Thursday, 4 January 2018
स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य
वाराणसी वैभव
काशी की विभूतियाँ
महर्षि अगस्त्य
श्री धन्वंतरि
महात्मा गौतम बुद्ध
संत कबीर
अघोराचार्य बाबा कानीराम
वीरांगना लक्ष्मीबाई
श्री पाणिनी
श्री पार्श्वनाथ
श्री पतञ्जलि
संत रैदास
स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य
श्री शंकराचार्य
गोस्वामी तुलसीदास
महर्षि वेदव्यास
श्री वल्लभाचार्य
स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य
उत्तरी भारत में तीसरे भक्ति आन्दोलन को समरसता का जन आन्दोलन बनाने वाले 'जाति-पांति पूछै नहिं कोई हरि को भजै सौ हरि का होई" का उद्घोष करने वाले स्वामी रामानन्द जी का प्रादुर्भाव स. १२९९ ई. में माघ कृष्ण सप्तमी को प्रयाग में हुआ। इनकी साधना और कर्मस्थली काशी का पंचगंगा घाट था। इन्होंने अपनी भक्ति धारा से समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया, इसी कारण इनके प्रमुख द्वादश शिष्यों में कबीर, रैदास के अतिरिक्त धन्ना जाट, सेना नाई, पीपर राजा तथा पद्मावती एवं सुरसरी जैसी महिलाएँ भी थीं। गुरुनानक देवजी की वाणी में भी रामानन्द जी के उपदेश सम्मिलित हैं। रामानन्द जी की पूर्ण समर्पित 'प्रपत्ति भक्ति' राम-सीता-लक्ष्मण की त्रयी के प्रति थी। वर्तमान में पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ रामानन्द जी की परम्परा का मूल मठ है। २४ जनवरी को इनकी जयन्ती मनायी जाती है।
आचार्य रामानन्द जी का जन्म प्रयाग में पुण्यसदन या भूरिकम्र्मा नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण के घर में हुआ था। कुल के पुरोहित श्री वाराणसी अवस्थी ने बालक के माता-पिता को उपदेश दिया था कि तीन साल तक बालक को घर से बाहर न निकालना, उसको दूध ही पिलाना और उसे कभी दपंण न दिखाना। अन्नप्राशन संस्कार में उसने खीर का ही स्पर्श किया। बाल्यावस्था से ही इनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी। बारह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते इन्होंने सभी शास्र पढ़ लिये थे। दर्शन शास्र का अध्ययन करने के लिए ये विशेष रुप से काशी आये। एक दिन रामानुज की शिष्य परम्परा के राघवानन्द से आपकी भेंट हुई। उन्होंने इन्हें देखते ही कहा, तुम्हारी आयु बहुत कम है और तुम अभी तक हरी की शरण में नहीं आये हो। इन्होंने राघवानन्द से मन्त्र और दीक्षा ली, उनके शिष्य बन गये और उनसे योग सीखने लगे। उसी समय उनका नाम रामानन्द रखा गया। उन्होंने पंचगंगा घाट पर एक घाटिया की झोपड़ी में रह कर तप करना प्रारंभ कर दिया।
लोगों ने उनसे ऊँचे स्थान पर कुटी बना कर रहने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया वहाँ रह कर ज्ञानार्जन और तपस्या करने लगे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी और बड़े-बड़े विद्वान तथा साधु उनके दर्शन के लिये आने लगे। उनके पास मुसलमान, जैन, बौद्ध, वेदान्ती, शास्रज्ञ, शैव और शाक्त सभी मत के लोग शंकाएँ ले कर आते थे समुचित समाधान पा कर खुशी-खुशी लौट जाते थे।
स्वामी रामानन्द ने राम की उपासना परब्रह्म के रुप में चलायी किंतु विशिष्ट द्वेैतवाद का प्रतिपादन एक नये ढंग से किया। पिछले पाँच सौ से अधिक वर्षों के कालखंड में रामोपासन का सर्वाधिक प्रचार स्वामी रामानन्द ने किया। रामानन्द स्वामी और चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी भगवान् की शरण में आये मुसलमानों को भी स्वीकार कर अपनी उदारता का परिचय दिया तथा हिंदुओं को मुसलमान होने से बचाया।
