्थ ही जहाँ देवता हैं, वहाँ वस्तुत: वह दृश्य जड पदार्थ या अक्षम व्यक्ति देवता नहीं है, अपितु उसमें अन्तर्हित एक प्रभु-शक्तिसम्पन्न देवता-तत्त्व है, जिससे हम प्रार्थना करते हैं। यही बात 'अभिमानीव्यपदेश' शब्द से शास्त्रों में स्पष्ट की गयी है। लौकिक पदार्थ या व्यक्ति का अधिष्ठाता देवता-तत्त्व मन्त्रात्मक शब्द-तत्त्व से अभिन्न है, यह मीमांसा-दर्शन का विचार है। वेदान्तशास्त्र में मन्त्र से प्रतिपादित देवता-तत्त्व को शरीरधारी चेतन और अतीन्द्रिय कहा गया है। पुराणों में कुछ देवताओं के स्थान, चरित्र, इतिहास आदि का वर्णन करके भारतीय संस्कृति के इस देवता-तत्त्व के प्रभुत्व को हृदयंगम कराया गया है। निष्कर्ष यही है कि इच्छा की पूर्ति कर सकने वाले अतीन्द्रिय मन्त्र से प्रतिपादित तत्त्व को देवता कहते हैं और उस देवता का संकेत शास्त्र-वचनों से ही मिलता है। अत: वचनों के अनुसार अवसर-भेद से एक मन्त्र के विभिन्न देवता हो सकते हैं। वेद के अंग, उपांग एवं उपवेद वेदों के सर्वागींण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त छन्द और ज्योतिष-इन 6 अंगों के ग्रन्थ हैं। प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये 6 उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद-ये क्रमश: चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं। विशेष उपयोगी ग्रन्थ वैदिक शब्दों के अर्थ एवं उनके प्रयोग की पूरी जानकारी के लिये वेदांग आदि शास्त्रों की व्यवस्था मानी गयी है। उसमें वैदिक स्वर और शब्दों की व्यवस्था के लिये शिक्षा तथा व्याकरण दोनों अंगों के ग्रन्थ वेद के विशिष्ट शब्दार्थ के उपयोग के लिये अलग-अलग उपांग ग्रन्थ 'प्रातिशाख्य' हैं, जिन्हें वैदिक व्याकरण भी कहते हैं। प्रयोग-पद्धति की सुव्यवस्था के लिये कल्पशास्त्र माना जाता है। इसके चार भेद हैं- (1) श्रौतसूत्र, (2) गृह्यसूत्र, (3) धर्मसूत्र और (4) शुल्बसूत्र। इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार हैं- श्रौतसूत्र इसमें श्रौत-अग्नि (आवहनीय-गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि)- में होने वाले यज्ञ-सम्बन्धी विषयों का स्पष्ट निरूपण किया गया है। गृह्यसूत्र इसमें गृह्य (औपासन)-अग्नि में होने वाले कर्मों एवं उपनयन, विवाह आदि संस्कारों का निरूपण किया गया है। धर्मसूत्र इसमें वर्ण तथा आश्रम-सम्बन्धी धर्म, आचार, व्यवहार आदि का निरूपण है। शुल्बसूत्र इसमें यज्ञ-वेदी आदि के निर्माण की ज्यामितीय प्रक्रिया तथा अन्य तत्सम्बद्ध निरूपण है। इस प्रकार से प्रत्येक शाखा के लिये अलग-अलग व्याकरण और कल्पसूत्र हैं, जिससे उस शाखा का पूरा ज्ञान हो जाता है और कर्मानुष्ठान में सुविधा होती है। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि यथार्थ में ज्ञानस्वरूप होते हुए भी वेद; कोई वेदान्त-सूत्र की तरह केवल दार्शनिक ग्रन्थ नहीं हैं, जहाँ केवल आध्यात्मिक चिन्तन का ही समावेश हो। ज्ञान-भण्डार में लौकिक और अलौकिक सभी विषयों का समावेश रहता है और साक्षात या परम्परा से ये सभी विषय परम तत्त्व की प्राप्ति में सहायक होते हैं। यद्यपि किसी दार्शनिक विषय का सांगोपांग विचार वेद में किसी एक स्थान पर नहीं मिलता, किंतु छोटे-से-छोटे तथा बड़े-से-बड़े तत्त्वों के स्वरूप का साक्षात दर्शन तो ऋषियों को हुआ था और वे सब अनुभव वेद में व्यक्त रूप से किसी न किसी स्थान पर वर्णित हैं। उनमें लौकिक और अलौकिक सभी बातें हैं। स्थूलतम तथा सूक्ष्मतम रूप से भिन्न-भिन्न तत्त्वों का परिचय वेद के अध्ययन से प्राप्त होता है। अत: वेद के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि वेद का एक ही प्रतिपाद्य विषय है या एक ही दर्शन है या एक ही मन्तव्य है। यह तो साक्षात –प्राप्त ज्ञान के स्वरूपों का शब्द-भण्डार है। इसी शब्दराशि के तत्त्वों को निकाल कर आचार्यों ने अपनी-अपनी अनुभूति, दृष्टि एवं गुरु-परम्परा के आधार पर विभिन्न दर्शनों तथा दार्शनिक प्रस्थानों (मौलिक दृष्टि से सुविचारित मतों)- का संचयन किया है। इस कारण भारतीय दृष्टि से वेद विश्व का संविधान है। अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्॥ [1] पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और माता के साथ समान मन वाला हो। पत्नी पति से मधुर और सुखद वाणी बोले।(अथर्व 3।30।2 साभार:डा. श्रीश्रीकिशोरजी मिश्र संबंधित लेख श्रुतियाँ [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें वेद वेद · संहिता · वैदिक काल · उत्तर वैदिक काल · वेद का स्वरूप · वैदिक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप · वेदों का रचना काल · ऋग्वेद · यजुर्वेद · सामवेद · अथर्ववेद · मनुसंहिता · शालिहोत्रसंहिता · वेदांग · वेदांत · ब्रह्मवेद · वैदिक धर्म [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें उपवेद और वेदांग उपवेद अर्थवेद (ॠग्वेद) कामन्दक सूत्र · कौटिल्य अर्थशास्त्र · चाणक्य सूत्र · नीतिवाक्यमृतसूत्र · बृहस्पतेय अर्थाधिकारकम् · शुक्रनीति धनुर्वेद (दोनों यजुर्वेदों के लिए मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · वैशम्पायन नीति-प्रकाशिका · समरांगण सूत्रधार गान्धर्ववेद (सामवेद) दत्तिलम · भरत नाट्यशास्त्र · मल्लिनाथ रत्नाकर · संगीत दर्पण · संगीत रत्नाकर आयुर्वेद (अथर्ववेद) अग्निग्रहसूत्रराज · अश्विनीकुमार संहिता · अष्टांगहृदय · इन्द्रसूत्र · चरक संहिता · जाबालिसूत्र · दाल्भ्य सूत्र · देवल सूत्र · धन्वन्तरि सूत्र · धातुवेद · ब्रह्मन संहिता · भेल संहिता · मानसूत्र · शब्द कौतूहल · सुश्रुत संहिता · सूप सूत्र · सौवारि 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Sunday, 28 January 2018

वेद

Phonetic Go  देवनागरी खोज कस्टम खोज परिणाम देखे   वेद   वेद (अंग्रेज़ी: Vedas) प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं, जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में से हैं, जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। वेद परिचय "विद्" का अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है। 'वेद' हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई। ऐसी मान्यता है कि इनके मन्त्रों को परमेश्वर ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था। इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले चार-पाँच हज़ार वर्षों से चली आ रही है। वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं। वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं। महर्षि व्यास का योगदान प्रारम्भावस्था में वेद केवल एक ही था; एक ही वेद में अनेकों ऋचाएँ थीं, जो “वेद-सूत्र” कहलाते थे; वेद में यज्ञ-विधि का वर्णन है; सम (गाने योग्य) पदावलियाँ है तथा लोकोपकारी अनेक ही छन्द हैं। इन समस्त विषयों से सम्पन्न एक ही वेद सत्युग और त्रेतायुग तक रहा; द्वापरयुग में महर्षि कृष्णद्वैपायन ने वेद को चार भागों में विभक्त किया। इस कारण महर्षि कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। संस्कृत में विभाग को “व्यास“ कहते हैं, अतः वेदों का व्यास करने के कारण कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। महर्षि व्यास के पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु- यह चार शिष्य थे। महर्षि व्यास ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्यापन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।[1] ब्राह्मण ग्रन्थ वेद में कुल मिलाकर एक लाख मन्त्र हैं। इन एक लाख मन्त्रों में 4000 मन्त्र ज्ञानकाण्ड विषयक हैं, 16000 मन्त्र उपासना विधि के हैं, और 80000 मन्त्र कर्मकाण्ड विषयक हैं। मन्त्रों की व्याख्या करने वाले भाग को “ब्राह्मण” कहते हैं। चारों वेदों के चार ही ब्राह्मण-ग्रन्थ हैं, ऋग्वेद का “ऐतरेय”, यजुर्वेद का “शतपथ”; सामवेद का “पंचविंश” तथा अथर्ववेद का “गोपथ ब्राह्मण”। इन ब्राह्मण ग्रन्थों में कर्मकाण्ड विषयक अंश “ब्राह्मण” कहलाता है; ज्ञान चर्चा विषयक अंश “आरण्यक”; उपासना विषयक अंश को उपनिषद कहते हैं। इस प्रकार वेद-मन्त्रों का और ब्राह्मण-भागों का निरुपण मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चार नामों से होने लगा। उपवेद व उपांग प्रत्येक वेद के साथ एक-एक “उपवेद” है। ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद; यजुर्वेद का उपवेद “धनुर्वेद”; सामवेद का उपवेद “गन्धर्ववेद”; और अथर्ववेद का उपवेद “अर्थशास्त्र” है। इसी प्रकार वेद के छः अंग और छः उपांग हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निसक्त, छन्द, और ज्योतिष तो छः अंग हैं। शिक्षा ग्रन्थ से मन्त्र उच्चारण की विधि प्राप्त होती है; कल्पग्रन्थों से यज्ञ करने की विधि; व्याकरण से शब्दों की व्युत्पत्ति का ज्ञान; निरुक्त से वेद-शब्दों के अर्थ का ज्ञान; छन्द-शास्त्र से छन्दों का ज्ञान; तथा ज्योतिष से ग्रह-नक्षत्रादि की स्थिति का तथा मानव पर उनके भलेबुरे प्रभाव का ज्ञान होता है। वेदों के उपांग “षड्दर्शन या षट्शास्त्र” कहलाते हैं। वेदवाड्मय एवं अपौरुषेयवाद 'सनातन धर्म' एवं 'भारतीय संस्कृति' का मूल आधार स्तम्भ विश्व का अति प्राचीन और सर्वप्रथम वाड्मय 'वेद' माना गया है। मानव जाति के लौकिक (सांसारिक) तथा पारमार्थिक अभ्युदय-हेतु प्राकट्य होने से वेद को अनादि एवं नित्य कहा गया है। अति प्राचीनकालीन महा तपा, पुण्यपुञ्ज ऋषियों के पवित्रतम अन्त:करण में वेद के दर्शन हुए थे, अत: उसका 'वेद' नाम प्राप्त हुआ। ब्रह्म का स्वरूप 'सत-चित-आनन्द' होने से ब्रह्म को वेद का पर्यायवाची शब्द कहा गया है। इसीलिये वेद लौकिक एवं अलौकिक ज्ञान का साधन है। 'तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये0'- तात्पर्य यह कि कल्प के प्रारम्भ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ। सुप्रसिद्ध वेदभाष्यकार महान् पण्डित सायणाचार्य अपने वेदभाष्य में लिखते हैं कि 'इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेद:'[2] निरूक्त कहता है कि 'विदन्ति जानन्ति विद्यन्ते भवन्ति0' [3] 'आर्यविद्या-सुधाकर' नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि— वेदो नाम वेद्यन्ते ज्ञाप्यन्ते धर्मार्थकाममोक्षा अनेनेति व्युत्पत्त्या चतुर्वर्गज्ञानसाधनभूतो ग्रन्थविशेष:॥ [4] 'कामन्दकीय नीति' भी कहती है- 'आत्मानमन्विच्छ0।' 'यस्तं वेद स वेदवित्॥' [5] कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान का ही पर्याय वेद है। श्रुति भगवती बतलाती है कि 'अनन्ता वै वेदा:॥' वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान अनन्त है, अत: वेद भी अनन्त हैं। तथापि मुण्डकोपनिषद की मान्यता है कि वेद चार हैं- 'ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदो ऽथर्ववेद:॥'[6]इन वेदों के चार उपवेद इस प्रकार हैं— आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्र्चेति ते त्रय:। स्थापत्यवेदमपरमुपवेदश्र्चतुर्विध:॥ उपवेदों के कर्ताओं में आयुर्वेद के कर्ता धन्वन्तरि, धनुर्वेद के कर्ता विश्वामित्र, गान्धर्ववेद के कर्ता नारद मुनि और स्थापत्यवेद के कर्ता विश्वकर्मा हैं। मनुस्मृति में वेद ही श्रुति मनुस्मृति कहती है- 'श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेय:'[7] 'आदिसृष्टिमारभ्याद्यपर्यन्तं ब्रह्मादिभि: सर्वा: सत्यविद्या: श्रूयन्ते सा श्रुति:॥'[8] वेदकालीन महातपा सत्पुरुषों ने समाधि में जो महाज्ञान प्राप्त किया और जिसे जगत के आध्यात्मिक अभ्युदय के लिये प्रकट भी किया, उस महाज्ञान को 'श्रुति' कहते हैं। श्रुति के दो विभाग हैं- वैदिक और तान्त्रिक- 'श्रुतिश्च द्विविधा वैदिकी तान्त्रिकी च।' मुख्य तन्त्र तीन माने गये हैं- महानिर्वाण-तन्त्र, नारदपाञ्चरात्र-तन्त्र और कुलार्णव-तन्त्र। वेद के भी दो विभाग हैं- मन्त्र विभाग और ब्राह्मण विभाग- 'वेदो हि मन्त्रब्राह्मणभेदेन द्विविध:।' वेद के मन्त्र विभाग को संहिता भी कहते हैं। संहितापरक विवेचन को 'आरण्यक' एवं संहितापरक भाष्य को 'ब्राह्मणग्रन्थ' कहते हैं। वेदों के ब्राह्मणविभाग में' आरण्यक' और 'उपनिषद'- का भी समावेश है। ब्राह्मणविभाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद'- का भी समावेश है। ब्राह्मणग्रन्थों की संख्या 13 है, जैसे ऋग्वेद के 2, यजुर्वेद के 2, सामवेद के 8 और अथर्ववेद के 1 । मुख्य ब्राह्मणग्रन्थ पाँच हैं- ऋग्वेद का आवरण पृष्ठ ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, तलवकार ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण और ताण्डय ब्राह्मण। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गये हैं, जैसे- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, कौषीतकि और श्वेताश्वतर। वेद ईश्वरीय या मानवनिर्मित वेद पौरुषेय (मानवनिर्मित) है या अपौरुषेय (ईश्वरप्रणीत)। वेद का स्वरूप क्या है? इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का स्पष्ट उत्तर ऋग्वेद में इस प्रकार है-'वेद' परमेश्वर के मुख से निकला हुआ 'परावाक' है, वह 'अनादि' एवं 'नित्य' कहा गया है। वह अपौरुषेय ही है। [9] इस विषय में मनुस्मृति कहती है कि अति प्राचीन काल के ऋषियों ने उत्कट तपस्या द्वारा अपने तप:पूत हृदय में 'परावाक' वेदवाड्मय का साक्षात्कार किया था, अत: वे मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाये-'ऋषयो मन्त्रद्रष्टार:।' बृहदारण्यकोपनिषद में उल्लेख है- 'अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाग्डिरस।' अर्थात उन महान् परमेश्वर के द्वारा (सृष्टि- प्राकट्य होने के साथ ही)–ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नि:श्वास की तरह सहज ही बाहर प्रकट हुए। [10]तात्पर्य यह है कि परमात्मा का नि:श्वास ही वेद है। इसके विषय में वेद के महापण्डित सायणाचार्य अपने वेद भाष्य में लिखते हैं- यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्। निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थं महेश्वरम्॥ वैदिक परंपरा सारांश यह कि वेद परमेश्वर का नि:श्वास है, अत: परमेश्वर द्वारा ही निर्मित है। वेद से ही समस्त जगत का निर्माण हुआ है। इसीलिये वेद को अपौरुषेय कहा गया है। सायणाचार्य के इन विचारों का समर्थन पाश्चात्य वेद विद्वान प्रो0 विल्सन, प्रो. मैक्समूलर आदि ने अपने पुस्तकों में किया है। प्रो0 विल्सन लिखते हैं कि 'सायणाचार्य का वेद विषयक ज्ञान अति विशाल और अति गहन है, जिसकी समकक्षता का दावा कोई भी यूरोपीय विद्वान नहीं कर सकता।' प्रो0 मैक्समूलर लिखते हैं कि 'यदि मुझे सायणाचार्यरहित बृहद वेदभाष्य पढ़ने को नहीं मिलता तो मैं वेदार्थों के दुर्भेद्य क़िला में प्रवेश ही नहीं पा सका होता।' इसी प्रकार पाश्चात्त्य वेद विद्वान वेबर, बेनफी, राथ, ग्राम्सन, लुडविग, ग्रिफिथ, कीथ तथा विंटरनित्ज आदि ने सायणाचार्य के वेद विचारों का ही प्रतिपादन किया है। निरूक्तकार 'यास्काचार्य' भाषाशास्त्र के आद्यपण्डित माने गये हैं। उन्होंने अपने महाग्रन्थ वेदभाष्य में स्पष्ट लिखा है कि 'वेद अनादि, नित्य एवं अपौरुषेय (ईश्वरप्रणीत)ही है।' उनका कहना है कि 'वेद का अर्थ समझे बिना केवल वेदपाठ करना पशु की तरह पीठ पर बोझा ढोना ही है; क्योंकि अर्थज्ञानरहित शब्द (मन्त्र) प्रकाश (ज्ञान) नहीं दे सकता। जिसे वेद-मन्त्रों का अर्थ-ज्ञान हुआ है, उसी का लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण होता है।' ऐसे वेदार्थ ज्ञान का मार्ग दर्शक निरूक्त है। जर्मनी के वेद विद्वान प्रो0 मैक्समूलर कहते हैं कि 'विश्व का प्राचीनतम वाड्मय वेद ही है, जो दैविक एवं आध्यात्मिक विचारों को काव्यमय भाषा में अद्भुत रीति से प्रकट करने वाला कल्याणप्रदायक है। वेद परावाक है।' नि:संदेह परमेश्वर ने ही परावाक (वेदवाणी) का निर्माण किया है- ऐसा महाभारत में स्पष्ट कहा गया है-'अनादिनिधना विद्या वागुत्स्रष्टा स्वयम्भुवा॥' [11]अर्थात जिसमें से सर्वजगत उत्पन्न हुआ, ऐसी अनादि वेद-विद्यारूप दिव्य वाणी का निर्माण जगन्निर्माता ने सर्वप्रथम किया। ऋषि वेद मन्त्रों के कर्ता नहीं अपितु द्रष्टा ही थे- 'ऋषयो मन्त्रद्रष्टार:।' निरूक्तकार ने भी कहा है- वेद मन्त्रों के साक्षात्कार होने पर साक्षात्कारी को ऋषि कहा जाता है- 'ऋषिर्दर्शनात्।' इससे स्पष्ट होता है कि वेद का कर्तृत्व अन्य किसी के पास नहीं होने से वेद ईश्वरप्रणीत ही है, अपौरुषेय ही है। भारतीय दर्शन शास्त्र के मतानुसार शब्द को नित्य कहा गया है। वेद ने शब्द को नित्य माना है, अत: वेद अपौरुषेय है यह निश्चित होता है। निरूक्तकार कहते हैं कि 'नियतानुपूर्व्या नियतवाचो युक्तय:।' अर्थात शब्द नित्य है, उसका अनुक्रम नित्य है और उसकी उच्चारण-पद्धति भी नित्य है, इसीलिये वेद के अर्थ नित्य हैं। ऐसी वेदवाणी का निर्माण स्वयं परमेश्वर ने ही किया है। शब्द की चार अवस्थाएँ मानी गयी हैं- यजुर्वेद का आवरण पृष्ठ परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। ऋग्वेद- में इनके विषय में इस प्रकार कहा गया है- चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिण:। गुहा त्रीणि निहिता नेग्डयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्य वदन्ति॥ अर्थात वाणी के चार रूप होने से उन्हें ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं। वाणी के तीन रूप गुप्त हैं, चौथा रूप शब्दमय वेद के रूप में लोगों में प्रचारित होता है। [12] सूक्ष्मातिसूक्ष्म-ज्ञान को परावाक कहते हैं। उसे ही वेद कहा गया है। इस वेदवाणी का साक्षात्कार महा तपस्वी ऋषियों को होने से इसे 'पश्यन्तीवाक' कहते हैं। ज्ञानस्वरूप वेद का आविष्कार शब्दमय है। इस वाणी का स्थूल स्वरूप ही 'मध्यमावाक' है। वेदवाणी के ये तीनों स्वरूप अत्यन्त रहस्यमय हैं। चौथी 'वैखरीवाक' ही सामान्य लोगों की बोलचाल की है। शतपथ ब्राह्मण तथा माण्डूक्योपनिषद में कहा गया है कि वेद मन्त्र के प्रत्येक पद में, शब्द के प्रत्येक अक्षर में एक प्रकार का अद्भुत सामर्थ्य भरा हुआ है। इस प्रकार की वेद वाणी स्वयं परमेश्वर द्वारा ही निर्मित है, यह नि:शंक है। शिव पुराण में आया है कि ॐ के 'अ' कार, 'उ' कार, 'म' कार और सूक्ष्मनाद; इनमें से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद नि:सृत हुए। समस्त वाड्मय ओंकार (ॐ)- से ही निर्मित हुआ। 'ओंकारं बिंदुसंयुक्तम्' तो ईश्वररूप ही है। श्रीमद् भगवद्गीता में भी ऐसा ही उल्लेख है- मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ [13] श्रीमद्भागवत में तो स्पष्ट कहा गया है- वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:। वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम॥[14]अर्थात वेद भगवान ने जिन कार्यों को करने की आज्ञा दी है वह धर्म है और उससे विपरीत करना अधर्म है। वेद नारायण रूप में स्वयं प्रकट हुआ है, ऐसा श्रुति में कहा गया है। श्रीमद्भागवत में ऐसा भी वर्णित है- विप्रा गावश्च वेदाश्च तप: सत्यं दम: शम:। श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनू:॥ [15]अर्थात वेदज्ञ (सदाचारी भी) ब्राह्मण, दुधारू गाय, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, सहनशीलता और यज्ञ- ये श्रीहरि (परमेश्वर) के स्वरूप हैं। मनुस्मृति वेद को धर्म का मूल बताते हुए कहती है- वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥[16]अर्थात समग्र वेद एवं वेदज्ञ मनु, पराशर, याज्ञवल्क्य आदि- की स्मृति, शील, आचार, साधु (धार्मिक)- के आत्मा का संतोष-ये सभी धर्मों के मूल हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति में भी कहा गया है- श्रुति: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:। स्म्यक्संकल्पज: कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम्॥[17]अर्थात श्रुति, स्मृति, सत्पुरुषों का आचार, अपने आत्मा की प्रीति और उत्तम संकल्प से हुआ (धर्माविरुद्ध) काम- ये पाँच धर्म के मूल हैं। इसीलिये भारतीय संस्कृति में वेद सर्वश्रेष्ठ स्थान पर है। वेद का प्रामाण्य त्रिकालाबाधित है। वेद पाठ दर्शनशास्त्र के अनुसार भारतीय आस्तिक दर्शनशास्त्र के मत में शब्द के नित्य होने से उसका अर्थ के साथ स्वयम्भू-जैसा सम्बन्ध होता है। वेद में शब्द को नित्य समझने पर वेद को अपौरुषेय (ईश्वरप्रणीत) माना गया है। निरूक्तकार भी इसका प्रतिपादन करते हैं। आस्तिक दर्शन ने शब्द को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण मान्य किया है। इस विषय में मीमांसा- दर्शन तथा न्याय-दर्शन के मत भिन्न-भिन्न हैं। जैमिनीय मीमांसक, कुमारिल आदि मीमांसक, आधुनिक मीमांसक तथा सांख्यवादियों के मत में वेद अपौरुषेय, नित्य एवं स्वत:प्रमाण हैं। मीमांसक वेद को स्वयम्भू मानते हैं। उनका कहना है कि वेद की निर्मिति का प्रयत्न किसी व्यक्ति-विशेष का अथवा ईश्वर का नहीं है। नैयायिक ऐसा समझते हैं कि वेद तो ईश्वरप्रोक्त है। मीमांसक कहते हैं कि भ्रम, प्रमाद, दुराग्रह इत्यादि दोषयुक्त होने के कारण मनुष्य के द्वारा वेद-जैसे निर्दोष महान् ग्रन्थरत्न की रचना शक्य ही नहीं है। अत: वेद अपौरुषेय ही है। इससे आगे जाकर नैयायिक ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि ईश्वर ने जैसे सृष्टि की, वैसे ही वेद का निर्माण किया; ऐसा मानना उचित ही है। श्रुति के मतानुसार वेद तो महाभूतों का नि:श्वास (यस्य नि:श्वतिसं वेदा...) है। श्वास-प्रश्वास स्वत: आविर्भूत होते हैं, अत: उनके लिये मनुष्य के प्रयत्न की अथवा बुद्धि की अपेक्षा नहीं होती। उस महाभूत का नि:श्वासरूप वेद तो अदृष्टवशात अबुद्धिपूर्वक स्वयं आविर्भूत होता है। वेद नित्य-शब्द की संहृति होने से नित्य है और किसी भी प्रकार से उत्पाद्य नहीं है; अत: स्वत: आविर्भूत वेद किसी भी पुरुष से रचा हुआ न होने के कारण अपौरुषेय (ईश्वरप्रणीत) सिद्ध होता है। इन सभी विचारों को दर्शन शास्त्र में अपौरुषेयवाद कहा गया है। अवैदिक दर्शन को नास्तिक दर्शन भी कहते हैं, क्योंकि वह वेद को प्रमाण नहीं मानता, अपौरुषेय स्वीकार नहीं करता। उसका कहना है कि इहलोक (जगत) ही आत्मा का क्रीडास्थल है, परलोक (स्वर्ग) नाम की कोई वस्तु नहीं है, 'काम एवैक: पुरुषार्थ:'- काम ही मानव-जीवन का एकमात्र पुरुषार्थ होता है, 'मरणमेवापवर्ग:'- मरण (मृत्यु) माने ही मोक्ष (मुक्ति) है, 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्'- जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है (अनुमान प्रमाण नहीं है)। धर्म ही नहीं है, अत: अधर्म नहीं है; स्वर्ग-नरक नहीं हैं। 