Friday, 31 March 2017

ब्रह्मचर्य

omsandesh Thursday, 16 June 2016 ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/परमानन्द/प्रभू साक्षात्कार के लिये ब्रह्मचर्य (वीर्यरक्षण / वेदाध्ययन (सद्ग्रंथों का अध्ययन) / ईश्वरचिन्तन या ध्यान) अनिवार्य शर्त है। आरती ऊँ जय जगदीश हरे की प्रश्न स्वरूप पंक्ति किस विधि मिलूं दयामय भी इसकी पुष्टि करती है, जिसका उत्तर भी उसी में बताया गया है विषय-विकार (इन्द्रियों के भोग व काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) मिटाओ पाप हरो देवा। अर्थात् मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण के लिये विषय-विकार से मुक्त होना व निष्पाप होना अनिवार्य शर्त है। इतिहास साक्षी है कि जिसने ब्रहचर्य का पालन किया है तथा जो विषय-विकार से दूर रहता हुआ निष्पाप रहा है उसने ही उस परमानन्द/मोक्ष को प्राप्त कर जन्म-मरण से मुक्ति पायी हैः- जैसे कि शंकराचार्यजी, भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द, राम कृष्ण परमहंस जी, स्वामी विवेकानन्द, जैमल सिंह जी आदि (ये सभी आत्मायें विषय-विकार से दूर थीं तथा निष्पाप थीं) अथार्त जो विषय-विकार व पाप में लिप्त है वह ब्रह्मचारी हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिस समय वह विषय-विकार व पाप से ग्रस्त होगा उस समय वह ब्रह्म से दूर होगा या उसे भूला होगा। ब्रह्मचर्य दो शब्दों ब्रह्म व चर्य के योग से बना है, ब्रह्म के भिन्न-भिन्न स्थानों पर अनेक अर्थ होते हैं जैसे ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म, गुरू, सुख, सत्य, ज्ञान चर्य का अर्थ चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन, सेवा, ध्येय, साधना और कार्य आदि ब्रह्मचर्य की महिमा ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां, वीर्य लाभो भवत्यपि, सुरत्वं मानवो याति, चान्ते याति परां गतिम्। भावार्थः ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है, ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले मनुष्य को दिव्यता प्राप्त होती है और साधना पूरी होने पर परमगति (मोक्ष) भी उसे मिलती है। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से करोड़ों ऋषि ब्रह्मलोक में वास करते हैं। हेमचन्द सूरि जी का कथन है किः- जो लोग विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वे दीर्घायु, सुन्दर शरीर, दृढ़ कर्तव्य, तेजस्वितापूर्ण और बड़े पराक्रमी होते हैं। ब्रहर्मचर्य सच्चरित्रता का प्राण-स्वरूप है, इसका पालन करता हुआ मनुष्य, सुपूजित लोगो में भी पूजा जाता है। धन्वन्तरि जी का कथन है किः- मैं इस बात को तुम लोगों से सत्य-सत्य कहता हूं कि मरण रोग तथा वृद्धता का नाश करने वाला अमृत रूप और बहुत बड़ा उपचार मेरे विचार से ब्रह्मचर्य है। जे शान्ति, सुन्दरता, स्मृति, ज्ञान, स्वास्थ्य और उत्तम सन्तति चाहता है, वह संसार में सर्वोत्तम धर्म ब्रह्मचर्य का पालन करें (अर्थात् जैस कि श्री कृष्ण जी ने उत्तम सन्तान की उत्पत्ति हेतु 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण किया था, यानी कि केवल सन्तान उत्पत्ति हेतु ब्रहचर्य का खंडन भी ब्रह्मचर्य का खंडन नहीं है)। ब्रह्मचर्य से सब प्रकार का अशुभ नष्ट हो जाता है। तद्य एवैतं ब्रह्मलोकं, ब्रह्मचर्यणानुविन्दते, तेषामेवेष, ब्रह्मलोकस्तेषाः सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति - छान्दोग्यापनिषद भावार्थः ब्रह्मचर्य से ही ’ब्रह्मलोक मिलता है। ब्रह्मचारियों का ही ब्रह्मलोक पर अधिकार है अन्य का नहीं। जो ब्रह्मचर्य युक्त पुरूष हैं वे सभी लोको में विचरण कर सकते हैं। जैसा कि उपनिषद में कहा गया है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में वहीं इस पिण्ड अर्थात शरीर में भी है। अतः ब्रह्मलोक सब लोको मे श्रेष्ठ है वह इस पिण्ड में सबसे उपर मस्तिष्क में है, प्राणों के वहां पहुंचने से जीव का मोक्ष होता है। उसे फिर दुखों से मुक्ति मिल जाती है, इसलिये ब्रह्मलोक का आशय है, परमानन्द। ब्रह्मचर्य से ही आत्मज्ञान प्राप्त होता है, आत्म ज्ञान के पश्चात् ही परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है। ब्रह्मर्चेण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत - अथर्ववेद ब्रह्मचर्य रूपी तप से देवों को अमरता प्राप्त हुई। अथर्ववेद में कहा गया है किः - आचार्या ब्रह्मचर्येण, ब्रह्मचारिणमिच्छते। अर्थात् जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है ऐसा गुरू ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले शिष्यों का हित कर सकता है कामी गुरू नहीं जैसा कि कबीर जी ने कहा है कि कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति ना होय, भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोई। जैसा कि रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा है जहां काम है वहां राम नहीं। अर्थात् ब्रह्चर्य का पालन करने अथवा पालन करने का अभ्यास करने वाले शिष्यों को ही मंजिल प्राप्त हो सकती है अन्यों को नहीं। प्रश्नोपनिषद में एक कथा है कि कबन्धी और कात्यायन ब्रह्मज्ञान की शिक्षा के लिये ऋषिवर पिप्पलाद के आश्रम में गये और उनसे ब्रह्मज्ञान देने के लिये निवेदन किया। पिप्पलाद ने कहा कि आप दोनों एक वर्ष तक नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए हमारे पास रहें, उसके पश्चात् जो प्रश्न चाहोगे पूछ लेना हम भी यथाशक्ति तुम लोगो को समझायेंगे। अर्थात गुरू से आत्म/ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य आवश्यक है। भगवान शंकर का वचन - न तपस्तप इन्याहुर्बह्मचर्य तपोत्तमम्। उर्ध्वरेता भवेद्यस्तु से देवो न तु मानुषः।। तप कुछ भी नहीं है, ब्रहचर्य ही उत्तम तप है, जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया है वह देव स्वरूप है, मनुष्य नहीं। एकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्य तथैकतः - छान्दोग्योपनिषद एक और चारों वेद तथा दूसरी और ब्रह्मचर्य दोनों एक तुला पर रखे जायें तो दोनो पलड़े बराबर होंगे। अर्थात् एक ब्रह्मचर्य ही चारों वेदों के बराबर है। तेषामेवैष स्वर्गलोको येषां तपो ब्रहचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठिम्। - प्रश्नोपनिषद उन्हीं जनों को स्वर्ग-सुख मिलता है, जिन्होंने ब्रह्मचर्य तप का पालन किया है और जिनके हृदय में ब्रह्मचर्य रूपी सत्य विराजमान है। ब्रह्मचर्य का पालन करना योग्य है। देवों क लिये भी ब्रह्मचर्य दुर्लभ है, वीर्य की रक्षा भली भांति होने पर सब लोको के सुखों की सिद्धियां स्वयं मिल जाती है। भीष्म पितामाह ने महाभारत में कहा है कि जो आजीवन ब्रह्मचारी रहता है, उसे इस संसार में कुछ भी दुःख नहीं होता। उसके लिये कोई भी वस्तु दुलर्भ नहीं। श्री कृष्ण जी ने कहा है कि ब्रह्मज्ञान के प्राप्त हो जाने पर मनुष्य बहुत शीघ्र ही परमानन्द का अधिकारी होता है। शंकाराचार्य जी ने कहा है कि ऋत ज्ञानान्न मुक्तिः, अर्थात् ब्रह्मज्ञान के बिना किसी की मुक्ति नहीं हो सकती शंकाराचार्य जीने कहा है कि जो विषयों में लिप्त है वह बंधा हुआ है तथा जो विषयों से अलिप्त है वह मुक्त है। वही महाशूर है, जो कामदेव के बाणों से व्यथित न हुआ हो। जो लोग अकाल मृत्यु से मरते हैं व मोक्ष के अधिकारी नहीं हाते हैं। अकाल मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक है। मनुष्य बिना ब्रह््मचर्य धारण किये हुए कदापि पूर्ण आये वाले नहीं हो सकते - ऋग्वेद ब्रह्मचर्य का पालन ब्रह्मपद का मूल है, जो अक्षय-पुण्य को पाना चाहता है, वह निष्ठा से जीवन व्यतीत करे - देवर्षि नारद ब्रह््मचर्य से ही ब्रह्मस्वरूप के दर्शन होते हैं। है प्रभो, निष्कामता ही प्रदान कर दास को कृतार्थ करें। - मुनिवर्य भारद्वाज ब्रह्मचर्य से मनुष्य दिव्यता को प्राप्त होता है। शरीर के त्यागने पर सद्गति मिलती है- मुनीन्द्र गर्ग ब्रह्मचर्य के संरक्षण से ही मनुष्य को सब लोको में सुख देने वाली सिद्धियां प्राप्त होती है- मुनिराज अत्रि ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त होती है। - पिप्पलाद ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप है - योगिराज कृष्ण ब्रह्मचर्य के पालन से आत्मबल प्राप्त होता है - पतंजलि ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वालों को मोक्ष मिलता है- सनत्सुजातमुनि जो मनुष्य ब्रह्मचारी नहीं उसको कभी सिद्धि नहीं होती । वह जन्ममरणादि क्लेशों को बार-बार भोगता रहता है - अमृतसिद्ध ब्रह्मचर्य वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार ये 0-25 वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्रहम का अर्थ ज्ञान भी है, अतः ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना चाहिये। विद्यार्थी के लिये ज्ञान ही ब्रह्म तुल्य है, पूर्ण तन्मयता से ज्ञान की प्राप्ति करना ही उसका मुख्य उद्देश्य होता है। उसे ब्रह्म चिंतन के साथ पूर्ण लगन से अपने ज्ञान का अर्जन करना होता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से उसकी बुद्धि तीव्र होती है, उसकी स्मरण शक्ति तीव्र होती है, चहेरे पर ओज, तेज होता है। जैसा कि विवेकानन्द जी ने कहा है कि केवल 12 वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य से अद्भूत शक्ति प्राप्त होती है। ब्रह्मचारी को स्त्रीयों के रूप लावण्य का ध्यान नहीं करना चाहिये तथा उसके गुण, स्वरूप और सुख का भी वर्णन नहीं करना चाहिये, उनसे दूर रहना चाहिये उनके साथ कोई खेल आदि नहीं खेलना चाहिये उनकी और काम-दृष्टि से बार-बार नहीं देखना चाहिये, नजर जाये तो हटा लेनी चाहिये, एकान्त में किसी स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिये, उनके मोह-जाल से दूर रहना चाहिये। एक शब्द में यही है कि अपने उद्देश्य परमानन्द की प्राप्ति को पल-पल ध्यान में रखते हुए विषय-विकार से दूर रहने के अभ्यास को प्रगाढ़ करना चाहिये। ब्रह्मचर्य का अर्थ अपने खान-पान पर भी नियंत्रण करना भी है। ब्रह्मचारी माँस से, अत्यधिक खट्टे या नमकीन भोजन से और बहुत मसालेदार भोजन से भी संयम रखते हैं। गांधीजी, जो की एक जाने माने ब्रह्मचारी भी थे, ने अपने पूरे जीवनभर सादा ही भोजन किया । ब्रह्मचर्य विषय पर स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है कि ईश्वर को पाने के एकमात्र लक्ष्य के साथ, मैंने स्वयं बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया है। उससे मानो कि एक पर्दा सा मेरे मस्तिष्क से हट गया है। इसलिए मुझे अब दर्शन जैसे सूक्ष्म विषय पर भाषण देने के लिए भी ज्यादा तैयारी करना या सोचना नहीं पड़ता। मान लो कि मुझे कल व्याख्यान देना है, जो भी मुझे बोलना होगा वह मेरी आँखों के सामने कई चित्रों की तरह आज रात को गुजर जाता है और अगले दिन मैं वही सब, जो मैंने देखा था, शब्दों में व्यक्त कर देता हूँ। जो कोई भी बारह वर्ष के लिए अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करेगा, वह निश्चित रूप से इस शक्ति को पायेगा। यदि यज्ञ वेदों के कर्मकाण्ड का आधार है ता निश्चित रूप से ब्रह्मचर्य, ज्ञानकाण्ड का आधार है। संस्कृत का शब्द ब्रह्मचारी है जो कि कामजित् शब्द का पर्याय है (वह जिसका उसके कामवेग पर पूरा नियन्त्रण है)। जीवन का हमारा लक्ष्य मोक्ष है वह ब्रह्मचर्य या पूर्ण संयम के बिना कैसे पाया जा सकता है? एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का सैट देखकर उनके शिष्य ने कहा, इन सारी किताबों को एक जीवन में पढ़ना लगभग असंभव है। स्वामीजी पहले ही दस खण्ड समाप्त कर चुके थे, अतः स्वामीजी ने कहा इन दस खण्डों में से जो चाहो पूछ लो, और मैं तुम्हें सबका उत्तर दूँगा। स्वामीजी ने न सिर्फ भाव को यथावत् बताया, बल्कि हर खण्ड से चुने गये कठिन विषयों की मूल भाषा तक कई स्थानों पर दुहरा दी। शिष्य स्तब्ध हो गया, उसने किताबें एक तरफ रख दीं, यह कहते हुए कि, यह मनुष्य की शक्ति के अन्दर नहीं है! ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहं। सर्वलक्षणहीनत्वं हन्यते ब्रह्मचर्यया ॥ ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके ही मैं असाध्य को साधता हूँ। ब्रह्मचर्य से सारी लक्षणहीनताएँ (यानी व्याधियाँ, विकार तथा कमियाँ) नष्ट हो जाती हैँ। ब्रह्मचर्य के ऐसे महान् अभ्यास को कम कैसे आँक सकते हैं। यह तो दो-तीन दिन में ही अपनी महिमा चेहरे पे प्रकट करने लगता है, इस संयम के जाते ही तो तत्काल मन खुद को दुत्कारने लगता है, दरअसल हम सभी ब्रह्मचर्य में ही जीना चाहते हैं, लेकिन हम अपने हारमोनों से हारे रहते हैं और उस अच्छी अवस्था को बचाकर नहीं रख पाते जिसमें हममें उत्तम उत्साह था। श्रीमद् भागवत पुराण में ब्रह्मचर्य का बड़ा स्पष्ट प्रतिपादन है, उसके 11 वाँ स्कन्ध, 17 वें अध्याय में 25 वाँ श्लोक आता है- रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयं। अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेत् ॥ अर्थ - ब्रह्मचर्य व्रत धारे हुए व्यक्ति को चाहिये कि अपना वीर्य (रेतस) स्वयं कभी भी न गँवाए। और यदि वीर्य कभी (अपने आप) बाहर आ ही जाये तो ब्रह्मचर्य व्रतधारी को चाहिये कि वह पानी में अवगाहन करे (यानी नहाये) और थोड़ा प्राणायाम करके गायत्री मन्त्र का जाप करे। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि वपुता और धारिणी नाम की दोनों स्त्रियों में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी, अतः दोनों ने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया और अंत में उनको मोक्ष प्राप्त हुआ। कुंती व सती माद्री महाराज पाण्डू की पत्नी थीं, दोनों ही ब्रह्मचारिणी थी। दोनों ने अपने पति की रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था, लेकिन श्राप के कारण ब्रह्मचर्य के खंडन करने से महाराजा पाण्डू की मृत्यु हुई थी, अतः माद्री भी उनके साथ सती हो गई थी। सती सुकन्या ने वन में तपस्या कर महर्षि च्यवन की भ्रमवश उनकी दोनों आंखें फोड़ दी थी, अतः उनके पिता ने इसके प्रायश्चित स्वरूप सुकन्या को च्यवन की सेवा के लिये समर्पित कर दिया। सुकन्या महर्षि च्यवन की पूर्ण लग्न से सेवा करती रही। अश्विनी कुमार ने उसे अपने वश में करने के लिये बहुत से प्रलोभन दिये लेकिन सुकन्या का मन ब्रह्मचर्य से जरा भी नहीं डिगा। अतः में अश्विनी कुमार ने प्रसन्न होकर च्यवन को अपने औषधापचार से अत्यन्त सुन्दर युवक बना दिया। पत्नी के लिये पति ही ब्रह्म है, उस के साथ नियमानुकूल आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है। वेदवती ऋषिकन्या थी वह अत्यन्त सुन्दरी तथा सुशीला थी, वह पर्ण कुटी में रहते हुए निरन्तर तपस्या करती थी, उसका मन ब्रह्मचर्य के पालन से शुद्ध और दृढ़ हो गया था। एक दिन रावण उसी मार्ग से निकला और उसे देखकर उस पर मोहित हो गया, उसने उसे बहुत से प्रलोभन दिये अंत में उसे बलात् भ्रष्ट करना चाहा। उसने उसके लम्बे बालों को पकड़ कर खेंचना प्रारम्भ किया, इस पर उस तेजस्विनी ने रावण को इस प्रकार झटका दिया कि वह दूर जा गिरा। लेकिन पर-पुरूष द्वारा उसके केवल केशों को छू लेने से उसने अपने को अपवित्र मानते हुए अपना शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया। पुराणों के अनुसार उसी का सीता के रूप में जन्म हुआ था तथा वहीं रावण की मृत्यु का कारण बनती है। शंकराचार्यजी ने कुमारिल भट्ट से अवैदिक धर्म का खंडन और सनातन धर्म के मण्डन की दक्षिणा मांगी थी, जिसे उन्होंने जीवन भर पालन कर दिखलाया, जिसकी संक्षेप में कथा इस तरह से हैः- कुमारिल भट्ट जी ने गृहस्थ होते हुए भी अपना पूरा जीवन ब्रह्मचर्य में ही व्यतीत कर दिया, ऐसी महान विभूतियों को उनकी पत्नि भी ब्रह्चारिणी स्वरूप ही मिलती है। विवाहोपरान्त उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि प्रिय हम अभी गृहस्थ जीवन जीना नहीं चाहते हैं, हम पहले वेदों का भाष्य पूरा करना चाहते हैं, उसक पश्चात् ही हम इस बारे में सोच सकते हैं। उनकी पत्नी भी महान थी, उसने पति आज्ञा को दिल से स्वीकारा। भाष्य पूरा करते करते ही उनके कुछ बाल सफेद हो गये, तब उन्होंने अपनी पत्नि से किया हुआ वादा पूरा करने के लिये कहा, तब उनकी पत्नी ने कहा कि है स्वामी जब हम इतने समय तक ब्रह्मचर्य में रहें हैं तो अब क्यों अपना ब्रह्मचर्य के नियम को तोड़ें। इस पर दोनों ही ने प्रसन्न थे तथा कुमारिल भट्ट जी ने अपना शेष जीवन धर्म प्रचार में ही लगाया। उपरोक्त से स्पष्ट है कि गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है, यदि पति-पत्नि दोनों ही धार्मिक हों, अन्यथा दोनों में से कोई भी एक भ्रष्ट होगा तो ब्रह्मचर्य का पालन गृहस्थ में संभव नहीं है। ब्रह्मचर्य के बल पर ही दीर्घ आयु प्राप्त होती है, जैसे कि भीष्म पितामाह-170, महर्षि व्यास-157, वसुदेव-155, भगवान बुद्ध-140, धृतराष्ट्र-135, श्री कृष्ण-126, रामानन्द गिरी-125, महात्मा कबीर-120, गोस्वामी तुलसीदास-99, सूरदास-80, योगेश्वरानन्द जी-99 एक बहुत बडे़ वैद्य थे, उनका कहना था कि 1 वर्ष नियमित ब्रह्मचर्य (तन, मन व वाणी से) के पालन के साथ औषध सेवन से भंयकर रोग नष्ट हो सकता है, इस चिकित्सा का उन्होंने कई रोगियों पर प्रयोग किया और वे सफल निकले। वे नाड़ी से वीर्यनाशक पुरूष को जान लेते थे ऐसे व्यक्ति को व औषधि नहीं देते थे। वीर्य क्षय से धातु रोग, रक्तविकार, शिरोरोग, दृष्टिहीनता, अजीर्ण, कोष्ठबद्धता, ग्रन्थि, वात, पक्षाघात, मन्दाग्नि आदि। ब्रह्मचर्य, जैन धर्म में पवित्र रहने का गुण है । जैन मुनि और अर्यिकाओं को दीक्षा लेने के लिए कर्म, विचार और वचन में ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता । यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण का अभ्यास के लिए है । जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है । सारांश ब्रह्मचर्य के पालन से अपूर्व बल, बुद्धि, स्मृति, तेज, ओज व शक्ति आदि की प्राप्ति होती है। बौद्ध धर्म व जैन धर्म की दृष्टि से शुद्ध व पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है, जैसा कि दोनों महापुरूषों के जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह का एक भी लक्षण नहीं था, दोनों ही अत्यंत पवित्र थे। इनके अनुसार अनासक्त पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है। इसी प्रकार बहुत से अन्य धर्मों/मतों में प्रभू का ध्यान करते हुए, उसे हर पल याद रखते हुए सत्मार्ग पर चलना, विषय-विकार से मुक्त होकर निष्पाप जीवन व्यतीत करना या ऐसा जीवन व्यतीत करने का दृढ़ता से अभ्यास करना ही ब्रह्मचर्य है, क्योंकि जिस समय कोई बुरा कर्म करता है, उस समय वह प्रभू को भूला हुआ रहता है। ब्रह्मचर्य के बिना मुक्ति/मोक्ष अथवा प्रभू साक्षात्कार सम्भव नहीं है। vivek godra at 04:48 Share  No comments: Post a Comment ‹ › Home View web version About Me vivek godra  View my complete profile Powered by Blogger. 

उपनयन

 Sunday, January 13, 2008 गुरू के पास जाना ही उपनयन [जश्न-3] जनेऊ या यज्ञोपवीत संस्कार के लिए ही एक अन्य प्रचलित शब्द है उपनयन संस्कार । वास्तव में यह हिन्दुओं के सभी संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। उपनयन का अर्थ है ले जाना, निकट लाना, खोजना, काम पर लगाना वगैरह । उपनयन बना है नी धातु में उप् उपसर्ग के प्रयोग से। इस तरह जो शब्द बना वह था उपनयः जिसका मतलब हुआ उपलब्धि, खोज ,काम पर लगाना, वेदाध्यन करना, दीक्षा देना आदि। यह नी धातु वही है जिससे नेता, नेतृत्व, नेत्री, नयन ,न्याय , अभिनय आदि अनेक शब्द बने हैं जिनमे ले जाना अथवा नेतृत्व के भाव शामिल हैं। गौर करें कि उपनयन के संदर्भ में जो बार बार ले जाना , जाना, काम पर लगाना जैसे भाव सामने आ रहे हैं तो उसका वास्तविक अभिप्राय क्या है। धर्मग्रंथों मे इस शब्द का संदर्भ मूलतः विद्यारंभ से जोड़ा गया है। डॉ पाण्डुरंग वामन काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के मुताबिक इसे दो प्रकार से समझाया जा सकता है। (1) बच्चे को आचार्य के सन्निकट ले जाना (2) वह संस्कार या कृत्य जिसके जरिये बच्चा आचार्य के पास ले जाया जाए। इस संदर्भ में गौरतलब है कि पहला अर्थ आरंभिक अवस्था का है मगर जब इसे विस्तारपूर्वक किया जाने लगा तो दूसरा अर्थ ही प्रमुख हो गया इस संस्कार के बाद ही बालक या बटुक द्विज अर्थात जिसका दो बार जन्म हुआ हो, कहलाता है। । प्राचीनकाल में इसके पीछे भाव यह था कि बच्चे का भौतिक जन्म तो उसके माता-पिता से होता है परंतु सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं और नैतिक बल उसे विद्याध्यन से मिलता है जो गुरुकुल में आचार्य प्रदान करते हैं। अतः यह माना गया कि बच्चे को दूसरा जन्म उसके गुरू प्रदान करते हैं। इसलिए द्विज शब्द चलन में आया। उपनयन के लिए आदर्श उम्र पांच वर्ष व अधिकतम आयु पच्चीस वर्ष निर्धारित है। यह संस्कार अब भी समाज में प्रमुखता से होता है मगर अब इसका संबंध विद्यारंभ से बिल्कुल नहीं जोड़ा जाता। यह सिर्फ एक पारिवारिक , धार्मिक संस्कार भर रह गया है जो उत्सव यानि जश्न का निमित्त बनता है। आपकी चिट्ठी सफर के पिछले पड़ाव जनेऊ में जश्न का आनंद उल्लास( जश्न-2) पर सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, संजय, मीनाक्षी, दिलीप मंडल, और संजीव (छत्तीसगढ़िया) की चिट्ठियां मिलीं। शुभकामनाओं के लिए आप सबका एक बार फिर आभार। अजित वडनेरकर पर 11:25 PM Share  10 comments:  SanjayJanuary 14, 2008 at 12:31 AM नी से नेता... अभिनय तो अभिनेता नहीं क्‍या? हिंदी भी कितनी रहस्‍यमयी है और कई बार भरमा देती है. पर आप हैं ना भाई जी.. इसलिए कोई चिंता नहीं. यहां पढ़ने आते रहेंगे तो अपना भी उपनयन हो ही जाएगा. Reply  Dard Hindustani (पंकज अवधिया)January 14, 2008 at 12:56 AM अब आपको पढना आरम्भ कर दिया है। कभी जडी-बूटी के विषय मे भी कुछ बताये तो आपके ज्ञान का लाभ मिलेगा। आपकी तस्वीर समीर जी के साथ देखी। आपको पता है कि वे कब ब्लाग जगत मे लौटेंगे? लम्बा गोल हो गया उनका। Reply  छत्‍तीसगढिया .. Sanjeeva TiwariJanuary 14, 2008 at 7:09 AM अजीत जी कल मैनें जो बात की थी आज उसे आपने स्‍पष्‍ट किया धन्‍यवाद । वास्‍तव में आजकल के युवा इस संस्‍कार के मूल तक जाते ही नहीं जाते । यह मूलत: विद्यारंभ के पूर्व का संस्‍कार है, यही वह अवधि है जहां बालक का बल एवं उर्जा का विकास व अनुशासन का पाठ प्रारंभ होता है । हमारे यज्ञोपवीत मंत्रों में भी यह कहा गया है - यज्ञोपवीतं परमं पवीतं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्‍तात् , आयुष्‍यमग्र्यं प्रतिमुन्‍च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्‍तु तेज: । यह तंतु बालमन में इतना प्रभाव जगाता है कि वह इसे एक अनुशासनात्‍मक बंधन मानता है साथ ही इस तंतु में निहित परम शक्ति को अनुभव करता है 'ओंकाराग्नि ..... नवसु तन्‍तुषु' । संजीव Reply  दिनेशराय द्विवेदीJanuary 14, 2008 at 7:24 AM अजीत जी। आप ने इस सफर को इतना रोचक और ज्ञानवर्धक बना दिया है कि किसी दिन पढ़ने को न मिले तो लगता है आज स्नान नहीं किया। Reply  Sanjeet TripathiJanuary 14, 2008 at 2:00 PM ह्म्म! चलो जी अपन उपनयन की अधिकतम सीमा को भी पार कर चुके है! कोई लोचा नई! Reply  ज़ाकिर अली ‘रजनीश’January 14, 2008 at 2:30 PM सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक ब्लॉग के प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये जाने पर हार्दिक बधाई। Reply  इष्ट देव सांकृत्यायनJanuary 14, 2008 at 2:36 PM bahut badhiya. jari rakhie. Reply  मीनाक्षीJanuary 14, 2008 at 6:59 PM इस पोस्ट को पढ़ने के बाद अपने गुरु होने का गर्व हो रहा है... Reply  magahiJanuary 15, 2008 at 1:18 PM << यह नी धातु वही है जिससे नेता, नेतृत्व, नेत्री, नयन ,निर्देश ,न्याय , अभिनय आदि अनेक शब्द बने हैं >> निर्देश शब्द "नी" धातु से नहीं बल्कि निर् (निस्, निः) उपसर्ग सहित "दिश्" धातु से बना है । न्याय शब्द नि उपसर्ग के साथ "इ" (= जाना) धातु से बना है । --- नारायण प्रसाद Reply  अजित वडनेरकरJanuary 15, 2008 at 1:35 PM सही कहते है नारायणप्रसाद जी। असावधानीवश यह शब्द चला गया है। मैं अपनी पुरानी पोस्ट का हवाला देते हुए जल्दबाजी में इसे लिख गया। गलती के लिए क्षमा चाहता हूं। ध्यान दिलाने का शुक्रिया। Reply  ‹ › Home View web version  अजित वडनेरकर वाराणसी /भोपाल, उत्तरप्रदेश /मध्यप्रदेश, India बीते 30 वर्षों से पत्रकारिता। प्रिंट व टीवी दोनों माध्यमों में कार्य। View my complete profile Powered by Blogger. 

कर्म शब्द विवेचन

नित्यकर्म - कर्म ३

यज्ञोपवीत - धारण विधि

यज्ञोपवीत धारण करें । यदि मल - मूत्र का त्याग करते समय यज्ञोपवीत कान में टांगना भूल जाएं तो नया बदल लें । नए यज्ञोपवीत को जल द्वारा शुद्ध करके , दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर निम्न मंत्रों से देवताओं का आवाहन करें -

प्रथमतंतौ - ॐ कारमावाहयामि

द्वितीयतंतौ - ॐ अग्निमावाहयामि

तृतीयतंतौ - ॐ सर्पानावाहयामि

चतुर्थतंतौ - ॐ सोममावाहयामि

पंचमतंतौ - ॐ पितृनावाहयामि

षष्ठतंतौ - ॐ प्रजापतिमावाहयामि

सप्तमतंतौ - ॐ अनिलमावाहयामि

अष्टमतंतौ - ॐ सूर्यमावाहयामि

नवमतंतौ - ॐ विश्वान्देवानावाहयामि

ग्रंथिमध्ये - ॐ ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणमावाहयामि

ॐ विष्णवे नमः विष्णुमावाहयामि

ॐ रुद्राय नमः रुद्रमावाहयामि

इस प्रकार आवाहन करके गंध और अक्षत से आवाहित देवताओं की पूजा करें तथा निम्नलिखित मंत्र से यज्ञोपवीत धारण का विनियोग करें -

विनियोग - ॐ यज्ञोपवीतमिति मंत्रस्य परमेष्ठी ऋषिः , लिंगोक्ता देवता , त्रिष्टुपछन्दो यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः ।

तदनन्तर जनेऊ धोकर प्रत्येक बार निम्न मंत्र बोलते हुए एकेक कर धारण करें -

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।

आयुष्मग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥

पुराने जनेऊ को कंठीकर सिर पर से पीठ की ओर निकालकर यथा - संख्य गायत्री मंत्र का जप करें -

एतावददिन - पर्यन्तं ब्रह्मत्वं धारितं मया ।

जीर्णत्वात् त्वत्परित्यागी गच्छ सूत्र ! यथासुखं ॥

अब आसनादि बिछाकर आचमन आदि क्रिया करें -

केशवाय ॐ नमः स्वाहा

ॐ नारायणाय स्वाहा

ॐ माधवाय नमः स्वाहा

उपर्युक्त मंत्र बोलते हुए तीन बार आचमन करें । इसके पश्चात् अंगूठे के मूल से दो बार होंठों को पोंछकर ॐ गोविंदाय नमः बोलकर हाथ धो लें ।

फिर दाएं हाथ की हथेली में जल लेकर कुशा से अथवा कुशा के अभाव में अनामिका और मध्यमा से , मस्तक पर जल छिड़कते हुए यह मंत्र पढ़ें -

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा ।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥

तदनन्तर निम्नलिखित मंत्र से आसन पर जल छिड़ककर दाएं हाथ से उसका स्पर्श करें -

ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।

त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ॥

यज्ञोपवित का अर्थ

मुख्य मेनू खोलें  खोजें मेरी अधिसूचनाएँ दिखाएँ 1 यज्ञोपवीत को आपकी ध्यानसूची में जोड़ दिया गया। संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें यज्ञोपवीत  यज्ञोपवीत यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं- उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।[1] जनेऊ पहनाने का संस्कार[2] सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।[3][4] यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ[5] यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है।[6]तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।[7]अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ संवाद Last edited 2 years ago by Sanjeev bot RELATED PAGES आशीर्वाद दोपहर आचार्य (बहुविकल्पी) बहुविकल्पी पृष्ठ  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

नाद

खबर-संसारज्योतिषबॉलीवुडधर्म-संसारNRIवीडियोअन्य हिंदी  लाइफ स्‍टाइल>योग>आलेख नाद : ब्रह्मांड से जुड़ने का योग ॐ पर ध्यान देने का सही तरीका अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'|   ND FILE नाद दो तरह के होते हैं आहद और अनाहद। आहद का अर्थ दो वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न ध्वनि और अनाहद का अर्थ जो स्वयं ही ध्वनित है। जैसे एक हाथ से बजने वाली ताली। ताली तो दो हाथ से ही बजती है तो उसे तो आहद ध्वनि ही कहेंगे। नाद कहते हैं ध्वनि को। ध्वनि की तरंग को। नाद योग का उद्‍येश्य है आहद से अनाहद की ओर ले जाना। आप पहले एक नाद उत्पन्न करो, फिर उस नाद के साथ अपने मन को जोड़ो। मन को एकतार में लगाए रखने के लिए ही तो ॐ का अविष्कार हुआ है। ओम ही है एकमात्र ऐसा प्रणव मंत्र जो आपको अनाहद की ओर ले जा सकता है। यह पुल की तरह है। जिस तरह योग में आसन के लिए सिद्धासन और शक्तियों में कुम्भक प्राणायाम है, उसी तरह लय और नाद भी है। परमात्मा तत्व को जानने के लिए नादयोग को ही महान बताया गया है। जब किसी व्यक्ति को इसमें सफलता मिलने लगती है, तब उसे नाद सुनाई देता है। नाद का सुनाई देना सिद्धि प्राप्ति का संकेत है। नाद समाधि खेचरी मुद्रा से सिद्ध होती है। ऐसे साधे नाद को : इस ॐ की ध्वनि का अनुसंधान करना ही नाद योग या नादानुसंधान कहलाता है। जैसे ॐ (ओम) का उच्चारण आपने किया, तो उस ध्वनि को आप अपने कानों से सुनते भी हैं। ऊँ का उच्चारण करने से इस शब्द की चोट से शरीर के किन-किन हिस्सों में खास प्रभाव पड़ रहा है, उसको ध्यान से जाने, अनुसंधान करें। सर्वप्रथम कानों को अँगूठे या पहली अँगुली से बंद करें और ॐ का भ्रमर गुंजन करें तो उसका सबसे अधिक प्रभाव गालों में, मुँह में, गर्दन में पड़ेगा। फिर आप कानों के पिछले हिस्से में, नाक पर, फिर कपाल में, सिर में आप गुंजन की तरंगों को क्रमश: महसूस करें। इस नाद की तरंगों की खोज करना और यह नाद कहाँ से निकल रहा है, उसका भी पीछा करना और इस नाद की तरंगें कहाँ-कहाँ जा रही हैं, उसको बहुत ध्यान से सुनना ही नाद-अनुसंधान है और इसको ही नाद योग कहते हैं। एक उपनिषद् का नाम है 'नाद बिंदु' उपनिषद। जिसमें बहुत से श्लोक इस नाद पर आधारित हैं। नाद क्या है, नाद कैसे चलता है, नाद के सुनने का क्या लाभ है, इन सब की चर्चा इसमें की गई है। नाद को जब आप करते हो तो यह है इसकी पहली अवस्था। सधने पर : ॐ के उच्चारण का अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आता है जबकि उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं होती आप सिर्फ आँखें और कानों को बंद करके भीतर उसे सुनें और वह ध्वनि सुनाई देने लगेगी। भीतर प्रारंभ में वह बहुत ही सूक्ष्म सुनाई देगी फिर बढ़ती जाएगी। साधु-संत कहते हैं कि यह ध्वनि प्रारंभ में झींगुर की आवाज जैसी सुनाई देगी। फिर धीरे-धीरे जैसे बीन बज रही हो, फिर धीरे-धीरे ढोल जैसी थाप सुनाई देने लग जाएगी, फिर यह ध्वनि शंख जैसी हो जाएगी। योग कहता हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दैवीय शब्द ध्वनित होते रहते हैं, लेकिन व्यक्ति को इतनी भी फुरसत नहीं है कि स्वयं को सुन ले। कहते हैं कि दिल धड़कता है प्रति मिनट 70 बार लेकिन व्यक्ति उसे सुन ही नहीं पाता। इसी तरह भीतर के बहुत से अँग आपसे बात करना चाहते हैं यह बताने के लिए कि हम ब्रह्मांड की आवाज सुनने की क्षमता रखते हैं, लेकिन जनाब आपको फुरसत ही कहाँ। जब हम बीमार पड़ते हैं तभी आपको पता चलता हैं कि हम हैं। ॐ किसी शब्द का नाम नहीं है। ॐ एक ध्वनि है, जो किसी ने बनाई नहीं है। यह वह ध्वनि है जो पूरे कण-कण में, पूरे अंतरिक्ष में हो रही है। वेद, गीता, पुराण, कुरआन, बाइबल, नानक की वाणी सभी इसकी गवाह है। योग कहता हैं कि इससे सुनने के लिए शुरुआत स्वयं के भीतर से ही करना होगी। ॐ। वेबदुनिया हिंदी मोबाइल ऐप अब iOS पर भी, डाउनलोड के लिए क्लिक करें। एंड्रॉयड मोबाइल ऐप डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें। ख़बरें पढ़ने और राय देने के लिए हमारे फेसबुक पन्ने और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।  Sponsored Links You May Like Play This for 1 Minute & See Why Everyone's Addicted Get it on Google Play - Viking If You Have an Android, This Strategy Game Is a Must-Have Download from the Play Store - Forge of Empires An Economics Lesson for Political Pollsters Bloomberg by Taboola 

नादयोग

  प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > आनन्दमय कोश का अनावरण नाद साधना का क्रमिक अभ्यास नादयोग की साधना के दो रूप हैं। एक तो अन्तरिक्ष- सूक्ष्म जगत से आने वाली दिव्य ध्वनियों का श्रवण, दूसरा अपने अन्तरंग के शब्द ब्रह्म का जागरण और उसका अभीष्ट क्षेत्र में अभीष्ट उद्देश्य के लिए परिप्रेषण, यह शब्द उत्थान एवं परिप्रेषण ओउम् कार साधना के माध्यम से ही बन पड़ता है। साधारण रेडियो यन्त्र-मात्र ग्रहण करते हैं, वे मूल्य की दृष्टि से सस्ते और संरचना की दृष्टि से सरल भी होते हैं, किन्तु परिप्रेषण यन्त्र, ब्राडकास्ट, ट्रांसमीटर मँहगे भी होते हैं और उनकी संचरना भी जटिल होती है। उनके प्रयोग करने की जानकारी भी श्रम साध्य होती है। जबकि साधारण रेडियो का बजाना बच्चे भी जानते हैं। रेडियो की संचार प्रणाली तभी पूर्ण होती है, जब दोनों पक्षों का सुयोग बन जाये। यदि ब्राडकास्ट की व्यवस्था न हो तो सुनने का साधन कहाँ से बन पड़ेगा ? जिस क्षेत्र में रेडियो का लाभ जाना है, वहाँ आवाज को ग्रहण करने की ही नहीं, आवाज को पहुँचाने की व्यवस्था होनी चाहिए। नादयोग की पूर्णता दोनों ही प्रयोग प्रयोजनों से सम्बद्ध है। कानों के छिद्र बन्द करके दिव्यलोक से आने वाले ध्वनि- प्रवाहों को सुनने के साथ- साथ यह साधन भी रहना चाहिए कि साधक अपने अन्तः क्षेत्र से शब्द शक्ति का उत्थान कर सके। इसी अभ्यास के सहारे अन्यान्य मन्त्रों की शक्ति सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचाई जा सकती है। वातावरण को प्रभावित करने, परिस्थितियों बदलने एवं व्यक्तियों को सहायता पहुँचाने के लिए मन्त्र शक्ति का प्रयोग परावाणी से होता है। चमड़े की जीभ से निकलने वाली बैखरी ध्वनि तो जानकारियों का आदान-प्रदान भर कर सकती है। मन्त्र की क्षमता तो परा और पश्यन्ति वाणियों के सहारे प्रचण्ड बनती और लक्ष्य तक पहुँचती हैं। परावाक् का जागरण ओ३म् कार साधना से सम्भव होता है। कुण्डलिनी अग्नि के प्रज्जवलन में भी ओ३म् कार को ईधन की तरह प्रयुक्त किया जाता है- अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि च। ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादी ज्योतिर्मयात्मकः ॥ मनस्तत्र लयं याति तद्धिष्णोः परमं पदम् ॥ -नादविन्दूपनिषद् ४६- ४७ नाद के प्रणव में संलग्न होने पर वह ज्योतिर्मय हो जाता है, उस स्थिति में मन का लय हो जाता है। उसी को श्री भगवान विष्णु का परमपद कहा जाता है योग साधना में चित्तवृत्तियों का निरोध और प्राण शक्ति की प्रखरता, ये दो ही तत्व प्रधान हैं। इन दोनों ही प्रयोजनों के लिए ओ३म् कार की शब्द साधना से अभीष्ट उद्देश्य सरलतापूर्वक सिद्ध होता है- ओंकारोच्चारण सान्तशब्दतत्वानु भावनात्। सुषुप्ते संविदो जाते प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ -योगवाशिष्ठ ऊँचे स्वर से ओ३म् कार का जप करने पर शान्त में जो शेष तुर्यमात्रा रूप शब्द, शब्द तत्व की अनुभूति होती है, उनके अनुसंधान से बाह्य चित्तवृत्तियों का जब बिलकुल उपराम हो जाता है, तब प्राणवायु का निरोध हो जाता है। नादयोग की साधना में प्रगति पथ पर दोनों ही चरण उठने चाहिए यहाँ नाद श्रवण के साथ-साथ नाद उत्थान को भी साधना क्रम में सम्मिलित रखना चाहिए। कुण्डलिनी जागरण साधना में नाद श्रवण में ओ३म् कार की ध्वनि पकड़ने तक पहुँचना पड़ता है। अन्य शब्द तो मार्ग के मील पत्थर मात्र हैं। अनाहत ध्वनि को ‘सुरति’ तुर्यावस्था समाधि आदि को पूर्णता-बोधक आस्थाओं के समतुल्य माना गया है और अनाहत ध्वनि ‘ओ३म् कार’ की श्रवण अनुभूति ही है। ओ३म् कार ध्वनि का नादयोग में इसीलिए उच्च स्थान है। नव शब्द परित्यज्य ओ३म्कारन्तु समाश्रयेत्। सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्मप्रणवनादके ॥ -महायोग विज्ञान नौ शब्द नादों की उपेक्षा करके ओ३मकार नाद का आश्रय लेना चाहिए, समस्त नाद प्रणव में लीन होते हैं। ओ३मकार की ध्वनि का, नाद का आश्रय लेने वाला साधक सत्यलोक को प्राप्त करता है। शब्द ब्रह्म के, ओ३मकार के उत्थान की साधना में हृदय आकाश से ओ३मकार ध्वनि का उद्भव करना होता है। जिह्वा से मुख ओ३मकार के उच्चारण का आरम्भिक अभ्यास किया जाता है। पीछे उस उद्भव में परा और पश्यन्ति वाणियाँ ही प्रयुक्त होती हैं और ध्वनि से हृदयाकाश को गुञ्जित किया जाता है। हृद्यविच्छिन्नमोकारं घण्टानादं बिसोर्णवत्। प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम् ॥ ध्यानेनेत्थं सुतीत्रेण युञ्जतो योगिनो मनः। संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यानक्रियाभमः ॥ -भागवत ११।१४।३४, ४६ हृदय में घण्टा की तरह ओंकार का अविच्छिन्न पद्म नालवत् अखण्ड उच्चारण करना चाहिए। प्राणवायु के सहयोग से पुनः- पुनः ‘ओ३म्’ का जप करके बारम्बार हृदय में गिराना चाहिए। इस तीव्र ध्यान विधि से योगाभ्यास करने वाले का मन शीघ्र ही शान्त हो जाता है और सारे सांसारिक भ्रमों का निवारण हो जाता है। नादारंभे भवेत्सर्वगात्राणां भजनं ततः। शिरसः कंपनं पश्चात् सर्वदेहस्य कंपनम् ॥ -योग रसायनम् २५४ नाद के अभ्यास के दृढ़ होने पर आरम्भ में पूरे शरीर में हलचल- सी मचती है, फिर सिर में कम्पन होता है, इसके पश्चात् सम्पूर्ण देह में कम्पन होता है। क्रमेणाभ्यासतश्चैवं भूयतेऽनाहती ध्वनिः। पृथग्विमिश्रितश्चापि मनस्तत्र नियोजयेत् ॥ -योग रसायनम् २५३ क्रमशः अभ्यास करते रहने पर ही अनाहत ध्वनि पहले मिश्रित तथा बाद में पृथक स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती है। मन को वहीं पर नियोजित करना चाहिए। नाद- श्रवण से सफलता मिलने लगे तो भी शब्द ब्रह्म की उपलब्धि नहीं माननी चाहिए। नाद-ब्रह्म तो भीतर से अनाहत रूप से उठता है और उसे ओ३म् कार के सूक्ष्म उच्चारण अभ्यास द्वारा प्रयत्न पूर्वक उठाना पड़ता है। बाहरी शब्द वाद्य यन्त्रों आदि के रूप में सुने जाते हैं, पर ओ३म् कार का नाद प्रयत्नपूर्वक भीतर से उत्पन्न करना पड़ता है- नादः संजायते तस्य क्रमेणाभ्यासतश्च सः ॥ -शिव संहिता अर्थात्- अभ्यास करने से नाद की उत्पत्ति होती है, यह शीघ्र फलदाता है। अनाहतस्य शब्दस्य ध्वनिर्य उपलभ्यते। ध्वनेरन्तर्गतं ज्ञेयं ज्ञेयस्यान्तर्गतं मनः ॥ मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमंपदम् ॥ -हठयोग प्रदीपिक ४। १०० अनाहत ध्वनि सुनाई पड़ती है, उस ध्वनि के भीतर स्वप्रकाश चैतन्य रहता है और उस ज्ञेय के भीतर मन रहता है और मन जिस स्थान में लय को प्राप्त होता है, उसी को विष्णु का परमधाम कहते हैं। नादयोग की महिमा बताते हुए कहा गया है कि उसके आधार पर दृष्टि की, चित्त की स्थिरता अनायास ही हो जाती है। आत्मकल्याण का परम अवलम्बन यह नादब्रह्म ही है। दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यैः, वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम्। चित्तं स्थिर यस्य विनावलम्बनम् स ब्रह्म तारान्तरनादरूपम् ॥ जिससे बिना दृश्य के दृष्टि स्थिर हो जाती है, जिससे बिना प्रयत्न के प्राणवायु स्थिर हो जाती है, जिससे बिना अवलम्बन के चित्त का नियमन हो जाता है, वह अन्तर नादरूपी ब्रह्म ही है। नाद क्रिया के दो भाग हैं- बाह्य और अन्तर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती हैं और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं, और ब्रह्याण्डीय शक्तिधाराओं को आकर्षित करके अपने में धारण किया जाता है। अन्तः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके भीतर ही भीतर परिपक्व करके और परिपुष्ट होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर, किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है, इसे धनुष-वाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है। अन्तःनाद के लिए भी बैठना तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। सुखासन से मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए षटमुखी मुद्रा में बैठने का विधान है। षटमुखी मुद्रा का अर्थ है- दोनों अँगूठों से दोनों कानों के छेद बन्द करना, दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों से दोनों आँखें बन्द करना। दोनों अनामिका कनिष्ठिकाओं से दोनों नथुनों पर दबाव डालना, नथुनों पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि साँस का आवागमन ही रुक जाये। होठ बन्द, जीभ बन्द, मात्र भीतर ही परा- पश्यन्ति वाणियों से ओ३म्कार का गुञ्जार- प्रयास यही है- अन्तःनाद उत्थान। इसमें कण्ठ से मन्द ध्वनि होती रहती है, अपने आपको उसका अनुभव होता है और अन्तःचेतना उसे सुनती है। ध्यान रहे यह ओ३मकार का जप या उच्चारण नहीं गुञ्जार है। गुञ्जार का तात्पर्य है- शंख जैसी ध्वनि धारा एवं घड़ियाल जैसी थरथराहट का सम्मिश्रण। इसका स्वरूप लिखकर ठीक तरह नहीं समझा और समझाया जा सकता। इसे अनुभवी साधकों से सुना और अनुकरण करके सीखा जा सकता है। साधना आरम्भ करने के दिनों में दस- दस सैकण्ड के तीन गुञ्जार बीच-बीच में पाँच-पाँच सैकण्ड रुकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार चालीस सैकण्ड का एक शब्द उत्थान हो जायेगा। इतना करके उच्चारण बन्द और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। जिस प्रकार गुम्बजों में, पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अन्तः क्षेत्र में ओउम्कार गुञ्जार के छोड़े हुए शब्द प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए, और पूरी तरह ध्यान एकाग्र करके इस सूक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास होता है। आरम्भ में बहुत प्रयत्न से, बहुत थोड़ी- सी अतीव मन्द रुककर सुनाई पड़ती है, किन्तु धीरे-धीरे उसका उभार बढ़ता चलता है और ओउम्कार की प्रतिध्वनि अपने ही अन्तराल में अधिक स्पष्ट एवं अधिक समय तक सुनाई पड़ने लगती है, स्पष्टता एवं देरी को इस साधना की सफलता का चिन्ह माना जा सकता है। ओ३मकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अन्तः क्षेत्र के प्रत्येक विभाग को, क्षेत्र को प्रखर बनाती है। उन संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है, उससे आत्मबल बढ़ता है और छिपी हुई दिव्य शक्तियाँ प्रकट होती एवं परिपुष्ट होती हैं। समयानुसार इसका उपयोग शब्दबेधी वाण की तरह, प्रक्षेपशास्त्र की तरह हो सकता है। भौतिक एवं आत्मिक हित साधना के लिए इस शक्ति को समीपवर्ती अथवा दूरवर्ती व्यक्तियों तक भेजा जा सकता है और उनको कष्टों से उबारने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए उसका उपयोग किया जा सकता है। वरदान देने की क्षमता, परिस्थतियों में परिवर्तन कर सकने जितनी समर्थता जिस शब्द ब्रह्म के माध्यम से सम्भव होती है, उसे ओ३म्कार गुञ्जार के आधार पर भी उत्पन्न एवं परिपुष्ट किया जाता है। पुरानी परिपाटी में षटमुखी मुद्रा का उल्लेख है। मध्यकाल में उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई और कान को कपड़े में बँधे मोम की पोटली से कर्ण छिद्रों को बन्द कर लेना पर्याप्त समझा गया। इससे दोनों हाथों को गोदी में रखने और नेत्र अर्धोन्मीलित रखने की ध्यान मुद्रा ठीक तरह सधती और सुविधा रहती थी। अब अनेक आधुनिक अनुभवी शवासन शिथिलीकरण मुद्रा में अधिक अच्छी तरह ध्यान लगने का लाभ देखते हैं। आराम कुर्सी का सहारा लेकर शरीर को ढीला छोड़ते हुए नादानुसन्धान में अधिक सुविधा अनुभव करते हैं। कान बन्द करने के लिए ठीक नाप के शीशियों वाले कार्क का प्रयोग कर लिया जाता है। इनमें से किससे, किसे, कितनी सरलता एवं सफलता मिली ? यह तुलनात्मक अभ्यास करके जाना जा सकता है। इनमें से जिसे जो प्रयोग अनुकूल पड़े वह उसे अपना सकता है। सभी उपयोगी एवं फलदायक हैं।  gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp   आनन्दमय कोश का अनावरण आनन्दमय कोश-शिव शक्ति का संगम २७ समाधियों में सर्वोत्तम सहज समाधि आनन्दमय कोश अनावरण नाद साधना नाद साधना का क्रमिक अभ्यास आनन्दमय कोश की तीन उपलब्धियाँ समाधि, स्वर्ग और मुक्ति बिन्दु साधना नादयोग- दिव्य सत्ता के साथ आदान प्रदान बिन्दुभेद की साधना-विधि कला- साधना पाँचकलाओं द्वारा तात्विक साधना तुरीय अवस्था समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे           अंग्रेजी संस्करण प्रज्ञाअभियान पाक्षिक देव संस्कृति विश्वविद्यालय अखण्ड ज्योति पत्रिका ई-स्टोर दिया ग्रुप समग्र साहित्य - आनलाइन पढें आज का सद्चिन्तन वेब स्वाध्याय भारतिय संस्कृति ज्ञान परिक्षा अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (भारत) shantikunj@awgp.org +91-1334-260602 अन्तिम परिवर्तन : १५-०२-२०१३ Visitor No 25425 सर्वाधिकार सुरक्षित Download Webdoc(3814)