उनके शिष्यों में जाट, शूद्र, चमार, मुसलमान और स्री आदि सभी का समावेश था। विचारों से वे अत्यंत उदार थे। उनके इन विचारों के कारण भारत के दक्षिणी और उत्तरी भागों में सहिष्णुता की लहर दौड़ गयी। किंतु बाद में उनके अनुयाइयों में जाति-पाँति के संबंध में केवल इतनी ही उदारता बची रही कि भगवान् की शरण में सभी आ सकते थे। परंतु समाज में सभी वर्णों का अपना अपना स्थान यथावत् बना रहा।
रामायत अथवा श्री रामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक के रुप में स्वामी रामानन्द जी का नाम लिया जाता है। वे उच्चकोटि के आध्यात्मिक पुरुष थे। उनके अनुयायी अपने को रामानन्द सम्प्रदाय का ही कहते हैं किंतु उनके शिष्यों की रामानन्द स्वामी के नाम पर कोई परम्परा नहीं चली। उन्होंने रामोपासना की रीति चलायी किंतु वह स्मार्त्तों� में बिना सम्प्रदायवाद के फैली। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस तथा अन्य रचनाओं में उन्हीं के मत का प्रतिपादन किया है।
उन्होंने देश में उस समय चल रहे मुसलमानों के अत्याचार से बचने के लिये जाति-पाँति का बंधन ढीला कर दिया और सब को रामनाम के महामन्त्र का उपदेश दे कर अपने 'रामावत' - सम्प्रदाय में लाना चाहा।
उन्होंने रामानुज के श्री वैष्णव सम्प्रदाय की सीमा तोड़ कर उसे अधिक विस्तृत और उदार बनया। स्वामी रामानन्द ने संसार के लिये महान् कार्य किया। उन्होंने मुख्य रुप से तीन कार्यय किये - १. साम्प्रदायिक कलह को शांत किया। २. बादशाह गयासुद्दीन तुगलक की हिंदू-संहारिणी सत्ता को पूर्णरुप से दबा दिया और ३. हिंदुओं के आर्थिक संकट को भी दूर किया।
स्वामी जी तीर्थयात्रा करने के लिये अपनी शिष्यमंडली और साधु समाज के साथ जगन्नाथ जी, विजय नगर गये। विजयनगर के महाराज बुक्काराम ने इनका भव्य स्वागत किया। कई भण्डारे हुए और साधु ब्राह्मणों ने प्रसाद पाया। स्वामीजी ने राजा को उपदेश दिया, 'राजयोग में भोगविलास हानिकारक है। राजा जहाँ भोगविलास में लिप्त हो जाता है वहाँ राज्य और राजवंश नष्ट हो जाता है।'
उनके शिष्यों की संख्या ५०० से अधिक है। उनके प्रमुख शिष्य हैं - पीपा (क्षत्रिय), कबीर (जुलाहा), सेना (नाई), धन्ना (जाट), रैदास (चमार) आदि। इनके सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद अवरोध नहीं उत्पन्न कर सकता। श्री रामानन्दाचार्य ने प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखे हैं। वेदान्त दर्शन का श्री आनन्द भाष्य उनमें अन्यतम है। जीवन के आखिरी क्षणों में स्वामीजी ने अपनी शिष्यमंडली को संबोधित करते हुए कहा, 'सब शास्रों का सार भगवत्स्मरण है जो सच्चे संतो का जीवनसार है। कल - श्री रामनवमी है। मैं अयोध्याजी जाऊँगा। परंतु मैं अकेला ही जाऊँगा। सब लोग यहाँ रहकर उत्सव मनाये। कदाचित् मैं लौट न सकूं। आप लोग मेरी त्रुटियों एवं अविनय आदि को क्षमा कीजियेगा। यह सुन कर सब के नेत्र सजल हो गये। दूसरे दिन १४६७ में स्वामीजी अपनी कुटी में अंतध्र्यान हो गये।
वाराणसी वैभव
Content given by BHU, Varanasi
Copyright © Banaras Hindu University
All rights reserved. No part of this may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopy, recording or by any information storage and retrieval system, without prior permission in writing.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment