Saturday, 2 September 2017
हिन्दी व्याकरण (कामताप्रसाद गुरु)
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हिन्दी व्याकरण (कामताप्रसाद गुरु)/व्युत्पत्ति
< हिन्दी व्याकरण (कामताप्रसाद गुरु)
दूसरा भाग
शब्दसाधन
तीसरा परिच्छेद
व्युत्पत्ति
पहला अध्याय (विषयारंभ) संपादित करें
विषयारंभ
429. शब्दसाधन के तीन भाग हैं : वर्गीकरण, रूपांतर और व्युत्पत्ति। इनमें से पहले दो विषयों का विवेचन दूसरे भाग के पहले और दूसरे परिच्छेद में हो चुका है। इस तीसरे परिच्छेद में व्युत्पत्ति अर्थात् शब्दरचना का विचार किया जायगा।
(सू॰ : व्युत्पत्ति प्रकरण में केवल यौगिक शब्दों की रचना का विचार किया जाता है, रूढ़ शब्दों का नहीं। रूढ़ शब्द किस भाषा के किस शब्द से बना है, यह बताना इस प्रकरण का विषय नहीं है। इस प्रकरण में केवल इस बात का स्पष्टीकरण होता है कि भाषा का प्रचलित शब्द भाषा के अन्य प्रचलित शब्द से किस प्रकार बना है। उदाहरणार्थ, 'हठीला' शब्द 'हठ' से बना हुआ एक विशेषण है, अर्थात् 'हठीला' शब्द यौगिक है, रूढ़ नहीं है और केवल यही व्युत्पत्ति इस प्रकरण में बताई जायगी। 'हठ' शब्द किस भाषा से किस प्रकार हिंदी में आया, इस बात का विचार इस प्रकरण में नहीं किया जायगा। 'हठ' शब्द दूसरी भाषा में, जिससे वह निकला है, चाहे यौगिक भी हो, पर हिंदी में यदि उसके खंड सार्थक नहीं हैं, तो वह रूढ़ ही माना जायगा। इस प्रकार 'रसोईघर' शब्द से केवल यह बताया जायगा कि यह शब्द 'रसोई' और 'घर' शब्द के समास से बना है परंतु 'रसोई' और 'घर' शब्दों की व्युत्पत्ति किन भाषाओं के किन शब्दों से हुई है यह बात व्याकरण विषय के बाहर की है।)
430. एक ही भाषा के किसी शब्द से जो दूसरे शब्द बनते हैं, वे बहुधा तीन प्रकार से बनाए जाते हैं। किसी-किसी शब्द के पूर्व एक-दो अक्षर लगाने से नए शब्द बनते हैं किसी-किसी शब्द के पश्चात् एक-दो अक्षर लगाकर नए शब्द बनाए जाते हैं और किसी-किसी शब्द के साथ दूसरा शब्द मिलाने से नए संयुक्त शब्द तैयार होते हैं । (अ) शब्द के पूर्व जो अक्षर वा अक्षरसमूह लगाया जाता है, उसे उपसर्ग कहते
(272 / हिंदी व्याकरण)
हैं जैसे : 'बन' शब्द के पूर्व 'अन' निषेधार्थी अक्षरसमूह लगाने से 'अनबन' शब्द बनता है। इस शब्द में 'अन' (अक्षरसमूह) को उपसर्ग कहते हैं।
(सू॰ : संस्कृत में शब्दों के पूर्व आनेवाले कुछ नियत अक्षरों को उपसर्ग कहते हैं और बाकी को अव्यय मानते हैं। यह अंतर उस भाषा की दृष्टि से महत्त्व का भी हो, पर हिंदी में एेसा अंतर मानने का कोई कारण नहीं है। इसलिए हिंदी में 'उपसर्ग' शब्द की योजना अधिक व्यापक अर्थ में होती है।
(आ) शब्दों के पश्चात् (आगे) जो अक्षर वा अक्षरसमूह लगाया जाता है उसे प्रत्यय कहते हैं जैसे : 'बड़ा' शब्द में 'आई' (अक्षरसमूह) से 'बड़ाई' शब्द बनता है, इसलिए 'आई' प्रत्यय है।
(सू॰ : रूपांतर प्रकरण में जो कारकप्रत्यय और कालप्रत्यय कहे गए हैं उनमें और व्युत्पत्ति प्रत्ययों में अंतर है। पहले दो प्रकार के प्रत्यय चरम प्रत्यय हैं अर्थात् उनके पश्चात् और कोई प्रत्यय नहीं लग सकते। हिंदी में अधिकरण कारक के प्रत्यय इस नियम के अपवाद हैं, तथापि विभक्तियों को साधारणतया चरम प्रत्यय मानते हैं। परंतु व्युत्पत्ति में जो प्रत्यय आते हैं, वे चरम प्रत्यय नहीं हैं क्योंकि उनके पश्चात् दूसरे प्रत्यय आ सकते हैं। उदाहरण के लिए 'चतुराई' शब्द में 'आई' प्रत्यय है और इस शब्द के पश्चात् 'से', 'को' आदि प्रत्यय लगाने से 'चतुराई को' आदि शब्द सिद्ध होते हैं, पर 'से', 'को' आदि के पश्चात् 'आई' अथवा और कोई व्युत्पत्ति प्रत्यय नहीं लग सकता।
यौगिक शब्दों में जो अव्यय हैं (जैसे : चुपके, लिए, धीरे आदि) उनके प्रत्ययों के आगे भी बहुधा दूसरे प्रत्यय नहीं आते, परंतु उनको चरम प्रत्यय नहीं कहते, क्योंकि उनके पश्चात् विभक्तियों का लोप हो जाता है। सारांश यह है कि कारक प्रत्यय और कालप्रत्ययों ही को चरम प्रत्यय कहते हैं।)
(इ) दो अथवा अधिक शब्दों के मिलने से जो संयुक्त शब्द बनता है, उसे समास कहते हैं : जैसे : 'रसोईघर, मँझधार, पसेरी' इत्यादि।
(सू॰ : एक अक्षर का शब्द भी होता है, और अनेक अक्षरों के उपसर्ग और प्रत्यय भी होते हैं, इसलिए बाह्य स्वरूप देखकर यह बताना कठिन है कि शब्द कौन सा है और उपसर्ग अथवा प्रत्यय कौन सा है। एेसी अवस्था में उनके अर्थ के अंतर पर विचार करना आवश्यक है। जिस अक्षरसमूह में स्वतंत्रतापूर्वक कोई अर्थ पाया जाता है उसे शब्द कहते हैं, और जिस अक्षर या अक्षरसमूह में स्वतंत्रतापूर्वक कोई अर्थ नहीं पाया जाता अर्थात् स्वतंत्रतापूर्वक जिसका प्रयोग नहीं होता और जो किसी शब्द के आश्रय से उसके आगे अथवा पीछे आकर अर्थवान् होता है, उसे उपसर्ग अथवा प्रत्यय कहते हैं।)
431. उपसर्ग, प्रत्यय और समास से बने हुए शब्दों के सिवा हिंदी में और दो प्रकार के यौगिक शब्द हैं, जो क्रमशः पुनरुक्त और अनुकरणवाचक कहलाते हैं।
(हिंदी व्याकरण / 273)
पुनरुक्त शब्द किसी शब्द को दुहराने से बनते हैं । जैसे : 'घर घर, मारामारी, कामधाम, उर्दूसुर्दू, काटकूट' इत्यादि। अनुकरणवाचक शब्द, जिनको कोई-कोई वैयाकरण पुनरुक्त शब्दों का ही भेद मानते हैं, किसी पदार्थ की यथार्थ अथवा कल्पित ध्वनि को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं जैसे : 'खटखटाना, धड़ाम, चट' इत्यादि।
432. प्रत्ययों से बने हुए शब्दों के दो मुख्य भेद हैं : कृदंत और तद्धित। धातुओं से परे जो प्रत्यय लगाए जाते हैं, उन्हें कृत कहते हैं, और कृत्प्रत्ययों के योग से जो शब्द बनते हैंं, वे कृदंत कहलाते हैं। धातुओं को छोड़कर शेष शब्दों के आगे प्रत्यय लगाने से जो शब्द तैयार होते हैं, उन्हें तद्धित कहते हैं।
(सू॰ : हिंदी में जो शब्द प्रचलित हैं , उनमें से कुछ एेसे हैं , जिनके विषय में यह निश्चय नहीं किया जा सकता है कि उनकी व्युत्पत्ति कैसे हुई। इस प्रकार के शब्द देशज कहलाते हैं। इन शब्दों की संख्या बहुत थोड़ी है और संभव है कि आधुनिक आर्यभाषाओं की बढ़ती के नियमों की अधिक खोज और पहचान होने से अंत में इनकी संख्या बहुत कम हो जायगी। देशज शब्दों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश शब्द दूसरी भाषाओं से आए हैं, जिनमें संस्कृत, उर्दू और आजकल अँगरेजी मुख्य हैं। इनके सिवा मराठी और बँगला भाषाओं से भी हिंदी का थोड़ा बहुत समागम हुआ है। व्युत्पत्तिप्रकरण में पूर्वोक्त भाषाओं के शब्दों का अलग-अलग विचार किया जायगा।
दूसरी भाषाओं से और विशेषकर संस्कृत से जो शब्द मूल शब्दों में कुछ विकार होने पर हिंदी में रूढ़ हुए हैं, वे तद्भव कहलाते हैं। दूसरे प्रकार के संस्कृत शब्दों को तत्सम कहते हैं। हिंदी में तत्सम शब्द भी आते हैं। इस प्रकरण में केवल तत्सम शब्दों का विचार किया जायगा, क्योंकि तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति का विचार करना व्याकरण का विषय नहीं, किंतु कोश का है।
हिंदी में जो यौगिक शब्द प्रचलित हैं, वे बहुधा उसी एक भाषा के प्रत्ययों और शब्दों के योग से बने हैं, जिस भाषा से आए हैं, परंतु कोई-कोई शब्द एेसे भी हैं, जो दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों और प्रत्ययों के योग से बने हैं। इस बात का स्पष्टीकरण यथास्थान किया जायगा।)
(274 / हिंदी व्याकरण)
दूसरा अध्याय (उपसर्ग) संपादित करें
उपसर्ग
433. पहले संस्कृत उपसर्ग मुख्य अर्थ और उदाहरण सहित दिए जाते हैंं। संस्कृत में इन उपसर्गों को धातुओं के साथ जोड़ने से उनके अर्थ में हेरफेर होता है[१] , परंतु उस अर्थ का स्पष्टीकरण हिंदी व्याकरण का विषय नहीं। हिंदी में उपसर्गयुक्त जो संस्कृत तत्सम शब्द आते हैं, उन्हीं शब्दों के संबंध में यहाँ उपसर्ग का विचार करना कर्तव्य है। ये उपसर्ग कभी-कभी निरे हिंदी शब्दों में लगे हुए पाए जाते हैं, जिनके उदाहरण यथास्थान दिए जायँगे।
संस्कृत उपसर्ग संपादित करें
अति : अधिक, उस पार, ऊपर जैसे : अतिकाल, अतिरिक्त, अतिशय, अत्यंत, अत्याचार।
(सू॰ : हिंदी में 'अति' इसी अर्थ में स्वतंत्र शब्द के समान भी प्रयुक्त होता है जैसे : अति बुरी होती है।' 'अति संघर्षण' (राम॰)।
अधि : ऊपर, स्थान में श्रेष्ठ जैसे : अधिकरण, अधिकार, अधिपाठक, अधिराज, अधिष्ठाता, अध्यात्म।
अनु : पीछे समान, जैसे अनुकरण, अनुग्रह, अनुचर, अनुज, अनुपात, अनुरूप, अनुशासन, अनुस्वार।
अप : बुरा, हीन, विरुद्ध, अभाव इत्यादि जैसे : अपकीर्ति, अपभ्रं श, अपमान, अपराह्न, अपशब्द, अपसव्य, अपहरण।
अभि : ओर, पास, सामने जैसे : अभिप्राय, अभिमुख, अभिमान, अभिलाष, अभिसार, अभ्यागत, अभ्यास, अभ्युदय।
अव : नीचे, हीन, अभाव जैसे : अवगत, अवगाह, अवगुण, अवतार, अवनत, अवलोकन, अवसान, अवस्था।
(सू॰ : प्राचीन कविता में 'अव' का रूप बहुधा 'औ' पाया जाता है जैसे : औगुन, औसर।)
अा : तक, ओर, समेत, उलटा जैसे : आकर्षण, आकार, आकाश, आक्रमण, आगमन, आचरण, आबालवृद्ध, आरंभ।
उत् , उद् : ऊपर, ऊँचा, श्रेष्ठ जैसे : उत्कर्ष, उत्कंठा, उत्तम, उद्यम, उद्देश्य, उन्नति, उत्पल, उल्लेख।
उप : निकट, सदृश, गौण जैसे : उपकार, उपदेश, उपनाम, उपनेत्र, उपभेद, उपयोग, उपवचन, उपवेद।
दुर् दुस् : बुरा, कठिन, दुष्ट जैसे : दुराचार, दुर्गु ण, दुर्गम, दुर्जन, दुर्दशा, दुर्दिन, दुर्बल, दुर्लभ, दुष्कर्म, दुष्प्राप्य, दुःसहि।
न : भीतर, नीचे, बाहर जैसे : निकृष्ट, निदर्शन, निदान, निपात, निबंध, नियुक्त निरूपण।
(हिंदी व्याकरण / 275)
निर् , निस् : बाहर, निषेध जैसे : निराकरण, निर्मम, निःशंक, निरपराध, निर्भय, निर्वाह, निश्चल, निदो र्ष, नीरोग (हिं : निरोगी)।
(सू॰ : हिंदी में यह उपसर्ग बहुधा 'नि' हो जाता है जैसे : निधन, निबल, निडर, निसंक।)
परा : पीछे, उलटा जैसे : पराक्रम, पराजय, पराभव, परामर्श, परावर्तन।
परि : आसपास, चारों ओर, पूर्ण जैसे : परिक्रमा, परिजन, परिणाम, परिधि, परिपूर्ण, परिमाण, परिवर्तन, परिणय, पर्याप्त।
प्र : अधिक, आगे, ऊपर जैसे : प्रकाश, प्रख्यात, प्रचार, प्रभु, प्रयोग, प्रसार, प्रस्थान, प्रलय।
प्रति : विरुद्ध, सामने, एक एक, जैसे : प्रतिकूल, प्रतिक्षण, प्रतिध्वनि, प्रतिकार, प्रतिनिधि, प्रतिवादी, प्रत्यक्ष, प्रत्युपकार, प्रत्येक।
वि : भिन्न, विशेष, अभाव जैसे : विकास, विज्ञान, विदेश, विधवा, विवाद, विशेष, विस्मरण (हिं॰ : बिसरना)।
सम् : अच्छा, साथ, पूर्ण जैसे : संकल्प, संगम, संग्रह, संतोष, संन्यास, संयोग, संस्करण, संरक्षण, संहार।
सु : अच्छा, सहज, अधिक जैसे : सुकर्म, सुकृत, सुगम, सुलभ, सुशिक्षित, सुदूर, स्वागत।
(हिंदी : सुडौल, सुजान, सुघर, सपूत।)
434. कभी कभी एक ही शब्द के साथ दो तीन उपसर्ग आते हैं जैसे : निराकरण प्रत्युपकार, समालोचना, समभिव्यवहार (भा॰ प्र॰)।
435. संस्कृत शब्दों में कोई-कोई विशेषण और अव्यय भी उपसर्गों के समान व्यवहृत होते हैं। इनका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है, क्योंकि ये बहुधा स्वतंत्र रूप से उपयोग में नहीं आते।
अ : अभाव, निषेध जैसे : 'अगम अज्ञान, अधर्म, अनीति, अलौकिक, अव्यय।' स्वरादि शब्दों के पहले 'अ' के स्थान में 'अन्' हो जाता है और 'अन्' के 'न्' में आगे का स्वर मिल जाता है। उदाहरण : अनंतर, अनिष्ट, अनाचार, अनादि, अनायास, अनेकि। हिन्दी : अछत, अजान, अटल, अथाह, अलग।
अधस् : नीचे, उदाहरण : अधोगति, अधोमुख, अधोभाग, अधःपतन, अधस्तल।
अंतर् : भीतर, उदाहरण : अंतःकरण, अंतःस्थ, अंतर्दशा, अंतर्धान, अंतर्भाव, अंतर्वेदी।
अमा : पास, उदाहरण : अमात्य, अमावस्या।
अलम् : सुंदर, उदाहरण : अलंकार, अलंकृत, अलंकृति, यह अव्यय बहुधा कृ (करता) धातु के पूर्व आता है।
(276 / हिंदी व्याकरण)
अाविर् : प्रकट, बाहर, उदाहरण : आविर्भाव, आविष्कार।
इति : एेसी, यह, उदाहरण : इतिवृत्त, इतिहास इतिकर्तव्यता।
(सू॰ : 'इति' शब्द हिंदी में बहुधा इसी अर्थ में स्वतंत्र शब्द के समान भी आता है (दे॰ अंक : 227)।)
कु : (का, कद) : बुरा, उदाहरण : कुकर्म, कुरूप, कुशकुन, कापुरुष, कदाचार। हि॰ : कुचाल, कुडौल, कुठौर, कुढंगा, कुपूत।
चिर : बहुत, उदाहरण : चिरकाल, चिरंजीवी, चिरायु।
तिरस् : तुच्छ, उदाहरण : तिरस्कार, तिरोहित।
न : अभाव, उदाहरण : नक्षत्र, नग, नपुं सक, नास्तिक।
नाना : बहुत, उदाहरण : नानारूप, नानाजाति।
(सू॰ : हिंदी में 'नाना' बहुधा स्वतंत्र शब्द के समान प्रयुक्त होता है जैसे : 'लागे विटप मनोहर नाना' (राम॰)।
पुरस् : सामने , आगे जैसे : पुरस्कार, पुरश्चरण, पुरोहित।
पुरा : पहले जैसे : पुरातत्त्व, पुरातन, पुरावृत्त।
पुनर् : फिर जैसे : पुनर्जन्म, पुनर्विवाह, पुनरुक्त।
प्राक् : पहले का जैसे : प्राक्कथन, प्राक्कर्म, प्राक्तन।
प्रातर् : सबेरे जैसे : प्रातःकाल, प्रातःस्नान, प्रातःस्मरण।
प्रा दुर : प्रकट जैसे : प्रा दुर्भाव।
बहिर् : बाहर जैसे : बहिर्द्वार, बहिष्कार।
स : सहित जैसे : सगोत्र, सजातीय, सजीव, सरस, सावधान, सफल। (हिं : सुफल)।
हिं : सचेत सबेरा, सजग, सहेली, साढ़े (सं॰ : सार्द्ध)।
सत् : अच्छा जैसे : सज्जन, सत्कर्म, सत्पात्र, सद्गुरु, सदाचार।
सह : साथ, जैसे : सहकारी, सहगमन, सहज, सहचर, सहानुभूति, सहोदर।
स्व : अपना, निजी, उदाहरण : स्वतंत्र, स्वदेश, स्वधर्म, स्वभाव, स्वभाषा, स्वराज्य, स्वरूप।
स्वयं : खुद, अपने आप जैसे : स्वयंभू, स्वयंवर, स्वयंसिद्ध, स्वयंसेवक।
स्वर : आकाश, स्वर्ग , जैसे : स्वलो र्क, स्वर्गंगा।
(सू॰ : कृ और भू (संस्कृत) धातुओं के पूर्व कई शब्द, विशेषकर संज्ञाएँ और विशेषण, ईकारांत अव्यय होकर आते हैं जैसे : स्वीकार, वर्गीकरण, द्रवीभूत, फलीभूत, भस्मीभूत, वशीभूत, समीकरण।
(हिंदी व्याकरण / 277)
हिंदी उपसर्ग संपादित करें
ये उपसर्ग बहुधा संस्कृत उपसर्गों के अपभ्रंश हैं और विशेषकर तद्भव शब्दों के पूर्व आते हैं।
अ : अभाव, निषेध, उदाहरण : अचेत, अजान, अथाह, अबेर, अलग। अपवाद : संस्कृत में स्वरादि शब्दों के पहले अ के स्थान में 'अन्' हो जाता है, परंतु हिंदी में 'अन' व्यंजनादि शब्दों के पूर्व आता है जैसे : अनगिनती अवधेरा (कृ॰), अनबल, अनभल, अनहित (राम॰), अनमोल।
(सू॰ : (1) अनूठा, अनोखा और अनैसा शब्द संस्कृत के अपभ्र्रं श जान पड़ते हैं, जिनमें अन् उपसर्ग आया है।
(2) कभी-कभी यह प्रत्यय भूल से लगा दिया जाता है जैसे : अलोप, अचपल। अध : (सं॰ : अर्द्ध) आधा, उदाहरण : अधकच्चा, अधखिला, अधपका, अधमरा, अधपई, अधसेरा।
(सू॰ : 'अधूरा' शब्द 'अधपूरा' का अपभ्रं श जान पड़ता है।)
उन (सं॰ ऊन) : एक कम, जैसे : उन्नीस, उन्तीस, उनचास, उनसठ, उनहत्तर, उन्नासी।
औ (सं॰ : अव) हीन, निषेध उदाहरण : औगुन, औघट, औढर, औसर।
दु (सं॰ : दुर्) बुरा, हीन उदाहरण : दुकाल (राम॰) दुबला।
नि (सं ॰ : निर् =रहित) उदाहरण : निकम्मा, निखरा, निडर, निधड़क, निरोगी, निहत्था। यह उर्दू के 'खालिस' (शुद्ध), शब्द में व्यर्थ ही जोड़ दिया जाता है जैसे : निखालिस।
बिन (सं॰ : बिना) : निषेध, अभाव उदाहरण : बिनजाने , बिनबोया, बिनब्याहा।
भर=पूरा, ठीक उदाहरण : भरपेट, भर दौड़ (शकु॰), भरपूर, भरसक, भरकोस।
उर्दू उपसर्ग संपादित करें
अल (अ॰) : निश्चित उदाहरण : अलगरज, अलबत्ता।
एेन (अ॰) ठीक, पूरा उदाहरण : एेनजवानी, एेनवक्त। (सू॰ : यह उपसर्ग हिंदी 'भर' का पर्यायवाची है।)
कम : थोड़ा, हीन, उदाहरण : कमउम्र, कमकीमत, कमजोर, कमबख्त, कम हिम्मत। (सू॰ : कभी-कभी यह उपसर्ग एक-दो हिंदी शब्दों में लगा हुआ मिलता है जैसे : कमसमझ, कमदाम।)
खुश : अच्छा उदाहरण : खुशबू , खुशदिल, खुशकिस्मत।
गैर (अ॰ : गैर) : भिन्न, विरुद्ध उदाहरण : गैरहाजिर, गैरमुल्क, गैरवाजिब, गैरसरकारी। (सू॰ : 'वगैरह' शब्द में 'व' (और) समुच्चयबोधक है और 'गैरह' 'गैर' का बहुवचन है। इस शब्द का अर्थ है 'और दूसरे।')
दर : में उदाहरण : दरअसल, दरकार, दरखास्त, दरहकीकत।
ना : अभाव (सं॰ : न) उदाहरण : नाउम्मेद, नादान, नापसंद, नाराज, नालायक।
(278 / हिंदी व्याकरण)
फी (अ॰ ) : में , पर जैसे : फिलहाल, (फी +अल+हाल=हाल में), फी आदमी।
ब : ओर, में अनुसार उदाहरण : बनाम, बइजलास, बदस्तूर, बदौलत।
बद : बुरा उदाहरण : बदकार, बदकिस्मत, बदनाम, बदफैल, बदबू, बदमाश, बदराह (सत॰), बदहजमी।
बर : ऊपर, उदाहरण : बरखास्त, बरदास्त, बरतरफ, बरवक्त, बराबर।
बा : साथ, उदाहरण : बाजाब्ता, बाकायदा, बातमीज।
बिल (अ॰) : साथ उदाहरण : बिलकुल, बिलमुकता।
बिला (अ॰) : उदाहरण : बिलाकसूर, बिलाशक।
बे : बिना उदाहरण : बेईमान, बेचारा (हिं॰ : बिचारा), बेतरह, बेवकूफ, बेरहम। (सू॰ : यह उपसर्ग बहुधा हिंदी में भी लगाया जाता है जैसे : बेकाम, बेचैन, बेजोड़, बेडौल। 'वाहियात' और 'फजूल' शब्दों के साथ यह उपसर्ग भूल से जोड़ दिया जाता है जैसे : बेवाहियात, बेफजूल।
ला (अ॰) : बिना, अभाव उदाहरण : लाचार, लावारिस, लाजवाब, लामजहब।
सर : मुख्य उदाहरण : सरकार, सरताज (हिं : सिरताज), सरदार, सरनाम, (हिं॰ सिरनाम), सरखत, सरहद। (हि॰ : सरपंच)।
हम (सं॰ : सम) साथ, समान उदाहरण : हमउम्र, हमदर्दी, हमराह, हमवतन।
हर : प्रत्येक उदाहरण : हररोज, हरचीज, हरसाल, हरतरह। (सू॰ : इस उपसर्ग का प्रयोग हिंदी शब्दों के साथ अधिकता से होता है जैसे : हरकाम, हरघड़ी, हरदिन, हरएक, हरकोईे।')
अँगरेजी उपसर्ग संपादित करें
सब : अधीन, भीतरी उदाहरण : सब इंस्पेक्टर, सब रजिस्ट्रार, सब जज, सब ऑफिस, सब कमेटी।
हिंदी में अँगरेजी शब्दों की भरती अभी हो रही है इसलिए आज ही यह बात निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती कि उस भाषा से आए हुए शब्दों में से कौन से शब्द रूढ़ और कौन से यौगिक हैं। अभी इस विषय के पूर्ण विचार की आवश्यकता भी नहीं है, इसलिए हिंदी व्याकरण का यह भाग इस समय अधूरा ही रहेगा। ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, वह अँगरेजी उपसर्गों का केवल एक नमूना है।
(सू॰ : इस अध्याय में जो उपसर्ग दिए गए हैं उनमें कुछ एेसे हैं , जो कभी-कभी स्वतंत्र शब्दों के समान भी प्रयोग में आते हैंंं। इन्हें उपसर्गों में सम्मिलित करने का कारण केवल यह है कि जब इसका प्रयोग उपसर्गों के समान होता है, तब इनके अर्थ अथवा रूप में कुछ अंतर पड़ जाता है। इस प्रकार के शब्द इति, स्वयं, बिन, भर, काम आदि हैंं।)
(हिंदी व्याकरण / 279)
(टी॰ : राजा शिवप्रसाद ने अपने हिंदी व्याकरण में प्रत्यय, अव्यय, विभक्ति, और उपसर्ग चारों को उपसर्ग माना है, परंतु उन्होंने इसका कोई कारण नहीं लिखा और न उपसर्ग का कोई लक्षण ही दिया, जिससे उनके मत की पुष्टि होती। एेसी अवस्था में हम उनके किए वर्गीकरण के विषय में कुछ नहीं कह सकते। भाषाप्रभाकर में राजा साहब के मत पर आक्षेप किया गया है, परंतु लेखक ने अपनी पुस्तक में संस्कृत उपसर्गों को छोड़ और किसी भाषा के उपसर्गों का नाम तक नहीं लिया। उर्दू उपसर्ग तो भाषाप्रभाकर में आ नहीं सकते, क्योंकि लेखक महाशय स्वयं लिखते हैं कि 'हिंदी में वस्तुतः फारसी, अरबी आदि शब्दों का प्रयोग कहाँ।' पर संबंधसूचकों की तालिका में 'बदले' शब्द न जाने उन्होंने कैसे लिख दिया? जो हो, इस विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है, क्योंकि उपसर्गयुक्त उर्दू शब्द हिंदी में आते हैं। हिंदी उपसर्गों के विषय में भाषाप्रभाकर में केवल इतना ही है कि 'स्वतंत्र हिंदी शब्दों में उपसर्ग नहीं लगते हैं।' इस युक्ति का खंडन इस अध्याय में दिए हुए उदाहरणों से हो जाता है। भट्ट जी ने अपने व्याकरण में उपसर्गों की तालिका दी है, परंतु उसके अर्थ नहीं समझाए, यद्यपि प्रत्ययों का अर्थ उन्होंने विस्तारपूर्वक लिखा है। इन दोनों पुस्तकों में दिए हुए उपसर्गों के लक्षण न्यायसंगत नहीं जान पड़ते।)
तीसरा अध्याय (संस्कृत प्रत्यय) संपादित करें
संस्कृत प्रत्यय
संस्कृत कृदंत संपादित करें
अ (कर्तृवाचक)
चुर् (चुराना) : चोर
चर् (चलना) : चर (दूत)
दीप (चमकना) : दीप
दिव् (चमकना) : देव
नद् (शब्द करना) : नद
धृ (धरना) : धर (पर्वत)
सृप् (सरकना) : सर्प
बुध् (जानना) : बुध
हृ (हरना ) : हर
स्मृ (चाहना) स्मर
ग्रह (पकड़ना) : ग्राह
व्यध् (मारना) : व्याध
रम् (क्रीड़ा करना) : राम
लभ् (पाना) : लाभ
(भाववाचक)
कम् (इच्छा करना) : काम
क्रुध (क्रोध करना) : क्रोध
खिद् (उदास होना) : खेद
चि (इकट्ठा करना) : (सं॰) चय
(280 / हिंदी व्याकरण)
जि (जीतना ) : जय
मुह (अचेत होना ) : मोह
नी (ले जाना ) : नय
रु (शब्द करना) : रव
अक (कर्तृवाचक)
कृ : कारक
नृत : नतर्क
गै : गायक
पू (पवित्र करना) : पावक
दा : दायक
युज् (जोड़ना) : योजक
लिख् : लेखक
तृ (तरना) : तारक
मृ (मरना) : मारक
पठ् : पाठक
नी : नायक
पच् : पाचक
अत् : इस प्रत्यय के लगाने से (संस्कृत में ) वर्तमानकालिक कृदंत बनता है, परंतु उसका प्रचार हिंदी में नहीं है। तथापि जगत्, जगती, दमयंती आदि कई संज्ञाएँ मूल कृदंत हैं ।
अन (कर्तृवाचक)
नंद (प्रसन्न होना) : नंदन
मद् (पालन होना) : मदन
रम् : रमण
श्रु : श्रवण
रु : रावण
मुह : मोहन
सूद् : (मारना ) : (मधु ) सूदन
साध : साधन
पु : पावन
पाल : पालन
(भाववाचक)
सह : सहन
शी (सेना) : शयन
भू : भवन
स्था : स्थान
मृ : मरण
रक्षा : रक्षण
भुज् : भोजन
हु (होम करना) : हवन
(करणवाचक)
नी : नयन
चर : चरण ,
भूष : भूषण
या : यान
वह : वाहन,
वद् : वदन
अना (भाववाचक)
विद् : (चेतना ) : वेदना
रच् : रचना
घट् : (होना ) : घटना
तुल : तुलना
सूच् : सूचना
प्र+अर्थ : प्रार्थना
वंद : वंदना
अ+राध् : आराधना
अव+हेल : अवहेलना (तिरस्कार करना)
गवेष् (खोजना) : गवेषणा
भू : भावना
(हिंदी व्याकरण / 281)
अनीय (योग्यार्थ)
दृश : दर्शनीय
स्मृ : स्मरणीय
रम् : रमणीय
वि+चर् : विचारणीय
आ+दृ : आदरणीय
मन् : माननीय
कृ : करणीय
शुच् : शोचनीय (सू॰ : हिंदी का 'सराहनीय' शब्द इसी आदर्श पर बना है।)
आ (भाववाचक)
इष् (इच्छा) इच्छा,
कथ् : कथा ,
गुह (छिपना ) : गुहा
पूज् : पूजा
क्राड् : क्रीड़ा ,
चिंत : चिंता
व्यथ् : व्यथा
शिक्ष् : शिक्षा ,
तृष् : तृषा
अस् (विविध अर्थ में )
सृ (चलना) : सरस्
वच् (बोलना) : वचम्
तम् (खेद करना) : तमस्
तिज् (टेना) : तेजस्
पय् (जाना) : वयस्
शृ (सताना) : शिरस्
वस् (जाना ) : वयस्
ऋ (जाना ) : उरस्
छंद (प्रसन्न करना) : छंदस्
(मू॰ : इन शब्दों का अंत का स् अथवा इसी का विसर्ग हिंदी में आनेवाले संस्कृत सामासिक शब्दों में दिखाई देता है जैसे : सरसिज, तेज पुंज, पयोद, छंदशास्त्र इत्यादि। इस कारण से हिंदी व्याकरण में इन शब्दों का मूल रूप बताना आवश्यक है। जब ये शब्द स्वतंत्र रूप से हिंदी में आते हैं, तब इनका अंत्य स् छोड़ दिया जाता है और ये सर, तम, तेज, पय आदि अकारांत शब्दों का रूप ग्रहण करते हैं।)
आलु (गुणवाचक)
दय् : दयालु ,
शी (सोना ) : शयालु
इ
(कर्तृवाचक) :
हृ : हिर , कु : किव ।
इन् : इस प्रत्यय के लगाने से जो (कर्तृ वाचक) संज्ञाएँ बनती हैं , उनकी प्रथमा का एकवचन ईकारांत होता है। हिंदी में यही ईकारांत रूप प्रचलित है, इसलिए यहाँ ईकारांत ही के उदाहरण दिये जाते हैं।
त्यज् (छोड़ना ) : त्यागी। दुष् (भूलना) : दोषी। युज् : योगी। वद् (बोलना) : वादी। द्विष् (वैर करना) : द्वेषी। उप +कृ : उपकारी । सम्+यम् : संयमी। सह + चर : सहचारी ।
इस्
द्युत् (चमकना ) : ज्योतिस् , हु : हविस्।
(सू॰ : अस् प्रत्यय के नीचेवाले सूचना देखो।)
इष्णु
(योग्यार्थक कर्तृवाचक) :
सह : सहिष्णु।
वृध् (बढ़ना) : वर्धिष्णु।
(282 / हिंदी व्याकरण)
'स्थाणु' और 'विष्णु' में केवल 'नु' प्रत्यय है और जिष्णु में ष्णु प्रत्यय है। न और ष्णु प्रत्यय इष्ण के शेष भाग हैं।
उ (कर्तृवाचक)
भिक्ष : भिक्षु। इच्छ : इच्छु (हितेच्छु ), साध : साधु।
उक (कर्तृ वाचक)
भिक्ष : भिक्षुक, हन् (मार डालना) : घातुक।
भू : भावुक, कम् : कामुक।
उर (कर्तृवाचक)
भास् (चमकना) : भासुर। भज् (टूटना) : भंगुर।
चक्ष् (कहना, देखना) चक्षुस्। ई (जाना) : आयुस्।
यज् (पूजा करना) : यजुस्। (यजुर्वेद)। वप् (उत्पन्न करना) : वपस।
धन् (शब्द करना) : धनुस्।
(सू॰ : अस् प्रत्यय के नीचे की सूचना देखो।)
त
इस प्रत्यय के योग से भूतकालिक कृदंत बनते हैं । हिंदी में इनका प्रचार अधिकता से है।
गम् : गत
भू : भृत
कृ : कृत
मृ : मृत
मद : मत्त
जन् : जात
हन् : हत
च्यु : च्युत
ख्या : ख्यात
त्यज् : त्यक्त
श्रु : श्रुत
वच् : उक्त
गुह : गूढ
सिध् : सिद्ध
तृप् : तृप्त
दुष् : दुष्ट
नश् : नष्ट
दृश् : दृष्ट
विद : विदित
कथ् : कथित
ग्रह : गृहीत
(अ) त के बदले कहीं-कहीं 'न' वा 'ण' होता है।
ली (लगना) : लीन, कृ (फैलाना) : कोर्ण (संकीर्ण), जृ (वृद्ध) होना : जीर्ण , ऊद+विज् : उद्विग्न।
खिद् : खिन्न, ही : (छोड़ना) हीन, अद् (खाना ) : अन्न, क्षि : क्षीण।
(आ) किसी धातु में त और न दोनों प्रत्ययों के लगने से दो-दो रूप होते हैं ।
पुर् : पूरित, पूर्ण
त्र : त्रत, त्रण।
(ई) त के स्थान में कभी-कभी क, म, व आते हैं।
शुष् (सूखना) शुष्क, पच : पक्व।
ता (तृ )
(कर्तृवाचक) :
मूल प्रत्यय तृ है, परंतु इस प्रत्ययवाले शब्दों की प्रथमा के पुंल्लिंग एकवचन का रूप ताकारांत होता है, और वही रूप हिंदी में प्रचलित है। इसलिए यहाँ ताकारांत उदाहरण दिए जाते हैं।
दा : दाता ; नी : नेता ; श्रु : श्रोता
वच् : वक्ता ; ज : जेता ; भृ : भर्ता
कृ : कर्ता ; भुज् : भोक्ता ; हृ : हर्ता
(सू॰ : इन शब्दों का स्त्रीलिंग बनाने के लिए (हिंदी में ) तृ प्रत्ययांत में ई लगाते हैं (दे॰ अंक : 276 इ ई)। जैसे : ग्रंथकर्वी, धात्र, कवयित्र।)
नव्य
(योग्यार्थक) :
कृ : कर्तव्य ; भू : भवितव्य ; ज्ञा : ज्ञातव्य
दृश : द्रष्टव्य ; श्र : श्रातव्य ; दा : दातव्य
पठ् : पठितव्य ; वच् : वक्तव्य
ति (भाववाचक)
कृ : कृत ; प्री : प्रीति ; शक् : शक्ति
स्मृ : स्मृति ; री : रीति ; स्था : स्थिति
(अ) कई एक नकारांत और मकारांत धातुओं के अंत्याक्षर का लोप होता
है जैसे : मन् : मति, क्षण : क्षति, गम् : गति, रम् : रति, यम् : यति।
(आ) कहीं-कहीं संधि के नियमों से कुछ रूपांतर हो जाता है जैसे
बुध : बुद्धि,
युज : युक्ति, सृज : सृष्टि, दृश : दृष्टि, स्था : स्थिति।
(इ) कहीं-कहीं ति के बदले ' नि ' आती है।
हा : हानि, ग्लै : ग्लानि।
त्र (करणवाचक)
नी : नेत्र , श्र : श्रात्र , पा : पात्र , शास् : शास्त्र।
अस् : अस्त्र , शस् : शस्त्र , क्षि : क्षेत्र।
(ई) किसी-किसी धातु में त्र के बदले इत्र पाया जाता है।
खन् : खनित्र , प : पवित्र , चर : चरित्र।
त्रम (निवृत्त के अर्थ में )
कृ : कृत्रिम।
न (भाववाचक)
यत् (उपाय करना) यत्न, स्वप् : स्वप्न, प्रच्छ : प्रश्न यज् : यज्ञ याच् : यांचा , तृष् : तृष्णा
मन् (विविध अर्थ में )
दा : दाम ; कृ : कर्म ; सि (बाँधना) : सीमा
धा : धाम ; छद् (छिपाना) - छद्म ; चर : चर्म
बृह : ब्रह्म ; जन् : जन्म ; ह्रि : हेम
(सू॰ : ऊपर लिखे आकारांत शब्द 'मन्' प्रत्यय के न् का लोप करने से बने हैं। हिंदी में मूल व्यंजनांत रूप का प्रचार न होने के कारण प्रथमा के एकवचन के रूप दिए गए हैं।)
मान :
(284 / हिंदी व्याकरण)
यह प्रत्यय यत् के समान वर्तमानकालिक कृदंत का है। इस प्रत्यय के योग से बने हुए शब्द हिंदी में बहुधा संज्ञा अथवा विशेषण होते हैंं।
यज् : यजमान ; वृत : वर्तमान ; वि+रज् : विराजमान
विद् : विद्यमान ; दीप् : देदीप्यमान ; ज्वल् : जाज्वल्यमान
(सू॰ : इन शब्दों के अनुकरण पर हिंदी के 'चलायमान' और 'शोभायमान' शब्द बने हैं।)
य (योग्यार्थक)
कृ : कार्य
त्यज् : त्याज्य
वध : वध्य
पठ : पाठ्य
वच् : वाच्य, वाक्य
दा : देय
क्षम् : क्षम्य
गम् : गम्य
गद् : (बोलना ) : गद्य
वि+धा : विधेय
शीस् : शिष्य
पद् : पद्य
खाद् : खाद्य
दृश् : दृश्य
दह् : दह्य
या (भाववाचक)
विद् : विद्या
चर् : चर्या
कृ : क्रिया
शी : शैय्या
मृग् : मृगया
सम्+अस् : समस्या
र् (गुणवाचक)
नम् : नम्र , हिंस् (मार डालना) : हिंस्र।
रु (कर्तृवाचक)
दा : दारु, म : मेरु
वर (गुणवाचक)
भास् : भास्वर, स्था : स्थावर, ईश : ईश्वर, नश् : नश्वर।
स+आ (इच्छाबोधक)
पा (पानी) : पिपासा ; कृ (करना) : चिकीर्षा
ज्ञा (जानना) : जिज्ञासा ; कित् (चंगा करना) : चिकित्सा
लल् (इच्छा करना) : लालसा ; मन् (विचारना) : मीमांसा
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अ (अपत्यवाचक)
रघु : राघव
कश्यप : काश्यप
कुरु : कौरव
पांडु : पांडव
पृथा : पार्थ
सुमित्र : सौमित्र
पर्वत : पार्वती (स्त्र॰)
दुहित : दौहित्र
वसुदेव : वासुदेव
(गुणवाचक)
शिव : शैव, विष्णु : वैष्णव चंद्र : चांद्र (मास, वर्ष)
मनु : मानव, पृथिवी : पार्थिव (लिंग) ; व्याकरण : वैयाकरण (जानेवाला)
निशा : नैश ; सूर : सार
(हिंदी व्याकरण / 285)
(भाववाचक)
इस अर्थ में यह प्रत्यय बहुधा अकारंत, इकारांत और उकारांत शब्दों में लगता है।
कुशल : कौशल ; पुरुष : पौरुष ; मुनि : मौन
शुचि : शाैच ; लघु : लाघव ; गुरु : गौरव
अक (उसको जानेवाला)
मीमांसा : मीमांसक, शिक्षा : शिक्षक।
आमह (उसका पिता)
पितृ : पितामह, मातृ : मातामह।
इ (उसका पुत्र)
दशरथ : दाशरथी (राम), मरुत : मारुति (हनुमान्)।
इक (उसको जाननेवाला)
तर्क : तार्किक, अलंकार : आलंकारिक, न्याय : नैयायिक , वेद : वैदिक।
(गुणवाचक)
वर्ष : वार्षिक ; मास : मासिक
दिन : दैनिक ; लोक : लौकिक
इतिहास : एेतिहासिक ; धर्म : धार्मिक
सेना : सैनिक ; ना : नाविक
मनस : मानसिक ; पुराण : पौराणिक
समाज : सामाजिक ; शरीर : शारीरिक
समय : सामयिक ; तत्काल : तात्कालिक
धन : धनिक ; अध्यात्म : आध्यात्मिक
इत (गुणवाचक)
पुष्प : पुष्पि , फल : फलित, दुःख : दुःखित
कंटक : कंटकित, कुसुम : कुसुमित, पल्लव : पल्लवित
हर्ष : हर्षित, आनंद : आनंदित, प्रतिबिंब : प्रतिबिंबित
इन् (कर्तृवाचक)
इस प्रत्ययवाले शब्दों का प्रथमा के एकवचन में न का लोप होने पर ईकारांत रूप हो जाता है, यही रूप हिंदी में प्रचलित है, इसलिए यहाँ इसी के उदाहरण दिए जाते हैं। यह प्रत्यय बहुधा अकारांत शब्दों में लगाया जाता है।
शास्त्र : शास्त्र ;हल : हली ; तरंग : तरंगिणी (स्त्र॰)
धन : धनी अर्थ : अर्थी ; पक्ष : पक्षी
क्रोध : क्रोधी ; योग : योगी ; सुख : सुखी
(286 / हिंदी व्याकरण)
हस्त : हस्ती, पुष्कर : पुष्करिणी (स्त्र ॰) दंत : दंती।
इन
यह प्रत्यय फल, मल और बर्ह में लगाया जाता है।
फल : फलिन, मल : मलिन, बर्ह : बर्हिण (मोर)। बर्हिण शब्द का रूप बर्ही भी होता है।
(अ) अधि
अधीन ; प्राच (पहले) : प्राचीन
अर्वाच (पीछे) : अर्वाचीन, सम्यच् (भलीभाँति) : समीचीन
इम (गुणवाचक)
अग्र : अग्रिम, अंत : अंतिम, पश्चात् : पश्चिम।
इमा
( भाववाचक) :
महत् : महिमा ; गुरु : गरिमा ; लघु : लघिमा
रक्त : रक्तिमा ; अरुण : अरुणिमा ; नील : नीलिमा
इय
( भाववाचक) :
यज्ञ : यज्ञिय , राष्ट्र : राष्ट्रय , क्षत्र : क्षत्रिय।
इल (गुणवाचक)
तुंद : तुंदिल (हिं ॰ तोंदल), पंक : पंकिल, जटा : जटिल, फेन : फेनिल।
इष्ठ (श्रेष्ठता के अर्थ में )
बली : बलिष्ठ, स्वादु : स्वादिष्ठ, गुरु : गरिष्ठ, श्रेयस् : श्रेष्ठ।
ईन (गुणवाचक)
कुल : कुलीन, नव : नवीन
ग्राम : ग्रामीण ; पार : पारीण
ईय
(संबंधवाचक) :
त्वत् : त्वदीय
तद् : तदीय
मत् : मदीय
भवत् : भवदीय
नारद : नारदीय
पाणिनि : पाणिनीय
(अ) स्व, पर और राजन् में इस प्रत्यय के पूर्व क् का आगम होता है।
जैसे : स्वकीय, परकीय, राजकीय।
उल (संबंधवाचक)
मातृ : मातुल (मामा)।
एय (अपत्यवाचक)
विनता : वैनतेय
कुंती : कौंतेय
गंगा : गांगेय
भगिनी : भागिनेय
मृकंडु : मार्कण्डेय
राधा : राधेय
(विविध अर्थ में ) : अग्नि : आग्नेय
पुरुष : पौरुषेय।
पथिन् : पाथेय
अतिथि : आतिथेय
(हिंदी व्याकरण / 287)
क (ऊनवाचक)
पुत्र : पुत्रक, बाल : बालक, वृक्ष : वृक्षक, नौ : नौका (स्त्र ॰ )
(समुदायवाचक)
पंच : पंचक ; सप्त : सप्तक ; अष्ट : अष्टक ; दश : दशक
कट (विधि अर्थ में )
यह प्रत्यय कुछ उपसर्गों में लगाने से ये शब्द बनते हैं : संकट, प्रकट, विकट, निकट, उत्कट।
कल्प (ऊनवाचक)
कुमारकल्प, कविकल्प, मृतकल्प, विद्वत्कल्प।
चित् (अनिश्चयवाचक)
क्वचित्, कदाचित्, किंचित्
ठ (कर्तृवाचक)
कर्मन् : कर्मठ , जरा : जरठ।
तन (काल संबंध-वाचक)
सदा (सना) : सनातन ; पुरा : पुरातन
नव : नूतन ; प्राच् : प्राक्तन
अद्य : अद्यतन ; चिरं : चिरंतन
तस् (रीतिवाचक)
प्रथम : प्रथमतः, स्वतः, उभयतः, तत्वतः, अंशतः।
त्य (संबंधवाचक)
दक्षिण : दाक्षिणात्य ; पश्चात् : पाश्चात्य
अमा : अमात्य ; नि : नित्य
अत्र : अत्रत्य ; तत्र : तत्रत्य
(सू॰ : पश्चिमात्य और पौर्वात्य शब्द इन शब्दों के अनुकरण पर हिंदी में प्रचलित हुए हैं, पर अशुद्ध हैं।)
त्र (स्थानवाचक)
यद : यत्र, तद : तत्र, सर्वत्र, अन्यत्र, एकत्र।
ता (भाववाचक)
गुरु : गुरुता ; लघु : लघुता ; कवि : कविता
मधुर : मधुरता ; सम : समता ; आवश्यक : आवश्यकता
नवीन : नवीनता ; विशेष : विशेषता
(288 / हिंदी व्याकरण)
(समूहवाचक)
जन : जनता , ग्राम : ग्रामता , बंधु : बंधुता , सहाय : सहायता।
'सहायता' शब्द हिंदी में केवल भाववाचक है।
स्व (भाववाचक)
गुरुत्व ब्राह्मणत्व
पुरुषत्व सतीत्व
राजत्व बंधुत्व
था (रीतिवाचक)
तद् : तथा ; यद् : यथा
सर्व : सर्वथा अन्य : अन्यथा
दा (कालवाचक)
सर्व : सर्वदा , यद् , यदा , किम् : कदा , सर्व : सदा
धा (प्रकारवाचक)
द्वि : द्विधा , शत : शतधा, बहुधा।
धेय (गुणवाचक)
नाम : नामधेय, भागधेय।
म (गुणवाचक)
मध्य : मध्यम, आदि : आदिम, अधस : अधम, द्रु (शाखा) : द्रुम।
मत् (गुणवाचक)
श्रीमान मतिमान् बुद्धिमान्
आयुष्मान् धीमान् गोमती (स्त्र॰)
'बुद्धिवान्' शब्द अशुद्ध है।
(सू॰ : मत् (मान्) के सदृश वत् (वान्) प्रत्यय है, जो आगे लिखा जायगा) मय (विकार और व्याप्ति) के अर्थ में :
काष्ठमय, विष्णुमय, जलमय, मांसमय, तेजोमय।
मात्र
नाममात्र, पलमात्र, लेशमात्र क्षणमात्र।
मिन्
(कर्तृ वाचक) :
स्व : स्वामी , वाक् : वाग्मी (वक्ता)।
य
( भाववाचक) :
मधुर : माधुर्य , चतुर : चातुर्य , पंडित : पांडित्य। वणिज : वाणिज्य, स्वस्थ : स्वास्थ्य, अधिपति : आधिपत्य। धीर : धैर्य , वीर : वीर्य। ब्राह्मण : ब्राह्मण्य।
(अपत्यवाचक, संबंधवाचक)
शंडल : शांडिल्य, पुलस्ति : पालस्त्य, दिति : दैत्य
(हिंदी व्याकरण / 289)
जमदग्नि : जामदग्न्य, चतुर्मास : चातुर्मास्य (हिं॰ चौमासा)।
धन : धान्य ; मूल : मूल्य ; तालु : तालव्य
मुख : मुख्य ; ग्राम : ग्राम्य ; अंत : अंत्य
र
( गुणवाचक) :
मधु : मधुर ; मुख : मुखर ; कुंज : कुंजर
नग : नगरपांडु : पांडुर
ल (गुणवाचक)
वत्स : वत्सलशी त : शीतल श्याम : श्यामल
मंजु : मंजुल मांस : मांसल
लु (गुणवाचक)
श्रद्धालु, दयालु, कृपालु, निद्रालु।
व (गुणवाचक)
केश : केशव (सुंदर केशवाला, विष्णु), विषु (समान) : विषुव (दिन-रात समान होने का काल वा वृत्त), राजी (रेखा) : राजीव (रेखा में बढ़नेवाला, कमल) अर्णस् (पानी) : अर्णव (समुद्र)।
वत् (गुणवाचक)
यह प्रत्यय अकारांत वा आकारांत संज्ञाओं के पश्चात् आता है।
धनवान् विद्यावान, ज्ञानवान्, रूपवान् भाग्यवती (स्त्र॰)।
(अ) किसी-किसी सर्वनाम में इस प्रत्यय को लगाने से अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण बनते हैं।
यत् : यावत् ; तद् : तावत्
(आ) यह प्रत्यय 'तुल्य' के अर्थ में भी आता है और इससे क्रियाविशेषण
बनते हैं। मातृवत, पितृवत, पुत्रवत, आत्मवत
वल (गुणवाचक)
कृषीवल, रजस्वला (स्त्र॰), शिखावल (मयूर), दंतावल (हाथी), ऊर्जस्वल (बलवान्)।
विन् (गुणवाचक)
तपस् : तपस्वी ; यशस् : यशस्वी ; तेजस् : तेजस्वी
माया : मायावी ; मेधा : मेधावी
पवस् : पयस्विनी (स्त्र॰, दुधार गाय)
व्य (संबंधवाचक)
पितृव्य (काका), भ्रातृव्य (भतीजा)
श (विविध अर्थ में )
राम : रोमश , कर्क : कर्कश।
(290 / हिंदी व्याकरण)
शः (रीतिवाचक)
क्रमशः, अक्षरशः, अल्पशः, कोटिशः।
सात् (विकारवाचक)
भस्म् : भस्मसात् ; अग्नि : अग्निसात्
जल : जलसात् ; भूमि : भूमिसात्
(सू॰ : ये शब्द बहुधा होना या करना क्रिया के साथ आते हैं ।)
(सू॰ : हिंदी भाषा दिन-दिन बढ़ती जाती है और उसे अपनी बुद्धि के लिए बहुधा संस्कृत के शब्द और उनके साथ उसके प्रत्ययों को लेने की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए इस सूची में समय-समय पर और भी शब्दों तथा प्रत्ययों का समावेश हो सकता है। इस दृष्टि से इस अध्याय को अभी अपूर्ण ही समझना चाहिए। तथापि वर्तमान हिंदी की दृष्टि से इसमें प्रायः वे सब शब्द और प्रत्यय आ गए हैं, जिनका प्रचार अभी हमारी भाषा में है।)
436. ऊपर लिखे प्रत्ययों के सिवा संस्कृत में कई एक शब्द एेसे हैं, जो समाज में उपसर्ग अथवा प्रत्यय के समान प्रयुक्त होते हैं। यद्यपि इन शब्दों में स्वतंत्र अर्थ रहता है, जिसके कारण इन्हें शब्द कहते हैं, तथापि इनका स्वतंत्र प्रयोग बहुत कम होता है। इसलिए इन्हें यहाँ उपसर्गों और प्रत्ययों के साथ लिखते हैं। जिन शब्दों के पूर्व यह ' चिह्र है उनका प्रयोग बहुधा प्रत्ययों ही के समान होता है।
अधीन : स्वाधीन, पराधीन, देवाधीन, भाग्याधीन।
अंतर : देशांतर, भाषांतर, मन्वंतर, अर्थांतर, रूपांतर।
अन्वित : दुःखान्वित, दोषान्वित, भयान्वित, क्रोधान्वित, मोहान्वित, लोभान्वित।
'अपह : शोकापह, दुःखापह, सुखापह, मानापह।
अध्यक्ष : दानाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सभाध्यक्ष।
अतीत : कालातीत, गुणातीत, आशातीत, स्मरणातीत।
अनुरूप : गुणानुरूप, योग्यतानुरूप, मतिअनुरूप (राम॰), आज्ञानुरूप।
अनुसार : कर्मानुसार, भाग्यानुसार, समयानुसार।
अभिमुख : दक्षिणाभिमुख, पूर्वाभिमुख, मरणाभिमुख।
अर्थ : धर्मार्थ, संमत्यर्थ, प्रीत्यर्थ, समालोचनार्थ।
अर्थी : धनार्थी, विद्यार्थी, शिक्षार्थी, फलार्थी, मानार्थी।
'अर्ह : पूजार्ह , दंडार्ह , विचारार्ह।
आक्रांत : रोगाक्रांत, पदाक्रांत, चिंताक्रांत, क्षुधाक्रांत, दुःखाक्रांत।
आतुर : प्रे मातुर, कामातुर, चिंतातुर।
आकुल : चिंताकुल, भयाकुल, शोकाकुल, प्रे माकुल।
आचार : देशाचार, पापाचार, शिष्टाचार, कुलाचार।
आत्म : आत्मप्रस्तुति, आत्मश्लाघा, आत्माघात, आत्महत्या।
(हिंदी व्याकरण / 291)
आपन्न : दोषापन्न, खेदापन्न, सुखापन्न, स्थानापन्न।
'आवह : हितावह, गुणावह, फलावह, सुखावह।
आर्त्त : दुःखार्त्त, शोकार्त्त, क्षुधार्त्त, तृषार्त्त।
आशय : महाशय, नीचाशय, क्षुद्राशय, जलाशय।
आस्पद : दोषास्पद, निंदास्पद, लज्जास्पद, हास्यास्पद।
'आढ्य : बलाढ्य, धनाढ्य, गुणाढ्य।
उत्तर : लोकोत्तर, भोजनोत्तर।
'कर : प्रभाकर, दिनकर, दिवाकर, हितकर, सुखकर।
'कार : स्वर्णकार, चर्मकार, ग्रं थकार, कुं भकार, नाटककार।
'कालीन : समकालीन, पूर्वकालीन, जन्मकालीन।
'ग : (गम् धातु का अंश =जानेवाला ) :
उरग, तुरग (तुरंग), विहग (विहंग), दुर्ग, खग, अग, नग।
गत : गतवैभव, गतायु, गतश्री, मनोगत, दृष्टिगत, कंठगत, व्यक्तिगत।
'गम : तुरंगम, विहंगम, दुर्गम, सुगम, अगम, सगम, हृदयंगम।
गम्य : बुद्धिगम्य, विचारगम्य।
ग्रस्त : वादग्रस्त, चिंताग्रस्त, व्याधिग्रस्त, भयग्रस्त।
घात : विश्वासघात, प्राणघात, आशाघात।
घ्न : (हन् धातु का अंश =मार डालनेवाला) कृतघ्न, पापघ्न, मातृघ्न, वातघ्न।
चर : जलचर, निशाचर, खेचर, अनुचर।
चिंतक : शुभचिंतक, हितचिंतक, लाभचिंतक।
अन्य : क्रोधजन्य, अज्ञानजन्य, स्पर्शजन्य, प्रेमजन्य।
ज : (जिन् धातु का अंश : उत्पन्न होनेवाला ) : अंडज, पिंडज, स्वेदज, जलल, वारिज, अनुज, पूर्वज, पित्तज, जारज, द्विज।
जाल : शब्दजाल, कर्मजाल, मायाजाल, प्रेमजाल।
जीवी : श्रमजीवी, धनजीवी, कष्टजीवी, क्षणजीवी।
दर्शी : दूरदर्शी, कालदर्शी, सूक्ष्मदर्शी।
द : (दा धातु का अंश =देनेवाला ) : सुखद, जलद, धनद वारिद, मोक्षद, नर्मदा, (स्त्र॰)।
दायक : सुखदायक, गुणदायक, आनंददायक, मंगलदायक, भयदायक।
दायी : दायक के समान (स्त्र ॰ : दा यिनी)।
धर : महीधर, गिरिधर, पयोधर, हलधर, गंगाधर, जलधर, धाराधर।
धार : सूत्रधार, कर्णधार।
धर्म : राजधर्म, कुलधर्म, सेवाधर्म, पुत्रधर्म, प्रजाधर्म, जातिधर्म।
(292 / हिंदी व्याकरण)
नाशक : कफनाशक, कृमिनाशक, धननाशक, विघ्ननाशक।
निष्ठ : कर्मनिष्ठ, योगनिष्ठ, राजनिष्ठ, ब्रह्मनिष्ठ।
पर : तत्पर, स्वार्थपर, धर्मपर।
परायण : भक्तिपरायण, स्वार्थपरायण, प्रेमपरायण।
बुद्धि : पापबुद्धि, पुण्यबुद्धि, धर्मबुद्धि।
भाव : मित्रभाव, शत्रभाव, बंधुभाव, स्त्रभाव, प्रेमभाव, कार्य-कारण-भाव, बिंब-प्रतिबिंब-भाव।
भेद : पाठभेद, अर्थभेद, मतभेद, बुद्धिभेद।
युत : श्रीयुत, अयुत, धर्मयुत।
(सू॰ : 'युत्' का 'त्' हलंत नहीं है।)
रहित : ज्ञानरहित, धर्मरहित, प्रेमरहित, भावरहित।
रूप : वायुरूप, अग्निरूप, मायारूप, नररूप, देवरूप।
शील : धर्मशील, सहनशील, पुण्यशील, दानशील, विचारशील, कर्मशील।
शाली : भाग्यशाली, एेश्वर्यशाली, बुद्धिशाली, वीर्यशाली।
शून्य : ज्ञानशून्य, द्रव्यशून्य, अर्थशून्य।
शूर : कर्मशूर, दानशूर, रणशूर, आरंभशूर।
साध्य : द्रव्यसाध्य, कष्टसाध्य, यत्नसाध्य।
स्थ : (स्था धातु का अंश=रहनेवाला) : गृहस्थ, मार्गस्थ, तटस्थ, उदरस्थ, आत्मस्थ, अंतःस्थ।
हत : हतभाग्य, हतवीर्य, हतबुद्धि, हताश।
हर : (हर्ता, कारक, हारी) पापहर, रोगहर, दुखहर, दोषहर्ता, दुःखहर्ता, श्रमहारी, तापहारी, वातहारक।
हीन : हीनकर्म , हीनबुद्धि, हीनकुल, गणहीन, धनहीन, मतिहीन, विद्याहीन, शक्तिहीन।
ज्ञ : (ज धातु का अंश=जाननेवाला) : शास्त्रज्ञ, धर्मज्ञ, सर्वज्ञ, मर्मज्ञ, विज्ञ, नीतिज्ञ, विशेषज्ञ, अभिज्ञ (ज्ञाता) इत्यादि।
चौथा अध्याय (हिंदी प्रत्यय) संपादित करें
हिंदी प्रत्यय
(हिंदी व्याकरण / 293)
हिंदी कृदंत संपादित करें
(अ) : यह प्रत्यय आकारांत धातुओं में जोड़ा जाता है और इसके योग से भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
लूटना : लूट ; मारना : मार
जाँचना : जाँच ; चमकना : चमक
पहुँचना : पहुँच ; समझना : समझ
देखना भालना : देखभाल ;
उछलना कूदना : उछलकूद
(सू॰ : 'हिंदी व्याकरण' में इस प्रत्यय का नाम 'शून्य' लिखा गया है, जिसका अर्थ यह है कि धातु में कुछ भी नहीं जोड़ा जाता और उसी का प्रयोग भाववाचक संज्ञा के समान होता है। यथार्थ में यह बात ठीक है, पर हमने शून्य के बदले 'अ' इसलिए लिखा है कि शून्य शब्द से होनेवाला भ्रम दूर हो जाय। इस 'अ' प्रत्यय के आदेश से धातु के अंत्य 'अ' का लोप समझना चाहिए।
(अ) किसी-किसी धातु के उपांत्य ह्रस्व 'इ' और 'उ' को गुणादेश होता है जैसे : मिलना : मेल, हिलना मिलना : हेल-मेल, झुकना-झोक।
(आ) कहीं-कहीं धातु के उपांत्य 'अ' की वृद्धि होती है जैसे :
अड़ना : आड़ ; लगना : लाग
चलना : चाल ; फटना : फाट
बढ़ना : बाढ़
(इ) इसके योग से कोई-कोई विशेषण भी बनते हैं जैसे :
बढ़ना : बढ़
घटना : घट
भरना : भ र
(ई) इस प्रत्यय के योग से पूर्वकालिक कृदंत अव्यय बनता है जैसे :
चलना : चल
जाना : जा
देखना : देख
(सू॰ : प्राचीन कविता में इस अव्यय का इकारांत रूप पाया जाता है, जैसे : देखना : देखि। फेंकना : फेकि। उठना : उठि। स्वरांत धातुओं के साथ इ के स्थान में बहुधा 'य' का आदेश होता है, जैसे : खाय, गाय।)
अक्कड़ (कर्तृवाचक)
बूझना : बुझक्कड़ ; कूदना : कुदक्कड़
भूलना : भुलक्कड़ ; पीना : पियक्कड़
अंत (भाववाचक)
गढ़ना : गढ़ंत ; लिपटना : लिपटंत
लड़ना : लड़ंत ; रटना : रटंत
आ
इस प्रत्यय के योग से बहुधा भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
घेरना : घेरा ; फेरना : फेरा ; जोड़ना : जोड़ा
झगड़ना : झगड़ा ; छापना : छापा ; रगड़ना : रगड़ा
झटकना : झटका ; उतारना : उतारा ; तोड़ना : तोड़ा
(294 / हिंदी व्याकरण)
(अ) इस प्रत्यय के लगने के पूर्व किसी-किसी धातु के उपांत्य स्वर में गुण होता है जैसे :
मिलना : मेला ; टूटना : टोटा ; झुकना : झोका
(आ) समास में इस प्रत्यय के योग से कई एक कर्तृवाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
(घुड़)चढ़ा ;(अंग)रखा ; (भड़ )भूंजा
(कठ )फोड़ा ; (गंठ )कटा ;(मन )चला
(मिठ)बोला ;(ले ) लेवा ; (दे) देवा
(इ) भूतकालिक कृदंत इसी प्रत्यय के योग से बनाए जाते हैं जैसे
मरना : मरा धोना : धोया खींचना : खींचा
पड़ना : पड़ा बनाना : बनाया बैठना : बैठा
(ई) कोई-कोई करणवाचक संज्ञाएँ जैसे :
झूलना : झूला ठेलना : ठेला फाँसना : फाँसा
झारना : झारा पातना : पा ता घेरना : घेरा
आई : इस प्रत्यय से भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं , जिनसे (1) क्रिया के व्यापार और (2) क्रिया के नामों का बोध होता है जैसे :
(1) लड़ना : लड़ा ई समाना : समाई चढ़ना : चढ़ा ई दिखना : दिखाई सुनना : सुनाई पढ़ना : पढ़ा ई खु दना : खु दाई जुतना : जुताई सीना : सिलाई
(2) खिलाना : खिलाई ; पिसाना : पिसाई चराना : चराई कमाना : कमाई लिखाना : लिखाई ; धुलाना : धुलाई
(सू॰ : 'आना' से 'अवाई' और 'जाना' से 'जवाई' भाववाचक संज्ञाएँ (क्रिया के व्यापार के अर्थ में) बनती हैं।
आऊ : यह प्रत्यय किसी-किसी धातु में योग्यता के अर्थ में लगता है जैसे :
टिकना : टिकाऊ ; बिकाना : बिकाऊ
चलना : चलाऊ ; दिखना : दिखाऊ
जलना : जलाऊ ; गिरना : गिराऊ
(अ) किसी-किसी धातु में इस प्रत्यय का अर्थ कर्तृवाचक होता है जैसे : खाना : खाऊ ; उड़ाना : उड़ाऊ ; जुझाना : जुझाऊ
अंकू, आक, आकू (कर्तृवाचक)
उड़ना : उड़ंकू ; लड़ना : लडं+कू
पैरना : पैराक ; तैरना : तैराक
लड़ना : लड़ाक (लड़ाका, लड़ाकू) उड़ना : उड़ाक (उड़ाकू)
आन (भाववाचक) : उठना : उठान ; उड़ना : उड़ान
लगना : लगान ; मिलना : मिलाप
चलना : चलान
(हिंदी व्याकरण / 295)
आप (भाववाचक)
मिलना : मिलाप ; जलना : जलापा
पूजना : पूजापा
चढ़ना : चढ़ाव ; बचना : बचाव
छिड़कना : छिड़काव ; बहना : बहाव
लगना : लगाव ; जमना : जमाव
पड़ना : पड़ाव ; घूमना : घुमाव
आवट (भाववाचक)
लिखना : लिखावट ; थकना : थकावट
रुकना : रुकावट ; बनना : बनावट
सजना : सजावट ; दिखाना : दिखावट
लगना : लगावट ; मिलना : मिलावट
कहना : कहावत
आवना (विशेषण)
सुहाना : सुहावना ; लुभाना : लुभावना
डराना : डरावना
आवा (भाववाचक)
छुड़ाना : छुड़ावा ; भुलाना : भुलावा
छलना : छलावा ; बुलाना : बुलावा
चलना : चलावा ; पहिरना : पहिरावा
पछताना : पछतावा
आस (भाववाचक)
पीना : प्यास ; ऊँघना : ऊँघास ; रोना : रोआँस
आहट (भाववाचक)
चिल्लाना : चिल्लाहट ; घबराना : घबराहट
गड़गड़ाना : गड़गड़ाहट ; भनभनाना : मनभनाहट
गुरार्ना : गुर्राहट ; जगमगाना : जगमगाहट
(सू॰ : यह प्रत्यय बहुधा अनुकरणवाचक शब्दों के साथ आता है और 'शब्द' के अर्थ में इसका स्वतंत्र प्रयोग भी होता है।)
इयल (कर्तृवाचक)
अड़ना : अड़ियल ; सड़ना : सड़ियल मरना : मरियल ; बढ़ना : बढ़ियल
(296 / हिंदी व्याकरण)
ई (भाववाचक)
हँसना : हँसी ; कहना : कही
बोलना : बोली ; मरना : मरी
धमकना : धमकी ; घुड़कना : घुड़की
(करणवाचक)
रेतना : रेती ; फाँसना : फाँसी
गाँसना : गाँसी ; चिमटना : चिमटी
टाँकना : टाँकी
इया (कर्तृवाचक)
जड़ना : जड़िया ; लखना : लखिया
धुनना : धुनिया ; नियारना : नियारिया
(गुणवाचक)
बढ़ना : बढ़िया ; घटना : घटिया
ऊ (कर्तृवाचक)
खाना : खाऊ ; रटना : रट्टू
उतरना : उतारू (तैयार) ; चलना : चालू
बिगड़ना : बिगाड़ू ; मारना : मारू
काटना : काटू ; लगना : लागू (मराठी)
(करणवाचक)
झाड़ना : झाड़ू
ए : यह प्रत्यय सब धातुओं में लगता है और इसके योग से अव्यय बनते हैं । इससे क्रिया की समाप्ति का बोध होता है, इसलिए इससे बने हुए शब्दों को बहुधा पूर्ण क्रियाद्योतक कृदंत कहते हैं। इन अव्ययों का प्रयोग क्रियाविशेषण के समान तीनों कालों में होता है। ये अव्यय संयुक्त क्रियाओं में भी आते हैं, जिनका विचार यथास्थान हो चुका है।
उदाहरण : देखे, पाए, लिए, समेटे, निकले।
एरा (कर्तृवाचक) :
कमाना : कमेरा ; लूटना : लुटेरा
(भाववाचक) : निबटाना : निबटेरा ; बसना : बसेरा
एेया (कर्तृवाचक)
काटना : कटैया ; बचाना : बचैया
परोसना : परासैया ; भरना : भरैया
(सू॰ : इस प्रत्यय का प्रचार हिंदी में अधिक है, आधुनिक हिंदी में इसके बदले 'वैया' प्रत्यय आता है, जो यथास्थान लिखा जायगा।)
(हिंदी व्याकरण / 297)
एेत (कर्तृवाचक)
लड़ना : लड़ैत ; चढ़ना : चढ़ैत ; फेंकना : फिकैत
ओड़ा (कर्तृवाचक)
भागना : भगोड़ा ; हँसना : हँसोड़ा (हँसोड़)
औता, औती (भाववाचक)
समझाना : समझौता ; मानना : मनौती
छुड़ाना : छुड़ौती ; चुकाना : चुकौता, चुकौती
कसना : कसौटी ; चुनना : चुनौती (प्रेरणा)
औना, औनी, आवनी (विविध अर्थ में )
खेलना : खिलाना ; बिछाना : बिछौना
ओढ़ना : उढ़ौना ; पहराना : पहरौनी (पहरावनी)
छाना : छावनी ; ठहरना : ठहरौनी
कहना : कहानी (आँख) मींचना-(आँखमिचौनी)
औवल (भाववाचक)
बूझना : बुझावल ; बनाना : बनौवल ; मींचना : मचौवल
क (भाववाचक, स्थानवाचक)
बैठना : बैठक ; फाड़ना : फाटक
(कर्तृवाचक)
मारना : मारक ; घोलना : घोलक
घोलना : घोलक ; जाँचना : जाँचक
(सू॰ : किसी-किसी अनुकरणवाचक मूल अव्यय के आगे इस प्रत्यय के योग से धातु भी बनते हैं जैसे : खड़ : खड़कना , धड़ : धड़कना , तड़ : तड़कना , धम : धमकना, खट : खटकना।)
कर, के करके : ये प्रत्यय सब धातुओं में लगते हैं और इनके योग से अव्यय बनते हैं। इन प्रत्ययों में 'कर' अधिक शिष्ट समझा जाता है और गद्य में बहुधा इसी का प्रयोग होता है। इन प्रत्ययों से बने हुए अव्यय पूर्वकालिक कृदंत कहलाते हैं और उनका उपयोग क्रियाविशेषण के समान तीनों कालों में होता है। पूर्वकालिक कृदंत अव्यय का उपयोग संयुक्त क्रियाओं की रचना में होता है, जिनका वर्णन संयुक्त क्रियाओं के अध्याय में आ चुका है। उदाहरण : देकर, जाकर, दौड़ करके। (सू॰ : किसी-किसी की सम्मति में 'कर' और 'करके' प्रत्यय नहीं हैं , किंतु स्वतंत्र शब्द हैं और कदाचित् इसी विचार से वे लोग 'चलकर' शब्द को अलग-अलग 'चल कर' लिखते हैं। यदि यह भी मान लिया जावे कि 'कर' स्वतंत्र शब्द है, पर कई एक स्वतंत्र शब्द भी अपनी स्वतंत्रता त्याग कर प्रत्यय हो गए हैं : तो भी उसे
(298 / हिंदी व्याकरण)
अलग-अलग लिखने के लिए कारण नहीं हैं, क्योंकि समास में भी तो दो या अधिक शब्द एकत्र लिखे जाते हैं।
का (विविध अर्थ) में : छीलना : छिलका
की (विविध अर्थ में ) : फिरना-फिरकी, फूटना-फुटकी
गी (भाववाचक) : देना-देनगी।
त (भाववाचक) : बचना : बचत ; खपना : खपत
पड़ना : पड़त ; रँगना : रंगत
ता : इस प्रत्यय के द्वारा सब धातुओं से वर्तमानकालिक कृदंत बनते हैं , जिनका प्रयोग विशेषण के समान होता है और जिनमे विशेष्य के लिंग, वचन के अनुसार विकार होता है। काल रचना में इस कृदंत का बहुत उपयोग होता है। उदाहरण : जाता, आता, देखता, करता।
ती (भाववाचक)
बढ़ना-बढ़ती ; घटना : घटती ; चढ़ना : चढ़ती
भरना : भरती ; चुकना : चुकती ; गिनता : गिनती
झड़ना : झड़ती ; पाना : पावती ; फबना : फबती
ते : इस प्रत्यय के द्वारा सब धातुओं से अपूर्ण क्रियाद्योतक कृदंत बनाए जाते हैं, जिनका प्रयोग क्रियाविशेषण के समान होता है। इससे बहुधा मुख्य क्रिया के समय होनेवाली घटना का बोध होता है। कभी-कभी इससे 'लगातार' का अर्थ भी निकलता है जैसे : मुझे आपको खोजते कई घंटे हो गए। उनको यहाँ रहते तीन बरस हो चुके।
न (भाववाचक)
चल ना : चलन ; कहना : कहन
मुस्क्याना : मुस्क्यान ; लेना-देना : लेन-देन
खाना-पीना : खानपान ; ब्याना : ब्यान
सीना : सियान, सीवन
(करणवाचक) :
झाड़ना : झाड़न ; बेलना : बेलन ; जमाना : जामन
(सू॰ : (1) कभी-कभी एक ही करणवाचक शब्द कई अथो र्ं में आता है जैसे : झाड़न : झाड़ने का हथियार अथवा झाड़ा हुआ पदार्थ (कूड़ा)।
(2) 'न' प्रत्यय संस्कृत के 'अन' कृदंत प्रत्यय से निकला है।) ना : इस प्रत्यय के योग से क्रियार्थक, कर्मवाचक और करणवाचक संज्ञाएँ बनती हैं । हिंदी में इस कृदंत से धातु का निदे र्श करते हैं , जैसे : बोलना, लिखना, देना, खाना इत्यादि।
(हिंदी व्याकरण / 299)
(सू॰ : संस्कृत के 'अन' प्रत्यांयत कृदंतों से हिंदी के कई ना प्रत्ययांत कृदंत निकले हैं, पर एेसा भी जान पड़ता है कि संस्कृत से केवल 'अन' प्रत्यय लेकर उसे 'न' कर लिया गया है, क्योंकि यह प्रत्यय उर्दू शब्दों में भी लगा दिया जाता है और हिंदी के दूसरे शब्दों में भी जोड़ा जाता है जैसे : उर्दूशब्द : बदल से बदलना, गुजर से गुजरना, दाग से दागना, गर्म से गर्माना। हिंदी शब्द : अलग से अलगाना, अपना से अपनाना, लाठी से लठियाना, रिस से रिसाना इत्यादि।)
(कर्मवाचक) :
खाना : खाना (भोज्य पदार्थ) : इस अर्थ में यह शब्द बहुधा मुसलमानों और उनके सहवासियों में प्रचलित है। गाना-गाना (गीत), बोलना-चालना (बात) इत्यादि।
(अ) : (कारण वाचक) : बेलना : बेलना ; कसना : कसना
ओढ़ना : आेढ़ना ; घोटना : घोटना
(आ) किसी-किसी धातु का आद्य स्वर ह्रस्व हो जाता है जैसे : बाँधना : बँधना ; छानना : छनना ; कूटना : कुटना
(इ) (विशेषण) : उड़ना (उड़नेवाला) ; हँसना (हँसनेवाला) रोना (रोनेवाला, रोनीसूरत) ; लदना (बैल)
(ई) (अधिकरणवाचक) : झिरना, रमना, पालना।
नी : इस प्रत्यय के योग से स्त्रीलिंग कृदंत संज्ञाएँ बनती हैं ।
(अ) (भाववाचक) :
करना : करनी ; भरना : भरनी
कटना : कटनी ; बाना : बानी
(आ) (कर्मवाचक) : चटनी, सुँघनी, कहानी।
(इ) (करणवाचक) : धौंकनी, ओटनी, कतरनी, छननी, कुरेदनी, लेखनी, ढकनी, सुमरनी।
(ई) (विशेषण) : कहनी (कहने के योग्य), सुननी (सुनने के योग्य)
वाँ : ( विशेषण ) : ढालना : ढलवाँ ; काटना : कटवाँ
पीटना : पीटवाँ ; चुनना : चुनवाँ
वाला : यह प्रत्यय सब क्रियार्थक संज्ञाओं में लगता है और इसके योग से कर्तृवाचक विशेषण और संज्ञाएँ बनती हैं। इस प्रत्यय के पूर्व अंत्य 'आ' के स्थान में 'ए' हो जाता है जैसे : जानेवाला, रोकनेवाला, खानेवाला, देनेवाला। वैया : यह प्रत्यय एेसा ही पर्यायी है और 'वाला' का समानार्थी है। इसका
(300 / हिंदी व्याकरण)
प्रयोग एकाक्षरी धातुओं के साथ अधिक होता है जैसे : गवैया, छवैया, दिवैया, रखवैया। सार : मिलनसार (यह प्रत्यय उर्दू है)।
हार : यह वाला के स्थान में कुछ धातुओं से संयुक्त होता है जैसे : मरनहार, होनहार, जानहार।
हारा : यह प्रत्यय 'वाला' का पर्यायी है पर इसका प्रचार गद्य में कम होता है।
हा
(कर्तृवाचक) :
काटना : कटहा , मारना : मरकहा , चराना : चरवाहा।
हिंदी तद्धित संपादित करें
आ : यह प्रत्यय कई एक संज्ञाओं में लगाकर विशेषण बनते हैं जैसे,
भूख : भूखा ; प्यास : प्यासा ; मैल : मैला
प्यार : प्यारा ठंढ : ठंढा ; खार : खारा
(अ) कभी-कभी एक संज्ञा से दूसरी भाववाचक अथवा समुदायवाचक संज्ञा बनती है जैसे :
जाड़ : जाड़ा ; चूर : चूरा ; सरार्फ : सरार्फा
बजाज : बजाजा बोझ : बोझा
(आ) नाम और जातिसूचक संज्ञाओं में यह प्रत्यय अनादर अथवा दुलार के अर्थ में आता है जैसे : शंकर : शंकरा ; ठाकुर : ठाकुरा ; बलदेव : बलदेवा
(सू॰ : रामचरितमानस तथा दूसरी पुरानी पुस्तकों की कविता में यह प्रत्यय मात्रपूर्ति के लिए, संज्ञाओं के अंत में लगा हुआ पाया जाता है जैसे : हंस : हंसा, दिन : दिना , नाम : नामा )
(इ) पदार्थों की स्थूललता दिखाने के लिए पदार्थवाचक शब्दों के अंत्य स्वर के स्थान में इस प्रत्यय का आदेश होता है जैसे : लकड़ी : लकड़ा, चिमटी : चिमटा, घड़ी : घड़ा (विनोद में )।
(सू॰ : यह प्रत्यय बहुधा ईकारांत स्त्रीलिंग संज्ञाओं में , पुं ल्लिंग बनाने के लिए लगाया जाता है। इसका उल्लेख लिंग प्रकरण में किया गया है।)
(ई) द्वार : द्वारा, इस उदाहरण में आ के योग से अव्यय बना है। आँ : यह, वह, जो और कौन के परे इस प्रत्यय के योग से स्थानवाचक क्रियाविशेषण बनते हैं जैसे : यहाँ, वहाँ, जहाँ, कहाँ, तहाँ।
आइँद (भाववाचक) जैसे : कपड़ा : कपड़ाइँद (जले कपड़े की बास), सड़ाइँद, घिनाइँद, मघाइँद।
(हिंदी व्याकरण / 301)
आई : इस प्रत्यय के योग से विशेषणों और संज्ञाओं से भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
भला : भलाई ; बुरा : बुराई ; ढीठ : ढिठाई
चतुर : चतुराई ; चिकना : चिकनाई ; पंडित : पंडिताई
ठाकुर : ठकुराई ; बनिया : बनियाई
(सू॰ : (1) इस प्रत्यय से कुछ जातिवाचक संज्ञाएँ भी बनती हैं । मिठाई, खटाई, चिकनाई, ठंढाई आदि शब्दों से उन वस्तुओं का भी बोध होता है, जिनमें यह धर्म पाया जाता है। मिठाई = पेड़ा, बर्फी आदि। ठंढाई = भाँग।
(2) यह प्रत्यय कभी-कभी संस्कृत की 'ता' प्रत्ययांत भाववाचक संज्ञाओं में भूल से जोड़ दिया जाता है जैसे : मूर्खताई, कोमलताई, शूरताई, जड़ताई।
(3) 'आई' प्रत्ययांत सब तद्धित स्त्रीलिंग हैं।
आनंद : विनोद में नामों के साथ जोड़ा जाता है : गड़बड़ानंद, मेढकानंद, गोलमालानंद।
आऊ
( गुण वाचक) :
आगे : अगाऊ ; घर : घराऊ
बाट : बटाऊ ; पंडित : पंंडिताऊ
आका : अनुकरणवाचक शब्दों से इस प्रत्यय के द्वारा भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
सन : सनाका ; धम : धमका ; सड़ : सड़ाका
भड़ : भड़ाका ; धड़ : धड़ाका
आटा : यह उपयुर्क्त प्रत्यय का समानार्थी है और कुछ शब्दों में लगाया जाता है जैसे : अर्राटा, सर्राटा, घर्राटा।
आन (भाववाचक)
घमस : घमासान ; ऊँच : ऊँचान ; नीचा : निचान
लंबा : लंबान ; चौड़ा : चौड़ान
(सू॰ : यह प्रत्यय बहुधा परिमाणवाचक विशेषणों में लगता है।)
आना (स्थानवाचक)
राजपूत : राजपूताना ; हिंदू : हिंदुआना
तिलंग : तिलंगाना उड़िया : उड़ियाना
सिरहाना : पैताना
आनी : यह प्रत्यय स्त्रीलिंग का है। इसके प्रयोग के लिए लिंग प्रकरण देखो।
आयत (भाववाचक)
तीसरा : तिसरायत, तिहायत अपना : अपनायत
आर : (अ) यह प्रत्यय संस्कृत के 'कार' प्रत्यय का अपभ्रंश है। उदाहरण : कुम्हार (कुंभकार), सुनार (सुवर्णकार), लुहार, चमार, सुआर (सूपकार)।
(आ) कभी-कभी इस प्रत्यय से विशेषण बनते हैं जैसे : दूध : दुधार ; गाँव : गँवार।
(302 / हिंदी व्याकरण)
आरी, आरा, आड़ी : ये 'आर' के पर्यायी हैं और थोड़े से शब्दों में लगते हैं जैसे : पूजा : पुजारी, खेल : खिलाड़ी , बनिज : बनिजारा, घसियारा, भिखारी, हत्यारा भठियारा, कोठारी।
(अ) (भाववाचक) : छूट : छुटकारा।
आल : इस प्रत्यय से विशेषण और संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
लाठी : लठियाल माठा : मठियाल
जौआला (जौ और अनाज का मिश्रण)
दया : दयाल ; कृपा : कृपाल ;दाढ़ी : दढ़ियल
(आ) किसी-किसी शब्दों में यह प्रत्यय संस्कृत आलय का अपभं्रश है जैसे : ससुराल, (श्वसुरालय), ननिहाल, गंगाल, घड़ियाल (घड़ी का घर), दिवाला, शिवाला, पनारा (पनाला)।
आली : संस्कृत 'आवली' का अपभ्रंश है और समूह के अर्थ में प्रयुक्त होता है जैसे : दिवाली।
आलू : झगड़ा : झगडालू , लाज : लजालू , डर : डरालू।
आवट : (भाववाचक) : अमावट, महावट।
आस (भाववाचक)
मीठा : मिठास ; खट्टा : खटास ; नींद : निंदास।
आसा : विविध अर्थ में : मुँडासा, मुँहासा
आहट (भाववाचक)
कड़वा : कड़वाहट ; चिकना : चिकनाहट
गरम : गरमाहट
इन : स्त्रीलिंग का प्रत्यय है। इसका प्रयोग लिंग प्रकरण में दिया गया है।
इया :
(अ) कुछ संज्ञाओं से इस प्रत्यय के द्वारा कर्तृवाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
आढ़त : आढ़तिया ; मक्खन : मक्खनिया
बखेड़ा : बखेड़िया ; गाड़र : गड़रिया ; मुख : मुखिया
दुख : दुखिया ; रसोई : रसोइया ; रस : रसिया
(स्थानवाचक) :
मथुरा : मथुरिया ; कलकत्ता : कलकतिया
सरवार : सरवरिया ; कन्नौज : कन्नौजिया
(आ) (ऊनवाचक) :
खाट : खटिया ; फाड़ा : फाड़िया
डब्बा : डबिया ; गठरी : गठरिया
आम : अँबिया ; बेटी : बिटिया
(हिंदी व्याकरण / 303)
(इ) (वस्त्रर्थी) जाँघिया, अँगिया।
(ई) ईकारांत पुंल्लिंग और स्त्रीलिंग संज्ञाओं में अनादर अथवा दुलार के लिए यह प्रत्यय लगाते हैं जैसे :
हरी : हरिया ; तेली : तेलिया
धोबी : धोबिया ; राधा : रधिया
दुर्गा : दुर्गिया ; माई: मैया
भाई : भैया ; सिपाही : सिपहिया
(उ) प्राचीन कविता के कई शब्दों में यह प्रत्यय स्वार्थ में लगा हुआ मिलता है जैसे :
आँख : अँखिया ; भाँग : भँगिया ; आग : अगिया
पाँव : पैयाँ ; जी : जया ; पी : पिया
( ई )
(अ) : यह प्रत्यय कई एक संज्ञाओं में लगाने से विशेषण बनते हैं जैसे : भार-भारी, ऊन : ऊनी, देश : देशी। इसी प्रकार जंगली, विदेशी, बैंगनी, गुलाबी, बैसाखी, जहाजी, सरकारी आदि शब्द बनते हैं। देश के नाम से जाति और भाषा के नाम भी इस प्रत्यय के योग से बनते हैं जैसे : मारवाड़ी, बंगाली, गुजराती, विलायती, नेपाली, पंजाबी, अरबी आदि।
(आ) कई एक अकारांत वा आकारांत संज्ञाओं में यह प्रत्यय लगाने से ऊनवाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : पहाड़ : पहाड़ी घाट : घाटी ;
ढोलकी डोरी टोकरी रस्सी उपली
(इ) कोई-कोई व्यापारवाचक संज्ञाएँ इसी प्रत्यय के योग से बनी हैं जैसे : तेली (तेल निकालनेवाला), माली, धोबी, तमोली।
(ई) किसी-किसी विशेषणों में यह प्रत्यय लगाकर भाववाचक संज्ञाएँ बनाते हैं जैसे : गृहस्थ : गृहस्थी, बुद्धिमान : बुद्धिमानी, सावधान : सावधानी, चतुर : चातुरी। इस अर्थ में यह प्रत्यय उर्दू शब्दों में बहुतायत से आता है जैसे : गरीब : गरीबी, नेक : नेकी , बद : बदी , सुस्त : सुस्ती।
इस प्रत्यय के और उदाहरण अगले अध्याय में दिए जायँगे।
(उ) कुछ संख्यावाचक विशेषणों से इस प्रत्यय के द्वारा समुदाय वाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : बीस, बीसी, बत्तीसी, पच्चीसी।
(ऊ) कई एक संज्ञाओं में भी यह प्रत्यय लगाने से भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे :
चार : चारी ; खेत : खेती
किसान : किसानी ; महाजन : महाजनी
दलाल : दलाली ; डाक्टर : डाक्टरी
सवार : सवारी : 'सवारी' शब्द यात्रा के अर्थ में जातिवाचक है।
(304 / हिंदी व्याकरण)
(ऋ) भूषणार्थक : अँगूठी, कंठी, पहुँ ची, पैरी, जीभी (जीभ साफ करने की सलाई), अगाड़ी, पिछाड़ी।
ईला : इस प्रत्यय के योग से विशेषण बनते हैं जैसे : रंग : रँगीला ; छवि : छबीला ; लाज : लजीला
रस : रसीला ; जहर : जहरीला ; पानी : पनीला
(अ) कोई-कोई संज्ञाएँ जैसे : गोबर : गोबरीला।
ईसा : मूँड : मुँडीसा, उसीसा।
उआ : इस प्रत्यय से मछुआ, गेरुआ, खारुआ, फगुआ, टहलुआ आदि विशेषण अथवा संज्ञाएँ बनती हैं।
ऊ : इस प्रत्यय के योग से विशेषण बनते हैं :
ढाल : ढालू ; घर : घरू ; बाजार : बाजारू
पेट : पेटू ; गरज : गरजू ; झाँसा : झाँसू
नाक : नक्कू (बदनाम)
(आ) रामचरितमानस तथा दूसरी प्राचीन कविताओं में यह प्रत्यय संज्ञाओं में लगा हुआ पाया जाता हैं जैसे : रामू, आपू, प्रतापू, लोगू, योगू, इत्यादि। 'ऊ' के बदले कभी-कभी 'उ' आता है जैसे : आपु, पितु, मातु, रामु।
(आ) कोई-कोई व्यक्तिवाचक तथा संबंधवाचक संज्ञाओं में यह प्रत्यय प्रेम अथवा आदर के लिए लगाया जाता है जैसे :
जगन्नाथ : जग्गू ; श्याम : श्यामू
बच्चा : बच्चू ; लल्ला : लल्लू
नन्हा : नन्हू।
(इ) छोटी जाति के लोगों अथवा बच्चों के नामों में बहुधा यह प्रत्यय पाया जात है जैसे : कल्लू, गबड़ू , सटरू, मुल्लू।
एें : (क्रमवाचक) : पाँचें , सातें , आठें , नवें , दसें ।
ए : कई एक आकारांत संज्ञाओं और विशेषणों में यह प्रत्यय लगाने से अव्यय बनते हैं , जिनका प्रयोग संबंधसूचक अथवा क्रियाविशेषण के समान होता है जैसे : सामना : सामने ; धीरा : धीरे ; बदला : बदले
लेखा : लेखे ; तड़का : तड़के ; जैसा : जैसे
पीछा : पीछे
एर : मूँड़ : मुड़ेर , अंध : अँधेर।
एरा : ( व्यापारवाचक) : साँप : सपेरा , काँसा : कसेरा , चित्र : चितेरा , लाख : लखेरा ।
(हिंदी व्याकरण / 305)
(गुणवाचक) : बहुत-बहुतेरा, घन : घनेरा।
(भाववाचक) : अंध, अँधेरा।
(संबंधवाचक) : काका : ककेरा मामा : ममेरा
फूफा : फुफेरा चाचा : चचेरा
मासा : मासेरा।
एड़ी : (कर्तृवाचक) : भाँग : भँगेड़ी , गाँजा : गँजेड़ी ।
एली : हाथ : हथेली ।
एल : ( विविध ) : फूल : फुलेल, नाक : नकेल।
एेत : ( व्यवसायवाचक) : लट्ठ : लठैत ; बरछा : बरछैत
बरद (बिरद) : बरदैत (गवैया)
भाला : भालैत
कड़खा : कड़खैत ; नाता : नतैत
दंगा : दंगैत ; डाका : डकैत
एेल : (गुण वाचक) : खपरा : खपरैल दूध : दूधैल
दाँत : दँतैल ; तोंद : तोंदैल
एला : ( विविध ) :
बाघ : बघेला ; एक : अकेला , मोर : मुरेला
आधा : अधेला ; सात : सातेला
एेला : (गुणवाचक) : बन : बनैला , धूम : धूमैला , मूँछ : मुँछैला।
ओं : साकल्य और बहुत के अर्थ में जैसे : दोनों , चारों , सैकड़ों , लाखों ।
आेट, आेटा : लंग : लंगोट, चाम : चमोटा।
आैटी : हाथ : हथौटी , सच : सचौटी , अक्षर : अछरौटी, चूना : चुनौटी।
आैड़ा : (आैड़ी ) : हाथ : हथौ ड़ा , बरस : बरसौड़ी ।
आैती : (भाववाचक) : बाप : बपौती , बूढ़ा : बुढ़ौती।
आैता : (पात्र के अर्थ में ) : काठ : कठौता , काजर : कजरौटा।
ओला (ऊनवाचक) : साँप : सँपोला ; खाट : खटोला
बात : बतोला ; माँझ : मँझोला
घड़ा : घड़ोला ; गढ़ : गढ़ोला
(306 / हिंदी व्याकरण)
आैटा : (उसका बच्चा ) : हिरन : हिरनौटा , बिल्ली : बिलौटा , पहिला : पहिलौटा।
क : (अ) अव्यय से नाम जैसे : धड़ : धड़क, भड़ : भड़क, धम : धमक।
(आ) समुदायवाचक : चौक, पंचक, सप्तक अष्टक।
(इ) स्वार्थक : ठंढ : ठंढक, ढोल : ढोलक, कहुँ : कहुँक (कविता में )।
कर, करके : इसे कुछ शब्दों में लगाने से क्रियाविशेषण बनते हैं जैसे : खास : खासकर, विशेष : विशेषकर, बहु त करके, क्यों कर।
का (स्वार्थ में) छोटा : छुटका ; बड़ा : बड़का ; चुप : चुपका
छाप : छपका ; बूँद : बुँदका
(समुदायवाचक) : इक्का, दुक्का, चौका।
की : (ऊनवाचक) : कन : कनकी , टमि : टमकी ।
चंद : विनोद अथवा आदर में संज्ञाओं के साथ आता है जैसे : गीदड़चंद मूसलचंद, वामनचंद।
जा : भाई अथवा बहिन का बेटा जैसे : भतीजा, भानजा।
(क्रमवाचक) दूजा, तीजा।
जी : आदरार्थ जैसे : गुरु जी, पंडित जी, बाबा जी।
टा, टी - (ऊनवाचक) :
रोंआँ : रोंगटा ; काला : कलूटा
चोर : चोट्टा ; बहू : बहूटी
ठो : संख्यावाचक शब्दों के साथ अनिश्चय में जैसे : दो ठो, चार ठो, दस ठो, इत्यादि।
ड़ा ड़ी : (ऊनवाचक) : चाम : चमड़ा ; बच्छ : बछड़ा
दुख : दुखड़ा ; मुख : मुखड़ा
टूक : टुकड़ा ; लँग : लँगड़ा
टाँग : टँगड़ी ; पलँग : पलँगड़ी
पंख : पँखड़ी ; लाड़ : लाड़ली
आँत : अँतड़ी
(स्थानवाचक)- आगा : अगाड़ी, पीछा : पिछाड़ी ।
त : ( भाववाचक) : चाह : चाहत, रंग : रंगत, मेल : मिल्लत।
ता : (विविध) : पाँयता, रायता (राई से बना)।
ती : (भाववाचक) : कम : कमती। यह प्रत्यय यहाँ फारसी शब्द में लगा है और इस यौगिक शब्द का उपयोग कभी : कभी विशेषण के समान भी होता है।
(हिंदी व्याकरण / 307)
तना : यह, वह, जो और कौन के परे परिमाण के अर्थ में जैसे : इतना, उतना, जितना, कितना।
था : चार और छह से परे संख्यावाचक क्रम के अर्थ में जैसे : चौथा, छह, से छठा।
नी : (विविध अर्थ में ) : चाँद : चाँदनी , पाँव : पैजनी , नथ : नथनी।
पन : ( भाववाचक) : काला : कालापन ; लड़का : लड़कपन
बाल : बालपन ; गँवार : गँवारपन
पागल : पागलपन
पा : (भाववाचक) : बूढ़ा : बुढ़ापा , राँड़ : रँड़ापा , बहिन : बहिनापा , मोटा : मोटापा।
ब : यह, वह जो और कौन के परे काल के अर्थ में जैसे : अब, तब, जब, कब।
भगवान् : आदर अथवा विनोद में जैसे : वेद भगवान्, बंदर भगवान् (विचित्र॰)।
राम : कुछ शब्दों में आदर के लिए और कुछ में निरादर अथवा विनोद के लिए जोड़ा जाता है जैसे : माताराम पिताराम, दूतराम, मेंढकराम, गीदड़राम।
री : (ऊनवाचक) : कोठा : कोठरी , छत्ता : छतरी , बाँस : बाँसुरी , मोट : मोटरी ।
ला : ( गुणवाचक) : आग : अगला ; पीछे : पिछला
माँझ : मँझला ; धुंध : धुंधला
लाड़ : लाड़ला ; बाव : बावला
ली : (ऊनवाचक) : टीका : टिकली , सूप : सुपली , खाज : खुजली , घंटा : घंटाली , डफ : डफली ।
ल : ( विविध ) : घाव : घायल, पाँव : पायल।
यों : यह, वह, जो और कौन के परे प्रकार के अर्थ में जैसे : यों , त्यों , ज्यों , क्यों ।
वंत : (गुण अर्थ में ) : दया : दयावंत, धन : धनवंत, गुण : गुणवंत, शील : शीलवंत।
वाल : यह प्रत्यय 'वाला' का शेष है जैसे : गया : गयावाल ; प्रयाग : प्रयागवाल
पल्ली : पल्लीवाल ; कोत (कोट) : कोतवाल
वाला : कर्तृवाचक अर्थ में
टोपी : टोपीवाला ; गाड़ी : गाड़ीवाला
धन : धनवाला ; काम : कामवाला
वाँ : (क्रमवाचक) : पाँचवाँ, सातवाँ, नवाँ, दसवाँ, सौवाँ।
(308 / हिंदी व्याकरण)
वा : (ऊन वा चक) : बेटा : बेटवा ; बच्छा : बछवा
बच्चा : बचवा ; पुर : पुरवा
(सू॰ : यह प्रत्यय प्रांतिक है।)
स : ( भाववाचक) : आप : आपस, घाम : घमस।
(क्रमवाचक) : ग्यारह : ग्यारस, बारह : बारस, तेरस , चौदस।
सा : (प्रकारवाचक) यह, वह, सो, जो, कौन के साथ जैसे : एेसा, वैसा, कैसा, जैसा, तैसा।
(ऊनवाचक) : लालसा, अच्छासा, उड़तासा, एकसा, भरासा, ऊँचासा (परिमाणवाचक), थोड़ासा, बहुतसा, छोटासा।
(सू॰ : इस प्रत्यय का प्रयोग कभी-कभी संबंधसूचक के समान होता है (दे॰ अंक : 242)।
सरा : (क्रमवाचक) : दूसरा , तीसरा।
सों : (पूर्व दिनवाचक) : परसों , नरसों ।
हर : (घर के अर्थ में ) : खंडहर, पीहर, नैहर, कठहरा।
हरा : (परत के अर्थ में ) : इकहरा, दुहरा, तिहरा, चौहरा।
(विभिन्न अर्थ में ) : ककहरा।
(गुणवाचक) : सोना : सुनहरा , रूपा : रुपहरा।
हा : (गुणवाचक) : हल : हलवाहा , पानी : पनिहा , कबीर : कबिराहा।
हारा : यह प्रत्यय 'वाला' का पर्यायी है, परंतु इसका उपयोग उसकी अपेक्षा कम होता है जैसे : लकड़ी : लकड़हारा, चुड़िहारा, मनिहारा।
ही : (निश्चयवाचक) : कई एक सर्वनामों और क्रियाविशेषणों में यह प्रत्यय ई होकर मिल जाता है जैसे : आजही, सभी, मैं ही, तुम्हीं, उसी, वही, कभी, किसी, यही।
नगर, पुर, गढ़, गाँव, नेर, मेर, वाड़ा, कोट आदि प्रत्यय स्थानों का नाम सूचित करते हैं जैसे : रामनगर शिवपुर, देवगढ़, चिरगाँव, बीकानेर, अजमेर, रजवाड़ा, नगरकोट।
पाँचवाँ अध्याय (उर्दू प्रत्यय) संपादित करें
उर्दू प्रत्यय
437. संस्कृत और हिंदी के समान उर्दू यौगिक शब्द भी कृदंत और तद्धित के भेद से दो प्रकार के होते हैं। ये शब्द मुख्य करके दो भाषाओं अर्थात् फारसी और अरबी के हैं, इसलिए इनका विवेचन अलग-अलग किया जाता है।
(हिंदी व्याकरण / 309)
फारसी प्रत्यय संपादित करें
फारसी कृदंत संपादित करें
अ : ( भाववाचक) :
आमद (आया) : आमद (अवाई)
खरीद (खरीदा) : खरीद (क्रय)
बरदाश्त (सहा) : बरदाश्त (सहन)
दरख्वास्त (माँगा) : दरख्वास्त (प्रार्थना)
रसीद (पहुँचा ) : रसीद (पहुँच), रसद
आ : (कर्तृवाचक) :
दान (जानना) : दाना (जाननेवाला, चतुर), रिह (छूटना) : रिहा (छूटनेवाला, मुक्त)।
आन (आँ) (वर्तमानकालिक कृदंत) : पुर्स (पूछना) : पुर्सा (पूछता हुआ), चस्प (चिपकना) : चस्पाँ (चिपकता) हुआ)।
इंदा (कर्तृवाचक) :
कुन (करना) : कुनिंदा (करनेवाला), जी (जीना) : जिंदा (जीतनेवाला, जीता) बाश (रहना) : बाशिंदा, परिंदा, (उड़नेवाला, पक्षी)।
(सू॰ : हिंदी क्रिया 'चुनना' के साथ यह प्रत्यय लगाने से चुनिंदा शब्द बना है पर यह अशुद्ध है।)
इश (भाववाचक) :
परवर (पालना) : परवरिश, कोश (उपाय करना) : कोशिश, नाल (रोना) नालिश, माल (मलना) : मालिश, फरमाय (आज्ञा देना) : फरमाइश।
ई : ( भाववाचक) :
रफतन (जाना) : रफतनी, आमदन (आना) : आमदनी।
ह : ( भूतकालिक कृदंत) :
शुद (हुआ) : शुदह, मुर्द (मरा) : मुर्दह, दाश्त (रक्खा) : दाश्तह (रखी हुई स्त्र)।
फारसी तद्धित संपादित करें
संज्ञाएँ संपादित करें
आ : इस प्रत्यय के द्वारा कुछ विशेषणों की भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : गरम : गरमा , सफेद : सफेदा , ख राब : खरा बा।
आनह (आना) : (रुपये के अर्थ में ) :
जुर्म : जुर्माना ; तलब : तलबाना
नजर : नजराना ; हर्ज : हर्जाना
बय (बिक्री) : बयाना ; मिहनत : मिहनताना (विविध अर्थ में ) :
दस्त : दस्ताना (हाथ का मोजा)
ई : विशेषणों में यह प्रत्यय लगाने से भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : खुश : खुशी ; सियाह : सियाही (कालापन, मसी) ; नेक : नेकी ; बद : बदी
(अ) इसी प्रत्यय के द्वारा संज्ञाओं से अधिकार, गुण, स्थिति, अथवा मोल सूचित करनेवाली संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : नवाब : नवाबी ; फकीर : फकीरी
सौदागर : सौदागरी ; दोस्त : दोस्ती
दुश्मन : दुश्मनी ; दलाल : दलाली
मंजूर : मंजूरी ; दुकानदार : दुकानदारी
(आ) शब्दांत का 'ह' बदलकर 'ग' हो जाता है जैसे :
बंदह : बंदगी ; जिंदह : जिंदगी
रवानह : रवानगी ; परवानह : परवानगी
(इ) ज्यादह : ज्यादती।
क (ऊनवाचक) जैसे : ताप : तुपक
कार : इससे कर्तृवाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : पेश (सामने), पेशकार (सहायक), बद (बुरा) : बदकार (दुष्ट) काश्त (खेती) : काश्तकार (किसान) सलाह : सलाहकार।
(सू॰ : हिंदी 'जानकार' में यही प्रत्यय जान पड़ता है।)
गर : (कर्तृवाचक) जैसे :
सौदा : सौदागर ; जिल्द : जिल्दगर
कार : कारीगर ; कलई : कलईगर
जीन : जीनगर
गार : (कर्तृवाचक) मदद : मददगार ; याद : यादगार
खिदमत : खिदमतगार ; गुनाह : गुनाहगार
चा अथवा इचा (ऊनवाचक) : बाग : बागचा अथवा बागीचा (हिंदी : बगीचा)
गाली (कालीन-शतरंजी) : गालीचा (हिं॰ : गलीचा)
देग (हिं॰ : डेग) : देगचा (बटलोई), चमचा।
दान (पात्रवाचक)। कमल : कमलदान, शमअ (मोमबत्ती) : शमअदान। इत्रदान, नाबदान, खानदान।
(हिंदी व्याकरण / 311)
(सू॰ : यह प्रत्यय हिंदी शब्दों में भी लगाया जाता है और इसका रूप बहुधा दानी हो जाता है जैसे : पानदान, पीकदान (पीकदानी), चायदान, मच्छरदानी, गों ददानी, उगलदान।)
बान (कर्तृवाचक) : बाग : बागबान ; दर (द्वार) : दरबान
मिहर (दया) मिहरबान, मेजबान (पाहुने का सत्कार करनेवाला)।
(सू॰ : हिंदी शब्दों में भी यह प्रत्यय लगता है, पर इसका रूप संस्कृत के अनुकरण पर वान हो जाता है, जैसे : गाड़ीवान, हाथीवान।)
ह (विविध अर्थ में ) :
हफ्त (सात) हफ्तह (सप्ताह)
चश्म (आँख) : चश्मह ; दस्क (हाथ) : दस्तह (मूठ)
पेश (सामने) : पेशह ; रोज : रोजह (उपास)
(सू॰ : हिंदी में ह के स्थान में बहुधा आ हो जाता है जैसे : हफ्ता, पेशा।)
438. (क) नीचे लिखे शब्दों का उपयोग बहुधा प्रत्ययों के समान होता है।
नामा (चिट्ठी) : इकरारनामा, सरनामा, मुख्तारनामा।
आब (पानी) : गुलाब, गिलाब, (गिल मिट्टी), शराब।
विशेषण संपादित करें
आनह (आना) रोज : रोजाना
साल : सालाना जन : जनाना
मर्द : मदार्ना ; 'व्यापाराना' अशुद्ध प्रयोग है।
शाह : शाहाना
इंदा :
शर्म : शर्मिंदा ; कार : कारिंदा
आवर : जोरावर ; दिलावर (साहसी) ; बख्तावर(भाग्यवान) ; दस्तावर (रेचक)
नाक : दर्द : दर्दनाक ; खौफ : खौफनाक
ई : ईरानी, खूनी, देहाती, खाकी, आसमानी
ईन : रंगीन शौकीन नमकीन संग (पत्थर) : संगीन (भारी)
पोस्त (चमड़ा ) : पोस्तीन
मंद : अक्लमंद ; दौलतमंद दानिश (ज्ञान) : दानिशमंद
वार : उम्मीदवार (हिं॰ : उम्मेदवार), माहवार, तफसीलवार, तारीखवार।
वर : जानवर ; नामवर ; ताकतवर ; हिम्मतवर
ईना कम : कमीना ; माह (चंद्रमा) : महीना पश्म : पश्मीना (ऊनी कपड़ा)
जादह : (उत्पन्न हुआ) : शाहजादा, हरामजादा।
438. संज्ञाओं में कुछ कृदंत जोड़ने से दूसरी संज्ञाएँ और विशेषण बनते हैं। ये यथार्थ में समास हैं, पर सुभीते के कारण यहाँ लिखे जाते हैं।
अंदाज (फेंकनेवाला) : बर्क (बिजली) : बर्कंदाज (सिपाही), तीर : तीरंदाज, गोला (हिं॰) : गोलंदाज, दस्तंदाज।
आवेज (लटकानेवाला) : दस्तावेज (हाथ का कागज जिससे सहारा मिलता है।)
कुन (करनेवाला) : कारकुन, नसीहतकुन।
खोर (खानेवाला) : हलालखोर (भंगी), हरामखोर, सूदखोर, चुगुलखोर।
गीर (पकड़नेवाला) : राहगीर (बटोही), जहाँगीर (जगतग्राही), दस्तगीर (सहायक)।
दान (जाननेवाला) : कारदान, कदरदान, हिसाबदान।
(सू॰ : अंतिम 'न' का उच्चारण बहुधा अनुनासिक होता है जैसे : कदरदाँ।)
दार (रखनेवाला) : जमींदार ,दूकानदार, चोबदार, तरहदार, फौजदार, मालदार
(सू॰ : यह प्रत्यय हिंदी के शब्दों में भी लगा हुआ मिलता है जैसे : चमकदार नातेदार, थानेदार, फलदार, रसदार। 'खरीदार' में 'खरीद' शब्द के 'द' का लोप होता है, पर कोई-कोई लेखक इसे भूल से 'खरीददार' लिखते हैं।
नुमा (दिखानेवाला) : कुतुबनुमा ,किबलानुमा, किश्तीनुमा, (नाव के आकार का)
नवीस (लिखनेवाला) : अरजीनवीस, स्याहनवीस, वासिलबाकीनवीस, चिटनवीस
नशीन (बैठनेवाला) : तख्तनशीन, परदानशीन
बंद (बाँधेनवाला) : नालबंद, कमरबंद, इजारबंद, बिस्तरबंद।
(सू॰ : हिंदी शब्दों में भी यह प्रत्यय पाया जाता है जैसे : हथियारबंद, गलाबंद, नाकेबंद।)
पोश (पहिननेवाला, छुपनेवाला) : जीनपोश, पापोश (जूता), सरपोश (ढक्कन), सफेदपोश (सभ्य)।
साज (बनानेवाला) : जालसाज, जीनसाज, घड़ीसाज।
(सू॰ : पिछले उदाहरण में 'घड़ी' हिंदी है।)
बर (लेनेवाला ) : पैगम (पैगाम=संदेशा) : पैगंबर (ईश्वरदूत), दिल : दिलवर (प्रेमी)।
बरदार (उठानेवाला) : हुक्काबरदार, खासबरदार, (मालिक की बंदूक ले जानेवाला)
बाज (खेलनेवाला, प्रेम करनेवाला) : दगाबाज, नशेबाज, शतरंजबाज।
(सू॰ : यह प्रत्यय बहुधा हिंदी शब्दों में लगा दिया जाता है जैसे : ठट्टेबाज, धोखेबाज, चालबाज।)
बीन (देखनेवाला) : खुर्द (छोटा) : खुर्दबीन, दूरबीन, तमाशबीन।
माल (मलनेवाला, पोंछनेवाला) : रू (मुँह) : रूमाल, दस्तमाल।
439. संज्ञाओं के नीचे लिखे शब्दों और प्रत्ययों को जोड़ने से स्थानवाचक संज्ञाएँ बनती हैं :
आबाद (बसा हुआ) : हैदराबाद इलाहाबाद अहमदाबाद शाहजहाँनाबाद
खाना (स्थान) : कारखाना दौलतखाना कैदखाना गाड़ीखाना दवाखाना
गाह : ईदगाह, शिकारगाह, बंदरगाह, चरागाह, दरगाह।
इस्तान : अरबिस्तान अफगानिस्तान तुर्किस्तान हिंदुस्तान कब्रिस्तान
(सू॰ : फारसी का 'इस्तान' प्रत्यय रूप और अर्थ में संस्कृत के 'स्थान' शब्द के सदृश होने के कारण हिंदी शब्द के साथ बहुधा 'स्थान' ही का प्रयोग करते हैं जैसे : हिंदुस्तान, राजस्थान।)
शन : गुलशन (बाग)
जार : गुलजार (पुष्पस्थान)। हिंदी में गुलजार शब्द का अर्थ बहुधा 'रमणीय होता है।) बाजार (अबा=भोजन।)
बार : दरबार, जंगवार (जंजीबार)।
सार : शर्मसार, खाकसार (खाक =धूल)।
(सू॰ : फारसी समासों के उदाहरण आगे समास प्रकरण में दिए जायँगे।)
अरबी प्रत्यय संपादित करें
अरबी कृदंत संपादित करें
440. अरबी के प्रायः सभी शब्द किसी न किसी धातु से बने हुए होते हैं और अधिकांश धातु त्रवर्ण रहते हैं। कुछ धातु चार वर्णों के और कुछ पाँच वर्णों के भी होते हैं। धातुओं के अक्षरों के मान (वजन) के अक्षर सब कृदंतों में पाए जाते हैं और वे मूलाक्षार कहाते हैं। इन मूलाक्षरों के सिवा कुछ और भी अक्षर कृदंतों की रचना में प्रयुक्त होते हैं जिन्हें अधिकाक्षर कहते हैं । ये अधिकाक्षर सात हैं : क, त, स, म, न, ऊ, य और इन्हें स्मरण रखने के लिए इनसे 'कतसमनूय' शब्द बना लिया गया है। एक धातु से बने हुए सभी कृदंत हिंदी में नहीं आते, और जो आते हैं, उनमें भी बहुधा उच्चारण की सुगमता के लिए रूपांतर कर लिया जाता है। अरबी में धातुओं और कृदंतों के संपूर्ण रूप वजन अर्थात् नमूने पर बनाए जाते हैं और क, अ, ल को मूलाक्षर मानकर इन्हीं से सब प्रकार से वजन बनाते हैं। जब कभी चार या पाँच मूलाक्षरों का काम पड़ता है तब ल को दो वा तीन बार काम में लाते हैं।
441. (कि) : त्रवर्ण धातु के मूल रूप से कई एक क्रियार्थक संज्ञाएँ बनती हैं । इनमें जो हिंदी में प्रचलित हैं , उनके वजन और उदाहरण नीचे दिए जाते हैं :
सं॰ वजन उदाहरण
1 फ अ् ल कत्ल=मार डालना
2 फ ि अ् ल इल्म=जानना
3 फ ु अ् ल हुक्म=आज्ञा देना
4 फ अ ल तलब=खोजना
5 फ अ् ल त रहमत=दया करना
6 फ ि अ् ल त खिदमत=सेवा करना
7 फ ु अ् ल त कुद्रत=योग्य होना
8 फ अ ल त हरकत=चलना
9 फ इ ल त सरिका=बोरी
10 फ अ् ला दअवा (दावा)=हक
11 फ अा ल सलाम=कुशल होना
12 फ ि अा ल कियाम=ठहरना
13 फुआल सुवाल=पूँ छना
14 फ ऊ ल कबूल=स्वीकार
15 फु ऊ ल जुहूर=रूप
16 फ अ् ला न दवरान=संचार
17 फ अा ल त बगावत=बलबा
18 फ ि अा ल त किताबत=लिखना
19 फ ऊ ल त जरूरत=आवश्यकता
20 म फ अ ल त मर्हमत=दया
(सू॰ : (1) एक ही धातु से ऊपर लिखे सब वजनों के शब्द व्युत्पन्न नहीं होते, किसी-किसी से दो या तीन और किसी-किसी से केवल एक ही वजन बनता है।
(2) जिन क्रियार्थक संज्ञाओं के अंत में त रहता है, वे बहुधा दूसरी क्रियार्थक संज्ञाओं में इस प्रत्यय के जोड़ने से बनती हैं जैसे : रह्म =रह्=मत।)
कृदंत विशेषण संपादित करें
441 ख॰ दूसरे मुख्य व्युत्पन्न शब्द कृदंत विशेषण हैं। अधिक प्रचलित शब्दों के वजन ये हैं :
(1) फाइल : अपूर्ण कृदंत अथवा कर्तृवाचक संज्ञा जैसे : आलिम : विद्वान् (अलम=जानना से), हाकिम=अधिकारी (हकम=न्याय करना से) गाफिल=भूलनेवाला (गफलत=भूलना से)।
( 2 ) म फ ऊ ल =भूतकालिक (कर्मवाच्य) कृदंत, जैसे : मअलूम =जाना हुआ (अलम=जानना से), मनजूर=स्वीकृत (नजर=देखना से), मशहूर=प्रसिद्ध (शहर=प्रसिद्ध करना से)।
(3) फईल=इस रूप से गुण की स्थिरता अथवा अधिकता का बोध होता है जैसे : हकी म =साधु, वैद्य (हकम=न्याय करना से), रहीम=बड़ा दयालु (रहम=दया करने से)। (सू॰ : ऊपर लिखे तीन वचनों के शब्द बहुधा संज्ञा के समान प्रयुक्त होते हैं ।)
(4) फऊल : इसका अर्थ तीसरे रूप के समान है जैसे : गफूर =अधिक क्षमाशील (गफज़=क्षमा करने से), जरूर=आवश्यक (जर्र=सताना से)।
(5) अफ्अल : इस वजन परि त्रवर्ण कृदंत विशेषण से उत्कर्षबोधक विशेषण बनते हैं जैसे : अकबर =बहुत बड़ा (कबीर=बड़ा से), अहमद=परम प्रशंसनीय (हमीद=प्रशंसनीय से)।
(6) फअ्आल : इस नमूने पर व्यापार की कर्तृवाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : जल्लाद (जलद=कोड़ा मारना ) , सरार्फ (सरफ़=बदलना, हिं॰ : सराफ), बज्जाज (हिं॰ बजाज), बक्काल।
442. त्रिवर्ण धातुओं से क्रियार्थक संज्ञाओं के और भी रूप बनते हैं, जिनमें दो वा अधिक अधिकाक्षर आते हैं। मूल क्रियार्थक संज्ञाओं के अनुरूप इन क्रियार्थक संज्ञाओं से भी कर्तृवाचक और कर्मवाचक विशेषण बनते हैं। दोनों के मुख्य साँचे नीचे दिए जाते हैं।
(क) क्रियार्थक संज्ञाओं के अन्य रूप
(1) तफ्ईल : जैसे : तअलील =शिक्षा (अलम=जानना से, हिं॰ : तालीम), तहसील=प्राप्ति (हसल=पाना से)।
(2) मुफाअलत : जैसे : मुकाबला =सामना (कबल=सामने होना से) मुआमला=विषय, उद्योग (अमल=अधिकार चलाना से)।
(3) इफ्आल : जैसे : इ न्का र =नहीं (नकर=न जानना से), इनसाफ=न्याय (नसफ=न्याय करना से)
(4) तफउ्उल : जैसे : तअल्लुक =संबंध (अलक=आसरा करना से), तखल्लुम=उपनाम (खलस=रक्षित होना से), तकल्लुफ (कलफ=आदर करना से)।
(5) इफ्तिआल : जैसे : इम्तिहान =परीक्षा (महन=परीक्षा करना से), एतराज=आपत्ति (अरज=आगे रखना से), एतबार=विश्वास (अवर=विश्वास करना से)।
(6) इस्तिफ्आल : इस्तिमाल =उपयोग (अमल=काम में लाना से), इसतिमरार=स्थिरता (मर्र=होता रहना से)।
(हिंदी व्याकरण / 317)
(ख) क्रियार्थकविशेषणों के अन्य रूप
कर्तृवाचक और कर्मवाचक विशेषणों के व्यंजन नीचे लिखे जाते हैं। इनके रूपों में यह अंतर है कि पहले के अंत्याक्षर में इ और दूसरे के अंत्याक्षर में अ रहता है:
कर्तृवाचक कर्मवाचक
विशेषण का उदाहरण विशेषण का उदाहरण
वजन वजन
1 मुफइ्लइ मुअल्लिम=शिक्षक मुफअअल मुअल्लम=शिष्य ('इल्म' से)
2 मुफाइल मुहाफिज=रक्षक मुफाअल मुहाफज=रक्षित ('हिफज' से)
3 मुफ्इल मुन्सिफ=न्यायाधीश मुफ्अल मुनसफ=न्याय ('नसफ' से) पानेवाला
4 मुत्फइल मुत्वद्दिल=बदलनेवाला मुतफअअल मुतबद्दल=बदला ('बदल' से) हुआ
5 मुन्फइल मुन्सरिम=शासक मुन्फअल मुन्सरम=शासित ('सरम' से)
6 मुत्फाइल मुत्वातिर=लगातार मुत्फाअल मुत्वातर=निर्विघ्न ('वतर' से)
7 मुस्तफ्इल मुस्तकबिल=भविष्य मुस्तफ्अल मुस्तकबल=चित्र ('कबल' से)
स्थानवाचक और कालवाचक संज्ञाएँ
443. स्थानवाचक और कालवाचक संज्ञाएँ बहुधा मफ्अल या मुफइल के वजन पर होती हैं और उनके आदि में म अवश्य रहता है जैसे : मक्तब =वह स्थान जिसमें लिखना सिखाया जाता है (कतब=लिखना से) मक्तल=कतल करने की जगह (कतल=मार डालना से) मजलिस=वह स्थान जहाँ अथवा वह समय जब कई लोग बैठते हैं (जलस=बैठना से), मसजिद=पूजा की जगह (सजद=पूजा करना से), मंजिल=पड़ाव (नजल=उतरना से)।
(सू॰ : स्थानवाचक संज्ञाओं में कभी-कभी ह जोड़ दिया जाता है जैसे : मकबरह, मद्रसह।)
(318 / हिंदी व्याकरण)
अरबी तद्धित संपादित करें
आनी : इस प्रत्यय के योग से विशेषण बनते हैं जैसे : जिस्म (शरी र) : जिस्मानी (शारीरिक), रूह (आत्मा) : रूहानी (आत्मिक)। इयत : (भाववाचक) जैसे : इंसान (मनुष्य) : इंसानियत (मनुष्यत्व), कैफ (कैसे?) : कैफियत, मा (क्या?) : माहियत (मूल)। ई : ( गुण वाचक) : जैसे : इ ल् म : इ ल् मी , अर ब : अरबी , ईसा : ईस वी , इं सा न : इं सा नी । ची : इस तुर्की प्रत्यय से व्यापारवाचक संज्ञाएँ बनती हैं जैसे : मशअलची (हिं॰ : मशालची), तबलची, खजानची, बावर (विश्वास) : बावरची (रसोइया)। म : इस तुर्की प्रत्यय से कुछ स्त्रीलिंग संज्ञाएँ बनाई जाती हैं जैसे : बेग : बेगम, खान : खानम।
444. अरबी में समास के लिए दो संज्ञाओं के बीच के उल् (=का) संबंधसूचक रख देते हैं और भेद्य को भेदक के पहले लाते हैं जैसे : जलाल (प्रभुत्व) +उल्+दीन (धर्म)=जलालुद्दीन (धर्मप्रभुत्व)। इस उदाहरण में उल् का अंत्य ल् अरबी भाषा की संधि के अनुसार द् होकर 'दीन' के आद्य 'द' में मिल गया है। इसी प्रकार दार (घर)+उल्+सल्तनत (राज्य)=दारुस्सल्तनत (राजधानी) हबीब (मित्र)+उल्+अल्लाह (ईश्वर)=हबीबुल्लाह (ईश्वर : मित्र) निजामुल्मुल्क (राज्यव्यवस्थापक)। (क) वलद (अप॰ वल्द=पुत्र) दो हिंदी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के बीच में पिता पुत्र का संबंध बनाने के लिए आता है जैसे : मोहन वल्द सोहन (सोहन का पुत्र मोहन।) यह कानूनी हिंदी का एक उदाहरण है।
छठा अध्याय (समास) संपादित करें
समास
445. दो या अधिक शब्दों का परस्पर संबंध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर, उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतंत्र शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक शब्द कहते हैं और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है, वह समास कहलाता है, उदाहरण : प्रे मसागर अर्थात् प्रे म का समुद्र। इस उदाहरण में प्रेम और सागर, इन दो शब्दों का परस्पर संबंध बतानेवाले संबंध कारक के 'का' प्रत्यय का लोप होने से 'प्रेमसागर' एक स्वतंत्र शब्द बना है। इसलिए प्रेमसागर सामासिक शब्द है और इस शब्द में प्रेम और सागर, इन दो शब्दों का संयोग है। इसलिए इस संयोग को समास कहते हैं।
(हिंदी व्याकरण / 319)
समास के और उदाहरण : रसोईघर, राजकुमार, कालीमिर्च, मिठबोला। (सू॰ : यद्यपि 'समास' शब्द का मूल अर्थ वही है, जो ऊपर दिया गया है, तथापि वह सामासिक शब्द के अर्थ में भी आता है और इस पुस्तक में भी कहीं कहीं यह अर्थ लिया गया है।)
446. जब दो या अधिक शब्द इस प्रकार जोड़े जाते हैं, तब उनमें संधि के नियमों का प्रयोग होता है। संस्कृत शब्दों में संधि अवश्य होती है, पर हिंदी और दूसरी भाषाओं के शब्दों में बहुधा नहीं होती है।
उदाहरण : राम + अवतार = रामावतार, पत्र + उत्तर = पत्रत्तर, मनस् + योग = मनोयोग। वयस्+वृद्ध=वयोवृद्ध। परंतु घर+आँगन=घरआँगन, राम+आसरे=रामआसरे। बे+ईमान=बेईमान ही रहता है।
सू॰ : छोटे-छोटे और साधारण सामासिक शब्द बहुधा दूसरे से मिलाकर लिखे जाते हैं, पर बड़े-बड़े और साधारण सामासिक शब्द योजकचिह्र के द्वारा, जो अँगरेजी के 'हाइफन' का अनुकरण है, मिलाए जाते हैं जैसे : (1) रामपुर, धूपघड़ी, स्त्रशिक्षा, आसपास, रसोईघर, कैदखाना, (2) चित्र-रचना, नाटक-शाला, पथ-प्रदर्शक, सास-ससुर, भला-चंगा। कभी-कभी संस्कृत के एेसे सामासिक शब्द भी जो संधि के नियमों से मिल सकते हैं , केवल योजक (हाइफन) के द्वारा मिलाए जाते हैं जैसे : वस्त्र-आभूषण, मत-एकता, हरि-इच्छा। कविता में यह बात विशेष रूप से पाई जाती है जैसे :
'पराधीन समदीन कुमुद-मुदहीन हुए हैं
पन-उन्नति को देख शोक में लीन हुए हैं।' : ( स र ॰ )
447. सामासिक शब्दों का संबंध व्यक्त कर दिखाने की रीति को विग्रह कहते हैं। 'धनसंपन्न' समास का विग्रह 'धन से संपन्न' है, जिससे जान पड़ता है कि 'धन' और संपन्न' शब्द करण कारक के संबद्ध हैं। इसी प्रकार जातिभेद, चंद्रमुख औरि त्रभुज शब्दों का विग्रह यथाक्रम 'जाति का भेद', 'चंद्र के समान मुख' और 'तीन हैं भुजा जिसमें' हैं।
448. किसी भी सामासिक शब्द में विभक्ति लगाने का प्रयोजन हो तो उसे समास के अंतिम शब्द में जोड़ते हैं जैसे : माँ-बाप से, राजकुल में , भाई-बहनों को। (सू॰ : (1) संस्कृत में इस नियम का एक भी अपवाद नहीं है, परंतु हिंदी के किसी किसी द्वंद्व समास में उपाँत्य[२] आकारांत शब्द विकृत रूप में आता है जैसे : भले बुरे से, छोटे बड़ों ने, लड़के-बच्चे को। इस विषय का और विवेचन द्वंद्व समास के प्रकरण में मिलेगा।
(320 / हिंदी व्याकरण)
(2) हिंदी में संस्कृत सामासिक शब्दों का प्रचार साधारण है पर आजकल यह प्रचार बढ़ रहा है। दूसरी भाषाओं और विशेषकर अँगरेजी के विचारों को हिंदी में व्यक्त करने के लिए संस्कृत में सामासिक शब्दों का उपयोग करने में सुभीता है, जिससे इस प्रकार के बहुत से शब्द आजकल हिंदी में प्रयुक्त होने लगे हैं। निरे हिंदी सामासिक शब्द बहुत कम मिलते हैं और वे बहुधा दो ही शब्दों से बने रहते हैं। संस्कृत समास बहुधा लंबे होते हैं और कोई-कोई लेखक अथवा कवि आग्रहपूर्वक लंबे-लंबे समासों का उपयोग करने में अपनी कुशलता समझते हैं। 'जन मन-मंजु मुकुल-मल-हरनी' (राम॰)। हिंदी में प्रचलित एक सबसे बड़े समास का उदाहरण है पर इस प्रकार के समासों के लिए हिंदी की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। हमारी भाषा में तो दो अथवा अधिक से अधिक तीन शब्दों ही के समास उचित और मधुर जान पड़ते हैं।
449. समासों के मुख्य चार भेद हैं। जिन दो शब्दों में समास होता है, उनकी प्रधानता अथवा अप्रधानता के विभागत्व पर ये भेद किए गए हैं। जिस समास में पहला शब्द प्रायः प्रधान होता है, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं, जिस समास में दूसरा शब्द प्रधान रहता है, उसे तत्पुरुष कहते हैं। जिसमें दोनों शब्द प्रधान होते हैं, वह द्वंद्व कहलाता है और जिसमें कोई भी प्रधान नहीं होता है उसे बहुब्रीहि कहते हैं।
(इन चार मुख्य भेदों के कई उपभेद भी हैं जो न्यूनाधिक महत्त्व के हैं। इन सबका विवेचन आगे यथास्थान किया जायगा।)
अव्ययीभाव संपादित करें
450. जिस समास में पहला शब्द प्रधान होता है और जो समूचा शब्द क्रियाविशेषण अव्यय होता है, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं जैसे : यथाविधि, प्रतिदिन भरसक।
(सू॰ : संस्कृत में अव्ययीभाव समास का पहला शब्द अव्यय होता है और दूसरा शब्द संज्ञा अथवा विशेषण रहता है। पर हिंदी में इस समास के उदारहणों में पहले अव्यय के बदले बहुधा संज्ञा ही पाई जाती है। यह बात आगे अंक 452 में स्पष्ट होगी।) 451. (अ) जिन समासों में यथा (अनुसार), आ (तक), प्रति (प्रत्येक), यावत् (तक), वि (बिना) पहले आते हैं एेसे संस्कृत अव्ययीभाव समास हिंदी में बहुधा आते हैं जैसे :
यथाविधि आजन्म
यथास्थान आमरण
यथाक्रम यावज्जीवन
यथासंभव प्रतिदिन
यथाशक्ति प्रतिमान
यथासाध्य व्यर्थ
(हिंदी व्याकरण / 321)
(आ) अक्षि (नेत्र) शब्द अव्ययीभाव समास के अंत में अक्ष हो जाता है जैसे : प्रत्यक्ष (आँख के आगे), समक्ष (सामने), परोक्ष (आँख के पीछे, पीठ पीछे)।
452. हिंदी में संस्कृत पद्धति के निरे (हिंदी) अव्ययीभाव समास बहुत ही कम पाए जाते हैं। इस प्रकार के जो शब्द हिंदी में प्रचलित हैं वे तीन प्रकार के हैं। (अ) हिंदी : जैसे : निडर, निधड़क, भरपेट, भरदौड़, अनजाने। (आ) उर्दू अर्थात् फारसी अथवा अरबी : जैसे : हररोज, हरसाल, बेशक, बेफायदा, बर्जिस, बखूबी, नाहक।
(इ) मिश्रित अर्थात् भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों के मेल से बने हुए जैसे : हरघड़ी, हरदिन, बेकाम, बेखटके।
सू॰ : ऊपर के उदाहरणों में जो 'हर' शब्द आया है, वह यथार्थ में विशेषण है, इसलिए उसके योग से बने हुए शब्दों को कर्मधारय मानने का भ्रम हो सकता है। पर इन समस्त शब्दों का उपयोग क्रियाविशेषण के समान होता है इसलिए इन्हें अव्ययीभाव ही मानना चाहिए।)
453. प्रतिदिन, प्रतिवर्ष इत्यादि संस्कृत अव्ययीभाव समासों के विग्रह (उदाहरण : दिने दिने प्रतिदिनम्) पर ध्यान करने से जाना जाता है कि यद्यपि प्रति शब्द का अर्थ प्रत्येक है, तो भी वह अपनी संज्ञा की द्विरुक्ति मिटाने के लिए लाया जाता है। पर हिंदी में प्रति का उपयोग न कर अगली संज्ञा की ही द्विरुक्ति करके अव्ययीभाव समास बनाते हैं। इस समास में हिंदी का प्रथम शब्द बहुधा विकृत रूप में आता है। उदाहरण : घर घर, हाथों हाथ, पलपल, दिनों दिन, रातों रात, कोठेकोठे इत्यादि।
(अ) पुश्तानपुश्त, सालदरसाल, आदि शब्दों में दर (फारसी) और आन (सं॰ : अनु) अव्ययों का प्रयोग हुआ है। ये शब्द भी अव्ययीभाव समास के उदाहरण है।
(आ) कभी-कभी द्विरुक्त शब्दों के बीच में 'वा', 'हीं' अथवा 'आ' आता है जैसे : मनहीं मन, घरहीं घर, आपही आप, मुँ हा मुँ ह, सरासर (पूर्णतया), एकाएक।
(सू॰ : ऊपर लिखे शब्दों का उपयोग संज्ञाओं और विशेषणों के समान भी होता है जैसे : कौड़ी कौड़ी जोड़कर, उसकी नस नस में एेब भरा है, 'तिल तिल भारत भूमि जीत यवनों के कर से' (सर॰)। ये समास कर्मधारय हैं।)
454. संज्ञाओं के समान अव्ययों की द्विरुक्ति से भी अव्ययीभाव समास होता है जैसे : बीचोबीच, धड़ाधड़, पहले पहल, बराबर, धीरे धीरे।
(322 / हिंदी व्याकरण)
तत्पुरुष संपादित करें
455. जिस समय में दूसरा शब्द प्रधान होता है, उसे तत्पुरुष कहते हैं। इस समास में पहला शब्द बहुधा संज्ञा अथवा विशेषण होता है और इसके विग्रह में इस शब्द के साथ कर्ता और संबोधन कारकों को छोड़ शेष सभी कारकों की विभक्तियाँ लगती हैं ।
456. तत्पुरुष समास के मुख्य दो भेद हैं, एक व्याधिकरण तत्पुरुष और दूसरा समानाधिकरण तत्पुरुष। जिस तत्पुरुष समास के विग्रह में उसके अवयवों में भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ लगाई जाती हैं, उसे व्याधिकरण तत्पुरुष कहते हैं। व्याकरण की पुस्तकों में तत्पुरुष के नाम से जिस समास का वर्णन रहता है, वह यही व्याधिकरण तत्पुरुष है। समानाधिकरण तत्पुरुष के विग्रह में उसके दोनों शब्दों में एक ही विभक्ति लगती है। समानाधिकरण तत्पुरुष का प्रचलित नाम कर्मधारय है और यह कोई अलग समास नहीं है, किंतु तत्पुरुष केवल एक उपभेद है।
457. व्याधिकरण तत्पुरुष के प्रथम शब्द में जिस विभक्ति का लोप होता है, उसी के कारक के अनुसार इस समास का नाम[३] होता है। यह समास नीचे लिखे विभागों में विभक्त हो सकता है :
कर्म तत्पुरुष संपादित करें
(संस्कृत उदाहरण)
स्वर्गप्राप्त, जलपिपासु, आशातीत (आशा को लाँघकर गया हुआ), देशगत।
करण तत्पुरुष संपादित करें
(संस्कृत) ईश्वरदत्त, तुलसीकृत, भक्तिवश, मदांध, कष्टसाध्य, गुणहीन, शराहत, अकालपीड़ित इत्यादि। (हिंदी) मनमाना, गुणभरा, दईमारा, कपड़छन, मुँहमाँगा, दुगुना, मदमाता इत्यादि। (उर्दू) दस्तकारी, प्यादामात, हैदराबाद।
संप्रदानतत्पुरुष संपादित करें
(संस्कृत) कृष्णार्पण, देशभक्ति, बलिपशु, रणनिमंत्रण, विद्यागृह इत्यादि। (हिंदी) रसोईघर, घुड़वच, ठकुरसुहाती, रोकड़बही। (उर्दू) राहखर्च, शहरपनाह, कारवाँसराय।
अपादानतत्पुरुष संपादित करें
(संस्कृत) जन्मांध, ऋणमुक्त, पदच्युत, जातिभ्रष्ट, धर्मविमुख, भवतारण इत्यादि। (हिंदी) देशनिकाला, गुरुभाई, कामचोर, नामसाख इत्यादि। (उर्दू) शाहजादह।
संबंध तत्पुरुष संपादित करें
(संस्कृत) राजपुत्र, प्रजापति, देवालय, नरेश, पराधीन, विद्याभ्यास, सेनानायक, लक्ष्मीपति, पितृगृह इत्यादि।
(हिंदी) बनमानुष, घुड़दौड़, बैलगाड़ी, राजपूत, लखपती, पनचक्की, रामकहानी, मृगछौना, राजदरबार, रेतघड़ी, अमचूर इत्यादि।
(हिंदी व्याकरण / 323)
(उर्दू) हुक्मनामा, बंदरगाह, नूरजहाँ, शकरपारा। (शक्कर का टुकड़ा = मेवा, पकवान)।
(सू॰ : षष्ठी तत्पुरुष के उदाहरण प्रायः सभी भाषाओं में मिलते हैं । अधिकांश व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ इसी समास से बनती हैं।)
अधिकरणतत्पुरुष संपादित करें
(संस्कृत) ग्रामवास, गृहस्थ, निशाचर, कलाप्रवीण, कविश्रेष्ठ, गृहप्रवेश, वचनचातुरी, जलज, दानवीर, कूपमंडूक, खग, देशाटन, प्रेममगन।
(हिंदी) मनमौजी, आपबीती, कानाफूसी इत्यादि।
(उर्दू) हरफनमौला।
(सू॰ : इन सब प्रकार के उदाहरणों में विभक्तियों के संबंध में मतभेद होने की संभावना है, पर वह विशेष महत्त्व का नहीं है। जब तक इस विषय में संदेह है कि ऊपर के सब उदाहरण तत्पुरुष के हैं, तब तक यह बात अप्रधान है कि कोई एक तत्पुरुष, इस कारक का है या उस कारक का। 'वचनचातुरी' शब्द अधिकरणतत्पुरुष का उदाहरण है, परंतु यदि कोई इसका विग्रह 'वचन की चातुरी' करके इसे संबंधतत्पुरुष माने, तो इस (हिंदी) के विग्रह के अनुसार उस शब्द को संबंधतत्पुरुष मानना अशुद्ध नहीं है। कोई एक तत्पुरुष समास किस कारक का है, इसका निर्णय उस समास के योग्य विग्रह पर अवलंबित है।)
458. जिस व्यधिकरण तत्पुरुष समास में पहले पद की विभक्ति का लोप नहीं होता, उसे अलुक् समास कहते हैं जैसे : मनसिज, युधिष्ठिर, खेचर, वाचस्पति, कर्तरिप्रयोग, आत्मनेपद।
(हिंदी) ऊटपटाँग (यह शब्द बहुधा बहुब्रीहि में आता है), चूहेमार।
(क) 'दीनानाथ' शब्द व्याकरण की दृष्टि से विचारणीय है। यह शब्द यथार्थ में 'दीननाथ' होना चाहिए पर 'दीन' शब्द के 'न' को दीर्घ बोलने (और लिखने) की रूढ़ि चल पड़ी है। इस दीर्घ आ की योजना का यथार्थ कारण विदित नहीं हुआ है, पर संभव है कि दो ह्रस्व 'न' अक्षरों का उच्चारण एक साथ करने की कठिनाइयों से पूर्व 'न' दीर्घ कर दिया गया हो। 'दीनानाथ' समास अवश्य है और उसे संबंध तत्पुरुष ही मानना ठीक होगा। किसी वैयाकरण के मतानुसार यह शब्द दीन+नाथ के योग से बना है।
459. जब तत्पुरुष समास का दूसरा पद एेसा कृदंत होता है, जिसका स्वतंत्र उपयोग नहीं हो सकता तब उस समास को उपपद समास कहते हैं जैसे : ग्रं थकार, तटस्थ, जलद, उरग, कृतघ्न, नृप। जलधर, पापहर, जलचर आदि उपपद समास नहीं हैं, क्योंकि इनमें जो धर, हर और चर कृदंत हैं, उनका प्रयोग अन्यत्र स्वतंत्रतापूर्वक होता है। ये केवल तत्पुरुष के उदाहरण हैं।
(324 / हिंदी व्याकरण)
हिंदी उपपद समासों के उदाहरण : लकड़फोड़ , तिलचट्टा , कनकटा (कान काटनेवाला), मुँहचीरा, बटमार, चिड़ीमार, पनडुब्बी, घरघुसा, घुड़चढ़ा।
उर्दू उदाहरण : गरीबनिवाज (दीनपालक), कलमतराश (कलम काटनेवाला, चाकू), चोपदार (दंडधारी), सौदागर।
(सू॰ : हिंदी में स्वतंत्र कर्मादि तत्पुरुषों की संख्या अधिक न होने के कारण बहुधा उपपद समास को इन्हीं के अंतर्गत मानते हैं।)
460. अभाव किंवा निषेध के अर्थ में शब्दों के पूर्व 'आ' वा 'अन्' लगाने से जो तत्पुरुष बनता है, उसे नञ् तत्पुरुष कहते हैं।
उदाहरण : (सं॰) अधर्म (न धर्म), अन्याय (न न्याय), अयोग्य (न योग), अनाचार (न आचार), अनिष्ट (न इष्ट)।
हिंदी : अनबन, अनबल, अनचाहा, अधूरा, अनजाना, अटूट, अनगढ़ा, अकाज, अलग, अनरीत, अनहोनी।
उर्दू: नापसंद, नालायक, नाबालिग, गैरहाजिर, गैरवाजिब। (अ) किसी-किसी स्थान में निषेधार्थी न अव्यय आता है जैसे : नक्षत्र, नास्तिक, नपुंसक।
(सू॰ : निषेध के नीचे लिखे अर्थ होते हैं :
(1) भिन्नता : अब्रा ह्मण अथा र्त् ब्राह्मण से भिन्न का ई जाति जैसे : वैश्य, शूद्र आदि।
(2) अभाव : अज्ञान अर्थात् ज्ञात का अभाव।
(3) अयोग्यता : अकाल अर्थात् अनुचित काल।
(4) विरोध : अनीति अर्थात् नीति का उलटा।)
461. जिस तत्पुरुष समास के प्रथम स्थान में उपसर्ग आता है, उसे संस्कृत व्याकरण में प्रादि समास कहते हैं।
उदाहरण : प्रतिध्वनि (समास ध्वनि), अतिक्रम (आगे जाना)। इसी प्रकार प्रतिबिंब, अतिवृष्टि, उपदेव, प्रगति, दुर्गुण।
(क) 'ई' के योग से बने हुए संस्कृत समास भी एक प्रकार के तत्पुरुष हैं जैसे : वशीकरण, फलीभूत, स्पष्टीकरण, शुचीभाव।
समानाधिकरण तत्पुरुष अर्थात् कर्मधारय संपादित करें
462. जिस तत्पुरुष समास के विग्रह में दोनों पदों के साथ एक ही (कर्ता कारक की) विभक्ति आती है, उसे समानाधिकरण तत्पुरुष अथवा कर्मधारय कहते हैं । कर्मधारय समास दो प्रकार का है :
(1) जिस समास से विशेष्य-भाव सूचित होता है, उसे विशेषतावाचक कर्मधारय कहते हैं, और
(2) जिससे उपामानोपमेय भाव जाना जाता है, उसे उपमानवाचक कर्मधारय कहते हैं।
(हिंदी व्याकरण / 325)
463. विशेषतावाचक कर्मधारय समास के नीचे लिखे सात भेद हो सकते हैं :
(1) विशेषण पूर्वपद : जिसमें प्रथम पद विशेषण होता है। संस्कृत उदाहरण : महाजन, पूर्वकाल, पीतांबर, शुभागमन, नीलकमल, सद्गुण, पूर्णेंदु, परमानंद।
हिंदी उदाहरण : नीलगाय, कालीमिर्च, मझधार, तलघर, खड़ीबोली, सुंं दरलाल, पुच्छलतारा, भलामानस, कालापानी, छुटभैया, साढ़ेतीन।
उर्दू उदाहरण : खुशबू, बदबू, जवाँमर्द, नौरोज।
(सू॰ : विशेषण पूर्ववद कर्मधारय समास के संबंध में यह कह देना आवश्यक है कि हिंदी मेंं इस समास के केवल चुने हुए उदाहरण मिलते हैं। इसका कारण यह है कि हिंदी में, संस्कृत के समान, विशेष्य के साथ विशेषणों में विभक्ति का योग नहीं होता : अर्थात् विशेषण विभक्ति त्याग कर विशेष्य में नहीं मिलता। इसलिए हिंदी में कर्मधारय समास उन्हीं विशेषणों के साथ होता है, जिनमें कुछ रूपांतर हो जाता है, अथवा जिनके कारण विशेष्य से किसी विशेष वस्तु का बोध होता है जैसे : छुटभैया, कालीमिर्च, बड़ाघर।
(2) विशेषणोत्तर पद : जिसमें दूसरा पद विशेषण होता है।
संस्कृत उदाहरण : जन्मांतर (अंतर =अन्य), पुरुषोत्तम, नराधम, मुनिवर। पिछले तीन शब्दों का विग्रह दूसरे प्रकार से करने से ये तत्पुरुष हो जाते हैं जैसे : पुरुषों में उत्तम=पुरुषोत्तम।
हिंदी उदाहरण : प्रभुदयाल, शिवदीन, रामदहिन।
(3) विशेषणोभयपद : जिसमें दोनों पद विशेषण होते हैं।
संस्कृत उदाहरण : नीलपीत, शीतोष्ण, श्यामसुं दर, शुद्धाशुद्ध, मृदुमंद।
हिंदी उदाहरण : लालपीला, भलाबुरा, ऊँचनीच, खटमिट्ठा, बड़ाछोटा, मोटाताजा।
उर्दू उदाहरण : सख्त सुस्त, नेकबद, कमबेश।
(4) विशेष्यपूर्व पद : धर्मबुद्धि (धर्म है, यह बुद्धि : धर्मविषयक बुद्धि) विंध्यपर्वत (विंध्य नामक पर्वत)।
(5) अव्ययपूर्व पद : दुर्वचन, निराश, सुयोग, कुवेश।
हिंदी उदाहरण : अधमरा, दुकाल।
(6) संख्यापूर्वपद : जिस कर्मधारय समास में पहला पद संख्यावाचक होता है और जिससे समुदाय (समाहार) का बोध होता है, उसे संख्यापूर्व कर्मधारय कहते हैं। इसी समास को संस्कृत व्याकरण में द्विगु कहते हैं।
संस्कृत उदाहरण : विभुवन (तीनों भुवनों का समाहार) त्रैलोक्य (तीनों लोकों का समाहार) : इस शब्द का रूपि त्रलोक भी होता है। चतुष्पदी (चार पदों का समुदाय), पंचवटी, त्रकाल, अष्टाध्यायी।
(326 / हिंदी व्याकरण)
हिंदी उदाहरण : पंसेरी, दोपहर, चौबोला, चौमासा, सतसई, सतनजा, चौराहा, अठवाड़ा, छदाम, चौघड़ा, दुपट्टा, दुअन्नी।
उर्दू उदाहरण : सिमाही (अप॰ : तिमाही), चहारदीवारी, शशमाही (अप॰ : छमाही)।
(7) मध्यमपदलापी : जिस समास में पहले पद का संबंध दूसरे पद से बतलानेवाला शब्द अध्याहृत रहता है, उस समास को मध्यमपदलोपी अथवा लुप्तपद समास कहते हैं। इस समास के विग्रह में समासगत दोनों पदों का संबंध स्पष्ट करने के लिए उस अध्याहृत शब्द का उल्लेख करना पड़ता है, नहीं तो विग्रह होना संभव नहीं है। इस समास में अध्याहृत पद बहुधा बीच में आता है, इसलिए इस समास को मध्यमपदलोपी कहते हैं।
संस्कृत उदाहरण : घृतान्न (घृत मिश्रित अन्न), पर्णशाला (पर्णनिर्मित शाला), छायातरु (छायाप्रधान तरु), देवब्राह्मण (देवपूजक ब्राह्मण)।
हिंदी उदाहरण : दहीबड़ा (दही में डूबा हुआ बड़ा), गुडं +बा (गुड़ में उबाला आम), गुड़धानी, तिलचावला, गोबरगनेस, जेबघड़ी, चितकबरा, पनकपड़ा, गीदड़भभकी।
464. उपमावाचक कर्मधारय के चार भेद हैं :
(1) उपमानपूर्वपद : जिस वस्तु की उपमा देते हैं, उसका वाचक शब्द जिस समास के आरंभ में आता है, उसे उपमानपूर्वपद समास कहते हैं।
उदाहरण : चंद्रमुख (चंद्र सरीखा मुख), घनश्याम (घन सरीखा श्याम) वज्रदेह, प्राणप्रिय।
(2) उपमानात्तरपद : चरणकमल, राजर्षि, पाणिपल्लव।
(3) अवधारणा पूर्वपद : जिस समास में पूर्वपद के अर्थ पर उत्तर पद का अर्थ अवलंबित होता है, उसे अवधारणापूर्वपद कर्मधारय कहते हैं जैसे : गुरुदेव (गुरु ही देव अथवा गुरुरूपी देव), कर्मबंध, पुरुषरत्न, धर्मसेतु, बुद्धिबल।
(4) अवधारणोत्तरपद : जिस समास में दूसरे पद के अर्थ पर पहले पद का अर्थ अवलंबित रहता है उसे अवधारणोत्तर पद कहते हैं जैसे : साधुसमाजप्रयाग (साधुसमाज-रूपी प्रयाग) (राम॰)। इस उदाहरण में दूसरे शब्द 'प्रयाग' के अर्थ पर प्रथम शब्द साधुसमाज का अर्थ अवलंबित है।
(सू॰ : कर्मधारय समास में वे रंगवाचक विशेषण भी आते हैं , जिनके साथ अधिकता के अर्थ में उनका समानार्थी कोई विशेषण वा संज्ञा जोड़ी जाती है जैसे : लाल, काला, भुजंग, फक उजला (दे॰ अंक 344 : ए)।
(हिंदी व्याकरण / 327)
द्वंद्व संपादित करें
465. जिस समास में सब पद अथवा उनका समाहार प्रधान रहता है उसे द्वंद्व समास कहते हैं । द्वंद्व समास तीन प्रकार का होता है :
(1) इतरेतर द्वंद्व : जिस समास के सब पद 'और' समुच्चयबोधक से जुड़े हुए हों , पर इस समुच्चयबोधक का लोप हो, उसे इतरेतर द्वंद्व कहते हैं जैसे : राधाकृष्ण, ऋषिमुनि, कंद-मूल-फल।
हिंदी उदाहरण :
गायबैल बेटाबेटी भाईबहन सुखदुःख घटीबढ़ी नाककान माँबाप दालभात दूधरोटी चिट्ठीपाती तनमनधन इकतीस तैंतालीस
(अ) इस समास में द्रव्यवाचक हिंदी समस्त संज्ञाएँ बहुधा एकवचन में आती हैं। यदि दोनों शब्द मिलकर प्रायः एकही वस्तु सूचित करते हैं, तो वे भी एकवचन में आते हैं जैसे : घीगुड़ दालरोटी दूधभात खानपान नोनमिर्च हुक्कापानी गेंदडंडा
शेष द्वंद्व समास बहुधा बहुवचन में आते हैं।
(अ) एक ही लिंग के शब्दों से बने समास का मूल लिंग रहता है परंतु भिन्न-भिन्न लिंगों के शब्दों में बहुधा पुंल्लिंग होता है और कभी-कभी अंतिम और कभी-कभी प्रथम शब्द का भी लिंग आता है जैसे गायबैल (पुं॰), नाककान (पुं॰), घीशक्कर (पुं॰), दूधरोटी (स्त्र॰), चिट्ठीपाती (स्त्र॰), भाईबहन (पुं॰), माँबाप (पुं॰)।
(सू॰ : उर्दूके आबोहवा, नामोनिशान, आमदोरफ्त आदि शब्द समास नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनमें 'आ' समुच्चयबोधक का लोप नहीं होता। हिंदी में 'ओ' का लोप कर इन शब्दों को समास बना लेते हैं जैसे : नामनिशान, आबहवा, आमदरफ्त)।
(2) समाहार द्वंद्व : जिस द्वंद्व समास से उसके पदों के अर्थ के सिवा उसी प्रकार का और भी अर्थ सूचित हो उसे समाहार द्वंद्व कहते हैं जैसे : आहारनिद्राभय (केवल आहार, निद्रा और भय ही नहीं किंतु प्राणियों के सब धर्म), सेठसाहूकार (सेठ और साहूकारों के सिवा और भी दूसरे धनी लोग) भूलचूक, हाथपाँव, दालरोटी, रुपयापैसा, देवपितर इत्यादि। हिंदी में समाहार द्वंद्व की संख्या बहुत है और उसके नीचे लिखे भेद हो सकते हैं :
(क) प्रायः एक ही अर्थ के पदों के मेल से बने हुए :
