Tuesday, 5 September 2017

(श्री गुरुगीता श्लोक 152)........... हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम ! कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा 

JAI GURU GEETA GOPAL गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ।। भगवान शिवजी कहते हैं - "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है। यह मैं तीन बार कहता हूँ।" (श्री गुरुगीता श्लोक 152)........... हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम ! कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा !! "इस ब्लॉग में जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है" मनीष कौशल Sunday, February 26, 2012 Srimdbhagwat Part(1) सृष्टि के आरंभ से कलियुग तक की कथा है भागवत सृष्टि के आरंभ से कलियुग तक की कथा है भागवतश्रीमद् भागवत पुराण वैष्णव संप्रदाय सहित अन्य संप्रदायों के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसमें भगवान विष्णु के विभिन्न प्रमुख 24 अवतारों का वर्णन है, किंतु श्री कृष्ण चरित्र इसमें प्रधान माना जाता है।श्रीमद्भागवत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने ब्रह्मर्षि नारद की प्रेरणा से की।क्यों लिखी - कथा प्रचलित है कि महाभारत जैसे महाग्रंथ की रचना के बाद भी वेद व्यास संतुष्ट और प्रसन्न नहीं थे, उनके मन में एक खिन्नता का भाव था। तब श्री नारद ने वेद व्यास को प्रेरणा दी कि वे एक ऐसे ग्रंथ ही रचना करें जिसके केंद्र में भगवान विष्णु हों। इसके बाद वेद व्यास ने इस ग्रंथ की रचना की। श्रीमद् भागवत के 12 स्कंध हैं तथा 18 हजार श्लोक हैं। भारतीय पुराण साहित्य में श्रीमद् भागवत को समस्त श्रुतियों का सार, महाभारत का तात्पर्य निर्णायक तथा ब्रह्म सूत्रों का भाष्य कहा जाता है।इसमें सृष्टि की रचना से लेकर कलियुग यानी सृष्टि के विनाश तक की कहानी है। इसमें भगवान के अवतारों की कथाओं के जरिए जीवन में कर्म और अन्य शिक्षाओं को पिरोया गया है। भागवत व्यवहारिक और गृहस्थ्य जीवन का ग्रंथ है। इसमें आम जीवन में उपयोगी कई बातों को गूढ़ कथाओं में समझाया गया है। श्री वेद व्यास के पुत्र शुकदेव को इस कथा श्रेष्ठ कथाकार माना गया है। वे इस कथा का संपूर्ण मर्म जानते थे। उन्होंने ही इसे आमजनों में प्रचारित किया। क्या है भागवत के 12 स्कंधों में भागवत 12 स्कंधों में बंटी है, इन स्कंधों में कई अध्याय है। ग्रंथ का प्रारंभ भागवत माहात्म से होता है। जिसमें देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट होती है, भक्ति के दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्धावस्था और कमजोरी की हालत में होते हैं। नारद उन्हें इसका उपचार बताते हैं। इसके बाद गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा है। प्रथम स्कंध कथा : इसमें अवतार वर्णन, महाभारत युद्ध के पश्चात की कथा, परीक्षित श्राप व शुकदेव आगमन है। भगवान की सभी लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन, अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों को मारना, अर्जुन और अश्वत्थामा का युद्ध, उत्तरा के गर्भ की रक्षा, भीष्म का प्राण त्याग, कृष्ण के महाप्रयाण के बाद अर्जुन का लौटना और पांडवों का स्वर्गारोहण। पात्र : श्रीकृष्ण, सूतजी, शौनकादि ऋषि, अश्वत्थामा, पांडव, द्रोपदी, विदूर आदि। द्वितीय स्कंध कथा : इसमें शुकदेव द्वारा कथारंभ है, जिसमें सृष्टि आरंभ का वर्णन है। भगवान के स्थूल और सूक्ष्म रूपों का वर्णन, भगवान के विराट स्वरूप की कथा, भागवत के दस लक्षण। पात्र : शुकदेव, विदूर, मैत्रेयी, परीक्षित आदि। तृतीय स्कंध कथा : सृष्टि विस्तार, सांख्य तत्व उत्पत्ति, योग विषयक, उद्धव और विदूर की वार्ता, विराट शरीर की उत्पत्ति, ब्रह्माजी की उत्पत्ति, वाराह अवतार कथा, दिति का गर्भधारण, जय-विजय को सनकादिक ऋषि का शाप, हिरण्यकक्षिपु और हिरण्याक्ष का जन्म, दिग्विजय, वध, देवहुति और कर्दम ऋषि का विवाह आदि प्रसंग। पात्र - विदूर, उद्धव, मैत्रेयी, जय-विजय, भगवान विष्णु, ब्रह्मा, हिरयणकक्षिपु, हिरण्याक्ष आदि। चतुर्थ स्कंध कथा : शिव कथा, स्वायम्भुव मनु की पुत्रियों का वंश वर्णन, ध्रुव की कथा, राजा वेन और पृथु की कथा, पृथ्वी का दोहन, राजा पुरंजय की कथा, प्रचेता कथा। पात्र : भगवान शिव, सति, प्रजापति दक्ष, धु्रव, राजा वेन, पृथु, पृथ्वी, पुरंजय, प्रचेता आदि। पंचम स्कंधकथा : ऋषभदेव चरित्र, भरत चरित्र, भुवनकोश का वर्णन, गंगा का वर्णन, शिशुमारचक्र का वर्ण, राहु आदि का वर्णन, अन्यान्य लोको का वर्णन। पात्र : राजा प्रियव्रत, आग्रिध, नाभि, ऋषभदेव, भरत, जड़भरत, रहूगण, शिव, संकर्षण और राहु। षष्ठ स्कंधकथा : प्रजापति वंश वर्णन, इंद्र ब्रह्म हत्या, अजामिल की कथा, दक्षपुत्रों की कथा, विश्वरूप का वर्णन, वृत्रासुर का वध, चित्रकेतु का वैराग्य, अदिति और दिति की संतानों का वर्णन। पात्र : दक्ष, नारद, विष्णु, चित्रकेतु, अजामिल, वृत्रासुर, कश्यप, अदिति-दिति आदि। सप्तम स्कंधकथा : प्रह्लाद चरित्र, नरसिंह अवतार, हिरण्यकशिपु का वध, मानव, राजधम और स्त्रीधर्म का निरुपण, गृहस्थों के लिए मोक्षधर्म का वर्णन। पात्र - नारद, युधिष्ठिर, जय-विजय, हिरण्यकशिपु, नरसिंह, आदि। अष्टम स्कंध कथा : प्रमुख रूप से देवासुर संग्राम कथा, मनवंतरों का वर्णन, समुद्रमंथन, मोहिनी अवतार की कथा, राजा बलि की स्वर्ग पर विजय, वामन अवतार की कथा। पात्र : ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र, बलि, बृहस्पति, मनु, कश्यप, अदिति आदि। नवम् स्कंध कथा : मनुवंश की कथा, सूर्यवंश, श्रीराम लीला, भगीरथ का तप से गंगा को पृथ्वी पर लाना, परशुराम द्वारा क्षत्रियों का संहार, ययाति चरित्र आदि। पात्र : वैवस्तव मनु, नाभाग, अंबरीष, भगीरथ, सगर, निमि, ऋचिक, जमदग्रि, परशुराम, दशरथ, श्रीराम आदि। दशम स्कंध कथा : वसुदेव देवकी का विवाह, कंस द्वारा बंदी बनाया जाना, श्रीकृष्ण जन्म, ब्रज में श्रीकृष्ण की बाललीलाएं, असुरों का वध, कंस वध, श्रीकृष्ण की शिक्षा, विवाह, पांडवों की कथा, पांडवों को वनवास, कौरवों की हठ, महाभारत युद्ध, गीता उपदेश। पात्र : श्रीकृष्ण, वसुदेव, देवकी, बलराम, नंद, यशोदा, कंस, अक्रूर, उद्धव, गोप-गोपियां, पांडव, कौरव आदि। एकादश स्कंधकथा : अवधूत उपाख्यान, सांख्य क्रिया योग, विभिन्न आश्रमों पर उपदेश हैं।पात्र : राजा जनक, नारद, वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि। द्वादश स्कंधकथा : कलियुग धर्म, वंशावली व भागवत माहात्म का वर्णन है। यह सीखें भागवत से श्रीमद् भागवत से प्राप्त भक्ति, ज्ञान और वैराग्य जीवन में बदलाव लाते हैं। मनुष्य अधर्म अर्थात गलत कार्यों को छोड़कर धर्म के अर्थात अच्छाई के मार्ग पर चलता है। - जब मनुष्य प्रत्येक वस्तु या प्राणी में ईश्वर को देखता है तो अन्याय, अनीति, अत्याचार और अपमान करने से बचता है। उसमें दया और सद्भाव के गुण आते हैं। - माया-मोह, लोभ, मद और वासना जैसी बुराइयों से मुक्त हो जाता है। - आज जब सारे संसार में आपसी द्वेष और स्वार्थ का युद्ध छिड़ा हुआ है, ऐसे में श्रीमद् भागवत ही संपूर्ण विश्व को मानवता, सद्भाव और संवेदनशीलता का संदेश दे सकती है। - श्रीमद् भागवत केवल मानव-मानव के बीच ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति हमें सहिष्णु बनाती है, वहीं प्रकृति और मनुष्य के बीच भी समन्वय स्थापित करती है। - आवश्यकता इस बात की है कि हम श्रीमद् भागवत को आज के संदर्भ में समझें और जन-जन को इसके संदेश से परिचित कराएं। युवाओं का ग्रंथ है श्रीमद्भागवत..! युवाओं की यह सोच है कि धर्म ग्रंथ बुढ़ापे में पढ़ने के लिए होते हैं। श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथ को भी युवा नहीं पढ़ते हैं, इसे भी वृद्धावस्था में समय काटने का साधन मानते हैं लेकिन सच यह है कि यह ग्रंथ केवल युवाओं के लिए है। यह युवा अवस्था की ही कहानी है और इसमें जीवन प्रबंधन के जो फंडे हैं वे भी युवाओं के लिए हैं, जीवन के उपयोगी सूत्र हैं। आप जानते हैं महात्मा गांधी ने अपनी युवा अवस्था में इस ग्रंथ को पढ़ा था और उसके बाद ही उनके जीवन में वह बदलाव आया, जिसने उन्हें बेरिस्टर मोहनदास गांधी से महात्मा गांधी बना दिया। इसमें जीवन प्रबंधन के गूढ़ रहस्य हैं, जिन्हें कई लेखक प्रेरित होकर जीवन प्रबंधन की अपनी किताबों में शामिल कर रहे हैं। आइए जानते हैं ऐसा क्या है श्रीमद्भागवत में..। वास्तव में भागवत पुराण भगवान विष्णु के अवतारों की कहानी है। भगवान के चौबीस अवतारों का वर्णन है, जिसमें भगवान ने जीवन में सफलता के सूत्र स्थापित किए हैं। महर्षि वेद व्यास ने इसकी रचना करते समय युवाओं को ही ध्यान में रखा, इसलिए इस पूरे ग्रंथ के सूत्रधार दो युवा ही हैं। पहले हैं राजा परीक्षित जिन्होंने यह कथा सुनी और दूसरे हैं वेद व्यास के 16 वर्षीय पुत्र शुकदेव जिन्होंने राजा परीक्षित को यह कथा सुनाई। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें जितनी भी कहानियां हैं, अधिकांश युवाओं की है जिन्होंने अपने युवा जीवन में अद्भुत कर्म किए। इसमें वृद्धावस्था का वर्णन बहुत थोड़ा है, सारे युवा राजाओं, भगवान के अवतारों की ही कथा है। जिनके जरिए यह संदेश दिया गया है कि अगर मनुष्य अपने लक्ष्य को जल्द ही पहचान ले तो वह बहुत कम समय में कैसे अधिक सफलता हासिल कर सकता है और जीवन के सारे सुख भोग सकता है। यह ग्रंथ युवा अवस्था के ऐसे डर को दूर करता है जो अमूमन हर व्यक्ति के जीवन में होते हैं। अगर आपके जीवन में भी ऐसे कोई डर हों, सही रास्ता नहीं सूझता हो, मन में अशांति रहती हो तो श्रीमद्भागवत का पाठ करें और इसमें छिपे सफलता के सूत्रों को समझने का प्रयास करें, आपको खुद के भीतर ही परिवर्तन महसूस होने लगेगा यहां से शुरू होती है भागवत श्रीमद्भागवत महापुराण की शुरुआत महात्म्य से होती है। ऐसी मान्यता है कि हर ग्रंथ के पाठ से पहले उसके महात्म्य की बात की जाती है। महात्म्य का अर्थ होता है महत्व, कुछ विद्वान इसका अर्थ महानता से भी लेते हैं। श्रीमद् भागवत में महात्म्य के छह अध्यान हैं। इसमें मुख्य पात्र सूतजी, शौनक आदि ऋषि, व्यास, नारद, शुकदेव, धुंधकारी व गोकर्ण है। भागवत में कुल 12 स्कंध हैं। माहात्म्य इनके अतिरिक्त है। माहात्म्य सबसे पहले बताया गया है। छह छोटे अध्यायों में बंटे माहात्म्य की कथा नारद की भक्ति से भेंट के साथ शुरू होती है। नारद पृथ्वी पर आते हैं और कलियुग में पृथ्वी की दुर्दशा देखकर दु:खी होते हैं। तब यमुना के तट पर उन्हें एक स्त्री दिखाई देती है। पूछने पर पता चलता है वह भक्ति है। उसके साथ दो पुत्र भी मिलते हैं जो थके हुए हैं। एक ज्ञान है दूसरा वैराग्य। भक्ति के निवेदन पर नारद दोनों पुत्रों को नींद से जगाते हैं और उनकी थकान दूर करते हैं। कलियुग में धर्म की स्थापना के लिए भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को भागवत का माहात्म्य बताया जाता है और तीनों संतुष्ट होते हैं। इसी के साथ माहात्म्य की कथा आगे बढ़ती है। इसी में आत्मदेव का प्रसंग है। आत्मदेव एक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी धुंधुलि झगड़ालु थी। दोनों नि:संतान थे। एक दिन संतान न होने पर द़ु:खी आत्मदेव को एक संन्यासी मिला। संन्यासी ने आत्मदेव को एक फल दिया और कहा कि इसे पत्नी को खिलाना, तब पुत्र की प्राप्ति होगी। आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधुलि को दिया लेकिन धुंधुलि ने फल खुद न खाते हुए अपनी बहन को दे दिया। बहिन पहले से गर्भवती थी। उसने वह फल गाय को खिला दिया। कुछ समय बाद बहिन को पुत्र हुआ और उसने वह पुत्र अपनी बहिन धुंधुलि को दे दिया। आत्मदेव और धुंधुलि के इस पुत्र का नाम धुंधुकारी रखा गया। इधर जिस गाय को संन्यासी का दिया फल खिलाया गया था उसने भी मनुष्य रूप में एक शिशु को जन्म दिया। इसका नाम गोकर्ण रखा गया। दोनों बालक धुंधुकारी और गोकर्ण साथ पले-बढ़े। गोकर्ण ज्ञानी हुआ तो धुंधुकारी दुष्ट निकला। धुंधुकारी ने बुरी संगत में पड़कर पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी। उसके ऐसे आचरण से दु:खी पिता आत्मदेव को दूसरे पुत्र गोकर्ण ने समझाइश दी और आत्मदेव मोह त्यागकर वन में चले गए। इधर धुंधुकारी ने अपनी मां को पीटना शुरू किया। वह पांच वेश्याओं के चक्कर में पड़ गया। वेश्याओं ने उससे धन व आभूषण मांगे और नहीं देने पर उसकी हत्या कर दी। धुंधुकारी प्रेत बना। कुछ समय बाद गोकर्ण की अपने प्रेत बने भाई से मुलाकात हुई। तब गोकर्ण ने अपने प्रेत भाई धुंधुकारी को भागवत की कथा सुनाई और उसकी मुक्ति हुई। इस तरह भागवत के इस माहात्म्य के स्कंध में गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा के माध्यम से भागवत सुनने के फायदे बताए गए हैं। धुंधुकारी जिन पांच वेश्याओं के चक्कर में थे वे प्रतीक रूप में इंद्रियां हैं। इंद्रियों के वश में पड़े धुंधुकारी का नाश हुआ और वह अकाल मृत्यु मर कर प्रेत बना। उसी का भाई गोकर्ण ज्ञानी हुआ और भागवत सुनाकर उसने अपने प्रेत भाई को मुक्त किया। कौन हैं सूतजी और वेद व्यास सूतजी- पुराणों में सूतजी को परम ज्ञानी ऋषि कहा गया है। वे भागवत की कथा सुनाते हैं। कथा सुनने वालों में शौनक सहित 84 हजार ऋषि शामिल हैं। शौनक- ये भी ऋषि हैं। जिज्ञासु और भागवत कथा के रसिक हैं। वे सूतजी से कथा सुनते हैं। वेद व्यास- ये विष्णु के अंशावतार माने गए हैं। उन्होंने ब्रह्मासूत्र, महाभारत के अलावा भागवत सहित 18 पुराण लिखे। इन्होंने ही वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें वेद व्यास कहा जाता है | जवान मां के बूढ़े बच्चे हैं ये यह सुनने में अजीब लगता है लेकिन सत्य है। श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा यहीं से शुरू होती है। ये कथा भागवत का महात्म्य है। हर ग्रंथ के शुरुआत में उसका महात्म्य होता है। भागवत के इसी महात्म्य में यह कथा है, जब नारद मृत्युलोक यानी पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और उन्हें एक युवती रोती दिखाई देती है। उसकी गोद में सिर रख दो बूढ़े पुरुष सो रहे हैं, दोनों बहुत कमजोर और बीमार दिखाई दे रहे हैं। जब नारद उस युवती से पूछते हैं तो वह बताती है कि दोनों बूढ़े पुरुष उसके पुत्र हैं। यह सुनकर नारद को बड़ा आश्चर्य होता है, एक जवान स्त्री के बच्चे इतने बूढ़े कैसे हो सकते हैं। तब वह युवती बताती है कि वह भक्ति है और उसके दोनों बूढ़े पुत्र पहले स्वस्थ्य और जवान थे लेकिन कलियुग में उनकी यह दुर्दशा हो गई है। दोनों पुत्रों के नाम थे ज्ञान और वैराग्य। तब नारद भक्ति को श्रीमद् भागवत का श्रवण करने का उपाय बताते हैं, जिससे उसके बूढ़े बच्चे ज्ञान और वैराग्य फिर स्वस्थ्य और जवान हो गए। कथा यह बताती है कि कलियुग यानी आधुनिक युग में लोगों में भक्ति तो होगी लेकिन ज्ञान और वैराग्य का अभाव होगा। ज्ञान इसलिए नहीं होगा क्योंकि लोग धर्म शास्त्रों का अध्ययन करना छोड़ देंगे। ज्ञान नहीं होगा तो मन में वैराग्य का भाव नहीं आएगा। भक्ति अधूरी ही रहेगी, ज्ञान और वैराग्य के बिना। परम ज्ञान के लिए भागवत का अध्ययन सबसे श्रेष्ठ उपाय है। इससे हमें सारी सृष्टि का ज्ञान होता है और जीवन को नई दृष्टि मिलती है। और लक्ष्मी ने मांगा विष्णु को भागवत में भगवान विष्णु के अवतार वामन और राजा बलि का प्रसंग आता है। दैत्यराज बलि दानवीर था। वह किसी को खाली हाथ नहीं जाने देता था। भगवान वामन ने राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। दानी बलि वामनदेव को तीन पग जमीन देने के लिए मान गए। वामनदेव ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। जब भगवान वामन ने दो ही पग में स्वर्ग और पृथ्वी नाप ली तो तीसरा पैर कहां रखे? इस बात को लेकर बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। वचन के पक्के बलि अपना सिर भगवान के सामने कर दिया और कहा हे देव तीसरा पग आप मेंरे सिर पर रख दीजिए। भगवान वामन ने वैसा ही किया और पैर रखते ही बलि सुतल लोक में पहुंच गया। बलि की उदारता से भगवान बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे सुतल लोक का राजा बना दिया और वर मांगने के लिए कहा। बलि ने वर मांगा कि भगवान विष्णु आप मेरे द्वारपाल बनकर रहें। विष्णु ने उसे यह वर प्रदान किया और वे बलि के द्वारपाल बनकर रहने लगे। इससे विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी चिंता में पड़ गईं कि अगर स्वामी सुतल लोक में द्वारपाल बन कर रहेंगे तब बैकुंठ लोक का क्या होगा? देवी लक्ष्मी ऐसा विचार कर ही रही थी कि देवर्षि नारद वहां आ गए। देवर्षि को देख लक्ष्मीजी ने उन्हें अपनी समस्या कह सुनाई। नारदजी ने कहा कि आप राजा बलि को अपना भाई बना लीजिए। लक्ष्मीजी ने वैसा ही करा और राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर भाई बना लिया। तब बलि ने बहन लक्ष्मी से वर मांगने के लिए कहा। लक्ष्मीजी ने तुरंत ही अपने स्वामी भगवान विष्णु को वर में मांग लिया। इस तरह देवी लक्ष्मी को भगवान विष्णु पुन: मिल गए। श्रीहरि ने बचाए गजेंद्र के प्राण भागवत के अनुसार तामस मन्वंतर में हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणि के गर्भ से श्रीहरि के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया। इसी अवतार में उन्होंने मगरमच्छ से गजेन्द्र हाथी की रक्षा की।