Friday, 1 September 2017

ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रागुणी कृतं। रुद्रेण दत्तो ग्रन्थिर्वै सावित्र्या चाभिमंत्रितम्॥

ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं
विष्णुना त्रागुणी कृतं।
रुद्रेण दत्तो ग्रन्थिर्वै
सावित्र्या चाभिमंत्रितम्॥
ब्रह्मा जी के द्वारा उत्पन्न किया गया
विष्णु जी ने त्रिगुण किया
भगवान रुद्र के द्वारा ग्रन्थि दी गयी
तथा सावित्री( गायत्री ) जी ने मंत्र से अभिमंत्रित किया।
"यज्ञोपवीते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्मणि" श्रौत या स्मार्त कर्म में सदैव दो जनेऊ धारण करें "तृतीयं उत्तरीयार्थे वस्त्राभावे तदिष्यते" उत्तरीय वस्त्र के अभाव में तीसरा जनेऊ धारण करना चाहिये।
उपनयन-संस्कार  कन्याओं का यज्ञोपवीत संस्कारका अधिकारः---*******************************यद्यपि आज के युग में कन्याओं को यज्ञोपवीतका अधिकार है या नहीं--इस बात की चर्चा का कोईमहत्त्व नहीं रहा, क्योंकि कन्याओं के शिक्षा-ग्रहण मेंअब कोई बाधा नहीं रही। लडकों तथा लडकियों केसमान अधिकार को भारतीय समाज ने स्वीकार करलिया है, तथापि उपनयन संस्कार के प्रकरण मेंऐतिहासिक दृष्टि से इस बात पर विचार करना असंगतनहीं है कि वैदिक-संस्कृति का प्राचीन काल से अब तकक्या दृष्टिकोण रहा है। इस बात पर विचारकरना इसलिए भी प्रकरण-संगत है क्योंकि अब भी कईलोग वेदों का नाम लेकर अनेक तरहकी दकियानूसी बातें कहते सुने जाते हैं। उपनयन केअधिकार का अर्थ है --विद्या ग्रहण करने का अधिकार,इसलिए इस सम्बन्ध में हम जो कुछ लिखेंगे उसमें दो बातेंस्पष्ट करने का प्रयत्न किया जायेगा। एक बात तो यहहै कि वैदिक-संस्कृति में कन्याओं को यज्ञोपवीत ग्रहणका वैसा ही अधिकार था जैसा बालकों को,दूसरी बात यह है कि वैदिक-काल में स्त्रियाँ वेद-शास्त्रपढा करती थीं। इसमें उनके लिए कोई मनाही नहीं थी,इस क्षेत्र में लडकों-लडकियों की समान गति थी।(1.) कन्याओं को यज्ञोपवीत का अधिकारः------------------------------------------------------गोभिलीय गृह्यसूत्र (2.1.19--21) में लिखा है,"प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्सोमोsददत् गन्धर्वाय इति" अर्थात्कन्या को कपडा पहने हुए, यज्ञोपवीत धारण किए हुएपति के निकट लाये तथा यह मन्त्र पढे--"सोमोsददत्"।इस मन्त्र में स्पष्ट है कि कन्या यज्ञोपवीत धारण किएहुए हो। कन्याओं का उपनयन-संस्कार होता था----यहनिम्न श्लोक से स्पष्ट हैः--"पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते।अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा।।"अर्थात् प्राचीन-काल में स्त्रियों का मौञ्जीबन्धन(उपनयन) होता था, वे वेदादि शास्त्रों का अध्ययनभी करती थीं।हारीत-संहिता में स्त्रियों के दो भेद किये गयेहैं---"ब्रह्मवादिन्यः" तथा "सद्योवध्वः" --ब्रह्मवादिनी तथा सद्योवधू । पराशर-संहिता केप्रसिद्ध भाष्यकार पंडित प्रवर मध्वाचार्यइनकी टीका में लिखते हैं,----"द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च।तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम्स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित्उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः।"अर्थात् प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं---एक वेब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है,जो अग्निहोत्र करती हैं, वेदाध्ययन करती हैं, अपनेपरिवार में ही भिक्षा-वृत्ति से रहती हैं और दूसरी वेजिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है। इनस्त्रियों का भी जिनका शीघ्र ही विवाहहोना होता है जिस किसी तरह उपनयन-संस्कार करविवाह कर देना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि मध्वाचार्यभी स्त्रियों के उपनयन-संस्कारों के पृष्ठ-पोषक थे।कादम्बरी महाकाव्य में महाकवि बाणभट्ट ने,जो 7वीं   के ऐतिहासिक राजा हर्षवर्द्धनकी सभा   रत्न थे, महाश्वेता का वर्णन करते हुएलिखा है, "ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्" --अर्थात्जिसका शरीर ब्रह्मसूत्र के धारण के कारण पवित्र था।ब्रह्मसूत्र यज्ञोपवीत का ही दूसरा नाम है।ब्रह्मसूत्र का अर्थ सूत्र-ग्रन्थों तथा संस्कृत के कोशों मेंयज्ञोपवीत किया गया है। इसे ब्रह्मसूत्र, यज्ञसूत्र,यज्ञोपवीत आदि अनेक नामों से स्मरणकिया जाता है
स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ सिर पर चोटी क्यो रखी जाती है इसका वैज्ञानिक महत्व:: एक सुप्रीप साइंस जो इंसान के लिये सुविधाएं जुटाने का ही नहीं, बल्कि उसे शक्तिमान बनाने का कार्य करता है। ऐसा परम विज्ञान जो व्यक्ति को प्रकृति के ऊपर नियंत्रण करना सिखाता है। ऐसा विज्ञान जो प्रकृति को अपने अधीन बनाकर मनचाहा प्रयोग ले सकता है। इस अद्भुत विज्ञान की प्रयोगशाला भी बड़ी विलक्षण होती है। एक से बढ़कर एक आधुनिकतम मशीनों से सम्पंन प्रयोगशालाएं दुनिया में बहुतेरी हैं, किन्तु ऐसी सायद ही कोई हो जिसमें कोई यंत्र ही नहीं यहां तक कि खुद प्रयोगशाला भी आंखों से नजर नहीं आती। इसके अदृश्य होने का कारण है- इसका निराकार स्वरूप। असल में यह प्रयोगशाला इंसान के मन-मस्तिष्क में अंदर होती है। सुप्रीम सांइस- विश्व की प्राचीनतम संस्कृति जो कि वैदिक संस्कृति के नाम से विश्य विख्यात है। अध्यात्म के परम विज्ञान पर टिकी यह विश्व की दुर्लभ संस्कृति है। इसी की एक महत्वपूर्ण मान्यता के तहत परम्परा है कि प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपने सिर पर चोंटी यानि कि बालों का समूह अनिवार्य रूप से रखना चाहिये। सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को हिन्दुत्व की पहचान तक माना लिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए। चमत्कारी रिसीवर- असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है। तथा शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है क्यों रखी जाती है सिर पर शिखा? सिर पर शिखा ब्राह्मणों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है। जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। शिखा एक धार्मिक प्रतीक तो है ही साथ ही मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है। आधुनिक युवा इसे रुढ़ीवाद मानते हैं लेकिन असल में यह पूर्णत: है। दरअसल, शिखा के कई रूप हैं। आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचोंबीच सहस्राह चक्र होता है। शरीर में पांच चक्र होते हैं, मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्से में होता है और आखिरी है सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। शिखा का हल्का दबाव होने से रक्त प्रवाह भी तेज रहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।—जनेऊ पहनने के लाभ

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।

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