नाद योग साधना

All World Gayatri Pariwar  Allow hindi Typing 🔍 PAGE TITLES March 1985 नाद योग की साधना और सिद्धि शब्द विज्ञान में दो प्रकार की ध्वनियों की चर्चा विवेचना होती है। एक आहत। दूसरे अनाहत। आहत शब्द वे हैं जो किन्हीं वस्तुओं के टकराने से उत्पन्न होते हैं। घण्टा घड़ियाल का उदाहरण स्पष्ट है। कोई वस्तु हाथ से गिरे और तो जमीन से टकराने पर उसकी आवाज होगी। बाजे बजने−बन्दूक चलने−कपड़े धोने आदि की ध्वनियाँ, आहत ध्वनियाँ हैं। वार्त्तालाप को भी इसी श्रेणी में गिना जाता है। क्योंकि उनका स्वस्थ कण्ठ, तालु, होंठ, जिह्वा, दाँत आदि के परस्पर एक विधि विशेष में टकराने पर विभिन्न शब्दों का उच्चारण बन पड़ता है। मनुष्य की भाँति पशु−पक्षियों की वाणी। समुद्र की लहरें, बादलों की गड़गड़ाहट आदि के द्वारा भी आहत ध्वनियों का ही रूप बनता है। विभिन्न प्रकार की जानकारियों का आदान−प्रदान करने में भी शब्द विज्ञान का यही स्तर काम आता है। अनाहत शब्द वे हैं जो योगाभ्यास में नाद योग के द्वारा सुने और जाने आते हैं। श्वांस-प्रश्वांस के समय सो एवं अहम् की ध्वनियाँ होती रहती हैं। यह स्पष्ट रूप से कानों के द्वारा तो नहीं सुनी जाती पर, ध्यान एकाग्र करने पर उस ध्वनि का आभास होता है। अभ्यास करने से वह कल्पना प्रत्यक्ष अनुभव के रूप में समझ पड़ती है। इसके बाद कानों के छेद बन्द करके ध्यान की एकाग्रता के रहते, घण्टा, घड़ियाल, शंख, वंशी, झींगुर, मेंढक, बादल गरजन जैसे कई प्रकार के शब्द सुनाई देने लगते हैं। आरम्भ में यह बहुत धीमे और कल्पना स्तर के ही होते हैं किन्तु पीछे एकाग्रता के अधिक घनीभूत होने से वे शब्द अधिक स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं। इसे एकाग्रता की चरम परिणति भी कह सकते हैं और अंतरिक्ष में अनेकानेक घटनाओं की सूचना देने वाले सूक्ष्म संकेत भी। गोरख पद्धति में ॐकार की ध्वनि पर ध्यान एकाग्र किया जाता है और उसे ईश्वर की स्व उच्चारित वाणी भी कहा जाता है। गोरख सम्प्रदाय के अतिरिक्त और भी कितने ही उसके भेद-उपभेद हैं जो नादयोग को प्रधानता देते और उसी आधार पर अपनी उपासनाएँ करते हैं। कबीर पन्थ, राधा स्वामी पन्थ आदि में नाद योग की साधना ही प्रधान है। प्राण विद्युत शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों का संचार करती है। बिजली में एक प्रकार के सूक्ष्म कम्पन होते हैं और वे विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न मन्त्रों द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर उन झंकृतियों में थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता रहता है। नादयोग में विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का अनुभव इसी आधार पर होता है। आकाश में अदृश्य घटनाक्रमों के कम्पन चलते रहते हैं। जो हो चुका है या होने वाला है, उसका घटनाक्रम ध्वनि तरंगों के रूप में आकाश में गूँजता रहता है। नाद योग की एकाग्रता का सही अभ्यास होने पर आकाश में गूँजने वाली विभिन्न ध्वनियों के आधार पर भूतकाल में जो घटित हो चुका है या भविष्य में जो घटित होने वाला है उसका आभास भी प्राप्त किया जा सका है। यह एक असामान्य सिद्धि है। किसी ध्वनि को एक बार प्रत्यक्ष रूप में करने उसकी ध्यान धारणा बाद में करते रहने पर इस अभ्यास में सरलता पड़ती है। मन्दिरों में गुम्बज इसीलिए बनाये जाते हैं कि उनमें टँगे घण्टे की प्रतिध्वनि देर तक सुनी जा सके। ॐकार की प्रतिध्वनि भी गुम्बजदार मन्दिरों में देर तक गूँजती रहती है। इस आधार पर विभिन्न ध्वनियों को सुनने का अभ्यास किया जा सकता है। इस प्रकार आहत और अनाहत नादयोग का अभ्यास करने से व्यक्ति अविज्ञात को ज्ञात स्तर तक खींच लाने में समर्थ हो सकता है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ अमेरिका की सड़क से गुजर रहे थे (kahani) गुरुदेव के उपकार की स्थूल निशानी है गान्धारी की वचन सिद्धि (Kahani) शील (Kahani) See More    Chaitra Navratri Sadhana Day-03 - Discourse by Shraddheya Dr. Pranav Pandya, | DSVV-30th March 2017 Duration: 1:27:33 More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/magazine_version_mobile.php on line 551

कलश का महत्व

= मुखपृष्ठजीवन-शैली चैत्र नवरात्र 2017 शुरु, जानिए कलश स्थापना का महत्व और पूरी विधि Navaratri 2017: नवरात्र के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को कलश या घट की स्थापना की जाती है  जनसत्ता ऑनलाइन Updated: March 28, 2017 1:12 pm  महागुरु गौरव मित्तल। आज से मां दुर्गा के नवरात्र शुरु हो गए है। नवरात्र के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को कलश या घट की स्थापना की जाती है। कलश को भगवान गणेश का रूप माना जाता है। हिन्दू धर्म में हर शुभ काम से पहले गणेश जी की पूजा का विधान है। इसलिए नवरात्र की शुभ पूजा से पहले कलश के रूप में गणेश को स्थापित किया जाता है। आइए जानते है कि नवरात्र में कलश कैसे स्थापना किया जाता है।  कलश स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण वस्तुएं: · मिट्टी का पात्र और जौ · शुद्ध साफ की हुई मिट्टी · शुद्ध जल से भरा हुआ सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का कलश · मोली (लाल सूत्र) · साबुत सुपारी · कलश में रखने के लिए सिक्के · अशोक या आम के 5 पत्ते · कलश को ढंकने के लिए मिट्टी का ढक्कन · साबुत चावल · एक पानी वाला नारियल · लाल कपड़ा या चुनरी · फूल से बनी हुई माला नवरात्र कलश स्थापना की विधि: नवरात्र में देवी पूजा के लिए जो कलश स्थापित किया जाता है वह सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का ही होना चाहिए। लोहे या स्टील के कलश का प्रयोग पूजा में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। भविष्य पुराण के अनुसार कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध कर लेना चाहिए। एक लकड़ी का फट्टा रखकर उसपर लाल रंग का कपड़ा बिछाना चाहिए। इस कपड़े पर थोड़े चावल रखने चाहिए। चावल रखते हुए सबसे पहले गणेश जी का स्मरण करना चाहिए। एक मिट्टी के पात्र (छोटा समतल गमला) में जौ बोना चाहिए। इस पात्र पर जल से भरा हुआ कलश स्थापित करना चाहिए। कलश पर रोली से स्वस्तिक या ऊं बनाना चाहिए। कलश के मुख पर रक्षा सूत्र बांधना चाहिए। कलश में सुपारी, सिक्का डालकर आम या अशोक के पत्ते रखने चाहिए। कलश के मुख को ढक्कन से ढंक देना चाहिए। ढक्कन पर चावल भर देना चाहिए। एक नारियल ले उस पर चुनरी लपेटकर रक्षा सूत्र से बांध देना चाहिए। इस नारियल को कलश के ढक्कन पर रखते हुए सभी देवताओं का आवाहन करना चाहिए। अंत में दीप जलाकर कलश की पूजा करनी चाहिए। कलश पर फूल और मिठाइयां चढ़ाना चाहिए। First Published on: March 28, 2017 9:02 am Copyright © 2017 The Indian Express [P] Ltd. All Rights Reserved Powered by WordPress.com VIP

उर्ध्व गमन के लिये वज्रोली

All World Gayatri Pariwar  Allow hindi Typing 🔍 PAGE TITLES April 1987 ऊर्ध्व गमन की वज्रोली मुद्रा हठयोग की क्रियाओं में एक वज्रोली क्रिया भी है उनमें मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींच कर फिर बाहर निकाला जाता है। इस प्रकार उस मार्ग की शुद्धि हो जाती है। इसी प्रकार किसी टब में बैठकर मल मार्ग द्वारा भी पानी खींचा जाता है। थोड़ी देन पेट में रख कर उसे घुमाया जाता है और फिर मल त्याग कर दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक एनीमा की पुरातन ढंग से पूर्ति हो जाती है। नाड़ी शोधन में आरंभिक प्रयोग है। नेति, धोति, वस्ति, वज्रोली इन हठयोग की प्रक्रियाओं में उन स्थानों की सफाई की जाती हैं, जहाँ मल जमा रहता है, रुका रहता है। इस शारीरिक स्वच्छता के उपरान्त षट् चक्र वेधन आदि की अन्य अभिवर्धन क्रियाएँ की जाती है। शोधन के उपरान्त ही अभिवर्धन क्रियाओं को आरम्भ करने का नियम है। हठयोग की सारी क्रियायें शारीरिक है। उनका प्रभाव भी शरीर पर ही पड़ता है। शरीरगत समर्थता बढ़ती है और वे कार्य बन पड़ने हैं जो कोई अति बलिष्ठ शरीर कर कसता है। इस स्तर के लोगों को ही प्राचीन काल में दैत्य कहा जाता है। दैत्य और दानव का अन्तर समझा जाना चाहिए। मानव के विपरीत दुर्गुणों वाले को दानव कहते हैं, उनकी प्रवृत्तियां अधोगामी होती हैं और क्रियायें भी अनीतियुक्त ही बन पड़ती हैं। पर दैत्य में ऐसे दुर्गुण होना आवश्यक नहीं। अंग्रेजी के जाइन्ट शब्द में दैत्य स्तर का अनुमान लगाया गया है। हठयोग की हर क्रिया प्रतिरोधक है। जिस प्रकार नदी प्रवाह को रोक कर बाँध बनाया जाता है और फिर उससे बिजली बनाने, नहर निकालने जैसी व्यवस्थायें बनाई जाती हैं। हठयोग में भी ऐसा ही होता है। उसमें प्रकृति प्रेरणा से चल रहे क्रिया कलापों को उलटा जाता है। जैसे मल मूत्र त्यागने के छिद्र स्वाभाविक स्थिति में अपने प्रवाह नीचे की ओर ही बहाते हैं पर वज्रोली क्रिया द्वारा उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि वह नीचे ऊपर की ओर जल खींचने का काम करें। ऐसे उलटे कृत्यों को ही हठवाद कहते हैं-हठयोग भी इन्हें सरकस के उस खेल की तरह समझना चाहिए जिसमें शेर को बकरा अपनी पीठ पर लाद कर चलने का कौतुक दिखाया जाता है। दर्शक इस अनहोनी बात को होता हुआ देखते हैं। तो आश्चर्य से चकित रह जाते हैं। यह प्रशिक्षण अति कठिन है। बकरे के मन में से भय निकालना और अति को बकरा देखते ही टूट पड़ने की प्रवृत्ति को काबू में लाया जाता है। यह सामान्य नहीं असामान्य बात है। इसमें असाधारण कौशल एवं साहस की आवश्यकता पड़ती है, पर साथ ही जोखिम भी रहता है। हठयोग की क्रियाओं में भूल हो जाने से उस मार्ग में संकट भी खड़े हो सकते हैं और कई बार तो अनर्थ तक की आशंका रहती है। इसलिए हठयोग का शिक्षण अनुभवी गुरु के पास रह कर ही किया जाता है। भयंकर घाव वाले रोगियों का अस्पताल में भर्ती करके ही इलाज होता है। ताकि समय-समय पर आने वाले उतार चढ़ावों से निपटा जा सके। किन्तु मध्यवर्ती सामान्य रोगों की स्थिति में भर्ती किये जाने की आवश्यकता नहीं रहती। दवा दे देने पथ्य बता देने तथा आवश्यक सावधानियाँ बरतने की हिदायत देकर उसे घर पर ही रहकर इलाज कराते रहने का परामर्श दे दिया जाता है। क्योंकि उससे किसी बड़ी आशंका की कोई संभावना पड़ती नहीं दीखती। जोखिम वाले खेल निष्णातों को ही खिलाये जाते हैं। आरंभिक शिक्षार्थियों से हलकी फुलकी क्रियायें ही कराई जाती हैं। आर्ट कोमर्स आदि विषयों को लेकर पड़ने वालों को पत्राचार विद्यालय में नाम लिखाने से भी काम चल जाता है। किन्तु साइंस पढ़ने वाले को अध्यापकों से क्रियात्मक शिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। इसलिए उनका स्कूल प्रवेश अनिवार्य माना जाता है। राजयोग और हठयोग में यही अन्तर है। हठयोग ऐसा है जैसा हिंसक पशुओं से भिड़ने उन्हें वशवर्ती बनाने का कौशल और राजयोग ऐसे हैं जैसा गौ पालन। गौ पालन में थोड़ी उपेक्षा रहने पर इतनी ही हानि है कि दूध कम मिले। वैसे कोई जोखिम उसमें नहीं है। राजयोग के साधकों को देर लग सकती है। कम लाभ में संतोष करना पड़ सकता है, उर उसमें जोखिम उठाने जैसी कोई आशंका या कठिनाई नहीं है। ब्रह्मचर्य के लिए वज्रोली क्रिया का हठयोग में विधान है। आरम्भ में शुद्धि के लिए मूत्र मार्ग में जल चढ़ा कर स्वच्छ किया जाता है। पीछे जब नीचे से ऊपर खींचने की क्रिया का अभ्यास हो जाता है तो वीर्य की अधोगामी प्रवृत्ति को प्रतिबंधित करके ऊपर चढ़ाने एवं मस्तिष्क तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इससे वीर्यपात की हानियाँ रुकती हैं और उस बहुमूल्य तत्व को मस्तिष्क में ले जाकर प्राण शक्ति बढ़ाने से लेकर मानसिक पराक्रमों को अधिक सरल एवं सफल बनाया जाता है। यह सफल हो सके तो शरीर में से निकलने वाले प्राण तक को रोक कर ब्रह्मरंध्र में छिपाया जा सकता है और निर्धारित आयु से कहीं अधिक जिया जा सकता है। हठयोग की इस वज्रोली क्रिया को राजयोग में अति सरल बना दिया गया है। उससे लाभ लगभग उसी प्रकार के होते हैं, जैसे वज्रोली क्रिया में। पर गति अवश्य मंथर रहती है और सफलता भी समय साध्य गतिशीलता के अनुरूप आगे बढ़ती है। वज्रोली क्रिया में आसन इस प्रकार लगाया जाता है कि एड़ी या एड़ी से ऊपर की हड्डी गुदा और जननेन्द्रिय मूल को हलका-सा दबाती रहे। यह दबाव इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि उस क्षेत्र में अवस्थित पौरुष ग्रन्थियों या जननेंद्रिय की ओर जाने वाली नसों पर अधिक दबाव डालें और उनकी स्वाभाविक क्रिया में अवरोध उत्पन्न करें। इस योजना के लिए उस केन्द्र का हलका-सा स्पर्श ही पर्याप्त है, जिससे यह अनुभव होता रहे कि यहाँ कुछ हलकी रोक थाम जैसी चेष्टा की गयी है। अब गुदा मूल को ऊपर खींचना चाहिए। इसके लिए साँस भी खींचनी पड़ती है। गुदा को ऊपर खींचने के साथ साथ जननेन्द्रिय की मूत्र वाहिनी नसें भी ऊपर खींचती हैं इस खिचाव को इसी स्तर का समझना चाहिए जैसे कि कभी-कभी मल मूत्र त्यागने की इच्छा होती है पर वैसा अवसर नहीं होता। अतएव उन वेगों को रोकना पड़ता है। रोकने का तरीका एक ही है कि उस क्षेत्र को ऊपर खींचा जाय। माँसपेशियों को ऊपर सिकोड़ा जाय। वज्रोली मुद्रा में यही करना पड़ता है। साँस ऊपर चढ़ाते हुये गुदा क्षेत्र की समस्त माँसपेशियों को ऊपर की तरफ इस प्रकार चढ़ाया जाता है कि मानो किसी पिचकारी द्वारा पानी ऊपर खींचा जा रहा है। खींचने की शक्ति जब न रहे तो फिर जैसे धीरे-धीरे खींचने की क्रिया की गयी थी उसी प्रकार उसे नीचे उतारने छोड़ने की क्रिया करनी चाहिए। दोनों ही बार जल्दबाजी न की जाय। उसे धीमी गति से ऊपर चढ़ाया और नीचे उतारा जाय। स्मरण रहे इस माँसपेशी संकोचन के साथ प्राणायाम की तरह वायु को भी ऊपर चढ़ाने छोड़ने का तारतम्य मिलाये रहना पड़ता है। आरम्भ में यह क्रिया दस बार की जाय। फिर प्रति सप्ताह एक की संख्या और बढ़ाते चला जाय। इसका अंत 24 आकुँचन प्रकुँचनों पर समाप्त हो जाना चाहिए। यह क्रिया ब्रह्मचर्य में सहायक होती है। वीर्य का ऊर्ध्वगमन संभव करती है। वह ओजस तेजस में बदलता है और शीघ्र पतन स्वप्न दोष प्रमेह जैसे रोगों में आशाजनक लाभ होता है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ अमेरिका की सड़क से गुजर रहे थे (kahani) गुरुदेव के उपकार की स्थूल निशानी है गान्धारी की वचन सिद्धि (Kahani) शील (Kahani) See More    2017-march-30-2_5812.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/magazine_version_mobile.php on line 551