गजेंद्र एक हाथी था। गजेंद्र पूर्व जन्म में द्रविड़ देश का इन्द्रद्युम्र नाम का राजा था। जो कि भगवान का अनन्य भक्त था। भक्ति के वश होकर राजा ने सबकुछ छोड़कर पर एक पर्वत पर मौनव्रत धारण कर रहने लगा। पर्वत पर वह कठोर तप में लीन हो गया। एक दिन उनके पास महर्षि अगस्त्य आए परंतु इंद्रद्युम्र भगवान की भक्ति में इतने खोए थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि महर्षि अगस्त आए हैं। इसी कारण इन्द्रद्युम्र ने अगस्त मुनि की न आवभगत की और न ही उनके चरण-स्पर्श किए। तब अगस्त्य मुनि ने उनको हाथी बनने का शाप दे दिया था। इसी शाप के प्रभाव से इन्द्रद्युम्र अगले जन्म में गजेंद्र नाम का हाथी बना। गजेंद्र हाथी अन्य हाथियों के साथ एक सरोवर में पानी पीने के लिए गया लेकिन पानी पीने के बाद वह सरोवर में साथी हाथियों के साथ जलक्रीड़ा करने लगा। इसी दौरान सरोवर में एक मगरमच्छ ने गजेंद्र का एक पैर पकड़ लिया। हाथी ने पहले तो खुद को बचाने के बहुत प्रयास किए परंतु उसके सारे प्रयास असफल हो गए। अब गंजेंद्र ने मृत्यु निश्चित मानकर भगवान का स्मरण आरंभ कर खुद को भगवान की शरण में छोड़ दिया। गजेंद्र को अपने पूर्वजन्म में की गई भगवान की आराधना का स्मरण था। उस समय गजेंद्र ने परमात्मा की जो प्रार्थना की वह गजेंद्र मोक्ष त के नाम से प्रसिद्ध हुई। गजेंद्र की प्रार्थना सुन कर भगवान विष्णु वहां आए और गजेंद्र को उस मगर से बचाया। विष्णु का यह अवतार श्रीहरि अवतार कहा गया है। भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र के प्राणों की रक्षा की तथा मोक्ष प्रदान कर अपना पार्षद बनाया। भक्ति सिखाती है भागवत श्रीमद् भागवत कथा भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को स्थापित करती है। नारदजी कहते हैं अनेक जन्मों के पुण्य इकट्ठे होते हैं तो सत्संग मिलता है जिससे मनुष्य का मोह-मद का अंधकार हट जाता है तथा विवेक का उदय होता है। भागवत में धुंधुकारी प्रसंग बताता है कि किस तरह मनुष्य वेश्यारूपी पांच इंद्रियों की इच्छाएं पूरी करने में जीवन नष्ट कर देता है और अंत में वह प्रेत बन जाता है, जिसे भागवत कथा सुनने के बाद मुक्ति मिलती है। भागवत के पहले स्कंध में प्रमुख रूप से कलियुग से प्रभावित राजा परीक्षित की मुक्ति का प्रसंग हमें संदेश देता है कि जीवन का मुख्य लक्ष्य जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति पाना है। जीवन का जो समय बचा है उसे इस दिशा में ले जाएं। भागवत में स्कंध-दर-स्कंध आगे बढ़ती कथा के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से यही समझाया गया है कि इस संसार के पहले भी एकमात्र ईश्वर था और इस दिखाई देने वाले सारे संसार में वही ईश्वर है। जब यह संसार खत्म होगा तो यही ईश्वर शेष रह जाएगा। प्राणियों के शरीर के रूप में पंचभूत (आकाश, पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि) ईश्वर हैं तो आत्मा के रूप में ईश्वर है। कहने का तात्पर्य यही है कि संपूर्ण संसार में एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर ही वास्तविकता है। इसलिए हमें सभी में ईश्वर को ही देखना चाहिए। श्रीमद् भागवत हमें ईश्वर को समझने के लिए पहले भक्ति सिखाती है, फिर इसका ज्ञान देती है। भक्ति और ज्ञान से जब हम ईश्वर की सत्ता को समझ लेते हैं तो मन वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। इस स्थिति में श्रीमद् भागवत हमें वास्तविक वैराग्य से परिचित कराती है। क्रमश:... जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK Manish Kaushal at 8:37 PM No comments: Share  Srimdbhagwat Part(2) खुद से परिचित होने का ग्रंथ है भागवत आज से हम एक ऐसे ग्रंथ में प्रवेश कर रहे हैं जो वैष्णवों का परम धन है, पुराणों का तिलक है, ज्ञानियों का चिंतन, संतों का मनन, भक्तों का वंदन तथा भारत की धड़कन है। किसी का सौभाग्य सर्वोच्च शिखर पर होता है तब उसे श्रीमद्भागवत पुराण कहना, सुनना और पढऩा मिलता है। भागवत महापुराण वह शास्त्र हैं जिसमें बीते कल की स्मृति, आज का बोध और भविष्य की योजना है। तो आज भागवत में प्रवेश करने से पहले थोड़ा भीतर उतरने की तैयारी करिए। यह स्वयं मूल से परिचित कराने का ग्रंथ है। भगवान ने भागवत की पंक्ति-पंक्ति में ऐसा रस भरा है कि वे स्वयं लिखते हैं- पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरवो रसिका भुवि भावुका:। हमारे भीतर जो रहस्य भरा हुआ है उसको उजागर करने के लिए भागवत एक अध्यात्म दीप है जैसे हम भोजन करते हैं तो हमको संतुष्टि मिलती है उसी प्रकार भागवत मन का भोजन है। जब मन को ऐसा शुद्ध भोजन मिलेगा तो मन संतुष्ट होगा, पुष्ट होगा और तृप्त होगा और जिसका मन तृप्त है उसके जीवन में शांति है। भागवत में प्रवेश करें तो कुछ बातें स्पष्ट करते चलें। हम जिस रूप में इस सद्साहित्य को पढ़ते चलेंगे, हमारे तीन आधार हैं। संत और महात्माओं का यह कहना है और शोध से ज्ञात भी हुआ है। पहली बात है भगवान ने अपना स्वरूप भागवत में रखा तो भागवत भगवान का स्वरूप है। दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है और तीसरी बात हमारे जीवन का व्यवहार है। ये तीन बातें भागवत में हैं। भगवान बसे हैं भागवत में भागवत में 12 स्कंध हैं (12 चेप्टर)। उन 12 स्कंधों में 335 छोटे-छोटे अध्याय हैं जिन्हें सेक्शन कह लें और 18 हजार श्लोक हैं। जो 12 स्कंध हैं उसमें भगवान का स्वरूप बताया है। पहला और दूसरा अध्याय भगवान के चरण , तीसरा और चौथा स्कंध भगवान की जंघाएं, पांचवां स्कंध भगवान की नाभि , छठा वक्षस्थल, सात और आठ बाहू , नौ कंठ, दस मुख, ग्यारह में ललाट और बारह में मूर्धा है। भगवान का वाड्.मय स्वरूप भागवत के स्कंधों में बंटा हुआ है तो भागवत में बसे हुए हैं भगवान। भागवत का एक और अर्थ है भाग मत। बहुत सी ऐसी स्थिति आती है हमारे जीवन में, या तो आदमी बाहर भागता है या भीतर भागने लगता है। भाग मत भागवत कहती है रुकिए, देखिए और फिर चलिए। एक और अर्थ है भागवत का। चार शब्द है भ, ग, व, त। जिनका अर्थ है भ से भक्ति, ग से ज्ञान, व से वैराग्य और त से त्याग। दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है। हमारे यहां चार प्रमुख ग्रंथ हैं और चारों ग्रंथ भागवत में समाविष्ट हैं। इतनी सुंदर रचना वेदव्यासजी ने की है। महाभारत हमें रहना सिखाती है आर्ट ऑफ लिविंग जिसे कहते हैं। कैसे रहें, जीवन की क्या परंपराएं हैं, क्या आचारसंहिता, क्या सूत्र हैं, संबंधों का निर्वहन कैसे किया जाता है यह सब महाभारत से सीखा जा सकता है। जीवन का दूसरा साहित्य है गीता। गीता हमें सिखाती है करना कैसे है आर्ट ऑफ डुईंग। भागवत महापुराण के दो से आठ स्कंध तक हम गीता में करना कैसे ये देखेंगे। रामायण हमें जीना सिखाती है भागवत में नवें स्कंध में श्रीरामकथा आई है। रामायण हमें सिखाएगी आर्ट ऑफ लिविंग। अंतिम चरण में भागवत कहती है मरना कैसे है। यह इस ग्रंथ का मूल विचार है, 'आर्ट ऑफ डाइंग। भागवत के दसवें, ग्यारहवें और बारहवें स्कंध में भगवान की लीला आएगी। यह चार ग्रंथ इस भागवत में समाए हुए हैं और इसी रूप में चर्चा करते चलेंगे तो आप इसे स्मरण में रखिए। .. गृहस्थी का ग्रंथ है भागवत हम सब गृहस्थ लोग हैं, दाम्पत्य में रहते हैं। भागवत की घोषणा है कि मैं दाम्पत्य में आसानी से प्रवेश कर जाती हूं। हमारे दाम्पत्य के सात सूत्र हैं- संयम, संतुष्टि, संतान, संवेदनशीलता, संकल्प, सक्षम और समर्पण। इन सात सूत्रों को हम प्रतिदिन भागवत में स्पष्ट करते चलेंगे।हमने भागवत में भगवान का स्वरूप देख लिया। ग्रंथों का सार देख लिया और जीवन का व्यवहार भी देख लिया। लोगों के मन में प्रश्न उठता है भागवत किसने कही, किसने सुनी? वेदव्यासजी ने ऐसा ग्रंथ रचा कि जिसमें बहुत सारे स्तर पर बहुत सारी कथाएं चलती हैं। इस कारण भागवत पढऩे वाले भ्रम में आ जाते हैं कि अभी तो ये बोल रहे थे, अभी तो इनकी कथा चल रही थी, अचानक दूसरी कथा आ जाती है तो लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। भ्रम न पालें, सबसे पहले हम ये जान लें कि भागवत लिखने की नौबत क्यों आई? वैसे तो इसका उत्तर भागवत के प्रथम स्कंध के चौथे अध्याय में आता है पर मैं आपको यहीं बता रहा हूं। भागवत का आरंभ उसके महात्म्य से होता है। जिसे सामान्य भाषा में संदेश(प्रोमो) कहते हैं। क्या बात हुई जो भागवत लिखनी पड़ी? महर्षि वेदव्यास जिनका नाम कृष्णद्वेपायन है। ब्रह्माजी ने जब वेद रचे तो उनको सौंप दिए। व्यासजी ने वेदों का संपादन किया। चार वेद उन्होंने बनाए ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वेद और सामवेद। फिर व्यासजी ने 18 पुराण लिखे। फिर व्यासजी ने महाभारत की रचना की, जिसको कहते हैं पंचम वेद। ऐसी अद्भुत रचना की कि महाभारत को पढऩे के बाद सारे संसार ने ये तय कर लिया कि जो कुछ भी इस महाभारत में है वो सारा संसार में है और जो इसमें नहीं है वह संसार में नहीं है। भागवत के नायक हैं श्रीकृष्ण महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखने के बाद व्यासजी एक दिन बैठे तो उनके भीतर उदासी जाग गई। उसी समय नारदजी आए। उन्होंने पूछा व्यासजी क्या बात है इतना बड़ा सृजन करने के बाद आपके चेहरे पर उदासी क्यों है?सृजन के बाद तो आनंद होना चाहिए। व्यासजी ने नारदजी से बोला मेरा भी यही प्रश्न है आपसे। मैंने महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखा, मैं थका हुआ क्यों हूं, उदास क्यों हूं। नारदजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया और वह हमारे बड़ा काम का है। नारदजी ने कहा व्यासजी ये तो होना ही था क्योंकि आपने जो रचना की है उसके नायक पांडव हैं और खलनायक कौरव हैं।आपकी रचना के केंद्र में मनुष्य है, विवाद है, षडयंत्र हैं। आप कोई ऐसा साहित्य रचिए जिसके केंद्र में भगवान हों। तब आपको शांति मिलेगी। हमें समझने की बात ये है कि जीवन की जिस भी गतिविधि के केंद्र में भगवान नहीं होगा, वहां अशांति होगी। इसीलिए भगवान को केंद्र में रखिए और सारे काम करिए। बात व्यासजी को समझ में आ गई। तब उन्होंने भागवत की रचना की जिसके नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। तब जाकर उनको शांति मिली। इसीलिए भागवत का पाठ किया जाता है जिसे सुनने के बाद मनुष्य को शांति मिलती है। लोग कहते हैं महाभारत घर में नहीं रखना चाहिए।महाभारत नहीं रखते। क्योंकि उपद्रव होता है। लोग रामायण रखते हैं घर में, लेकिन रामायण जैसा आचरण नहीं करते। अगर आप महाभारत पढऩा चाहें तो अवश्य पढि़ए, घर में रखिए यह वही ग्रंथ है जो व्यासजी ने लिखा है। व्यासजी ने बड़ी सुंदर रचना भागवत के रूप में की है। केंद्र में भगवान को रखा और केंद्र में भगवान को रखने के बाद महात्म्य का आरंभ कर रहे हैं। केन्द्र में भगवान हों और व्यक्तित्व में प्रसन्नता हो इसलिए हमेशा मुस्कुराइए.... आनंद चाहिए तो सच्चिदानंद का ध्यान करें भागवत माहात्म्य में श्लोक वर्णित है- सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।। अर्थात जो जगत की उत्पत्ति और विनाश के लिए है तथा जो तीनों प्रकार के ताप के नाशकर्ता हैं ऐसे सच्चिदानंद स्वरूप भगवान कृष्ण को हम सब वंदन करते हैं। सत यानी सत्य, परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है। चित्त, जो स्वयं प्रकाश है। आनंद-आत्मबोध। शास्त्रों में परमात्मा के तीन स्वरूप कहे गए हैं सत, चित और आनंद। सत प्रकट रूप से सर्वत्र है। जड़ वस्तुओं में सत तथा चित है किंतु आनंद नहीं। जीव में सत और चित प्रकटता है पर आनंद अप्रकट रहता है अर्थात अप्रकट रूप से विराजमान अवश्य है। वह अव्यक्त रूप से है। वैसे आनंद अपने अन्दर ही है। फिर भी मनुष्य आनंद को बाहर खोजता है। इस आनंद को जीवन में किस प्रकार प्रकट करें यही भागवत शास्त्र हमें बताता है। आनंद के अनेक प्रकार तैतरीय उपनिषद् में बताए गए हैं परंतु इनमें से दो मुख्य हैं पहला साधनजन्य आनंद और दूसरा है स्वयंसिद्ध आनंद। जिसका ज्ञान नित्य टिकता है उसे ही आनंद मिलता है वही आनंदमय होता है। जीव को यदि आनंद रूप होना हो तो उसे सच्चिदानंद के आश्रय होना पड़ेगा । भागवत कहती है मेरे लिए कुछ भी नहीं छोडऩा है। वेद, त्याग का उपदेश करते हैं, शास्त्र कहते हैं काम छोड़ो, क्रोध छोड़ो, परंतु मनुष्य कुछ नहीं छोड़ सकता । संसार में फंसे जीव उपनिषदों के ज्ञान को पचा नहीं सकते । इन सब बातों का विचार करके भगवान व्यासजी ने श्रीमद्भागवत शास्त्र की रचना की है। भगवान का पहला स्वरूप है सत्य भागवत महात्म्य के आरंभ में सबसे पहले लिखा है-सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।। ये पहला श्लोक है भागवत का। प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द है सच्चिदानंदरूपाय। भागवत आरंभ हो रहा है और भागवत ने घोषणा की सत, चित और आनंद। भगवान के तीन रूप हैं सच्चिदानंद रूपाय सत, चित और आनंद। भगवान के रूप को प्रकट किया। भगवान तक पहुंचने के तीन मार्ग है सत, चित और आनंद। इन तीन रास्तों से आप भगवान तक पहुंच सकते हैं। आप देखना चाहें भगवान का स्वरूप क्या है तो भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट नहीं होंगे। भगवान का पहला स्वरूप है सत्य। जिस दिन आपके जीवन में सत्य घटने लगे आप समझ लीजिए आपकी परमात्मा से निकटता हो गई। सत भगवान का पहला स्वरूप है फिर कहते हैं चित स्वयं के भीतर के प्रकाश को आत्मप्रबोध को प्राप्त करिए। फिर है आनंद। देखिए सत और चित तो सब में होता है पर आपमें जो है उसे प्रकट होना पड़ता है। वैसे तो आनंद हमारा मूल स्वभाव है पर हमको आनंद निकालना पड़ता है मनुष्य का मूल स्वभाव है आनंद फिर भी इसके लिए प्रयास करना पड़ता है। सत, चित, आनंद के माध्यम से भागवत में प्रवेश करें। यहां भागवत एक और सुंदर बात कहती है भागवत की एक बड़ी प्यारी शर्त है कि मुझे पाने के लिए, मुझ तक पहुंचने के लिए या मुझे अपने जीवन में उतारने के लिए कुछ भी छोडऩा आवश्यक नहीं है। ये भागवत की बड़ी मौलिक घोषणा है। इसीलिए ये ग्रंथ बड़ा महान है। भागवत कहती है मेरे लिए कुछ छोडऩा मत आप। संसार छोडऩे की जरूरत नहीं है। कई लोग घरबार छोड़कर, दुनियादारी छोड़कर पहाड़ पर चले गए, तीर्थ पर चले गए, एकांत में चले गए तो भागवत कहती है उससे कुछ होना नहीं है। मामला प्रवृत्ति का है। प्रवृत्ति अगर भीतर बैठी हुई है तो भीतर रहे या जंगल में रहें बराबर परिणाम मिलना है। सबका उद्धार करती है भागवत भागवत कहती है कि योगियों को जो आनंद समाधि में मिलता है, गृहस्थों को वही आनंद घर में बैठकर भागवत से मिल सकता है। ये भागवत की मौलिक घोषणा है।