Saturday, 2 September 2017
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संजीव कुमार दुबे बाबा
सनातन धर्म « ॐ » नीति नियम

किसी भी धर्म, समाज या राष्ट्र में नीति-नियम और व्यवस्था नहीं है तो सब कुछ अव्यवस्थित और मनमाना होगा। उसमें भ्रम और भटकाव की गुंजाइश ज्यादा होगी इसलिए व्यवस्थाकारों ने व्यवस्था दी। हिंदू धर्म ने जो व्यवस्था दी उसका पालन आज भले ही न होता हो लेकिन वह आज भी प्रासंगिक है। लोगों के लिए व्यवस्था ऐसी हो जिसमें लोग जी सकें, न कि व्यवस्था उनके लिए बोझ हो या कि वे व्यवस्था के गुलाम हों।
हिंदू धर्म जीवन को सही तरीके से जीने और उसका लुत्फ उठाने तथा मोक्ष के लिए एक संपूर्ण जीवन शैली का मार्ग बताता है। कोई उस मार्ग पर चलना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। मूलत: हिंदू धर्म स्वतंत्रता का पक्षधर है।
आपकी स्वतंत्रता से किसी और की स्वतंत्रता में कोई दखल नहीं होना चाहिए इसलिए हिंदू धर्म एक ऐसी साफ-सुथरी व्यवस्था देता है, जिसमें आप साँस लेते हुए स्वयं का आत्म विकास कर सकें।
तब हिंदू धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है। इसी में समाहित है धार्मिक नियम और व्यवस्था के सूत्र जैसे कैसा हो हिंदू घर, हिंदू परिवार, हिंदू समाज, हिंदू कानून, हिंदू आश्रम,हिदू मंदिर, हिंदू संघ, हिंदू कर्त्तव्य और हिंदू सिद्धांत आदि।
वेद, स्मृति, गीता, पुराण और सूत्रों में नीति, नियम और व्यवस्था की अनेक बातों का उल्लेख मिलता है। उक्त में से किसी भी ग्रंथ में मतभेद या विरोधाभास नहीं है। जहाँ ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा कहा जाता है कि जो बातें वेदों का खंडन करती हैं, वे अमान्य हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च है। वही कानून श्रुति अर्थात वेद है। महर्षि वेद व्यास ने भी कहा है कि जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात मान्य होगी।
वेद और पुराण के मतभेदों को समझते हुए हम हिंदू व्यवस्था के उस संपूर्ण पक्ष को लेंगे जिसमें उन सभी विचारधाराओं का सम्मान हो, जिनसे वेद प्रकाशित होते हैं।
व्यवस्था हमारे स्व-अनुशासन और समाज के संगठन-अनुशासन के लिए आवश्यक है। व्यवस्था से ही मानव समाज को नैतिक बल मिलता है। जब तक व्यवस्था न थी तो मानव समाज पशुवत जीवन यापन करता था। वह ज्यादा हिंसक और व्यभिचारी था।
मानव कबीलों में जीता था तब हर कबीले के अपने अलग नियम और धरम होते थे, जहाँ पर कबीला प्रमुख की मनमानी चलती थी। स्त्रियों की जिंदगी बेहाल थी। यही सब देखते हुए पूर्व में मनुओं ने फिर वैदिक ऋषियों ने मानव को नैतिक रूप से एकजुट करने के लिए ही नीति और नियमों का निर्माण किया, जिसे जानना हर हिंदू का कर्त्तव्य होना चाहिए।
किसी भी धर्म, समाज या राष्ट्र में नीति-नियम और व्यवस्था नहीं है तो सब कुछ अव्यवस्थित और मनमाना होगा। उसमें भ्रम और भटकाव की गुंजाइश ज्यादा होगी इसलिए व्यवस्थाकारों ने व्यवस्था दी। लेकिन कितने लोग हैं जो नीति और नियम का पालन करते हैं?
पालन नहीं करने का परिणाम : लोग धर्म के नियमों का पालन नहीं करते हैं तो उससे उनके जीवन में जहां दुख और असफलता आती है वहीं उनका जीवन एक भ्रम और
भटकाव ही बनकर रह जाता है। वे फिर मनमाने मंदिर, दरगाह, गुरु, परंपरा, ज्योतिष आदि के बीच सुखों की तलाश करते रहते हैं,लेकिन सुख कही नही मिलता । अंतकाल मे वो पछतात हैं।
आश्रम से जुड़ा धर्म : हिंदू धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है।
इसी में समाहित है धार्मिक नियम और व्यवस्था के सूत्र।
जैसे कैसा हो हिंदू घर, हिंदू परिवार, हिंदू समाज, हिंदू कानून, हिंदू आश्रम, हिदू मंदिर, हिंदू संघ, हिंदू कर्त्तव्य और हिंदू सिद्धांत आदि।
आश्रम है ये चार- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास।
वेद है सर्वोच्च धर्मग्रंथ : वेद, स्मृति, गीता, पुराण और सूत्रों में नीति, नियम और व्यवस्था की अनेक बातों का उल्लेख मिलता है। उक्त में से किसी भी ग्रंथ में मतभेद या विरोधाभास नहीं है। जहां ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा कहा जाता है कि जो बातें वेदों का खंडन करती हैं, वे अमान्य हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च है। वही कानून श्रुति अर्थात वेद है। महर्षि वेद व्यास ने भी कहा है कि जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात मान्य होगी।
वेद और पुराण के मतभेदों को समझते हुए हम हिंदू व्यवस्था के उस संपूर्ण पक्ष को लेंगे जिसमें उन सभी विचारधाराओं का सम्मानहो, जिनसे वेद प्रकाशित होते हैं।
वेद है चार- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद।
इन नियमों का पालन करें-
१- ईश्वर को ही सर्वोपरि मानें। एकनिष्ठ बनें।
।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद १०-८-१
भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।
‘ उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं।
शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।’।। २-८-१।।-तैत्तिरीयोपनिषद
हिंदू धर्म की लगभग सभी विचारधाराएँ (चर्वाक को छोड़कर) यही मानती हैं कि कोई एक परम शक्ति है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और गीता में उस
एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है।
ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना,व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है।
हिंदू दर्शन, पुराण और वेदों में मतभेद ईश्वर के होने या नहीं होने में नहीं है। मतभेद उनके साकार या निराकार,सगुण या निर्गण स्वरूप को लेकर है। फिर भी ईश्वर की सत्ता में सभी विश्वास करते हैं। कुछ ईश्वर और उसकी सृष्टि में फर्क करते हैं और कुछ नहीं।
एक ही रूप ‘जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।’-कठोपनिषद-।।१०।।
ओमकार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है उस ब्रह्म को ही ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु, सच्चिदानंद,विश्वात्मा, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, भर्ता, ग्रसिष्णु,
प्रभविष्णु और शिव आदि नामों से जाना जाता है, वही इंद्र में, ब्रह्मा में, विष्णु में और रुद्रों में है। वहीं सर्वप्रथम प्रार्थनीय और जप योग्य है अन्य कोई नहीं।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- ‘हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप उस दिव्य पुरुष को अर्थात य परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।’-श्रीमद्भगवद्गीता-८’ सत (ईश्वर) एक ही है। कवि उसे इंद्र, वरुण व अग्नि आदि भिन्न नामों से पुकारते हैं।’-ऋग्वेद
‘ वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके।
वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएँ होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी हैं।’।।४,५।।-ईशावास्योपनिषद
अंतत: उस ईश्वर की सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण आराधना करते हैं। हिंदू धर्म ग्रंथ वेद, स्मृति, गीता आदि सभी में इस बात के प्रमाण हैं। वेद और पुराण के अनुसार ‘वह ईश्वर एक ही है’ दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। मत्स्य अवतार से लेकर कृष्ण तक सभी अवतारी पुरुष उस ईश्वर की शक्ति से ही ईश्वर के संदेश को पहुँचाते रहे हैं।
ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ईश्वर एक ही है।अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। जो वेदज्ञ हैं, गीता के जानकार हैं और जिन्होंने उपनिषदों का अध्ययन किया है वे उक्त बातों से निश्चित सहमत होंगे। यही सनातन सत्य है।
‘ जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।’-कठोपनिषद-।।१०।।
।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।-ऋग्वेद (१-१६४-४३)
भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
२- प्रतिदिन मंदिर जाएं।
प्रतिदिन मंदिर जाएं अगर आप प्रतिदिन मंदिर नहीं जा सकते तो सप्ताह में एक दिन/समय निश्चित करें और तय दिन/समय पर मंदिर जाएं पूजा कें वैदिक मंत्रोचारण करें ।
