All World Gayatri Pariwar Books उच्चस्तरीय साधना के... ध्यान- धारणा की...  Allow hindi Typing 🔍 INDEX उच्चस्तरीय साधना के दो सोपान- जप और ध्यान ध्यान- धारणा की दिव्य- शक्ति ध्यान एक ऐसी विधा है जिसकी आवश्यकता हमें लौकिक जीवन में भी पड़ती है और आध्यात्मिक अलौकिक क्षेत्र में भी उसका उपयोग किया जाता है। ध्यान को जितना सशक्त बनाया जा सके, उतना ही वह किसी भी क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। मनुष्य को जो कुछ प्राप्त है उसके ठीक- ठीक उपयोग तथा जो प्राप्त करना चाहिए, उसके प्रति प्रखरता- दोनों ही दिशाओं में ध्यान बहुत उपयोगी है। उपासना क्षेत्र में भी ध्यान की इन दोनों ही धाराओं का उपयोग किया जाता है। अपने स्वरूप और विभूतियों का बोध तथा अपने लक्ष्य की ओर प्रखरता दोनों ही प्रयोजनों के लिए ध्यान का प्रयोग किया जाता है। हम अपने स्वरूप, ईश्वर के अनुग्रह- जीवन के महत्त्व एवं लक्ष्य की बात को एक प्रकार से पूरी तरह भुला बैठे हैं। न हमें अपनी सत्ता का ज्ञान है, न ईश्वर का ध्यान और न लक्ष्य का ज्ञान। अज्ञानान्धकार की भूल- भूलैयों में बेतरह भटक रहे हैं। यह भुलक्कड़पन विचित्र है। लोग वस्तुओं को तो अक्सर भूल जाते हैं, सुनी, पढ़ी बातों क ो भूल जाने की घटनायें भी होती रहती हैं। कभी के परिचित भी विस्मृत होने से अपरिचित बन जाते हैं, पर ऐसा कदाचित ही होता है कि अपने आपे को भी भुला दिया जाय। हम अपने को शरीर मात्र मानते हैं। उसी के स्वार्थों को अपना स्वार्थ, उसी की आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता मानते हैं। शरीर और मन यह दोनों ही साधन जीवन रथ के दो पहिये मात्र हैं। पर घटित कुछ विलक्षण हुआ है। हम आत्मसत्ता को सर्वथा भुला बैठे हैं। यों शरीर और आत्मा पृथकता की बात कही- सुनी तो अक्सर जाती है, पर वैसा भान जीवन भर में कदाचित ही कभी होता हो। यदि होता भी है तो बहुत ही धुँधला। यदि वस्तु स्थिति समझ ली जाती है और जीवन सत्ता तथा उसके उपकरणों की पृथकता का स्वरूप चेतना में उभर आता है तो आत्म- कल्याण की बात प्रमुख बन जाती है और वाहनों के लिए उतना ही ध्यान दिया जाता है, जितना कि उनके लिए आवश्यक था। आज तो ‘हम’ नंगे फिर रहे हैं और वाहनों को स्वर्ण आभूषणों से सजा रहे हैं। ‘हम’ भूखे मर रहे हैं और वाहनों को घी पिलाया जा रहा है। ‘हम’ से मतलब है आत्मा और वाहन से मतलब है शरीर और मन। स्वामी- सेवकों की सेवकाई में लगा है और अपने उत्तरदायित्वों को सर्वथा भुला बैठा है, यह विचित्र स्थिति है। वस्तुतः हम अपने आपे का खो बैठे हैं। आध्यात्मिक ध्यान का उद्देश्य है, अपने स्वरूप और लक्ष्य की विस्मृति के कारण उत्पन्न वर्तमान विपन्नता से छुटकारा पाना। ‘एक बच्चा घर से चला ननिहाल के लिए। रास्ते में मेला पड़ा और वह उसी में रम गया। वहाँ के दृश्यों में इतना रमा कि अपने घर तथा गन्तव्य को ही नहीं अपना नाम पता भी भूल गया।’ यह कथा बड़ी अटपटी लगती है, पर है सोलहों आने सच और वह हम सब पर लागू होती है। अपना नाम पता, परिचय- पत्र, टिकट आदि सब कुछ गँवा देने पर हम असमंजस भरी स्थिति में खड़े हैं कि आखिर हम हैं कौन? कहाँ से आये हैं और कहाँ जाना था? स्थिति विचित्र है इसे न स्वीकार करते बनता है और न अस्वीकार करते। स्वीकार करना इसलिए कठिन है कि हम पागल नहीं, अच्छे- खासे समझदार हैं। सारे कारोबार चलाते हैं, फिर आत्म- विस्मृत कहाँ हुए? अस्वीकार करना भी कठिन है क्योंकि वस्तुतः हम ईश्वर के अंश हैं। महान मनुष्य जन्म के उपलब्धकर्त्ता हैं तथा परमात्मा को प्राप्त करने तक घोर अशान्ति की स्थिति में पड़े रहने की बात को भी