भागवत ने बोला आपसे घर नहीं छूटता तो कोई बड़ा भारी काम करने की आवश्यकता नहीं। घर में रहें, संसार में रहें। घर में रहना कोई बुरा नहीं है। हां हमारे भीतर घर रहने लगे वहां से झंझट चालू होती है। भागवत इस अंतर को बताएगी कि क्या फर्क है संसार में रहने में और संसार अपने भीतर रहने में। इसलिए भागवत ने कहा है कुछ छोडऩे की आवश्यकता नहीं, मेरे साथ रहो। ऐसे कई प्रसंग आएंगे कि भागवत ये साबित कर देगी कि यहीं स्वर्ग है और यहीं नर्क है। ये तो हम ही लोग हैं जो इसको नर्क बनाए जा रहे हैं। इस भागवत शास्त्र की रचना कलयुग के जीवों के उद्धार के लिए की गई है। श्रीमद्भागवत में एक नवीन मार्गदर्शन कराया गया है। घर में रहकर भी आप भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, प्राप्त कर सकते हैं परंतु आपका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय हो जाना चाहिए। गोपियों का प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बन गया था। भागवत में कहा है घर में रहो, अपने स्वभाव में रहो और संसार में फिर परमात्मा को प्राप्त कर सकते है। घर में रहें या बाहर अपनों से मिलें या परायों से। लेकिन जरा मुस्कुराइए... निष्काम भक्ति सीखाती है भागवत आज इस बात की चर्चा की जाए कि भागवत का मूल विषय क्या है? भागवत का मूल है निष्काम भक्ति। भागवत में बार-बार आपको यह शब्द मिलता रहेगा। भागवत ने कहा है मेरा मूल विषय है निष्काम भक्ति। निष्काम भक्ति का अर्थ है आप कर रहे हैं फिर भी आप नहीं कर रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं डूइंग है डूअर नहीं है। निष्कामता वहीं घटती है जिसमें आपके कर्म में से मैं चला जाए। आपके काम में से जिस दिन कर्ता बोध का अभाव हो जाए उस दिन निष्कामता घटती है। बहुत लोगों को समझ में नहीं आता निष्कामता होती क्या है? मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। जिन लोगों ने बेटियां पैदा की हैं, बेटियां बड़ी की हैं, पाली हैं और विदा किया है। वो लोग जान सकते हैं निष्कामता क्या होती है। जब कोई अपनी बेटी को पालता है तो बेटे की तरह ही पालता है। लेकिन एक दिन वह बेटी बड़ी होती है और आदमी उसको विदा कर देता है। एक दिन उस बेटी का विवाह हो जाता है। उसका नाम, वंश, कुल, परंपरा सब एक क्षण में बदल जाता है। ये भारतीय संस्कृति का ऐसा गौरव है कि जब स्त्री का विवाह होता है तो एक क्षण में उसका सबकुछ बदल जाता है। देहरी पार जाकर उसकी पहचान, उसका वंश, उसका कुल, उसके रिश्ते और सोलह श्रृंगार। आदमी जानता है मैं इस बेटी को बड़ा कर रहा हूं। एक दिन मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं रहेगा। जिस दिन आपके कर्म में, कर्म के फल के प्रति बेटी के विदा करने जैसा भाव जाग जाए बस वहीं से निष्कामता का जन्म होता है। भागवत का मूल विषय यही है कि निष्काम भक्ति योग। तीनों दुखों का नाश करते हैं श्रीकृष्ण तीन तरह के ताप का विनाश करने वाले है श्रीकृष्ण। भागवत के पहले श्लोक में ये बताया गया है। सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।। तापत्रय अर्थात आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तीन तरह के दु:ख होते हैं इंसान को। भागवत कितना सावधान ग्रंथ है। पापत्रयविनाशाये नहीं लिखा तापत्रयविनाशाय लिखा। पाप आता है चला जाता है। यदि आदमी पश्चाताप कर ले। लेकिन पाप का परिणाम क्या है ताप। पाप अपने पीछे ताप छोड़कर जाता है। आदमी को पता नहीं लगता इसी को संताप कहते हैं। लिखा है आध्यात्मिक आदिदैविक, अदिभौतिक तीनों प्रकार के पापों को नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की हम वंदना करते हैं। अनेक लोगों को मन में यह प्रश्न उठता है कि वंदना करने से क्या लाभ है? वंदना करने से पाप जलते हैं। श्रीराधा व कृष्ण की वंदना करेंगे तो हमारे सारे पाप नष्ट होंगे। परंतु वंदना केवल शरीर से नहीं मन से भी करना पड़ेगी। अत: ईश्वर वंदनीय है। वंदना करने का अर्थ है अपनी क्रियाशक्ति को और बुद्धि शक्ति को श्रीभगवान को अर्पित करना। वंदन करने से अभिमान का बोझ कम होता है। श्रीभागवत का आरंभ ही वंदना से किया गया है। और वंदना से समाप्ति की गई है। संत महात्मा कहते हैं कि ये जो 'श्रीकृष्ण' शब्द लिखा है इसमें जो ये 'श्री' है यह राधाजी का प्रतीक है। राधाजी को 'श्री' भी कहा गया है। विद्वानों का प्रश्न है और शोध का विषय भी है बड़ी चर्चा होती है इसकी लोग हमसे भी प्रश्न पूछते हैं कि भागवत में राधाजी की चर्चा नहीं आती? पूरे भागवत में राधाजी का नाम ही नहीं है। नायक कृष्ण और राधा का नाम नहीं। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि वेदव्यासजी ने क्या सोचकर राधाजी का नाम नहीं लिखा। जबकि राधा के बिना कुछ नहीं हो सकता। कृष्ण देह तो राधा आत्मा हैं विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिखी गई और जब राधाजी का प्रवेश हुआ तो व्यासजी इतने डूब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके। सच तो यह है कि ये जो पहले श्लोक में वंदना की गई इसमें श्रीकृष्णाय में श्री का अर्थ है कि राधाजी को नमन किया गया। बात ये है कि जब राधाजी से कृष्णजी ने पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी। तो राधाजी ने कहा मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए मैं तो आपके पीछे हूं। इसलिए कहा गया कि कृष्ण देह हैं तो राधा आत्मा हैं। कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण बंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र है तो राधा तरंग हैं और कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी सुगंध हैं। इसलिए राधाजी इसमें अदृश्य रही हैं। राधा कहीं दिखती नही है इसलिए राधाजी को इस रूप में नमन किया। जब हम दसवें, ग्यारहवें स्कंध में पहुंचेंगे, पांचवें, छठे, सातवें दिन तब हम राधाजी को याद करेंगे। पर एक बार बड़े भाव से स्मरण करें राधे-राधे। ऐसा बार-बार बोलते रहिएगा। राधा-राधा आप बोलें और अगर आप उल्टा भी बोलें तो वह धारा हो जाता है और धारा को अंग्रेजी में बोलते हैं करंट। भागवत का करंट ही राधा है। आपके भीतर संचार भाव जाग जाए वह राधा है। जिस दिन आंख बंद करके आप अपने चित्त को शांत कर लें उस शांत स्थिति का नाम राधा है। यदि आप बहुत अशांत हो अपने जीवन में तो मन में राधे-राधे..... बोलिए मेरा आश्वासन है, मेरा आपसे वादा है और नमन है आप पंद्रह मिनट में शांत हो जाएंगे क्योंकि राधा नाम में वह शक्ति है। भगवान ने अपनी सारी संचारी शक्ति राधा नाम में डाल दी। इसलिए भागवत में राधा शब्द हो या न हो राधाजी अवश्य विराजी हुई हैं। इसीलिए प्रथम पूज्य हैं श्री गणेश आज हम भागवत के महात्म्य में प्रवेश करते हैं। व्यासजी ने भागवत की रचना की। अब व्यासजी के सामने एक समस्या आई कि इतना बड़ा ग्रंथ लिखेगा कौन? तब नारदजी ने सलाह दी कि गणेशजी से लिखवा लो, गणेशजी से अच्छा कोई नहीं लिख सकता। गणेशजी को याद किया, गणेशजी आ गए। गणेशजी से व्यासजी ने कहा मैंने एक साहित्य रचा है। आप इसके लेखक बन जाइए। उन्होंने कहा लिख तो दूंगा पर मेरी एक शर्त है जब आप बोलो तो एक पल के लिए भी रूकना मत। तो मैं लिख दूंगा। व्यासजी मान गए। व्यासजी भी व्यासजी थे। वे हर सौ श्लोक के बाद ऐसा कोई गंभीर श्लोक बोल देते थे कि गणेशजी उसका अर्थ सोचने लग जाते क्योंकि व्यासजी ने भी शर्त रखी थी कि मैं तो बिना रूके बोलूंगा पर आप बिना अर्थ समझे एक भी पंक्ति मत लिखना। व्यासजी एक श्लोक ऐसा बोलते कि गणेशजी उसका अर्थ सोचते तब तक व्यासजी अपना सब काम निपटाकर दूसरा श्लोक रच देते। 18 हजार श्लोक का साहित्य भागवत गणेशजी ने लिख दिया। इसीलिए प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में गणपतिजी की पूजा की जाती है। गणपतिजी विघ्नहर्ता हैं। गणपतिजी के पूजन करने का अर्थ है जितेंद्रीय होना। विघ्न न आए इसलिए व्यासजी सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: कहकर गणपति महाराज की वंदना करते हैं। इसके पश्चात सरस्वतीजी की वंदना करते हैं। सरस्वती की कृपा से मनुष्य में समझ और सोचने की शक्ति आती है। फिर सद्गुरु की वंदना की गई है तथा भागवत के प्रधान देव श्रीकृष्ण की वंदना हुई है। भगवान शिव का रूप हैं शुकदेव भागवत लिखने के बाद व्यासजी के सामने एक और समस्या आ गई कि इस ग्रंथ का प्रचार कौन करेगा ? उनको चिंता हो गई अब यह शास्त्र किसको दूं ? श्रीभागवत शास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए रचा है। अब यह किसको सौंपूं ? जिससे जगत का कल्याण हो ऐसे किसी योग्य पुरूष को यह ज्ञान दिया जाए। इस विचार के साथ वृद्धावस्था में भी व्यासजी को पुत्रेष्णा जागी। उन्होंने आह्वान किया। भगवान शंकर वैराग्य के रूप में मेरे यहां पुत्र बनकर आएं। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिवजी प्रसन्न हुए। व्यासजी ने मांगा -समाधि में जो आनंद आप पाते हैं वही आनंद जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र के रूप में पधारिए। शुकदेवजी भगवान शिव का ही अवतार हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद श्रीरामचरितमानस रचा गया। रामकथा के वक्ता शंकरजी थे। महाभारत के बाद भागवत रची गई। हम भी भागवत को इस स्तंभ में नई शैली में प्रस्तुति कर रहे हैं। व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी सोलह वर्ष माता के गर्भ में रहे और वहीं उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया। व्यासजी ने गर्भ में ही अपने पुत्र से पूछा- तुम बाहर क्यों नहीं आते। शुकदेवजी ने उत्तर दिया- मैं संसार के भय से बाहर नहीं आता हूं। मुझे माया का भय लगता है। इस पर श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि मेरी माया तुझे नहीं लग सकेगी। तब शुकदेवजी माता के गर्भ से बाहर आए। जन्म होते ही शुकदेवजी वन की ओर जाने लगे। माता ने प्रार्थना की कि मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्म रूप है किंतु यह मेरे पास से दूर न जाए इसे रोंके। व्यासजी अपनी धर्मपत्नी से बोले जो हमें अतिप्रिय लगता हो वही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है। किंतु व्यासजी भी व्यथित हो गए । व्यासजी ज्ञानी थे, फिर भी जाते हुए पुत्र के पीछे दौड़े। जीव का संबंध तो परमात्मा से है व्यासजी अपने पुत्र शुकदेव को बुलाते हैं- पुत्र लौट आओ। तुम्हें विवाह आदि के लिए आग्रह नहीं करेंगे। बस हमें छोड़कर मत जाओ। शुकदेवजी वृक्षों द्वारा उत्तर देते हैं। मुनिराज आपको पुत्र के वियोग से पीड़ा हो रही है परंतु हमको तो जो पत्थर भी मारता है तो हम उसे फल देते हैं। वृक्षों के पुत्र उनके फल हैं। पत्थर मारने वाले को भी फल दे वही सज्जन है। आपका बेटा तो जगत कल्याण करने चला है। शुकदेवजी ने कहा- पिताजी। मेरे और आपके अनेक जन्म हुए हैं। यह तो अच्छा है पूर्व जन्म याद नहीं रहते। न तो आप मेरे पिता हैं और न ही मैं आपका पुत्र हूं। आपके और मेरे सच्चे पिता तो श्रीनारायण हैं। जीव का सच्चा संबंध तो परमात्मा के साथ ही है। मेरे पीछे न पड़ो श्रीभगवान के पीछे पड़ो। इतना कहकर शुकदेवजी नर्मदा तट पर आ गए। शुकदेवजी ने कहा मैं नर्मदा के इस किनारे पर बैठता हूं और सामने के किनारे पर आप विराजिए। पिताजी, अब मेरा ध्यान न करें। ध्यान तो परमात्मा का ही करें। इस प्रकार यह भागवत का वंदना क्रम था। शुकदेवजी को प्रणाम करके इस कथा का आरंभ किया गया है। एक बार नैमिशारण्य में शौनकजी ने सूतजी से कहा कि आज तक कथाएं तो बहुत सुनी हैं। अब कथा का सार तत्व सुनने की इच्छा है। ऐसी कथा सुनाइए की हमारी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति दृढ़ हो। अनेक ऋषि-मुनि वहां गंगा के किनारे बैठे थे। परंतु कथा कहने को तैयार नहीं हुआ। तब भगवान ने श्रीशुकदेवजी को प्रेरणा दी कि तुम वहां जाओ। भागवत पांचवा पुरुषार्थ प्रेम का शास्त्र है। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का उदय होता है तब इस पवित्र कथा को पढऩे-सुनने का योग बनता है। कलयुग में प्राणियों को काल रूपी सर्प से छुड़ाने के लिए शुकदेवजी ने यह भागवत की कथा कही थी। निर्भय कर देती है भागवत भागवत के महात्म्य में एक और चर्चा है। जब परीक्षित को शुकदेवजी कथा सुना रहे थे। उसी समय भागवत के श्लोक को सुनकर स्वर्ग से देवता नीचे उतर आए। देवता शुकदेवजी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले जाएं, ये तो देवताओं की संपत्ति है। यह तो स्वर्ग में जाना चाहिए। आप इसे हमें दे दें। शुकदेवजी बोले- मैं तो वक्ता हूं । यजमान हैं राजा परीक्षित। आप परीक्षित से पूछ लीजिए अगर ये देते हैं तो ले जाइए कथा को। देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया। आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में? देवताओं ने कहा- इस कथा के बदले हम आपको अमृत दे देंगे। सात दिन बाद आपको तक्षक डसने वाला है आपकी मृत्यु होने वाली है। हम आपको स्वर्ग का अमृत देते हैं। आप अमृत ले लो कथा हमको दे दो। परीक्षित ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया-आप मुझे अमृत तो दोगे। हो सकता है मैं अमर भी हो जाऊं पर निर्भय नहीं हो पाऊंगा। बड़ा फर्क है अमर और निर्भय होने में। देवताओं आप तो रोज डरते हो, जब कोई दैत्य पीछे लग जाए आप भागते फिरते हो, आप अमर हो पर निर्भय नहीं हो। ये भागवत मुझे निर्भय कर देगी मुझे अमर नहीं होना। शुकदेवजी कहते हैं धन्य हैं आप राजा परीक्षित। आपने बहुत अच्छा निर्णय लिया। शुकदेवजी मुस्कुरा दिए। शुकदेवजी मुस्कुरा रहे हैं और शुकदेवजी ने घोषणा कि भागवत को सुनते समय जीवन में भी उतारें । आलस्य की प्रतिनिधि क्रिया नींद है और आनंद की प्रतिनिधि क्रिया है मुस्कान।आप मुस्कुराएंगे तो आपके भीतर आनंद का जन्म होगा। इसीलिए जरा मुस्कुराइए। भक्ति के पुत्र हैं ज्ञान व वैराग्य भागवत कथा का महात्म्य एक बार सनदकुमारों ने नारदजी को सुनाया था। महात्म्य में ऐसा लिखा है कि बड़े-बड़े ऋषि और देवता ब्रह्म लोक छोड़कर विशाला क्षेत्र में इस कथा को सुनने के लिए आए थे। विशालापुरी में जहां सनदकुमार विराजते थे वहां एक दिन नारदजी घूमते हुए आ गए। वहां सनकादि ऋषियों के साथ नारदजी का मिलन हुआ। नारदजी का मुख उदास देखकर सनकादि ने उनकी उदासीनता का कारण पूछा कि आप चिंता में क्यों हैं? नारदजी ने कहा-मैंने अनेकों स्थानों का परिभ्रमण किया किंतु मुझे शांति नहीं मिली। कलयुग के दोष देखता हुआ घूमता फिरता मैं वृंदावन आया तो वहां एक विचित्र बात देखी। वहां एक महिला अपने दो सुप्तप्राय: अचेतन से पुत्रों के साथ बैठी विलाप कर रही थी। मैं उसके समीप गया और विलाप का कारण पूछा। उस स्त्री ने बताया कि वह भक्ति है। उसके पास अचेतन से पड़े ये दो प्राणी उसके पुत्र हैं। एक का नाम ज्ञान है और दूसरे का वैराग्य है। स्त्री का कहना था कि कलयुग ने इन दोनों को मृतक समान बना दिया है। और कहा कि मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई कर्नाटक में पली, महाराष्ट में मेरा यौवन निखरा और गुजरात में पहुंचते-पहुंचते ही मैं वृद्धा हो गई। भक्ति ने कहा जबसे मैं वृंदावन आई हूं। तब से मेरा यौवन लौट आया है। किंतु मेरे पुत्रों की दशा दयनीय हो गई है। वे यहां पहुंचते-पहुंचते अचेतन से हो गए हैं।कर्नाटक में आज भी आचार की शुद्धि देखने में आती है। भगवान व्यासजी को कर्नाटक के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। जो सच था भक्ति के बारे में उन्होंने व्यक्त किया। भक्ति कहती है गुजरात मे जीर्ण हो गई। देवलोकवासी डोंगरे महाराज कहा करते थे। धन का दास प्रभु का दास नहीं हो सकता। गुजरात कांचन का लोभी हो गया है। धर्म का प्रचार करने पर मिलता है मोक्ष नौ अंग होते हैं भक्ति के। इसमें प्रथम है श्रवण। कीर्तन भक्ति दूसरी है। तीसरी है वंदन भक्ति और चौथी है अर्चन भक्ति। विस्तार से हम आगे पढ़ेंगे। भक्ति के दो बालक हैं ज्ञान और वैराग्य। ज्ञान और वैराग्य जब मूर्छित होते हैं तो भक्ति रोती है। कलयुग में ज्ञान और वैराग्य क्षीण होते हैं बढ़ते नहीं। नारदजी ने ज्ञान व वैराग्य को जगाने के अनेक प्रयत्न किए, तो भी उनकी मूर्छा नहीं गई। उपनिषदों के पठन से अपने हृदय में ज्ञान और वैराग्य जागता है परंतु वे फिर से मूर्छित हो जाते हैं। नारदजी चिंता में फंसे हैं कि ज्ञान और वैराग्य की मूर्छा उतरती नहीं है। उसी समय आकाशवाणी हुई कि आपका प्रयास उत्तम है। ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति का प्रचार करने के लिए आप कुछ सद्कर्म कीजिए। नारदजी कहते हैं मैंने जिस देश में जन्म लिया है उस देश के लिए यदि उपयोगी बन सकूं तो मेरा जीवन धन्य हैं। आप बताईए मैं क्या सदकर्म करूं ? नारद ने पूछा। तब सनकादि मुनि ने कहा परदु:ख से यदि आप दु:खी हंै तो आपकी भावना दिव्य है। यही संत का चरित्र है। भक्ति का प्रचार करने की आपकी इच्छा है तो आप भागवत यज्ञ का पारायण कीजिए। आपकी इच्छा पूर्ण होगी। आप भागवत ज्ञान यज्ञ करें और भागवत का प्रचार करें। आप ही ने तो व्यासजी के दु:ख दूर करते हुए भागवत रचने का उपदेश दिया था। अत: आप श्रीमद्भागवत का प्रचार कर अपना कर्तव्य पूरा करें। कलयुग में भक्ति प्रचार का एक तरीका यह भी है प्रभु का स्मरण करते हुए सदैव मुस्कुराइए। भक्ति से मिलते हैं भगवान हरिद्वार के पास श्रीभागवत कथा का अमृतपान करने के लिए सनकादि ऋषि, नारद मुनि आदि सभी ऋषि मुनि आए। जो नहीं आए थे उन सभी के घर भृगु ऋषि जाते हैं। विनती करते हैं उनको कथा में लाते हैं। नारदजी श्रोता बनकर बैठै हैं और सनकादि आसन पर विराजमान हैं। उसी समय भागवत महिमा सुन भक्ति प्रकट हुई, बोली- मैं कहां रहूं ? मेरा स्थान बताएं। सनकादि बोले- आप भक्तों के हृदय में रहें। फिर भगवान भी आ गए। वे निर्मल चित्त वालों में बैठ गए। इसी प्रकार भक्ति और भगवान का स्थान तय हो गया। श्रीमद्भागवत के दर्शन से, श्रवण से, पूजन से पापों का नाश होता है। कथा श्रवण का लाभ आत्मदेव ब्राह्मण का चरित्र कहकर बताया गया है। एक आत्मदेव नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम था धुन्धुली, जो कर्कशा व क्रोधी स्वभाव की थी। आत्मदेव की संतान नहीं थी इसलिए वह बड़ा दु:खी था। एक बार जंगल में उसे एक महात्मा मिले। आत्मदेव ने उनसे संतान का वरदान मांगा। महात्मा ने आत्मदेव को एक फल दिया। कहा अपनी पत्नी को खिला देना। आत्मदेव ने वह फल अपनी पत्नी को दिया। धुन्धुली उल्टा सीधा बहुत सोचती थी। उसने सोचा यदि ये फल मैंने खाया तो मैं गर्भवती हो जाऊंगी और मेरा पेट बढ़ जाएगा। घर में डाकू आ जाएंगे तो भाग नहीं पाऊंगी और मैं बीमार होने लगूंगी तो घर का काम कौन करेगा। यदि गर्भ टेढ़ा हुआ तो मेरी मृत्यु हो जाएगी। भागवत रिश्तों के ऊपर प्रकाश डालने वाला ग्रंथ है। यहां भागवतकार ने एक श्लोक लिखा है कि धुन्धुली सोच रही है मेरी ननद मेरा सामान ले जाएगी। अब बोलिए ये भी कोई बात हुई। श्लोक लिखा है कि भाभी को चिंता हो रही है कि ननद के कारण झंझट न खड़ी हो जाए। इस तरह एक-एक संबंध पर भागवत प्रकाश डालेगी। मन की नहीं बुद्धि की बात मानें अपनी उल्टी सोच के कारण आत्मदेव की पत्नी धुंधुली फल खाने को लेकर संशय में पड़ गई। धुंधुली की एक बहन थी। उसने वह फल बहन को खाने को दिया। बहन ने कहा मैं तो हूं गर्भवती और किसी को फल खिला देते हैं। मेरा जो बच्चा होगा वो तू रख लेना, पति को झूठ बोल देना। दोनों ने वह फल गाय को खिला दिया। बहन के यहां जो संतान हुई वह उसने धुन्धुली को दे दी। जब गाय ने फल खाया तो गाय को एक ऐसे पुत्र का जन्म हुआ जिसके कान गाय की तरह थे। उसका नाम गोकर्ण रखा। जो बहन का बेटा था इसका नाम धुंधुकारी रखा। धुंधुकारी बहुत ही अत्याचारी, अपवित्र आचरण का व्यक्ति था। माता-पिता को मारता, घर की सारी दौलत ठिकाने लगा दी। दु:खी होकर एक दिन पिता तो जंगल में चले गए और मां मर गई। पांच वैश्याओं को अपने घर ले आया। पांच वैश्याओं ने कहा और धन लाओ तो धुंधुकारी ने राजा का धन चुरा लिया। वैश्याओं ने सोचा राजा का मामला है। हम पकड़े जाएंगे तो वैश्याओं ने धुंधुकारी को मार डाला और गाढ़ दिया। वैश्याएं चली गईं। धुंधुकारी प्रेत बन गया । कथा का सार है कि आत्मदेव हम हैं यानि मनुष्य और आत्मदेव की पत्नी का नाम धुन्धुली था जो कि बुद्धि है। उसकी बहन थी मन। मन का कहना बुद्धि ने माना और उल्टा काम हो गया। हमारी बुद्धि जब मन का कहना मानेगी तो जीवन बिगड़ जाएगा। सारा खेल मन का है। जब मन बुद्धि को नियंत्रित करने लगे तो गए काम से। होना ये चाहिए कि बुद्धि से मन नियंत्रित हो। मन तो गलत काम सिखाता ही है। इस तरह आत्मदेव व धुंधली का सारा जीवन बिखर गया। जबकि गोकर्ण बड़ा संत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपने भाई को प्रेत बना जब देखा तब उसने अपने भाई को भागवत सुनाई तो धुंधुकारी मुक्त हो गया। भवसागर से मुक्त करती है भागवत ऐसी कथा आती है कि जब गोकर्णजी भागवत सुना रहे थे तो एक बांस के खंभे में धुंधुकारी उतर गया और उसमें सात गठान थी। उस बांस के खंभे में एक-एक दिन कर सात गठान टूटती गई और धुंधुकारी मुक्त हो गया। भागवत सुनने की भावना जो धुंधुकारी के मन में थी वैसी भावना आप भी रखेंगे तो आप भी मुक्त हो जाएंगे। मुक्त होने का मतलब जीवन से मुक्त नहीं होना दुनियादारी से मुक्त होना है। जीवन में सात गठानें होती हैं काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर और अविद्या। एक-एक दिन एक-एक टूटती चली जाएंगी। इस कथा के आगे एक प्रसंग बहुत सुंदर आ रहा है जैसे ही यह कथा पूरी हुई, सबको बड़ा आनंद हुआ। कथा पूरी होते-होते अचानक शुकदेवजी पधार गए। शुकदेवजी बहुत प्रसन्न हुए। शुकदेवजी को ऊंचे आसन पर बैठाया। जब सारे साधु-संत बैठ गए तो अचानक भगवान प्रकट हुए। भगवान श्रीहरि के साथ अर्जुन प्रकट हुए, प्रहलाद प्रकट हुए और सारे संत प्रकट हो गए। सबने मिलकर भागवत में कीर्तन किया। इसलिए भागवत में कीर्तन का महत्व है। भागवत में महात्म्य समाप्त होने जा रहा है और भागवत के महात्म्य को समाप्त करते-करते ग्रंथकार ने वक्ता और श्रोता के लक्षण बताए हैं। पहला लक्षण है विरक्त भाव। प्रत्येक नर-नारी को भागवत भाव से देखा जाए। उपदेशकर्ता ब्राह्मण अर्थात ब्रह्मज्ञ होना चाहिए। वह धीर गंभीर और दृष्टांत कुशल होना चाहिए। वक्ता में धन-कीर्ति का मोह न हो। कथा सुनते समय कथा का ही चिंतन करें चिंताएं त्याग दें। भागवत की कथा का श्रवण जो प्रेम से करता है उसका संबंध भगवान से जुड़ जाता है। आगे सनकादि ने सप्ताह विधि बताई। सूतजी-शौनकजी को बता रहे हैं। नारद ने तब सनकादि का आभार व्यक्त किया। सनकादि ने एक सप्ताह तक कथा कहीं थी। कथा सुन भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तरूण व स्वस्थ हो गए। सभी वेदों का सार है भागवत ऋग्वेदी शौनक ने पूछा- सूतजी बताएं शुकदेवजी ने परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, सनकादि ने नारद को कथा किस-किस समय सुनाई ? समयकाल बताएं। सूतजी बोले- भगवान के स्वधामगमन के बाद कलयुग के 30 वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर भ्राद्रपद शुक्ल नवमी को शुकदेवजी ने कथा आरंभ की थी, परीक्षित के लिए। राजा परीक्षित के सुनने के बाद कलयुग के 200 वर्ष बीत जाने के बाद आषाढ़ शुक्ला नवमी से गोकर्ण ने धुंधुकारी को भागवत सुनाई थी। फिर कलयुग के 30 वर्ष और बीतने पर कार्तिक शुक्ल नवमी से सनकादि ने कथा आरंभ की थी। सूतजी ने जो कथा शौनकादि को सुनाई वह हम सुन रहे हैं व पढ़ रहे हैं। जब शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे तब सूतजी वहां बैठे थे तथा कथा सुन रहे थे। भागवत के विषय में प्रसिद्ध है कि यह वेद उपनिषदों के मंथन से निकला सार रूप ऐसा नवनीत है जो कि वेद और उपनिषद से भी अधिक उपयोगी है। यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का पोषक तत्व है। इसकी कथा से न केवल जीवन का उद्धार होता है अपितु इससे मोक्ष भी प्राप्त होता है। जो कोई भी विधिपूर्वक इस कथा को श्रद्धा से श्रवण करते हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार फलों की प्राप्ति होती है। कलयुग में तो श्रीमद्भागवत महापुराण का बड़ा महत्व माना गया है। इसी के साथ ग्रंथकार ने भागवत का महात्म्य का समापन किया है। सत्य ही परमात्मा है आज से भागवतजी का प्रथम स्कंध आरंभ हो रहा है। इसमें 19 अध्याय हैं। प्रवेश के पूर्व एक बार पिछले दिनों पढ़े गए महात्म्य का संक्षेप में चिंतन कर लें ताकि स्मृति बनी रहे। नैमिशारण्य में शौनकादि ने सूतजी को सम्मान देकर कथा वाचन का आग्रह किया । सूतजी ने सर्वप्रथम शुकदेव, नारदजी, सरस्वती, व्यासजी को प्रणाम किया। व्यासजी ने मंगलाचरण से प्रथम स्कंध आरंभ किया है। कथा में बैठने से पहले मंगलाचरण करना चाहिए। वंदन करने से, स्मरण करने से मंगलाचरण होता है। क्रिया में अमंगलता काम के कारण आती है। मनुष्य जब तक सकाम है तब तक उसका मंगल नहीं होता। भागवत में तीन मंगलाचरण हैं। प्रथम स्कंध में व्यासदेवजी का। द्वितीय स्कंध में शुकदेवजी का और समाप्ति पर सूतजी का। प्रभात के समय, मध्यान्ह के समय और रात को सोने से पहले भी मंगलाचरण करना चाहिए चूंकि इन तीनों समय देह को ऊर्जा चाहिए। व्यासजी ने ध्यान की चर्चा करते हुए कहा कि एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करो। मन को प्रभू के स्वरूप में स्थिर किया जाए। एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करने से मन एकाग्र होता है। ध्यान का एक अर्थ है मानस दर्शन। ध्यान में पहले तो संसार के विषय उभरते हैं। वे मन में न आएं ऐसा करने के लिए ध्यान करते समय परमात्मा के नाम का बारंबार चिंतन करो। जिससे मन स्थिर हो सके इसके लिए सांस पर भी नियंत्रण किया जाए। उच्च स्वर से कीर्तन भी किया जा सकता है। कीर्तन से संसार का विस्मरण होता है। केवल दान या स्नान से मन शुद्ध नहीं होता। ध्यान की परिपक्व दशा समाधि है। भगवान के प्रति ध्यान नहीं होगा तो संसार का ध्यान होता रहेगा। मंगलाचरण में व्यासजी लिखते हैं -सत्यंपरंधिमहि। अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं। सत्य ही परमात्मा है। भक्ति से मिलते हैं भगवान जिस धर्म में कोई कपट नहीं है ऐसी निष्कपट चर्चा ही भागवत का मुख्य विषय है। भागवत का मुख्य विषय है निष्काम भक्ति। जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती। भगवान के लिए भक्ति करें। भक्ति का फल भगवान होना चाहिए, संसार सुख नहीं। मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है। इसीलिए कृष्ण कह गए हैं कि जो आनंद मुझे गोकुल में गोपियों से मिला है वह द्वारका में नहीं मिला क्योंकि गोपियों का प्रेम निष्काम है। शौनकजी ने पूछा- व्यासजी ने भागवत की रचना क्यों की तथा इसका प्रचार कैसे किया, हमें सुनाएं। सूतजी ने कहा- व्यासजी ने यह कथा शुकदेवजी को सुनाई थी। शुकदेवजी सुपात्र हैं। शुकदेवजी केवल ब्रहमज्ञानी नहीं है, ब्रहमदृष्टि भी रखते हैं। एक प्रसंग आता है। जनक राजा के दरबार में एक समय शुकदेवजी और नारदजी पधारे। दोनों महापुरूष हैं मगर दोनों में श्रेष्ठ कौन ? जनक राजा समाधान नहीं कर सके। परीक्षा किए बिना कैसे फैसला हो। तो जनकजी की रानी सुनयना ने निश्चय किया कि मैं इन दोनों की परीक्षा लूंगी। सुनयनाजी ने दोनों को अपने घर बुलाया और एक ही झूले पर बैठा दिया। फिर सुनयनाजी ने श्रृंगार किया, सजधजकर आईं और उन दोनों के मध्य में उस झूले पर बैठ गईं। नारदजी को कुछ संकोच हुआ, मैं बालब्रह्मचारी हूं । स्त्री का स्पर्श हो रहा है मेरे मन में विकार न आ जाए, यह सोचते हुए वे दूर हट गए। लेकिन शुकदेवजी जैसे बैठै थे वैसे ही बैठे रहे। उनको भान तक नहीं हुआ कि कोई आकर बैठ गया है। उन्हें स्त्री और पुरूष का भान है ही नहीं। वे दूर भी नहीं हटते । बस सुनयना रानी ने निर्णय दे दिया कि इन दोनों में श्रेष्ठ शुकदेवजी ही हैं। कलयुग में मुक्ति दिलाती है कृष्ण भक्ति शुकदेवजी भिक्षावृत्ति के लिए बाहर निकलते हैं तो भी गो दोहनकाल से अर्थात छ: मिनट से अधिक कहीं नहीं रूकते । फिर भी सात दिन तक बैठकर यह कथा उन्होंने राजा परीक्षित को कैसे सुनाई ? शौनकादि सूतजी से पूछ रहे हैं। सूतजी ने कहा- एक समय की बात है कि नैमिशारण्य तीर्थ में 88 हजार ऋषि-मुनि एकत्रित हुए। मुझे भी उस सभा में आमंत्रित किया गया था। उस सभा में विचार हो रहा था कि कलयुग में न केवल मनुष्य की आयु अल्प होगी अपितु वह रोग, शोक आदि व्याधि से ग्रस्त रहने के कारण आलसी और मंदबुद्धि भी हो जाएंगे। उनसे वेदशास्त्रों का अध्ययन और यज्ञ कर्मों की आशा भी नहीं की जा सकती। तो उसका उद्धार कैसे होगा ? सभी का मत था कि कलयुगी जीव के उद्धार के लिए श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान ही एक मात्र उपाय है। सूतजी महाराज से आग्रह किया गया कि वे भगवान के अवतारों का वर्णन करें। आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और श्रीमद्भागवत पुराण की कथा कहना आरंभ की । ऋषियों ने सूतजी से छ: प्रश्न भी किए। 1- शास्त्रों का तत्व क्या है ? 2- नारायण होकर श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र किस प्रकार हैं ? 3- भगवान के क्या-क्या गुण हैं ? 4- भगवान के अवतार और लीलाओं की कथा क्या है? 5- नर रूप धारण कर श्रीकृष्ण और बलराम का चरित्र कैसा था और 6- जब भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग सिधारे तो उस समय धर्म किसकी शरण में था ? सूतजी ऋषियों के प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनको शास्त्रों के तत्वों से अवगत कराया। भगवान अपने भक्तों को सुख देने के लिए अनेक लीलाएं भी करते हैं और उनके अवतार में रूप धारण भी करते हैं। कल अवतारों की चर्चा होगी। अवतार जीवन में उतरे इसके पहले जरा मुस्कुराइए.... धर्म स्थापना के लिए अवतार लेते हैं भगवान सूतजी ने भगवान विष्णु के विराट रूप से संसार की सृष्टि तथा उनके चौबीस अवतारों का विस्तृत विवरण किया है। लोक सृष्टि की इच्छा से भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम महत् तत्व और अहंकार आदि से उत्पन्न सोलह कलाओं से परिपूर्ण पुरूष में अवतार धारण किया। सृष्टि की रचना पर विचार करने के लिए वे क्षीरसागर में जाकर योगनिद्रा में सो गए। तब उनकी नाभि से प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और फिर उन्होंने वृहत विश्व की रचना कर डाली। आगे परमात्मा के चौबीस अवतारों की कथा है। धर्म की स्थापना करने और जीव का उद्धार करने हेतु परमात्मा अवतार धारण करते हैं। भागवत में मुख्यत: श्रीकृष्ण कथा करनी है परंतु यह कथा अंत के स्कंधों में आती है। पहला अवतार सनदकुमारों का है सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। ये चारों ब्रह्मचर्य का प्रतीक हैं। सब धर्मों में ब्रह्मचर्य पहले आता है। ब्रह्मचर्य से ही मन स्थिर रहेगा। दूसरा अवतार वराह का है। वराह अर्थात श्रेष्ठ दिवस। सत्कर्म में लोभ विघ्न करने आता है। लोभ को संतोष से मारें। वराह का अवतार संतोष का अवतार है। रसातल में गई पृथ्वी को लाने के लिए यह अवतार हुआ था। तीसरा अवतार है नारदजी का। यह भक्ति का अवतार है। ब्रह्मचर्र्य का पालन करें और प्राप्त स्थिति में संतोष मानें उससे नारद अर्थात भक्ति मिलेगी। चौथा अवतार नर नारायण का है। ऋषि बनकर इस अवतार में तपस्या की। भक्ति मिले तो उसे भगवान का साक्षात्कार होता है। भक्ति द्वारा भगवान मिलते हैं। परंतु भक्ति ज्ञान और वैराग्य बिना न हो। पांचवां अवतार कपिल देव का है। ज्ञान, वैराग्य का अवतार है यह । इन्हें जीवन में उतारो तो ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति आएगी। छठा अवतार है दत्तात्रेयजी का। ऊपर बताए हुए पांच गुण ब्रह्मचर्य, संतोष, ज्ञान भक्ति और वैराग्य हमारे भीतर आएंगे तो हम गुणातीत होंगे। ऊपर के छ: अवतार ब्राह्मण के लिए हैं। धर्माचरण करने से मिलेंगे श्रीकृष्ण सातवां अवतार यज्ञ का है। प्रजापति रूचि तथ आकूति के पुत्र स्वायंभू मनवन्तर की रक्षा की। अमृत लेकर समुद्र से प्रकटे। आठवां अवतार ऋषभदेव का। नवां अवतार है पृथु राजा का। दसवां अवतार है मत्यनारायण का। जब पृथ्वी डूब रही थी, चाक्षुष मनवन्तर में तब पृथ्वी रूपी नौका पर बैठकर अगले मनवन्तर के अधिपती वैवस्त मनु की रक्षा की। ये चार अवतार क्षत्रियों के लिए हैं।