गायत्री मंत्र शान्ति मंत्र का पाठ नियमित करें, हनूमान चलीसा, रामचरित मानस, गीता, सुन्दर काण्ड का पाठ करें मंदिर परिसर में अभद्र हरकत ना करें ।
मंदिर परिसर में पशु बलि ना करें वैदिक नियमों का पालन करें जनेऊ, चोटी, तिलक, करधनी, कलवा(रक्षा सुत्र) का प्रयोग नित्य करें ।
३- प्रतिदिन संध्यावंदन करें।
सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।’-आचार भूषण-८९
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में संध्या वंदन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है संध्या वंदन करना। संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।
संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पाँच वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्या काल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन,प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।
संध्योपासना के चार प्रकार है- (१)प्रार्थना, (२)ध्यान, (३)कीर्तन और (४)पूजा-आरती।
व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।
४- आश्रमों के अनुसार जीवन को ढालें।
∅धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
∅ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
∅धर्म से मोक्ष और अर्थ से काम साध्य माना गया है।
ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ और काम का महत्व है। वानप्रस्थ और संन्यास में धर्म प्रचार तथा मोक्ष का महत्व माना गया है।
प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे।
जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदाध्यन के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।
आश्रम चार हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। आश्रम ही हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था है।
आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की उम्र १०० वर्ष मानकर उसे चार भागों में बाँटा गया है।
उम्र के प्रथम २५ वर्ष में शरीर, मन और बुद्धि के विकास को निर्धारित किया गया है। दूसरा गृहस्थ आश्रम है जो २५ से ५० वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है जिसमें शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या कार्य को करते हुए अर्थ और काम का सुख भोगते हैं।
५० से ७५ तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर जनसेवा,धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान का विधान है। इसे वानप्रस्थ कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त होकर व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश कर संन्यासियों के ही साथ रहता है।
नोट :- वर्तमान युग में आश्रम व्यवस्था खतम हो चुकी है। आश्रमों के खतम होने से संघ भी नहीं रहे। संघ के खतम होने से राज्य भी मनमाने हो चले हैं। वर्तमान में जो आश्रम या संघ हैं वे क्या है हम नहीं जानते।
५- वेद को साक्षी मानें और जब भी समय मिले गीता पाठ करें।
हे अर्जुन! मुझे छोड़कर जो अन्य में मन रमाता है, अनंत जन्मों के भटकाव के बाद वह मेरी ओर ही आता है।’- श्री कृष्ण
वेद को छोड़ने का दुष्परिणाम :
पिछले १०/२० वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी है।
हिंदू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि इधर जाऊँ या उधर।
भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जो कि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति,चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती है। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत,कथावाचक या पोंगा पंडितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है।
धर्म का अपमान :
आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर।
रामलीला करते हैं और राम के साथ हनुमानजी का भी मजाक उड़ाया जाता है। राम के बारे में कुतर्क किया है, कृष्ण पर चुटकुले बनते हैं। दुर्गोत्सव के दौरान दुर्गा की मूर्ति के पीछे बैठकर शराब पी जाती हैं आदि अनेकों ऐसे उदाहरण है तो रोज देखने को मिलते हैं।
भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं और अब तमाम वह सारे उपक्रम नजर आने लगे हैं जिनका सनातन हिंदू धर्म से कोई वास्ता नहीं है।
बाबाओं के चमचे :
‘#अनुयायी_होना_दूसरी_आत्महत्या_है।’- #वेद
रुद्राक्ष या ॐ को छोड़कर आज का युवा अपने-अपने बाबाओं के लॉकेट को गले में लटकाकर घुमते रहते हैं। उसे लटकाकर वे क्या घोषित करना चाहते हैं यह तो हम नहीं जानते। हो सकता है कि वे किसी कथित महान हस्ती से जुड़कर खुद को भी महान-बुद्धिमान घोषित करने की जुगत में हो।
धर्म या जीवन पद्धति :
हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है- ये वाक्य बहुत सालों से बहुत से लोग और संगठन प्रचारित करते रहे हैं। उक्त वाक्य से यह प्रतिध्वनित होता है कि इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और जैन सभी धर्म है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग।
धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है,लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें?
भगवान कृष्ण ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा था कि जीवन के लिए?
जहाँ तक हम सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं।
यह बात अलग है कि वह पद्धति अलग-अलग है।
फिर हिंदू धर्म कैसे धर्म नहीं हुआ?
धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि ‘धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो’?
मनमानी व्याख्या –
पहले ही भ्रम का जाल था कुछ संगठनों ने और भ्रम फैला रखा है उनके अनुसार ब्रह्म सत्य नहीं है शिव सत्य है और शंकर अलग है। आज आप जहाँ खड़े हैं अगले कलयुग में भी इसी स्थान पर इसी नाम और वेशभूषा में खड़े रहेंगे- यही तो सांसारिक चक्र है। इनके अनुसार समय सीधा नहीं चलता गोलगोल ही चलता है।
इन लोगों ने वैदिक विकासवाद के सारे सिद्धांत और समय व गणित की धारणा को ताक में रख दिया है। एक संत या संगठन गीता के बारे में कुछ कहता है, तो दूसरा कुछ ओर।
एक राम को भगवान मानता है तो दूसरा साधारण इंसान।
हालाँकि राम और कृष्ण को छोड़कर अब लोग शनि की शरण में रहने लगे हैं।
वेद, पुराण और गीता की मनमानी व्याख्याओं के दौर से मनमाने रीति-रिवाज और पूजा-पाठ विकसित होते गए।
लोग अनेकों संप्रदाय में बँटते गए और बँटते जा रहे हैं। संत निरंकारी संप्रदाय,मानवधर्म, ब्रह्माकुमारी संगठन, जय गुरुदेव,गायत्री परिवार, कबिर पंथ, साँई पंथ, राधास्वामी मत आदि अनेकों संगठन और सम्प्रदाय में बँटा हिंदू समाज वेद को छोड़कर भ्रम की स्थिति में नहीं है तो क्या है?
संप्रदाय तो सिर्फ दो ही थे- शैव और वैष्णव। फिर इतने सारे संप्रदाय कैसे और क्यूँ हो गए। प्रत्येक संत अपना नया संप्रदाय बनाना क्यूँ चाहता है? क्या भ्रमित नहीं है आज का हिंदू?
१०- दस तरह के पाप से बचें।
दस पाप कर्म-
०१- दूसरों का धन हड़पने की इच्छा।
०२- निषिद्ध कर्म (मन जिन्हें करने से मना करें) करने काप्रयास।
०३- देह को ही सब कुछ मानना।
०४- कठोर वचन बोलना।
०५-झूठ बोलना।
०६- निंदा करना।
०७- बकवास (बिना कारण बोलते रहना)।
०८- चोरी करना।
०९- तन, मन, कर्म से किसी को दु:ख देना।
१०- पर-स्त्री या पुरुष से संबंध बनाना।
७- हर हिंदू के पांच नित्य कर्तव्यों को जानकर उसका पालन करें।
कर्तव्यों का विशद विवेचन धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में मिलता है। वेद, पुराण, गीता और स्मृतियों में उल्लेखित चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक सनातनी (हिंदू या आर्य) को कर्तव्यों के प्रति जाग्रत रहना चाहिए ऐसा ज्ञानीजनों का कहना है।
कर्तव्यों के पालन करने से चित्त और घर में शांति मिलती है। चित्त और घर में शांति मिलने से मोक्ष व समृद्धि के द्वार खुलते हैं।
१-संध्योपासन अर्थात संध्या वंदन।
२-व्रत ही तप है। यही उपवास है। व्रत दो प्रकार के हैं। (व्रत के बारे में विस्तार से अगले लेख में)
३- तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है।
४- उत्सव त्योहारों, पर्वों या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख धर्मग्रंथों में मिलता है।
५- सेवा :हिंदू धर्म में सभी कर्तव्यों में श्रेष्ठ ‘सेवा’ का बहुत महत्व बताया गया है।
६-दान:-दान के तीन प्रकार बताए गए है:- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट ।
७- यज्ञ- यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं। यज्ञ का अर्थ सिर्फ हवन करना नहीं।
पाँच यज्ञ निम्न है- ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ,पितृयज्ञ (श्राद्ध), वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ।
८- संस्कार : संस्कारों के प्रमुख प्रकार सोलह बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिंदू का कर्तव्य है।
इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान,पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण,अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन,वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि।
यह है हिंदुओं के मुख्यत: आठ कर्तव्य।
८-सभी को समान समझे, छुआछूत मानना पाप है।
धर्म की गलत व्याखाओं का दौर प्राचीन समय से ही जारी है। ऋषि वेद व्यास ब्राह्मण नहीं थे, जिन्होंने पुराणों की रचना की। तब से ही वेद हाशिये पर धकेले जाने लगे और समाज में जातियों की शुरुआत होने लगी। क्या हम शिव को ब्राह्मण कहें? विष्णु कौन से समाज से थे और ब्रह्मा की कौन सी जाति थी? क्या हम कालीका माता/विश्वकर्मा को दलित समाज का मानकर पूजना छोड़ दें?
(छूत अछूत पर पूरा लेख अगले भाग में)
०९- हिंदुओं के १६ संस्कारों का पालन करें।
संस्कृत भाषा का शब्द है संस्कार।
मन, वचन, कर्म और शरीर को पवित्र करना ही संस्कार है। हमारी सारी प्रवृतियों और चित्तवृत्तियों का संप्रेरक हमारे मन में पलने वाला संस्कार होता है। संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पुष्ट होता है और हम सभ्य कहलाते हैं। व्यक्तित्व निर्माण में हिन्दू संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कार विरुद्ध आचरण असभ्यता की निशानी है।
‘संस्कार’ मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं।
मुख्यत: तीन भागों में विभाजित संस्कारों को क्रमबद्ध सोलह संस्कार में विभाजित किया जा सकता है।
ये तीन प्रकार होते हैं’-
(१) मलापनयन
(२) अतिशयाधान
(३) न्यूनांगपूरक।
वेद, स्मृति और पुराणों में अनेकों संस्कार बताए गए है किंतु धर्मज्ञों के अनुसार उनमें से मुख्य सोलह संस्कारों में ही सारे संस्कार सिमट जाते हैं अत: इन संस्कारों के नाम है-
(०१)गर्भाधान संस्कार
(०२)पुंसवन संस्कार
(०३)सीमन्तोन्नयन संस्कार
(०४)जातकर्म संस्कार
(०५)नामकरण संस्कार
(०६)निष्क्रमण संस्कार
(०७)अन्नप्राशन संस्कार
(०८)मुंडन संस्कार
(०९)कर्णवेधन संस्कार
(१०)विद्यारंभ संस्कार
(११)उपनयन संस्कार
(१२)वेदारंभ संस्कार
(१३)केशांत संस्कार
(१४)सम्वर्तन संस्कार
(१५)विवाह संस्कार और
(१६)अन्त्येष्टि संस्कार।
(विस्तार से अगले भाग में)
१०- संयुक्त परिवार का पालन करें ।
हिंदू सनातन धर्म ‘संयुक्त परिवार’ को श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान मानता है। धर्मशास्त्र कहते हैं कि जो घर संयुक्त परिवार का पोषक नहीं है उसकी शांति और समृद्धि सिर्फ एक भ्रम है। घर है संयुक्त परिवार से। संयुक्त परिवार से घर में खुशहाली होती है ।
संयुक्त परिवार की रक्षा होती है सम्मान, संयम और सहयोग से। संयुक्त परिवार से संयुक्त उर्जा का जन्म होता है। संयुक्त उर्जा दुखों को खत्म करती है। ग्रंथियों को खोलती है। संयुक्त परिवार से बढ़कर कुटुम्ब। कुटुम्ब की भावना से सब तरह का दुख मिटता है। यही पितृयज्ञ भी है। परिवार के भी नियम है।
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Priti Mehta पर अप्रैल 30, 2017 को 8:43 पूर्वाह्न
भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं ? Kaunse?
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संजीव कुमार दुबे बाबा पर अप्रैल 30, 2017 को 5:10 अपराह्न
भगवत गीता अपनी श्रद्धा से आप स्वक्ष होकर किसी भी समय सुबह दोपहर या शाम को पढ सकती है (जब आपको समय मिले तब) लेकिन ईसे दुसरे के द्वारा सुनना ही बहुत श्रेयकर होता है !!
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thanks a lot for sharing, this really helped in my worksatta king
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