Friday, 19 January 2018
कबीर दोहे
Kabir Gyan
Path to Satlok (our origin)
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कबीर दोहे
कबीर दोहे
१
गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय ।।
गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खडे हो तो किसे प्रणाम करणा चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को । ऐसी स्थिती में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करणे का सौभाग्य हुआ।
२
गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार ।
आपा मैटैं हरि भजैं , तब पावैं दीदार ।।
गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है । गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल ओऊ सहज होकार आत्म ध्यान करणे से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा । जिससे प्राणी का कल्याण होगा । जब तक मन मे मैलरूपी “माई और तू” कि भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता ।
३
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को गुरु बिन मैटैं न दोष ।।
कबीर दास जि कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों । बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है । तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्तहोती । मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं । बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता । उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु कि शरण मे जाओ । गुरु ही सच्ची रह दिखाएंगे ।
४
गुरु समान दाता नहीं , याचक सीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान ।।
संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है । ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपती गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवळ याचना करके ही शिष्य पा लेता है
५
गुरु को मानुष जानते, ते नार कहिए अन्ध ।
होय दुखी संसार मे , आगे जम की फन्द ।।
कबीरदास जी ने सांसारिक प्राणियो को ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा है की जो मनुष्य गुरु को सामान्य प्राणी (मनुष्य) समझते हैं उनसे बडा मूर्ख जगत मे अन्य कोई नहीं है, वह आखो के होते हुए भी अन्धे के समान है तथा जन्म-मरण के भव-बंधन से मुक्त नहीं हो पाता ।
६
गुरु गोविंद करी जानिए, रहिए शब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी , नहीं पलपल ध्यान लगाय ।।
ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने । गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन कारे और उसी क्षेत्र मे रहें । जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया ।
७
गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद ।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद ।।
जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनःइस भव बन्धन रुपी संसार मे आगमन नहीं होता । संसार के भव चक्र से मुक्त होकार बैकुन्ठ लोक को प्राप्त होता है ।
८
गुरु सों ज्ञान जु लीजिए , सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोंदु बहि गये , राखि जीव अभिमान ।।
सच्चे गुरु की शरण मे जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों मे अर्पित करदो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो । “गुरु-ज्ञान कि तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं है” ऐसा न मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये । उनका उद्धार नहीं हो सका ।
९
गुरु पारस को अन्तरो , जानत हैं सब संत ।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत ।।
गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं । पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बाण जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं ।
१०
गुरु शरणगति छाडि के, करै भरोसा और ।
सुख संपती को कह चली , नहीं नरक में ठौर ।।
संत जी कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के पावन पवित्र चरणों को त्यागकर अन्य पर भरोसा करता है उसके सुख संपती की बात ही क्या, उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलता ।
११
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट ।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।।
संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है । जिस तरह घडे को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है ।
१२
गुरु को सर पर राखिये चलिये आज्ञा माहि ।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं ।।
गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात , दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है । गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता । गुरु कि परमकृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है ।
१३
गुरु मुरति आगे खडी , दुतिया भेद कछु नाहि ।
उन्ही कूं परनाम करि , सकल तिमिर मिटी जाहिं ।।
आत्म ज्ञान से पूर्ण संत कबीर जी कहते हैं – हे मानव । साकार रूप में गुरु कि मूर्ति तुम्हारे सम्मुख खडी है इसमें कोई भेद नहीं । गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो । गुरु दिये ज्ञान रुपी प्रकाश से अज्ञान रुपी अंधकार मिट जायेगा ।
१४
कबीर हरि के रुठते, गुरु के शरणै जाय ।
कहै कबीर गुरु रुठते , हरि नहि होत सहाय ।।
प्राणी जगत को सचेत करते हुए कहते हैं – हे मानव । यदि भगवान तुम से रुष्ट होते है तो गुरु की शरण में जाओ । गुरु तुम्हारी सहायता करेंगे अर्थात सब संभाल लेंगे किन्तु गुरु रुठ जाये तो हरि सहायता नहीं करते जिसका तात्पर्य यह है कि गुरु के रुठने पर कोई सहायक नहीं होता ।
१५
कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि के रुठे ठौर है, गुरु रुठे नहिं ठौर ।।
कबीरदास जी कहते है कि वे मनुष्य अंधों के समान है जो गुरु के महत्व को नहीं समझते । भगवान के रुठने पर स्थान मिल सकता है किन्तु गुरु के रुठने पर कहीं स्थान नहीं मिलता ।
१६
जैसी प्रीती कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय ।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकडै कोय ।।
हे मानव । जैसा तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम गुरु से करो । जीवन की समस्त बाधाएँ मिट जायेंगी । कबीर जी कहते हैं कि ऐसे सेवक की कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता , उसे मोक्ष प्राप्ती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं ।
१७
मूलध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव ।।
कबीर जी कहते है – ध्यान का मूल रूप गुरु हैं अर्थात सच्चे मन से सदैव गुरु का ध्यान करना चाहिये और गुरु के चरणों की पूजा करनी चाहिये और गुरु के मुख से उच्चारित वाणी को ‘सत्यनाम’ समझकर प्रेमभाव से सुधामय अमृतवाणी का श्रवण करें अर्थात शिष्यों के लिए एकमात्र गुरु ही सब कुछ हैं ।
१८
गुरु मुरति गति चन्द्रमा , सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर निरखत रहें , गुरु मुरति की ओर ।।
कबीर साहब सांसारिक प्राणियो को गुरु महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि हे मानव । गुरु कीपवित्र मूर्ति को चंद्रमा जानकर आठों पहर उसी प्रकार निहारते रहना चाहिये जिस प्रकार चकोर निहारता है तात्पर्य यह कि प्रतिपल गुरु का ध्यान करते रहें ।
१९
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुंवा का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार ।।
संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है क्योंकी इस धुएँ रुपी शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना हैं फिर इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन सार्थक करें ।
२०
प्रेम बिना जो भक्ती ही सो निज दंभ विचार ।
उदर भरन के कारन , जन्म गंवाये सार ।।
प्रेम के बिना की जाने वाली भक्ती , भक्ती नहीं बल्की पाखंड ही । वाहय आडम्बर है । प्रदर्शन वाली भक्ति को स्वार्थ कहते है जो पेट पालने के लिए करते है । सच्ची भक्ति के बिना सब कुछ व्यर्थ है । भक्ति का आधार प्रेम है अतः प्रेम पूर्वक भक्ति करे जिससे फल प्राप्त हो ।
२१
भक्ति बिना नहिं निस्तरै , लाख करै जो काय ।
शब्द सनेही है रहै , घर को पहुचे सोय ।।
भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं है चाहे कोई लाख प्रयत्न करे सब व्यर्थ है । जो जीव सद्गुरु के प्रेमी है , सत्यज्ञान का आचरण करने वाले है वे ही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके है ।
२२
भक्ति दुवारा सांकरा , राई दशवे भाय ।
मन तो मैंगल होय रहा , कैसे आवै जाय ।।
मानव जाति को भक्ति के विषय में ज्ञान का उपदेश करते हुए कबीरदास जी कहते है कि भक्ति का द्वार बहुत संकरा है जिसमे भक्त जन प्रवेश करना चाहते है । इतना संकरा कि सरसों के दाने के दशवे भाग के बरोबर है । जिस मनुष्य का मन हाथी की तरह विशाल है अर्थात अहंकार से भरा है वह कदापि भक्ति के द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता ।
२३
भक्ति निसैनी मुक्ति की , संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया , जनम जनम पछिताय ।।
मुक्ति का मूल साधन भक्ति है इसलिए साधू जन और ज्ञानी पुरुष इस मुक्ति रूपी साधन पर दौड़ कर चढ़ते है । तात्पर्य यह है कि भक्ति साधना करते है किन्तु जो लोग आलस करते है । भक्ति नहीं करते उन्हें जन्म जन्म पछताना पड़ता है क्योंकि यह सुअवसर बार बार नहीं अता ।
२४
भक्ति जुसिढी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ी सकै, निज मन समझो आय ।।
भक्ति वह सीधी है जिस पर चढ़ने के लिए भक्तो के मन में आपार ख़ुशी होती है क्योंकि भक्ति हो मुक्ति का साधन है । भक्तों के अतिरिक्त इस पर एनी कोई नहीं चढ़ सकता । ऐसा अपने मन में निश्चित कर लो ।
२५
भक्ति भेष बहु अन्तरा , जैसे धरनि आकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ।।
भक्ति और वेश में उतना ही अन्तर है जितना अन्तर धरती और आकाश में है । भक्त सदैव गुरु की सेवा में मग्न रहता है उसे अन्य किसी ओर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता किन्तु जो वेशधारी है अर्थात भक्ति करने का आडम्बर करके सांसारिक सुखो की चाह में घूमता है वह दूसरों को तो धोखा देता ही है, स्वयं अपना जीवन भी व्यर्थ गँवाता है ।
२६
भक्ति दुलेही गुरून की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ।।
सद्गुरु की भक्ति करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है । यह कायरों के वश की बात नहीं है । यह एसे पुरुषार्थ का कार्य है कि जब अपने हाथ से अपना सिर काटकर गुरु के चरणों में समर्पित करोगे तभी मोक्ष को प्राप्त होओगे ।
२७
भक्ति पदारथ तब मिले , जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ।।
कबीर जी कहते है कि भक्ति रूपी अनमोल तत्व की प्राप्ति तभी होती है जब जब गुरु सहायक होते है, गुरु की कृपा के बिना भक्ति रूपी अमृत रस को प्राप्त कर पाना पूर्णतया असम्भव है ।
२८
भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच बर अवतरै , होय सन्त का सन्त ।।
भक्ति का बोया बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता चाहे अनन्त युग व्यतीत हो जाये । यह किसी भी कुल अथवा जाति में ही , परन्तु इसमें होने वाला भक्त सन्त ही रहता है । वः छोटा बड़ा या ऊँचा नीचा नहीं होता अर्थात भक्त की कोई जात नहीं होती ।
२९
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा मा जै नहीं , होन चहत है दास ।।
गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत उत्साह है किन्तु ह्रदय को तूने शुद्ध नहीं किया । मन में मोह , लोभ, विषय वासना रूपी गन्दगी भरी पड़ी है उसे साफ़ और स्वच्छ करने का प्रयास ही नहीं किया और भक्ति रूपी दास होना चाहता है अर्थात सर्वप्रथम मन में छुपी बुराइयों को निकालकर मन को पूर्णरूप से शुद्ध करो तभी भक्ति कर पाना सम्भव है ।
३०
तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान ।।
जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सद्गुरु के ज्ञान रूपी उपदेश से कुबुद्धि नष्ट हो जाती है । अधिक लोभ करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है । और अभिमान करने से भक्ति का नाश हो जाता है अतः लोभ आदि से बचकर रहना ही श्रेयस्कर है ।
३१
भाव बिना नहिं भक्ति जग , भक्ति बिना नहिं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुझाव ।।
भक्ति और भाव का निरूपण करते हुए सन्त शिरोमणि कबीर साहेब जी कहते है कि संसार में भाव के बिना भक्ति नहीं और निष्काम भक्ति के बिना प्रेम नहीं होता है भक्ति और भाव एक दुसरे के पूरक है अर्थात इनके बीच कोई भेद नहीं है । भक्ति एवम भाव के गुण, लक्षण , स्वभाव आदि एक जैसे है ।
३२
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।
भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शारीर की परवाह नहीं करते । शारीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।
३३
भक्ति पंथ बहु कठिन है , रत्ती न चालै खोट ।
निराधार का खेल है, अधर धार की चोट ।।
भक्ति साधना करना बहुत ही कठिन है । इस मार्ग पर चलने वाले को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह ऐसा निराधार खेल है कि जरा सा चुकने पर रसातल में गिरकर महान दुःख झेलने होते है अतः भक्ति साधना करने वाले झूठ, अभिमान , लापरवाही आदि से सदैव दूर रहें ।
३४
कामी क्रोधी लालची , इनते भक्ति ना होय ।
भक्ति करै कोई सूरमा , जादि बरन कुल खोय ।।
विषय वासना में लिप्त रहने वाले, क्रोधी स्वभाव वाले तथा लालची प्रवृति के प्राणियों से भक्ति नहीं होती । धन संग्रह करना, दान पूण्य न करना ये तत्व भक्ति से दूर ले जाते है । भक्ति वही कर सकता है जो अपने कुल , परिवार जाति तथा अहंकार का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास से कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है । हर किसी के लिए संभव नहीं है ।
३५
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये जान ।
सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान ।।
कबीर दास जी संसारी जीवो को सन्मार्ग की शिक्षा देते हुए कहते है की पाचो विषयों को त्यागना ही वैराग्य है । भेद भाव आदि दुर्गुणों से रहित होकर समानता का व्यवहार करना ही परमज्ञान है और स्नेह , उचित आचरण भक्ति का सत्य प्रमाण है । भक्तों में ये सद्गुण विद्यमान होते है ।
३६
देखा देखी भक्ति का, कबहू न चढ़सी रंग ।
विपत्ति पड़े यों छाडसि , केचुलि तजसि भुजंग ।।
दूसरों को भक्ति करते हुए देखकर भक्ति करना पूर्ण रूप से सफल भक्ति नहीं हो सकती , जब कोई कठिन घडी आयेगी उस समय दिखावटी भक्ति त्याग देते है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सर्प केचुल का त्याग कर देता है ।
३७
और कर्म सब कर्म है , भक्ति कर्म निह्कर्म ।
कहै कबीर पुकारि के, भक्ति करो ताजि भर्म ।।
कबीर दास जी कहते है कि आशक्ति के वश में होकर जीव जो कर्म करता है उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है किन्तु भक्ति ऐसा कर्म है जिसके करने से जीव संसार के भाव बन्धन से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है अतः हे सांसारिक जीवों । आशक्ति , विषय भोगों को त्यागकर प्रेमपूर्वक भक्ति करो जिससे तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा ।
३८
भक्ति भक्ति सब कोई कहै , भक्ति न जाने भेद ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करै गुरुदेव ।।
भक्ति भक्ति तो हर कोई प्राणी कहता है किन्तु भक्ति का ज्ञान उसे नहीं होता, भक्ति का भेद नहीं जानता । पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब गुरु देव की कृपा प्राप्त हो अतः भक्ति मार्ग पर चलने से पहले गुरु की शरण में जाना अति आवश्यक है । गुरु के आशिर्वाद और ज्ञान से मन का अन्धकार नष्ट हो जायेगा ।
३९
कबीर माया मोहिनी , भई अंधियारी लोय ।
जो सोये सों मुसि गये, रहे वस्तु को रोय ।।
कबीर साहेब कहते है कि माया मोहिनी उस काली अंधियारी रात्रि के समान है जो सबके ऊपर फैली है । जो वैभव रूपी आनन्द में मस्त हो कर सो गये अर्थात माया रूपी आवरण ने जिसे अपने वश में कर लिया उसे काम , क्रोध और मोहरूपी डाकुओ ने लूट लिया और वे ज्ञान रूपी अमृत तत्व से वंचित रह गये ।
४०
कबीर माया मोहिनी , मांगी मिलै न हाथ ।
मना उतारी जूठ करु, लागी डोलै साथ ।।
कबीर जी के वचनासुनर माया अर्थात धन, सम्पति वैभव संसार के प्रत्येक प्राणी को मोहने वाली है तथा माँगने से किसी के हाथ नहीं आती । जो इसे झूठा समझकर , सांसारिक मायाजाल समझकर उतार फेंकता है उसके पीछे दौड़ी चली आती है तात्पर्य यह कि चाहने पर दूर भागती है और त्याग करने पर निकट आती है ।
४१
कबीर या संसार की, झूठी माया मोह ।
जिहि घर जिता बधावना , तिहि घर तेता दोह ।।
संसार के लोगों का यह माया मोह सर्वथा मिथ्या है । वैभव रूपी माया जिस घर में जितनी अधिक है वहा उतनी ही विपत्ति है अर्थात भौतिक सुखसम्पदा से परिपूर्ण जीव घरेलू कलह और वैरभाव से सदा अशान्त रहता है । दु:खी रहता है ।
४२
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खंड ।
सद्गुरु की किरपा भई , नातर करती भांड ।।
माया के स्वरुप का वर्णन करते हुए संत कबीर दास जी कहते है कि माया बहुत ही लुभावनी है । जिस प्रकार मीठी खांड अपनी मिठास से हर किसी का मन मोह लेती है उसी प्रकार माया रूपी मोहिनी अपनी ओर सबको आकर्षित कर लेती है । वह तो सद्गुरु की कृपा थी कि हम बच गये अन्यथा माया के वश में होकर अपना धर्म कर्म भूलकर भांड की तरह रह जाते ।
४३
माया छाया एक सी, बिरला जानै कोय ।
भगता के पीछे फिरै , सनमुख भाजै सोय ।।
धन सम्पत्ति रूपी माया और वृक्ष की छाया को एक समान जानो । इनके रहस्य को विरला ज्ञानी ही जानता है । ये दोनों किसी की पकड़ में नहीं आती । ये दोनों चीज़े भक्तों के पीछे पीछे और कंजूसों के आगे आगे भागती है अर्थात वे अतृप्त ही रहते है ।
४४
माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय ।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय ।।
संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि माया के दो स्वरुप है । यदि कोई इसका सदुपयोग देव सम्पदा के रूप में करे तो जीवन कल्याणकारी बनता है किन्तु माया के दूसरे स्वरुप अर्थात आसुरि प्रवृति का अवलम्बन करने पर जीवन का अहित होता और प्राणी नरक गामी होता है ।
४५
मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।
धन संपत्ति , पुत्र, स्त्री , घर सगे सम्बन्धी अदि मोटी माया का बहुत से लोग त्याग कर देते है किन्तु माया के सूक्ष्म रूप यश सम्मान आदि का त्याग नहीं कर पाते है और यह छोटी माया ही जीव के दुखो का कारण बनती है । पीर पैगम्बर औलिया आदि की मनौती ही सबको खा जाती है.