'न परमेश्वरोऽपि कश्चित्'- परमेश्वर –जैसा भी कोई नहीं है, 'न धर्म: न मोक्ष:'- न तो धर्म है न मोक्ष है। अत: जब तक शरीर में प्राण है, तब तक सुख प्राप्त करते हैं- इस विषय में नास्तिक चार्वाक-दर्शन स्पष्ट कहता है- यावज्जीवं सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:॥[18] चार्वाक-दर्शन शब्द में 'चर्व' का अर्थ है-खाना। इस 'चर्व' पद से ही 'खाने-पीने और मौज' करने का संदेश देने वाले इस दर्शन का नाम 'चार्वाक-दर्शन' पड़ा है। 'गुणरत्न' ने इसकी व्याख्या इस प्रकार से की है- परमेश्वर, वेद, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, आत्मा, मुक्ति इत्यादि का जिसने 'चर्वण' (नामशेष) कर दिया है, वह 'चार्वाक-दर्शन' है। इस मत के लोगों का लक्ष्य स्वमतस्थापन की अपेक्षा परमतखण्डन के प्रति अधिक रहने से उनको 'वैतंडिक' कहा गया है। वे लोग वेदप्रामाण्य मानते ही नहीं। जगत, जीव, ईश्वर और मोक्ष- ये ही चार प्रमुख प्रतिपाद्य विषय सभी दर्शनों के होते हैं। आचार्य श्रीहरिभद्र ने 'षड्दर्शन-समुच्चय' नाम का अपने ग्रन्थ में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त- इन छ: को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) तथा चार्वाक, बौद्ध और जैन-इन तीन को 'अवैदिक दर्शन' (नास्तिक-दर्शन) कहा है और उन सब पर विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है। वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है। अथर्ववेद का आवरण पृष्ठ दर्शनशास्त्र का मूल मन्त्र दर्शनशास्त्र का मूल मन्त्र है- 'आत्मानं विद्धि।' अर्थात आत्मा को जानो। पिण्ड-ब्रह्माण्ड में ओतप्रोत हुआ एकमेव आत्म-तत्त्व का दर्शन (साक्षात्कार) कर लेना ही मानव जीवन का अन्तिम साध्य है, ऐसा वेद कहता है। इसके लिये तीन उपाय हैं- वेदमन्त्रों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन- श्रोतव्य: श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्या तु सततं ध्येय एते दर्शनहेतवे॥ इसीलिये तो मनीषी लोग कहते हैं- 'यस्तं वेद स वेदवित्।' अर्थात ऐसे आत्मतत्त्व को जो सदाचारी व्यक्ति जानता है, वह वेदज्ञ (वेद को जानने वाला) है। वेद के प्रकार ऋग्वेद :वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ । यह पद्यात्मक है । यजुर्वेद गद्यमय है और सामवेद गीतात्मक है। ऋग्वेद में मण्डल 10 हैं,1028 सूक्त हैं और 11 हज़ार मन्त्र हैं । इसमें 5 शाखायें हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन । ऋग्वेद के दशम मण्डल में औषधि सूक्त हैं। इसके प्रणेता अर्थशास्त्र ऋषि है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग निर्दिष्ट की गई है जो कि 107 स्थानों पर पायी जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने का कथानक भी उद्धृत है और औषधियों से रोगों का नाश करना भी समाविष्ट है । इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा एवं हवन द्वारा चिकित्सा का समावेश है सामवेद : चार वेदों में सामवेद का नाम तीसरे क्रम में आता है। पर ऋग्वेद के एक मन्त्र में ऋग्वेद से भी पहले सामवेद का नाम आने से कुछ विद्वान वेदों को एक के बाद एक रचना न मानकर प्रत्येक का स्वतंत्र रचना मानते हैं। सामवेद में गेय छंदों की अधिकता है जिनका गान यज्ञों के समय होता था। 1824 मन्त्रों कें इस वेद में 75 मन्त्रों को छोड़कर शेष सब मन्त्र ऋग्वेद से ही संकलित हैं। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें सविता, अग्नि और इन्द्र देवताओं का प्राधान्य है। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है । इसमें मुख्य 3 शाखायें हैं, 75 ऋचायें हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है । यजुर्वेद : इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः क्षत्रियो के लिये होता है । यजुर्वेद के दो भाग हैं - कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है । कृष्ण की चार शाखायें है। शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है । शुक्ल की दो शाखायें हैं । इसमें 40 अध्याय हैं । यजुर्वेद के एक मन्त्र में ‘ब्रीहिधान्यों’ का वर्णन प्राप्त होता है । इसके अलावा, दिव्य वैद्य एवं कृषि विज्ञान का भी विषय समाहित है । अथर्ववेद : इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिये मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः व्यापारियों के लिये होता है । इसमें 20 काण्ड हैं । अथर्ववेद में आठ खण्ड आते हैं जिनमें भेषज वेद एवं धातु वेद ये दो नाम स्पष्ट प्राप्त हैं। पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण (हिन्दी) hi.krishnakosh.org। अभिगमन तिथि: 04 नवम्बर, 2017। ऊपर जायें ↑ अर्थात इष्ट (इच्छित) फल की प्राप्ति के लिये और अनिष्ट वस्तु के त्याग के लिये अलौकिक उपाय (मानव-बुद्धि को अगम्य उपाय) जो ज्ञानपूर्ण ग्रन्थ सिखलाता है, समझाता है, उसको वेद कहते हैं। ऊपर जायें ↑ अर्थात् जिसकी कृपा से अधिकारी मनुष्य (द्विज) सद्विद्या प्राप्त करते हैं, जिससे वे विद्वान हो सकते हैं, जिसके कारण वे सद्विद्या के विषय में विचार करने के लिये समर्थ हो जाते हैं, उसे वेद कहते हैं। ऊपर जायें ↑ अर्थात पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम औ मोक्ष)- विषयक सम्यक-ज्ञान होने के लिये साधन भूत ग्रन्थ विशेष को वेद कहते हैं। ऊपर जायें ↑ अर्थात् जिस (नरपुंग्डव) को आत्मसाक्षात्कार किंवा आत्मप्रत्यभिज्ञा हो गया, उसको ही वेद का वास्तविक ज्ञान होता है। ऊपर जायें ↑ 1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद और (4) अथर्ववेद। ऊपर जायें ↑ अर्थात वेदों को ही श्रुति कहते हैं। ऊपर जायें ↑ अर्थात सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक जिसकी सहायता से बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को सत्यविद्या ज्ञात हुई, उसे 'श्रुति' कहते हैं। 'श्रु' का अर्थ है 'सुनना', अत: 'श्रुति' माने हुआ 'सुना हुआ ज्ञान।' ऊपर जायें ↑ ऋग्वेद (1।164।45 ऊपर जायें ↑ बृहदारण्यकोपनिषद (2।4।10 ऊपर जायें ↑ महाभारत, शान्तिपर्व (232। 24 ऊपर जायें ↑ ऋग्वेद (1।164।45 ऊपर जायें ↑ श्रीमद भगवद्गीता (7।7 ऊपर जायें ↑ श्रीमद्भागवत (6।1।40 ऊपर जायें ↑ श्रीमद्भागवत (10।4।41 ऊपर जायें ↑ मनुस्मृति (2।5 ऊपर जायें ↑ याज्ञवल्क्यस्मृति (1।7 ऊपर जायें ↑ अर्थात जब तक देह में जीव है तब तक सुख पूर्वक जीयें, किसी से ऋण ले करके भी घी पीयें; क्योंकि एक बार देह (शरीर) मृत्यु के बाद जब भस्मीभूत हुआ, तब फिर उसका पुनरागमन कहाँ? अत: 'खाओ, पीओ और मौज करो'- यही है 'नास्तिक-दर्शन' या 'अवैदिक-दर्शन' का संदेश। इसको लोकायत-दर्शन, बार्हस्पत्य-दर्शन तथा चार्वाक-दर्शन भी कहते हैं। साभार: डा. श्रीयुगलकिशोरजी मिश्र संबंधित लेख श्रुतियाँ [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें वेद वेद · संहिता · वैदिक काल · उत्तर वैदिक काल · वेद का स्वरूप · वैदिक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप · वेदों का रचना काल · ऋग्वेद · यजुर्वेद · सामवेद · अथर्ववेद · मनुसंहिता · शालिहोत्रसंहिता · वेदांग · वेदांत · ब्रह्मवेद · वैदिक धर्म [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें उपवेद और वेदांग उपवेद अर्थवेद (ॠग्वेद) कामन्दक सूत्र · कौटिल्य अर्थशास्त्र · चाणक्य सूत्र · नीतिवाक्यमृतसूत्र · बृहस्पतेय अर्थाधिकारकम् · शुक्रनीति धनुर्वेद (दोनों यजुर्वेदों के लिए मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · वैशम्पायन नीति-प्रकाशिका · समरांगण सूत्रधार गान्धर्ववेद (सामवेद) दत्तिलम · भरत नाट्यशास्त्र · मल्लिनाथ रत्नाकर · संगीत दर्पण · संगीत रत्नाकर आयुर्वेद (अथर्ववेद) अग्निग्रहसूत्रराज · अश्विनीकुमार संहिता · अष्टांगहृदय · इन्द्रसूत्र · चरक संहिता · जाबालिसूत्र · दाल्भ्य सूत्र · देवल सूत्र · धन्वन्तरि सूत्र · धातुवेद · ब्रह्मन संहिता · भेल संहिता · मानसूत्र · शब्द कौतूहल · सुश्रुत संहिता · सूप सूत्र · सौवारि सूत्र वेदांग      कल्प     गृह्यसूत्र 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Friday, 26 January 2018

।।श्री शीतलायै नमः।।

मेनू खोजें आध्यात्मिक-ज्ञान-संग्रह प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में वर्णित सार का संग्रह by aspundir Advertisements Report this ad श्री शीतलाष्टकं Posted by aspundir ।।श्री शीतलाष्टकं ।। ।।श्री शीतलायै नमः।। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशीतलास्तोत्रस्य महादेव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीशीतला देवता, लक्ष्मी (श्री) बीजम्, भवानी शक्तिः, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे विनियोगः ।। ऋष्यादि-न्यासः- श्रीमहादेव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीशीतला देवतायै नमः हृदि, लक्ष्मी (श्री) बीजाय नमः गुह्ये, भवानी शक्तये नमः पादयो, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।। ध्यानः- ध्यायामि शीतलां देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम्। मार्जनी-कलशोपेतां शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम्।। मानस-पूजनः- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। मन्त्रः- “ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः।।” (११ बार) ।।मूल-स्तोत्र।। ।।ईश्वर उवाच।। वन्देऽहं शीतलां-देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम् । मार्जनी-कलशोपेतां, शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम् ।।१ वन्देऽहं शीतलां-देवीं, सर्व-रोग-भयापहाम् । यामासाद्य निवर्तन्ते, विस्फोटक-भयं महत् ।।२ शीतले शीतले चेति, यो ब्रूयाद् दाह-पीडितः । विस्फोटक-भयं घोरं, क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति ।।३ यस्त्वामुदक-मध्ये तु, ध्यात्वा पूजयते नरः । विस्फोटक-भयं घोरं, गृहे तस्य न जायते ।।४ शीतले ! ज्वर-दग्धस्य पूति-गन्ध-युतस्य च । प्रणष्ट-चक्षुषां पुंसां , त्वामाहुः जीवनौषधम् ।।५ शीतले ! तनुजान् रोगान्, नृणां हरसि दुस्त्यजान् । विस्फोटक-विदीर्णानां, त्वमेकाऽमृत-वर्षिणी ।।६ गल-गण्ड-ग्रहा-रोगा, ये चान्ये दारुणा नृणाम् । त्वदनुध्यान-मात्रेण, शीतले! यान्ति सङ्क्षयम् ।।७ न मन्त्रो नौषधं तस्य, पाप-रोगस्य विद्यते । त्वामेकां शीतले! धात्री, नान्यां पश्यामि देवताम् ।।८ ।।फल-श्रुति।। मृणाल-तन्तु-सदृशीं, नाभि-हृन्मध्य-संस्थिताम् । यस्त्वां चिन्तयते देवि ! तस्य मृत्युर्न जायते ।।९ अष्टकं शीतलादेव्या यो नरः प्रपठेत्सदा । विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते ।।१० श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धाभाक्तिसमन्वितैः । उपसर्गविनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत् ।।११ शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता । शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः ।।१२ रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाखनन्दनः । शीतलावाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः ।।१३ एतानि खरनामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत् । तस्य गेहे शिशूनां च शीतलारुङ् न जायते ।।१४ शीतलाष्टकमेवेदं न देयं यस्यकस्यचित् । दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धाभक्तियुताय वै ।।१५ ।।इति श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाष्टकं सम्पूर्णम् ।। Advertisements Report this ad Related दशरथकृत-शनि-स्तोत्र In "नवग्रह" दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम् In "अध्यात्म" श्री-कृष्ण-सहस्त्रनाम-स्तोत्र In "shree krishna" मार्च 7, 20102 Replies « पिछला अगला » Advertisements Report this ad एक उत्तर दें आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं * टिप्पणी नाम * ईमेल * वेबसाईट टिप्पणी करे Notify me of new comments via email. Notify me of new posts via email. पिंगबैक: शीतला कवच | Vadicjagat.com rakesh kumar chaudhr पर जनवरी 14, 2011 को 2:38 अपराह्न guru ji Pranam, I want toknow the vidhya sabar mantra for the education of my child as she is in the 12th class and weak in study. kinly tell me the mantra for me so that i will recite for her. rakesh chaudhry प्रतिक्रिया Advertisements Report this ad Advertisements Report this ad पृष्ठ Ajay Singh Advertisements Report this ad पुरालेख अगस्त 2010 मार्च 2010 फ़रवरी 2010 अक्टूबर 2008 अगस्त 2008 जुलाई 2008 visitors Blog Stats 186,957 hits Read in your own script Roman(Eng) ગુજરાતી বাংগ্লা ଓଡ଼ିଆ ਗੁਰਮੁਖੀ తెలుగు தமிழ் ಕನ್ನಡ മലയാളം हिन्दी Via chitthajagat.in hindu हाल के पोस्ट श्रीराधाकृष्णसहस्त्रनामस्तोत्रम् सन्तानगोपाल स्तोत्र श्री-कृष्ण-सहस्त्रनाम-स्तोत्र श्री गोपाल सहस्त्रनामस्तोत्रम् श्रीऋण-हरण-कर्तृ-गणपति-स्तोत्र-मन्त्र हाल ही की टिप्पणियाँ Bhavik पर देवी कवच/चण्डी कवच Lalit Mehta पर श्री-कृष्ण-सहस्त्रनाम-स्तोत्र sanjay kumar पर श्री कालभैरवाष्टकं sanjay kumar पर देवी कवच/चण्डी कवच Supriya पर वाल्मीकि द्वारा श्रीगणेश का स्तवन Top Posts दशरथकृत-शनि-स्तोत्र Total Posta गणपति अथर्वशीर्ष, देवी कवच, श्री कालभैरवाष्टकं, दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम्, वाल्मीकि द्वारा श्रीगणेश का स्तवन, शनिवज्रपंजरकवचम्, शनैश्चरस्तवराजः, शनैश्चरस्तोत्रम्, ऋणमोचकमङ्गलस्तोत्रम्, अङ्गारक अष्टोत्तर शतनामावलि, चन्द्र अष्टोत्तरशतनामावलिः , बुध अष्टोत्तरशतनामवलिः, शुक्र अष्टोत्तरशतनामावलिः , केतु१०८, द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम्, श्रीविश्वनाथाष्टकं, श्री वैद्यनाथाष्टकम्, शिवाष्टकं, गुरु अष्टोत्तरशतनामावलिः , श्री सिद्धि विनायक नामावलि, श्री विनायक अष्टोत्तरशत नामावली View Full Site WordPress.com पर ब्लॉग. Follow

Adalpura Chunar (शीतला माता मंदिर

Chunar Is An Ancient Town.It Has A Great Influence In History.It Is Connected To Varanasi, The Ancient And Pilgrimage City Also Well Known As Kashi Or Benaras, By Roads And Rails. Shitla Mata Mandir Adalpura Chunar (शीतला माता मंदिर) Sarvesh Singh 21:43 0 comment Adalpura शीतला धाँम स्थित प्राचीन शीतला माता मंदिर देश के प्रमुख शक्तिपीठ में से एक है। इस मंदिर के पीछे मान्यता यह है कि यहाँ माँगी गई सभी मुरादें माँ शीतला पूरी करती है। मार्च-अप्रैल में यहाँ लगने वाले चैत मेले में माँ के दर्शन करने के लिए देश के विभिन्न भागों से लोग आते हैं। MATA Shitla Ji श्रद्धालुओं की माता शीतला के प्रति इस कदर आस्था है कि वे मंदिर परिसर के बाहर दिन-रात चादर बिछाकर रहते हैं, वहीं खाना बनाते हैं। तेज गर्मी की मार, गंदगी और दूसरी कठनाईयाँ भी आस्था के सामने छोटी पड़ जाती हैं। हालाँकि पूरे नवरात्रि के दौरान यहाँ बहुत श्रद्धालु आते हैं और अष्टमी व नवमी के दिन भक्तों की संख्या कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। शीतला माता मंदिर के कार्यकारी अधिकारियों का कहना है कि सबसे ज्यादा भीड़ चैत मेले मे सोमवार और रविवार को होती है। इस दिन ढेड़ से दो लाख लोग यहाँ दर्शन करने आते हैं। इस मौके पर बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को परेशानी न आए इसका प्रशासन की ओर से खास ध्यान रखा जाता है। साल में यहाँ दो बार मेला लगता है। चैत के अलावा सावन माह में भी यहाँ मेले लगते हैं। Entrance Gate इस पवित्र स्थान पर लोग अपने बच्चों का मुंडन कराने भी दूर-दूर से आते हैं। जो लोग अपने बच्चों का मुंडन यहाँ आकर नहीं करा पाते वह भी बाद में यहाँ अपने बच्चों को माता के दर्शन कराने के लिए जरूर लेकर आते हैं। इसी तरह अपने बच्चों की शादी की मन्नत भी लोग यहाँ माँगते हैं। देवी शीतला माता की आराधना करने से पूरे परिवार की एकता बनी रहती हैं। साथ ही माता रानी सभी मुरादें भी पूरी करती हैं। श्रद्धालुओं को माता शीतला के प्रति बड़ी आस्था है। CHUNAR PLACE TEMPLE You Might Also Like आचार्य कूप और श्री विठ्ठलेश्वर महाप्रभु जी चुनार | Sri Vitheleswar Mahaprabhu & Aacharya Well Chunar Mirzapur बूढ़े महादेव (बाबा बूढ़े नाथ) का मंदिर चुनार दुर्ग मिर्जापुर | Baba Budhe Nath Temple Chunar Mirzapur Shitla Mata Mandir Adalpura Chunar (शीतला माता मंदिर) No comments ABOUT ME ABOUT US We Created This Website To help the tourist and public to explore more about this place. Chunar is an ancient town.It has a great influence in history.It is connected to Varanasi, the ancient and pilgrimage city also well known as Kashi or Benaras, by roads and rails. Chunar is well known for its pottery work, especially clay toys. POPULAR POSTS चुनारगढ़ दुर्ग तिलिस्म और रहस्य [Talismanic & Mystery of Chunar Fort] Shitla Mata Mandir Adalpura Chunar (शीतला माता मंदिर) आम लोगों के लिए खुलेगा चुनार किला (Chunar Fort will be Open For Public Soon) सिद्धनाथ की दरी जलप्रपात - Siddhnath Ki Dari Water Fall at Chunar Mirzapur मिर्जापुर और चुनार का ऐतिहासिक कजली की परम्परा | All About Popular lokgeet Kajlee of Mirzapur and chunar TRANSLATE IN YOUR LANGUAGE   Powered by Translate Email address... Submit FIND MORE ABOUT CHUNAR HISTORY(19)Place(17)Chunar(8)Chunar Tourism(6)Temple(4)Mystery Of Chunar Fort(3)शक्तेशगढ दुर्ग(2)Fort(1)विजयगढ़ दुर्ग(1) ' ; All Rights Reserved by Chunar -Chunar is an ancient town 2017 | Designed By Chunar Themes

Wednesday, 24 January 2018

- ब्रह्मास्त्र मंत्र माला  -

सिद्धनाथ औघड़ ( परिचय - intro mantra - tantra and occultism world ) मेरे तंत्र मंत्र जगत के साधक मित्रो,आप सब के जानकारी हेतु मै एक स्वयं तंत्र मंत्र उद्भट्ट विद्वानों के सानिध्य के माध्यम से आप के कष्ट निवारण हेतु एवं समाज कल्याण हेतु इस माध्यम का निर्माण कर , साधक मित्रो में एक विलक्षण मंत्र जगाने हेतु प्रयास के चलते अपने हिन्दू धर्म के मंत्रो एवं तंत्रों का खुलासा समय- समय पर जिज्ञासा हेतु किया जायेगा ..! ▼ - ब्रह्मास्त्र मंत्र माला  -  जय महाकाल -  Bramha Astra Mantra https://mantraparalaukik.blogspot.in/ मित्रो जिस तरह इस मंत्र की पहचान एक ब्रम्हास्त्र हैं ठीक उसी प्रकार इसका कार्य भी अस्त्र की तरह ही हैं इस   जब यह अस्त्र शुरू होता हैं तो , इस को रोकना  भी नामुमकिन हो जाता हैं अगर कोई इसे रोकने की कोशिश करता हैं , तो वोह उसका भी विनाश कर देता हैं। . तो मित्रो इस मंत्र माला का प्रयोग करने से पहले एक बार अवश्य सोच लीजियेगा। .. किसी का अहित सोचना अथवा अहित करना महापाप का भागीदार बनने जैसा हैं। .. - ब्रह्मास्त्र मंत्र माला  - ॐ नमो भगवति चामुण्डे नरकंकगृधोलूक परिवार सहिते श्मशानप्रिये नररूधिर मांस चरू भोजन प्रिये सिद्ध विद्याधर वृन्द वन्दित चरणे ब्रह्मेश विष्णु वरूण कुबेर भैरवी भैरवप्रिये इन्द्रक्रोध विनिर्गत शरीरे द्वादशादित्य चण्डप्रभे अस्थि मुण्ड कपाल मालाभरणे शीघ्रं दक्षिण दिशि आगच्छागच्छ मानय-मानय नुद-नुद अमुकं  (अपने शत्रु का नाम लें  ) मारय-मारय, चूर्णय-चूर्णय, आवेशयावेशय त्रुट-त्रुट, त्रोटय-त्रोटय स्फुट-स्फुट स्फोटय-स्फोटय महाभूतान जृम्भय-जृम्भय ब्रह्मराक्षसान-उच्चाटयोच्चाटय भूत प्रेत पिशाचान् मूर्च्छय-मूर्च्छय मम शत्रून् उच्चाटयोच्चाटय शत्रून् चूर्णय-चूर्णय सत्यं कथय-कथय वृक्षेभ्यः सन्नाशय-सन्नाशय अर्कं स्तम्भय-स्तम्भय गरूड़ पक्षपातेन विषं निर्विषं कुरू-कुरू लीलांगालय वृक्षेभ्यः परिपातय-परिपातय शैलकाननमहीं मर्दय-मर्दय मुखं उत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय भूत भविष्यं तय्सर्वं कथय-कथय कृन्त-कृन्त दह-दह पच-पच मथ-मथ प्रमथ-प्रमथ घर्घर-घर्घर ग्रासय-ग्रासय विद्रावय – विद्रावय उच्चाटयोच्चाटय विष्णु चक्रेण वरूण पाशेन इन्द्रवज्रेण ज्वरं नाशय   नाशय प्रविदं स्फोटय-स्फोटय सर्व शत्रुन् मम वशं कुरू-कुरू पातालं पृत्यंतरिक्षं आकाशग्रहं आनयानय करालि विकरालि महाकालि रूद्रशक्ते पूर्व दिशं निरोधय-निरोधय पश्चिम दिशं स्तम्भय-स्तम्भय दक्षिण दिशं निधय-निधय उत्तर दिशं बन्धय-बन्धय ह्रां ह्रीं ॐ बंधय-बंधय ज्वालामालिनी स्तम्भिनी मोहिनी मुकुट विचित्र कुण्डल नागादि वासुकी कृतहार भूषणे मेखला चन्द्रार्कहास प्रभंजने विद्युत्स्फुरित सकाश साट्टहासे निलय-निलय हुं फट्-फट् विजृम्भित शरीरे सप्तद्वीपकृते ब्रह्माण्ड विस्तारित स्तनयुगले असिमुसल परशुतोमरक्षुरिपाशहलेषु वीरान शमय-शमय सहस्रबाहु परापरादि शक्ति विष्णु शरीरे शंकर हृदयेश्वरी बगलामुखी सर्व दुष्टान् विनाशय-विनाशय हुं फट् स्वाहा। ॐ ह्ल्रीं बगलामुखि ये केचनापकारिणः सन्ति तेषां वाचं मुखं पदं स्तम्भय-स्तम्भय जिह्वां कीलय – कीलय बुद्धिं विनाशय-विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा । ॐ ह्रीं ह्रीं हिली-हिली अमुकस्य (शत्रु का नाम लें) वाचं मुखं पदं स्तम्भय शत्रुं जिह्वां कीलय शत्रुणां दृष्टि मुष्टि गति मति दंत तालु जिह्वां बंधय-बंधय मारय-मारय शोषय-शोषय हुं फट् स्वाहा।। https://mantraparalaukik.blogspot.in/ https://www.youtube.com/watch?v=TwVMek5wA_4 ईमेल - gurushiromani23@gmail.com संपर्क  -   09207 283 275  /  098464 18100  guru dasshiromani Share No comments: New comments are not allowed. इस संदेश के लिए लिंक Create a Link ‹ › Home View web version (About Me) परिचय - हम एक स्वतंत्र साधक हैं ,जो दुनिया के उद्भट्ट विद्वान् और अघोर तंत्र के ग्यानी guru dasshiromani View my complete profile Powered by Blogger.

Sunday, 21 January 2018

गायत्री’ (जिसे गाय ने तीन बार शुद्ध किया हो) नाम दिया गया

गुनहगार ...man who lives by sword die by sword. 31 मार्च, 2014 ब्रह्मा: तीर्थ-गुरु पुष्कर में खोज         सावित्री के कोप का भागी सबसे पहले उनके पति ब्रह्मा ही बने क्योंकि अपनी पत्नी का थोड़ा सा भी इंतजार किए बगैर उन्होनें अपनी पत्नी का त्याग कर किसी दूसरी कन्या से गन्धर्व-विवाह रचाया था.           मुर्गी पहले आई या फिर अंडा, इस बात का सही-सही जवाब आजतक नहीं मिल पाया है. यहां तक की बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इस बात से कहीं ना कहीं अनभिज्ञ हैं कि मानव जाति की उत्पत्ति कैसे हुई. किसी ने कहा की आज के मानव का स्वरूप बंदर-प्रजाति से हुआ है. बंदर-प्रजाति के तर्क का जवाब कुछ हद तक हिंदु धर्म के सबसे पूजनीय और लोकप्रिय ग्रन्थ, ‘रामायण’ में भी मिलता है. पुरुषोत्तम शरण भगवान श्रीराम को सीता को ढूंढने और उनका अपहरण करने वाले लंका नरेश रावण को मारने के लिए वानर-सेना की ही मदद लेनी पड़ी थी. रामायण शायद उसी दौर की कहानी रही होगी जब आज का इंसान बंदर से इंसान बनने के फेज में था.                  लेकिन हिंदु धर्म के मुताबिक, मानव-जाति की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा ने की थी. धर्म-शास्त्रों और पुराणों के मुताबिक, परम-पिता परमेश्वर ब्रह्मा का जन्म भगवान विष्णु की नाभि के मैल से निकले कमल के फूल से हुआ था. जन्म के बाद ब्रह्मा ने भगवान विष्णु से पूछा की उनका इस ब्रह्मांड में आने का क्या उद्देश्य है. इस पर भगवान विष्णु ने ब्रह्मा से कहा कि वे पृथ्वी लोक में जाकर मानव-जाति की संरचना करें.                  कहते हैं कि भगवान ब्रह्मा ने देव-लोक से ही अपने हाथ से उस कमल के फूल को पृथ्वी-लोक की तरफ फेंक दिया जिससे उनकी उत्पत्ति हुई थी. कमल का फूल पृथ्वी लोक पर जिस जगह गिरा वो स्थान है आज के राजस्थान का ‘पुष्कर’ (वो फूल जो ब्रह्माजी के कर यानि हाथ से गिरा हो). राजस्थान के दिल में बसे अजमेर जिले के अंर्तगत आता है पुष्कर शहर. अरावली पहाड़ियों से घिरा हुआ है पुष्कर शहर. माना जाता है कि इन्ही अरावली पहाड़ियों ने राजस्थान के मरु-स्थल को बढ़ने से रोक दिया, नहीं तो पुष्कर भी रेगिस्तान में तब्दील हो गया होता.                  पुराणों के मुताबिक, कमल के फूल के धरती पर गिरने से जमीन में एक गहरा गढ्ढा हो गया और वहां एक प्राकृतिक झील का निर्माण हो गया. पुष्कर शहर के बीचों-बीच ये झील बनी है और हिंदु-धर्म में विश्वास रखने वाले करोड़ो लोगों की आस्था का प्रतीक है. रोजाना बड़ी तादाद में लोग इस दैवीय सरोवर में स्नान करते हैं और पुण्य के भागी बनते हैं. माना तो ये भी जाता है कि जब बह्माजी ने फूल को पृथ्वी पर फेंका तो उसके तीन टुकड़े हो गए और जहां-जहां तीन टुकड़े हुए वहां-वहां तीन सरोवर बन गए. इसीलिए आज भी पुष्कर शहर के बीची-बीच बनी बड़ी झील के अलावा शहर के कुछ दूरी पर दो और झीलें हैं.                  कहते हैं कि वेदों में वर्णिंत आर्य-धर्म (आज का हिंदु धर्म) की सबसे पवित्र नदी सरस्वती भी पुष्कर के करीब से ही बहती थी. इसके चलते भी पुष्कर-तीर्थ का महत्व काफी बढ़ जाता है. वेदों में सरस्वती नदी को वही महत्व दिया गया है जो हिंदु-धर्म में आज की गंगा नदी को दिया जाता है. वेदों में सरस्वती को ही सबसे पवित्र नदी माना गया है. लेकिन सैकड़ो साल पहले वायुमंडल में परिवर्तन और भूगौलिक कारणों से राजस्थान की धरती मरु-स्थल (रेगिस्तान) में तब्दील हो गई. जिसकी वजह से ही शायद सरस्वती नदी भी सूख गई. वैज्ञानिक रिसर्च और धरती के नीचे की सेटेलाईट इमेज (तस्वीरों) से ये बात प्रमाणिक रुप से कही जा सकती है कि सरस्वती नदी कभी राजस्थान से ही होकर गुजरती थी.              पुराणों के मुताबिक, पुष्कर में ही भगवान ब्रह्मा ने मानव-जाति की सरंचना की थी. हिंदु-धर्म में भगवान ब्रह्मा का इकलौता मंदिर पुष्कर में ही है. ये मंदिर इस बात का प्रतीक है कि ये पवित्र स्थल कभी भगवान ब्रह्मा से जुड़ी रहा होगा. भगवान ब्रह्मा को सभी ऋषि-मुनियों का गुरु माना जाता है. यही वजह है कि पुष्कर को ‘तीर्थ-गुरु’ के नाम से ही जाना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे काशी को तीर्थ-राज के नाम से जाना जाता है.          तीर्थ-गुरु पुष्कर को हिंदु-धर्म में ठीक वैसा ही स्थान प्राप्त है जैसा कि कैलाश-मानसरोवर को भगवान शिव के साथ जोड़कर देखा जाता है या फिर भगवान विष्णु को समुद्र के साथ जोड़कर देखा जाता है. लेकिन ये सिर्फ कोरी (अंध) विश्वास से ही जुड़े हुए तीर्थ-स्थल नहीं है. इनके पीछे भी कोई ना कोई वैज्ञानिक कारण जुड़ा हुआ होगा. पृथ्वी को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित है किया गया है—पृथ्वी, पहाड़ और समुद्र. हिंदु-धर्म में जैसे हर चीज को भगवान या फिर किसी ना किसी रीति-रिवाज और धार्मिक महत्व से जोड़ दिया गया है, ठीक वैसे ही पृथ्वी के तीनों भागों को आर्य-धर्म के तीन सबसे बड़े और प्रमुख भगवानों से जोड़ दिया गया है. इन तीनों भगवान को लोग ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) यानि ‘त्रिमूर्ति’ के नाम से जानते हैं. ब्रह्मा को सृजन-कर्ता यानि उत्पत्ति से, विष्णु को पालन-कर्ता और शिवजी को प्रलय (अंत) से जोड़ा कर पूजा जाता है. शायद इसीलिए भगवान बह्मा को धरती (पुष्कर) पर, विष्णु को समुद्र में और शिवजी को पर्वत (कैलाश-मानसरोवर) का अधिपति माना गया है.            सवाल ये उठता है कि अगर हिंदु-धर्म में भगवान ब्रह्मा को मनुष्य जाति का सृजन-कर्ता माना जाता है तो उनका इतना महत्व क्यों नहीं है जितना भगवान विष्णु या फिर भगवान शिव का है. पूरे भारत-वर्ष और दूसरे देश जहां पर हिंदुओं का निवास-स्थान हैं वहां मुख्यत: भगवान शिव या फिर विष्णु या फिर उनके अवतारों (राम, कृष्ण, हनुमान इत्यादि) की ही मंदिर अधिकाधिक क्यों होते हैं. क्यों शिव और विष्णु का ही हिंदु-धर्म में सर्वाधिकार है. उन्ही ही क्यों ज्यादा पूजा जाता है. भगवान ब्रह्मा को ऐसा स्थान क्यों नहीं दिया गया है.         दरअसल, इसके पीछे भी एक बड़ी दिलचस्प कहानी है. पुराणों के मुताबिक, एक बार बह्माजी ने पुष्कर में एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में लोक-परलोक से देवाताओं से लेकर बड़े-बड़े श्रृषि-मुनि पहुंचे. भगवान शिव और विष्णु भी पहुंचे. यज्ञ की पूरी तैयारी हो चुकी थी, लेकिन बह्माजी की पत्नी सावित्री अभी तक स्वर्गलोक से पुष्कर नहीं पहुंची थी. सभी लोग उनका इंतजार कर रहे थे. क्योंकि हिंदु-धर्म के मुताबिक, बिना पत्नी के किया गया यज्ञ कभी पूरा नहीं माना जाता है. इसलिए बह्माजी की पत्नी सावित्रा का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था. यज्ञ आरंभ करने का शुभ मुहूर्त निकला जा रहा था. काफी समय बीत जाने के बाद बह्माजी ने अपने पुत्र नारद(मुनि) को अपनी माता को स्वर्गलोक से लाने के लिए कहा. लेकिन नारद-मुनि अपनी फितरत से बाज नहीं आते थे. फितरत घर-घर में लड़ाई कराने की. सो उन्होनें अपने घर और अपने माता-पिता को भी नहीं छोड़ा. जैसे ही नारद अपनी माता सावित्री के पास पहुंचे तो उन्होनें देखा कि उनकी मां श्रृंगार कर रही हैं. सावित्री ने नारद से कहा कि वो अपने पिता को जाकर संदेश दे दें कि वो जल्द ही यज्ञ में शामिल होने के लिए पहुंचने वाली हैं.             लेकिन नारद ने अपने पिता ब्रह्मा को कुछ और ही आकर बताया. नारद ने अपने पिता और यज्ञ-सभा में मौजूद श्रृषि-मुनियों को बताया कि उनकी मां सावित्री को आने में काफी देर लगेगी. फिर क्या था, वहां मौजूद सभी लोगों के धैर्य का बांध टूट गया. सभी नें मंत्रणा की और तय किया गया कि पुष्कर के करीब जो भी कन्या सबसे पहले मिले, उसे वहां लाकर सावित्री का स्थान दे दिया जाये.              फिर क्या था, श्रृषि-मुनि वहां से निकले और जैसे ही उन्हे एक कन्या दिखाई दी, वे उसे यज्ञ-सभा में ले आये. लेकिन क्योंकि उस कन्या का शुद्धिकरण होना जरुरी था, इसलिए उस कन्या को गाय के मुख से निकालकर पूंछ के रास्ते तीन बार निकाला. इसीलिए उस कन्या को ‘गायत्री’ (जिसे गाय ने तीन बार शुद्ध किया हो) नाम दिया गया. गायत्री के साथ मिलकर बह्माजी ने यज्ञ का आयोजन शुरु ही किया था कि सावित्री अपने सहेलियों के साथ वहां पहुंच गईं. अपने स्थान पर किसी और कन्या (गायत्री) को बैठा देख सावित्री आग-बूबला हो गईँ. उन्हें ये बात कतई बर्दाश्त नहीं हुई कि उनके पति ने उनकी अनुपस्थिति में किसी और को अपनी पत्नी बना लिया है. वे इस बात से भी नाखुश थी कि भगवान शिव, विष्णु, नारद, इन्द्रदेव और बाकी श्रृषि-मुनियों ने ये कैसे होने दिया.            सावित्री ने तुरंत वहां मौजूद सभी लोगों को श्राप देना शुरु कर दिया. सावित्री के कोप का भागी सबसे पहले उनके पति ब्रह्मा ही बने क्योंकि उन्होनें अपनी पत्नी का त्याग कर किसी दूसरी कन्या से गन्धर्व-विवाह रचाया था और अपनी पत्नी का थोड़ा सा भी इंतजार नहीं किया था. सावित्री ने अपने पति का श्राप दिया कि आज के बाद उनकी कोई पूजा नहीं करेगा.            क्योंकि उनके पुत्र नारद ने उनका संदेश ठीक प्रकार से यज्ञ-सभा को नहीं बताया था, इसलिए सावित्री ने नारद को श्राप दिया कि जैसे उन्होनें अपने माता-पिता का घर-परिवार तहस-नहस किया था, उनका कभी घर-परिवार बस ही नहीं पायेगा. यही वजह है कि नारद-मुनि हमेशा एक जगह से दूसरी जगह विचरते रहते हैं.            भगवान शिव का श्राप दिया कि उनका शरीर हमेशा राख और भस्म से लिपटा रहेगा और विष्णु की पत्नी को कोई राक्षस हरकर (अपहरण) ले जायेगा. इन्द्र को श्राप दिया कि वो हमेशा काम-वासना का शिकार रहेगा और उसका राज-पाट पर कोई ना कोई विप्पति आती रहेगी. जिस गाय से गायत्री का शुद्धिकरण कराया गया था, उसे श्राप दिया कि उसका मुख हमेशा अपवित्र रहेगा. वहां मौजूद ब्राह्मणों और श्रृषि-मुनियों को श्राप दिया कि वे हमेशा दरिद्र बने रहेंगे और दाने-दाने के लिये मोहताज रहेंगे.           पुराणों के मुताबिक, सभी को श्राप देते वक्त सावत्री का चेहरा इतना काला पड़ गया कि उन्हें काली-देवी के नाम से जाना-जाने लगा. बह्माजी ने सावित्री को लाख मनाने की कोशिशें की, ये तक कहा कि गायत्री ताउम्र उनकी छोटी बहन और दासी बनकर रहेगी, लेकिन सावित्री टस से मस नहीं हुईं. कहते है कि सभी को श्राप देने के बाद वे वहां से कलक्ता (कोलकता) चली गईं. यही वजह है कि पुष्कर में बड़ी तादाद में बंगाली श्रृद्धालु आते हैं.          श्राप मिलने के बाद सभी परेशान हो गए. लेकिन मान्यता है कि तब सभी को गायत्री ने ढांढस बंधाई. गायत्री सभी के श्राप तो खत्म नहीं कर पाई लेकिन उन्होनें श्राप को कम जरुर कर दिया. उसका निवारण जरुर बता दिया.          भगवान शिव को कहा कि उनकी शिवलिंग पर भस्म से पूजा की जायेगी, तथा विष्णु के अवतार राम की पत्नी को रावण हरकर ले जायेगा. लेकिन वानर-सेना की मदद से आप रावण का वध करेंगे और अपनी पत्नी को वापस ले आयेंगे. देवराज इन्द्र को कहा कि जब कभी आपके देव लोक पर कोई विपत्ति या आक्रमण होगा तो भगवान शिव और विष्णु हमेशा तुम्हारी सहायता करेंगे. साथ ही बाह्मणों और श्रृषियों को कहा कि अगर वे गायत्री मंत्र का जाप करेंगे तो उनकी दरिद्रता खत्म हो जायेगी. गाय को आर्शीवाद दिया कि उसका गोबर की सभी पूजा करेंगे और तुम्हें पूजनीय (गौ-माता) माना जायेगा.             गायत्री ने कहा कि बह्माजी को पुष्कर में ही पूजा जायेगा. और कोई भी भक्त भले ही चारों धाम की यात्रा कर आए, लेकिन अगर उसने पुष्कर-सरोवर में स्नान नहीं किया और यहां स्थापित बह्माजी के मंदिर के दर्शन नहीं किए तो उसकी यात्रा कभी सफल (पूरी) नहीं मानी जायेगी.           शायद यही कारण है कि एक पत्नी (सावित्री) के श्राप से और दूसरी पत्नी (गायत्री) के निवारण से बह्माजी का पूरी दुनिया में एक मात्र मंदिर पुष्कर में है और यहीं पर उनकी पूजा की जाती है.           पुष्कर का जिक्र वेद-पुराणों के साथ-साथ रामायण में भी किया गया है. गायत्री मंत्र के रचियता माने जाने वाले बड़े ऋषि-मुनि, विश्वामित्र की तपस्या भी इन्द्रलोक की अप्सरा, मेनका ने पुष्कर में ही भंग की थी और फिर साथ-साथ यही पर रहें.          पुष्कर में जगत पिता ब्रह्मा का मंदिर किसने बनवाया, ये तो ठीक-ठीक नहीं पता है, लेकिन इसका जीर्णोद्वार आदिगुरु शंकराचार्य ने विक्रम संवत 713 (यानि 770 ईसवी) में कराया था. इसके बारे में मंदिर में जगह-जगह लिखा गया है और शंकराचार्य की गद्दी भी विराजमान है.           इतिहास में भी पुष्कर का वर्णन हैं. कहते हैं कि अजमेर के बड़े शासक पृथ्वीराज चौहान ने पुष्कर में एक बड़ा किला बनवाने का मन बनाया. लेकिन मजदूर-कारीगर जैसे ही किले की दीवार खड़ी करते, वो गिर जाती. कई दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा. बताते हैं कि एक रात पृथ्वीराज चौहान को सपना आया कि अगर यहां किला बनवाया गया तो सैकड़ो की तादाद में रहने वाले  सैनिकों की गंदगी पुष्कर-सरोवर को गंदा कर देंगे, इसलिए यहां किला ना बनवाया जाये. उसके बाद हिंदु-सम्राट ने यहां से 13 किलोमीटर दूर अजमेर में तारागढ़ किला बनवाया, जो आज भी ज्यों का त्यों खड़ा हुआ है. ख्वाजा गरीब नवाज मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के ठीक ऊपर बनी पहाड़ी पर ये किला आज भी दिखाई पड़ता है.               क्रूर मुगल-शासक, औरंगज़ेब नें यहां के कई मंदिरों को तुड़वाया. लेकिन कहते है कि जब औरंगज़ेब शहर से वापस लौट रहा था, तो उसे थकान महसूस हुई. उसने शहर के बाहर बनी एक झील (तीन में से एक झील) में हाथ-मुंह धोया. कहते है कि झील के पानी से मुंह धोते ही उसकी लंबी दाढ़ी बिल्कुल सफेद हो गई. इसीलिए इस झील को ‘बूढ़ा झील’ के नाम से जाना जाता है. झील की चमत्कारिक शक्ति को देखकर औरंगजेब भी पुष्कर से प्रभावित हुए नहीं रह सका. उसने यहां के पराशर-ब्राहमणों को 52 हजार बीघा जमीन दान दे दी.         आज भी पुष्कर में रोजाना सैकड़ो की तादाद में श्रृद्धालु यहां बह्माजी के एकमात्र मंदिर और सरोवर में स्नान करने आते हैं. कहते हैं कि सैकड़ो साल से ब्रह्म-सरोवर कभी नहीं सूखा था. लेकिन कुछ साल पहले स्थानीय प्रशासन ने इस झील की सफाई के नाम पर इसका सारा जल सूखा दिया. बबाल मच गया. देश-विदेश में सरोवर सूखने की खबर हेडलाइन बन गई. आनन-फानन में सरोवर को एक बार फिर भरा गया.                  लेकिन अब इस शहर को एक नई (कुख्यात) पहचान मिल गई है. यहां बड़ी तादाद में विदेशी पर्यटक भी आने लगे हैं. ये पर्यटक शुरुआत में तो यहां आते थे सालाना लगने वाले पुष्कर-मेला (ऊंट महोत्सव) में, लेकिन धीरे-धीरे ये शहर ड्रग्स का एक बड़ा ठिकाना बनने लगा है. विदेशी पर्यटक यहां रेव-पार्टी के लिए आते हैं. विदेशी पर्यटकों के साथ बलात्कार की खबरें भी यदा-कदा आती रहती हैं.    Neeraj Rajput at 12:12:00 am 3 टिप्‍पणियां: pl save our image for cwgames31 मार्च 2014 को 2:37:00 pm IST abhi tak ki sabse satik jankari apke dwara likha gaya blog se mila ,bahut bahut dhanyawad उत्तर दें pl save our image for cwgames31 मार्च 2014 को 2:37:00 pm IST abhi tak ki sabse satik jankari apke dwara likha gaya blog se mila ,bahut bahut dhanyawad उत्तर दें RAKESH BHATT , PUSHKAR31 मार्च 2014 को 11:23:00 pm IST नीरज जी वाकई आपने पुष्कर की हूबहू कथा लिखी है जो काबिल ए तारीफ है। । इसमें आपने उन सभी बातो को लिखा है जिसकी जानकारी आपने यहाँ पर ली थी । मजा आ गया सर । … और हां योगेश जी के साथ मेरी फ़ोटो भी इस ब्लॉग में पोस्ट करने के लिए आपका शुक्रिया। … राकेश उत्तर दें › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें NEERAJ RAJPUT मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें Blogger द्वारा संचालित.