कपड़े लत्ते बासनबर्तन चालचलन मारपीट लूटमार घासफूस दियाबत्ती सागपात मंत्रजंत्र चमकदमक भलाचंगा मोटाताजा हृष्टपुष्ट कूड़ाकचरा कीलकाँटा कंकरपत्थर भूतप्रे त कामकाज बोलचाल बालबच्चा जीवजंतु
(सू॰ : इस प्रकार के सामासिक शब्दों में कभी-कभी एक शब्द हिंदी और दूसरा उर्दूरहता है जैसे : धनदौलत, जीजान, मोटाताजा, चीजवस्तु, तनबदन, कागज पत्र, रीतिरसम, बैरीदुश्मन, भाईबिरादर।
(ख) मिलते-जुलते अर्थ के पदों के मेल से बने हुए : अन्नजल आचारविचार घरद्वार पानफूल गोलाबारूद नाचरंग मोलतोल खानापीना पानतमाखू जंगलझाड़ी तीनतेरह दिनदोपहर जैसातैसा साँपबिच्छू नोनतेल
(ग) परस्पर विरुद्ध अर्थवाले पदों का मेल जैसे : आगापीछा चढ़ाउतरी लेनदेन कहासुनी
(सू॰ : इस प्रकार के कोई-कोई विशेषणोभयपद भी पाए जाते हैं । जब इनका प्रयोग संज्ञा के समान होता है, तब ये द्वंद्व होते हैं, और जब ये विशेषण के समान आते हैं , तब कर्मधारय होता है। उदाहरण : लँगड़ालूला, भूखाप्यासा, जैसातैसा, नंगाउघारा, ऊँचानीचा, भरापूरा।)
(घ) एेसे समास जिनमें एक शब्द सार्थक और दूसरा शब्द अर्थहीन, अप्रचलित अथवा पहले का समानुप्रास हो : जैसे आमनेसामने, आसपास, पड़ोसपड़ोस, बात चीत, देखभाल, दौड़धूप, भीड़भाड़, अदलाबदला, चालढाल, काटकूट।
(सू॰ : (1) अनुप्रास के लिए जो शब्द लाया जाता है, उसके आदि में दूसरे (मुख्य) शब्द का स्वर रखकर उस (मुख्य) शब्द के शेष भाग को पुनरुक्त कर देते हैं जैसे : डेरे एरे, थोड़ा ओड़ा कपड़े अपड़े । कभी कभी मुख्य शब्द के आद्य वर्ण के स्थान में स का प्रयोग करते हैं जैसे : उलटासुलटा, गँवारसँवार, मिठाई सिठाई। उर्दू में बहुधा 'व' लाते हैं जैसे : पानवान, खतवत, कागजवागज। बुं देलखंडी में बहुधा म का प्रयोग किया जाता है जैसे : पानमान, चिट्ठीमिट्ठी, पागलमागल, गाँवमाँव।
(2) कभी-कभी पूरा शब्द पुनरुक्त होता है और कभी प्रथम शब्द के अंत में आ और दूसरे शब्द के अंत में ई कर देते हैं जैसे : कामकाम, भागाभाग, देखादेखी, तड़ातड़ी, देखाभाली, टोआटाई)।
(3) वैकिल्पक द्वंद्व : जब दो पद 'वा', 'अथवा' आदि विकल्पसूचक समुच्चयबोधक के द्वारा मिले हों और उस समुच्चयबोधक का लोप हो जाय, तब उन पदों के समास को वैकल्पिक द्वंद्व कहते हैं। इस समास में बहुधा परस्परविरोधी शब्दों का, मेल होता है जैसे : जातकुजात, पापपुण्य, धर्माधर्म, ऊँचानीचा, थोड़ाबहुत, भलाबुरा।
(सू॰ : दो, तीन, नौ , दस, बीस, पचीस आदि अनिश्चित गणनावाचक सामासिक विशेषण कभी-कभी संज्ञा के समान प्रयुक्त होते हैं। उस समय उन्हें वैकल्पिक द्वंद्व कहना उचित है जैसे : मैं दो-चार को कुछ नहीं समझता।)
बहुब्रीहि संपादित करें
466. जिस समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता और जो अपने पदों से भिन्न किसी संज्ञा का विशेषण होता है, उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं जैसे : चंद्रमौलि (चंद्र है सिर पर जिसके अर्थात् शिव), अनंत (नहीं है अंत जिसका अर्थात् ईश्वर), कृतकार्य (कृत अर्थात् किया गया है काम जिसके द्वारा वह मनुष्य)।
(सू॰ : पहले कहे हुए प्रायः सभी प्रकार के समास किसी दूसरी संज्ञा के विशेषण के अर्थ में बहुब्रीहि हो जाते हैं जैसे : 'मंदमति' (कर्मधारय) विशेषण के अर्थ में बहुब्रीहि है। पहले अर्थ में 'मंदमति' केवल 'धीमी बुद्धि' वाचक है, पर, पिछले अर्थ में इस शब्द का विग्रह यों होगा : मंद है मति जिसकी वह मनुष्य। यदि 'पीतांबर' शब्द का अर्थ केवल 'पीला कपड़ा' है तो वह 'कर्मधारय' है परंतु उससे 'पीला कपड़ा है जिसका' अर्थात् 'विष्णु' का अर्थ लिया जाय तो वह बहुब्रीहि है।
467. इस समास के विग्रह में संबंधवाचक सर्वनाम के साथ कर्ता और संबोधन कारकों को छोड़कर शेष जिन कारकों की विभक्तियाँ लगती हैं, उन्हीं के नामों के अनुसार इस समास का नाम होता है जैसे :
कर्मबहुब्रीहि : इस जाति के संस्कृत समासों का प्रचार हिंदी में नहीं है और न हिंदी ही में कोई एेसा समास है। इनके संस्कृत उदाहरण ये हैं : प्राप्तोदक (प्राप्त हुआ है जल जिसको वह प्राप्तोदक ग्राम), आरूढ़वानर (आरूढ़ है वानर जिस पर वह आरूढ़वानर : वृक्ष)।
करणबहुब्रीहि : कृतकार्य (किया गया है कार्य जिसके द्वारा), दत्तचित्त (दिया है चित्त जिसने), धृतचाप, प्राप्तकाम। संप्रदानबहुब्री हि : यह समास भी हिंदी में बहुधा नहीं आता। इसके संस्कृत उदाहरण ये हैं : दत्तधन (दिया गया है धन जिसको), उपहृतपशु (भें ट में दिया गया है पशु जिसको)।
अपादानबहुब्रीहि : निर्जन (निकल गया है जनसमूह जिसमें से), निर्विकार, विमल, लुप्तपद।
संबंध बहुब्रीहि : दशानन (दस हैं मुँह जिसके), सहस्रबाहु (सहस्र हैं बाहु जिसके), पीतांबर (पीत है अंबर=कपड़ा जिसका), चतुर्भुज, नीलकंठ, चक्रपाणि, तपोधन, चंद्रमौलि, पतिव्रता।
हिंदी उदाहरण : कनफटा, दुधमुँ हा, मिठबोला, बारहसिंगा, अनमोल, हँसमुख, सिरकटा, टुटपुँजिया, बड़भागी, बहुरूपिया, मनचला, घुड़मुँहा। उर्दू उदाहरण : कमजोर, बदनसीब, खुशदिल, नेकनाम।
अधिकरणबहुब्रीहि : प्रफुल्लकमल (खिले हैं कमल जिसमें वह तालाब), इंद्रादि (इंद्र है आदि में जिनके वे देवता), स्वरांत (शब्द)।
हिंदी उदाहरण : त्रिकोन, सतखंडा, पतझड़, चौलड़ी।
(सू॰ : अधिकांश पुस्तकों और सामयिक पत्रं के नाम इसी समास में समाविष्ट होते हैं।)
468. जिस बहुब्रीहि समास के विग्रह में दोनों पदों के साथ एक ही विभक्ति आती है, उसे समानाधिकरण बहुब्रीहि कहते हैं और जिसके विग्रह में दोनों पदों के साथ भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ आती हैं, वह व्याधिकरण बहुब्रीहि कहलाता है। ऊपर के उदाहरणों में कृतकृत्य, दशानन, नीलकंठ, सिरकटा, समानाधिकरण बहुब्रीहि हैं और चंद्रमौलि, इंद्रादि, सातखंडा व्याधिकरण बहुब्रीहि हैं। नीलकंठ शब्द में 'नील' और 'कंठ' (नीला है कंठ जिसका) एक ही अर्थात् कर्ता कारक में है, और 'चंद्रमौलि' शब्द में 'चंद्र' तथा 'मौलि' (चंद्र है मौलि में जिसके) अलग-अलग, अर्थात् क्रमशः कर्ता और अधिकरण कारकों में हैं।
469. बहुब्रीहि समास के पदों के स्थान अथवा उसके अर्थ की विशेषता के आधार पर उसके नीचे लिखे भेद हो सकते हैं :
(1) विशेषणपूर्वपद : पीतांबर, मंदबुद्धि, लंबकर्ण, दीर्घबाहु।
हिंदी उदाहरण : बड़ापेट, लालकुर्त्ती, लमटंगा, लगातार, मिठबोला। उर्दू उदाहरण : साफदिल, जबरदस्त, बदरंगा।
(2) विशेषणोत्तर पद : शाकप्रिय (शाक है प्रिय जिसको), नाट्यप्रिय।
हिंदी उदाहरण : कनफटा, सिरकटा, मनचला।
(3) उपमान पूर्ववद : राजीवलोचन, चंद्रमुखी, पाषाणहृदय, वज्रदेही।
(4) विषय पूर्वपद : शिवशब्द (शिव है शब्द जिसका, वह तपस्वी), अहमभिमान (अहम् अर्थात् मैं, यह अभिमान है जिसको)।
(5) अवधारणा पूर्वपद : यशोधन (यश ही धन है जिसका), तपोबल। विद्याधन।
(6) मध्यम पद लोपी : कोकिलकंठा (कोकिल के कंठ के समान कंठ है जिसका वह स्त्री), मृगनेत्र, गजानन, अभिज्ञानशाकुंतल, मुद्राराक्षस। हिंदी उदाहरण : घुड़मुँ हा, भौं रकली (गहना), बालतोड़ (फोड़ा), हाथीपाँव (बीमारी)। उर्दूउदाहरण : गावदुम, फीलपा।
(7) नञ् बहुब्रीहि : असार (सार नहीं है जिसमें), अद्वितीय, अप्राप्य, अनाथ, अकर्मक, नाक (नहीं है अक=दुःख जिसमें वह, स्वर्ग)। हिंदी उदाहरण : अनमोल, अजान, अथाह, अचेत, अमान, अनगिनती।
(8) संख्यापूर्वपद : एकरूपि, त्रभुज, चतुष्पद, पंचानन, दशमुख। हिंदी उदाहरण : एकजी, दुनाली, चौकोन, तिमंजिला, सतलड़ी, दुसूती। उर्दू उदाहरण : सितार (तीन हैं तार जिसमें ), पंजाब, दुआब।
(हिंदी व्याकरण / 331)
(9) संख्योत्तरपद : उपदश (दश के पास है जो अर्थात् नौ वा ग्यारहि), त्रसप्त (तीन सात हैं जिसमें , वह संख्या : इक्कीस)।
(10) सह बहुब्रीहि : सपुत्र (पुत्र के साथ), सकर्मक, सदेह, सावधान, सपरिवार, सफल, सार्थक। हिंदी उदाहरण : सबेरा, सचेत, साढ़े ।
(11) दिगंतराल बहुब्रीहि : पश्चिमोत्तर (वायव्य), दक्षिण-पूर्व (आग्नेय)।
(12) व्यतिहार बहुब्रीहि : जिस समास से एक प्रकार का युद्ध दोनों दलों के समान युद्धसाधन और उनका आघात-प्रत्याघात सूचित होता है, उसे व्यतिहार बहुब्रीहि कहते हैं ।
संस्कृत उदाहरण : मुष्टामुष्टि (एक दूसरे को मुष्टि अर्थात् मुक्का मारकर किया हुआ युद्ध), हस्ताहस्ति, दंडादंडि। संस्कृत में ये समास नपुंसकलिंग, एकवचन और अव्यय रूप में आते हैं ।
हिंदी उदाहरण : लठालठी, मारामारी, बदाबदी, कहाकही, धक्काधक्की, घूसाघूसी।
(सू॰ : (क) हिंदी में ये समास स्त्रीलिंग और एकवचन में आते हैं । इसमें पहले शब्द के अंत में बहुधा 'आ' और दूसरे शब्द के अंत में 'ई' आदेश होता है। कभी-कभी पहले शब्द के अंत में 'म' और 'दूसरे' के अंत में 'आ' आता है जैसे : लट्ठमलट्ठा, धक्कमधक्का, कुश्तमकुश्ता, घुस्समघुस्सा। इस प्रकार के शब्द पुंल्लिंग, एकवचन में आते हैं।)
(ख) कभी-कभी दूसरा शब्द भिन्नार्थी, अर्थहीन अथवा समानुप्रास होता है जैसे : माराकूटी, कहासुनी, खींचातानी, एें चाखैं ची, मारामूरी। इस प्रकार के शब्द बहुधा दो कृदंतों के योग से बनते हैं।)
(13) प्रादि अथवा अव्ययपूर्व बहुब्रीहि : निर्दय (निर्गता अर्थात् गई हुई है दया जिसकी), विफल, विधवा, कुरूप, निर्धन। हिंदी उदाहरण : सुडौल, कुरंगा, रंगबिरंगा। पिछले शब्द में संज्ञा की पुनरुक्ति हुई हैं।
संस्कृत समासों के कुछ विशेष नियम संपादित करें
470. किसी-किसी बहुब्रीहि समास का उपयोग अव्ययीभाव समास के समान होता है जैसे : प्रेमपूर्वक, विनयपूर्वक, सादर, सविनय, सप्रेम।
471. तत्पुरुष समास में नीचे लिखे विशेष नियम पाए जाते हैं :
(अ) अहन् शब्द किसी-किसी समास के अंत में अह्न हो जाता हैं जैसे : पूर्वाह्र, अपराह्र, मध्याह्र।
(आ) राजन् शब्द के अंत्य व्यंजन का लोप हो जाता है जैसे : राजपुरुष, महाराज, राजकुमार, जनकराज।
(इ) इस समास में जब पहला पद सर्वनाम होता है, तब भिन्न-भिन्न सर्वनामों के विकृत रूपों का प्रयोग होता है :
हिंदी संस्कृत विकृत रूप उदाहरण
मैं अहम् मत् मत्पुत्र
हम वयम् अस्मत् अस्मत्पिता
तू त्वम् त्वत् त्वद्गृह
तुम यूयम् युष्मत् युष्मत्कुल
भवान् भवत् भवन्माया
वह, वे तद् तत् तत्काल, तद्रूप
यह, ये एतद् एतत् एतद्देशीय
जो यद् यत् यत्कृपा
(ई) कभी-कभी तत्पुरुष समास का प्रधान पद पहले ही आता है जैसे : पूर्वकाय (काया अर्थात् शरीर का पूर्व अर्थात् अगला भाग), मध्याह्र (अह्र अर्थात् दिन का मध्य), राजहंस (हंसों का राजा)।
(उ) जब अन्नंत और इन्नंत शब्द तत्पुरुष समास के प्रथम स्थान में आते हैं, तब उनके अं त्य का लोप हा ता है जैसे : आत्मबल, ब्रह्मज्ञान, हस्तिदंत, योगिराज, स्वामिभक्त।
(ऊ) विद्वान्, भगवान्, श्रीमान् इत्यादि शब्दों के मूल रूप विद्वस्, भगवत्, श्रीमत् समास में आते हैं , जैसे : विद्वज्जन, भगवद्भक्त, श्रीमद्भागवत।
(ऋ) नियमविरुद्ध शब्द : वाचस्पति, बलाहक (वारीणां वाहकः, जल का वाहक : मेघ), पिशाच (पिशिच अर्थात् मांस भक्षण करनेवाले), बृहस्पति, वनस्पति, प्रायश्चित, इत्यादि।
472. कर्मधारय समास के संबंध में नीचे लिखे नियम पाए जाते हैं :
(अ) महत् शब्द का रूप महा होता है जैसे : महाराज, महादशा, महादेव, महाकाव्य, महालक्ष्मी, महासभा। अपवाद : महदतर, महदुपकार, महत्कार्य।
(आ) अनंत शब्द के द्वितीय स्थान में आने पर अंत्य नकार का लोप हो जाता है जैसे : महाराज, महोक्ष (बड़ा बैल)।
(इ) रात्र शब्द समास के अंत में रात्र हो जाता है जैसे : पूर्वरात्र, अपरात्र, मध्यरात्र, नवरात्र।
(ई) 'कु' के बदले किसी-किसी शब्द के आरंभ में 'कत्', 'कद' और 'का' हो जाता है जैसे : कदन्न, कदुष्ण, कवोष्ण, कापुरुष।
473. बहुब्रीहि समास के विशेष नियम ये हैं :
(अ) सह और समान के स्थान में प्रायः 'स' आता है जैसे : सादर, सविनय, सवर्ण, सजात, सरूप।
(आ) अक्षि (आँख), सखि, (मित्र), नाभि, इत्यादि कुछ इकारांत शब्द समास के अंत में आकारांत हो जाते हैं जैसे : पुं डरीकाक्ष, मरुत्सख, पद्मनाभ, (पद्म है नाभि में जिसके अर्थात् विष्णु)।
(इ) किसी-किसी समास के अंत में 'क' जोड़ दिया जाता है जैसे : सपत्नीक, शिक्षाविषयक अल्पवयस्क, ईश्वरकर्तृक, सकर्मक, अकर्मक, निरर्थक। (ई) नियमविरुद्ध शब्द : द्वीप (जिसके दोनों ओर पानी है अर्थात् टापू), अंतरीप (हिंदी में : स्थल का अग्र भाग जो पानी में चला गया हो, समीप (पानी के पास, निकट), शतधन्वा, सपत्नी (समान पति है जिसका, सौत), सुगंधि, सुदंती सुंदर दाँत हैं जिसके वह स्त्र)।
474. द्वंद्व समास के कुछ विशेष नियम :
(स) कहीं-कहीं प्रथम पद के पीछे अंत में दीर्घ आ जाता है जैसे : मित्रवरुण। (आ) नियम के विरुद्ध शब्द : जायः +पति=दंपति, जंपती=जायापती, अन्य+अन्य =अन्योन्य, पर+पर=परस्पर, अहन्+रात्र=अहोरात्र।
475. यदि किसी समास के अंत में 'आ' वा 'ई' (स्त्र॰ प्रत्यय) हो और समास का अर्थ उसके अवयवों से भिन्न हो, तो उस प्रत्यय को ह्रस्व कर देते हैं जैसे : निर्लज्ज, सकरुण, लब्धप्रतिष्ठ, दृढ़प्रतिज्ञ। 'ई' के उदाहरण हिंदी में नहीं आते।
हिंदी समासों के विशेष नियम संपादित करें
476. तत्पुरुष समास में यदि प्रथम पद का आद्य स्वर दीर्घ हो, तो वह बहुधा ह्रस्व हो जाता है और यदि पद आकारांत वा ईकारांत हो, तो वह आकारांत हो जाता है जैसे : घुड़सवार, पनभरा, मुँ हचोर, कनफटा, रजवाड़ा, अमचुर, कपड़छन। अपवाद : घोड़ागाड़ी, रामकहानी, राजदरबार, सोनामाखी।
477. कर्मधारय समास में प्रथम स्थान में आनेवाले छोटा, बड़ा, लंबा, खट्टा, आधा आदि आकारांत विशेषण बहुधा अकारांत हो जाते हैं और उनका आद्य स्वर ह्रस्व हो जाता है जैसे : छुटभैया, बड़गाँव, लमडोर, खटमिट्ठा, अधपका। अपवाद : भोलानाथ, भूरामल।
(सू॰ : 'लाल' शब्द के साथ छोटा, गोरा, भूरा, नन्हा, बाँका आदि विशेषणों के अंत्य 'आ' के स्थान में 'ए' होता है जैसे : भूरेलाल, छोटेलाल, बाँकेलाल, नन्हें लाल 'काला' के बदले कालू अथवा कल्लू होता है जैसे : कालूराम, कल्लूसिंह)
478. बहुब्रीहि समास के प्रथम स्थान में आनेवाले आकारांत शब्द (संज्ञा और विशेषण) अकारांत हो जाते हैं और दूसरे शब्द के अंत में बहुधा आ जोड़ दिया जाता है। यदि दोनों पदों के आद्य स्वर दीर्घ हों, तो उन्हें बहुधा ह्रस्व कर देते हैं जैसे : दुधमुँ हा, बड़पेटा, लमकना, (चूहा), नकटा (नाक है कटी हुई जिसकी), कनफटा, टुटपुँजिया, मुछमुंडा।
अपवाद : लालकुर्ती , बड़भागी, बहुरंगी।
(सू॰ : बहुब्रीहि समासों का प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है और आकारांत शब्द पुंल्लिंग होते हैं। स्त्रीलिंग में इन शब्दों के अंत में ई वा नी कर देते हैं जैसे : दुधमुँ ही, नकटी, बड़पेटी, टुटपुँ जनी।)
479. बहुब्रीहि और दूसरे समासों में जो संख्यावाचक विशेषण आते हैं, उनका रूप बहुधा बदल जाता है, एेसे कुछ विकृत रूपों के उदाहरण ये हैं :
मूल शब्द विकृत रूप उदाहरण
दो दु दुलड़ी, दुचिता, दुगुना, दुराज, दुपट्टा।
तीन ति, तिर तिपाई, तिरसठ, तिबासी, तिखूँटी।
चार चौ चौखूँटा, चौदह, चौमासा।
पाँच पच पचमेल, पचमहला, पचलोना, पचलड़ी।
छह छ छप्पय, छटाँक, छदाम, छकड़ी।
सात सत सतनजा, सतमासा, सतखड़ा, सतसैया।
आठ अठ अठखेली, अठन्नी, अठोतर।
480. समास में बहु…
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