४६
झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गये हिराय ।।
कबीर जी कहते है कि जिसने सूक्ष्म माया का त्याग कर दिया , जिसने मन की आसक्ति रूपी सूक्ष्म माया से नाता तोड़ लिया उसकी मोटी माया स्वतः ही नष्ट हो जाती है और वह ज्ञान रूपी अमृत पाकर सुखी हो जाता है । उसके समस्त दुःख दूर चले जाते है अतः सूक्ष्म माया को दूर भगाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
४७
माया काल की खानि है, धरै त्रिगुण विपरीत ।
जहां जाय तहं सुख नहीं , या माया की रीत ।।
माया विपत्ति रूपी काल की वह खान है जो त्रिगुणमयी विकराल रूप धारण करती है यह जहाँ भी जाती है वहाँ सुख चैन का नाश हो जाता है और अशांति फैलती है । यही माया का वास्तविक रूप है । ज्ञानी जन मायारूपी काल से सदैव दूर रहते है ।
४८
माया दीपक नर पतंग , भ्रमि भ्रमि माहि परन्त ।
कोई एक गुरु ज्ञानते , उबरे साधु सन्त ।।
माया , दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते है । इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अन्धकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है ।
४९
जरा आय जोरा किया , नैनन दीन्ही पीठ ।
आंखो ऊपर आंगुली , वीष भरै पछनीठ ।।
वृध्दावस्था ऊपर आई तो उसने अपना जोर दिखाया , कमजोर शरीर के साथ आँखों ने पीठ फेर ली अर्थात कम दिखायी पड़ने लगा । यहाँ तक कि आँखों के ऊपर अंगुलियों की छाया करने पर बहुत थोडा सा दिखायी पड़ता है ।
५०
काल हमारे संग है , कस जीवन की आस ।
दस दिन नाम संभार ले, जब लग पिंजर सांस ।।
कबीर दास जी कहते है कि जब काल हमारे साथ लगा हुआ है तो फिर जीने की आशा कैसी ? यह जीवन मिथ्या है, जब तक शरीर में प्राण है तभी तक तुम्हारे पास अवसर है अतः इस अल्प जीवन में सतकर्म करके अपना परलोक सुधार लो ।
५१
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी , करते रंग रलियाय ।।
जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसके मृतक शरीर को जला देते है । शरीर जल जाने के बाद वहाँ राख की ढेरी मात्र बचती है जिस पर हरी हरी घास उग जाती है । जरा शान्त मन से विचार करो कि वे भी मनुष्य थे जो रास रंग , आमोद प्रमोद में विलास करते थे और आज उनके जल चुके शरीर की अवशेष राख पर घास उग आयी है ।
५२
हरिजन आवत देखि के, मोहड़े सुख गयो ।
भाव भक्ति समुझयो नहीं , मूरख चूकि गयो ।।
हरी भक्तों को आता हुआ देखकर जिस मानव का मुख सूख गया अर्थात सेवा की भावना उत्पन्न ण हुई बल्कि विचलित हो गया । ऐसे व्यक्ति को महामूर्ख जानो । जिस ने हाथ आया सुअवसर खो दिया । सन्तो के दर्शन बार बार नहीं होते ।
५३
कह आकाश को फेर है , कह धरती को तोल ।
कहा साधु की जाति है, कह पारस का मोल ।।
आकाश की गोलाई , धरती का भार , साधु सन्तो की जाति क्या है तथा पारसमणि का मोल क्या है? कबीर जी कहते है कि इनका अनुमान लगा पाना असम्भव है अतः ऐसी चीजों के चक्कर में न पड़कर सत्य ज्ञान का अनुसरण करिये जिससे परम कल्याण निहित है ।
५४
दीपक सुन्दर देखि करि , जरि जरि मरे पतंग ।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग ।।
प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है । ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते है ।
५५
कबीर माया मोहिनी , सब जग छाला छानि ।
कोई एक साधू ऊबरा, तोड़ी कुल की कानि ।।
सन्त कबीर जी कहते है कि यह जग माया मोहिनी है जो लोभ रूपी कोल्हू में पीसती है । इससे बचना अत्यंत दुश्कर है । कोई विरला ज्ञानी सन्त ही बच पाता है जिसने अपने अभिमान को तोड़ दिया है ।।
५६
कबीर गुरु के देश में , बसि जानै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै , जाति वरन कुल खोय ।।
कबीर जी कहते है कि जो सद्गुरु के देश में रहता है अर्थात सदैव सद्गुरु की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है । उनके ज्ञान एवम् आदेशों का पालन करता है वह कौआ से हंस बन जाता है । अर्थात अज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । समस्त दुर्गुणों से मुक्त होकर जग में यश सम्मान प्राप्त करता है ।
५७
गुरु आज्ञा मानै नहीं , चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ।।
जो मनुष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना करके अपनी इच्छा से कार्य करता है । अपनी मनमानी करता है ऐसे प्राणी का लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है और काल रूपी दु:खो से निरन्तर घिरा रहेगा ।
५८
गुरु आज्ञा लै आवही , गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहै कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ।।
गुरु की आज्ञा लेकर आना और गुरु की आज्ञा से ही कहीं जाना चाहिए । कबीर दास जी कहते है किऐसे सेवक गुरु को अत्यन्त प्रिय होते है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करा कर धन्य करते है ।
५९
गुरु समरथ सिर पर खड़े , कहा कमी तोहि दास ।
रिद्धि सिद्धि सेवा करै , मुक्ति न छाडै पास ।।
जब समर्थ गुरु तुम्हारे सिर पर खड़े है अर्थात सतगुरु का आशिर्वाद युक्त स्नेहमयी हाथ तुम्हारे सिर पर है , तो ऐसे सेवक को किस वस्तु की कमी है । गुरु के श्री चरणों की जो भक्ति भाव से सेवा करता है उसके द्वार पर रिद्धि सिद्धिया हाथ जोड़े खड़ी रहती है ।
६०
प्रीति पुरानी न होत है , जो उत्तम से लाग ।
सो बरसाजल में रहै , पथर न छोड़े आग ।।
यदि किसी सज्जन व्यक्ति से प्रेम हो तो चाले कितना भी समय व्यतीत हो जाये कभी पुरानी नहीं होती , ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पत्थर सैकड़ो वर्ष पानी में रहे फिर भी अपनी अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता को नहीं त्यागता ।
६१
प्रीती बहुत संसार में , नाना विधि की सोय ।
उत्तम प्रीती सो जानियो, सतगुरु से जो होय ।।
इस जगत में अनेक प्रकार की प्रीती है किन्तु ऐसी प्रीती जो स्वार्थ युक्त हो उसमें स्थायीपन नहीं होता अर्थात आज प्रीती हुई कल किसी बात पर तू-तू , मै-मै होकर विखंडित हो गयी । प्रीती सद्गुरु स्वामी से हो तो यही सर्वश्रेष्ठ प्रीती है । सद्गुरु की कृपा से, सद्गुरु से प्रीती करने पर सदा अच्छे गुणों का आगमन होता है ।
६२
साधु संगत परिहरै, करै विषय को संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ।।
जो मनुष्य ज्ञानी सज्जनों की संगति त्यागकर कुसंगियो की संगति करता है वह सांसारिक सुखो की प्राप्ती के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है । वह ऐसे मूर्ख की श्रेणी में आता है जो बहते हुए गंगा जल को छोड़ कर कुआँ खुदवाता हो ।
६३
कामी का गुरु कामिनी , लोभी का गुरु दाम ।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम ।।
कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासन्त कबीर दास जी कहते है कि कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना के सम्पत्ति बटोर ने में ही ध्यान लगाये रहता है । उसका गुरु, मित्र, भाई – बन्धु सब कुछ धन ही होता है और जो विषयों से दूर रहता है उसे सन्तो की कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं ।
६४
परारब्ध पहिले बना , पीछे बना शरीर ।
कबीर अचम्भा है यही , मन नहिं बांधे धीर ।।
कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना । यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है ।
६५
जहां काम तहां नहिं , जहां नाम नहिं काम ।
दोनों कबहू ना मिलै , रवि रजनी इक ठाम ।।
जहाँ विषय रूपी काम का वस् होता है उस स्थान पर सद्गुरु का नाम एवम् स्वरुप बोध रूपी ज्ञान नहीं ठहरता और जहाँ सद्गुरु का निवास होता है वहाँ काम के लिए स्थान नहीं होता जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और रात्रि का अंधेरा दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते उसी प्रकार ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते ।
६६
काला मुंह करूं करम का, आदर लावू आग ।
लोभ बड़ाई छांड़ि के, रांचू के राग ।।
लोभ एवम मोह रूपी कर्म का मुंह काला करके आदर सम्मान को आग लगा दूं । निरर्थक मान सम्मान प्राप्त करने के चक्कर में उचित मार्ग न भूल जाऊ । सद्गुरु के ज्ञान का उपदेश ही परम कल्याण कारी है अतः यही राग अलापना सर्वथा हितकर है ।
६७
कबीर कमाई आपनी , कबहुं न निष्फल जाय ।
सात समुद्र आड़ा पड़े , मिलै अगाड़ी आय ।।
कबीर साहेब कहते है कि कर्म की कमाई कभी निष्फल नहीं होती चाहे उसके सम्मुख सात समुद्र ही क्यों न आ जाये अर्थात कर्म के वश में होकर जीव सुख एवम् दुःख भोगता है अतःसत्कर्म करें ।
६८
दिन गरीबी बंदगी , साधुन सों आधीन ।
ताके संग मै यौ रहूं, ज्यौं पानी संग मीन ।।
जिसमें विनम्रता प्रेम भाव , सेवा भाव तथा साधु संतो की शरण में रहने की श्रद्धा होती है उसके साथ मै इस प्रकार रहू जैसे पानी के साथ मछली रहती है ।
६९
दया का लच्छन भक्ति है, भक्ति से होवै ध्यान ।
ध्यान से मिलता ज्ञान है, यह सिद्धान्त उरान ।।
दया का लक्षण भक्ति है और श्रद्धा पूर्वक भक्ति करने से परमात्मा का ध्यान होता है । जो ध्यान करता है उसी को ज्ञान मिलता है यही सिद्धान्त है जो इस सिद्धान्त का अनुसरण करता है उसके समस्त क्लेश मिट जाते है ।
७०
दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप ।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप ।।
परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते है । कि दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है । जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहा दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए ।
७१
तेरे अन्दर सांच जो, बाहर नाहिं जनाव ।
जानन हारा जानि है, अन्तर गति का भाव ।।
तुम्हारे अन्दर जो सत्य भावना निहित है उसका प्रदर्शन मत करो । जो अन्तर गति का रहस्य जानने वाले ज्ञानी का प्रदर्शन करना उचित नहीं है ।
७२
सांचै कोई न पतीयई , झूठै जग पतियाय ।
पांच टका की धोपती , सात टकै बिक जाय ।।
बोलने पर कोई विश्वास नहीं करता , सरे संसार के लोग बनावटीपण लिये हुए झूठ पर आँखे बन्द करके विश्वास करते है जिस प्रकार पाँच तर्क वाली धोती को झूठ बोलकर दूकानदार सात टके में बेच लेता है ।
७३
कामी कबहूँ न गुरु भजै , मिटै न सांसै सूल ।
और गुनह सब बख्शिहैं, कामी डाल न भूल ।।
कम के वशीभूत व्यक्ति जो सांसारिक माया में लिप्त रहता है वह कभी सद्गुरु का ध्यान नहीं करता क्योंकि हर घड़ी उसके मन में विकार भरा रहता है, उसके अन्दर संदेह रूपी शूल गड़ा रहता है जिस से उसका मनसदैव अशान्त रहता है । संत कबीर जी कहते हैं कि सभी अपराध क्षमा योग्य है किन्तु कामरूपी अपराध अक्षम्य है जिसके लिए कोई स्थान नहीं है ।
७४
अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार ।
मेरा चोर मुझको मिलै सरबस डारु वार ।
संसार के लोग अपने अपने चोर को मार डालते है परन्तु मेरा जो मन रूपी चंचल चोर है यदि वह मुझे मिल जाये तो मैं उसे नहीं मारुगा बल्कि उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूँगा अर्थात मित्र भाव से प्रेम रूपी अमृत पिलाकर अपने पास रखूँगा ।
७५
धरती फाटै मेघ मिलै, कपडा फाटै डौर ।
तन फाटै को औषधि , मन फाटै नहिं ठौर ।।
धरती फट गयी है अर्थात दरारे पड़ गयी है तो मेघों द्वारा जल बरसाने पर दरारें बन्द हो जाती हैं और वस्त्र फट गया है तो सिलाई करने पर जुड़ जाता है । चोट लगने पर तन में दवा का लेप किया जाता है जिससे शरीर का घाव ठीक हो जाता है किन्तु मन के फटने पर कोई औषधि या कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होता ।
७६
माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार ।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार ।।
माली को आता हुआ देखकर कलियां पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है । फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है तात्पर्य यह कि एक एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है ।
७७
झूठा सुख को सुख कहै , मानत है मन मोद ।
जगत – चबेना काल का , कछु मूठी कछु गोद ।।
उपरी आवरण को, भौतिक सुख को सांसारिक लोग सुख मानते है और प्रसन्न होते है किन्तु यह सम्पूर्ण संसार काल का चबेना है । यहां कुछ काल की गेंद में है और कुछ उसकी मुटठी में है । वह नित्य प्रतिदिन सबको क्रमानुसार चबाता जा रहा है ।
७८
जरा कुत्ता जोबन ससा , काल आहेरी नित्त ।
गो बैरी बिच झोंपड़ा , कुशल कहां सो मित्त ।
मनुष्यों को सचेत करते हुए संत कबीर जी कहते है – हे प्राणी ! वृद्धावस्था कुत्ता और युवा वस्था खरगोश के समान है । यौवन रूपी शिकार पर वृद्धावस्था रूपी कुत्ता घात लगाये हुए है । एक तरफ वृद्धावस्था है तो दूसरी ओर काल । इस तरह दो शत्रुओं के बीच तुम्हारी झोंपडी है । यथार्थ सत्य से परिचित कराते हुए संत जी कहते है कि इनसे बचा नहीं जा सकता ।
७९
मूसा डरपे काल सू, कठिन काल का जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में, जहां जाव तहं गोर ।।
काल की शक्ति अपरम्पार है जिससे मूसा जैसे पीर पैगम्बर भी डरते थे और उसी डर से मुक्ति पाने के लिए अल्लाह और खुदा की बन्दगी करते थे । स्वर्ग , पृथ्वी अथवा पाताल में, जहां कहीं भी जाइये । सर्वत्र काल अपना विकराल पंजा फैलाये हुए है ।
८०
मन गोरख मन गोविंद, मन ही औघड़ सोय ।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय ।।
मन ही योगी गोरखनाथ है, मन ही भगवान है, मन ही औघड़ है अर्थात मन को एकाग्र करके कठिन साधना करने से गोरखनाथ जी महान योगी हुए, मन की शक्ति से मनुष्य की पूजा भगवान की तरह होती है । मन को वश में करके जो भी प्राणी साधना स्वाध्याय करता है वह स्वयं ही अपना कर्त्ता बन जाती है ।
८१
कबीर माया बेसवा , दोनूं की इक जात ।
आवंत को आदर करै , जात न बुझै बात ।।
माया और वेश्या इन दोनों की एक जात है, एक कर्म है । ये दोनों पहले प्राणी को लुभाकर पूर्ण सम्मान देते है परन्तु जाते समय बात भी नहीं करते ।
८२
कामी अमी न भावई, विष को लेवै सोध ।
कुबुधि न भाजै जीव की , भावै ज्यौं परमोध ।।
विषय भोगी कामी पुरुष को कितना भी उपदेश दो, सदाचार और ब्रह्ममर्य आदि की शिक्षा दो उसे अच्छा नहीं लगता । वह सदा काम रूपी विष को ढूंढता फिरता है । चित्त की चंचलता से उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । जिसे कारण सद्गुणों को वह ग्रहण नहीं कर पाता है ।
८३
कुमति कीच चेला भरा , गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ।।
अज्ञान रूपी कीचड़ में शिष्य डूबा रहता है अर्थात शिष्य अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहता है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी जल से धोकर स्वच्छ कर देता है ।
८४
जाका गुरु है आंधरा , चेला खरा निरंध ।
अनेधे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद ।।
यदि गुरु ही अज्ञानी है तो शिष्य ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता अर्थात शिष्य महा अज्ञानी होगा जिस तरह अन्धे को मार्ग दिखाने वाला अन्धा मिल जाये वही गति होती है । ऐसे गुरु और शिष्य काल के चक्र में फंसकर अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते है ।
८५
साधु चलत से दीजिए , कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरुं , अपने बित्त अनुमान ।।
साधु जन जब प्रस्थान करने लगे तो प्रेम विह्वल होकर आंखों से आंसू निकल आये । जिस तरह उनका सम्मान करो और सामर्थ्य के अनुसार धन आदि भेंट करो । साधु को अपने द्वार से खाली हाथ विदा नहीं करना चाहिए ।
८६
मास मास नहिं करि सकै , छठै मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत्त ।।
कबीर दास जी कहते है कि हर महीने साधु संतों का दर्शन करना चाहिए । यदि महीने दर्शन करना सम्भव नहीं है तो छठें महीने अव्श्य दर्शन करें इसमें तनिक भी ढील मत करो ।
८७
साधु साधु सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ।।
अपने अपने स्थान पर सभी साधु बड़े है । साधुजनों में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है क्योंकि साधु शब्द ही महानता का प्रतीक है अर्थात सभी साधु सम्मान के अधिकारी है किन्तु जो आत्मदर्शी साधु है वे सिर के मुकुट हैं ।
८८
साधु सती और सूरमा , राखा रहै न ओट ।
माथा बांधि पताक सों , नेजा घालै चोट ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी साधु , सती और शूरवीर के विषय बताते हैं कि ये तीनों परदे की ओट में नहीं रखे जा सकते । इनके मस्तक पर पुरुषार्थ की ध्वजा बंधी रहती है । कोई उन पर भाले से भी प्रहार करे फिर भी ये अपने मार्ग से विचलित नहीं होते ।
८९
माला तिलक लगाय के, भक्ति न आई हाथ ।
दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, चले चुनि का साथ ।।
माला पहन ली और मस्तक पर तिलक लगा लिया फिर भी भक्ति हाथ नहीं आई । दाढ़ी मुंडवा ली, मूंछ बनवा ली और दुनिया के साथ चल पड़े फिर भी कोई लाभ नहीं हुआ । तात्पर्य यह कि ऊपरी आडम्बर से भक्ति नहीं होती मात्र समाज को धोखा देना है और स्वयम अपने अप से छल करना है ।
९०
मन मैला तन ऊजरा , बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला , तन मन एकहिं अंग ।।
जिस व्यक्ति का शरीर तो उजला है किन्तु मन मैला है अर्थात मन में पाप की गंदगी भरी हुई है वह बगुले के समान कपटी है उससे अच्छा तो कौवा ही है जिसका तन मन एक जैसा है । ऊपर से सज्जन दिखायी देने वाले और अन्दर से कपट स्वभाव रखने वाले व्यक्तियों से सदा सावधान रहना चाहिए ।
९१
शीलवन्त सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ।।
सद्गुरु की सेवा करने वाले शीलवान , ज्ञानवान और उदार ह्रदय वाले होते हैं और लज्जावान बहुत ही निश्छल स्वभाव और कोमल वाले होते है ।
९२
कबीर गुरु सबको चहै , गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ।।
कबीर जी कहते है कि सबको कल्याण करने के लिए गुरु सबको चाहते है किन्तु गुरु को अज्ञानी लोग नहीं चाहते क्योंकि जब तक मायारूपी शरीर से मोह है तह तक प्राणी सच्चा दास नहीं हो सकता ।
९३
भक्ति कठिन अति दुर्लभ , भेश सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जानै सब कोय ।।
सच्ची भक्ति का मार्ग अत्यन्त कठिन है । भक्ति मार्ग पर चलने वाले को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु भक्ति का वेष धारण करना बहुत ही आसान है । भक्ति साधना और वेष धारण करने में बहुत अन्तर है । भक्ति करने के लिए ध्यान एकाग्र होना आवश्यक है जबकि वेष बाहर का आडम्बर है ।
९४
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जो रुचै , शीश देय ले जाय ।।
कबीर जी कहते है कि प्रेम की फसल खेतों में नहीं उपजती और न ही बाजारों में बिकती है अर्थात यह व्यापार करने वाली वास्तु नहीं है । प्रेम नामक अमृत राजा रैंक, अमीर – गरीब जिस किसी को रुच कर लगे अपना शीश देकर बदले में ले ।
९५
साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द ।
तृषा गई एक बून्द से, क्या ले करो समुन्द ।।
साधु सन्त एवम ज्ञानी महात्मा को समुद्र की सीप के समान जानो और सद्गुरु को स्वाती नक्षत्र की अनमोल पानी की बूंद जानो जिसकी एक बूंद से ही सारी प्यास मिट गई फिर समुद्र के निकट जाने का क्या प्रयोजन । सद्गुरु के ज्ञान उपदेश से मन की सारी प्यास मिट जाती है ।
९६
आठ पहर चौसंठ घड़ी , लगी रहे अनुराग ।
हिरदै पलक न बीसरें, तब सांचा बैराग ।।
आठ प्रहर और चौसंठ घड़ी सद्गुरु के प्रेम में मग्न रहो अर्थ यह कि उठते बैठते, सोते जागते हर समय उनका ध्यान करो । अपने मन रूपी मन्दिर से एक पल के लिए भी अलग न करो तभी सच्चा बैराग्य है ।
९७
सुमिरण की सुधि यौ करो, जैसे कामी काम ।
एक पल बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम ।।
सुमिरण करने का उपाय बहुत ही सरल है किन्तु मन को एकाग्र करके उसमें लगाना अत्यन्त कठिन है । जिस तरह कामी पुरुष का मन हर समय विषय वासनाओं में लगा रहता है उसी तरह सुमिरण करने के लिए ध्यान करो । एक पल भी व्यर्थ नष्ट मत करो । सुबह , शाम, रात आठों पहर सुमिरण करो ।
९८
सुमिरण की सुधि यौ करो, ज्यौं गागर पनिहारि ।
हालै डीलै सुरति में, कहैं कबीर बिचारी ।।
संत कबीर जी सुमिरण करने की विधि बताते हुए कहते है कि सुमिरन इस प्रकार करो जैसे पनिहार न अपनी गागर का करती है । गागर को जल से भरकर अपने सिर पर रखकर चलती है । उसका समूचा शरीर हिलता डुलता है किन्तु वह पानी को छलकने नहीं देती अर्थात हर पल उसे गागर का ध्यान रहता है उसी प्रकार भक्तों को सदैव सुमिरण करना चाहिए ।
९९
सुरति फंसी संसार में , ताते परिगो चूर ।
सुरति बांधि स्थिर करो, आठों पहर हजूर ।।
चंचल मन की वृत्ति संसार के विषय भोग रूपी मोह में फंसी हो तो सद्गुरु परमात्मा से दूरी हो जाती है । यदि संयम धारण करके मन को स्थिर कर आत्म स्वरुप में लगा दिया जाये तो वह आठों पहर उपस्थित रहेगा । मन को एकाग्र करके सद्गुरु के नाम का प्रतिक्षण सुमिरन करते रहना चाहिए । यही मोक्ष का उत्तम मार्ग है ।
१००
माला फेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय ।
गुरु चरनन चित रखिये, तो अमरापुर जोय ।।
माला फेरने से क्या होता है जब तक हृदय में बंधी गाठ को आप नहीं खोलेंगे । मन की गांठ खोलकर, हृदय को शुध्द करके पवित्र भाव से सदगुरू के श्री चरणों का ध्यान करो । सुमिरन करने से अमर पदवी प्राप्ति होगी ।
१०१
चतुराई क्या कीजिए, जो नहिं शब्द समाय ।
कोटिक गुन सूवा पढै, अन्त बिलाई जाय ।।
वह चतुराई हि किस अर्थ की जब सदगुरू के सदज्ञान के उपदेश ही हृदय में नहीं समाते । उस प्रवचन का क्या लाभ ? जिस प्रकार करोडो की बात तोता सोख्ता पढता है परन्तु अवसर मिलते ही बिल्ली उसी (तोते को) खा जाती है । ठीक उसी प्रकार सदगुरू हो ज्ञानंरुपी प्रवचन सुनकर भी अज्ञानी मनुष्य यूं ही तोते की भांति मर जाते हैं ।
१०२
साधु आवत देखि के, मन में कर मरोर ।
सो तो होसी चुहरा, बसै गांव की ओर ।।
साधु को आता हुआ देखकर जिस व्यक्ति के मन मरोड उठती है अर्थात साधु जन का आगमन भार स्वरूप प्रतीत (महसूस) होता है, वह अगले जन्म में चुडे चान्दाल का जन्म पायेगा और गांव के किनारे जाकर रहेगा । सन्तों से उसकी भेंट नहीं होगी ।
१०३
तन को जोगी सब करै, मन को करै ल कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ।।
ऊपरी आवरण धारण करके हर कोई योगी बन सकता है किन्तु मन की चंचलता को संयमित करके कोई योगी नहीं बनता । यदि मन को संयमित करके योगी बने तो सहजरूप में उसे समस्त सिद्धीयां प्राप्त हो जायेंगी ।
१०४
मांग गये सो मर रहे, मरै जु मांगन जांहि ।
तिनतैं पहले वे मरे, होत करत है नाहिं ।।
जो किसी के घर कुछ मांगने गया, समझो वह मर गया और जो मांगने जायेगा किन्तु उनसे पहले वह मर गया जो होते हुए भी कहता है कि मेरे पास नहीं है ।
१०५
कबीर कुल सोई भला, जा कुल उपजै दास ।
जा कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास ।।
कबीर दास जो कहते हैं की उस कुल में उत्पन्न होना अति उतम है जिस कुल में गुरु भक्त और शिष्य उत्पन्न हुए हों किन्तु जिस कुल में भक्त उत्पन्न नहीं होता उस कुल में जन्म लेना मदार और पलास के पेड के समान निरर्थक है ।
१०६
पढि पढि के पत्थर भये, लिखि भये जुईंट ।
कबीर अन्तर प्रेम का लागी नेक न छींट ।।
कबीर जी ज्ञान का सन्देश देते हुए कहते हैं कि बहुत अधिक पढकर लोक पत्थर के समान और लिख लिखकर ईंट के समान अति कठोर हो जाते हैं । उनके हृदय में प्रेम की छींट भी नहीं लगी अर्थात् ‘प्रेम’ शब्द का अभिप्राय ही न जान सके जिस कारण वे सच्चे मनुष्य न बन सके ।
१०७
शब्द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय ।
ओरन को शीतल करे, आपन को सुख होय ।।
ऐसी वाणी बोलिए जिसमें अहंकार का नाम न हो और आपकी वाणी सुनकर दुसरे लोग भी पुलकित हो जाँ तथा अपने मन को भी शान्ति प्राप्त हो ।
१०८
जंत्र मंत्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय ।
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय ।।
जंत्र मंत्र का आडम्बर सब झूठ है, इसके चक्कर में पडकर अपना जीवन व्यर्थ न गँवाये । गूढ ज्ञान के बिना कौवा कदापि हंस नहीं बन सकता । अर्थातः- दुर्गुण से परिपूर्ण आज्ञानी लोग कभी ज्ञानवान नहीं बन सकते ।
१०९
मन मोटा मन पातरा, मन पानी मन लाय ।
मन के जैसी ऊपजै, तैसे ही हवै जाय ।।
यह मन रुपी भौरा कहीं बहुत अधिक बलवान बन जाता है तो कहीं अत्यन्त सरल बन जाता है । कहीं पानी के समान शीतल तो कहीं अग्नि के समान क्रोधी बन जाता है अर्थात जैसी इच्छा मन में उपजत हैं, यह वैसी ही रूप में परिवर्तित हो जाता हैं ।
११०
कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग ।
पुरी किनहूं न भोगिया, इसका यही यही बिजोग ।।
कबीर जो कहते हैं कि यह माया पापिनी है । इसने लोगों पर लोभ का परदा डालकर अपने वश में कर रखा है । इसे कोई भी पुरी तऱ्ह भोग नहीं पाया अर्थात जिसने जितना भी भोगा वह अधुरा ही रह गया और यही इसका वियोग है ।
१११
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान ।
कबीर मूरख पंडिता, दोनो एक समान ।।
संत शिरोमणी काबीर जी मूर्ख और ज्ञानी के विषय में कहते हैं कि जब तक काम, क्रोध, मद एवम् लोभ आदि दुर्गुण मनुष्य के हृदय में भरा है तब तक मूर्ख और पंडित (ज्ञानी) दोनों एक समान है । उपरोक्त दुर्गुणों को अपने हृदय से निकालकर जो भक्ति ज्ञान का अवलम्बन करता है वही सच्चा ज्ञानी है।
११२
झूठा सब संसार है, कोऊ न अपना मीत ।
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत ।।
यह छल कपट, मोह, विषय आदि सब झूठे हैं । यहाँ पर सभी स्वार्थीं है कोई अपना मित्र नहीं है । जिसने राम नाम रुपी अविनाशी परमात्मा को जान लिया वह भवसागर से पार होकर परमपद को प्राप्त होगा । यही परम सत्य है ।
११३
बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर ।
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर ।।
वृक्ष अपने फल को स्वयं नही खाते, नदी अपना जल कभी नहीं पीती । ये सदैव दुसरो की सेवा करके प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार संतों का जीवन परमार्थ के लिए होता है अर्थात् दुसरो का कल्याण करने के लिए शरीर धारण किया है ।
११४
आंखों देखा घी भला, ना मुख मेला तेल ।
साधु सों झगडा भला, ना साकट सों मेल ।।
आँखों से देखा हुआ घी दर्शन मात्र भी अच्छा होता है किन्तु तेल तो मुख में डाला हुआ भी अच्छा नहीं होता । ठीक इसी तऱह साधु जनों से झगडा कर लेना अच्छा है किन्तु बुद्धिहीन से मिलाप करना उचित नहीं है ।
११५
साधु बिरछ स्त ज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहीं, जर मरता संसार ।।
साधु जन सुख प्रदान करने वाले वृक्ष के समान है और उनके सत्यज्ञान को अमृतमयी फल समझकर ग्रहण करो । सधुओं के शीतल शब्द, मधुर विचार हैं । यदि इस संसार में साधु समझकर नहीं होते तो संसार अज्ञान की अग्नि में जल मरता ।
११६
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तबही गये, जबहिं कहा कछु देह ।।
अपनी आन चली गई, यान सम्मान भी गया और आँखों से प्रेम की भावना चली गयी । ये तीनों तब चले गये जब कहा कि कुछ दे दो अर्थात आप जब कभी किसी से कुछ माँगोगे । अर्थात् भिक्षा माँगना अपनी दृष्टी से स्वयं को गिराना है अतः भिक्षा माँगने जैसा त्याज्य कार्य कदापि न करो ।
११७
कबीर संगत साधु कि, नित प्रिती कीजै जाय ।
दुरमति दूर बहावासी, देसी सुमति बताय ।।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन लोगों की संगत में प्रतिदिन जाना चाहिए । उनके सत्संग से र्दुबुद्धि दूर हो जाता है और सद्ज्ञान प्राप्त होता है ।
११८
कागा कोका धन हरै, कोयल काको देत ।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत ।।
कौवा किसी का धन नहीं छीनता और न कोयल किसी को कुछ देती है किन्तु कोयल कि मधुर बोली सबको प्रिय लगती है । उसी तरह आप कोयल के समान अपनी वाणी में मिठास का समावेश करके संसार को अपना बना लो ।
११९
कर्म फंद जग फांदिया, जबतब पूजा ध्यान ।
जाहि शब्द ते मुक्ति होय, सो न परा पहिचान ।।
कर्म के फंदे में फसे हुए संसार लोक भोग विलास एवम् कामनाओं के वशी भूत होकर जब तब पूजा पाठ करना भूल गये है किन्तु जिस सत्य स्वरूप ज्ञान से मोक्ष प्राप्त हो है उसे पहचान कि नही सके ।
१२०
राजपाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पडोसी की जो दशा, सो अपनी जान ।।
राज पाट सुख सम्पत्ती पाकर तू क्यों अभिमान करता है । मोहरूपी यह अभिमान झूठा और दारूण दुःख देणे वाला है । तेरे पडोसी जो दशा हुई वही तेरी भी दशा होगी अर्थात् मृत्यु अटल सत्य है । एक दिन तुम्हें भी मरना है फिर अभिमान कैसा ?
१२१
कहा भरोसा देह, बिनसी जाय छिन मांहि ।
सांस सांस सुमिरन करो और जतन कछु नाहिं ।।
एस नश्वर शरीर का क्या भरोसा, क्षण मात्र में नष्ट हो सकता है अर्थात एक पल में क्या हो जाय, कोई भरोसा नहीं । यह विचार कर हर सांस मे सत्गुरू का सुमिरन करो । यही एकपात्र उपाय है ।
१२२
जिनके नाम निशान है, तिन अटकावै कौन ।
पुरुष खजाना पाइया, मिटि गया आवा गौन ।।
जिस मनुष्य के जीवन मी सतगुरु के नाम का निशान है उन्हें रोक सकाने की भला किसमें सामर्थ्य है, वे परम पुरुष परमात्मा के ज्ञान रुपी भंडार को पाकर जन्म मरण के भवरूपी सागर से पार उतरकर परमपद को पाते है ।
१२३
बिना सीस का मिरग है, चहूं दिस चरने जाय ।
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखो तत्व लगाय ।।
मन रुपी मृग बिना सिर का है जो स्वच्छद रुपी से दूर दूर तक विचरण करता है । इस सद्गुरू के ज्ञान रुपी उपदेश की दोरी से बांधकर आत्म तत्व की साधन में लागाओ जो कि कल्याण का एक मात्र मार्ग है ।
१२४
सांच कहूं तो मारि हैं, झुठै जग पतियाय ।
यह जगकाली कूतरी, जो छेडै तो खाय ।।
संसार के प्राणियों के विषय में कबीर दास जी कहते हैं कि सत्य बोलने पर लोग मारने दौडते हैं और झुठ बोलने पर बडी आसानी से विश्वास कर लेते हैं । यह संसार काटने वाली काळी कुतिया के समान है जो इसे छेडता है उसे हि काट लेती है ।
१२५
सांचे को सांचा मिलै, अधिका बढै सनेह ।
झूठे को सांचा मिलै, तड दे टुटे नेह ।।
सत्य बोलने वाले को सत्य बोलने वाला मनुष्य मिलता है तो उन दोनों के मध्य अधिक प्रेम बढता है किन्तु झूठ बोलने वाले को जब सच्चा मनुष्य मिलता है तो प्रेम अतिशीघ्र टूट जाता है क्योंकि उनकी विचार धारायें विपरीत होती है ।
१२६
दीन गरीबी दीन को, दुंदुर को अभिमान ।
दुंदुर तो विष से भरा, दीन गरीबी जान ।।
सरळ हृद्य मनुष्य को दीनता, सरलता एवम् सादगी अत्यन्त प्रिय लगती है किन्तु उपद्रवी व्यक्ति अभिमान रुपी विष से भरा रहता है और विनम्र प्राणी अपनी सादगी को अति उत्तम समझता है ।
१२७
गुरु सों प्रीती निबाहिये, जेहि तत निबहै संत ।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत ।।
जिस प्रकार भी सम्भव हो गुरु से प्रेम का निर्वाह करना चाहिए और निष्काम भाव से गुरु की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए । प्रेम बिना वे दूर ही हैं । यदि प्रेम है तो वे सदैव तुम्हारे निकट रहेगें ।
१२८
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये, अरु इक इस ब्राहमण्ड ।।
सम्पूर्ण संसार में सद्गुरू के समान कोई अन्य नहीं है । सातों व्दीप और नौ खण्डों में ढूंढनें पर भी गुरु के समान कोई नहीं मिलेगा । गुरु हि सर्वश्रेष्ठ है । इसे सत्य जानो ।
१२९
सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्य एक परसंग ।
बरषै बादल प्रेम को, भिंजी गया सब अंग ।।
सद्गुरू ने मुझसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा जिसका वर्णन शब्दों में कर पाना अत्यन्त कठिन है । उनके हृद्य से प्रेम रुपी बादल उमड कर बरसने लगा और मेरा मनरूपी शरीर उस प्रेम वर्षा से भीगकर सराबोर हो गया ।
१३०
मांगन मरण समान है, तोहि दई में सीख ।
कहै कबीर समुझाय के, मति मांगै कोई भीख ।।
कबीर जी कहते है कि दुसरों हाथ फैलाना मृत्यु के समान है । यह शिक्षा ग्रहण के लो । जीवन मी कभी किसी से भिक्षा मत मांगो । भिक्षा मांगना बहुत अभ्रम कार्य है । प्राणी दुसरों कि निगाह में गिरता ही है स्वयं अपनी दृष्टि में पतित हो जाता है ।
१३१
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवान परमार थी, आदर भाव सहेत ।।
ज्ञानी व्यक्ति कभी अभिमानी नहीं होते । उनके हृद्य में सबके हित की भावना बसी रहती है और वे हर प्राणी से प्रेम का व्यवहार करते है । सदा सत्य का पालन करने वाले तथा परमार्थ होते हैं ।
१३२
नाम रसायन प्रेम रस, पीवन अधिक रसाल ।
कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कलाल ।।
संत कबीर जी कहते है कि सद्गुरू के ज्ञान का प्रेम रस पीनें में बहुत ही मधुर और स्वादिष्ट होता है किन्तु वह रस सभी को प्राप्त नहीं होता । जो इस प्राप्त करने के लिए अनेकों काठीनाइयो को सहन करते हुए आगे बढता है उसे हि प्राप्त होता है क्योंकि उसके बदले में सद्गुरू तुम्हारा शीश मांगते हैं अर्थात् अहंकार का पूर्ण रूप से त्याग करके सद्गुरू को अपना तन मन अर्पित कर दो ।
१३३
प्रेम पियाला सो पिये, शीश दच्छिना देय ।
लोभी शीश न दे सकै, नाम प्रेम का लेय ।।
प्रेम का प्याला वही प्रेमी पी सकता है जो गुरु को दक्षिणा स्वरूप अपना शीश काटकर अर्पित करने को सामर्थ्य रखता हो । कोई लोभी, संसारी कामना में लिप्त मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता वह केवल प्रेम का नाम लेता है । प्रेम कि वास्तविकता का ज्ञान उसे नहीं है ।
१३४
कबीर क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग ।
वांकू टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग ।।
संत स्वामी कबीर जो कहते हैं कि भूख उस कुतिया के समान है जो मनुष्य को स्थिर नहीं रहने देती । अतः भूख रुपी कुतिया के सामने रोटी का टुकडा डालकर शान्त कर दो तब स्थिर मन से सुमिरन करो
१३५
जिन गुरु जैसा जानिया , तिनको तैसा लाभ ।
ओसे प्यास न भागसी , जब लगि धसै न आस ।।
जिसे जैसा गुरु मिला उसे वैसा ही ज्ञान रूपी लाभ प्राप्त हुआ । जैसे ओस के चाटने से सभी प्यास नहीं बुझ सकती उसी प्रकार पूर्ण सद्गुरु के बिना सत्य ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता ।
१३६
कबीर संगी साधु का दल आया भरपूर ।
इन्द्रिन को मन बांधिया , या तन कीया घूर ।।
कबीर दस जी कहते हैं कि साधुओं का दल जिसें सद्गुण , सत्य, दया , क्षमा , विनय और ज्ञान वैराग्य कहते हैं , जब ह्रदय में उत्पन्न हुआ तो उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में करके शरीर का त्याग कर दिया । अर्थात वे यह भूल गये कि मै शरीर धारी हूं ।
१३७
हरिजन तो हारा भला , जीतन दे संसार ।
हारा तो हरिं सों मिले , जीता जम के द्वार ।।
संसारी लोग जिस जीत को जीत और जिस हार को हार समझते हैं हरि भक्त उनसे भिन्न हैं । सुमार्ग पर चलने वाले उस हार को उस जीत से अच्छा समझते हैं जो बुराई की ओर ले जाते हैं । संतों की विनम्र साधना रूपी हार संसार में सर्वोत्तम हैं ।
१३८
गाली ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच ।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ।।
गाली एक ऐसी है जिसका उच्चारण करने से कलह और क्लेश ही बढ़ता है । लड़ने मरने पर लोग उतारू हो जाते है । अतः इससे बचकर रहने में ही भलाई है । इससे हारकर जो चलता है वही ज्ञानवान हैं किन्तु जो गाली से लगाव रखता है वह अज्ञानी झगडे में फंसकर अत्यधिक दुःख पाता है ।
१३९
जो जल बाढे नाव में, घर में बाढै दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये , यही सयानों काम ।।
यदि नव में जल भरने लगे और घर में धन संपत्ति बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से उलीचना आरम्भ कर दो । दोनों हाथो से बाहर निकालों यही बुद्धिमानी का काम है अन्यथा डूब मरोगे । धन अधिक संग्रह करने से अहंकार उत्पन्न होता है जो पाप को जन्म देता है ।
१४०
कबीर पांच पखेरुआ , राखा पोश लगाय ।
एक जू आया पारधी , लगइया सबै उड़ाय ।।
सन्त शिरोमणि कबीर दस जी कहते है कि अपान, उदान , समान , व्यान और प्राण रूपी पांच पक्षियों को मनुष्य अन्न जल आदि पाल पोषकर सुरक्षित रखा किन्तु एक दिन काल रूपी शिकारी उड़ाकर अपने साथ ले गया अर्थात मृत्यु हो गयी ।
१४१
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव ।
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव ।।
अनमोल मनुष्य योनि के विषय में ज्ञान प्रदान करते हुए सन्त जी कहते है कि हे मानव ! यह मनुष्य योनि समस्त योनियों उत्तम योनि है और समय बीतता जा रहा है कब इसका अन्त आ जाये , कुछ नहीं पता । बार बार मानव जीवन नहीं मिलता अतः इसे व्यर्थ न गवाँओ । समय रहते हुए साधना करके जीवन का कल्याण करो । साधु संतों की संगति करो,सद्गुरु के ज्ञान का गुण गावो अर्थात भजन कीर्तन और ध्यान करो ।
१४२
बेटा जाये क्या हुआ , कहा बजावै थाल ।
आवन जावन होय रहा , ज्यों कीड़ी की नाल ।।
पुत्र के उत्पन्न होने पर लोग खुशियां मानते है ढोल बजवाते हैं । ऐसी ख़ुशी किस लिए । संसार में ऐसा आना जाना लगा ही रहता है जैसे चीटियों की कतार का आना जाना ।
१४३
सहकामी दीपक दसा , सीखै तेल निवास ।
कबीर हीरा सन्त जन , सहजै सदा प्रकाश ।।
विषय भोग में सदा लिप्त रहने वाले मनुष्यों की दशा जलते हुए उस दीपक के समान है जो अपने आधार रूप तेल को भी चूस लेता है जिससे वह जलता है ।कबीर दास जी कहते है कि सन्त लोग उस हीरे के समान है जिनका प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता । वे अपने ज्ञान के प्रकाश से जिज्ञासु के ह्रदय को प्रकाशित करते है ।
१४४
मोह सलिल की धार में, बहि गये गहिर गंभीर ।।
सूक्ष्म मछली सुरति है, चढ़ती उल्टी नीर ।।
मोहरूपी जल की तीव्र धारा में बड़े बड़े समझदार और वीर बह गये , इससे पार न पा सके । सूक्ष्म रूप से शरीर के अन्दर विद्यमान सुरति एक मछली की तरह है जो विपरीत दिशा ऊपर की ओर चढ़ती जाती है । इसकी साधना से सार तत्व रूपी ज्ञान की प्राप्ती होती है ।
१४५
गुरु को कीजै दण्डवत , कोटि कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान ।।
गुरु के चरणों में लेटकर दण्डवत और बार बार प्रणाम करो । गुरु की महिमा अपरम्पार है, जिस तरह कीड़ा भृंग को नहीं जानता किन्तु अपनी कुशलता से स्वयं को भृंग के समान बना लेता है उसी प्रकार गुरु भी अपने ज्ञान रूपी प्रकाश के प्रभाव से शिष्य को अपने सामान बना लेते है ।
१४६
सतगुरु मिले तो सब मिले , न तो मिला न कोय ।
मात पिता सूत बांधवा , ये तो घर घर होय ।।
कबीर दस जी कहते है की सद्गुरु मिले तो जानो सब कोई मिल गये , कुछ मिलने को शेष नहीं रहा । माता-पिता , भाई-बहन , बंधू बांधव तो घर घर में होते है । सांसरिक रिश्तों से सभी परिपूर्ण हैं । सद्गुरु की प्राप्ती सभी को नहीं होती ।
१४७
सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचातानि ।।
जो बिना मांगे सहज रूप से प्राप्त हो जाये वह दूध के समान है और जो मांगने पर प्राप्त हो वह पानी के समान है और किसी को कष्ट पहुंचाकर या दु:खी करके जो प्राप्त हो वह रक्त के समान है । उपरोक्त का निरूपण करते हुण कबीरदास जी कहते है ।
१४८
जो जागत सो सपन में , ज्यौं घट भीतर सांस ।
जो जन जाको भावता, सो जन ताके पास ।।
जिस प्रकार जो सांसे जाग्रत अवस्था में हैं वही सांसें सोते समय स्वप्न अवस्था में घट के अन्दर आता जाता है उसी प्राकर जो जिसका प्रेमी है, वह सदा उसी के पास रहता है । किसी भी अवस्था में दूर नहीं होता ।
१४९
जीवत कोय समुझै नहिं , मुवा न कह संदेस ।
तन मन से परिचय नहीं , ताको क्या उपदेश ।।
जीवित अवस्था में कोई ज्ञान का उपदेश और सत्य की बातें सुनता नहीं । मर जाने पर उन्हें कौन उपदेश देने जायेगा । जिसे अपने तन मन की सुधि ही नहीं है उसे उपदेश देने से क्या लाभ ?
१५०
शब्द सहारे बोलिये , शब्द के हाथ न पाव ।
एक शब्द औषधि करे , एक शब्द करे घाव ।।
मुख से जो भी बोलो, सम्भाल कर बोलो कहने का तात्पर्य यह कि जब भी बोलो सोच समझकर बोलो क्योंकि शब्द के हाथ पैर नहीं होते किन्तु इस शब्द के अनेकों रूप हैं। यही शब्द कहीं औषधि का कार्य करता है तो कहीं घाव पहूँचाता है अर्थात कटु शब्द दुःख देता है ।
१५१
यह तन कांचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ।।
यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े के समान है जिसे हम अपने साथ लिये फिरते है और काल रूपी पत्थर का एक ही धक्का लगा, मिटटी का शरीर रूपी घड़ा फुट गया । हाथ कुछ भी न लगा अर्थात सारा अहंकार बह गया । खाली हाथ रह गये ।
१५२
जिभ्या जिन बस में करी , तिन बस कियो जहान ।
नहिं तो औगुन उपजे, कहि सब संत सुजान ।।
जिन्होंने अपनी जिह्वा को वश में कर लिया , समझो सरे संसार को अपने वश में कर लिया क्योंकि जिसकी जिह्वा वश में नहीं है उसके अन्दर अनेकों अवगुण उत्पन्न होते है । ऐसा ज्ञानी जन और संतों का मत है ।
१५३
काल पाय जग उपजो , काल पाय सब जाय ।
काल पाय सब बिनसिहैं , काल काल कहं खाय ।।
काल के क्रमानुसार प्राणी की उत्पत्ति होती है और काल के अनुसार सब मिट जाते हैं । समय चक्र के अनुसार निश्चित रुप से नष्ट होना होगा क्योंकि काल से निर्मित वस्तु अन्ततः कालमें ही विलीन हो जाते हैं ।
१५४
काम काम सब कोय कहै , काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना , काम कहावै सोय ।।
काम शब्द का मुख से उच्चारण करना बहुत ही आसान है परन्तु काम की वास्तविकता को लोग नहीं पहचानते । उसके गूढ़ अर्थ को समझने का प्रयास नहीं करते । मन में जितनी भी विषय रूपी कल्पना है वे सभी मिलकर काम ही कहलाती हैं ।
१५५
बहुत जतन करि कीजिए , सब फल जाय न साय ।
कबीर संचै सूम धन , अन्त चोर लै जाय ।।
कबीरदास जी कहते है कि कठिन परिश्रम करके संग्रह किया गया धन अन्त में नष्ट हो जाता है जैसे कंजूस व्यक्ति जीवन भार पाई पाई करके धन जोड़ता है अन्त में उसे चोर चुरा ले जाता है अर्थात वह उस धन का उपयोग भी नहीं कर पाता ।
१५६
कबीर औंधी खोपड़ी , कबहूं धापै नाहिं ।
तीन लोक की संपदा कब आवै घर मांहि ।।
मनुष्य की यह उल्टी खोपड़ी कभी धन से तृप्त नहीं होती बल्कि जिसके पास जितना अधिक धन होता है उसकी प्यास उतनी ही बढती जाती है । लोभी व्यक्ति के मन में सदैव यही भावना होती है कि कब तीनों लोको की संपत्ति हमारे घर आयेगी ।
१५७
साधु ऐसा चाहिए , जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पडै छाडै नहीं , चढै चौगुना रंग ।।
साधु ऐसा होना चाहिए जिसका मन पूर्ण रूप से संतुष्ट हो । उसके सामने कैसा भी विकट परिस्थिति क्यों न आये किन्तु वह तनिक भी विचलित न हो बल्कि उस पर सत्य संकल्प का रंग और चढ़े अर्थात संकल्प शक्ति घटने के बजाय बढे ।
१५८
बहुता पानी निरमला , जो टुक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला , जो कुछ साधन होय ।।
बहता हुआ पानी निर्मल और स्वच्छ है किन्तु रुका हुआ पानी भी स्वच्छ हो सकता है यदि थोडा गहरा हो इसी तरह बैठे हुए साधु भी अच्छे हो सकते हैं यदि वे साधना की गहराई से परिपूर्ण हो अर्थात ध्यान भजन, पूजा पाठ का ज्ञान हो ।
१५९
साधु आवत देखि कर , हंसी हमारी देह ।
माथा का गहर उतरा , नैनन बढ़ा स्नेह ।।
साधु संतों को आता हुआ देखकर यदि हमारा मन प्रसन्नता से भार जाता है तो समझो हमारे सारे कुलक्षण दूर हो गये । साधु संतों की संगति बहुत बड़े भाग्यशाली को प्राप्त होती है ।
१६०
कबीर हरिरस बरसिया , गिरि परवत सिखराय ।
नीर निवानू ठाहरै , ना वह छापर डाय ।।
सन्त कबीर दस जी कहते है की चाहे वह परवत हो या ऊँचा नीचा धरातल अथवा समतल मैदान , बरसात हर स्थानों पर समान रूप से होती है किन्तु पानी हर स्थान पर नहीं ठहरता , गड्ढे या तालाबों में ही रुक सकता है उसी तरह सद्गुरु का ज्ञान प्रत्येक प्राणी के लिए होता है किन्तु सच्चे जिज्ञासु ही ग्रहण कर सकते है ।
१६१
गुरु बिन माला फेरते , गुरु बिन देते दान ।
गुरु बिन सब निष्फल गया , पूछौ वेद पुरान ।।
गुरु बिना माला फेरना पूजा पाठ करना और दान देना सब व्यर्थ चला जाता है चाहे वेद पुराणों में देख लो अर्थात गुरुं से ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई भी कार्य करना उचित नहीं है ।
१६२
क्यों नृपनारी निन्दिये , पनिहारी को मान ।
वह मांग संवारे पीवहित , नित वह सुमिरे राम ।।
राजाओं महाराजाओं की रानी की क्यों निन्दा होती है और हरि का भजन करने वाली की प्रशंसा क्यों होती है ? जरा इस पर विचार कीजिए । रानी तो अपने पति राजा को प्रसन्न करने के लिए नित्य श्रुंगार करके अपनी मांग सजाती है जबकि हरि भक्तिन घट घट व्यापी प्रभु राम नाम की सुमिरण करती है ।
१६३
साधु दर्शन महाफल , कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी , नगर शुद्ध करि लेह ।।
साधु संतों का दर्शन महान फलदायी होता है, इससे करोड़ो यज्ञों के करने से प्राप्त होने वाले पूण्य फलों के बराबर फल प्राप्त होता है । सन्तो का दर्शन , उनके दर्शन के प्रभाव से एक मन्दिर नहीं, बल्कि पूरा नगर पवित्र और शुद्ध हो जाता है । सन्तों के ज्ञान रूपी अमृत से अज्ञानता का अन्धकार नष्ट हो जाता है ।
१६४
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चुकि खाली पड़े , ताको वार न पार ।।
साधु को वैरागी और संसारी माया से विरक्त होना चाहिए और गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रही प्राणी को उदार चित्त होना चाहिए । यदि ये अपने अपने गुणों से चूक गये तो वे खाली रह जायेगे । उनका उद्धार नहीं होगा ।
१६५
माला तिलक तो भेष है, राम भक्ति कुछ और ।
कहैं कबीर जिन पहिरिया , पाँचो राखै ठौर ।।
माला पहनना और तिलक लगाना तो वेश धारण करना है, इसे वाह्य आडम्बर ही कहेंगे । राम भक्ति तो कुछ और ही है । राम नाम रूपी आन्तरिक माला धारण करता है, वह अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में करके राम माय हो जाता है ।
१६६
कबीर गुरु कै भावते , दुरही से दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना , जग से रूठी फिरन्त ।।
सन्त शिरोमणि कबीर दास जी कहते है कि सद्गुरु के लक्षण दूर से ही दिखायी देते है । उनके शरीर जप तप , त्याग तपस्या से दुर्बल और मन व्याकुल सा रहता है । उनका मन विषयों से दूर और संसार से रूठे हुए उदास अवस्था में घुमते रहते है । यही संतों की पहचान है अर्थात सांसरिक मोह से दूर रहते है ।
१६७
यह तो घर है प्रेम का ऊँचा अधिक इकंत ।
शीष काटी पग तर धरै , तब पैठे कोई सन्त ।।
यह प्रेम रूपी घर अधिक ऊँचा और एकांत में बना हुआ है । जो अपना सिर काटकर सद्गुरु के चरणों में अर्पित करने की सामर्थ्य रखता हो वही इसमें आकर बैठ सकता है अर्थात प्रेम के लिए उत्सर्ग की आवश्यकता होती है ।
१६८
सबै रसायन हम पिया , प्रेम समान न कोय ।
रंचन तन में संचरै , सब तन कंचन होय ।।
मैंने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा किन्तु प्रेम रसायन के समान कोइ नहीं मिला । प्रेम अमृत रसायन के अलौकिक स्वाद के सम्मुख सभी रसायनों का स्वाद फीका है । यह शरीर में थोड़ी मात्रा में भी प्रवेश कर जाये तो सम्पूर्ण शरीर शुद्ध सोने की तरह अद्भुत आभा से चमकने लगता है अर्थात शरीर शुद्ध हो जाता है ।
१६९
करता था तो क्यौं रहा, अब करि क्यौं पछताय ।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय ।।
जब तू बुरे कार्यो को करता था , संतों के समझाने पर भी नहीं समझा तो अब क्यों पछता रहा है । जब तूने काँटों वाले बबूल का पेड़ बोया तो बबूल ही उत्पन्न होंगें आम कहां से खायगा । अर्थात जो प्राणी जैसा करता है, कर्म के अनुसार ही उसे फल मिलता है ।
१७०
दुनिया के धोखें मुआ , चला कुटुम्ब की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है , जब ले धरा मसानि ।।
सम्पूर्ण संसार स्वार्थी है । स्वार्थ की धोखा धड़ी में ही जीव मरता रहा और संसारी माया के बंधनों में जकड़ा रहा । तुम्हारे कुल की लज्जा तब क्या रहेगी जब तुम्हारे शव को ले जाकर लोग शमशान में रख देंगे ।
१७१
अहिरन की चोरी करै , करे सुई का दान ।
उंचा चढी कर देखता , केतिक दूर विमान ।।
अज्ञानता में भटक रहे प्राणियों को सचेत करते हुए कबीरदास जी कहते है – ए अज्ञानियों । अहरन की चोरी करके सुई का दान करता है । इतना बड़ा अपराध करने के बाद भी तू ऊँचाई पर चढ़कर देखता है कि मेरे लिए स्वर्ग से आता हुआ विमान अभी कितना दूर है । यह अज्ञानता नहीं तो और क्या है ?