ब्रह्मचर्य के लिए वज्रोली

खबर-संसारज्योतिषबॉलीवुडधर्म-संसारNRIवीडियोअन्य हिंदी  लाइफ स्‍टाइल>योग>योग मुद्रा वज्रोली और वायुभक्षण यौन रोग में लाभदायक मुद्रा अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'|   FILE योग अनुसार वज्रोली तथा वायुभक्षण प्राणायाम भी है और क्रिया भी। दोनों ही प्राणायाम से हम पाचन व यौन संबंधी छोटी-छोटी समस्या से समाधान पा सकते हैं। वज्रोली मुद्रा : पूर्ण रेचन करके श्वास रोक दें। जितनी देर सहजता से श्वास रुके बार-बार वज्रनाड़ी (जननेंद्रिय) का संकोचन विमोचन करें। ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र (मूलाधार से चार अँगुल ऊपर रीढ़ में, जननेंद्रिय के ठीक पीछे) पर केंद्रित रहे। वायु भक्षण : हवा को जानबूझकर कंठ से अन्न नली में निगलना। यह वायु तत्काल डकार के रूप में वापस आएगी। वायु निगलते वक्त कंठ पर जोर पड़ता है तथा अन्न नलिका से होकर वायु पेट तक जाकर पुन: लौट आती है। दोनों के लाभ : वज्रोली क्रिया प्रजनन संस्थान को सबल बनाती है और यौन रोग में भी यह लाभदायक है। वायु भक्षण क्रिया अन्न नलिका को शुद्ध व मजबूत करती है। वेबदुनिया हिंदी मोबाइल ऐप अब iOS पर भी, डाउनलोड के लिए क्लिक करें। एंड्रॉयड मोबाइल ऐप डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें। ख़बरें पढ़ने और राय देने के लिए हमारे फेसबुक पन्ने और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।  Sponsored Links You May Like Play This for 1 Minute & See Why Everyone's Addicted Get it on Google Play - Viking If You Have an Android, This Strategy Game Is a Must-Have Download from the Play Store - Forge of Empires President Trump Is Going to Challenge Fuel Efficiency Standards Shaped by Obama Time by Taboola 

यज्ञ

  प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > आर्श वाङ्मय (समग्र साहित्य) > यज्ञ का ज्ञान विज्ञान > यज्ञों का वैज्ञानिक आधार यज्ञ भारतीय दर्शन का ईष्ट आराध्य अध्यात्म विज्ञान के तत्व दर्शन एवं क्रिया प्रयोजन के दोनों ही पक्ष यज्ञ विधा से सम्बन्धित हैं । कठोपनिषद् में यम नचिकेता सम्वाद में जिन पंच प्राणाग्नियों का विवेचन हुआ है वे अग्निहोत्र में सर्वथा भिन्न प्राण परिष्कार की चिन्तनपरक दिशा धाराएँ हैं । मीमांसा, सूत्र-गंथ ब्राह्मण एवं आरण्यकों में 'यज्ञ' शब्द यजन कृत्य के साथ सम्बद्ध है । जीवन यज्ञ का तात्पर्य है चिन्तन और चरित्र को पवित्र एवं प्रखर बनाना । अग्निहोत्रों का तात्पर्य ऐसी ऊर्जा उत्पन्न करना है जो न केवल शरीर को ओजस्, मन को तेजस, आत्मा को वर्चस् दे सके वरन् इस प्रकृति ब्रह्माण्ड में भी अनुकूलताओं का अनुपात बढ़ा सके । यज्ञ में अग्नि का प्रयोग होता है इस परम्परा में शास्त्रकारों ने यह स्पष्ट किया है कि इस ब्रह्माण्ड में अग्नि के अनेक स्वरूप है । वे सभी अपने-अपने प्रयोजन के लिए समर्थ शक्तिवान हैं । किन्तु 'यज्ञाग्नि' उनमें विशिष्ट है । वह ज्वलनशील होते हुए भी आध्यात्मिक विशेषताओं से सम्पन्न होती है और देव संज्ञा में गिनी जाती हैं । यजन पूजन उसी का होता है और वही याजक की पवित्रता प्रखरता का सम्वर्धन करती हुई अभीष्ट सत्परिणाम प्रदान करती है । अग्नि देव का भारतीय देव मण्डल के प्राचीनतम सदस्य के रूप में वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रंथों से महत्त्वपूर्ण स्थान है । ऋग्वेद का प्रथम मंत्र एवं शब्द अग्निदेव की स्तुति से ही आरंभ होता है । यह अग्नि ही यज्ञ का मुख्य अग्रणी, पुरोहित एवं संचालक है । क्योंकि उसी से विश्व ब्रह्माण्ड में रूप हैं, दर्शन है और प्रकाश है । उसी के आलोक से समस्त विश्व आलोकित है । उसी ज्ञान स्वरूप प्रकाशक, चेतना शक्ति की शासिका एवं अधिष्ठात्री अग्नि की अभ्यर्थना, उपासना से जीवन बनता, आत्मोन्नति होती और अमृतत्व की प्राप्ति होती है । देवताओं में सर्व प्रथम एवं सर्व समर्थ अग्निदेव की उत्पत्ति हुई । इसके गीता से वेद-पुराणों तक में कितने ही प्रमाण मिलते हैं ।महाभारत अश्वमेधिक पर्व, 92 वें अध्याय में उल्लेख है- ब्रह्मात्वेनासृजं लोकानहमादौ महाद्युते । सृष्टाऽग्र्नमुखततः पूर्व लोकानां हितकाम्यया॥ अर्थात् श्री भगवान ने कहा-महातेजस्वी राजन्! मैंने सबसे पहले ब्रह्मस्वरूप से लोकों को बनाया । लोगों की भलाई के लिए मुख से सबसे पहले अग्नि को प्रकट किया । इसी अध्याय के वैष्णव पर्व में कहा गया है-सभी भूतो से पहले अग्नि तत्व मेरे द्वारा पैदा किया गया, पुराण ज्ञाता मनीषी उसे 'अग्नि' कहते हैं । अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप जाने जाते हैं- (1)व्योम में सूर्य (2)अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत (3)पृथ्वी पर साधारण अग्नि रूप । ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित् किये गये हैं । अग्नि के आदिम रूप संसार के प्रायः सभी धर्मों में पाए जाते हैं । वह 'गृहपति' हैं और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण घनिष्ठ सम्बंध है (ऋ. 2.1.9.7.15.12. और 1.1.9.4.1.9.) वह अन्धकार निशाचन, जादू-टोना, राक्षस और रोगों को दूर करने वाला है ऋ. 3.5.11149.5.8.43.32. 10.88.22. । अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है । परिपाक और शक्ति- निर्माण की कल्पना इसमें निहित है । यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करती है(ऋ. 11. 140. 1) वह समिधा, सोम और घृत से शक्तिमान होता है । (ऋ. 3. 55.10. 1. 94. 14), वह मानवों और देवों की बीच मध्यस्थ और सन्देश वाहक है । (ऋ. 1. 26. 9. 943.1.593, 1.59.1,7.2.1,1.58.1,7.2.5,1.27.4.3.1.17.10.2.1.1.14.आदि) । अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है । (ऋ. 3. 9.5.6.8.4.) । वह देवताओं का पौराहित्य करता है । वह यज्ञों का राजा है राजा त्वमध्यवराणाम् ऋ.वे . 3. 11. 18.7.11.4.2.8.43.24.आदि ।  gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp   यज्ञ भारतीय दर्शन का ईष्ट आराध्य यज्ञ से संपूर्ण जगत का पालन कैसे? सकाम यज्ञों का रहस्य मय विज्ञान यज्ञ क्यों करें? समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे           अंग्रेजी संस्करण प्रज्ञाअभियान पाक्षिक देव संस्कृति विश्वविद्यालय अखण्ड ज्योति पत्रिका ई-स्टोर दिया ग्रुप समग्र साहित्य - आनलाइन पढें आज का सद्चिन्तन वेब स्वाध्याय भारतिय संस्कृति ज्ञान परिक्षा अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (भारत) shantikunj@awgp.org +91-1334-260602 अन्तिम परिवर्तन : १५-०२-२०१३ Visitor No 25425 सर्वाधिकार सुरक्षित Download Webdoc(316)

यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति

अन्तरजाल पर साहित्य प्रेमियों की विश्राम स्थली ISSN 2292-9754  मुख पृष्ठ 03.04.2016 यज्ञशब्दविवेचनपूर्वक पंचमहायज्ञों की संक्षिप्त मीमांसा रामकेश्वर तिवारी आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में यज्ञ शब्द प्रासंगिक हो गया है। यह यज्ञ शब्द कितना व्यापक है इसका ज्ञान तब होता है जब हम इसके प्रकृति-प्रत्यय पर दृष्टिपात करते हैं। यज्ञ शब्द केवल देवपूजा में ही नहीं अपितु संगतिकरण और दान के अर्थों में भी प्रयुक्त होता है। यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति "अकर्तरि च कारके" एवं "भावे" इन अर्थों में "इज्यते इति यज्ञः" होता है। संस्कुत व्याकरण के अनुसार उभयपदी भ्वादिगणीय "यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषु" धातु से "यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नड्" (पाणिनीय सूत्र 3.3.90) से "नड्." प्रत्यय एवं अनुबन्धलोप करके "यज् + न" इस दशा में "स्तोः श्चुना श्चुः" (पाणिनीय सूत्र 8.4.40) इस सूत्र से नकार को श्चुत्व ञकार करके "ज्ञोर्ज्ञः" इस पाणिनी सूत्र से ज्ञ होकर यज्ञ शब्द निष्पन्न होता है। इसके अनुसार यज् धातु का प्रयोग देवपूजन अर्थात् देवविशेष के उद्देश्य से द्रव्यत्याग, संगतिकरण अर्थात् एकत्र होना, जुटकर सत्संग करना आदि तथा दान अर्थात् श्रद्धा, दया आदि भावों से किसी वस्तु पर से अपना स्वामित्व हटा लेना और उस पर दूसरे का स्वामित्व स्थापित करना। व्युत्पत्तिगत भाव से देवों के प्रति श्रद्धा एवं पूजनीय भावना, यज्ञकाल में उनसे निकटता का अनुभव तथा उनके लिए द्रव्य, मन एवं प्राण को समर्पित कर देना यज्ञ है। यज्ञ का सात (7) अपरपर्याय अमरकोष में अमर सिंह ने दर्शाये हैं, वह इस प्रकार हैं- "यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः" (2.7.13 अमरकोष) अर्थात् 1. यज्ञ, 2. सव, 3. अध्वर, 4. याग, 5. सप्ततन्तु, 6. मख, एवं 7. क्रतु ये सभी यज्ञ शब्द का अपर पर्याय पुल्लिंग है। अन्यत्र अमरकोष में ही "इष्टिः" भी यज्ञ का पर्याय दर्शाया गया है जो स्त्रीलिंग शब्द है इस प्रकार 8 पर्याय शब्द यज्ञ के हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति यज्ञ प्रधान थी, जैसा कि ऋग्वेदादि ग्रन्थों में इसके सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उक्तियाँ कही गईं हैं। ऋग्वेद में उक्त - "यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवस्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्न" अर्थात् यज्ञ से ही विश्व की उत्पत्ति हुई है, यही जगत् का प्रथम धर्म था। "शतपथ-ब्राह्मण" में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म माना गया है- "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म"। यहीं यह भी कहा गया कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ देवता प्रजापति यज्ञ के रूप हैं- "एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत् प्रजापतिः"। जबकि अथर्ववेद में यज्ञ को संसार का केन्द्र (नाभि) माना गया है- "अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः।" स्पष्टतः यज्ञ भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ है। पूर्वमीमांसा के प्रारम्भिक ग्रन्थ "अर्थसंग्रह" में श्री लौगाक्षिभास्कर ने याग को धर्मस्वरूप में वर्णन किया है, जो सर्वमीमांसक सम्मत है। वह इस प्रकार हैं- "अथ को धर्मः, किं तस्य लक्षणमिति चेत्। उच्यते-यागादिरेव धर्मः। तल्लक्षणं- "वेद प्रतिपाद्यः प्रयोजनवदर्थो धर्म" इति"। भावार्थ यह है- यदि प्रश्न उठता हैं कि धर्म क्या है? उसका लक्षण क्या है? तो उत्तर देते हैं- याग आदि ही धर्म है। उसका लक्षण है- वेद के द्वारा प्रतिपादित प्रयोजनवत् अर्थ ही धर्म है। तथा मीमांसा सूत्रकार जैमिनि महर्षि द्वारा प्रतिपादित "चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः" (1.1.2 जै. सू.) इन दोनों लक्षणों में विरोध की प्रतीति हो सकती है, किन्तु वस्तुतः वह है नहीं। यह विरोध इसलिए प्रतीत होता है, क्योंकि "वेद प्रतिपाद्यः" कहने से वेद शब्द से उसके सभी भागों विधि-मन्त्र-नामधेय-निषेध और अर्थवाद का ग्रहण होता है, जिसका अर्थ यह निकलता है कि इन पाँचों वेद भागों से धर्म का प्रतिपादन होता है, केवल विधिभाग से नहीं, जबकि जैमिनिमुनि के धर्मलक्षण में "चोदनापद" से सामान्यतः केवल विधिभाग का ही ग्रहण होता हैं, मन्त्र आदि का नहीं। "चोदना शब्द" "चुद प्रेरणे" चौरादिक स्वार्थिक ण्यन्त धातु से "ण्यासश्रन्थो युच् (3.3.107) इस पाणिनीय सूत्र से युच् प्रत्यय तथा यु को "युवोरनाकौ" (पाणिनी सूत्र 7.1.1) से अन आदेश करके "अजाद्यतष्टाप्" (पाणिनी सूत्र 4.1.4) इस सूत्र से टाप् करके निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है प्रेरणा या प्रवर्तना, जबकि ‘विधि‘ का भी सीधा अर्थ विधायक, प्रेरक, प्रवर्तक आदि लिया जाता है। इस प्रकार ‘चोदना‘ और ‘विधि‘ समानार्थक हुये। किन्तु इस शंका का समाधान लौगाक्षि भास्कर जी ने इस प्रकार किया है- "तत्राऽपि चोदनाशब्दस्य वेदमात्रपरत्वात्।" अर्थात् जैमिनि सूत्र में चोदना पद का अर्थ विधि मात्र न मानकर पूरे वेद का वाचक मानना चाहिये। वैदिक काल में यागकृत्य के अन्तर्गत यद्यपि विद्वानों एवं कर्मकाण्डियों की जमघट भी होती थी, कृत्यपूर्णता पर दक्षिणायें भी दी जाती थी, किन्तु ‘देवपूजा‘ अर्थ का ही प्राधान्य था। परवर्ती काल में देवपूजा, सत्संग, दान यह सब पृथक् पृथक् भी धर्म स्वीकार किया जाने लगा। अब प्रश्न है कि ‘याग‘ शब्द ‘देवपूजा‘ अर्थ में रूढ़ और प्रधानतः मीमांसा में ही धर्म के रूप में स्वीकार्य होने पर भी ‘आदि‘ पद (याग + आदि) कहने की क्या आवश्यकता रही। यहाँ ‘आदि‘ पद से क्या अभीष्ट है, इस पर अर्थसंग्रह के टीकाकार यहाँ ‘आदि‘ पद से क्या अभीष्ट है, इस पर अर्थसंग्रह के टीकाकार यहाँ मौन हैं। श्री चिन्नास्वामी ने ‘मीमांसान्यायप्रकाश‘ पर अपनी ‘सारविवेचिनी‘ नामक टीका में ‘यागादि‘ पद पर विचार करते समय अवश्य ही कहा है- "आदिपदेन दान होमादयो द्रव्यगुणादयश्च गृह्यन्ते। और आगे चलकर कृष्णनाथ ने दूसरे प्रसंग में ‘आदि‘ का अर्थ किया है- "आदिपदाद् दध्ना जुहोति" ‘शुचिना कर्त्तव्यम्‘, ‘नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति‘ इत्यादि श्रुतिभिर्ये ये कर्मातिरिक्ता द्रव्यगुणाभावादयः क्रतूपकराकादिकमुद्दिश्य पुरूषं प्रति विधीयते तेषां परिग्रहः।" अर्थात् आदिपद से ‘दही से होम करता है‘, ‘पवित्र होकर कार्य करना चाहिए‘, ‘अतिरात्र में षोडशी का ग्रहण नहीं करता है‘ आदि श्रुतियों द्वारा जो कर्म के अतिरिक्त द्रव्य, गुण, अभाव आदि यज्ञोपकारक पुरुष के लिए विहित हैं उनका ग्रहण होता है। इस धर्म के रूप में स्वीकृत याग आदि का "यजेत स्वर्गकामः" स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को यज्ञ करना चाहिए। इत्यादि श्रुतिवाक्य द्वारा स्वर्ग को लक्ष्य करके पुरुष के लिये विधान किया जाता है। यद्यपि यहाँ प्रकटरूप में दृष्टिगोचर नहीं होता, तथापि विचारणीय प्रश्न यह है कि यागादि इस जीवन में पुरुषद्वारा सम्पन्न होने पर ही समाप्त हो जाते है और स्वर्गपर्यन्त स्थायी भी नहीं रहते, फिर उनसे मरणोत्तरकाल में प्राप्य स्वर्गादि की सिद्धि कैसे हो सकती है? इसका उत्तर है कि जिस प्रकार चिरविनष्ट अनुभव, संस्कार के द्वारा स्मृति का हेतु बनता है उसी प्रकार यागादि भी अपूर्व के माध्यम से ही स्वर्ग आदि के साधन परम्परया बनते हैं। यह अपूर्व फलभागी यज्ञकर्ता पुरूष में निष्ठ रहता है। मीमांसक अवान्तर व्यापार को भी इस प्रसंग में करण से भिन्न नहीं मानते। वस्तुतः अपूर्व आदि व्यापार के साथ याग आदि को ही उनके फलपर्यन्त स्थायी माना जाता है क्योंकि बिना इनको सम्पन्न किये अपूर्व नहीं बनता और अपूर्व बने बिना स्वर्गदि फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। यज्ञ का अपरपर्याय सम्पूर्ण वैदिककर्म पाँच भागों में विभक्त है- "स एष यज्ञः पंचविधोऽग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ चातुर्मास्यानि पशुः सोमः"। इति ऐतरेयब्राह्मणम्। ये श्रौत याग कहे जाते है। स्मृतौ तु "औपासनहोमः वैश्वदेवम्, पार्वणम्, अष्टका, मासिश्राद्धम्, श्रवणा, शूलगव इति सप्तपाकयज्ञसंस्थाः, अग्निहोत्रम्" इत्यादि (गौ0ध0 8/18)। अर्थात् श्रौत और स्मार्त दोनो मिलाकर इक्कीस (21) कर्म स्वरूप यज्ञ बताया गया। श्री सदानन्द प्रणीत वेदान्तसार नामक ग्रन्थ में वेदान्त अधिकारी के लक्षण में नित्यकर्मो का भी निरूपण है। वह इस प्रकार है- "नित्यानि अकरणे प्रत्यवाय-साधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि" इति। अर्थात् नित्य कर्म उसे कहते है जिनके करने से तो विशेष पुण्य न हो, किन्तु न करने से प्रत्यवाय-हानि-आगमी दुःख के ज्ञापक होते है। जैसे- संध्यावन्दन आदि। यहाँ आदि पद से व्याख्याकारों ने पंचमहायज्ञ इत्यादि का ग्रहण किया है। अतः पंचमहायज्ञ भी नित्य कर्म है। अतः संध्यावन्दन की तरह प्रतिदिन करणीय है। क्योंकि वेदों में कहा गया है- "अहरहः सन्ध्यामुपासीतः।" पंचमहायज्ञ - पाठो होमश्चातिथीनां सपर्या तर्पणं बलिः। एते पंचमहायज्ञाः ब्रह्मयज्ञादिनामकाः॥ (अमरकोष 2/7/14) (1) ब्रह्मयज्ञ, (2) देवयज्ञ, (3) भूतयज्ञ, (4) नृयज्ञ, (5) पितृयज्ञ है। इन यज्ञों का विधान गृहस्थों को चूल्हा, चक्की, झाड़ू, उखल-मूसल और पानी का घड़ा इन पात्रों से उत्पन्न होने वाले पापों से बचाने के लिए किया गया है जैसा कि मनुस्मृति में महर्षि मनु ने कहा है- "पंचसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः। कण्डनीं चोद कुम्भश्च वध्यते यास्तु वाहयन्॥1॥ तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः। पंच क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ॥2॥ ब्रह्मयज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा। नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्॥3॥ अध्ययनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिभूतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥4॥ पंचैतान् यो महायज्ञान् न हाययति शक्तिः। स गृहेऽपि वसेन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते॥5॥" मनु का यह स्पष्ट आशय है कि पंचमहायज्ञों के अभाव में उक्त वस्तुओं से होने वाली हिंसा से पाप होता है, और उक्त पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान करने पर पाप से मुक्ति प्राप्त होती है। अतः पंचमहायज्ञों का अभाव उक्त हिंसा जन्य पाप के जनन में उक्त हिंसा का सहकारी है। (1) "ब्रह्मयज्ञ" इसे ऋषियज्ञ भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत वेदों का अध्ययन एवं निःशुल्क अध्यापन, स्वाध्याय तथा सन्ध्योपासना आदि कर्म प्रमुख है। दिन के द्वितीय भाग में सम्पादित इसे, ब्राह्मणों के लिए परम तप कहा गया है। शास्त्रादि का अध्ययन-अध्यापन करने पर ज्ञान में वृद्धि आती है। जिससे मनुष्य अनेक विध कल्याणपरक कार्यों को सम्पादित करने में सक्षम होता है। स्वाध्याय के द्वारा वह अपना आत्मविश्लेषण करता है जिससे सद्गुणों एवं अवगुणों का पता चलता है, तदनुसार स्वयं में सुधार का प्रयास किया जाता है। सन्ध्योपासना भी ऋषियज्ञ का प्रमुख कर्म माना गया है। ब्रह्मचर्य-समाप्ति के अनन्तर ज्ञानोपार्जन कार्य भी समाप्त हो जाता है- ऐसी अविवेक पूर्ण विचार धारा को नष्ट करने के लिए ही इस यज्ञ को गृहस्थों के लिए अनिवार्य बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक में इस यज्ञ को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बताया गया है। (2) "देवयज्ञ" अग्निहोत्र के नाम से भी यह जाना जाता है। यह प्रातः काल एवं सायंकाल किया जाना चाहिए। इस यज्ञ में अग्नि प्रज्वलित करके उसमें सामग्री डालकर अन्न, घृत, धान्यादि की आहुति देकर होम किया जाता था। आर्ष-ग्रन्थों में इस यज्ञ की अत्यधिक प्रशंसा की गई है। ऐतरेय-ब्राह्मण में कथन है कि स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अग्निहोत्र करना चाहिए- ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः‘। अग्नि के द्वारा पवित्रीकरण का कार्य होता है। ऋषियों ने वायु-शुद्धि के लिए एक अत्यन्त सरल एवं उपयोगी ढंग ‘अग्निहोत्र‘ पर बल दिया। घृत, चन्दन, कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थो की आहुतियाँ दिये जाने से धुआँ उत्पन्न होता है, जिससे वातावरण पूर्णतया शुद्ध हो जाता है, जल तथा वायु में विद्यमान विषैले कीटाणुओं का नाश हो जाता है और मानव की प्राण शक्ति में वृद्धि होती है। स्पष्टतः स्वास्थ्य के लिए एवं वर्षा में भी सहायक होते है। अच्छी वर्षा से फसल अच्छे होंगे जिससे समाज में आर्थिक उन्नति होती है। (3) भूतयज्ञ स्मृति-ग्रन्थों में इस यज्ञ को ‘बलिवैश्वदेवयज्ञ‘ की संज्ञा दी गयी है। भोजन करने से पूर्व इसका विधान किया जाता था। प्राणियों की बलि इसमें दी जाती थी। इसके द्वारा देव, पितर, वनस्पति तथा पशु, पक्षी आदि तृप्ति प्राप्त करते थे। भोजन बनने के अनन्तर इस यज्ञ में खट्टा, लवणान्न तथा क्षार के अलावा, इन्हें छोड़कर घृतयुक्त मिष्टान्न आदि भोजन की आहुतियाँ चूल्हे से पृथक् रखी हुई अग्नि में दी जाती थी। ‘मनुस्मृति‘ में कहा गया है- "वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृहेऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥" इति। विविध मंत्रों के उच्चारण करने के साथ होम करके लवणान्न अर्थात् दाल, भात, शाक, रोटी आदि छः भाग भूमि पर रखा करें। इस तरह श्वोभ्यो नमः, पतितेभ्यो नमः, श्वोपग्भ्यो नमः, पापरोगिभ्यो नमः, वायसेभ्यो नमः, कृमिभ्यो नमः रखकर बाद में किसी कुत्ते, पतित, श्वपच, पापी, रोगी, काक, कृमि आदि को दिया करे। ‘नमः‘ शब्द यहाँ अन्नार्थक है। ‘मनुस्मृति‘ में कथन है- "शुनां च पतितां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकर्निवपेद भुवि॥" इसका प्रमुख प्रयोजन यह है कि प्राणिमात्र के प्रति कर्त्तव्य का बोधन हो। जो असहाय है, अपनी सेवा करने में, या यूँ कहें कि अपनी आवश्यकता की पूर्ति करने में जो अक्षम है, उनकी विविध प्रकार से सहायता की जाय। (4) नृयज्ञ इसे ‘अतिथियज्ञ‘ के नाम से भी जाना जाता है। निश्चय ही इसमें अतिथियों के प्रति कर्त्तव्य की बात होगी। भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता के समान माना गया है- "अतिथि देवो भव।" अतिथियों के प्रति गृहस्थों के हृदय में सेवा की भावना उत्पन्न करना इस यज्ञ का प्रमुख प्रयोजन है। "अज्ञात तिथिः यस्य सः अतिथिः" जिसकी कोई निश्चित तिथि नहीं हो अर्थात् अचानक धार्मिक, सत्योपदेशक, परोपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान् योगीजन जब घर आये तो उन्हें "अतिथि" कहा जाता है। इस सम्बन्ध में मनुस्मृति का वचन है- पूर्ण-विद्वान, जितेन्द्रिय, धार्मिक, सत्यवादी, छलकपट रहित तथा प्रतिदिन भ्रमण करने वाला व्यक्ति ही "अतिथि" कहलाता है। निष्कर्ष रूप में दान, यज्ञादि के द्वारा भी प्राप्त नहीं किये जा सकने वाले अनन्त फल को आतिथ्य से प्राप्त किया जा सकता है। (5) पितृयज्ञ यद्यपि इस यज्ञ के द्वारा माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा का विधान किया गया है तथापि सामान्यतः इस यज्ञ से मृत पितरों से सम्बन्धित तर्पणादि भाव को ग्रहण किया जाता है। अन्न की बलि के द्वारा इसमें पितरों को तृप्त किया जाता है। पितृयज्ञ द्विविध है- (1) श्राद्ध तथा (2) तर्पण। कहा गया है - "श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा यत् क्रियते तच्छाद्धम्"। अर्थात् जिस क्रिया के द्वारा सत्य का ग्रहण हो उसे श्रद्धा तथा जिस ‘श्रद्धा‘ से कर्म का सम्पादन हो, उसे ‘श्राद्ध‘ कहते है। एवं "तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत् तर्पणम्।" अर्थात् जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता-पिता आदि प्रसन्न हों, वही तर्पण है। लेकिन यह जीवितों के लिए है न कि मृतकों के लिए। निष्कर्षतः वैदिक काल में इन पंचमहायज्ञों की जो बात की गई थी, वह आज भी प्रासंगिक दिखाई देती है। कर्मकाण्ड की दृष्टि को छोड़ कर, इनका मौलिक अभिप्राय यही हैं कि प्रत्येक शिक्षित और प्रबुद्ध मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह समष्टि दृष्टि तथा सर्वभूत हित के आदर्शो के प्रकाश में ही अपने वैयक्तिक जीवन का निर्वाह करें। उसको ज्ञान एवं विद्या की उन्नति में (ब्रह्मयज्ञ), अपने पितृ, पितामह आदि की परम्परा में (पितृयज्ञ), प्राणियों के हित में (भूतयज्ञ), अतिथि सेवा में तथा मानव के महत्व तथा मान-कल्याण (नृयज्ञ) में, पर्यावरण में (देवयज्ञ) सम्यक्, निश्छल, निष्काम, आस्था रखनी चाहिए। रामकेश्वर तिवारी वरिष्ठ अनुसन्धाता (व्याकरण विभाग) संस्कृतविद्या धर्म विज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी अपनी प्रतिक्रिया लेखक को भेजें 