धर्म का आदर्श बताने के लिए ग्यारहवां अवतार कुर्म का है। बारहवां अवतार धन्वन्तरी का है। तेहरवां अवतार मोहिनी का। इस अवतार में भगवान ने दैत्यों को मोहित कर देवताओं को अमृत पान कराया। यह अवतार वैश्यों के लिए है। चौदहवां अवतार नृसिंह स्वामी का है। नृसिंह अवतार पुष्टि का अवतार है। पंद्रहवां अवतार वामन का है जो पूर्ण निष्काम है। जिसके ऊपर भक्ति का नीति का छत्र है जिसने धर्म का कवच पहना है जिसे भगवान भी नहीं मार सके हैं ऐसे बलि राजा के लिए यह वामन अवतार है । सोलहवां अवतार परशुराम का है। यह अवतार आवेश का अवतार है। इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया। सत्रहवां व्यास नारायण का ज्ञान का अवतार है। अठाहरवां रामजी का अवतार है। यह मर्यादा पुरूषोत्तम का अवतार है। इससे हमारा काम मिटेगा अर्थात हमंे कन्हैया मिलेगा, क्योंकि उन्नीसवां अवतार श्रीकृष्ण का है। रामजी की मर्यादा का पालन करो तो श्रीकृष्ण कृपा करेंगे। ये दोनों साक्षात पूर्ण पुरूषोत्तम के अवतार हैं। बाकि सब अंशावतार हैं। भागवत में कथा तो करनी है कन्हैया की। परंतु क्रम-क्रम से दूसरे अवतारों की कथा भी सुनी जाएगी। बीसवां अवतार बलराम का था। नारदजी से सीखें प्रसन्न रहना भगवान विष्णु का इक्कीसवां अवतार बुद्ध का था। बाईसंवा हरि का अवतार था, जिन्होंने गजेंद्र को गृह से मुक्त कराया था। तेईसवां अवतार हयग्रीव का था। चौबीसवां अवतार कार्तिक अवतार हुआ। इस प्रकार के चौबीस अवतार हैं। अवतारों की संख्या और क्रम में विद्वानों के अपने-अपने मत हैं। अब व्यासजी के दु:खी होने का प्रसंग कथा में आता है जो हम महात्म्य में पढ़ चुके हैं। नारदजी ने जब अनुभव किया कि अभी भी व्यासजी के मन में उनकी बात बैठ नहीं पाई है तो भक्ति महिमा और उपयोगिता के प्रमाण स्वरूप उन्होंने अपने पूर्व जन्म का वृतांत व्यासजी को सुनाया। नारदजी पूर्व जन्म में एक दासी के पुत्र थे। ऋषि-मुनियों से भगवान के चरित्र को सुनकर उनके मन में इतना अनुराग उत्पन्न हुआ कि उनको किसी प्रकार का देह बोध ही नहीं रहा। वे भक्त थे किंतु माता के प्रति मोह को वे त्याग नहीं पाए थे। नारदजी बताते हैं कि भगवान की कुछ ऐसी कृपा हुई, क्योंकि माता को एक रात सर्प ने दंश मारा और वे चल बसीं। इस प्रकार वे सहज ही बंधन मुक्त हो गए। नारदजी घर से निकलकर गहन वन में समाधि में लीन हो गए। उसी अवस्था में भगवान विष्णु के उन्हें दर्शन हुए। आंख से आंसू बहने लगे। भगवान जब अन्तध्र्यान हुए तो नारदजी विचलित हो उठे। तब भगवान ने उन्हें निरंतर साधु सेवा करने का उपदेश दिया और आशा दिलाई कि अगले जन्म में वे सिद्ध योगी होंगे। सहसा एक दिन बिजली गिरी और भौतिक शरीर नष्ट हो गया। अंतिम सांस के साथ ही नारदजी की आत्मा भगवान में प्रविष्ट हो गई। सहस्त्रों युगों के बाद वे मरीची आदि ऋषियों के साथ उत्पन्न हुए । भगवान विष्णु की कृपा से नारदजी अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने वाले और तीनों लोक में स्वच्छंद विचरण करने के अधिकारी बन गए। निरंतन वीणा लेकर हरि गुणगान करते हैं नारदजी। वे सदैव प्रसन्न रहते हैं। उनके चरित्र से सीखा जाए-जरा मुस्कुराइए... सत्संग का महत्व बताती है भागवत भागवत में संत की महिमा का गुणगान किया गया है। पारसमणि लोहे को सोना बनाती है और किन्तु लोहे को अपने जैसा नहीं बनाती। परंतु संत अपने संसर्ग में आए हुए को अपने जैसा बना देते हैं। संत करे आपु समाना। मनुष्य देव होने के लिए बनाया गया है। मनुष्य को देव होने के लिए चार गुणों की आवश्यकता है- संयम, सदाचार, स्नेह, और सेवा । ये चार गुण सत्संग बिना नहीं आते। प्रथम स्कंध अधिकार लीला का है। श्रीमद्भागवत का ज्ञान देने का अधिकारी कौन है यह प्रथम स्कंध में बताया गया है। पहले स्कंध में तीन प्रकरण हैं- उत्तमाधिकारी, मध्याधिकारी व कनिष्ठाधिकारी। शुकदेव और परीक्षितजी उत्तम वक्ता व श्रोता हैं। नारदजी और व्यासजी मध्यम श्रोता व वक्ता हैं और सूतजी, शौनकजी कनिष्ठ वक्ता तथा श्रोता हैं। शुकदेवजी जन्म से ही निर्विकारी हैं। वे घर छोड़कर वन चले गए । तब व्यासजी ने विचार किया कि इन्हें भागवत कथा कैसे सुनाई जाए। जब इन्हें कथा सुनाऊंगा तभी तो ये प्रचार करेंगे। तब व्यासजी ने अपने शिष्यों से कहा कि शुकदेवजी जिस वन में समाधि में बैठे हों आप वहां जाइए। वे सुनें, इस प्रकार इन दो श्लोक का उच्चारण कीजिए। शिष्य वन में पहुंचे शुकदेवजी को वे दो श्लोक सुनाए। श्लोक सुन शुकदेवजी ने पूछा कि ये श्लोक कौन बोल रहा है ? व्यासजी के शिष्यों का दर्शन हुआ। शुकदेवजी ने पूछा आप कौन हैं? ये श्लोक कहां से आए ? शिष्यों ने बताया ऐसे तो बहुत सारे श्लोक भागवत पुराण में हैं जो आपके पिताजी ने रची है। अठारह हजार श्लोक हैं। शुकदेवजी सोचने लगे व्यासजी मेरे पिता हैं । मैं उनका उत्तराधिकारी हूं। मैं पिता के पास जाकर यह पुराण सुनूंगा। अब शुकदेवजी को भागवत शास्त्र पढऩे की इच्छा हुई । सूतजी वर्णन करते हैं इसके बाद यह कथा शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सुनाई। अब मैं आपको सुना रहा हूं। व्यासजी ने शुकदेवजी को सुनाई। शुकदेवजी ने राजा परीक्षितजी को सुनाई, और सूतजी ये कथा शौनकादि ऋषि को सुना रहे हैं। महाभारत सीखाती है, रहना कैसे है अब मैं आप लोगों को राजा परीक्षित के जन्म कर्म और मोक्ष की कथा तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा सुनाता हूं। पांच प्रकार की शुद्धि बताने के लिए पंचाध्यायी कथा शुरू करता हूं। पितृशुद्धि, मातृशुद्धि, वंशशुद्धि, अन्नशुद्धि, और आत्मशुद्धि । जिनके ये पांच शुद्ध होते हैं उन्हीं में प्रभु दर्शन की आतुरता जागती है। राजा परीक्षित में ये पांच शुद्धियां मौजूद थीं। और यही बात दिखाने के लिए आगे की कथा कही जा रही है। अब भागवत के प्रथम स्कंध में महाभारत आरंभ हो रही है। महाभारत हमको बताएगी रहना कैसे है। महाभारत भागवत में प्रवेश कर रही है। अद्भुत ग्रंथ है महाभारत। महाभारत से शुरू होगी और कृष्ण के स्वधाम गमन पर भागवत समाप्त होगी। बहुत सावधानी से भागवत के आरंभ में महाभारत सुनाई गई। इसलिए सुनाई गई कि हम जान लें महाभारत से, कि जीवन में क्या भूल होने पर क्या परिणाम मिलते हैं। अश्वत्थामा का प्रसंग सुनें सबसे पहले। महाभारत समाप्त हो चुकी है। कौरव पराजित हो गए पांडव जीत गए। महाभारत समाप्त हुई तो आठ लोग बचे थे पांच पांडव और तीन कौरव पक्ष के, कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा। दुर्योधन युद्ध छोड़कर एक सरोवर में छिप गया। पांडव उसे मारने के लिए ढूंढ़ रहे थे। भीम ने प्रतिज्ञा ली थी कि मैं इसकी जंघाएं तोड़ दूंगा। दुर्योधन की जंघाएं तोड़ दीं, दुर्योधन मरने जैसा हो गया। जो दुर्योधन कभी हस्तिनापुर का राजा था। वह दुर्योधन अपने अंतिम समय में कीचड़ से भरे एक सरोवर में पड़ा हुआ था। गिद्ध और श्वान उसकी मज्जा को नोंच रहे थे। ये जीवन का अंत है। महाभारत कहती है याद रखिए ये इंद्रियां जब समाप्त होंगी तो ये शरीर कुरूक्षेत्र की तरह समाप्त हो जाएगा। अश्वत्थामा की मणि निकाली श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। दुर्योधन का परम मित्र था। दुर्योधन के अंत समय में उसने दुर्योधन से पूछा- मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं, मित्र। तो दुर्योधन ने कहा -मैं तुम्हें आज अंतिम दिन का सेनापति बनाता हूं। पांडवों को मार डालो। ऐसा कहकर दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए। अश्वत्थामा ने पांडवों के सर्वनाश की शपथ ली और रात के अंधेरे में वह पांडवों के शिविर में गया। शिविर में पांडवों के द्रोपदी से उत्पन्न पांचों पुत्र सो रहे थे। अश्वत्थामा ने पांडव समझकर द्रोपदी के पांचों पुत्रों को छल से मार दिया। सुबह जब सबको यह ज्ञात हुआ तो हाहाकार मच गया, पांडव रोने लगे। हमारे पुत्र मारे गए। द्रौपदी बहुत दु:खी हुई। पांडव अश्वत्थामा को पकडऩे के लिए दौड़े। श्रीकृष्ण की कृपा से उन्होंने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया तथा द्रोपदी के सामने लेकर आए। अर्जुन और भीम ने कहा द्रौपदी आज्ञा दो इसका क्या करें। अभी तुम्हारे सामने इस पापी का हम वध करते हैं। इसने हमारे पांच पुत्र मार डाले छल से। तब द्रौपदी ने कहा-ये मेरी गुरु माता का बेटा है। मैं जानती हूं जिसका बेटा चला जाए, उसकी मां को कितना दर्द होता है। इसको मार डालेंगे तो जो दु:ख मुझे हो रहा है वही दु:ख मेरी गुरु माता को होगा। इसलिए इसको छोड़ दो। द्रोपदी की यह बात सुनकर सभी सोच में पड़ गए। श्रीकृष्ण द्रौपदी को बहुत अच्छे से जानते थे, उनकी सखा थी, बहिन थी। श्रीकृष्ण ने कहा यह स्त्री बहुत महान है। ये आज में नहीं देखती ये कल में देखती है। पर अश्वत्थामा को दंड तो दिया जाएगा। उसकी मणि निकाल ली। किंतु जाते-जाते अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र छोड़ गया और ब्रह्मास्त्र उसने उत्तरा के गर्भ पर छोड़ा। परीक्षित की रक्षा की श्रीकृष्ण ने अब हम भागवत में महाभारत के प्रसंगों की चर्चा कर रहे हैं। उत्तरा अभिमन्यु की पत्नी थी। श्रीकृष्ण उत्तरा के मामा ससुर थे। उत्तरा गर्भवती थी और उसके गर्भ पर अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा। इधर श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे थे। श्रीकृष्ण जैसे ही जाने लगे, उन्होंने देखा उत्तरा दौड़ती हुई आई, उसने कहा-आप कहां जा रहे हैं? अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है मेरे गर्भ पर। मेरी संतान समाप्त हो जाएगी, मेरी रक्षा करिए।महाभारत में प्रसंग आता है कि उत्तरा को मृत पुत्र हुआ था तो श्रीकृष्ण को बुलाया गया और श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि जीवन में मैंने कोई शुभ कार्य किए हों, कोई पुण्य किए हों तो यह संतान जीवित हो जाए और वह बच्चा जीवित हो गया। लेकिन भागवत थोड़ा हटकर बात करती है। भागवत कहती है श्रीकृष्ण ने उत्तरा से कहा- तू चिंता मत कर और श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गए। वहां जाकर ब्रह्मास्त्र को शांत किया तथा बच्चे की रक्षा की। इसलिए जब ये बच्चा पैदा हुआ तो इस बच्चे ने कहा गर्भ में मैंने किसी चतुर्भुज रूप को देखा था। वह प्रत्येक व्यक्ति का परीक्षण करने लगा इसलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा। भगवान उर में यानी हृदय में भी आते हैं और भगवान भक्त की रक्षा के लिए उदर में भी आते हैं। देवकी के पेट में प्रभु नहीं थे। देवकी को भ्रांति कराई थी कि पेट में आ गए हैं। किंतु जब भक्त पर संकट आया तो परमात्मा उत्तरा के गर्भ में चले गए। इसके बाद जब भगवान द्वारका जा रहे थे। तब उनकी बुआ कुंती ने उनका रथ पकड़ लिया। श्रीकृष्ण उतरे, नियम था रोज वे कुंती बुआ को प्रणाम करते थे। लेकिन जैसे ही आज श्रीकृष्ण उतरे, कुंती ने उन्हें प्रणाम किया। कृष्ण बोले- बुआ, ये आप क्या कर रही हैं। मैं आपका भतीजा हूं। कुंती ने कहा- मैं तो तुझे तब से जानती हूं जब तू माखन चुराया करता था, बंसी बजाया करता था, गाय चराता था। फिर तुने कंस को मारा। अब सुन, बहुत हो गया ये रिश्ता। तू भगवान है और हम भक्त। रिश्तों का महत्व बताती है भागवत कुंती ने श्रीकृष्ण से जो बातचीत की बड़ी प्यारी बातचीत है। बुआ और भतीजे का रिश्ता बड़ा अद्भुत बताया है भागवत में। भागवत परिवार का ग्रंथ है एक-एक रिश्ते पर भागवत प्रकाश डालता चलता है। बुआ को जब भतीजा या भतीजी देखते हैं तो बुआ में पिताजी का आधा रूप दिखता है। बुआ लाड़ भी है और वात्सल्य भी है, ममता भी और पिता का भय भी है। कुंती श्रीकृष्ण से बोलती हैं- तू आज भगवान है, तू आज मुझे वरदान देकर जा। कुंती ने श्रीकृष्ण से जो वरदान मांगा दुनिया में कभी किसी ने ऐसा वरदान नहीं मांगा। कुंती कहती है-मैंने सुना है आदमी सुख में भगवान को भूल जाता है तो कृष्ण, एक काम कर जीवनभर के लिए दु:ख दे जा। दु:ख में तू बहुत याद आता है। जब हम बहुत सुखी रहेंगे, हमको सबकुछ मिलता रहेगा तो हम तुझे भूल जाएंगे। तो तू ऐसा कर कि जीवन में ऐसा लगे कुछ काम अनुकूल नहीं है यदि अनुकूल हो जाए तो आलस्य आ जाएगा। थोड़ा दु:ख देकर जा मुझको। श्रीकृष्ण ने कहा क्या बात करती हैं बुआ। कुंती बोली हां मुझे दु:ख देकर जा। इतना दु:ख देना कि हमेशा तेरी याद आती रहे। महत्वपूर्ण तू याद आना है बाकी सुख दु:ख तो भूल जाएंगे। पर तुझे याद करते रहेंगे। ऐसे सुख पर सिला पड़े, जो हरि नाम भूलाए। बलिहारी रहूं दु:ख की जो हरि का नाम रटाए।कुंती बार-बार श्रीकृष्ण से दु:ख मांग रही हैं। श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा -आज आपकी ईच्छा पूरी करता हूं। कुंती बोली एक दिन और रूक जा। कृष्ण ने सोचा चलो रूक जाते हैं एक दिन और। जैसे ही श्रीकृष्ण हस्तिनापुर के राजभवन में लौटे सबको लगा हमारे कारण रूके हैं। उत्तरा कह रही है मेरे कारण रूके, अर्जुन कह रहा है मेरी वजह से रूके हुए हैं, कुंती कह रही है मैंने रोक लिया। भगवान भी रखते हैं भक्तों का ध्यान कुंती बुआ के कहने पर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर रुक गए। सबको लग रहा था हमने रोक लिया श्रीकृष्ण को पर भगवान सोच रहे हैं मैं जिसकी वजह से रूका हूं ये कोई नहीं जानता। भगवान आंख बंद करके अपने कक्ष में बैठे हैं। उसी समय युधिष्ठिर आए। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। पूछा-भगवान सारी दुनिया आपका ध्यान करती है। आप किसका ध्यान कर रहे हैं? भगवान ने कहा- सारी दुनिया मेरा ध्यान करती है परन्तु मैं हमेशा भक्त का ध्यान करता हूं। मुझे भीष्म याद आ रहे हैं। तुम राजगादी पर बैठने वाले हो युधिष्ठिर, तो आओ चलो भीष्म के पास चलते हैं, भीष्म देह त्यागने वाले हैं। शरशैया पर पड़े हुए हैं। भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था इसलिए महाभारत के समाप्त होने पर भीष्म ने निर्णय लिया कि मैं देह बाद में त्यागूंगा। श्रीकृष्ण बोले- चलो उनके पास चलते हैं। मुझे वहां जाना है तुम भी साथ चलो। उनसे राजधर्म की शिक्षा ग्रहण करो। भीष्म के पास उनको लेकर आए हैं। भीष्म शरशैया पर पड़े हुए हैं। जो कभी हस्तिनापुर का रक्षक था, परम ब्रह्मचारी, ब्रह्मांड कांपता था जिससे, एक-एक राजा जिनके इशारे पर चलता था वो महान पराक्रमी शरशैया पर पड़ा हुआ है। भगवान को देख भीष्म हाथ भी नहीं उठा सके क्योंकि हाथों में भी तीर लगे हुए थे। गर्दन भी नहीं झुका सके। भीष्म बोले -वासुदेव आप आ गए मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने कहा-वासुदेव, मैं आज आपको नमन भी नहीं कर सकता। कितना लाचार हो जाता है व्यक्ति अपने अंतिम समय में। जो कभी बड़े-बड़े शस्त्र उठाता था वो हाथ भी हिला नहीं सकता। यह बूढ़ापा है, यह जीवन का अंतिम काल है, सभी को इससे गुजरना है एक दिन। क्रमश:.. जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK Manish Kaushal at 8:35 PM 2 comments: Share  Srimdbhagwat Part(3) घटनाओं का जोड़ है मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को लेकर भीष्म के पास पहुंच गए हैं,भीष्म शरशैया पर हैं। भगवान ने कहा- मैंने आपको वचन दिया था कि मैं आपके अंतिम समय में आऊंगा, मैं आ गया। मेरा आपसे एक निवेदन है कि युधिष्ठिर राजा बनने वाले हैं आप इनको राजधर्म का ज्ञान दीजिए। जैसे ही भीष्म राजधर्म पर बोलना शुरु करते हैं एक अठ्ठहास सुनाई देता है। देखा वहां द्रौपदी हंस रही थीं। द्रौपदी ने कहा-पितामह आप किस राजधर्म की बात कर रहे हैं? यह राजधर्म और धर्म उस समय कहां चला गया था जब भरी सभा में मुझे खींचकर लाया गया और दुर्योधन के आदेश से मेरा अपमान किया गया था। द्रौपदी के शब्द सुन भीष्म मौन हो गए। तब श्रीकृष्ण बोले- द्रौपदी, मैं जानता हूं तेरे साथ दुनिया का वो अपमान हुआ है जो सबसे घिनौना है। इतिहास सदैव इस पर आंख नीची करेगा। लेकिन पांचाली एक बात याद रखना, किसी एक घटना से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन मत करना। व्यक्ति घटनाओं का जोड़ होता है। जिन भीष्म पर तुम आरोप लगा रही हो वे भीष्म कुछ और ऊंचाइयों पर भी जीते हैं। किसी एक स्थिति में पतित व्यक्ति दूसरी स्थिति में बहुत पुण्यात्मा हो सकता है। किसी एक स्थिति में बहुत बढिय़ा काम करने वाला व्यक्ति कहीं गिर भी सकता है। पहचानों पांचाली ये भीष्म हैं। पांचाली श्रीकृष्ण की बात सुनकर चुप हो गई। तब भीष्म ने कहा- श्रीकृष्ण, मैं राजधर्म की शिक्षा तो दूंगा पर मेरा एक प्रश्न है आपसे। कृष्ण बोले पूछिए और भीष्म ने बड़ा सुंदर प्रश्न पूछा और श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया वो हमारे बड़े काम का है। सबके पापों का हिसाब रखते हैं भगवान भीष्म ने श्रीकृष्ण से पूछा- मेरा जीवन ब्रह्मचारी के रूप में, योद्धा के रूप में, राजपुरूष के रूप में निष्कलंक रहा। मैंने कभी कोई पाप नहीं किया लेकिन मुझे आज ये दिन क्यों देखना पड़ रहा है। श्रीकृष्ण बोले- भीष्म। आप भूल गए आपने एक पाप किया था। भीष्म बोले- मैंने कभी कोई पाप नहीं किया। श्रीकृष्ण ने कहा-लोगों के पाप का हिसाब रखना ही भगवान का काम है, मैं रखता हूं। मैं बताता हूं आपने कौन सा पाप किया था। जिस दिन द्रौपदी को राजसभा में लाया गया, ये आदेश करके कि यह जीत ली गई है। तब द्रौपदी ने एक बड़ा मौलिक प्रश्न किया था उस सभा में। द्रौपदी ने कहा था कि पांडव हार गए हैं, ये अपना राज्य हार गए उसके बाद इन्होंने अंत में मुझे दाव पर लगाया। तो जो राजा, जो पति स्वयं हार चुका हो तो वो दूसरे को कैसे दाव पर लगा सकता है । ये द्रोपदी का प्रश्न था। राजसभा में दो मत हो गए थे। विदुर ने कहा था द्रौपदी ठीक बोल रही है। उस समय द्रौपदी ने आपसे भी यही प्रश्न पूछा था। आपने आंख नीची कर ली थी। आपने कहा था कि दुर्योधन राजा है इसलिए मैं इसके विपरीत नहीं बोल सकता। आपने कहा था मेरी शपथ है कि मैं हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखूंगा मेरी निष्ठा कुरूवंश से जुड़ी है और आपने गर्दन नीची कर ली थी। यही एक पाप था जो आपके जीवन को यहां ले आया। भीष्म ने कहा- ये आप क्या कह रहे हैं भगवन मैंने तो संबंधों का निर्वाह किया था। मैंने तो शपथ ली थी प्रतिज्ञा का पालन करना तो राजपुरूष का कर्तव्य है। श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया भागवत का संदेश यहीं से आरंभ हो रहा है। समय के अनुसार बदल दें परपराएं श्रीकृष्ण भीष्म से कह रहे हैं -भीष्म याद रखिए जीवन में अपनी शपथ, अपने संकल्प, अपने निर्णय व अपनी परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करते रहना चाहिए। जब आपने हस्तिनापुर की राजगादी की रक्षा की शपथ ली थी तब चित्रांगद और विचित्रवीर्य बैठे थे राजगादी पर। और जब द्रोपदी का अपमान किया गया उस समय दुर्योधन जैसा दुष्ट बैठा था राजगादी पर। श्रीकृष्ण का यह संवाद हमारे लिए संकेत है। वर्षों पुरानी हमारे घर की कोई परंपरा हो, हमारी जीवन की परंपरा व्यवस्थाओं की परंपराएं हो तो समय- समय पर उनका पुनर्मूल्यांकन करते रहिए। पांडव अपने सारे निर्णयों की पुष्टि भगवान से करवाते थे और भीष्म यहीं पर चूक गए थे। श्रीकृष्ण ने कहा-जीवन संतुलन का नाम है। जो लोग जीवन को अति से जिएंगे वे एक दिन परेशान हो जाएंगे। यह सुनकर भीष्म ने कहा इतना बड़ा कुरुवंश था मैं कैसे संबंध निभाता था? मैं ही जानता था। श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले- आपने हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखा लेकिन आसपास के वातावरण को रूपांतरित नहीं किया ये आपकी बड़ी भूल थी। दुर्योधन भ्रष्ट बन गया, ये आपकी भूल है। भीष्म ने नजर नीची की। भगवान ने भीष्म को जो संदेश दिया हमारे भी काम आएगा। भीष्म ने कहा मैं प्रणाम करता हूं और भीष्म ने आभार व्यक्त किया।उन्होनें फिर धर्मराज को उपदेश दिया। और फिर परमधर्म बताया, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना ही परमधर्म है। अब भीष्म प्राण त्यागने की तैयारी में हैं। भक्तों को दिया वचन निभाते हैं भगवान महाभारत के युद्ध के दौरान भीष्म ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया था कि जिस दिन मेरी मृत्यु हो, आप अवश्य उपस्थित रहना। श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाया। जब महात्मा भीष्म ने प्राणों का उत्सर्ग किया तो भगवान भी भावुक हो गए। सोचिए क्या दिव्य मृत्यु रही होगी कि जिसकी मृत्यु पर भगवान आंसू बहाने लगे। ऐसी भीष्म की मृत्यु हुई। प्रथम स्कंध में भीष्म का चरित्र भागवत के ग्रंथकार सुना रहे हैं। भीष्म का गमन हुआ। भीष्म को भगवान ने विदा किया। भगवान श्रीकृष्ण महाभारत को समाप्त करके जा रहे हैं। भगवान ने कहा मेरा समय हुआ, मुझे द्वारिका जाना है। भगवान द्वारिका जाने लगे और पांडवों से कहा कि- देखो अब तुम लोग अपना जीवन आरंभ करना। युधिष्ठिर का राजतिलक करके श्रीकृष्ण द्वारिका गए। वहां की जनता ने उनकी रथ यात्रा का दर्शन किया। यह वर्ण प्रथम स्कंध के 10 तथा 11वें अध्याय में आता है। बाहरवें अध्याय में परीक्षित के जन्म की कथा है। उत्तरा ने बालक को जन्म दिया और वह बालक जन्म लेते से ही उस चतुर्भुज रूप को खोजने लगा जिसे उसने अपनी माता के गर्भ में देखा था। परीक्षित भाग्यशाली था कि उसको माता के गर्भ में ही भगवान के दर्शन हुए। यही कारण है कि वह उत्तम श्रोता है। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से पूछा कि यह बालक कैसा होगा? ब्राह्मणों ने कहा कि वैसे तो सभी ग्रह दिव्य हैं किंतु मृत्यु स्थान में कुछ त्रुटी है। इसकी मृत्यु सर्प दंश से होगी। यह सुनकर धर्मराज को दु:ख हुआ कि मेरे वंश का पुत्र सर्पदंश से मरेगा। पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि जो कुछ भी होगा उसी से इस बालक को सदगति मिलेगी। क्यों हारे अर्जुन लुटेरों से ? हम प्रथम स्कंध में चल रहे हैं। इसके सोलहवें अध्याय से परीक्षित का चरित्र आरंभ होता है। विदुरजी तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुंचे। विदुरजी महाभारत युद्ध के समय हस्तीनापुर छोड़ चुके थे। उन्हें खबर हुई कि सभी कौरवों का विनाश हो चुका है और धर्मराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर बैठै हैं। मध्यरात्रि के समय विदुरजी धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर वन में सप्त स्त्रोत तीर्थ चले गए। यदुवंश की कथा आगे विस्तार से जानेंगे। अभी सिर्फ इतना कि भगवान ने जाते-जाते अर्जुन को अपने यदुवंश की स्त्रियां और संपत्ति सौंप दी और कहा कि तुम इनको लेकर हस्तिनापुर चले जाओ क्योंकि अब राक्षस लोग आक्रमण करेंगे, द्वारिका डूब जाएगी। अर्जुन उनको लेकर आ रहे थे कि रास्ते में लुटेरों ने हमला किया, अर्जुन हार गए। अर्जुन पराजित होकर आए। युधिष्ठिर ने देखा और पूछा अर्जुन तुम तो द्वारिका गए थे। भगवान श्रीकृष्ण व उनके परिवार के सदस्यों को लेने। क्या हुआ, तेरा चेहरा ऐसा डूबा हुआ क्यों है? चेहरे का तेज कहां चला गया, वो ओज कहा चला गया जिसके लिए अर्जुन जाना जाता था? तू रोता-रोता सा क्यों दिखता है। अर्जुन ने कहा- भैया हम लूट गए। भगवान चले गए। वे स्वधाम जा चुके हैं। जब मैं कुछ स्त्रियों को लेकर आ रहा था लुटेरों ने मुझे लूट लिया। मैं गांडीव उठाता था तो मेरा शस्त्र नहीं उठता। मैं साधारण लुटेरों से हार गया। वो स्त्रियां ले गए, धन ले गए। मैं लुटापिटा आपके पास आया हूं । भगवान की उपस्थिति में ही बल है लुटे-पिटे अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर ने कहा-आज हमें समझ में आ गया हम पांडवों के पास कोई ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की थी। अरे तू जिस गांडीव से बड़े-बड़े योद्धाओं को पराजित करता था। वो लूटेरों से हार गया। तेरे गांडीव में ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की मौजूदगी में थी। जीवन में परमात्मा की मौजूदगी की ही ताकत है। उसके जाते ही हम बेकार हो जाएंगे इसलिए निर्भय बने रहिए उसका बल हमारे साथ है। यह बहुत सूत्र की बात है। भगवान को सदा अपने जीवन के केंद्र में रखिए। अब पांडवों ने विचार किया चलो हम भी संसार त्यागते हैं। ऐसा कहते हैं कि पांडवों में सिर्फ ही युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग में गए थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों व पत्नी द्रोपदी को साथ लेकर चले। स्वर्गारोहण के समय सबसे पहले द्रौपदी गिर गई। प्रश्न पूछा ये क्यों गिर गई? उत्तर मिला पांच पतियों में सबसे अधिक अर्जुन को प्रेम करती थी, भेदभाव रखती थी इसलिए इनका पतन सबसे पहले हुआ। उसके बाद सहदेव का पतन हुआ क्योंकि उनको ज्ञान का अभिमान था। नकुल का पतन हुआ क्योंकि उन्हें अपने रूप का अभिमान था। अर्जुन जब गिरे तो युधिष्ठिर ने कहा अर्जुन को अपने बल पर अभिमान था इसलिए अर्जुन भी स्वर्ग में सशरीर नहीं जा पाए। अब बचे भीम और युधिष्ठिर। तो पहले भीम गिर गए। उसने पूछा मैं क्यों गिर गया भैया? तो उन्होंने कहा तू इसलिए गिर गया कि तू खाता बहुत था। अधिक खाना भी पाप है। भीम अधिक खाता था और अधिक सोता था। ये दो काम न करें ये पाप की श्रेणी में आते हैं। उसके बाद युधिष्ठिर स्वर्ग में गए। उन्होंने वहां भाइयों और पत्नी को देखा और सबको मुक्ति दिलाई। आगे भागवत के प्रमुख पात्र परीक्षित की कथा आएगी। धर्म के चार चरण होते हैं पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राज करने लगे। उन्होंने धर्म के आधार पर प्रजापालन किया। तीन अश्वमेध यज्ञ किए। सब प्रसन्न थे उनके राज में। जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया वे सब उनमें प्रकट होने लगे थे। यथासमय उन्होंने उत्तर की कन्या दरावति से विवाह किया। जिससे जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए। एक बार जब वे कहीं जा रहे थे तभी उन्हें एक लंगड़ा दुर्बल बैल और दुर्बल गाय दिखाई दी। वास्तव में वह बैल धर्म था और गाय के रूप में पृथ्वी थी। परीक्षित ने देखा की राजा का वेष धारण किए हुए एक शुद्र उन दोनों पर निरंतर चाबुक का प्रहार कर रहा है। वह राजा वेष धारण किए हुए और कोई नहीं साक्षात कलियुग था। राजा से अन्याय नहीं सहा गया। उन्होंने कलियुग का हाथ पकड़ लिया। पूछा कि इन निर्बलों को क्यों प्रताडि़त कर रहा है? परीक्षित को तब तक उनके रूप का ज्ञान नहीं था। तब बैल ने अपना परिचय दिया, गौ ने अपना परिचय दिया। बैल रूपी धर्म का केवल एक ही पैर था शेष तीन पैर टूट चुके थे। धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, तप, पवित्रता, और दान। सतयुग में तो धर्म के चार चरण थे। फिर त्रेता में सत्य चला गया द्वापर में सत्य ओर तप न रहे और कलयुग में सत्य और तप के साथ पवित्रता भी चली गई। कलयुग में केवल दान और दया के सहारे धर्म रह गया। गाय रूपी पृथ्वी का शरीर जर्जर, केवल अस्थिपंजर रह गया था। तब राजा ने उनकी ये दुर्दशा देखी और प्रण किया कि आप लोग निश्चित रहिए मैं इस आततायी कलयुग का सर्वनाश करके रहूंगा। कलयुग को अभयदान दिया परीक्षित ने राजा परीक्षित की प्रतिज्ञा को जब कलयुग ने सुना तो वह भय से कांप उठा। वह राजा की शरण में आ गया। परीक्षित ने उसे अभय दान दे दिया। तब कलयुग ने कहा कि पद्धति के क्रम से मेरा भी समय आ गया है। आप मुझे रहने के लिए उचित स्थान दीजिए। तब परीक्षित ने कलयुग को मदिरा, जुआ, व्याभिचार और हिंसा इन चार स्थानों पर रहने की अनुमति दे दी। कलयुग ने फिर अनुनय विनय किया कि उसको एक और पंचवां स्थान दिया जाए। और वह पांचवां स्थान स्वर्ण था। राजा ने स्वीकृत कर लिया। समय बीता और एक दिन ऐसा हुआ कि परीक्षित को जिज्ञासा हुई कि देखूं तो सही कि मेरे दादा ने मेरे घर में क्या-क्या रख छोड़ा है ? एक पेटी में स्वर्ण मुकुट मिला। बिना कुछ सोचे ही राजा परीक्षित ने मुकुट पहन लिया। यह मुकुट जरासंघ का था। पाण्डवों ने जब जरासंघ का वध किया था तब वे इसे ले आए थे। यह धन अनीति का था, छीना-छपटी का था। अनीति का धन उसके कमाने वाले को और वारिस को भी दु:ख देता है, इसलिए उस मुकुट को पेटी में बंद करके रखा गया था। आज परीक्षित ने देखा तो पहन लिया। अधार्मिक व्यक्ति का वह मुकुट अधर्म से ही लाया गया था। इसलिए उसके द्वारा कलयुग ने परीक्षित की बुद्धि में प्रवेश कर लिया। जिस कलयुग को राजा परीक्षित अपने देश में भी नहीं रहने देना चाहते थे उस कलयुग को राजा के मुकुट में ही स्थान मिल गया। जब ऋषि ने परीक्षित को दिया श्राप एक दिन राजा परीक्षित शिकार खेलने गए। मृग का पीछा करते-करते वे बहुत थक गए। प्यास लगी तो वे शमीक ऋषि के आश्रम में गए। शमीक ऋषि ध्यान लगाकर बैठे थे। परीक्षित ने सोचा कि ये मेरी बात नहीं सुन रहे। भूख प्यास के मारे राजा अपना विवेक खो बैठा। और उसने एक छड़ी से एक मृत सर्प को शमीक ऋषि के गले में डाल दिया। और राजा चला गया। शमीक ऋषि की समाधि फिर भी भंग नहीं हुई। शमीक ऋषि का पुत्र श्रृंगी वहां पहुंचा। उसने देखा कि किसी ने मृत सर्प पिता के गले में डाल दिया है। तो उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने क्रोध में आकर श्राप दे दिया कि जिस किसी ने मेरे पिताजी के गले में मृत सर्प डाला है आज से ठीक सातवे दिन सर्पराज तक्षक उसको डंस लेंगे।जब ऋषि शमीक की तपस्या पूर्ण हुई तब उन्हें पूरी बात श्रृंगी ने बताई।