१७२
कोई आवै भाव लै , कोई अभाव ले आव ।
साधु दोऊ को पोषते , भाव न गिनै अभाव ।।
कोई व्यक्ति श्रद्धा और प्रेम भाव लेकर संतों के निकट जाता है तो कोई बिना भाव के जाता है । किन्तु संतजनों की दृष्टी में कोई अन्तर नहीं पड़ता वे दोनों को समान दृष्टी से देखते है । न तो वे किसी के प्रेम भाव को गिनते है और न ही अभाव को अर्थात अपनी दया दृष्टी से दोनों को पोषण करते हैं ।
१७३
रक्त छोड़ पय हो गहै , ज्यौरे गऊ का बच्छ ।
औगुण छांडै गुण गहै , ऐसा साधु का लच्छ ।।
गाय के थन में दूध और खून दोनों होता है किन्तु बछड़ा जब मुंह लगाता है तो वह खून नहीं पीता बल्कि सिर्फ दूध ही ग्रहण करता है ठीक ऐसे ही लक्षण से साधुजन परिपूर्ण होते हैं । वे दूसरों के अवगुणों को ग्रहण नहीं करते उनके सद्गुणों को ही धारण करते है ।
१७४
सब वन तो चन्दन नहीं , शुरा के दल नाहिं ।
सब समुद्र मोती नहीं , यों साधू जग माहिं ।।
सारा वन चन्दन नहीं होता, सभी दल शूरवीरों के नहीं होते, सारा समुद्र मोतियों से नहीं भरा होता इसी प्रकार संसार में ज्ञानवान विवेकी और सिद्ध पुरुष बहुत कम होते है ।
१७५
आसन तो एकान्त करै , कामिनी संगत दूर ।
शीतल संत शिरोमनी , उनका ऐसा नूर ।।
सन्तो का कहना है कि आसन एकान्त में लगाना चाहिए और स्त्री , की संगत से दूर रहना चाहिए । सन्तों का मधुर स्वभाव ऐसा होता है कि वे सबके पूज्य और शिरोमणि होते है ।
१७६
संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परसते , सो भी कंचन होय ।।
सन्तो के साथ रहना, उनके वचनों को ध्यानपूर्वक सुनना तथा उस पर अमल करना हितकारी होता है । सन्तों की संगति करने से फल अवश्य प्राप्त होता है जिस प्रकार पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है उसी प्रकार साधुओं के दिव्य प्रभाव से साधारण मनुष्य पूज्यनीय हो जाता है ।
१७७
छिनहिं चढै छिन उतरै , सों तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेमपिंजर बसै , प्रेम कहावै सोय ।।
वह प्रेम जो क्षण भर में चढ़ जाता है और दुसरे क्षण उतर जाता है वह कदापि सच्चा प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि सच्चे प्रेम का रंग तो इतना पक्का होता है कि एक बार चढ़ गया तो उतरता ही नहीं अर्थात प्रेम वह है जिसमें तन मन रम जाये ।
१७८
जब मै था तब गुरु नहीं , अब गुरु है मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समांही ।।
जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे , अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया । प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता ।
१७९
कबीर सुमिरण सार है , और सकल जंजाल ।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल ।।
संत कबीर जी कहते है की प्रभु का ध्यान सुमिरन , भजन, कीर्तन और आत्म चिन्तन ही परम सत्य है, बाकी सब झूठा है । आदि अन्त और मध्य के विषय में विचार करके सब देख लिया है । सुमिरन के अतिरिक्त बाकी सब काल के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं ।
१८०
कुल करनी के कारनै , हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है, चारिपांव का होय ।।
कुल की मर्यादा के मोह में पड़कर जीव पतित हो गया अन्यथा यह तो हंस स्वरुप था , किन्तु उसे भूलकर अदोगति में पड़ गया । उस समय का तनिक ध्यान करो जब चार पैरों वाला पशु बनकर आना होगा । तब कुल की मान मर्यादा क्या होगी ? अर्थात अभी समय है , शुभ कर्म करके अपनी मुक्ति क उपयोग करो ।
१८१
सार शब्द जानै बिना , जिन पर लै में जाय ।
काया माया थिर नहीं, शब्द लेहु अरथाय ।।
सार तत्व को जाने बिना यह जीव प्रलय रूपी मृत्यु चक्र में पड़कर अत्यधिक दुःख पाता है । मायारूपी धन संपत्ति और पंचत्तत्वों में मिल जायेगा और धन संपत्ति पर किसी अन्य का अधिकार हो जायेगा । अतः काया और माया का अर्थ जानकर उचित मार्ग अपनाये ।
१८२
क्रिया करै अंगूरी गिनै , मन धावै चहु ओर ।
जिहि फेरै सांई मिलै , सों भय काठ कठोर ।।
जप करते समय अंगुली पर जप की गणना करते है कि मैंने कितनी बार नाम पाठ किया किन्तु उस समय भी उनका चंचल मन चारों ओर दौड़ता है, स्थिर नहीं रहता । ऐसे सुमिरन से क्या लाभ ? जब तुम अपने मन रूपी मयूर को स्थिर नहीं रख सकते तप अविनाशी प्रभु रम के दर्शन की इच्छा कैसे करते हो? मन तो सुखी लकड़ी के समान कठोर हो गया है अर्थात प्रभु के दर्शनों के लिए मन को शुद्ध करना होगा तथा मन की चंचलता को रोकना होगा ।
१८३
यह मन ताको दीजिए, सांचा सेवक होय ।
सर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ।।
अपना सत्य ज्ञान रुपी अमृत उसको प्रदान करें जो सेवा करना जानता हो अर्थात् सच्चे सेवक को ज्ञान दें । यदि सिर के ऊपर आरा भी चलता है तो वह प्रसन्नपूर्वक सहन कर लें । तात्पर्य यह कि निष्ठापूर्वक सेवा करने वाले ही ज्ञान प्राप्त करने के पात्र है ।
१८४
तन मन ताको दीजिए, जाको विषय नाहिं ।
आपा सब ही डारि के, राखै साहिब मांहि ।।
अपना तन मन उस गुरु के चरणों में अर्पित करें जो संसारिक विषय विकारों से मुक्त हो । जो पूर्ण रूप से अहंकार मुक्त और आत्मतत्व का ज्ञाता हो । ऐसे गुरु ही आत्म साक्षात्कार कैरा सकते है ।
१८५
अधिक सनेही माछरी, दूजा अपल सनेह ।
जबहि जलते बिछुरै, तब ही त्यागै देह ।।
मछली का बहुत अधिक प्रेम जल से होता है ।
उसके समान प्रेमी कम ही मिलते हैं ।
मछली जब भी जल से बिछुडती है, वह तडप तडप कर जल के लिए अपने प्राण त्याग देती है । ठीक मछली की भांति सच्चा प्रेम करना चाहिए ।
१८६
सुमिरण मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय ।
सांस सांस सुमिरण करूं, इक दिन मिलसी आय ।।
सुमरीन करने का बहुत ही सरल मार्ग सद्गुरू ने बता दिया है । उसी मार्ग पर चलते हुए मैं सांस सांस में परमात्मा का सुमिरन करता हूं जिससे मुझे एक दिन उनके दर्शन निश्चित ही प्राप्त होगें । अर्थात् सुमिरन प्रतिदिन की साधना हैं जो भक्त को उसके लक्ष्य की प्राप्ति करती है ।
१८७
बिना सांच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति न सोय ।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय ।।
बिना सत्य ज्ञान के सुमिरन नहीं होता, बिना गुरु के भक्ति नहीं होती अर्थात् सद्गुरू के बिना सार रहस्य कौन बताये और बताये जब तक सार रहस्य का ज्ञान नहीं होता सुमिरन करना निरर्थक है जैसे पारसमणि पर परदा पडा है तो उसके स्पर्श से लोहा कदापि सोना नहीं बन सकता । वह परदा ही दोष है उसी प्रकार यदि मन में, ज्ञान का अभाव है तो साधना सफल नहीं हो सकता ।
१८८
ऊजल पाहिनै कपडा, पान सुपारी खाय ।
कबीर गुरु की भक्ति बिन, बांधा जमपूर जाय ।।
सफेद रंग के सुन्दर कपडे पहनना और पान सुपारी खाना, यह पहनावा और दर्शन व्यर्थ है संत कबीर दास जी कहते हैं कि जो प्राणी सद्गुरू की भक्ति नहीं करता और विषय वासनाओं में लिप्त रहता है उसे यमदूत अपने पाशों नरक रुपी यातनाएँ सहना होता है ।
१८९
बालपन भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृध्दपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ।।
बाल्यकाल भोलेपन में व्यतीत हो गया अर्थात् अनजान अवस्था में बीत गया युवावस्था आयी तो विषय वासनाओं में गुजार दिया तथा वृद्धावस्था आई तो आलस में बीत गयी और अन्त समय में मृत्यु हो गयी और शरीर चिता पर जलने के लिए तैयार है ।
१९०
भक्ति बिगाडी कामिया, इन्द्रीन केरे स्वाद ।
हीरा खोया हाथ सों, जन्म गंवाया बाद ।।
विषय भोगों के चक्कर में पडकर कामी मूर्ख मनुष्यों ने इन्द्रीयों को अपने वश में नहीं किया और सर्वहित साधन रूपी भक्ति को बिगाड दिया अर्थात् अनमोल हीरे को गंवाकर सारा जीवन व्यर्थ में गुजार दिया ।
१९१
जनोता बूझा नहीं, बुझि किया नहीं गौन ।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावै कौन ।।
जो सद्गुरू की शरण में पहुँचे कर भी सन्मार्ग पर नहीं चला । कल्याण का मार्ग सन्मुख होते हुए भी आगे नहीं बढा अर्थात् जान बूझकर उसने भूल कि उसके बाद ऐसे व्यक्ति से मिला जो स्वयं अज्ञानी था । तो फिर मार्ग कौन बताये क्योंकि दोनों अंधकार रुपी अंधेपन के कारण भटक रहे थे ।
१९२
आगे अन्धा कूप इस्तरी, दूजा लिया बुलाय ।
दोनों डुबे बापुरे, निकसे कौन उपाय ।।
अज्ञानता के अंधकार में भटकता हुआ गुरु भ्रमकूप मे स्वयं तो पडा ही था अपने शिष्य को भी बुला लिया और दोनो भ्रम कूप में डूब गये । उनके बाहर निकलने का कोई उपाय ही नहीं है । ऐसे गुरु और शिष्य का कभी कल्याण ही नहीं हो सकता । ये सदैव भौतिक पाया पोह के बन्धन में रहेगे । उबर नहीं सकते ।
१९३
मात पिता सुत इस्तरी, आलस बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलै, ये अटकावै खानि ।।
जब आप साधु संतों का दर्शन प्राप्त करने कि इच्छा से चलने को तैयार होंगे उस समय माता-पिता, पुत्र-स्त्री, भाई आदि तुम्हें रोकेंगे । ये माया मोह रुपी रिश्ते ही सबसे बडे बाधक है ।
१९४
दुख सुख एक समान है, हरश शोक नहीं व्याप ।
उपकारी निह कामता, उपजै छोह न ताप ।।
सन्त जन सदैव एक समान राहते हैं, उनके लिए सुख-दुख, शोक सन्ताप और प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं है । उपरोक्त व्यथा से रहित साधुजन सदा दुसरों का उपकार करते हैं और स्वयं निष्काम होते हैं । उनके हृद्य में कभी क्रोध का वास नहीं होता । साधुजनों का हृद्य शीतल और मन निर्मल होता है ।
१९५
बहता पानी निरमला, बन्धा गन्दा होय ।
साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय ।
निरन्तर भटा हुआ जल स्वच्छ होय है किन्तु एक स्थान पर रूपा हुआ जल गन्दा होता है । ठीक इसी प्रकार सन्तों की ज्ञान वाणी जितनी तीव्रता से प्रवाहित होती है उतना ही जन कल्याण होता है और विचरण करते हुए उन्हें मोह रुपी दोष कलुषित ।
१९६
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
ये ते लक्षण साधु के, कहै कबीर सदभाव ।।
दया, विनम्रता, बन्दगी और शील, सत्यभाव आदि सन्तों के शुभ लक्षण हैं । इन सुखदायी लक्षणों के कारण के कारण ही सन्तजन सर्वत्र पूज्यनीय होते हैं ।
१९७
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पडे काल के फंस ।।
चाल तो बुगले की चलते हैं और स्वयं को हंस कहलाना पसंद करते हैं । ऐसे अज्ञानी भला किस तरह ज्ञान रुपी मोती को चुग सकेगें । इस तरह के प्राणी अज्ञान रुपी अंधकार में फंसकर सदा जीवन-मरण के चक्कर में उलझे रहेंगे । उनकी मुक्ति नहीं हो सकती ।
१९८
दर्शन को तो साधु हैं, सुमिरन को गुरु नाम ।
तरने को आधीनता, डूबन को अभिमान ।।
दर्शन के लिए साधु सन्तों का दर्शन उत्तम माना जाता है और चिन्तन के लिए गुरु व्दारा बताये गये नाम-मंत्र का जप । इस संसार रूपी भव से पार उतरने के लिए विनम्र होना अति आवश्यक है और डूब मरणे के लिए अहंकार । अहंकार वह कटू चीज है जिसने बडे बडे महाराथियों को गर्त में मिला दिया ।
१९९
कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजाये ढोल ।
श्वास खाली जात है, तीन लोक का मोल ।।
संसारी मनुष्यों को सचेत करते हुए कबीर दास जी कहते है को ढोल पीट पीट कर कहता हूं, सद्गुरू के सुमिरन के बिना प्रत्येक श्वास खाली जा रही है । इसका सदुपयोग करो । सुमिरन करो, बिना सुमिरन के जीवन व्यर्थ है । जो समय बीता जा रहा है, जो सांसें पुरी हो रही हैं वी पुनः लौटकर नहीं आयेगी । अब भी समय है । ध्यान दो और सुमिरन करो ।
२००
जाकी पूंजी सांस है, छिन आवै दिन जाय ।
ताको ऐसा चाहिए, रहे नाम लौ लग्न ।।
जिसका अनमोल धन श्वास है जिन्हें भली प्रकार ज्ञात है कि यह क्षण में आती है और दुसरे क्षण चली जाती है उसे प्रतिपल सावधान रहना चाहिए तथा परमात्मा के नाम का सुमिरन करना चाहिए अर्थात् मृत्यु कब आ जाये यह किसी को ज्ञान नहीं है किन्तु मृत्यु से पूर्व यदि आपने परमात्मा का ध्यान भजन किया है तो आपका निश्चित रूप से कल्याण होगा ।
२०१
मांगन का भल बोलनो, चोर न को भल चूप ।
माली को भल बरसनो, धोबी को भल धूप ।।
जो भिक्षा माँगता है उसके किए बोलना अच्छा है क्योंकि बोलने से ही उसे भिक्षा मिलेगी । चोरो के लिए चूप रहना अच्छा है, यदि वह भूलवश भी बोल दिया तो पकडा जायेगा । माली जो पुष्प वाटिका लगाता है उसके लिए वर्षा अच्छी है और धोबी के लिए धूप अच्छी है ।
२०२
काम क्रोध तृष्णा तजै, तजै मान अपमान ।
सद्गुरू दाया जाहि पर, जम सिर मरदेमान।।
काम, क्रोध, मद, लोभ, आदि का मन से त्याग करके जो प्राणी सद्गुरू के बताये हुए मार्ग पर चलता है । मान अपमान से रहित होकर गुरु की सेवा करता है और उनके बच्चो का पालन करता है, ऐसे प्राणी मृत्यु तक को जीतने मे समर्थ हो जाते है ।
२०३
कबीर मन्दिर लाख का, जडिया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायेगा काल ।।
संत कबीर जी कहते है कि यह शरीर लाख के बने हुए मन्दिर के समान है जिसमें गुणरूपी हीरे, पन्ने और लाल जडे हुए है जिस कारण अत्यन्त सुन्दर लगता है किन्तु इसका दिखावा कुछ दिनों का ही है । अन्त में काल कवलित होकर नष्ट हो जायेगा ।
२०४
साधू भुखा भाव का, धन का भूखा नाहिं ।
धन का भुखा जो फिरै, सो ती साधू नाहिं ।।
साधू संत प्रेम रुपी भाव के भूखे होते है, उन्हें धन की अभिलाषा नहीं होती किन्तु जो धन के भिखे होते हैं । जिसके मन में धन प्राप्त करने कि इच्छा होती है वे वास्तव में साधु है ही नहीं ।
२०५
कुलवंता कोटिक मिले, पंडित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनही में, तुलै न काहू शीश ।।
उत्तम कुल में उत्पन्न चाहे करोडो व्यक्ति मिले और शास्त्र आदि के ज्ञानि विव्दान चाहे पचीस करोड मिले परन्तु भक्त चाहे भंगी ही क्यों न हो, उसके पैर के जूते में किसी का सिर नहीं तुल सकता तात्पर्य यह कि भक्ति की महिमा के सामने सभी तुच्छ है ।
२०६
घर में रहै तो तो भक्ति करू, नातर करूं बैराग ।
बैरागी बन्धन करें, ताकाबडा अभाग ।।
घर में रहकर साधु सन्तों की सेवा और भक्ति करना चाहिए अन्यथा घर का त्याग करके बैराग्य जीवन बिताना चाहिए । जो बैरागी होकर भी संसारिक माया बन्धनों में जकडा रहता है उसका बहुत बडा दुर्भाग्य है ।
२०७
कोटिन चन्दा उगहीं, सूरज कोटि हजार ।
तीमिर तो नाश नहीं, बिन गुरु वीर अंधार ।।
करोड़ चन्द्रमा उदित हो जाय, करोडो सूर्य अपना प्रकाश फैलायें किन्तु हृदय के अज्ञान रुपी अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश नहीं के सकते । हृदय के अन्धकार को गुरु ही मिटा सकता है । गुरु ज्ञान के बिना चारों और अंधेरा छाया रहता है ।
२०८
साधु आया पाहुना, मांगै चार रतन ।
धुनी पानी साथरा, सरधा सेती अन ।।
सन्तजन रिश्तेदारों की तरह आते हैं और भक्तों से धूप दीप, जल आसन और श्रद्धा रुपी चार रत्नों की मांगे करतै हैं और सेवक को यह सर्वथा उचित हैं कि गुरु के आगमन पर श्रद्धा एवम् भक्ति पूर्वक उनका सत्कार करे ।
२०९
साधु बडे परमारथी, घर ज्यों बरसे आय ।
तपन बूझावैं और की, अपनो पारस लाय ।।
साधु सदैव परमारथ करते हैं अर्थात् परोपकारी होते है जिस प्रकार बादल पानी बरसाकर अनेकों प्राणियों की प्यास बुझाते हैं उसी तरह साधुजन अपने ज्ञान रुपू जल की वर्षा करके सबको तृत्प करते हो और अपने स्पर्श से सुख प्रदान करते हैं ।