भगवान शब्द की व्याख्या

सामग्री पर जाएं क्योकीमेनू भगवान शब्द का अर्थ भगवान शब्द की परिभाषा क्या है ? इसे जानने के लिए हमें उस शब्द पर विचार करना है । उसमें प्रकृति और प्रत्यय रूप २ शब्द हैं–भग + वान् . वान के अर्थ हुये वाला. तथा भग का अर्थ विष्णु पुराण ,६/५/७४ में बताया गया हैं: “ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।” अर्थात सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्तिविशेष ) , यश ,श्री ,समस्त ज्ञान , और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं। इस प्रकार भगवन शब्द से तात्पर्य हुआ उक्त छह गुणवाला, दुसरे शब्दों में ये छहों गुण जिसमे नित्य रहते हैं, उन्हें भगवान कहते हैं। भगोस्ति अस्मिन् इति भगवान्, यहाँ भग शब्द से मतुप् प्रत्यय नित्य सम्बन्ध बतलाने के लिए हुआ है । अर्थात् पूर्वोक्त छहों गुण जिनमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान् कहा जाता है | मतुप् प्रत्यय नित्य योग (सम्बन्ध) बतलाने के लिए होता है – यह तथ्य वैयाकरण भलीभांति जानते है— यदि भगवान शब्द को अक्षरश: सन्धि विच्छेद करे तो: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ भ धोतक हैं भूमि तत्व का, अ से अग्नि तत्व सिद्द होता है. ग से गगन का भाव मानना चाहिये. वायू तत्व का उद्घोषक है वा (व्+आ) तथा न से नीर तत्व की सिद्दी माननी चाहिये. ऐसे पंचभूत सिद्द होते है. अर्थात यह पंच महाभोतिक शक्तिया ही भगवान है. (जो चेतना (शिव) से संयुक्त होने पर दृश्मान होती हैं.) भगवान शब्द की अन्यत्र भी व्यांख्याये प्राप्त होती है जो सन्दर्भार्थ उल्लेखनीय हैं: “भूमनिन्दाप्रशन्सासु नित्ययोगेतिशायने |संसर्गेस्ति विवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ||” -सिद्धान्तकौमुदी , पा.सू .५/२/९४ पर वार्तिक, और यही भगवान् उपनिषदों में ब्रह्म शब्द से अभिहित किये गए हैं और यही सभी कारणों के कारण होते है। किन्तु इनका कारण कोई नही। ये सम्पूर्ण जगत या अनंतानंत ब्रह्माण्ड के कारण परब्रह्म कहे जाते है । इन्ही के लिये वस्तुतः भगवान् शब्द का प्रयोग होता है— “शुद्धे महाविभूत्याख्ये परे ब्रह्मणि शब्द्यते । मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे ।।” – विष्णुपुराण ६/५/७२ यह भगवान् जैसा महान शब्द केवल परब्रह्म परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है ,अन्य के लिए नही “एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति । परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ।।” –विष्णु पुराण,६/५/७६ , इन परब्रह्म में ही यह भगवान् शब्द अपनी परिभाषा के अनुसार उनकी सर्वश्रेष्ठता और छहों गुणों को व्यक्त करता हुआ अभिधा शक्त्या प्रयुक्त होता है,लक्षणया नहीं । और अन्यत्र जैसे–भगवान् पाणिनि , भगवान् भाष्यकार आदि । इसी तथ्य का उद्घाटन विष्णु पुराण में किया गया है— “तत्र पूज्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमन्वितः । शब्दोयं नोपचारेण त्वन्यत्र ह्युपचारतः ।।”–६/५/७७, ओर ये भगवान् अनेक गुण वाले हैं –ऐसा वर्णन भगवती श्रुति भी डिमडिम घोष से कर रही हैं– “परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलाक्रिया च”—श्वेताश्वतरोपनिषद , ६/८, इन्हें जहाँ निर्गुण कहा गया है –निर्गुणं , निरञ्जनम् आदि, उसका तात्पर्य इतना ही है कि भगवान् में प्रकृति के कोई गुण नहीं हैं । अन्यथा सगुण श्रुतियों का विरोध होगा । अत एव छान्दोग्योपनिषद् में भगवान् के सत्यसंकल्पादि गुण बतलाये गए– “एष आत्मापहतपाप्मा –सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः” |–८/१/५, यः सर्वज्ञः सर्ववित्—मुण्डकोपनिषद् १/१/९ , जो सर्वज्ञ –सभी वस्तुओं का ज्ञाता, तथा सर्वविद् – सर्ववस्तुनिष्ठसर्वप्रकारकज्ञानवान –सभी वस्तुओं के आतंरिक रहस्यों का वेत्ता है । इसलिए वे प्रकृति –माया के गुणों से रहित होने के कारण निर्गुण और स्वाभाविक ज्ञान ,बल , क्रिया ,वात्सल्य ,कृपा ,करुणा आदि अनंत गुणों के आश्रय होने से सगुण भी हैं । ऐसे भगवान् को ही परमात्मा परब्रह्म ,श्रीराम ,कृष्ण, नारायण,शि ,दुर्गा, सरस्वती आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है । इसीलिये वेद वाक्य है कि ” एक सत्य तत्त्व भगवान् को विद्वान अनेक प्रकार से कहते हैं– “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति .” ऐसे भगवान् की भक्ति करने वाले को भक्त कहा जाता है । जैसे भक्त भगवान के दर्शन के लिए लालायित रहता है और उनका दर्शन करने जाता है । वैसे ही भगवान् भी भक्त के दर्शन हेतु जाते हैं | भगवान ध्रुव जी के दर्शन की इच्छा से मधुवन गए थे – “मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः “–भागवत पुराण ,४/९/१ जैसे भक्त भगवान की भक्ति करता है वैसे ही भगवान् भी भक्तों की भक्ति करते हैं । इसीलिये उन्हे भक्तों की भक्ति करने वाला कहा गया है— “भगवान् भक्तभक्तिमान्”–भागवत पुराण–१० / ८६/५९  भगवान का अर्थ  माँ पार्वती, माँ लक्ष्मी एवं माँ सरस्वती की त्रिगुणात्मक मूर्ती  माँ शक्ती के रूप  पंच महाभूतो की त्रिगुणात्मक प्रतिमा लेखक स्वामीप्रकाशित जून 10, 2016श्रेणिया हिन्दूटैग्स भगवान, भगवान का अर्थ, भगवान का परिचय, भगवान कौन है?, भगवान शब्द की व्यांख्या प्रातिक्रिया दे आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं * टिप्पणी  नाम *  ईमेल *  वेबसाईट  टिप्पणी करे पोस्ट नेविगेशन पिछला पिछला पोस्ट:हुनमान जी किनके पुत्र थे? अगला अगला पोस्ट:मूर्ति पूजा का रहस्य सम्प्रति क्या गौतम बुद्ध वस्तुत: बुद्ध पुरुष थे? हिन्दू वर्ण व्यवस्था मूर्ति पूजा का रहस्य भगवान शब्द का अर्थ हुनमान जी किनके पुत्र थे? विचार धारा मार्च 2017 अगस्त 2016 जून 2016 विचार विषय रामायण हिन्दू विचार कणिकाये क्या हनुमान जी वानर थे क्या हनुमान जी वायु पुत्र थे गौतम बुद्ध गौतम बुद्ध का जीवन गौतम बुद्ध का परिचय गौतम बुद्ध की भारत को देन गौतम बुद्ध की शिक्षाये गौतम बुद्ध कौन थे बोद्ध धर्म्म बौध धम्म बौध धम्म का परिचय भगवान भगवान का अर्थ भगवान का परिचय भगवान कौन है? भगवान शब्द की व्यांख्या मूर्ति उपासना मूर्ति पूजा मूर्ति पूजा उद्देश्य मूर्ति पूजा का औचित्य मूर्ति पूजा का रहस्य मूर्ति पूजा का सच मूर्ति पूजा की अवधारणा मूर्ति पूजा की उत्पत्ती मूर्ति पूजा की वजह मूर्ति पूजा की सार्थकता मूर्ति पूजा क्यों रामायण हनुमान हनुमान के माता पिता हनुमान कौन थे? हनुमान जी का परिचय हनुमान जी कोन थे हनुमान जी को शंकर सुवन क्यों कहते है हनुमान जी से जुड़ी भ्रान्तिया हिन्दू जाति हिन्दू जाति व्यवस्था हिन्दू मूर्ति पूजा क्यों करते हैं? हिन्दू वर्ण व्यवस्था का आधार हिन्दू वर्ण व्यवस्था का उदय हिन्दू वर्ण व्यवस्था की कहानी हिन्दू समाज के आधार हिन्दू समाजिक व्यवस्था हुनमान जी का वास्तविक परिचय हुनमान जी किनके पुत्र थे हिन्दू योग रामायण महाभारत समयिकी अन्य प्रशनोत्तरी क्योकी गर्व से WordPress द्वारा संचालित

भगवान

मुख्य मेनू खोलें  खोजें मेरी अधिसूचनाएँ दिखाएँ 1 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें भगवान भगवान गुण वाचक शब्द है जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह "भग" धातु से बना है ,भग के ६ अर्थ है:- १-ऐश्वर्य २-वीर्य ३-स्मृति ४-यश ५-ज्ञान और ६-सौम्यता जिसके पास ये ६ गुण है वह भगवान है। पाली भाषा में भगवान "भंज" धातु से बना है जिसका अर्थ हैं:- तोड़ना। जो राग,द्वेष ,और मोह के बंधनों को तोड़ चुका हो अथवा भाव में पुनः आने की आशा को भंग कर चुका हो भावनाओ से परे जहाँ सारे विचार शून्य हो जाये और वहीँ से उनकी यात्रा शुरु हो उसे भगवान कहा जाता है। संज्ञा संपादित करें संज्ञा के रूप में भगवान् हिन्दी में लगभग हमेशा ईश्वर / परमेश्वर का मतलब रखता है। इस रूप में ये देवताओं के लिये नहीं प्रयुक्त होता। विशेषण संपादित करें विशेषण के रूप में भगवान् हिन्दी में ईश्वर / परमेश्वर का मतलब नहीं रखता। इस रूप में ये देवताओं, विष्णु और उनके अवतारों (राम, कृष्ण), शिव, आदरणीय महापुरुषों जैसे गौतम बुद्ध, महावीर, धर्मगुरुओं, गीता, इत्यादि के लिये उपाधि है। इसका स्त्रीलिंग भगवती है। इन्हें भी देखें संपादित करें जैन धर्म में भगवान संवाद Last edited 2 months ago by संजीव कुमार RELATED PAGES ईश्वर आरती आस्तिकता  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

धर्मसूत्र

मुख्य मेनू खोलें  खोजें मेरी अधिसूचनाएँ दिखाएँ 1 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें धर्मसूत्र धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य आदि का विधान है। ये गृह्यसूत्रों की शृंखला के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के समान ही, माना जाता है कि प्रत्येक शाखा के धर्मसूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वर्तमान समय में सभी शाखाओं के धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धि का एक कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवलित हो गया। इसका दूसरा कारण यह माना जाता है कि सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्मसूत्रों का संभवत: प्रणयन ही नहीं किया गया, क्योंकि इन शाखाओं के द्वारा किसी अन्य शाखा के धर्मसूत्रों को ही अपना लिया गया था। पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दिया है। धर्मसूत्रों का उद्भव एवं विकास संपादित करें आर्यों के रीति-रिवाज वेदादि प्राचीन शास्त्रों पर आधृत थे किन्तु सूत्रकाल तक आते-आते इन रीति-रिवाजों, सामाजिक संस्थानों तथा राजनीतिक परिस्थितियों में पर्याप्त परिवर्तन एवं प्रगति हो गयी थी अत: इन सबको नियमबद्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गयी। सामाजिक विकास के साथ ही उठी समस्याएँ भी प्रतिदिन जटिल होती जा रही थीं। इनके समाधान का कार्यभार अनेक वैदिक शाखाओं ने संभाल लिया, जिसके परिणामस्वरूप गहन विचार-विमर्श पूर्वक सूत्रग्रन्थों का सम्पादन किया गया। इन सूत्रग्रन्थों ने इस दीर्घकालीन बौद्धिक सम्पदा को सूत्रों के माध्यम से सुरक्षित रखा, इसका प्रमाण इन सूत्रग्रन्थों में उद्धृत अनेक प्राचीन आचार्यों के मत-मतान्तरों के रूप में मिलता है। यह तो विकास का एक क्रम था जो तत्कालिक परिस्थिति के कारण निरन्तर हो रहा था। यह विकासक्रम यहीं पर नहीं रुका अपितु सूत्रग्रन्थों में भी समयानुकूल परिवर्तन एवं परिवर्धन किया गया जिसके फलस्वरूप ही परवर्ती स्मृतियों का जन्म हुआ। नयी-नयी समस्याएँ फिर भी उभरती रहीं। उनके समाधानार्थ स्मृतियों पर भी भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गयीं जिनके माध्यम से प्राचीन वचनों की नवीन व्याख्याएँ की गयीं। इस प्रकार अपने से पूर्ववर्ती आधार को त्यागे बिना ही नूतन सिद्धान्तों तथा नियमों के समयानुकूल प्रतिपादन का मार्ग प्रशस्त कर लिया गया। धर्मसूत्रों का स्वरूप संपादित करें जैसा कि नाम से ही विदित है कि धर्मसूत्रों में व्यक्ति के धर्मसम्बन्धी क्रियाकलापों पर विचार किया गया है, किन्तु धर्मसूत्रों में प्रतिपादित धर्म किसी विशेष पूजा-पद्धति पर आश्रित न होकर समस्त आचरण व व्यवहार पर विचार करते हुए सम्पूर्ण मानवजीवन का ही नियन्त्रक है। 'धर्म' शब्द का प्रयोग वैदिक संहिताओं तथा उनके परवर्ती साहित्य में प्रचुर मात्रा में होता जा रहा है। यहाँ पर यह अवधेय है कि परवर्ती साहित्य में धर्म शब्द का वह अर्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जो कि वैदिक संहिताओं में उपलब्ध है। संहिताओं में धर्म शब्द विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त है। अथर्ववेद में पृथिवी के ग्यारह धारक तत्त्वों की गणना ‘पृथिवीं स्धारयन्ति’ कहकर की गयी है। इसी प्रकार ॠग्वेद* में ‘तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्’ कहकर यही भाव प्रकट किया गया है। इस प्रकार यह धर्म किसी देशविशेष तथा कालविशेष से सम्बन्धित न होकर ऐसे तत्वों को परिगणित करता है जो समस्त पृथिवी अथवा उसके निवासियों को धारण करते हैं। वे नियम शाश्वत हैं तथा सभी के लिए अपरिहार्य हैं। मैक्समूलर ने भी धर्म के इस स्वरूप की ओर इन शब्दों में इंगित किया है- प्राचीन भारतवासियों के लिए धर्म सबसे पहले अनेक विषयों के बीच एक रुचि का विषय नहीं था अपितु वह सबका आत्मसमर्पण कराने वाली विधि थी। इसके अन्तर्गत न केवल पूजा और प्रार्थना आती थी अपितु वह सब भी आता था जिसे हम दर्शन, नैतिकता, क़ानून और शासन कहते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन उनके लिए धर्म था तथा दूसरी चीजें मानों इस जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के लिए निमित्त मात्र थीं। संहिताओं के परवर्ती साहित्य में धर्म केवल वर्णाश्रम के आचार-विचार तथा क्रियाकलापों तक ही सीमित रह गया। उपनिषित-काल में धर्म का यही स्वरूप उपलब्ध होता है। छान्दोग्य उपनिषद* में धर्म के तीन स्कन्ध गिनाए गये हैं। इनमें यज्ञ, अध्ययन तथा दान प्रथम, तप द्वितीय तथा आचार्यकुल में वास तृतीय स्कन्ध है। स्पष्ट ही इनके अन्तर्गत वर्गों में रूढ़ होकर परवर्ती काल में पूजापद्धति को भी धर्म ने अपने में समाविष्ट कर लिया। इतना होने पर भी सभी ने धर्म का मूल वेद को माना जाता है। मनु ने तो इस विषय में 'धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:' तथा 'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' आदि घोषणा करके वेदों को ही धर्म का मूल कहा है।* गौतम धर्मसूत्र में तो प्रारम्भ में ही 'वेदों धर्ममूलम'।* ‘तद्विदां च स्मृतिशीले’* सूत्रों द्वारा यही बात कही गयी है। ये दोनों सूत्र मनुस्मृति के 'वेदोंऽखिलो धर्ममूलम स्मृतिशीले च तद्विदाम्' श्लोकांश के ही रूपान्तर मात्र हैं। इसी प्रकार वासिष्ठ धर्मसूत्र* में भी 'श्रुतिस्मृतिविहितो धर्म:' कहकर धर्म के विषय में श्रुति तथा स्मृति को प्रमाण माना है। बौधायन धर्मसूत्र में श्रुति तथा स्मृति के अतिरिक्त शिष्टाचरण को भी धर्म का लक्षण कहकर मनुस्मृति में प्रतिपादित श्रुति, स्मृति तथा शिष्टाचरण को ही सूत्र रूप में निबद्ध किया है। इस प्रकार धर्म के लक्षण में श्रुति के साथ स्मृति तथा शिष्टाचरण को भी सम्मिलित कर लिया गया। दर्शनशास्त्र में धर्म का लक्ष्य लोक-परलोक की सिद्धि* कहकर अत्यन्त व्यापक कर दिया गया तथा एक प्रकार से समस्त मानव-जीवन को ही इसके द्वारा नियन्त्रित कर दिया गया। वैशेषिक दर्शन के उक्त लक्षण का यही अर्थ है कि समस्त जीवन का, जीवन के प्रत्येक श्वास एवं क्षण का उपयोग ही इस रीति से किया जाए कि जिससे अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सिद्धि हो सके। इसमें ही अपना तथा दूसरों का कल्याण निहित है। धर्म मानव की शक्तियों एवं लक्ष्य को संकुचित नहीं करता अपितु वह तो मनुष्य में अपरिमित शक्ति देखता है जिसके आधार पर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सिद्धि नामक लक्ष्य इतना महान है कि इससे बाहर कुछ भी नहीं है। इसे प्राप्त करने की नि:सीम सम्भावनाएँ मनुष्य में निहित हैं। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक पक्ष पर धर्म विचार करता है तथा अपनी व्यवस्था देता है। धर्मसूत्रों का महत्व एवं प्राथमिकता संपादित करें इस व्यवस्था के प्रतिपादक ही धर्मसूत्र तथा स्मृतियाँ हैं। धर्मसूत्रकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों द्वारा मानवजीवन को इस प्रकार नियंत्रित करने का यत्न किया कि जिससे वह उक्त दोनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। धर्मसूत्रकारों ने मानव जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक समस्या पर विचार करके अपनी व्यवस्था दी है जिससे कि मानव जीवन व्यवस्थित रूप से चल सके। इसीलिए उन्होंने वर्णधर्म, आश्रम-धर्म, राजधर्म, प्रजाधर्म, खानपान, पाप, प्रायश्चित्त, जाति-प्रथा, दायाद, विवाह आदि प्रत्येक प्रमुख विषयों पर उत्तम रीति से विवेचन किया। धर्मसूत्रों का व्यक्ति के सामाजिक जीवन की दृष्टि से अत्यन्त महत्व है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर ही उसे अपने आचार-व्यवहार, नैतिकता आदि का पालन करना होता है। समाज की दृष्टि से अपने आप को नियन्त्रित करना होता है। उच्छृङ्-खलता-नियम-रहितता या अनैतिकता के रहते समाज चल नहीं सकता। धर्मसूत्रों में व्यक्ति के सामाजिक जीवन के सम्पादनार्थ नियम बनाए गये हैं। उन नियमों के द्वारा ही समाज में व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा अधिकारों का नियन्त्रण होता है। धर्मसूत्रों में समाज के विभिन्न वर्गों के पारस्परिक आचार-व्यवहार आदि का भी क्रमिक वर्णन रहता है तथा विभिन्न स्थितियों से गुजरते हुए व्यक्ति के कर्तव्य एवं अधिकारों का भी उल्लेख रहता है। कभी-कभी धर्मसूत्र गृह्यसूत्रों के प्रतिपाद्य विषयों पर भी विचार करते प्रतीत होते हैं किन्तु ऐसा कम स्थानों पर ही है। गृह्यसूत्रों में पाकयज्ञ, विवाह, संस्कार, श्राद्ध, मधुपर्क आदि का वर्णन रहता है। इस प्रकार गृह्यसूत्रों में व्यक्ति के गृहस्थ जीवन के संचालनार्थ ऐसे रीति-रिवाज तथा नियमों का वर्णन है जो व्यक्ति के धार्मिक जीवन को संयमित तथा अनुशासित करते हैं किन्तु व्यक्ति का जीवन केवल धर्म तक ही तो सीमित नहीं है। उसे सामाजिक जीवन भी जीना होता है जहाँ उसकी कुछ सामाजिक समस्याएँ होती हैं, उसके सामाजिक एवं नैतिक दायित्व भी होते हैं जिनके पूर्ण न करने पर या उनको तोड़ने पर दण्ड का विधान भी किया जाता है। धर्मसूत्रों का महत्व इसी दृष्टि से है कि इन सामाजिक एवं नैतिक दायित्वों तथा इनके पूर्ण न करने पर विविध प्रकार के दण्डों का विधान धर्मसूत्रकार ही करते हैं। इस प्रकार धर्मसूत्रों का क्षेत्र समाज में व्याप्त विविध वर्गों तथा आश्रमों के जीवन और उनकी समस्याओं तक विस्तृत है, जबकि गृह्यसूत्रों का क्षेत्र अपनी शाखाओं के अन्तर्गत प्रचलित नियमों तथा रीति-रिवाजों तक ही सीमित है। महत्व संपादित करें धर्मसूत्रों का महत्व उनके विषय-प्रतिपादन के कारण है। सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम-पद्धति है। धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-व्यवस्था के आधार पर ही विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें वर्णों के कर्तव्यों तथा अधिकारों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। धर्मसूत्रकार आपत्काल में भी मन से ही आचार-पालन पर बल देते हैं। अयोग्य तथा दूषित व्यक्ति से परिग्रह का सर्वथा निषेध किया गया है। वर्णों एवं आश्रमों के कर्तव्य-निर्धारण की दृष्टि से भी धर्मसूत्र पर्याप्त महत्व रखते हैं। धर्मसूत्रों के काल तक आश्रमों का महत्व पर्याप्त बढ़ गया था अत: धर्मसूत्रों में एताद्विषयक पर्याप्त निर्देश दिये गये हैं। सभी आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम है तथा उसका आधार है विवाह। धर्मसूत्रों में विवाह पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यहाँ पर यह विशेष है कि अष्टविध विवाहों में सभी धर्मसूत्रकारों ने न तो एक क्रम को अपनाया तथा न ही उनकी श्रेष्ठता के तारतम्य को सभी ने स्वीकार किया। प्रतोलोम विवाह की सर्वत्र निन्दा की गयी है। विवाहोपरान्त पति-पत्नी के धार्मिक कृत्य एक साथ करने का विधान है। धन-सम्पत्ति पर दोनों का समान रूप से अधिकार माना गया है। गृहस्थ के लिए पञ्च महायज्ञ तथा सभी संस्कारों की अनिवार्यता यहाँ पर प्रतिपादित की गयी है। धर्मसूत्रकार इस बात से भी भलीभाँति परिचित थे कि मर्यादा-उल्लंघन से समाज में वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। धर्मसूत्रकारों ने वर्णसंकर जातियों को भी मान्यता प्रदान करके उनकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण कर दिया तथा वर्णव्यवस्था का पालन कराकर वर्णसंकरता को रोकने का दायित्व राजा को सौंप दिया गया। गौतम धर्मसूत्र* में जात्युत्कर्ष तथा जात्यपकर्ष का सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार वर्णाश्रम के विविध कर्तव्यों का प्रतिपादन करके इसके साथ पातक, महापातक, प्रायश्चित्त, भक्ष्याभक्ष्य, श्राद्ध, विवाह और उनके निर्णय, साक्षी, न्यायकर्ता, अपराध, दण्ड, ॠण, ब्याज, जन्म-मृत्युविषयक अशौच, स्त्री-धर्म आदि ऐसे सभी विषयों पर धर्मसूत्रों में विचार किया गया है, जिनका जीवन में उपयोग है। आचार की महत्ता संपादित करें धर्मसूत्रकारों ने व्यक्ति के आचार एवं व्यवहार पर बहुत बल दिया है। आचार ही मानव का आधार है; वही धर्म का तत्व है, इस बात को धर्मशास्त्रकार भली-भाँति जानते थे। मनुस्मृति में तो आचार पर यहाँ तक बल दिया गया है कि उसे ही 'परम धर्म' कह दिया गया तथा कहा गया है कि आचारभ्रष्ट व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकता। इसी प्रकार का विचार वसिष्ठ धर्मसूत्र* में व्यक्त किया गया है। हमें धर्म को अपने व्यवहार में उतारना चाहिए, न कि केवल शब्दमात्र में। यद्यपि सदाचार का पालन अत्यन्त अपरिहार्य है। तभी समाज स्थिर रह सकता है, किन्तु इसके साथ ही यह तथ्य भी स्मरणीय है कि सदाचार का पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य है। सतत प्रयत्न करते रहने पर भी आचरण-भ्रष्टता सम्भव है तथा कुछ व्यक्ति जानबूझकर भी समाज-विरोधी तथा शास्त्र-विरोधी आचरण कर देते हैं। आचारहीनता किसी भी कारण से हो, ऐसा व्यक्ति पतित कहलाता है। धर्मसूत्रकार इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे। वे यह भी जानते थे कि ऐसे व्यक्ति को दुराचरण अथवा उसके अपराध का दण्ड तो मिलना ही चाहिए, किन्तु यदि वह मन से अपने पापकर्म पर पाश्चाताप करता है तो पुन: उसे श्रेष्ठ बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए न कि सदैव के लिए ही उसके जीवन को अन्धकारमय बना देना चाहिए। इसी उद्देश्य से धर्मसूत्रकारों ने दुष्टाचारी के लिए अनेक प्रकार के दण्डों एवं प्रायाश्चितों का विधान किया जाता है जिससे वह व्यक्ति शुद्ध हो सके। धर्मसूत्रों की दृष्टि में अपराधी व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं हैं, बल्कि वह स्नेह एवं सहानुभूति का पात्र है। धर्मसूत्रकारों की मान्यता के मूल में कर्म सिद्धान्त हैं, जिसके अनुसार किया हुआ कोई भी शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होता, अपितु अच्छे-बुरे किसी न किसी फल को अवश्य ही उत्पन्न करता है। उन कर्मों का फल चाहे इसी जन्म में मिल जाए, चाहे अगले जन्म में, किन्तु वह मिलेगा अवश्य। इसलिए वर्तमान तथा भावी दोनों ही जन्म शुद्ध हो सकें, यही धर्मसूत्रकारों का यत्न है। आचारशास्त्र के मूल में कर्मसिद्धान्त ही है। यही पाप को दूर करने की प्रेरणा देता है। वर्णाश्रम धर्म के साथ ही धर्मसूत्रों में राजधर्म का भी गहन विवेचन किया गया है। राजा में दैवीय अंश की कल्पना की गयी है। धर्मसूत्रों में राजा के कर्तव्य, अधिकार एवं समाजविरोधी तत्वों के लिए दण्ड-व्यवस्था पर भी विचार किया गया है। धर्म तथा अर्थ के विरोध की स्थिति में राजा को धर्म का ही पक्ष लेना चाहिए। राजा के लिए युद्धादि के नियमों का उल्लेख भी इन ग्रन्थों में किया गया है यथा ब्राह्मण, पीठ दिखाने वाला, भूमि पर बैठने वाला ये अवध्य कहे गये हैं। इस प्रकार धर्मसूत्र राजशास्त्र के प्रमुख विषयों तथा उपादानों की सामान्य विवेचना प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार अपने समय में वर्णाश्रम के कर्तव्यों का निर्धारण करके धर्मसूत्रकारों ने समाज को उचित दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। साथ ही अपराधों के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित तथा दण्ड-विधान करके समाज को अपराधमुक्त करने का भी यत्न किया। सामाजिक रीति-रिवाजों एवं आचार-व्यवहार को मान्यता प्रदान करना धर्मसूत्रकारों का ही कार्य था। प्रतीत होता है कि उस काल में धर्मसूत्रकार समाज को सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से नियन्त्रित एवं संयमित करने में लगे हुए थे। एक सभ्य एवं स्वस्थ समाज के लिए यह अनिवार्य था। प्रासंगिकता संपादित करें आज समाज में पूर्वापेक्षया अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। यथा-आज राजनीतिक प्रणाली एवं न्याय-व्यवस्था बदल चुकी है। शिक्षा का स्वरूप तथा संस्थाएँ भी वे नहीं हैं, जो प्राचीनयुग में थीं। वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मगत जाति-प्रथा ने ले लिया है। सामाजिक तथा नैतिक मूल्य भी पूर्वापेक्षया परिवर्तित हुए हैं। दायाद तथा सम्पत्ति-विभाजन आदि के लिए भी आज राजनीतिक क़ानून ही सर्वमान्य हैं, इत्यादि। ऐसे समय में इन धर्मसूत्रों की परिमित प्रासंगिकता ही मानी जा सकती है। गौतम तथा बौधायन आदि धर्मसूत्रों से हमें पर्याप्त मात्रा में भौगोलिक संकेत भी प्राप्त होते हैं, यथा बौधायन धर्मसूत्र* में शिष्टों के देश की सीमा बतलायी गयी है। यही आर्यावर्त है तथा इस प्रदेश का आचरण अन्यों के लिए प्रमाण है। मनुस्मृति में भी इसका उल्लेख किया गया है।* में अन्य आचार्यों का मत भी दिया गया है कि गंगा तथा यमुना के बीच का प्रदेश भी आर्यावर्त है। इस प्रकार भौगोलिक जानकारी देने के रूप में भी ये सूत्रग्रन्थ महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन धर्मग्रन्थों में अनेक प्राचीन आचार्यों के मतों का नाम लेकर या बिना नाम लिए ही उल्लेख किया गया जिससे हमें उनके मत जानने में भी सहायता मिलती है। धर्मसूत्रों* से हमें जातियों की उत्पत्ति का इतिहास जानने में भी पर्याप्त सहायता मिलती है। धर्मसूत्र तथा धर्मशास्त्र में अन्तर संपादित करें (1) अधिकतर धर्मसूत्र या तो किसी सूत्रचरण से सम्बद्ध कल्प के भाग है या गृह्यसूत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, जबकि धर्मशास्त्र किसी भी सूत्रचरण से सम्बन्धित नहीं हैं। (2) धर्मशास्त्र पद्यमय हैं, जबकि धर्मसूत्र गद्य या गद्य-पद्य में होते हैं। (3) धर्मसूत्रों में अपनी शाखा के वेद अथवा चरण के प्रति आदर विशेष रहता है, जबकि धर्मशास्त्रों में ऐसा नहीं है। (4) धर्मसूत्रों में विषय-विवेचन का कोई निश्चित क्रम नहीं रहता, जबकि धर्मशास्त्रों में सभी विषयों का आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त इन तीन भागों में विभाजन करके क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित विवेचन उपलब्ध होता है। मैक्समूलर के अनुसार धर्मशास्त्र धर्मसूत्रों के रूपान्तर मात्र हैं। उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। तदनुसार मनुस्मृति मैत्रायणी शाखा के किसी प्राचीन मानव धर्मसूत्र का नवीन संस्करण मात्र है। धर्मसूत्र तथा गृह्यसूत्र संपादित करें गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र दोनों ही स्मार्त्त हैं। कभी-कभी धर्मसूत्र अपने कल्प के गृह्यसूत्रों का अनुसरण भी करते हैं तथा गृह्यसूत्रों के ही विषय का प्रतिपादन करते हैं। तथापि उनकी सत्ता एवं प्रामाणिकता स्वतंत्र है। इस समय चार ही धर्मसूत्र ऐसे उपलब्ध हैं जो अपने गृह्यसूत्रों का अनुसरण करते हैं। ये हैं – बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी तथा वैखानस गृह्यसूत्र। अन्य गृह्यसूत्रों का अनुसरण करने वाले धर्मसूत्र इस समय उपलब्ध नहीं हैं। यह भी माना जाता है कि अपने-अपने कल्प के गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र का कर्त्ता एक ही व्यक्ति होता था। डॉ॰ रामगोपाल ने इस विषय में यह विचार प्रकट किया है- 'यह तो सिद्ध है कि एक ही कल्प के गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र का कर्त्ता कए ही व्यक्ति था, किन्तु इस विषय में मतभेद पाया जाता है कि एक ही शाखा के सभी गृह्यसूत्रों के अनुरूप धर्मसूत्रों की भी रचना की गयी थी या केवल कुछ शाखाओं के कल्पों में ही यह विशेषता रखी गयी थी।' कुन्दल लाला शर्मा भी धर्म, श्रौत तथा गृह्यसूत्र इन तीनों का कर्त्ता एक ही व्यक्ति को मानते हुए लिखते हैं- 'यह सिद्धान्त स्थिर समझना चाहिए कि एक कल्प के श्रौत, गृह्य तथा धर्मसूत्रों के कर्त्ता एक ही व्यक्ति थे।' यदि इनके कर्त्ता एक ही व्यक्ति थे तो ये ग्रन्थ समकालिक रहे होंगे। एक ही कर्त्ता ने कौन-सा सूत्रग्रन्थ पहले रचा तथा कौन-सा बाद में, इससे इनके पौर्वापर्य पर विशेष अन्तर नहीं पड़ता। डॉ॰ उमेश चन्द्र पाण्डेय ने धर्मसूत्रों के टीकाकारों के आधार पर ऐसा संकेत भी दिया है कि धर्मसूत्र, श्रौत तथा गृह्यसूत्रों से पूर्व विद्यमान थे, किन्तु डॉ॰ पाण्डेय ने इस तथ्य को अस्वीकार करते हुए प्रतिपादन किया है कि धर्मसूत्र श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्रों के बाद की रचनाएँ हैं।* धर्मसूत्रों का रचना-काल संपादित करें गौतम, बौधायन तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्रों को अन्य धर्मसूत्रों की अपेक्षा प्राचीन माना जता है तथा इनका काल 300 ई॰पू॰ तथा 600 ई॰पू॰ के मध्य रखा जाता है। मानव-जीवन को नियंत्रित करने के लिए मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र तथा गौतमादि के द्वारा प्रणीत धर्मसूत्रों के रूप में दो प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। प्रश्न है कि धर्मशास्त्र पूर्ववर्ती है या धर्मसूत्र पूर्ववर्ती हैं? विद्वानों ने दोनों ही पक्षों में अपनी व्यवस्था दी है। अन्त: साक्ष्य के आधार पर धर्मशास्त्रों को धर्मसूत्रों से पूर्ववर्ती माना जा सकता है, क्योंकि धर्मसूत्रों में धर्मशास्त्र तथा इनके कर्ताओं का उल्लेख अनेकत्र हुआ है। इसके लिए निम्न उदाहरण द्रष्टव्य हैं जहाँ पर कि* धर्मशास्त्र का उल्लेख हुआ है-'तस्य च व्यवहारो वेदे धर्मशास्त्राख्याङ्गानि उपवेदा: पुराणम्।' इतना ही नहीं, अपितु गौतम धर्मसूत्र में मनु का साक्षात् नाम भी लिया गया है।* धर्मसूत्रों में अनेक स्थानों पर 'एके'* तथा 'आचार्य'* आदि शब्दों द्वारा अन्यों के मत का भी उल्लेख किया गया है। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि ये संकेत धर्मशास्त्रों की ओर ही हैं। किन्तु उक्त कथन अनुमान पर ही आधृत है। 'एके' तथा 'आचार्य:' आदि शब्दों के द्वारा अन्य धर्मसूत्रकारों का स्मरण भी किया जा सकता है केवल धर्मशास्त्रकारों का ही नहीं। अत: इस हेतु को धर्मशास्त्रों की पूर्वकालिकता के रूप में उपस्थित नहीं किया जा सकता। पुनरपि गौतम धर्मसूत्र में मनु धर्मशास्त्रों का उल्लेख होने से इनको गौतम धर्मसूत्र से पूर्ववर्ती मानना ही समीचीन है। कुन्दनलाल शर्मा ने अपना आशय इन शब्दों में व्यक्त किया है- सूत्र-रचना से पूर्व भी पद्यात्मक रचना थी किन्तु वह नष्ट हो गयी। ब्यूहलर के अनुसार इस प्रकार के श्लोक स्मृतिसहायभूत लोकप्रचलित पद्यों के अंश थे। मैक्समूलर ने धर्मशास्त्रों की अपेक्षा धर्मसूत्रों को पूर्ववर्ती माना है। स्टेन्त्सलर का अनुवाद करते हुए मैक्समूलर ने बलपूर्वक यह मत व्यक्त किया है कि सभी पदयात्मक धर्मशास्त्रों की रचना बिना किसी अपवाद के प्राचीन सूत्र-रचनाओं के आधार पर की गयी थी। डॉ॰ भाण्डारकर का भी यही विचार है कि धर्मसूत्रों की रचना के पश्चात ही अनुष्टुप छन्द वाले धर्मशास्त्रों की रचना की गयी। म॰म॰पी॰वी॰ काणे इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार धर्मसूत्र पूर्ववर्ती हैं तथा धर्मशास्त्र परवर्ती- 'इसी प्रकार कुछ बहुत पुराने सूत्रों यथा बौधायन धर्मसूत्र में भी एक श्लोक उद्धृत हैं', इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्लोकबद्ध धर्मग्रन्थ धर्मसूत्रों से भी पूर्व विद्यमान थे। मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों के काल पर विचार करते हुए हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यास्काचार्य ने निरुक्त में मनु का नाम लिया है। अत: मानना होगा कि यास्क से पूर्व धर्मशास्त्र विद्यमान थे। यास्क का काल 800 ई॰ पू॰ माना जाता है। मनुस्मृत्यादि धर्मशास्त्र इससे पूर्ववर्ती हैं तथा धर्मसूत्र यास्क के समकालीन या इससे भी उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। इतना तो निश्चित है कि धर्मसूत्रों में प्राचीनतम गौतम, बौधायन और आपस्तम्ब के धर्मसूत्र ईसा पूर्व 600 और 300 के बीच के समय के हैं।* प्रमुख धर्मसूत्र संपादित करें गौतम धर्मसूत्र बौधायन धर्मसूत्र वसिष्ठ धर्मसूत्र आपस्तम्ब धर्मसूत्र हारीत धर्मसूत्र विष्णु धर्मसूत्र हिरण्यकेशि धर्मसूत्र वैखानस धर्मसूत्र इन्हें भी देखें संपादित करें धर्मशास्त्र गृह्यसूत्र श्रौतसूत्र शुल्बसूत्र बाहरी कड़ियाँ संपादित करें धर्मसूत्र (ब्रिटानिका) संवाद Last edited 1 month ago by NehalDaveND RELATED PAGES बौधायन धर्मसूत्र गौतम धर्मसूत्र हारीत धर्मसूत्र  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप