Wednesday, 10 January 2018

अद्वैतवाद

Phonetic Go  देवनागरी खोज अद्वैतवाद   अद्वैतवाद विवरण 'अद्वैतवाद' सनातन दर्शन वेदांत के सबसे प्रभावशाली मतों में से एक है। अद्वैतमत के अनुसार जीव और ब्रह्मा की भिन्नता का कारण माया है, जिसे अविद्या भी कहते हैं। संस्थापक गौड़पादाचार्य विशेष मध्यकालीन दार्शनिक शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर मुख्यत: वेदांत सूत्रों पर अपनी टीका 'शारीरिक-मीमांसा-भाष्य' में इस मत का विकास किया था। संबंधित लेख गौड़पाद, शंकराचार्य अन्य जानकारी अद्वैतमत के अनुसार माया के सम्बन्ध से ही ब्रह्मा जीव कहलाता है। यह मायारूप उपाधि अनादिकाल से ही ब्रह्मा को लगी हुई है और इस अविद्या के कारण ही जीव, अपने आपको ब्रह्मा से भिन्न समझता है। अद्वैतवाद (संस्कृत शब्द, अर्थात् 'एकत्ववाद' या 'दो न होना'), भारत के सनातन दर्शन वेदांत के सबसे प्रभावशाली मतों में से एक है। इसके अनुयायी मानते हैं कि उपनिषदों में इसके सिद्धांतों की पूरी अभिव्यक्ति है और यह वेदांत सूत्रों के द्वारा व्यस्थित है। जहाँ तक इसके उपलब्ध पाठ का प्रश्न है, इसका ऐतिहासिक आरंभ मांडूक उपनिषद पर छंद रूप में लिखित टीका 'मांडूक्य कारिका' के लेखक गौड़पाद से जुड़ा हुआ है। स्थापना 'अद्वैतवाद' विचारधारा की नीव गौड़पादाचार्य ने 215 कारीकायों (श्लोकों) से की थी। इनके शिष्य गोविन्दाचार्य हुए और उनके शिष्य दक्षिण भारत में जन्मे स्वामी शंकराचार्य हुए, जिन्होंने इन कारीकायों का भाष्य रचा था। यही विचार 'अद्वैतवाद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। स्वामी शंकराचार्य अत्यंत प्रखर बुद्धि के अद्वितीय विद्वान् थे, जिन्होंने भारत में फैल रहे नास्तिक बौद्ध और जैन मत को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक धर्म की रक्षा की। उनके प्रचार से भारत में नास्तिक मत तो समाप्त हो गया, पर 'मायावाद' अर्थात् 'अद्वैतवाद' की स्थापना हो गयी।[1] गौड़पाद द्वारा व्याख्या गौड़पाद सातवीं शताब्दी से पूर्व, शायद पहली पाँच शताब्दियों के कालखंड में कभी हुए थे। कहा जाता है कि उन्होंने बौद्ध महायान के शून्यता दर्शन को अपना आधार बनाया था। उन्होंने तर्क दिया कि 'द्वैत' है ही नहीं; मस्तिष्क जागृत अवस्था या स्वप्न में माया में ही विचरण करता है; और सिर्फ 'अद्वैत' ही परम सत्य है। माया की अज्ञानता के कारण यह सत्य छिपा हुआ है। किसी वस्तु का स्वयं या किसी अन्य वस्तु से किसी वस्तु का अस्तित्व में आना है ही नहीं। अंतत: कोई वैयक्तिक स्व या जीव नहीं है, केवल आत्मन या परमात्मा है, जिसमें जीव अस्थायी रूप से अंकित हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह जैसे पूर्णाकाश का एक अंश किसी पात्र में भर जाता है और पात्र के टूटने पर वह वैयक्तिक आकाश फिर से पूर्णाकाश का अंश हो हाता है। शंकराचार्य का तर्क मध्यकालीन दार्शनिक 'शंकर' या शंकराचार्य (लगभग 700-750) ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर मुख्यत: वेदांत सूत्रों पर अपनी टीका 'शारीरिक-मीमांसा-भाष्य' में इस मत का विकास किया। शंकर ने तर्क दिया कि उपनिषद ब्रह्म (परम तत्त्व) की प्रकृति की शिक्षा देते है और सिर्फ अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। शंकराचार्य के कई अनुयायियों ने उनकें कार्यों को जारी रखा और विस्तार प्रदान किया, जिनमें नौवीं शताब्दी के दार्शनिक वाचस्पति मिश्र उल्लेखनीय हैं। अद्वैत साहित्य बेहद विस्तृत है और हिन्दू विचारधारा में यह प्रमुख भूमिका अदा करता है। स्वामी शंकराचार्य ब्रह्मा के दो रूप मानते हैं, एक अविद्या उपाधि सहित हैं, जो जीव कहलाता हैं और दूसरा सब प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्मा है। अविद्या की अवस्था में ही उपास्य, उपासक आदि सब व्यवहार हैं और जब जीव अविद्या से रहित होकर 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात् 'में ब्रह्मा हूँ', इस अवस्था को पहुँच जाता हैं तो जीव का जीवपन नष्ट हो जाता है। माया का स्वरूप अद्वैतमत के अनुसार माया के सम्बन्ध से ही ब्रह्मा जीव कहलाता है। यह मायारूप उपाधि अनादिकाल से ही ब्रह्मा को लगी हुई है और इस अविद्या के कारण ही जीव, अपने आपको ब्रह्मा से भिन्न समझता है। स्वामी शंकराचार्य के अनुसार माया को परमेश्वर की शक्ति, त्रिगुणात्मिका, अनादिरूपा, अविद्या का नाम दिया गया है। इसे अनिर्वचनीय[2] माना गया है। जगत मिथ्या अद्वैतमत के अनुसार जगत् मिथ्या है। जिस प्रकार स्वप्न जूठे होते हैं तथा अँधेरे में रस्सी को देखकर सांप का भ्रम होता है, उसी प्रकार इस भ्रान्ति, अविद्या, अज्ञान के कारण ही जीव, इस मिथ्या संसार को सत्य मान रहा है। वास्तव में न कोई संसार की उत्पत्ति, न प्रलय, न कोई साधक, न कोई मुमुक्षु (मुक्ति) चाहने वाला है, केवल ब्रह्मा ही सत्य है और कुछ नहीं। अद्वैतमत के अनुसार यह अंतरात्मा न कर्ता है, न भोक्ता है, न देखता है, न दिखाता है। यह निष्क्रिय है। सूर्य के प्रतिबिम्ब की भांति, जीवों की क्रियाएं, बुद्धि पर चिदाभास[3] से हो रही हैं।[1] माया की समीक्षा अद्वैतमत के अनुसार जीव और ब्रह्मा की भिन्नता का कारण माया है, जिसे अविद्या भी कहते हैं। जिस समय जीव से अविद्या दूर हो जाती है, उस समय वह ब्रह्मा हो जाता है। हमारा प्रथम आक्षेप है की यदि अविद्या ब्रह्मा का स्वाभाविक गुण है, तब तो अविद्या का नाश नहीं हो सकता, क्यूंकि स्वाभाविक गुण सदा ही अपने आश्रित द्रव्य के आधार पर स्थिर रहता है। यदि यह अविद्या नेमैतिक है तो किस निमित से ब्रह्मा का अविद्या से संपर्क हुआ। यदि कोई और निमित माना जाये तो ब्रह्मा के साथ उस निमित को भी नित्य मानना पड़ेगा और उसे नित्य मानने पर द्वैत सिद्ध होता है। फिर अद्वैतवाद नहीं रहता। दूसरे इस अविद्या का नाश वेदादि शास्त्रों के ज्ञान द्वारा होता है तो फिर वह निरुपाधि ब्रह्मा वेद ज्ञान को कैसे उत्पन्न करता है? पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ↑ इस तक ऊपर जायें: 1.0 1.1 वेद और अद्वैतवाद (हिन्दी) अग्निवीर फेन। अभिगमन तिथि: 21 अगस्त, 2014। ऊपर जायें ↑ जो कहीं न जा सके ऊपर जायें ↑ चैतन्य प्रतिबिम्ब छाया (Reflection) संबंधित लेख [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें दर्शन शास्त्र उत्तर मीमांसा · ज्ञानमीमांसा · षट् दर्शन · चार्वाक दर्शन · जैन दर्शन · न्याय दर्शन · पूर्व मीमांसा · बौद्ध दर्शन · मीमांसा दर्शन · योग दर्शन · विशिष्टाद्वैत दर्शन · वैशेषिक दर्शन · नव्य आदर्शवाद · अध्यात्मवाद · भेदाभेद · सांख्य दर्शन · भारतीय दर्शन · अज्ञेयवाद · करण · द्वैतवाद · अद्वैतवाद · अनात्मवाद · शैव दर्शन · समूहवाद · द्वैताद्वैतवाद · अक्रियावाद · नवमानववाद · अवतारवाद · कनफ़्यूशीवाद · अजातिवाद · सर्वात्मवाद · कुलीनवाद · शून्यवाद [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें हिन्दू धर्म श्रुति वेद · उपनिषद · श्रुति स्मृति इतिहास (रामायण, महाभारत, भगवद्गीता) · पुराण · सूत्र · आगम (तन्त्र, यन्त्र) · वेदान्त दर्शन उत्तर मीमांसा · ज्ञानमीमांसा · षट् दर्शन · चार्वाक दर्शन · जैन दर्शन · न्याय दर्शन · पूर्व मीमांसा · बौद्ध दर्शन · मीमांसा दर्शन · योग दर्शन · विशिष्टाद्वैत दर्शन · वैशेषिक दर्शन · नव्य आदर्शवाद · अध्यात्मवाद · भेदाभेद · सांख्य दर्शन · भारतीय दर्शन · अज्ञेयवाद · करण · द्वैतवाद · अद्वैतवाद · अनात्मवाद · द्वैताद्वैतवाद · अक्रियावाद · नवमानववाद · अवतारवाद · कनफ़्यूशीवाद · अजातिवाद · सर्वात्मवाद · कुलीनवाद · शून्यवाद रीति-रिवाज आयुर्वेद · आरती · दर्शन · दीक्षा · मन्त्र · पूजा · यज्ञ · श्राद्ध गुरु आदि शंकराचार्य · रामानुज · रामकृष्ण · विवेकानन्द देवी-देवता उमा · कात्यायनी · कालरात्रि सप्तम · काली · कूष्माण्डा · गायत्री · गौरी · चंद्रघंटा · दुर्गा · पार्वती · पृथ्वी · ब्रह्मचारिणी · महागौरी · महालक्ष्मी · शैलपुत्री · सरस्वती · सिध्दीदात्री · स्कन्दमात · स्वाहा · अग्निदेव · अरुण · अश्विनीकुमार · आदित्य · इन्द्र · कामदेव · कृतवास · कार्तिकेय · गणेश · चंद्र · चित्रगुप्त · बलराम · बुध · ब्रह्मा · मंगल · महादेव · महेश · यमराज · सूर्य · शिव · शनि · शुक्र देव · हनुमान युग सत्य युग · त्रेता युग · द्वापर युग · कलि युग तीर्थ यात्राएँ ब्रज चौरासी कोस की यात्रा · अमरनाथ यात्रा · पंढरपुर यात्रा अन्य महत्त्वपूर्ण लेख ईश्वर · सत्संग · मृत्यु · आत्मा · मोक्ष · ध्यान · पंचमकार · नारद पांचरात्र · नारद भक्ति सूत्र · नारद स्मृति · माला · अन्नमय कोष · पंक्तिदूषण ब्राह्मण · पंक्तिपावन ब्राह्मण वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज अ   आ    इ    ई    उ    ऊ    ए    ऐ    ओ   औ    अं    क   ख    ग    घ    ङ    च    छ    ज    झ    ञ    ट    ठ    ड   ढ    ण    त    थ    द    ध    न    प    फ    ब    भ    म    य    र    ल    व    श    ष    स    ह    क्ष    त्र    ज्ञ    ऋ    ॠ    ऑ    श्र   अः श्रेणियाँ: प्रारम्भिक अवस्थादर्शनअद्वैत दर्शनदर्शन कोशहिन्दू धर्महिन्दू धर्म कोश To the top गणराज्य इतिहास पर्यटन साहित्य धर्म संस्कृति दर्शन कला भूगोल विज्ञान खेल सभी विषय भारतकोश सम्पादकीय भारतकोश कॅलण्डर सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी ब्लॉग संपर्क करें योगदान करें भारतकोश के बारे में अस्वीकरण भारतखोज ब्रज डिस्कवरी © 2018 सर्वाधिकार सुरक्षित भारतकोश

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