जानते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट है जो होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है और जो करना चाहिए, वह कर भी नहीं रहे हैं। यही अन्तर्द्वन्द्व उभर कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छाया रहता है और हमें निरन्तर घोर अशान्ति अनुभव होती है। जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए उस लक्ष्य पर ध्यान को एकाग्र करना आवश्यक है। महत्त्वपूर्ण इमारतें बनाने से पूर्व उनके नक्शे, छापे एवं मॉडल बनाये जाते हैं। इंजीनियर, कारीगर उसी को देख- देखकर अपना निर्माण कार्य चलाते हैं और समयानुसार इमारत बनकर तैयार हो जाती है ।। भगवान का स्वरूप और गुण, कर्म स्वभाव कैसा हो इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती है और फिर उसके साथ समीपता, एकता तादात्म्यता स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनने के लिए प्रयत्न किया जाता है। ध्यान प्रक्रिया का यही स्वरूप है। व्यक्तिगत जीवन में कितने ही व्याकुल विचलित कर देने वाले प्रसंग आते हैं, जो मनःस्थिति को उद्विग्न करके रख देते हैं। इन आवेशग्रस्त क्षणों में मनुष्य संतुलन खो बैठता है। न सोचने योग्य सोचता है, न कहने योग्य कहता है और करने योग्य करता है। गलती आखिर गलती ही रहती है और उसके दुष्परिणाम भी निश्चित रूप से होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि मुसीबत अकेली नहीं आती अपने साथ विपत्तियों का नया परिवार समेट लाती है ।। इस कथन में सच्चाई इसलिए है कि जिन कारणों से मानसिक सन्तुलन बिगड़ा था उनकी हानि तो प्रत्यक्ष ही थी। हानि न होती तो उद्वेग क्यों होता? अब उद्वेग के कारण जो असंगत चिन्तन, कथन, और क्रिया- कलाप आरम्भ हुआ उसने अन्यान्य कितनी ही नई समस्याएँ उत्पन्न करके रख दी कई बार तो उद्विग्नता शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करने से भी आगे बढ़ जाती है और आत्महत्या अथवा दूसरों की हत्या कर डालने जैसे संकट उत्पन्न करती है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए ध्यान- एकाग्रता के कुशल अभ्यास से बढ़कर और कोई अधिक उपयोगी उपाय हो ही नहीं सकता। कई बार मन, क्रोध, शोक, कामुकता, प्रतिशोध, विक्षोभ जैसे उद्वेगों में बेतरह फँस जाता है उस स्थिति में अपना या पराया कुछ भी अनर्थ हो सकता है। उद्विग्नताओं में घिरा हुआ मन कुछ समय में सनकी या विक्षिप्त स्तर का बन जाता है। सही निर्णय कर सकना और वस्तुस्थिति को समझ सकना उसके बस से बाहर की बात हो जाती है। इन विक्षोभों से मस्तिष्क को कैसे उबारा जाये और कैसे उसे संतुलित स्थिति में रहने का अभ्यस्त कराया जाय इसका समाधान ध्यान साधना से जुड़ा हुआ है। मन को अमुक चिन्तन प्रवाह से हटाकर अमुक दिशा में नियोजित करने की प्रक्रिया ही ध्यान कहलाती है। इसका आरम्भ भटकाव के स्वेच्छाचार से मन को हटाकर एक नियत निर्धारित दिशा में लगाने के अभ्यास से आरम्भ होता है। इष्टदेव पर अथवा अमुक स्थिति पर मन को नियोजित कर देने का अभ्यास ही तो ध्यान में करना पड़ता है। मन पर अंकुश पाने, उसका प्रवाह रोकने में, सफलता प्राप्त कर लेना ही ध्यान की सफलता है। यह स्थिति आने पर कामुकता, शोक संतप्तता, क्रोधान्धता ,, आतुरता, ललक, लिप्सा जैसे आवेशों पर काबू पाया जा सकता है। मस्तिष्क को इन उद्वेगों से रोक कर किसी उपयोगी चिन्तन में मोड़ा- मरोड़ा भी जा सकता है। कहते हैं कि अपने को वश में कर लेने वाला संसार को वश में कर लेता है। आत्म- नियन्त्रण की यह स्थिति प्राप्त करने में ध्यान साधना से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। इसका लाभ आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से मिलता है। अभीष्ट प्रयोजनों में पूरी तन्मयता, तत्परता नियोजित करने से ही किसी कार्य का स्तर ऊँचा उठता है, सफलता का सही मार्ग मिलता है और बढ़ी- चढ़ी उपलब्धियाँ पाने का अवसर मिलता है। आत्मिक क्षेत्र में भी यही तन्मयता प्रसुप्त शक्तियों के जागरण से लेकर ईश्वर प्राप्ति तक का महत्त्वपूर्ण माध्यम बनती है। ध्यान योग का उद्देश्य अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में, अपने स्वरूप के बारे में सोच विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापस लौटाना है। यदि किसी प्रकार वह वापस लौट सके तो लम्बा सपना देखकर डरे हुये व्यक्ति जैसी मनःस्थिति हुए बिना नहीं रह सकती। तब प्रतीत होगा कि मेले में खोये हुए बच्चे से, आत्म विस्मृत मानसिक रोगियों से अपनी स्थिति भिन्न नहीं रही है। इस व्यथा से ग्रसित लोग स्वयं घाटे में रहते हैं और अपने सम्बन्धियों को दुःखी करते हैं। हम आत्म- बोध को खोकर भेड़ों के झुण्ड में रहने वाले सिंह की तरह दयनीय स्तर का जीवन- यापन कर रहे हैं और अपनी माता- परमसत्ता को कष्ट दे रहे हैं- रूष्ट कर रहे हैं। विस्मरण का निवारण- आत्मबोध की भूमिका में जागरण- यही है ध्यान योग का लक्ष्य। उसमें ईश्वर का स्मरण किया जाता है- अपने स्वरूप का भी अनुभव किया जाता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की स्मृति फिर ताजा की जाती है और यह अनुभव किया जाता है कि जिस दिव्य सत्ता से एक तरह से सम्बन्ध विच्छेद कर रखा गया है, वही हमारी जननी और परम शुभचिन्तक है। इतना ही नहीं वह कामधेनु की तरह सशक्त भी है कि उसका पय- पान करके देवोपम स्तर का लाभ ले सकें। कल्प- वृक्ष की छाया में बैठकर सब कुछ पाया जा सकता है, ईश्वर सत्ता से सम्पर्क, सान्निध्य, घनिष्ठता बना लेने पर भी कुछ शेष नहीं रहता जिसे अभाव दारिद्रय अथवा शोक- सन्ताप कहा जा सके। ध्यान योग हमें इस लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है। स्पष्ट है कि आत्मबोध से बढ़कर मानव- जीवन का दूसरा लाभ नहीं हो सकता। भगवान बुद्ध को जिस वटवृक्ष के नीचे आत्मबोध हुआ था उसकी डालियाँ काट- काट कर संसार भर में इस आशा से बड़ी श्रद्धापूर्वक आरोपित की गयी थीं कि उसके नीचे बैठ कर अन्य लोग भी आत्मबोध का लाभ प्राप्त कर सकेंगे और दूसरे बुद्ध बन सकेंगे। किसी स्थूल वृक्ष के नीचे बैठकर महान जागरण की स्थिति प्राप्त कर सकना कठिन है, पर ध्यानयोग के कल्पवृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्मबोध का लाभ ले सकता है और नर- पशु के स्तर से ऊँचा उठकर नर- नारायण के समकक्ष बन सकता है। मन जंगली हाथी की तरह, जिसे पकड़ने के लिए प्रशिक्षित हाथी भेजने होते हैं। सधी हुई बुद्धि पालतू हाथी का कार्य करती है। ध्यान के रस्से से उसे पकड़- जकड़कर उसे काबू में लाती है और फिर उसे सत्प्रयोजनों में संलग्न हो सकने योग्य सुसंस्कृत बनाती है। पानी का स्वभाव नीचे गिरना है। उसे ऊँचा उठाना है, तो पम्प चरखी, ढेंकी आदि लगाने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। निम्नगामी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से भी हमारी अधिकांश शक्तियाँ नष्ट होती रहती हैं उन्हें ऊपर उठाने के लिए मस्तिष्क में दिव्य- प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने की ध्यान की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। शक्ति को उपलब्ध करना बड़ी बात नहीं, उसे बिखराव के निरर्थक एवं अपव्यय की अनर्थ मूलक बर्बादी से भी बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का लाभ तभी मिलता है जब उसे संग्रहीत रखने और सत्प्रयोजन में लगाने की व्यवस्था बन पड़े। धूप, गर्मी से पानी समुद्र तालाबों में से भाप बनकर उड़ता रहता है, चूल्हों से कितनी ही भाप उत्पन्न होती है और उड़ती है। उसका कोई उपयोग नहीं है, किन्तु इंजन में थोड़ा- सा पानी भाप बनाया जाता है। उसी भाप को हवा में उड़ जाने से बचाकर टंकी में एकत्रित किया जाता है और फिर उसका शक्ति प्रवाह एक छोटे छेद में होकर पिस्टन तक पहुँचा दिया जाता है। इतने मात्र से रेलगाड़ी का इंजन चलने लगता है। चलता ही नहीं दौड़ता भी है। उसकी दौड़ इतनी सामर्थ्य युक्त होती है कि अपने साथ- साथ बहुत भारी लदी रेलगाड़ी के दर्जनों डिब्बे घसीटता चला जाता है। सेरों बारूद यदि जमीन में फैलाकर माचिस से जलाई जाय तो थोड़ी- सी चमक दिखाकर भक् से जल जायेगी। उसका कुछ परिणाम न निकलेगा न कोई आवाज होगी। किन्तु यदि उसे बन्दूक के छोटी नली के अन्दर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और घोड़ा दबाकर नन्हीं सी चिनगारी से स्पर्श कराया जाय तो वह एक तोले से भी कम वजन की बारूद गजब ढाती है। सनसनाती हुई दिशा विशेष की ओर प्रचण्ड गति से दौड़ती है। अपने साथ लोहे की गोली व छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहाँ टकराती है, वहाँ सफाया उड़ा देती है। बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहीत शक्ति की दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने की सार्थकता में कितना अन्तर है, इसे सहज ही समझा जा सकता है | सूर्य की किरणें सुविस्तृत क्षेत्र में बिखरी पड़ी रहती हैं। रोज ही सूर्य निकलता और अस्त होता है। धूप थोड़ी- सी गर्मी, रोशनी पैदा करने जितना ही काम कर पाती है, किन्तु यदि उन किरणों के एक- दो इन्च क बिखराव को आतिशी शीशे द्वारा एक ही केन्द्र पर केन्द्रित कर दिया जाय तो देखते- देखते आग जलने लगेगी और उसे किसी बड़े जंगल में डाल दिया जाय तो दावानल बनकर भयंकर विनाशलीला प्रस्तुत कर सकता है। स्थूल शक्तियों की तरह सूक्ष्म शक्तियों का लाभ भी उन्हें एकत्रित करके दिशा विशेष में लगा देने से ही सम्भव हो सकता है। मस्तिष्क एक सशक्त बिजलीघर है। इसमें निरन्तर प्रचण्ड विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता रहता है और उसके शक्तिशाली कम्पन ऐसे ही अनन्त आकाश में उड़ते- बिखरते नष्ट होते रहते हैं। यदि इस प्रवाह को केन्द्रित करके किसी विशेष लक्ष्य पर नियोजित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक परिणाम हो सकते हैं। एकाग्रता की चमत्कारी शक्ति कहीं भी देखी जा सकती है। सरकस में एक से एक बढ़कर आश्चर्यजनक खेल होते हैं। उनमें शारीरिक शक्ति का उपयोग कम और एकाग्रता का अधिक होता है। एक पहिये की साइकिल, एक तार पर चलना, एक से दूसरे झूले पर उछल जाना, तश्तरियाँ तेजी से लगातार एक हाथ से उछालना और दूसरे से पकड़ना जैसे खेलों में एकाग्रतापूर्वक कुछ अंगों को सधा लेने का अभ्यास ही कौतूहल उत्पन्न करता है। द्रौपदी स्वयंवर में चक्र पर चढ़ी हुई नकली मछली की आँख को तीर से वेध देना विजेता होने की शर्त थी। द्रोणाचार्य उसका पूर्व अभ्यास अपने शिष्यों को करा चुके थे। निशाने पर तीर छोड़ने से पहले वे छात्रों से पूछते थे कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? शिष्यगण मछली के आस- पास का क्षेत्र तथा उसका पूरा शरीर दीखने की बात कहते थे। द्रोणाचार्य उनकी सफलता पहले से ही घोषित कर देते थे। जब अर्जुन की बारी आई तो उसने प्रश्न के उत्तर में कहा- मुझे मात्र मछली की आँख दीखती है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। गुरुदेव ने उसके सफल होने की पूर्व घोषणा कर दी और सचमुच वही स्वयंवर में मत्स्य वेध की शर्त पूरी करके द्रौपदी विवाह का अधिकारी बन सका। एकाग्रता की शक्ति असाधारण है। भौतिक प्रयोजनों में उसका चमत्कारी उपयोग नित्य ही देखा जाता है। बहीखाता सही रखने और मीजान ठीक जोड़ने में एकाग्रता के अभ्यासी ही सफल होते हैं अन्यथा सुशिक्षितों से भी पन्ने पर भूल होने और काँट- फाँस करने की कठिनाई उत्पन्न होती रहती है। वैज्ञानिकों की यही विशेषता है कि वे अपने विषय में तन्मय हो जाते हैं और विचार समुद्र में गहरे गोते लगाकर नई- नई खोजों के रत्न ढूँढ़ लाते हैं। लोकमान्य तिलक के जीवन का एक संस्मरण प्रसिद्ध है कि उनके अँगूठे का आपरेशन होना था। डॉक्टर ने दवा सुँघाकर बेहोश करने का प्रस्ताव रखा तो उसने कहा- ‘मैं गीता के प्रगाढ़ अध्ययन में लगता हूँ, आप बेखटके आपरेशन कर लो।’ डॉक्टर ने तब आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने बिना हिले- डुले शान्तिपूर्वक ऑपरेशन करा लिया। पूछने पर तिलक ने इतना ही कहा -तन्मयता इतनी प्रगाढ़ थी जिसमें ऑपरेशन की ओर ध्यान ही नहीं गया और दर्द भी नहीं हुआ। कहते हैं कि भृंग नाम का उड़ने वाला कीड़ा झींगुर पकड़ लाता है और उनके सामने निरन्तर गुंजन करता रहता है। उस गुंजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मनःस्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग समझने लगता है, अस्तु धीरे- धीरे उसका शरीर ही भृंग रूप में बदल जाता है। कीट विज्ञानी इस किंवदंती पर स्नेह कर सकते हैं, पर यह तथ्य सुनिश्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का देर तक चिन्तन करते रहा जाय, मनुष्य की सत्ता उसी ढाँचे में ढलने लगती है। यह सब इच्छा या अनिच्छा से किसी केन्द्र बिन्दु पर अपने चिन्तन को केन्द्रित करने का परिणाम है। असंख्य विशेषतायें और क्षमतायें मानवी सत्ता के कण- कण में भरी पड़ी हैं। दसों इन्द्रियाँ जादू की पिटारियाँ हैं। उन्हें रचनात्मक दिशा में नियोजित रखा जा सके, भटकाव से- बिखराव से बचाया जा सके तो अभीष्ट सफलता की दिशा में द्रुतगति से बढ़ा जा सकता है। मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है। मस्तिष्कीय क्षमता का कोई अन्त नहीं। उसके विचार -पक्ष और बुद्धि पक्ष का ही थोड़ा- सा प्रयोग होता है, शेष चित्त अहंकार वाला अचेतन समझा जाने वाला, किन्तु चेतन से लाखों गुना अधिक शक्तिशाली चित्त और अहंकार कहा जाने वाला भाग तो अविज्ञात स्थिति में निष्प्रयोजन ही पड़ा रहता है। अचेतन का अर्थ यहाँ उपेक्षित कहना भी उचित है। मन और बुद्धि वाले भाग का कितना उपयोग किया जाता है उतना ही चित्त, अहंकार का भी प्रयोग होने लगे तो मनुष्य दुनियादार बुद्धिमानों की तुलना में असंख्य गुनी विचारशीलता, प्रज्ञा, भूमा प्राप्त कर सकता है और मात्र समझदार न रहकर तत्त्व दृष्टा की स्थिति में पहुँच सकता है। बिखराव को रोकने की, उपलब्ध शक्ति को संग्रहीत रखकर अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर सकने की कुशलता को आध्यात्मिक एकाग्रता कहते हैं। अध्यात्म शास्त्र में मनोनिग्रह अथवा चित्त निरोध इसी को कहते हैं। ‘मेडिटेशन’ की योग- प्रक्रिया में बहुत चर्चा होती है। इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर ही समझना चाहिए। सुनने- समझने में यह सफलता नगण्य जैसी मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः वह बहुत बड़ी बात है। इस प्रयोग में प्रवीण होने पर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलतायें- उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकता है। एक मोटा लोहा लेकर उसे किसी कड़ी वस्तु में धँसाया जाय तो उसमें भारी कठिनाई पड़ेगी, किन्तु यदि उसकी नोंक पतली कर दी जाय तो साधारण दबाव से ही वह गहराई तक धँसता चला जायेगा। मोटे तार। और सुई की पतली नोंक का अन्तर सहज ही देखा जा सकता है। तार को कपड़े या कागज की तह में ठूँसना कठिन पड़ेगा किन्तु पतली नोंक वाली सुई सरलतापूर्वक प्रवेश करती चली जायगी। लकड़ी, पत्थर, लोहे जैसे कड़े पदार्थों में छेद करने के लिए नोंकदार बरमे ही काम देते हैं। नोंक की इस चमत्कारी शक्ति का इतना ही रहस्य है कि बड़ी परिधि की अपेक्षा छोटी परिधि में जब दबाव केन्द्रित होता है तो उसकी शक्ति सहज ही बढ़ जाती है। जमीन देखने में मिट्टी, धूलि की निरर्थक- सी वस्तु प्रतीत होती है, पर यह उसकी ऊपरी परत का ही मूल्यांकन है। उसे खोदने पर एक से एक बहुमूल्य वस्तुयें मिलती चली जाती हैं। थोड़ा खोदने पर पानी निकल आता है। उससे दैनिक उपयोग के सारे काम चलते हैं। पेड़- पौधों की सिंचाई तथा कल- कारखाने चलते हैं। इससे गहरे उतरने पर अनेक रासायनिक पदार्थ, धातुयें, रत्न, गैस तेल, जैसी बहुमूल्य वस्तुएँ हाथ लगती हैं। स्मरण रखा जाना चाहिए कि गहरी खुदाई नोंकदार बरमे ही कर सकते हैं। एकाग्रता से ही शक्तियों का एकीकरण कर सकते हैं। इससे अन्तःक्षेत्र में छिपी हुई विभूतियों और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई सम्पत्तियाँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकती हैं और सामान्य- सा जीवन असामान्य विशेषताओं और तज्जनित सफलताओं से भरा- पूरा दृष्टिगोचर हो सकता है। जिस प्रकार जमीन खोदने में एक से एक बढ़कर बहुमूल्य खनिज सम्पदायें निकलती हैं, उसी प्रकार एकाग्रता की शक्ति में व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टतायें और बल, बुद्धि, विद्या, मैत्री, कीर्ति, प्रतिभा जैसी विशेषतायें प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती रह सकती हैं। एकाग्रता का एक चमत्कार मैस्मेरिज्म- हिप्नोटिज्म भी है। प्रयोगकर्ता अपनी दृष्टि को एक बिन्दु पर एकत्रित करने का अभ्यास करता है। अपनी इच्छा शक्ति को समेट कर लक्ष्य केन्द्र में समाविष्ट करता है। फलस्वरूप जादुई शक्ति उत्पन्न होती है और उसमें दूसरों को सम्मोहित करके उन्हें इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है। उनमें मानसिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं तथा प्रखरता के नये बीज बोये जा सकते हैं। प्राण- विद्या के द्वारा शारीरिक, मानसिक चिकित्सा के अनेक कठिन कार्य पूरे किये जाते हैं। यह सब एकाग्रता का ही चमत्कार है। ध्यानयोग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर उसे एक चिन्तन बिन्दु पर केन्द्रित कर सकने में प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग में जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है, उसकी अन्तःचेतना में उसी अनुपात से बेधक प्रचण्डता उत्पन्न होती जाती है। शब्दबेधी बाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उसे क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से, दिव्य ऋद्धि सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा- पूरा दिखाई पड़ेगा। यदि लक्ष्य भौतिक उन्नति है तो भी इस एकाग्रता का समुचित लाभ मिलती चली जायेगी। शक्ति का जब, जिस भी दिशा में प्रयोग किया जायेगा उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते चले जायेंगे। एकाग्रता मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहीत करना है। छोटे से बरसाती नाले का पानी रोककर बाँध बना लिए जाते हैं और उसके पीछे सुविस्तृत जलाशय बन जाता है। इस जलराशि से नहरें