२१०
मथुरा काशी व्दारिका हरीव्दार जगन्नाथ ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ ।।
मथुरा, काशी, व्दारिकापुरी, हरीव्दार और जगन्नाथ आदि प्रसिध्द तीर्थ स्थलों पर भ्रमण करने से कुछ नहीं होता । जब तक साधु जनों कि सत्सगंति नही प्राप्त होगी, प्रभू के नाम का ध्यान भजन नहीं करोगें तब तक कुछ भी हाथ नहीं आयेगा । तुम्हारा भ्रमण करना व्यर्थ होगा ।
२११
कबीर संगतिसाधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल विराछ चन्दन भये, बास न चन्दन होय ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि साधु जनों की संगति करने वाला ही उनके गुण को जानता है ठीक उसी प्रकार जैसे चन्दन वृक्ष के निकट यासे सभी वृक्ष चन्दन के हो जाते है किन्तु वांस का पेड़ चन्दन नहीं होता क्यों कि वह अन्दर से खोखला और ऊपर से कठोर होता हैं अर्थात् जो अभिमान होते हैं उन पर सत्संग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
२१२
माला फेरत युग गया, मिटा ना मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मन का फेर ।।
हाथ में मला लेकर फेरते हुए युग व्यतीत हो गया फिर भी मन की चंचलता और संसारिक विषय रुपी मोह भंग नहीं हुआ । कबीर दास जी संसारिक प्राणियों को चेतावनी देते हुए कहते है- हे अज्ञानियों हाथ में जो माला लेकर फिरा रहे हो, उसे फेंक कर सर्वप्रथम अपने हृदय की शुध्द करो और एकाग्र चित्त होकार प्रभु का ध्यान करो ।
२१३
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार ।
औसर मानुष जनम का, बहुरि न बारंबार ।।
सदगुरू के भक्तों को बन्दगी करने प्रेरणा देते हुए संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि सद्गुरू की सेवा और बन्दगी कर तभी तुझे आत्म दर्शन का ज्ञान प्राप्त होगा । मनुष्य जीवन बार बार नहीं मिलता समस्त योनियों में मानव योनि सर्वश्रेष्ठ है जो काठिन परिश्रम और सौभाग्य से मिलता है अतः उसे व्यर्थ न गवा । सद्गुरू का ध्यान के जिससे कल्याण होगा । कल्याण का अन्य कोई मार्ग नहीं है ।
२१४
यह तन कांचा कुंभ है, छोट चाहें दिस खाय ।
एकाहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ।।
यह शरीर मिट्टी के बने हुए कच्चे घडे के समान है जो चारों ओर से चोट खाता है अर्थात दुःख, व्याधि रुपी चोट से सदैव पीडित रहता है । मात्र सद्गुरू के नाम का सुमिरन न करने के कारण एस पर अनेक विपत्तियॅा आ रही हैं अन्यथा इसकी ऐसी दुर्दशा न होती । यह एक न एक दिन नष्ट हो जायेगा ।
२१५
जब मन लागा लोभ सों, गया विषय में भोय ।
कहैं कबीर विचारि के, केहि प्रकार धन होय ।।
संसारिक प्राणियों में ज्ञान वितरित करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि जब मानव धन संपत्ति के लोभ में पड़ जाता है तो विषयों के चक्कर में पड़ कर स्वयं के भूल जाता है अर्थात उसे उचित अनुचि, अन्धकार, ज्ञान-अज्ञान कुछ भी दिखायी नहीं देता । हर घडी उसे धन संग्रह की चिन्ता बनी रहती है ।
२१६
कबीर चंदन पर जला, तीतर बैठा मांहि ।
हम तो दाझत पंख बिन, तुम दा जत हो काहि ।
संत कबीर जी कहते हैं कि चंदन के वृक्ष में आग लग गयी, उसी समय एक तीतर पक्षी उस वृक्ष पर आकर बैठ गया तब वृक्ष ने कहा- हे तीतर । हम तो इसलिए जलते हैं कि हम पंखहीन है अर्थात हमारे पास पंख नहीं है इस लिएजलते हैं किन्तु तुम्हारे पास तो पंख है तुम तो उड़ सकते हो फिर क्यों जलते हो ?
२१७
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत कि खान ।
सीस दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।
यह शरीर विष युक्त बेल के समान है । इसमें संसारिक विषयरुपी विष भर हुआ है किन्तु गुरु तो अमृत कि खान है अर्थात वे विषय विकार से रहित हैं । एसे सद्गुरू यदि शीश अर्पित करने पर भी मिल जाये तो समझो यह सौदा बहुत ही सस्ता है ।
२१८
गुरु नारायन रूप है, गुरु ज्ञान को घाट ।
सतगुरु बचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट ।।
गुरु को साक्षात परमेश्वर का रूप जानों और संसारिक विषयों से मुक्ति प्रदान करने वाला गुरुज्ञान, सरोवर का घाट है । ऐसे गुरु के वाचनों से मन का सारा सन्देह, सारा कलेश मिट जाता है तथा हृदय शान्त हो जाता है ।
२१९
गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दानवे ।
दोनों बूडे बापुरे, चढीपाथर की नांव ।।
जहां गुरु लोभी स्वभाव का हो और शिष्य लालची हो और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कपट का दांव खेलते को उनका कल्याण कदापि नहीं हो सकता । वे दोनों अज्ञान रुपी पत्थत की नौका सवार होकर भव सागर में डूब मरेंगे ।
२२०
बंध को बंधा मिला, छुटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुडाय ।
जो स्वयं ही बंधा हुआ है उसे दुसरा बंधा हुआ मिल गया तो वह किस प्रकार बन्धन मुक्त हो सकता है अतः सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त सद्गुरू की सेवा करो जो पल भर में अपने ज्ञान कि शक्ति से तुम्हें बन्धन मुक्त करा लेंगे ।
२२१
कहैं कबीर तजि भरम को, नन्हा है कर पीव ।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ।।
संत कबीर गुरु जी का कहना है कि भ्रम को त्यागकर गुरु के सन्मुख अबोध बालक बनकर गुरु के ज्ञान रुपी दूध को पियो और अहंकार को त्यागकर गुरु के चरणों को पकड़ लो तभी यह की यातना से यह जीव बच पायेगा ।
२२२
साधुन कि झुपडी भली, न साकट को गांव ।
चन्दन कि कुटकी भली, न बाबुल बन राव ।।
साधु की झोपडी अच्छी है किन्तु साकट अर्थात गुण हीन गॅाव अच्छा नहीं होता । जिस प्रकार बबुल वृक्ष के बहुत बडे जंगल से बहुत अच्छा चन्दन का एक टुकडा होता है । तात्पर्य यह कि गुणहीन गांव में सदा अशान्ति का वातावरण व्याप्त रहता है लेकिन साधु संतों कि झोपडीं में ज्ञान का प्रकाश भरा रहता है ।
२२३
सब धरती कागद करूं, लिखनी सब बनराय ।
सात समुद्र का मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
सम्पूर्ण पृथ्वी को कागज मान लें, जंगलों की लकडीयों की ल्क्म बना ली जाय तथा सात महा समुद्रों के जल को स्यांही बना लो जाये फिर भी गुरु के गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि गुरु का ज्ञान असीमित है उनकी महिमा अपरम्पार है ।
२२४
गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव ।
सोई गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ।।
गुरु शब्द एक है किन्तु गुरुजनों के भाव, विचार तथा ज्ञान में अन्तर है । उनके मत एक से नहीं होते । जो गुरु सार-शब्द का ज्ञान कराये उसी गुरु कि आप सेवा बन्दगी करें ।
२२५
कबीर नौबत अपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटटन कि गली, बहुरि न देखहु आय ।।
संत कबीर जी कहते हैं कि धन दौलत, शरीर, मकान आदि का गर्व करना उचित नहीं है क्योंकी यह कूछ दिनों के लिए ही है । खुशियों के बाजे दस दिन के लिए बजाव लो जाने के बाद फिर यहॅा लौटकर देखने के लिए नहीं आवोगे ।
२२६
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गये दास कबीर ।।
कबीर दास जी काहते हैं कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली आशा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती । इसलिए संसार कि मोह तृष्णा आदि में नहीं फॅसना चाहिए ।
२२७
दस व्दारे का पींजरा, तामे पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयै, गये अचम्भा कौन ।।
इस शरीर मी जो प्राण रुपी वायू है जिसके रहने से शरीर चलता फिरता है बातचीत करता है, आहार विहार करता है तथा संसार की सभी सुखों का उपभोग करता है । वह प्राणरूपी वायु शरीर के दस व्दारों में से किसी भी व्दार से निकल सकता है । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
२२८
नहिं शीतल है चन्द्रमा, हिम नहिं शीतल होय ।
कबिरा शीतल संत जन, नाम स्नेही होय ।।
चन्द्रमा शीतल नहीं है और वर्ष भी शीतल नही है क्योंकि बर्फ की शीतलता वास्तविक नहीं है । कबीर जी कहते है कि वास्तव में प्रभू के प्रेमी साधु संतों में ही वास्तविक शीतलता होती है अन्य किसी में नहीं ।
२२९
नींद निशानी मौत की, उठी कबीर जाग ।
और रसायन छोड़ के, नाम रसायन लाग ।।
मृत्यु की निशानी निद्रा है । प्राणी को सचेत करते हुए संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं- हे मानव ! उठ! जाग! निद्रा का त्याग कर और भगवान के नाम रुपी रसायन को पी अर्थात प्रभू का स्मरण कर ।
२३०
कबिर संगति साधु की, जो कि थुसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ।।
संत कबीर जी कहते है कि साधु संतों के साथ रहकर जो कि न्हुसी खाना पडे तो प्रेम से खान चाहिए किन्तु दृष्ट स्वभाव वालों के साथ खीर पकवान मिले तो भी उनके साथ नहीं जाना चाहिए ।
२३१
आए हैं सो जायेगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढि चले, एक बॅाधि जंजीर ।।
इस संसार में जो आया है उसकी एक दिन जाना है यह यथार्थ सत्य है चाहे यह अमीर ही अथवा गरीब । प्राणी अपने कर्मो के अनुसार ही सिंहासन पर बैठता है और दुसरा जंजीरों में बांधाजाता है अर्थात कर्म प्रधान है ।
२३२
चलती चक्की देख के, दिया कबीर परी ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित गया न कोय ।।
चलती हुई चक्की देखकर कबीर जी रोने लगे चक्की के दोनों पाटों के बीच आकर कोई भी दाना साबित नही रहा । अर्थात् इस संसार रुपी चक्की के पारों के मध्य हर किसी को पिसना है ।
२३३
में रोऊँ सब जगत को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ।।
मैं हर किसी के लिए रोता हॅू किन्तु मेरे लिए कोई नहीं रोता अर्थात् मेरे दर्द को कोई नहीं समझता । मेरे दर्द को वही प्राणी देख और समझ सकता है जो ‘शब्द-सार’ को समझता है ।
२३४
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुइॅ धरे, तब घर पैठे माहिं ।।
यह मौसी का घर नहीं है कि जिसमें प्रवेश करने पर पूर्ण आदर और सन्मान प्राप्त होगा । यह प्रेमरूपी घर है । एस प्रेम रुपी घर में प्रवेश करने के लिए कठीन साधना की आवश्यकता होती है । अपना मस्तक काट कर धरती पर चढाना होती है तब भगवान अपने घर में प्रवेश करने कि अनुमति देते हैं अर्थात् तन मन, सब कुछ प्रभु के चरणों में अर्पित करो ।
२३५
सब ते लाघुताई भली, लघुता से सब होय ।
जस दुतिया का चन्द्रमा, शीस नवे सब कोय ।।
सब से छोटा बनकर रहने से सर्वत्र सन्मान प्राप्त होता है तथा सभी कार्य भी सिद्धी ही जाते हैं । व्दितीया के चन्द्रमा को सभी सिर झुकाकर नमन करते हैं ।
२३६
साई ते सब होत है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माँहि ।।
परमात्मा सर्वशक्तिमान है, वह कुछ भी कर सकने में किन्तु बन्दा कुछ नहीं कर सकता । परमात्मा चाहे तो सरसों के बीज को पर्वत के समान कर हे या पर्वत को सरसो के दाने समान ।
२३७
मोर तोर की जेवरी, गल बंधा संसार ।
दास कबीर क्यों बंधै, जाके नाम अधार ।।
मेरा तेरा, तेरा-मेरा अहंकार और ममता रुपी रस्सी से संसार के अज्ञानी लोगों का गला बंधा है किन्तु जो सद्गुरू के सच्चे भक्त हैं इस रस्सी में नहीं बंधे क्योंकि उन्हें सद्गुरू के ज्ञान का सहारा मिल गया ।
२३८
साधु भौंरा जग कली, निश दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक वहां बिलंबिया, जहं शीतल शब्द निवास ।।
साधु संत भवरों के समान है और संसारिक प्राणी कली और फुल हैं । इन कली और फुलों के मध्य साधु जन उदास अवस्था में विचरण करते हैं ।
ज्ञान चर्चा हो रही होती है ।
२३९
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलैं, निहकासी नीज देव ।।
जब तक संसारिक भोग कामनाओं कि भक्ति है तब तक उसे प्राणी कि कोई भी सेवा फल दायक नहीं होगी, उसके जीवन के कल्याण का मार्ग नही खुलेगा । कबीर जी कहते हैं कि जो प्राणी कामना रहित होकर आत्म चिन्तन करेगा वही भव संसार होगा ।
२४०
जल में बसै कमोदनी, चन्दा बसै अकास ।
जो है जाको भावता, सो ताही के पास ।।
कमलिनी के स्थान जल लेकीन वह चन्द्रमा से ऐसा प्रेम करती है कि उसे देखते ही प्रसन्नता से खिल उठती है जब कि चन्द्रमा उससे लाखों मील दूर आकाश में रहता है प्रकार जो जिसके प्रेमी हैं वे दूर रहकर भी उनके पास रहते हैं ।
२४१
स्वारथ कू स्वारथ मिले, पडि पडि लूंबा बूंबा ।
निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब ।।
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जब स्वार्थी लोग एक दुसरे से मिलते हैं उस समय वे एक दुसरे की आवश्यकता से अधिक प्रशंसा करते हैं और प्रसन्नता प्रकट करते हुए बडे प्रेम भाव से गले मिलते हैं किन्तु निष्कामी सज्जन पुरुषों का स्वार्थी लोग वाच्नों से भी सन्मान नहीं करते ।
२४२
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्हे कोय ।
जेती मन की कल्पना, काल कहावै सोय ।।
‘काल-काल’ हर कोई कहता है किन्तु काल के वास्तविक स्परूप से अज्ञानी लोग अनजान हैं, वे काल के स्वरूप को परख नहीं सकते । सत्य तो यह है कि संसार की जितनी भी विषय भोग रुपी कल्पनाएं हैं वे सब काल के रूप हैं ।
२४३
कबीर गर्व न किजीए, रंक न हंसिये कोय ।
आजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि जो लोग अपनी धन सम्पदा और शक्ति का अभिमान करते हैं वे महामूर्ख हैं । जो लोग गरीबों को देख कर उनकी हँसी उडाते हैं वे अज्ञानी हैं । अभी तुम्हारी नौका महासागर के जल में ड़गमगा रही है । कब क्या हो जाये कोई भरोसा नहीं है । कोई तुफान आ जाये पार लग जाये ।
२४४
जो तोकूँ कॉटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकूँ फूल के फूल हैं, बाकूँ है तिरशुल ।।
जो तुम्हारे लिए कॉटा बोटं है, उसके लिए तुम फूल बोओ अर्थात् जो तुम्हारी बुराई करता है तू उसकी भलाई कर । तुम्हें फूल बोने के कारण फूल मिलेंगे और जो कॉटे बोता है उसे काँटे मिलेगे तात्पर्य यह कि नेकी के बदले नेकी और बदी के बदले बदी ही मिलता है । यही प्रकृति का नियम है ।
२४५
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन का मैला न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बस न जाय ।।
नहाने धोने से क्या हुआ जब मन की मैल ही न धुली । मछली सदैव जल में रहती है उसको जल से कितना भी धोओ परन्तु उसकी दुर्गन्ध नहीं जाती ।
२४६
रात गवाँई सोय कर, दिवसं गावँया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कौडी बदले जाय ।।
सोने में सारी रात बिता दी और खाने में सारा दिन गुजार दिया । हे प्राणी! काम वासनाओं में लिप्त होकर हीरे कि समान अपनी अनमोल जिन्दगी कौडियों के भाव कर लि अर्थात् अपना जीवन व्यर्थ गुजार दिया ।
२४७
सॅाझ पडे दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा व देश को, जहॉ रैना न होय ।।
दिन बीत गया और जब सन्ध्या होने लगी तब चाकवी रोने लगी और चकवा से बोली- हे प्राणनाथ! अब उस देश को चलो जहाँ रात न होती हो मुझसे यह विरह शन नहीं होती ।
२४८
जाति न पुछो साधु की, पूछि लीजीए ज्ञान ।
मोल करो तलवार की, पडा रहन दो म्यान ।।
संतों की जाति न पुछो बल्कि उनसे ज्ञान पुछो । ज्ञान प्राप्त करने से ही तुम्हे लाभ है उसी प्रकार तलवार की कीमत पूछों, म्यान को पडी रहने दो । म्यान से तुम्हें क्या सरोकार ?
२४९
कबिरा सोंतो क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लाँबे पाँव पसार ।।
कबीर दास जी स्वयं से कहते है कि- तू सोने में समय को क्यों स्वार्थ गँवा रहा है । उठ और भगवान मुरारी के नाम का स्मरण कर तथा जीवन के सफल कर एक दिन इस नश्वर शरीर का त्याग करके पैर फैलाकर सोना ही है अर्थात् मृत्यु निश्चय है ।
२५०
दुरबल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।
मुई खाल की सांस से, सार भसम होई जाय ।।
दुर्बल को कभी नहीं सताओ अन्यथा उसकी ‘हाय’ तुम्हें लग जायेगी । मरे हुए चमडे की धौकानी से लोहा भी भस्म ही जाता है । अर्थात- दुर्बल को कभी शक्तिहीन मत समझो ।
२५१
जहां न जाको गुन लहै, तहां न ताको ठांव ।
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गांव ।।
जहा पर योग्यता का सन्मान नहीं होता, गुण की पूजा नहीं होती उस स्थान पर ठहरना उचित नहीं, जैसे दीगम्बरों को गाँव में रहकर धोबी को क्या लाभ क्योंकी दीगम्बर तो वस्त्र ही नहीं पहनते । अर्थात- अपनी संगति स्वभाव को अनुकूल वातावरण में रहना चाहिए ।
२५२
कुल खोये कुल उबरै, कुल राखै कुल जाय ।
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ।।
कुल जाति के अहंकार को मन से निकलकर सरल भाव से सेवा भक्ति करना चाहिए । अहंकार से हित होने के स्थान पर नाश होता है अतः अहम् को त्यागकार आत्म स्वरूप का चिन्तन करने से सब कुल वर्ण स्वतः विलीन हो जाते हैं ।
२५३
सार शब्द निज जानि के, जिन कीन्ही परातीति ।
काग कुमत तजि हंस है, चले सु भौजल जीति ।।
सार तत्व को जानकर जिसने श्रद्धा और विश्वास से प्रेम किया उसने कौवे की कुमति को त्यागकार हंस के सद्गुणों को ग्रहण किया और भव सागर को तैर कर पार कर लिया अर्थात् उसका उध्दार हो गया ।
२५४
कामी लज्जा न करै, मन मांहीं अहलाद ।
नींद न मांगै साथरा, भूख न मांगै स्वाद ।।
काम भावना के वशीभूत प्राणी व लज्जा का अनुभव नहीं करता जिस प्रकार अत्यधिक नींद का वेग होने पर बिस्तर की आवश्यकता नहीं महसूस होती, भूख लगने पर स्वदिष्ट भोजन की बात नहीं होती बल्कि जो कुछ भी मिला वही खाने लगा ।
२५५
कामी कुत्ता तीस दिन, अन्तर होय उदास ।
कामी नर कुत्ता सदा, छह रितु बारह मास ।।
बारह महिने अर्थात् एक वर्ष में कुत्ता एक महिने के लिए ही विषय भोगी बनता है फिर वह उदास होकर दूर रहता है किन्तु कामी मनुष्य छः ऋतुओं और बारहों महिने कामी कुत्ते जैसा व्यवहार करता है ।
२५६
साधु एसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे, थोथा देह उडाय ।।
साधू ऐसा होना चाहिए जैसे सूप का स्वभाव होता है । सूप अपने सद्गुणों से सार वस्तू को ग्रहण करके मिट्टी कंकड़ आदि दूर उडा देता है उसी प्रकार साधुजन को चाहिए कि वे व्यर्थ की वस्तुओं को न ग्रहण करें ।
२५७
साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहॅू, साधु न भूखा जाय ।।
कबीर दास जी भगवान से अरदार करते हुए कहते हैं कि प्रभू! आप मुझे उतना ही दे जिसमें मैं अपना और अपने परिवार का पालन कर साकूँ तथा मेरे व्दार पर संत जन आये तो उनका सत्कार मैं भली प्रकार कर सकूँ ।
२५८
संगति सों सुख ऊपजे, कुसंगति सों दुख होय ।
कब कबीर तहं जाईये, साधु संग जहं होय ।।
अच्छी संगति करने से सर्वदा सुख प्राप्त होता हैं । किन्तु कुसंगति करने से दुःखों की प्राप्ति होती है । संत जी कहते हैं कि मानव को उसी स्थान पर जाना चाहिए जहाँ अच्छी संगति प्राप्त हो ।
२५९
कबीर सीप समुद्र की, रहे पियास ।
और बूँद को ना गहे, स्वाति बूँद की आस ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि समुद्र के अथाह जल में रहकर भी समुद्र की सीप प्यास प्यास रहती है । पानी की और बूदों का वह ग्रहण नहीं करती । वह तो स्वति नक्षत्र की बूदों के सीप में प्रविष्ट होने से मोती बनता है उसी प्रकार प्राणी को सदैव उत्तम वस्तू ही ग्रहण करनी चाहिए ।
२६०
कबिरा-संगति साधु की, हरै और की व्याधि ।
संगति बुरा असाधु की, आठीं पहर उपाधि ।।
कबीर जी संसारिक प्राणियों के सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए कहते हैं कि साधु संतों की संगति करना उत्तम हैं । जिससे दुसरों के दुःखों का निवारण होता हैं । असाधु जनों की संगति से सवासनाऍ उत्पन्न होती हैं जो प्राणी को पतन की और ले जाती हैं ।
२६१
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
औरन को पाठ बोधता, मुख में डाले रेत ।।
दुसरों को ज्ञान की शिक्षा देने वालों को साम्बोधित करते हुए संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- हे प्राणी । तू दुसरों को ज्ञान सिखाता फिरता है और स्वयं अपने मुख में रेत डाले पडा हैं । सर्वप्रथम तू अपना ध्यान कर और प्रभू का भजन कीर्तन कर ।
२६२
अवगुण कहॅू शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गांठ से खोय ।।
शराब के अवगुणों के विषय में कबीर दास जी कहते हैं कि शराब पीकर मानव पागल और मूर्ख बन जाता हैं । उसका व्यवहार पशुओं के समान हो जाता हैं तथा जेब के पैसे भी बर्बाद जाते हैं ।।
२६३
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरि पिये, ऊँचा प्यासा जाय ।।
पानी ऊँचे स्थान पर कभी नहीं ठहरता इसलिए नीचे झुकने वाला ही पानी पी सकता है । जो व्यक्ति ऊँचे स्थान पा खडा रहता है भ प्यासा ही रह जाता है अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए नम्रता परम आवश्यक है ।
२६४
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहू शीतल होय ।।
मन से घमण् की भवना त्यागकार ऐसी वाणी बोले जिसमें दुसरों का मन प्रसन्नता से खिल उठे । दुसरों को देखकर आप स्वयं भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे ।
२६५
फल कार न सेवा करै, निशि दिन जांचै राम ।
कहैं कबीर सेवक नहीं, चाहै चौगुन दाम ।।
जो प्राणी मन से फल की इच्छा रखकर नित्य प्रतिदिन प्रभू राम से याचना करता है वह लोभी और स्वार्थी है । कबीर जो कहते हैं कि वह सेवक नहीं है, वहतो अपनी सेवा के चौगुण दाम चाहता है ।
२६६
दासातन हिरदै बसै, साधु न सों आधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ।।
जिनके हृदय में दास के गुण, दीनता और प्रेम भावना होती है वे साधु जनों के अधीन रहकर उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । कबीर जी कहते हैं कि ऐसे ही लोग सचमुच दास हैं, वे ही सदा भक्ति में लवलीन रहते हैं ।
२६७
यह तत वह एक है, एक प्रान दुई गात ।
अपने जिय से जनिए, मेरे जिय की बात ।।
एक यह है एक वह है । परस्पर प्रेमियों में कोई भेद नहीं होता किन्तु सामान्य दृष्टि से देखने पर दो शरीर दिखाई देते हैं किन्तु इनके प्राण एक हैं । प्रेमियों के इस गूढ रहस्य को प्रेमी जन ही जानते हैं ।
२६८
गोता मारा सिंधु में, मोती लाये पैठि ।
वह क्या मोती पायेंगे, रहे किनारे पैठि ।।
प्रेम रुपी गहरे समुद्र में जिसने निर्भय होकर गोता लागाय उसे मोती मिला किन्तु जो डूबने के भय से किनारे पर बैठा रहा उसे क्यों मोती मिलेगा अर्थात् प्रेमरूपी मोती प्राप्त करने के लिए कठिन साधन की आवश्यकता है ।
२६९
आया प्रेम कहां गया, देखा था जब कोय ।
छिन रोवै छिन में हंसै, सो तो प्रेम न होय ।।
जब प्रेमी के हृदय में प्रेम का समावेश हुआ तो उसको सभी ने देखा किन्तु वह कहां चला गया जो मात्र में प्रेम के नाम रोने लगा और दुसरे क्षण हंसने लगा । यह प्रेम का रूप नहीं बल्कि भ्रम है ।
२७०
मान अभिमान न कीजिए, कहैं कबीर पुकार ।
जो सिर साधु न नमैं, तो सिर काटि उतार ।।
मान सन्मान प्रतिष्ठ आदि का कदापि अभिमान मत करो क्यों कि यह व्यर्थ की बातें कल्याण मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं । कबीर दास जो कहते हैं कि जिस प्राणी का सिर साधु सन्तों के सन्मुख नहीं झुकता उस सिर को काटकर फेंक देना चाहिए ।
२७१
पांचतत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिन चार के कारने , फिर फिर रोके ठाम ।।
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नी और आकाश तत्व से मिलकर बने ढाँचे को ‘मनुष्य’ नाम रख दिया । चार दिन के क्षणिक सुख विलास में लिप्त होकर जीव ने अपने मोक्ष का व्दार बन्द कर लिया ।
२७२
मौत बिसारी बावरी, अजरच कीया कौन ।
तन माटी में मिल गया, ज्यैां आटा में लौंन ।।
ऐ बावरी ! तू मृत्यु को क्यों भूल गयी । मृत्यु की होने वाली दशा पर तुझे किसने आश्चर्य में दाल दिया ? इन सुन्दर शरीर से प्राण निकलते ही यह मिट्टी में इस प्रकार मिल जायेगा जैसे आटे में नमक मिल जाता है ।
२७३
मेरा संगी कोय नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीति न ऊपजै, जिय विस्वास न होय ।।
मेरा इस संसार में कोई मित्र नहीं है, यहाँ तो सभी स्वार्थी हैं इस लिए मन में चाहे प्रेम न हो, हृदय में विश्वास न हो किन्तु सबको अपने हित लाभ की चिन्ता लगी रहती है ।
२७४
कामी तो निरभय भया, करै न काहूं संक ।
इन्द्री केरे बसि पडा, भूगते नरक निसंक ।।
कामी व्यक्ति निर्लज्ज होने के कारण किसी से भयभीत नहीं होता वह नीर्भीक होता है और अपने विषय में किसी पर कोई शंक भी नहीं करता । वह तो अपनी इन्द्रियों के वश में पडा रहता है तथा अन्त अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है ।
२७५
कहता हॅू काहि जात हॅू, मनें नहीं गंवार ।
बैराग गिरही कहा, कामी वार न वार ।।
पहले भी चुका हॅू और कहता हुआ जाता हॅू कि कामी मनुष्य साधु बैरागी के वेश में हो या गृहस्थ रूप में उसका किसी भी रूप में ठिकाना नहीं है अर्थात् उसका उध्दार नहीं हो सकता ।
२७६
मोह फंद सब फांदिया, कोय न सकै निवार ।
कोई साधू जन पारखी, बिरला तत्व विचार ।
मोह माया के फंडे में सभी लोग फँसे पडे हैं । इससे कोई नहीं छूट पाता । कोई ज्ञानी पारखी आत्मदर्शी सन्त ही इससे मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।
२७७
मद अभिमान न कीजिए, कहैं कबीर समुझाय ।
जा सिर अहं जु संचरे, पडै चौरासी जाय ।।
मद का अभिमान कभी मत करो, मद का त्याग करना ही उचित है कबीर दास जी कहते हैं जिसके मास्तिक में अहंकार प्रविष्ट हो जाता है वह अपने को ही सर्वस्व समझने लगता हैं और ‘लख चोरासी’ के चक्कर में पड़कर भटकता है ।
२७८
लेने को हरिनाम है, देने को अंनदान ।
तरने को है दीनता, बूड़ न को अभिमान ।।
संसार में लेने के लिए ‘हरिनाम’ उत्तम है और दान देने के लिए अन्नदान सर्वोत्तम है । भवसागर से तरने के लिए नम्रता और डूबने के लिए अभिमान है । ज्ञानी लोग अभिमान का त्याग करके शांति और सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं ।
२७९
गुरु की जै जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करै, परै चौरासी खानि ।।
प्राणी को सचेत करते हुए संत कबीर जी कहते हैं आप जिसे भी अपना गुरु बना रहे हैं सर्व प्रथम उनकी और कारनी को जांच परख कर बनाइये और पानी को छान कर पीजिए । जो बिना विचार किये गुरु बना लेता है वह संसार रुपी चौरासी आवागमन के चक्कर में पड़कर भटकता रहता है ।
२८०
नैंनो की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि कै, पिय को लिया रियाझ ।।
अपने सद्गुरू को सन्मानित करने के लिए नेत्रों की कोठरी बनाकर पुतली रुपी पलंग बिछा दिया और पलकों की चिक दालकर अपने स्वामी को प्रसन्न कर लिया अर्थात् नयनों में प्रभु को बसाकर अपनी भक्ति अर्पित कर दी ।
२८१
भाला ती कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि ।
मनवा तो चहु दिश फिरै, यह तो सुमिर न नांहि ।।
हाथ में माला फिर रही है और मुंह के बीच में जीभ फिर रही है । तथा चंचल मन स्वच्छन्द रूप से चारों दिशाओ में घूम रहा है । फिर यह सुमिरन कहॅा हुआ । यह तो सुमिरन करने का दिखावा है जब तक मन शान्त और एकाग्र नहीं होता तब तक सुमिरन संभव नहीं है ।
२८२
ज्यों कोरी रोजा बुनै, नीरा आवै छोर ।
ऐसी लिखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ।।
जिस प्रकार जुलाहा धागे की नही चलाकर एक एक सूत पिरो कर कपडा बुनता है और उसका अन्त निकट आता है उसी प्रकार एक एक पल, एक एक घडी मृत्यु निकट आती है । हे मानव! तुझयें भागने की शक्ति है तो भाग अर्थात् भजन साधक करके अपने कल्याण का मार्ग सुदृढ कर ।
२८३
कबीर माया संपिनी, जनता ही को खाय ।
ऐसी मिला न गारुडि, पकडि पिटारे बांय ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि माया मोह का विषैली सर्पिणी के समान जानी यह अपनों को ही खाती है कोई इसका विष उतारने वाला नहीं मिला जो इसे पकड़कर पिटारे में बंद कर सके ।
२८४
गुरु को चेला बीष दे , जो गांठी होय दाम ।
पूत पिता को मारसी , ये माया का काम ।।
यदि गुरु के पास धन दौलत है तो कुछ शिष्य ऐसे होते हैं जो धन के लोभ में गुरु को विष दे कर मार डालते हैं उसी प्रकार लोभ के कारण पुत्र अपने पिता को मार डालते हैं । यही माया का वास्तविक रुप हैं ।
२८५
माया माया सब कहै , माया लखै न कोय ।
जो मन से न उतरे , माया कहिए सोय ।।
माया – माया सभी लोग कहते हैं किन्तु माया माया का वास्तविक स्वरुप क्या है इसे कोई नहीं जानता । मन के ऊपर जिसकी गहन आशक्ति हो अर्थात मन में जो इच्छा उत्पन्न हो और प्राणी वही कार्य करे वह मन से न उतरे माया उसी को कहते हैं ।
२८६
सूम थैली अरु श्वान भग दोनो एक समान ।
घालत में सुख ऊपजै , काढ निकसै प्रान ।।
कंजूस व्यक्ति के धन की थैली और कुत्ते की योनि प्रकृति को एक समान जानो । कंजूस को थैली में धन डालते हुए अत्याधिक प्रसन्नता होती है किन्तु जब निकालने की बारी अति है तो उस समय उसे ऐसा प्रतीत होता है की प्राण ही निकल जायेंगे ।
२८७
जब घट मोह समाइया, सबै भया अंधियार ।
निर्मोह ज्ञान बिचारि, साधु उतरे पार ।।
सांसारिका माया मोह में जब मन लिप्त हो जाता है तो चारों ओर अज्ञान रूपी अन्धकार का साम्राज्य व्याप्त हो जाता है जिस कारण जीव को कुछ भी नहीं धिखायी देता । मोह से मुक्त ज्ञानी साधुजन ही भव से पार होते हैं ।
२८८
करैं बुराई सुख चहैं, कैसे पावै कोय ।
रोप पड़े बबूल का, आम कहां ते होय ।।
जो बुरा कार्य करके भलाई पाने की इच्छा रखता हो उससे बड़ा इस संसार में अन्य कोई मुर्ख नहीं है । स्वयं विचार करें कि बबूल का बीज बोने पर बबूल ही अत्पन्न होगा, वह आम नहीं हो सकता ।
२८९
जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ।।
मुक्ति की इच्छा यदि तू करता है सबकी आस छोड़ दे और अपना तन मन धन सब कुछ मुझे (भगवान से तात्पर्य है) अर्पित कर दे और मेरे समान हो जा फिर सब कुछ तेरे पास है तुझे किसी वस्तु की कमी नहीं रहेगी ।
२९०
पूरा सतगुरु न मिला ,सुनी अधूरी सीख ।
स्वांग यती का पहिन के, घर घर मांगी भीख ।।
जिसे सच्चे सतगुरु की प्राप्ति न हो उसे यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं होगा अर्थात जो भी शिक्षा उसे मिलेगी वह अधूरी होगी । साधु सन्यासी का वेश धारण कर घर घर भीख मांगने से कल्याण नहीं होगा ।
२९१
जहां दया वहां धर्म है , जहां लोभ तहं पाप ।
जहां क्रोध वहां काल है, जहां क्षमा वहां आप ।।
जहां दया है उस स्थान पर धर्म का वास होता है और जहां पर लोभ की अधिकता है वहां पाप बसता है । जहां क्रोध है वहां काल है और जिस स्थान पर अर्थात जिस प्राणी के ह्रदय में क्षमा भाव है वहां स्वयं अन्तर्यामी परमात्मा निवास करते है ।
२९२
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जा ? ।।
वृक्ष को सम्बोधित करते हुए पत्ते ने कहा – हे वृक्ष ! तुमसे बिछड़कर हम न जाने कहां जा पहुचेंगे , यह कोई निश्चित नहीं है , फिर तुमसे कभी मिलन नहीं हो सकेगा । हम कहां होंगे और तुम कहां होंगे । इसी प्रकार मनुष्य के शरीर से प्राण निकलकर कहां जाता है , उसे कौन सी योनि प्राप्त होती है । इसके विषय में जीव नहीं जानता अतः प्रत्येक समय भगवान का स्मरण करें . यही एकमात्र कल्याण का मार्ग है ।
२९३
पाहन पूजे हरि मिलें , तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली , पिस खाय संसार ।।
कबीरदास जी कहते है कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिलते है तो मै विशाल पहाड़ का पूजन करूंगा । इससे तो अच्छी घर की चक्की है जिसका पीसा हुआ आटा सारा संसार खाता है ।
२९४
मूर्ख मूढ़ कुकर्मियाँ , नख सिख पाखर आहि ।
बन्धन कारा का करे जब बाँधन लागे ताहि ।।
जिसे पढ़ाने और समझाने से भी ज्ञान न हो उसे अधिक समझाना व्यर्थ है क्योंकि उस पर आपकी बातों का कोई प्रभाव नहीं होता ।
२९५
काह भरोसा देह का , बिनस जात छीन मांहिं ।
सांस – सांस सुमिरण करो , और यतन कछु नाहिं ।।
इस नश्वर शरीर का कोई भरोसा नहीं नहिं । पंचतत्वों से मिलकर निर्मित यह सुन्दर काया कब और किस घडी पंचतत्वों में विलीन हो जाये, यह निश्चित नहीं है । अर्थात मृत्यु कब आ जाये किसी को भी नहीं मालूम अतः जितनी बार सांसों का आवागमन होता है उतनी बार प्रभु के नाम का स्मरण करो ।
२९६
कहता तो बहुत मिले, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे , जो नहीं गहता कोय ।।
सन्त शिरोमणि कबीर दस जी कहते हैं की उपदेश देने वाले तो बहुत मिले कि आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह कर्म करो वह कर्म करो परन्तु उसको अपनाने वाला कोई नहीं मिला ।
२९७
जो जन भीगे राम रस , विगत कबहूँ ना रुख ।
अनुभव भाव न दरसे ते नर दुःख ना सुख ।।
सुखा हुआ पेड़ सुखी नहीं रह सकता । जिसने ‘राम-नाम’ अपने ह्रदय में धारण कर रखा है उसे कोई दुःख नहीं है ।
२९८
और देव नहिं चित्त बसै , मन गुरु चरण समाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूं , तृष्णा दूर पराय ।।
साधु संतों के ह्रदय में कोई देवी देवता नहीं होते अर्थात वे अन्य पर भरोसा नहीं करते । एकमात्र सद्गुरु के श्री चरणों में वे रमे रहते हैं । वे कम भोजन करने वाले और समस्त सांसरिक पिपासाओं से दूर रहते हैं ।
२९९
बाना पाहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै खाल ।।
जो सिंह का वेश धारण कर , भेद की चाल चलते हैं और सियार की बोली बोलते हैं । ऐसे कपती वेश धारी की खाल कुत्ता खायेगा अर्थात जो कहते हैं कुछ करते हैं कुछ ऐसे कपट चरित्र वाले समाज से बाहर कर दिये जाते हैं और सर्वत्र अपमानित होते गई ।
३००
भक्ति गेंद चौगन की, भावै कोई लै जाय ।
कहैं कबरी कछु भेद नहिं , कहां टैंक कहं राय ।।
भक्ति खुले मैदान में खेलने वाली गेंद के समान है जिसे प्रिय लगे वह ले जा सकता है । कबीर जी अपने श्री मुख से कहते हैं कि भक्ति में कोई भेद नहीं है । चाहे वह गरीब हो, धनवान हो अथवा राजा हो । हार कोई भक्ति कर सकता है ।
३०१
अमृत पीवै ते जना , सैट गुरु लागा कान ।
वस्तु अगोचर मिलि गई, मन नहिं आवा आन ।।
प्रेम रूपी अमृत को वही पीते हैं जिन्हें सतगुरु मिल गये हो उनका ज्ञाना मृत प्राप्त हो गया हो फिर वे अगोचर दिव्य शान्ति को प्राप्त कर लेते हैं । उनके मन में अन्य किसी वस्तु की लालसा शेष नहीं बचती ।
३०२
कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्राण जायेंगें छूट ।
घर के प्यारे आदमी , चलते लेंगे लूट ।।
चेतावनी देते हुए कबीर दस जी कहते है कि हे प्राणी ! भव सागर से पार उतारने वाले मांझी अन्तर्यामी , सर्वशक्तिमान परमात्मा का सुमिरन कर ले । यह सुअवसर तुम्हें बार बार नहीं मिलेगा नहीं तो शरीर से प्राण निकल जायेंगे और तू कुछ नहीं कर पायेगा और तब तेरे अपने घर के लोग तुम्हारे शरीर से गहने वस्त्र उतारकर एक कफन ओढ़ाकर श्मशान में ले जाकर जला देंगे ।
३०३
जीना थोडा ही भला, हरि का सुमिरन होय ।
लाख बरस की जीवना लेखै धरै न कोय ।।
थोड़े दिन का जीवन अच्छा है किन्तु उसे व्यर्थ न गवांकर प्रभु के सुमिरन में लगाना चाहिए । उस लाख बरस के जीवन से क्या लाभ जिसमे भगवान के नाम का चिंतन न हो, वह तो व्यर्थ ही है उसका लेखा कौन करेगा ।
३०४
तन सराय मन पाहरू , मनसा उतरी आय ।
को काहू का है नहीं, देखा ठोकि बजाय ।।
इस शरीर रूपी सराय का मन पहरेदार है और इच्छा रूपी अतिथि आकर ठहर गया है । इस संसार में कोई किसी का अपना नहीं है । सब अपने अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में लगे हुए हैं । यह मैंने ठोक बजाकर देख लिया है अतः बुरी इच्छाओं को त्याग कर अपना जीवन सत्कर्म में लगाओ ।
३०५
राम भजो तो अब भजो , बहोरि भजोगे कब्ब ।
हरिया हरिया रुखड़े , ईंधन हो गये सब्ब ।।
राम नाम का भजन करना है तो अभी से आरम्भ कर लो अन्यथा फिर कब भजन करोगे क्योंकि काल की गति बड़ी तीव्र होती है प्रमाण के लिए देखो जो हरे भरे वृक्ष थे वे सुखकर ठूंठ हो गये और जलाने के लिए ईंधन बन गये अतः समय को व्यर्थ न गंवाओ ।
३०६
भय बिन न उपजै , भय बिनु होय न प्रीती ।
जब हिरदे से भय गया , मिटी सकत रसरिती ।।
जब तक मन में भय नहीं होता तब तक जीव के मन में परमात्मा के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न ही नहीं होता । मन से सद्गुरु , सन्त जनों का भय चला जाता है तो मान मर्यादा , प्रेम व्यवहार आदि समाप्त हो जाते है ।
३०७
जिही शब्द दुःख ना लगे, सोई शब्द उचार ।
तपत मिटी सीतल भया , सोई शब्द ततसार ।।
जिस शब्द के बोलने से किसी को कष्ट पहुचें कोई दु:खी हो ऐसे शब्द का कदापि उच्चारण नहीं करना चाहिए । ऐसे शब्द बोलो जिसे सुनकर तपता हुआ चेहरा या दुःख से उदास चेहरा भी प्रसन्नता से खिल उठे । शब्द ऐसे हो जिसे सुनने से ऐसे महसूस हो जैसे जल की ठंडी फुहार पद रही है ।
३०८
हाथों परबत फाड़ते , समुन्दर घूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले , का कोई गरब कराय ।।
जो अतुलित बलशाली थे, जिनके बल की सीमा न थी जिन्होंने अपने बल पराक्रम से पर्वत फाड़ डाला और विशाल समुद्र को एक ही घूंट में पी गये जब ऐसे श्रेष्ठ लोग धरती में गल गये फिर यहां किसी के अहंकार का क्या मूल्य । काल के विकराल पंजे से कोई नहीं बच सकता ।
३०९
सुर नर सबको ठगै , मनहिं लिया औतार ।
जो कोई याते बचै , तीन लोग ते न्यार ।।
यह चंचल मन बहुत बड़ा ठग है, यह सुर नर मुनि सभी को ठगता है । यही मन जीव को बार बार जन्म लेने के लिए विवश करता है । जो साधक जो तपस्वी इसकी ठगीसे बच जाये वे तीनों लोकों में सबसे न्यारे होकर दिव्य गति को प्राप्त होंगे ।
३१०
कुंभै बांधा जल रहै , जल बिन कुंभ न होय ।
ज्ञानै बांधा मन रहै , मन बिनु ज्ञान न होय ।।
कुंभ की दीवारें के होने से उसमें जल टिका रहता है और कुंभ का निर्माण बिना जल के सम्भव नहीं है क्योंकि केवल मिटटी से घड़ा नहीं बन सकता जब तक कि उसमे जल न मिले । तात्पर्य यह कि दोनों का सहयोग एक दुसरे के लिए परम आवश्यक है उसी प्रकार मन के बिना ज्ञान अर्जित नहीं किया जा सकता है और चंचल मन को ज्ञान रूपी घड़े से ही स्थिर रखा जा सकता है ।
३११
माया मन की मोहिनी, सुर नर रहे लुभाय ।
इन माया सब खाइया , माया कोय न खाय ।।
मन को मोहने वाली माया के लोभ में सुर , नर मुनि अदि सब फंस जाते हैं । इस माया रूपी मोहिनी ने हार किसी को किसी न किसी प्रकार मार खाया अर्थात इससे कोई नहीं जीत पाया ।
३१२
जग हटबारा स्वाद ठग , माया वेश्या लाय ।
राम नाम गाढ़ा गहो, जनि जन्म गंवा ।।
इस संसार में कामरूपी इन्द्रियों का स्वाद ही ठग है और माया रूपी वेश्या ने विषय भोगों की वस्तुएं चारों और सजा रखी जिसे देखकर प्राणी का मन चंचल हो जाता है । इससे अपने मन को खींच लो । माया के भंवर जाल में मत फंसो क्योंकि माया ही सही मार्ग से हटाकर गलत मार्ग की ओर ले जाती है अपने मन को एकाग्र करके राम नाम के ज्ञान रूपी अमृत को प्राप्त करने के लिए प्रयास करो अन्यथा सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ चला जायेगा ।
३१३
माया तो ठगनी भई , ठगत फिरै सब देस ।
जा ठग ने ठगनी ठगी , ता ठग को आदेस ।।
यह माया अनेक रूप धारण करके सभी देशों के लोगो को ठगती है और सभी इसके चक्कर में फंस कर ठगे जाते हैं परन्तु जिस ठग ने इस ठगनी को भी ठग लिया हो उस महान ठग को मेरा शत शत प्रणाम है । भावार्थ यह कि माया रूपी ठगनी को कोई सन्त महापुरुष ही ठग सकता है ।
३१४
सांच बराबर तप नहीं , झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।
सत्य के बराबर कोई तपस्या नहीं है और झूठ के समान कोई पाप नहीं है ।
जो प्राणी सदा सत्य बोलता है उसके ह्रदय में पारब्रम्ह परमेश्वर स्वयं विराजते हैं ।
३१५
सांच हुआ तो क्या हुआ , नाम न सांचा जान ।
सांचा होय सांचा मिलै , सांचै माहि समान ।।
सच्चा होने से क्या लाभ जब सद्गुरु को ‘सत्य नाम’ ज्ञान को नहीं जानता । सद्गुरु के सत्य नाम ज्ञान को जानना परम आवश्यक है । जो प्राणी सत्य आचरण की साधना से सत्य का दर्शन करता है वह सत्य में ही समा जाता है ।
३१६
कुकट कूटै कन बिना , बिन करनी का ज्ञान ।
ज्यौं बन्दूक गोली बिना , भड़क न मारै आन ।।
बिना ज्ञान प्राप्त किये ज्ञान के विषय में कहना , प्रवचन करना , चावल की भूसी कूटने के समान है । जिस प्रकार बिना गोली के बन्दूक में केवलआवाज उत्पन्न होती है , वह किसी पर वार नहीं कर सकती ।
३१७
कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर ।
जो दीया सोपाइया , ऐसे कहैं कबीर ।।
दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता । जैसा दान दिया जाता है उसी प्रकार का फल भी प्राप्त होता है । कबीर दास जी कहते है की कर्ण ने सोना दान दिया था और द्रौपदी ने चीर दान दिया था जिससे उसके लाज की रक्षा हुई ।
३१८
साधु शब्द समुद्र है , जामें रतन भराय ।
मन्द भाग मुट्ठी भरै , कंकर हाथ लगाय ।।
साधु शब्द ही नही बल्कि ज्ञान रूपी समुद्र के समान हैं जिसमे सद्गुणों के रत्न भरे हुए है परन्तु अज्ञानी लोग ऐसे सन्तों के मिलने पर भी मुट्ठी भर कंकर ही ले जा पते है अर्थात उनका समय संतों के दोष और बुराइयों को खोजने में व्यर्थ चला जाता है ।
३१९
प्रीती ताहि सो कीजिए , जो आप समाना होय ।
कबहुक जो अवगुण पडै , गुन ही लहै समोय ।।
प्रीती उसी से करना चाहिए जो अपने समान आचार विचार वाला शुद्ध हृदय एटीएम विश्वासी और गंभीर हो । यदि कभी भूलवश किसी प्रकार का अनुचित व्यव्हार भी हो जाये तो वह उचित गुण को ही अपने ह्रदय में स्थान दे ।
३२०
जो है जाका भावता , जब तक मिलि हैं आय ।
तन मन ताको सौंपिये , जो कबहुं न छाड़ि जाय ।।
जो जिसको अच्छा लगता है वह उससे कभी कभी अवश्य जाकर मिलता है परन्तु अपना मन उसी को अर्पित कीजिए जो तुम्हें कभी न छोड़कर जाये अर्थात अटूट प्रेम के बन्धन में बंधकर सदैव तुम्हारे निकट रहें ।
३२१
तू तू करता तू भया , मुझमें रही न हूंय ।
बारी तेरे नाम पर , जीत देखूं तित तुंय ।।
हे परमात्मा ! तुम्हारे नाम का सुमिरन करते करते मै तुम जैसा हो गया हु । अब मेरे मन में सांसरिक वासना , ममता एवम तृष्णा नहीं है । मै तेरे अविनाशी नाम ज्ञान के ऊपर न्यौछावर हूं । मेरी दृष्टी जिधर भी घुमती है उधर तुम्हारा ही स्वरुप दिखायी देता है ।
३२२
राम नाम सुमिरन करै , सतगुरु पद निज ध्यान ।
आतम पूजा जीव दया , लहै सो मुक्ति अमान ।।
जो प्राणी तन मन समर्पित करके सद्गुरु के चरणों का ध्यान करता है वह राम नाम को आत्मज्ञान का भजन करता है । जीवों के प्रति जिसके मन में दया है और समता का भाव रखकर सेवा करता हाउ वह प्राणी मोक्ष पद को प्राप्त होता है ।
३२३
लागी लागी क्या करै , लागत रही लगार ।
लागी तब ही जानिये , निकसी जाय दुसार ।।
संसार में मनुष्य को कदम कदम पर चोटें लगती है जिसे सब ‘लागी-लागी’ कहते है । किन्तु उन ठोकरों को तभी कारगर जानों जब उसके लगने से ह्रदय में बसी सभी बुराइयां , सभी अवगुण नष्ट हो जायें अर्थात गुरु-ज्ञान की ठोकर लगनी चाहिए ।
३२४
स्वारथ का सबको सगा , सारा ही जग जान ।
बिन स्वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान ।।
इस संसार सागर स्वार्थ के ही सब सगे सम्ब…
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