ऋषि ने ध्यान लगाया। वे समझ गए कि राजा परीक्षित ने कलयुग के प्रभाव में आकर यह किया है। अनजाने में उनसे भूल हो गई। मेरे पुत्र ने छोटी सी भूल का उन्हें इतना बड़ा दंड दे दिया। यह तो अच्छा नहीं हुआ। अगर राजा परीक्षित न रहें तो पृथ्वी पर अराजकता व्याप्त हो जाएगी। यह सोच ऋषि चिंतित हो गए। इधर राजा परीक्षित ने जब मुकुट उतारा तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। राजा परीक्षित को जब शाप के बारे में ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे प्रभु आज्ञा मानकर शिरोधार्य किया और तुरंत राजपाट छोड़ दिया। उन्होंने निश्चय किया कि अब जो भी थोड़े दिन बचे हैं, उन दिनों में वे भगवान की भक्ति करेंगे। ऐसा विचार कर परीक्षित राजमहल छोड़कर गंगा के तट पर आकर विराज गए और संकल्प लिया कि मरणकाल तक वे निराहार रहकर तपस्या करेंगे। संकट आने पर धैर्य रखें ऋषि-मुनियों को जब यह पता चला कि राजा परीक्षित श्रापित हो चुके हैं तो वे राजा के समीप उनके आश्रम पहुंचे। उनमें मुख्य थे अत्री, वशिष्ठ, च्यवन अरिष्ठनेमी, अंगीरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, भृगु, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, अगस्त्य, और वेदव्यास। नारदजी भी वहां पहुंच गए। राजा ने सबको प्रणाम किया और सारी बात बता दी व कहा कि अब मैं इसी प्रकार से अपना शेष जीवन-यापन करूंगा। तब सभी ऋषि-मुनियों ने विचार किया कि जब तक आप जीवित हैं तब तक वे सब लोग यहीं विराजेंगे और धर्मोपदेष करेंगे। ऋषियों ने राजा को भांति-भांति का उपदेष देना आरंभ किया और संयोग से शुकदेवजी वहां उपस्थित हो गए। सभी ने उनका स्वागत किया, सत्कार किया उनको उचित आसन पर बैठाया। राजा ने अपनी कथा संक्षेप में शुकदेवजी महाराज को सुनाई और अपने कल्याण की कामना की। राजा ने कहा कि वो ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरा उद्धार हो। प्रश्न सुन शुकदेवजी ने मौन होकर राजा की भावनाओं को पहचाना और परीक्षित को उपदेश देना आरंभ किया। उस वातावरण को देखकर परीक्षित ने अपने को धन्य माना। शुकदेवजी ने कहा जो समय बीत गया उसका स्मरण मत करो, भविष्य का विचार भी मत करो। केवल वर्तमान को सुधारो। सात दिन बाकी रहे हैं। भगवान नारायण को स्मरण करो। तुम्हारा जीवन अवश्य धन्य हो जाएगा और इस प्रकार व्यासजी प्रथम स्कंध को समाप्त करते है। परीक्षित से सीखा जाए कि संकट आने पर कैसे संयम रख जीवन बिताएं। संयम को बल देना हो तो एक काम और किया जा सकता है, जरा मुस्कुराइए... जगत नहीं जगदीश की उपासना करें परीक्षित श्रापित हो चुके हैं। परीक्षितजी ने अपना पाप बता दिया, उनसे भूल हुई, गंगा के तट पर बैठ गए। साधु-संतों से कहा जीवन के अंतिम समय में क्या किया जाए कि आदमी को मोक्ष मिले। कोई मुझे सिखाए। साधु-संतों ने कहा हम ये नहीं कर सकते। तभी किसी ने कहा शुकदेवजी यह कर सकते हैं। तभी शुकदेवजी पधारे। शुकदेवजी से परीक्षित ने पूछा- शुकदेवजी आप ज्ञान दीजिए हमें क्या करना चाहिए, हम अपने जीवन को कैसे सिद्ध कर सकें? शुकदेवजी ने कहा मैं आपको सात दिन तक कथा सुनाऊंगा। परीक्षितजी ध्यान से बैठ गए। यहां भागवत का प्रथम स्कंध समाप्त होने जा रहा है। शुकदेवजी कह रहे हैं- यह संसार आपको कुछ अधिक नहीं देगा, दुनिया पर टिकोगे कुछ नहीं मिलेगा, दुनिया बनाने वाले पर टिकोगे तो बहुत मिलेगा। शुकदेवजी ने कथा सुनाई- चंचला नाम की बहुत सुंदर स्त्री थी। सारे गांव के युवक उससे विवाह करना चाहते थे पर चंचला ऐसी नखराली कि सबको मना कर गई। एक दिन उसके गांव के पागलखाने में राजनेता निरीक्षण करने आए वहां उन्होंने देखा कोठरी में एक सुंदर युवक बाल नोच रहा था। उन्होंने पूछा ये कैसे पागल हो गया? किसी ने बताया हमारे गांव में चंचला नाम की स्त्री है। ये उससे विवाह करना चाहता था। उसने मना कर दिया तो यह पागल हो गया। अगली कोठरी में गए तो एक युवक खुद को थप्पड़ मार रहा था। उन्होंने कहा ये कैसे पागल हो गया? फिर किसी ने कहा चंचला ने इससे शादी कर ली इसलिए ये पागल हो गया। चंचला जिसको मिली वो भी पागल हो गया और जिसको नहीं मिली वो भी गया। ये संसार चंचला है। दुनिया जिसे मिली उसको भी कुछ नहीं मिला और जिसकी चली गई वो भी दु:खी हो गया। शुकदेवजी राजा परीक्षित को द्वितीय स्कंध की ओर ले जा रहे हैं। यहां दूसरे स्कंध से लेकर आठवें स्कंध तक गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करना सीखाएगी तथा व्यवसायिक जीवन में परिश्रम की चर्चा आएगी। श्रोता में कौन से गुण होने चाहिए भागवत के प्रथम स्कंध में अधिकार निरूपण किया गया है। श्रोता कैसा होना चाहिए, और वक्ता कैसा होना चाहिए। यह दूसरा स्कंध साधन प्रधान स्कंध है। दस अध्याय हैं, जिनमें परमात्मा की प्राप्ति के साधन बताए हैं। मुख्य रूप से श्रवण को ही परमात्मा प्राप्ति का साधन बताया है। इस स्कंध के दस अध्याय में से पहले दो में ध्यान की चर्चा है। बाद के दो अध्याय में वक्ता, श्रोता की श्रद्धा का वर्णन है। शेष छ: अध्याय में मनन का वर्णन है। इन साधनों के द्वारा मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेता है। आगे के स्कंधों में सर्ग-विसर्ग का वर्णन आएगा इसलिए शुकदेवजी ने अधिकार और साधन को पहले बता दिया है। यह भागवत की विशिष्ट भाषा है। द्वितीय स्कंध आरंभ होता है। शुकदेवजी को राजा परीक्षित के प्रश्न सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा कि राजा के प्रश्न बड़े ही महत्व के हैं। आत्म तत्व को न जानने के कारण प्राणी प्रपंच में ही लीन रहता है जबकि मानव जीवन का लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण की अद्भूत लीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में उल्लेखित है। यह श्रीमद्भागवत पुराण वेद के समान पठनीय और मननीय है। शुकदेवजी ने राजा को कहा कि उनके कल्याण और जनहित की दृष्टि से वे इस कथा को सुनाएंगे। परीक्षित अधिकारी थे अत: उनको शुकदेव जैसे सदगुरू मिले। परीक्षित में पांच प्रकार की शुद्धियां हैं- मातृ शुद्धि, पितृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, अन्न शुद्धि, और आत्म शुद्धि। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा- हे राजन, तुम यह न समझना कि तुम्हारी आयु अल्प रह गई है। दो घड़ी के सद्विचार से ही मनुष्य अपना हित साध सकता है। मृत्यु ज्ञात हो जाने पर क्या करें? अब आरंभ हो रहा है दूसरा स्कंध। इस स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता हमें बताएगी जीवन में कर्म कैसे किए जाएं। गीता महाभारत का एक छोटा सा साहित्य है। महाभारत के बीच में छोटे से दीए के रूप में पूरी महाभारत को प्रकाशित करने वाले का नाम गीता है। शुकदेवजी राजा परीक्षित को बताते हैं। किस तरह से खट्वांग राजा को जब यह पता लगा इंद्र के द्वारा उसकी मृत्यु में दो चार घड़ी शेष हैं तो खट्वांग राजा तुरंत स्वर्ग से उतरकर अयोध्या आए, दान दक्षिणा दी, वैराग्य लिया, सरयू तट पर तप किया और योग क्रिया द्वारा अपने शरीर को मुक्त कर दिया। शुकदेवजी ने बताया कि मृत्यु निकट जानकर मनुष्य को चाहिए कि वह माया मोह का त्याग कर औंकार मंत्र का जाप करे। इस प्रकार राजा परीक्षित को मृत्युकाल में क्या करना उचित है, शुकदेवजी इसका उपदेश देकर कहते हैं कि अलग-अलग देवताओं की उपासना का फल सुनिए। जो ब्रह्म तेज चाहते हैं वे मनुष्य ब्रह्मा की, उत्तम इंद्रियों को चाहने वाले इंद्र की, संतान चाहने वाले दक्ष प्रजापति की, संपत्ति की कामना वाले देवी दुर्गा की, तेज चाहने वाले अग्नि की, धन चाहने वाले वरूण की, विद्या चाहने वाले शंकर की, पति-पत्नी में प्रेम चाहने वाले पार्वती की, धर्म चाहने वाले विष्णु की, कुल को चाहने वाला पितरों की तथा विघ्नों से रक्षा चाहने वाला यज्ञ उपासना करें। फिर शुकदेवजी ने बताया निष्काम कर्म के लिए साधक को इन देवी-देवताओं की उपेक्षा करते हुए श्रीनारायण की ही आराधना करनी चाहिए। सूतजी कहने लगे कि मुने, शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने अपना तन-मन श्रीकृष्ण भक्ति में लीन कर दिया। राजा ने जब देखा कि उनका मृत्यु काल समीप आ गया है तो उन्होंने नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण में ही ध्यान लगाया। राजा ने शुकदेवजी से कहा कि प्रभु इस जगत को अपनी माया से किस भांति उत्पन्न करते हैं ? किस भांति इसका पालन करते हैं? और किस भांति इसका संहार करते हैं? कृपया बताइए? नारायण ही परब्रह्म हैं हम पुन: ध्यान में ले आएं कि कथा शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे हैं तथा शौनकादी ऋषियों को सूतजी कथा सुना रहे हैं।भागवत में अब ब्रह्मा, विष्णु वार्ता की चर्चा आएगी। आदिदेव अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि रचना की इच्छा से सोच में डूबे हुए थे। तभी ब्रह्माजी ने आकाशवाणी सुनी- तप, तप। ब्रह्माजी ने समझा कि मुझे तप करने का आदेश मिला है। ब्रह्माजी ने सौ वर्ष तक तप किया और चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए। नारायणजी ने ब्रह्माजी को चतुश्लोकी भागवत का उपदेश दिया। द्वितीय स्कंध के नवें अध्याय के 32वें से 35 वें श्लोक तक चतुश्लोकी की भागवत है। शुकदेवजी ने परीक्षितजी को समझाया कि भगवान की सृष्टि का विषद वर्णन करने के उद्देश्य से ब्रह्माजी ने नारदजी को समझाया कि एक से अनेक होने की इच्छा भगवान विष्णु ने की। भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की और हजारों वर्ष तक उसको जल में रखा। फिर उसको बाहर निकालकर चैतन्य किया और उसे फोड़कर उससे सहस्त्रोचरण नेत्र भुजा मस्तक वाले विराट पुरूष की उत्पत्ति की। वही नारायण ब्रह्मा रूप से संसार की सृष्टि करते हैं, रौद्र रूप से लय करते हैं, विष्णु रूप में इसका रक्षण पालन पोषण करते हैं तथा सृष्टि करते हैं। उसके पश्चात नारदजी को ब्रह्माजी ने चौबीस अवतार की संक्षिप्त कथा कही। ब्रह्माजी ने अपने पुत्र नारद से कहा कि वे इस विषय में जितना जानते थे उतना उन्होंने बता दिया है। जो कथा मैंने तुम्हें सुनाई है उस कथा अर्थात श्रीमद्भागवत पुराण का जन-जन में प्रचार तुम करो। कर्ता और कर्म में अंतर बताती है भागवत अवतार की बात हम लोग अच्छी तरह से समझ लें। जब भगवान के अवतार की चर्चा आती है तो यह प्रश्न सहज है कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? भगवान जानते थे कि मैं भक्तों को कहता हूं कि तुम ऐसा जीवन जियो तो भक्त एक दिन मुझसे कहेंगे कि भगवान एक तो हमको मनुष्य बना दिया और ऊपर से बहुत से नियम लाद दिए। आपको क्या मालूम की धरती पर कितना कष्ट है। तो भगवान ने कहा कि मैं स्वयं भी मनुष्य बनकर आऊंगा और तुम्हें बताऊंगा कि कैसे जीवन जिया जाए। श्रीकृष्ण और श्रीराम के जीवन में कुछ नया नहीं था। जैसा हमारा जीवन है वैसा ही उनका जीवन था। लेकिन अवतार लेकर भगवान अपने आचरण से बता रहे हैं कि कर्ता का अर्थ क्या होता है ? अवतारों के प्रति पूजा और प्रार्थना क्या हैं? यह हम गोपियों के जीवन से समझ सकते हैं। गोपियों जैसी पूजा विधि-विधान से नहीं हो सकती। अगर हम बाहर से इस बात को जाचेंगे तो समझ में नहीं आएगी। बात थोड़ी भीतर की है। करने वाले में कर्ता का भाव यदि न हो तो उसके हाथ से जो भी होगा वह परमात्मा से हो रहा होगा। करने वाले में कर्ता का भाव हो तो जो भी होगा वह अहंकार से घटित होगा। हमने ही सब किया है यही भाव बना रहेगा और कर्म में निष्कामता नहीं आएगी।जब हम अवतारों की चर्चा कर रहे हैं तब कर्ता और कर्म की बात को आसानी से समझा जा सकता है।इस कर्ता और कर्म के भाव को दास मलूका के दोहे से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। ''अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम। इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि काम न करें। न करने का मतलब आलस्य बिलकुल नहीं है। यहीं बस थोड़ा का फर्क है। कर्ता का भाव मन से मिटा दें जब हम दास मलूक का यह दोहा अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम, पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि मलूक कर्म छोडऩे की बात कह रहे हैं । लेकिन सच यह है कि मलूक कर्ता छोडऩे की बात कह रहे हैं। मलूक कह रहे हैं कर्ता भाव छोड़ दो। पक्षी काम नहीं करते। लेकिन वे किसी नौकरी पर नहीं जाते। फिर भी देखिए कि पक्षी घोंसला बना रहे हैं, घास-पात ला रहे हैं, भोजन जुटा रहे हैं। काम तो चल रहा है लेकिन उनके अंदर का कर्ता भाव नहीं है। अजगर चाकरी नहीं कर रहा है अपने भोजन की तलाश तो फिर भी करता है। हिलता-डुलता है, चलता-फिरता है लेकिन कर्ता का भाव वहां नहीं है। तो मलूक इतना ही कह गए हैं कि प्रकृति बिना कर्ता भाव से चल रही है। परमात्मा उसे चलाता है। अवतारों से हम एक संकेत यह लें कि किस तरह से अकर्ता भाव से कर्म होता है।ब्रह्माण्ड के सात आवरणों का वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि-पृथ्वी से दस गुना जल है, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना वायु, वायु से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना अहंकार, अहंकार से दस गुना महत्व और महत्व से दस गुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान के केवल एक पाद में है। इस प्रकार भगवान की महत्ता प्रकट की गई है। अगले स्कंध में विदुर के गृह त्याग का प्रसंग तथा तीर्थयात्रा में महर्षि मैत्रेय से हुए उनके सत्संग का वृत्तांत जो राजा परीक्षित को शुकदेवजी ने सुनाया और जो सूतजी ऋषियों को सुना रहे हैं, वह आएगा। इसी के साथ द्वितीय स्कंध समाप्त होता है। वनवास के बाद ही सुख मिलता है अब धीरे-धीरे हम कथा में प्रवेश कर रहे हैं। इसमें सर्ग और विसर्ग का वर्णन है। सर्ग अर्थात सृजन, सृष्टि। यहां से श्रीमद्भागवत में परमात्मा को समझने के लिए प्रसंग आए हैं। तृतीय स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि- हे राजन, तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है यही प्रश्न विदुरजी ने मैत्रेय मुनि महाराज से किया था। तब राजा परीक्षित ने कहा कि विदुरजी और मैत्रेय महाराज में यह वार्तालाप कहां पर हुआ? कृपया मुझे बताइए। शुकदेवजी महाराज ने बताया कि जब पांडव अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करके वनवास बिताकर धृतराष्ट्र के समक्ष आए और अपना राज वापस मांगा तो धृतराष्ट्र ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के दूत के रूप में गए। धृतराष्ट्र ने तब भी नहीं स्वीकारा। विदुर धृतराष्ट्र को समझाने गए लेकिन धृतराष्ट्र ने विदुरजी की सलाह नहीं मानी।जब विदुर धृतराष्ट्र को समझा रहे थे तो शकुनी और दुष्शासन वहां आ गए उन्होंने विदुरजी का बहुत अपमान किया। इस कारण विदुरजी दु:खी हो गए। दुष्शासन ने तो यहां तक कहा कि विदुर को देश निष्कासन का दंड दिया जाए। विदुरजी ने इस घटना को प्रभुलीला के रूप में ग्रहण किया और कौरवों का प्रदेश छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों तक इधर-उधर घूमने के उपरांत विदुरजी यमुना तट पर पहुंचे और संयोग से वहां उनकी भेंट उद्धवजी से हो गई।याद रखिए वनवास के बिना जीवन में सुवास नहीं आ सकता इसलिए पांडवों ने और भगवान रामचंद्रजी ने वनवास बिताया था लेकिन कलयुग में वनवास का यह अर्थ नहीं कि गृह छोड़कर जंगल की ओर जाया जाए। घर में भी रहकर वनवास के नियमों का पालन किया जा सकता है। संतों का सदैव सम्मान करें विदुरजी ने सोचा कि अब कौरव मेरी निंदा कर रहे हैं तो वनवास की ओर निकल पड़े । महापुरूष निंदा और विपरीत परिस्थितियों में भी सार्थकता खोजते हैं। अच्छी वस्तुओं में अच्छाई देखे ऐसे लक्षण साधारण वैष्णव के होते हैं लेकिन बुरी वस्तुओं में अच्छाई देखी जाए ये उत्तम वैष्णव के लक्षण होंगे।भगवान ने सोचा कि यदि कौरवों के साथ विदुरजी रहेंगे तो कौरवों का विनाश न हो सकेगा इसीलिए विदुरजी को वह स्थान छोडऩे की प्रेरणा प्रभु ने दी। रामायण में रावण ने विभीषण का और महाभारत में दुर्योधन ने विदुरजी का अपमान किया था। इस प्रकार संतों का अपमान करने के कारण उनका विनाश हुआ। भगवान भी जानते थे जब तक विभीषण लंका में है रावण नहीं मरेगा। तो उसको ज्ञान बांटा और कहा तू बाहर निकल और जैसे ही विभीषण बाहर गया सभी लंकावासी आयुहीन हो गए। पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर ये तीन भाई थे। विदुर बहुत संत प्रवृत्ति के थे । विदुर ने धृतराष्ट्र को कई बार समझाया कि तुम्हारे गलत आचरण से दुर्योधन का स्वभाव बिगड़ता जा रहा है। इस प्रकार की बात करने के बाद भी जब धृतराष्ट्र ने ध्यान नहीं दिया तो विदुर चले गए तीर्थयात्रा पर और उधर विदुर को उद्धव मिल गए। उद्धव वो पात्र है जो कृष्ण के सखा भी है और रिश्तेदार भी हैं। कृष्ण जैसे ही हैं उद्धव। कैसे हुआ सृष्टि का निर्माण यह उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। कौरव पराजित तथा श्रीकृष्ण परम तत्व में विलिन हो चुके थे। उनके वियोग में उद्धव महाराज तीर्थाटन के लिए निकल पड़े और उस समय विदुरजी और उद्धवजी की भेंट हो गई। उद्धवजी ने विदुरजी को सारी जानकारी दी। कैसे कौरवों व पांडवों का युद्ध हुआ? कैसे भगवान ने देह त्यागी? दोनों एक-दूसरे की बात सुनकर दु:खी हो गए। उद्धवजी तो श्रीकृष्ण के परम सखा थे। उन्होंने सारी बात विदुरजी को बताई। उद्धव ने बताया कि भगवान से बिछुड़ जाने पर वे दु:खी हैं और अब वे यहां से बद्रीकाश्रम के लिए प्रस्थान करेंगे। उनकी बात सुनकर विदुर चिंतित हो गए। विदुर ने कहा जो आत्मबोध कृष्णजी ने आपको सुनाया वह मैं भी सुनाना चाहूंगा। तब उद्धवजी ने कहा कि आप मैत्रेय मुनि की सेवा में चले जाइए क्योंकि जिस समय भगवान ने मुझे उपदेश दिया उस समय महामुनि मैत्रेय वहीं उपस्थित थे। महात्मा विदुर भागीरथ के तट पर स्थित मैत्रेय मुनि के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए। विदुर मैत्रेय मुनि के पास पहुंचे। उनसे निवेदन किया श्रीकृष्ण की लीलाओं का मर्म समझाएं। मैत्रेयजी ने विदुर को बताया कि महाप्रलय के समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया को समेट कर सुषुप्त अवस्था में रहते हैं। यद्यपि उस अवस्था में भी चैतन्य और पुन:रचना के लिए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। भगवान देवों की प्रार्थना स्वीकार कर 23 तत्वों को संकलित करते हैं और फिर उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं। क्या है सृष्टि का क्रम मैत्रेय मुनि विदुरजी को सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बता रहे हैं। उसके अनुसार भगवान सृष्टि की उत्पत्ति के लिए एक विराट पुरूष की रचना करते हैं। विराट पुरूष प्राण, अपान, समान, और उदान, व्यान इन पांच वायु सहित नाग, कुर्म, कलकल, दह, धनंजय आदि तत्वों को प्रकट करता है। अपने कठिन तप के कारण भगवान इन प्राणियों की जीविका के लिए इनकी मुख, जिव्हा, नासिका, त्वचा, नेत्र, कर्ण, लिंग, गुदा, हस्तुपाद, अनुभूति और चित्त और इनके विषय क्रमश: वाणी, स्वाद, ध्यान, स्पर्श, दर्शन, श्रवण, वीर्य, मल त्याग, कर्मशक्ति, चिंतन, अनुभूति चेतना और फिर इनके देवता अग्नि, वरूण, अश्विनी कुमार, आदित्य, पवन, प्रजापति इंद्र लोकेश्वर आदि को उत्पन्न करते हैं। विदुरजी ने मैत्रेयजी से कुछ प्रश्न किए। मैत्रेयजी ने उनसे कहा कि आपने जो प्रश्न पूछा है उनके उत्तर आगे आने वाली कथाओ में निहित है। मैत्रेयजी कहते हैं अब सृष्टि का क्रम सुनिए विदुरजी। ब्रह्माजी सर्वप्रथम तप, मोह आदि तामसिक वृत्तियों के उत्पन्न होने पर खिन्न हो गए। तब ब्रह्माजी ने विष्णुजी का ध्यान किया और दूसरी सृष्टि की रचना करने लगे। उनमें सनकादि आदि वीतराग ऋषि उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी की भौंह से नील और लोहित वर्ण का एक बालक उत्पन्न हुआ। वह अपने जन्म के साथ ही निवास स्थान और नाम के लिए रोने लगा। उसके रूदन के कारण ही ब्रह्माजी ने उसका नाम रूद्र रख दिया। उसको उन्होंने प्रजा उत्पन्न करने का आदेश दिया। नील लोहित की जो संतती उत्पन्न हुई वह इतनी उग्र और भयंकर थी कि स्वयं ब्रह्माजी भयभीत रहने लगे। नील लोहित वन में चला गया। ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुए ऋषि नील लोहित के जाने पर ब्रह्माजी ने अपने दस अंगों से दस पुत्र उत्पन्न किए। उनकी गोद से प्रजापति, अंगुष्ट से दक्ष, प्राण से वशिष्ठ, त्वचा से भृगु, हस्थ से ऋतु, नाभि से पुलक, कर्णों से पुलस्त्य मुख से अंगिरा, नेत्रों से अत्रि, मन से मरीची और इसके अतिरिक्त भी ब्रह्माजी के हृदय से काम, भोहों से क्रोध, अदरोष्ठ से लोभ, वाक से सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से निरूक्ति, छाया से कर्दम, दक्षिण स्तन से धर्म ओर वाम स्तन से अधर्म उत्पन्न हुए। जब मरीची आदि से भी प्रजा बढ़ी तो ब्रह्माजी ने पुन: भगवान का स्मरण किया। भगवान का ध्यान करते ही ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हो गए। एक भाग पुरूष बना और दूसरा भाग स्त्री। जो पुरूष बना वही स्वयंभू मनु और जो स्त्री बनीं वे शतरूपा नाम की रानी बनी। मनु व शतरूपा से दो पुत्र व तीन कन्याएं उत्पन्न हुईं। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद व कन्याओं के नाम हैं आकूति, देवहूति, और प्रसूति थे। इन्हीं तीन कन्याओं का क्रमश: रूचि, कर्दम और दक्ष प्रजापति के साथ विवाह किया। फिर इन तीन दंपत्तियों से ही आगे की समस्त सृष्टि का विस्तार हुआ। जब हिरण्याक्ष को इस बात का ज्ञान हुआ तो उसने संपूर्ण पृथ्वी को पानी में छुपा दिया। तब ब्रह्मा की नासिकाओं से वराह भगवान प्रकट हुए। उन्होंने पृथ्वी को पानी से बाहर निकाला। हिरण्याक्ष को मारा। और पृथ्वी का शासन मनु के हाथों सौंपकर भगवान स्वधाम लौट गए। कन्या को ईश्वर का वरदान समझें विदुरजी को मैत्रेयजी बता रहे हैं ऐसे ब्रह्मांड की रचना की गई। जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की और इतने सारे मानस पुत्र पैदा हो गए। तब भगवान ने ब्रह्माजी से कहा- आपको मनुष्यों की सृष्टि पैदा करनी पड़ेगी जैसे ही भगवान ने संकेत दिया ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हुए। एक भाग स्त्री के रूप में तथा दूसरा पुरूष के रूप में पैदा हुआ। पुरूष मनु तथा स्त्री शतरूपा रूप में जानी गईं। ब्रह्मा ने उन्हें संतानोपत्ति की आज्ञा दी। उनको तीन बेटियां पैदा हुईं आकुति, देवहुति और प्रसूति तथा दो पुत्र पैदा हुए उत्तानपाद और प्रियव्रत। संत कहते हैं कि पहले तीन कन्याएं हुईं और बाद में हुए पुत्र। भगवान भी ये घोषणा करते हैं कि मुझे जब अवसर मिलता है तो मैं पहले कन्या देना पसंद करता हूं। जिन लोगों के घर में कन्या पैदा हो और वे दु:ख मनाए तो यह भगवान के निर्णय के प्रति पाप है। यहां से वे बताते हैं कि जब मनुष्य पैदा हुए तो मनु शतरूपा ने कहा कि ये हमारे बेटे-बेटी सब पैदा हुए हैं तो इनको हम कहां रखेंगे। पृथ्वी तो रसातल में जा चुकी है और हिरण्याक्ष नाम का राक्षस उसको बाहर नहीं लाने दे रहा है। तब भगवान ने वराह अवतार लिया और जब पृथ्वी को बाहर लाए तथा हिरण्याक्ष को मारा। तब एक प्रश्न खड़ा हुआ कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु कहां से आए। परीक्षित ने शुकदेव से पूछा, विदुर ने मैत्रेयजी से पूछा। उन्होंने कहा एक ऋषि थे कश्यप। उनकी पत्नी थीं दिति। वे एक दिन संध्या को कामांध होकर अपने पति के पास पहुंचीं। उन्होंने कहा मुझे आपसे इसी समय एक पुत्र चाहिए। ऋषि ने कहा दाम्पत्य में पति-पत्नी के बीच भोग का भी एक अनुशासन होना चाहिए। आप गलत समय संतान की मांग कर रही हैं लेकिन वो हठ पर अड़ गई । ऋषि ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके गर्भ में दो पुत्र आए हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु। ज्ञानी पुरुषों का पतन क्रोध से होता है जब दिति ने जाना कि उसके गर्भ से राक्षस उत्पन्न होंगे तो वह घबरा गई। तब कश्यप ने कहा कि उनका संहार करने के लिए भगवान नारायण स्वयं आएंगे। जब वे दोनों राक्षस दिति के गर्भ में आए तो उसने विचार किया कि यदि मैं इनको पैदा करूंगी तो ये देवताओं का नाश करेंगे अत: दोनों को 100 वर्ष तक दिति ने गर्भ में रखा। ब्रह्माजी ने दिति के गर्भ में जो दो राक्षस थे उनकी कथा देवताओं को सुनाई। ब्रह्माजी बोले एक बार मेरे चार मानस पुत्र सनकादि ऋषि बैकुण्ठ लोक गए। सनदकुमार बैकुण्ठ के छ: द्वार पार कर सप्तम द्वार में जब पहुंचे तो वहां द्वारपाल जय-विजय खड़े थे। सनदकुमार भगवान के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि भगवान के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें रोका। द्वारपालों ने सनदकुमार से कहा कि अंदर से आज्ञा मिलने पर ही हम आपको प्रवेश करने देंगे तब तक आप यहीं रूकिए। सनदकुमार यह सुनकर क्रोधित हुए। ज्ञानी पुरूष का पतन क्रोध के द्वारा होता है। सनदकुमार क्रोधित हुए अत: उनका पतन हुआ। प्रभु के द्वार पर पहुंचकर उन्हें वापस लौटना पड़ा। तब सनदकुमारों ने क्रोधित होकर जय-विजय को शाप दिया कि राक्षसों में विषमता होती है, तुम दोनों के मन में विषमता है अत: तुम राक्षस हो जाओगे। सनकादि ऋषियों के शाप के कारण जय-विजय को दैत्य रूप में तीन बार जन्म लेना पड़ा। सनकादि ऋषियों ने बैकुण्ठ के द्वार पर क्रोध किया था। अत: उन्हें बैकुण्ठ में प्रवेश नहीं मिला, भगवान बाहर ही आ गए थे दर्शन देने। लोभ ही सभी पापों की जड़ है हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु प्रतिदिन चार-चार हाथ बढ़ते थे। लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है। हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति और हिरण्यकषिपु का अर्थ है भोगवृत्ति। भगवान श्रीराम ने क्रोध यानि रावण को मारने के लिए तथा शिशुपाल के वध के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही अवतार लिया था। किंतु लोभ को मारने के लिए भगवान को दो अवतार लेना पड़े हिरण्याक्ष के लिए वाराह और हिरण्यकषिपु के लिए नृसिंह अवतार। हिरण्याक्ष की इच्छा हुई कि स्वर्ग में से सम्पत्ति ले आऊं। दिन-प्रतिदिन उसका लोभ बढ़ता गया। एक बार वह पाताल में गया। वहां उसने वरूण से लडऩा चाहा। वरूण ने कहा युद्ध करना है तो वाराह नारायण से युद्ध करो। हिरण्याक्ष ने वाराह भगवान को युद्ध के लिए ललकारा। मुष्ठि प्रहार करके भगवान ने हिरण्याक्ष का संहार किया और पृथ्वी का राज मनु महाराज को सौंप दिया। मनु से उन्होंने कहा कि धर्म से पालन करना और वे बद्रीनारायण के स्वरूप में लीन हो गए। तृतीय स्कंध में दो प्रकरण हैं पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। हम पढ़ चुके हैं स्वयंभू मनु की रानी का नाम शतरूपा था। मनु महाराज के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद। उनकी तीन कन्याएं थी आकुति, देवहूति और प्रसूति। आकुति का रूचि से, देवहूति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष से विवाह हुआ था। कर्दम ऋषि और देवहूति के घर कपिल भगवान आए थे। ज्ञान के प्रतीक हैं कपिल मुनि पूर्व मीमांसा के बाद इस उत्तर मींमासा का आरंभ किया गया है। उत्तर मीमांसा में ज्ञान प्रकरण है। मैत्रेयजी कहते हैं कपिल ब्रह्मज्ञान के स्वरूप हैं। कर्दम अर्थात इंद्रियों का दमन करने वाला, अर्थात जितेंद्रीय। उनके तप से भगवान प्रसन्न हुए और भगवान ऋषि के घर पधारे।भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा- दो दिन बाद मनु महाराज तुम्हारे पास आएंगे, अपनी पुत्री देवहुति तुम्हें देंगें। भगवान ने कहा कि मैं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां आऊंगा। जगत को सांख्य शास्त्र का उपदेश करना है। ऐसा कहकर श्रीहरि वहां से विदा हुए। मनु-शतरूपा अपनी पुत्री देवहुति को लेकर आए कर्दम से कहा विवाह कर लो। कर्दम ने विवाह स्वीकार किया। मनु महाराज ने विधि पूर्वक कन्यादान किया और देवहूति तथा कर्दम ऋषि का विवाह हो गया। पूर्व मीमांसा में वाराह नारायण की कथा कही गई है और उत्तर मीमांसा में कपिल नारायण का चरित्र है।हर माता-पिता को चिंता होती है कि अपनी पुत्री का विवाह करना है। तो मनु-शतरूपा को भी लगा कि हमारी तीन बेटियां हैं और तीनों को ठीक घर में दें। उनको मालूम था आकुति हर किसी से मिल जाती है तो आकुति का विवाह रूचि से कर दिया। अब बचीं देवहुति। हुति मतलब बुद्धि, जिसकी बुद्धि देव भगवान में लगी हो तो उन्होंने उसे कर्दम को सौंप दिया। तीसरी बेटी थीं प्रसूति जो सती की मां थीं। प्रसूति को माता-पिता जानते थे कि इसका विवाह ऐसे घर में करना पड़ेगा जो युवक इसे प्रसन्न रख सके। माता-पिता सोच रहे हैं कि प्रसूति का विवाह किससे करें तो उन्होंने दक्ष से विवाह कर दिया। दक्ष मतलब जो बहुत ही टेलेंटेड हो, दक्ष मतलब सक्षम हो, वह संभाल लेगा हमारी बेटी को। दाम्पत्य जीवन में संयम रखें भागवत महापुराण की जब सात दिवसीय कथा की जाती है तो सप्ताह पारायण के सात विश्राम स्थल होते हैं। पहला विश्राम तीसरे स्कंध के 22वें अध्याय तक रहता है। हम कल वहां तक पढ़ चुके थे जहां मनु और शतरूपा के वंश की चर्चा आई है। कर्दम का विवाह मनु महाराज की पुत्री देवहुति से हुआ। अब इसके बाद भगवान कपिल का जन्म होगा। यहां कथा 22वें अध्याय पर आकर खत्म हो रही है। हमने तृतीय स्कंध में पढ़ा था इसके दो भाग थे पूर्वनिमांसा, उत्तरनिमांसा। आगे भगवान कपिल का वर्णन होगा। अपनी स्मृति में दो-तीन बातें बनाए राखिएगा कि पहले दिन संयम की कथा की जाएगी। संयम चूक गए दिति और कश्यप और उनके घर हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु का जन्म हुआ। संयम बना हुआ था तो कर्दम और देवहुति के जीवन में तो कपिल भगवान का जन्म हुआ। आइए विश्राम स्थलों के अनुसार भागवतजी के इस अनुष्ठान के दूसरे दिन में प्रवेश करते हैं। आप लोग पुन: स्मरण कर लें सूतजी शौनकादि ऋषियों को कथा सुना रहे हैं। कथा सुना रहे हैं शुकदेवजी, परीक्षितजी को। पिछले प्रसंगों में मैत्रेयजी विदुरजी को कथा सुना रहे थे। तो एक श्रोता एक वक्ता, एक श्रोता एक वक्ता। बहुत सारी कथा फ्लैशबैक में चल रही हैं लेकिन हमें स्मरण रखना है कि इसके मुख्य वक्ता शुकदेवजी हैं और मुख्य श्रोता राजा परीक्षित हैं। अब हम गीता से निश्कामता को जानते हुए प्रसंगों को पढ़ेंगे। दूसरी बात इसमें भगवान का वाड्मय स्वरूप है। भगवान अपने स्वरूप के साथ स्थापित हुए हैं। इसलिए इसका महत्व है। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक की जो कथा अब आएगी इसमें गीता कर्म करना सीखाती है। जीवन में जरुरी है पारदर्शिता हम जिस तरह का जीवन जीते हैं इसमें चार तरह का व्यवहार होता है। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक जीवन, दूसरा व्यावसायिक , तीसरा पारिवारिक और चौथा हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर, पारिवारिक जीवन प्रेम पर तथा निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे। हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बहुत जरुरी है। महाभारत में जितने भी पात्र आए उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। भागवत में भी चर्चा आती है कि दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। दुर्योधन, दुर्योधन इसलिए बन गया क्योंकि दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उसको नहीं दिए गए। जब उसने होश संभाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा कि मेरी मां इस तरह से अंधी क्यों है। राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था क्योंकि सब जानते थे कि गांधारी ने अपने स्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी। भीष्म ने दबाव में गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवाया था। भीष्म ने सोचा योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा कि मेरा पति अंधा है और मुझे इसलिए लाया गया तो उसने भी आजीवन स्वैच्छिक अंधतत्व स्वीकार कर लिया। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खड़ा होता था कि मेरी मां ने ये मूर्खता क्यों की? तो महाभारत ने कहा गया है कि पारदर्शिता रखिए अपने सामाजिक जीवन में। प्रेम पर टिका है पारिवारिक जीवन हमारे पारिवारिक जीवन में प्रेम होना चाहिए। परिवार जब भी ट…

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