निकालकर दूर- दूर तक क्षेत्र हरा- भरा बनाया जाता है। वही नाला जब उच्छृंखल रहता है तो किनारों को तोड़- मरोड़कर इधर- उधर बहता है और उस बाढ़ से भारी बर्बादी होती है। मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारधारा को किसी विशालकाय विद्युत निर्माण कारखाने से कम नहीं आँका जाना चाहिए। बिजलीघरों की शक्ति सीमित होती है और वे अपनी परिधि के छोटे के छोटे से क्षेत्र को ही बिजली दे पाते हैं, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती है और प्रभाव क्षेत्र, जो आज घर- परिवार तक सीमित है, वह कल विश्व- व्यापी बन सकता है। बिजलीघर के तार निर्धारित वोल्टेज की क्षमता धारण किये रहने के लिए बाध्य हैं, पर मस्तिष्क की प्रचण्ड सत्ता परिस्थिति के अनुसार ही इतनी अधिक क्षमता सम्पन्न हो सकती है कि क्षेत्र, समाज की सीमा को पार करते हुए अपने प्रभाव से समस्त संसार को प्रभावित कर सके और वातावरण को बदल देने में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकें ।। ध्यान की अद्भुत क्षमताओं के कारण उसका उपयोग ईश्वर प्राप्ति, जीवन लक्ष्य प्राप्ति जैसे महानतम उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है। उपासना के साथ ध्यान को अविच्छिन्न रूप से भी जोड़ा जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों तथा विधियों में उसके प्रकारों में थोड़ा बहुत अन्तर भले ही हो पर ध्यान का समावेश हर पद्धति में है अवश्य। उपासना क्षेत्र में ध्यान साकार और निराकार दो प्रकार के कह गये हैं। एक में भगवान की अमुक मनुष्याकृति को मान कर चला जाता है, दूसरे में प्रकाश पुञ्ज की आस्था जमाई होती है। तात्विक दृष्टि से यह दोनों की साकार है। सूर्य जैसे बड़े और प्रकाश बिन्दु जैसे छोटे आकार का ध्यान रखना भी तो एक प्रकार का आकार ही है, अन्तर इतना ही तो हुआ कि उसकी मनुष्य जैसी आकृति नहीं है। ध्यान के लिए ईश्वर की परम लक्ष्य की, आकृति बनना आवश्यक है। यों नादयोग, स्पर्शयोग, गन्धयोग को आकृति रहित कहा जाता है, पर ऐसा सोचना अनुपयुक्त है। नादयोग में शंख, घंटा, घड़ियाल, वीणा आदि की ध्वनियाँ सुनी जाती हैं, पर अनचाहे ही वे वाद्य यन्त्र कल्पना में आते रहते हैं, जिनसे वे ध्वनियाँ निःसृत होती हैं। इस प्रकार गन्ध ध्यान में मात्र गन्ध पर ही चिन्तन एकाग्र नहीं हो सकता, जिस पुष्प की वह गन्ध है, उसकी आकृति अनचाहे ही सामने आती रहेगी। ध्यान में आकृति से पीछा नहीं छूट सकता। मस्तिष्क की बनावट ही ऐसी है कि वह निराकार कहलाने वाले चिन्तन की भी आकृतियाँ बनाकर ही आगे चलता है। वैज्ञानिक के गहरे चिन्तन को निराकार कहा जाता है, पर वस्तुतः वह भी जो सोचता है, उसमें कल्पना क्षेत्र की एक पूरी प्रयोगशाला सामने रहती है और प्रयोगात्मक हलचलें आँधी- तूफान की तरह अपना काम कर रही होती हैं। अन्तर इतना ही होता है कि वह स्थूल प्रयोगशाला के उपकरण छोड़कर वही सारा प्रयोग कृत्य काल्पनिक प्रयोगशाला में कर रहा होता है। ध्यान में आकृति से पीछा छुड़ाना सम्भव नहीं हो सकता। अस्तु किसी को साकार- निराकार के वितंडवाद में न पड़कर ध्यान धारणा के सहारे आत्म चिन्तन का प्रयोजन पूरा करना होगा। मानसिक ध्यान की सफलता के लिए मस्तिष्कीय विकास सामान्य स्तर की अपेक्षा कुछ अधिक ऊँचा होना चाहिए। यदि उसे अध्ययन, चिन्तन, मनन आदि के द्वारा गहरा गोता मारने, कोमल संवेदनाओं को उभारने, किसी बात पर देर तक चिन्तन कर सकने योग्य विकसित न किया गया होगा तो समुचित ध्यान कर सकना सम्भव ही न हो सके गा। अविकसित मानसिक स्तर के लोग इन्द्रिय सम्वेदना भर अनुभव करते हैं, वे कान या आँख की सहायता से देख या सुनकर कुछ सोच- समझ सकते हैं। कवियों, वैज्ञानिकों एवं दृष्टओं जैसा सूक्ष्म चिन्तन उनके लिए सम्भव नहीं होता। अस्तु उन्हें उनकी स्थिति के अनुरूप दृश्य प्रतिमाओं के आधार पर परमात्मा की समीपता का उपासना- उद्देश्य पूरा करना होता है। हर व्यक्ति नये क्षेत्र में प्रवेश करते समय बालक ही होता है, चाहे वह अन्य विषयों में कितना ही सुयोग्य क्यों न हो? कोई अच्छा वकील अपने विषय का विशेषज्ञ हो सकता है, पर उसे नया शिल्प सीखते समय बाल कक्षा के छात्र की तरह ही आरम्भ करना होगा। उपासना जिनका विषय नहीं रहा, वे अन्य विषयों के विद्वान हो सकते होते हुए भी इस क्षेत्र में नौसिखियों की तरह ही प्रवेश करते हैं। अस्तु उन्हें ध्यान प्रक्रिया का अभ्यास करने के लिए प्रतीक पूजा का आश्रय लेना सुविधाजनक ही रहता है। छतों पर सीमेण्ट, गिट्टी,लोहे का स्लैव डालने के लिए उसके नीचे ‘सहारे’ खड़े करने होते हैं ।। छत कड़ी हो जाने पर ‘सहारे’ निकाल दिये जाते हैं और फिर वह अपने आप खड़ी रहती है ।। इतना ही नहीं, अपने ऊपर वजन भी उठा लेती है किन्तु आरम्भ में जबकि वह ढलाई गीली थी, तो बिना सहारे के काम नहीं चल सकता था। प्रतीक पूजा की आरम्भिक अवस्था में आवश्यकता पड़ती ही है। निराकारवादी व्यक्ति रूप में न सही अन्य किसी प्रतीक को माध्यम बनाकर अपना काम चलाते हैं। नमाज पढ़ते समय कावा की तरफ मुँह किया जाता है। कावा का अर्थ ईश्वरीय शक्ति का विशेष प्रतिनिधित्व करने वाली इमारत है। दूसरे लोग सूर्य आदि की प्रकाश ज्योति को आधार बनाते हैं। कुण्डलिनी जागरण, चक्र वेधन आदि योगाभ्यासों में भी अमुक स्थानों को दिव्य शक्ति का केन्द्र मानकर वहाँ अपनी इच्छा शक्ति नियोजित करनी पड़ती है। यह भी ध्यान के ही रूप हैं और इनमें आकृति का सहारा लेना होता है। ध्यान में केवल रूप देखते रहना भर पर्याप्त नहीं उसमें गहरी तन्मयता पैदा करनी होती है। साकार उपासना में इष्ट देव के समीप- अति समीप होने और उनके साथ लिपट जाने -उच्चस्तरीय प्रेम के आदान- प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। इसमें भगवान और जीव के बीच माता- पुत्र, पति- पत्नी, सखा- सहोदर, स्वामी- सेवक जैसा कोई भी सघन सम्बन्ध माना जा सकता है, इससे आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने में सहायता मिलती है। लोक व्यवहार में स्वजनों के बीच आदान- प्रदान उपहार और उपचार की तरह चलते हैं। मन, वचन कर्म से घनिष्ठता एवं प्रसन्नता व्यक्त की जाती है ।। भेंट उपहार में कई तरह की वस्तुयें दी जाती हैं। नवधा भक्ति में ऐसे ही आदान- प्रदान की वस्तुपरक अथवा क्रिया परक कल्पना की गई है। वस्तुतः यहाँ प्रतीकों को माध्यम बनाकर भावनात्मक आदान- प्रदान की गहराई में जाया जाना चाहिए। भक्त और भगवान के बीच सघन आत्मीयता की अनुभूति उत्पन्न करने के वाला आदान- प्रदान चलना चाहिए। भक्त Versions  HINDI उपासना के दो चरण जप व ध्यान Scan Book Version  ENGLISH Recitation and Meditation Scan Book Version  HINDI उच्चस्तरीय साधना के दो सोपान- जप और ध्यान Text Book Version  ENGLISH Recitation and Meditation Scan Book Version  MARATHI उपासनेच दोन सोपान जप व ध्यान Scan Book Version gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp अखंड ज्योति कहानियाँ मानसिक एवं आत्मिक बल (Kahani) तुम्हारी सूर्योपासना (kahani) तुम्हारी जड़े, ही खोखली हो गई (kahani) कष्ट मुक्त करने के लिए (Kahani) See More    3_Sep_2017_4_6489.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/text_article_mobile.php on line 345
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