Tuesday, 9 January 2018
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्
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गुरुगीता
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्
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गुरुगीता
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्
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गुरूगीता के महामंत्रों में साधना की दुर्लभ अनुभूतियाँ सँजोयी हैं। लेकिन यह मिलती केवल उन्हें है, जो निष्कपट भाव से इन मंत्रों की साधना करते हैं। यहाँ साधना का अर्थ गुरूगीता के मंत्रों का बारबार उच्चारण नहीं; बल्कि बार- बार आचरण है। जो कहा जा रहा है, उसे रटो नहीं; बल्कि उसे जीवन में उतारो, आचरण में ढालो, उसे कर्त्तव्य मानकर करो। जो इस साधना सूत्र को स्वीकारते हैं, फलश्रुतियाँ भी उन्हीं की अन्तश्चेतना में उतरती हैं। सिर्फ बातें बनाने से काम नहीं चलता। श्रीरामकृष्ण परमहंस देव कहा करते थे कि यदि घर से चिट्ठी आयी है, दो जोड़ी धोती, एक कुर्ते का कपड़ा और एक किलो सन्देश (मिठाई) भिजवाना है, तो फिर वैसा करना पड़ेगा कि बाजार जाकर यह सामान खरीद कर भिजवाना होगा; केवल चिट्ठी रटने से काम चलने वाला नहीं है।
गुरू गीता के महामंत्रों में महेश्वर महादेव जो कुछ भी माता पार्वती से कह रहे हैं, उसके अनुसार जीवन को गढ़ना- ढालना होगा। जो ऐसा करने में जुटे हैं, उन्हें स्मरण होगा कि पिछले मंत्रों में यह कहा गया है कि गुरूदेव की चेतना ही इस जड़- चेतन, चर- अचर में संव्याप्त है। ज्ञान शक्ति पर आरूढ़ गुरूदेव प्रसन्न होने पर शिष्यों को भोग एवं मोक्ष दोनों का ही वरदान देते हैं। वे अपने ज्ञान व तप के प्रभाव से सहज ही शिष्यों के संचित कर्मों को भस्म कर देते हैं। श्री गुरूदेव से बढ़कर अन्य कोई तत्त्व नहीं है। उनकी सेवा से अधिक कोई दूसरा तप नहीं है। गुरूदेव ही जगत् के स्वामी हैं, वे ही जगत् के स्वामी हेैं, वे ही जगतगुरू हैं। शिष्य के आत्मरूप गुरूदेव ही अन्तश्चेतना की सृष्टि के समस्त प्राणियों की आत्मा हैं।
ऐसे सर्वव्यापी सद्गुरू की महिमा बताने के बाद भगवान् भोलेनाथ गुरूदेव की चेतना में समाए अन्य आध्यात्मिक रहस्यों को उजागर करते हैं। वे भगवती पार्वती से कहते हैं-
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोःकृपा॥ ७६॥
गुरूरादिरनादिश्च गुरूः परम दैवतम्।
गुरोः परतंर नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥७७॥
सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानादिकं फलम्।
गुरोरडिध्रपयोबिन्दुसहस्त्रांशेन दुर्लभम्॥७८॥
हरौ रूष्टे गुरस्त्राता गुरौ रूष्टे न कश्चन।
तस्मात् सर्व प्रयन्तेन श्रीगुरूं शरणं व्रजेत्॥ ७९॥
गुरूरेव जगत्सर्वं ब्रह्म विष्णुशिवात्मकम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरूम्॥८०॥
परम पूज्य गुरूदेव की भावमयी मूर्ति ध्यान का मूल है। उनके चरण कमल पूजा का मूल हैं। उनके द्वारा कहे गए वाक्य मूल मंत्र हैं। उनकी कृपा ही मोक्ष का मूल है॥ ७६॥ गुरूदेव ही आदि और अनादि हैं, वही परम देव हैं। उनसे बढ़कर और कुछ भी नहीं। उन श्रीगुरू को नमन है॥७७॥ सप्त सागर पर्यन्त जितने भी तीर्थ उन सभी के स्न्नान का फल गुरूदेव के पादप्रक्षालन के जल बिन्दुओं का हजारवाँ हिस्सा भी नहीं है॥७८॥ यदि भगवान् शिव स्वयं रूठ जायें, तो श्री गुरू की कृपा से रक्षा हो जाती है ; लेकिन यदि गुरू रूठ जायें तो कोई भी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता। इसलिए सभी प्रकार से कृपालु सद्गुरू की शरण में जाना चाहिए॥७९॥ ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव रूप यह जो जगत् है- वह गुरूदेव का ही स्वरूप है। गुरूदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है। इसलिए सब तरह से गुरूवर की अर्चना करनी चाहिए॥ ८०॥
सद्गुरू चेतना की महिमा का गायन करने वाले इन मंत्रो में आध्यात्मिक जीवन के कई रहस्यों की दुर्लभ झलकियाँ हैं। गुरूदेव का ध्यान, उन्हीं की पूजा, उनके ही वाक्यों के अनुसार जीवन एवं उनकी ही कृपा से परम पद की प्राप्ति- यह साधना का सहज पथ है। वही सब कुछ है। इस सृष्टि में जो भी विस्तार है, वह ब्राह्मी चेतना के साकार रूप गुरूदेव का ही है। गुरूदेव प्रसन्न हों तो काल को भी अपने पाँव पीछे लौटाने पड़ते हैं। जो शिष्य अपने सद्गुरू की कृपा छाँव में रहता है, उसका भला कौन क्या बिगाड़ सकता है? अपने शिष्य के जीवन के लिए ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर गुरूदेव के सिवा और कोई भी नहीं। परम समर्थ एवं परम कृपालु गुरूदेव से अधिक शिष्य के लिए और कुछ भी नहीं है।
इस सत्य को बताने वाली एक बहुत ही प्यारी घटना है, जिसे जानकर शिष्यगणों को सहज ही गुरूदेव की महिमा का बोध होगा। यह सत्य घटना बंगाल के महान साधक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के बारे में है। बनर्जी महाशय उन दिनों सर्वेयर के पद पर कार्यरत थे। इस पद पर उनकी आमदनी तो ठीक थी। पर पारिवारिक जीवन समस्याओं से घिरा था। पहले बेटी का मरना, फिर पत्नी का लम्बी बीमारी के बाद देहत्याग! इन विषमताओं ने उन्हें विचलित कर दिया था। ऐसे में उनकी मुलाकात महान् सन्त सूर्यानन्द गिरी से हुई। सुरेन्द्र नाथ के विकल मन ने सन्त की शरण में छाँव पाना चाहा। इसी उद्देश्य से वह उन संन्यासी महाराज की कुटिया में गए और दीक्षा देने की प्रार्थना की।
इस प्रार्थना को सुनकर संन्यासी महाराज नाराज हो गए और उन्हें डपटते हुए बोले- आज तक तुमने सत्कर्म किया है, जो मेरा शिष्य बनना चाहते हो। जाओ पहले सत्कर्म करो। उनकी इस झिड़की को सुनकर सुरेन्द्रनाथ विचलित नहीं हुए और बोले- आज्ञा दीजिए महाराज! संन्यासी सूर्यानन्द गिरी ने कहा- इस संसार में पीड़ित मनुष्यों की संख्या कम नहीं है। उन पीड़ितों की सेवा करो। जो आज्ञा प्रभो ! सुरेन्द्र नाथ ने कहा- मैंने सम्पूर्ण अन्तस् से आपको अपना गुरू माना है, आपके द्वारा कहा गया प्रत्येक वाक्य मेरे लिए मूलमंत्र है। आपके द्वारा उच्चारित प्रत्येक अक्षर मेरे लिए परा बीज है।
ऐसा कहकर सुरेन्द्रनाथ कलकत्ता चले आए और अभावग्रस्त, लाचार, दुःखी मनुष्यों की सेवा करने लगे। उन्हें अस्पताल ले जाकर भर्ती करने लगे। निराश्रितों के सिरहाने बैठकर सेवा करते हुए वे गरीबों के मसीहा बन गए। धीरे- धीरे पास की सारी रकम समाप्त हो जाने पर वे कुली का काम करने लगे। उससे जो आमदानी होती, उससे अपाहिजों की सहायता करने लगे। ऐसी दशा में उनके कई वर्ष गुजर गए। इस बीच संन्यासी सूर्यानन्द गिरी से उनकी कोई मुलाकात नहीं हुई।
एक दिन जब वे कुली का काम करके जूट मिल से बाहर निकले, तो देखा कि सामने गुरूदेव खड़े हैं। सुरेन्द्र के प्रणाम करते ही उनसे गुरूदेव ने कहा- सुरेन्द्र, तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो गयी है, अब मेरे साथ चलो। इस आदेश को शिरोधार्य करके वे चुपचाप गुरू के पीछे- पीछे चल पड़े। गुरूदेव उन्हें बंगाल, आसाम पार कराते हुए बर्मा के जंगलों में ले गए। यही से उनकी साधना का क्रम शुरू हुआ। गुरू- कृपा से वह महान् सिद्ध सन्त महानन्द गिरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। परवर्ती काल में जब कोई उनसे साधना का रहस्य जानना चाहता, तो वे एक ही बात कहते, मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं गुरू वाक्य मूल मंत्र है। इसकी साधना से सब कुछ स्वयं ही हो जाता है। सचमुच ही गुरूदेव की महिमा अनन्त व अपार है।
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