Friday 31 March 2017

ब्रह्मचर्य

omsandesh Thursday, 16 June 2016 ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/परमानन्द/प्रभू साक्षात्कार के लिये ब्रह्मचर्य (वीर्यरक्षण / वेदाध्ययन (सद्ग्रंथों का अध्ययन) / ईश्वरचिन्तन या ध्यान) अनिवार्य शर्त है। आरती ऊँ जय जगदीश हरे की प्रश्न स्वरूप पंक्ति किस विधि मिलूं दयामय भी इसकी पुष्टि करती है, जिसका उत्तर भी उसी में बताया गया है विषय-विकार (इन्द्रियों के भोग व काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) मिटाओ पाप हरो देवा। अर्थात् मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण के लिये विषय-विकार से मुक्त होना व निष्पाप होना अनिवार्य शर्त है। इतिहास साक्षी है कि जिसने ब्रहचर्य का पालन किया है तथा जो विषय-विकार से दूर रहता हुआ निष्पाप रहा है उसने ही उस परमानन्द/मोक्ष को प्राप्त कर जन्म-मरण से मुक्ति पायी हैः- जैसे कि शंकराचार्यजी, भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द, राम कृष्ण परमहंस जी, स्वामी विवेकानन्द, जैमल सिंह जी आदि (ये सभी आत्मायें विषय-विकार से दूर थीं तथा निष्पाप थीं) अथार्त जो विषय-विकार व पाप में लिप्त है वह ब्रह्मचारी हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिस समय वह विषय-विकार व पाप से ग्रस्त होगा उस समय वह ब्रह्म से दूर होगा या उसे भूला होगा। ब्रह्मचर्य दो शब्दों ब्रह्म व चर्य के योग से बना है, ब्रह्म के भिन्न-भिन्न स्थानों पर अनेक अर्थ होते हैं जैसे ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म, गुरू, सुख, सत्य, ज्ञान चर्य का अर्थ चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन, सेवा, ध्येय, साधना और कार्य आदि ब्रह्मचर्य की महिमा ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां, वीर्य लाभो भवत्यपि, सुरत्वं मानवो याति, चान्ते याति परां गतिम्। भावार्थः ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है, ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले मनुष्य को दिव्यता प्राप्त होती है और साधना पूरी होने पर परमगति (मोक्ष) भी उसे मिलती है। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से करोड़ों ऋषि ब्रह्मलोक में वास करते हैं। हेमचन्द सूरि जी का कथन है किः- जो लोग विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वे दीर्घायु, सुन्दर शरीर, दृढ़ कर्तव्य, तेजस्वितापूर्ण और बड़े पराक्रमी होते हैं। ब्रहर्मचर्य सच्चरित्रता का प्राण-स्वरूप है, इसका पालन करता हुआ मनुष्य, सुपूजित लोगो में भी पूजा जाता है। धन्वन्तरि जी का कथन है किः- मैं इस बात को तुम लोगों से सत्य-सत्य कहता हूं कि मरण रोग तथा वृद्धता का नाश करने वाला अमृत रूप और बहुत बड़ा उपचार मेरे विचार से ब्रह्मचर्य है। जे शान्ति, सुन्दरता, स्मृति, ज्ञान, स्वास्थ्य और उत्तम सन्तति चाहता है, वह संसार में सर्वोत्तम धर्म ब्रह्मचर्य का पालन करें (अर्थात् जैस कि श्री कृष्ण जी ने उत्तम सन्तान की उत्पत्ति हेतु 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण किया था, यानी कि केवल सन्तान उत्पत्ति हेतु ब्रहचर्य का खंडन भी ब्रह्मचर्य का खंडन नहीं है)। ब्रह्मचर्य से सब प्रकार का अशुभ नष्ट हो जाता है। तद्य एवैतं ब्रह्मलोकं, ब्रह्मचर्यणानुविन्दते, तेषामेवेष, ब्रह्मलोकस्तेषाः सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति - छान्दोग्यापनिषद भावार्थः ब्रह्मचर्य से ही ’ब्रह्मलोक मिलता है। ब्रह्मचारियों का ही ब्रह्मलोक पर अधिकार है अन्य का नहीं। जो ब्रह्मचर्य युक्त पुरूष हैं वे सभी लोको में विचरण कर सकते हैं। जैसा कि उपनिषद में कहा गया है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में वहीं इस पिण्ड अर्थात शरीर में भी है। अतः ब्रह्मलोक सब लोको मे श्रेष्ठ है वह इस पिण्ड में सबसे उपर मस्तिष्क में है, प्राणों के वहां पहुंचने से जीव का मोक्ष होता है। उसे फिर दुखों से मुक्ति मिल जाती है, इसलिये ब्रह्मलोक का आशय है, परमानन्द। ब्रह्मचर्य से ही आत्मज्ञान प्राप्त होता है, आत्म ज्ञान के पश्चात् ही परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है। ब्रह्मर्चेण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत - अथर्ववेद ब्रह्मचर्य रूपी तप से देवों को अमरता प्राप्त हुई। अथर्ववेद में कहा गया है किः - आचार्या ब्रह्मचर्येण, ब्रह्मचारिणमिच्छते। अर्थात् जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है ऐसा गुरू ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले शिष्यों का हित कर सकता है कामी गुरू नहीं जैसा कि कबीर जी ने कहा है कि कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति ना होय, भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोई। जैसा कि रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा है जहां काम है वहां राम नहीं। अर्थात् ब्रह्चर्य का पालन करने अथवा पालन करने का अभ्यास करने वाले शिष्यों को ही मंजिल प्राप्त हो सकती है अन्यों को नहीं। प्रश्नोपनिषद में एक कथा है कि कबन्धी और कात्यायन ब्रह्मज्ञान की शिक्षा के लिये ऋषिवर पिप्पलाद के आश्रम में गये और उनसे ब्रह्मज्ञान देने के लिये निवेदन किया। पिप्पलाद ने कहा कि आप दोनों एक वर्ष तक नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए हमारे पास रहें, उसके पश्चात् जो प्रश्न चाहोगे पूछ लेना हम भी यथाशक्ति तुम लोगो को समझायेंगे। अर्थात गुरू से आत्म/ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य आवश्यक है। भगवान शंकर का वचन - न तपस्तप इन्याहुर्बह्मचर्य तपोत्तमम्। उर्ध्वरेता भवेद्यस्तु से देवो न तु मानुषः।। तप कुछ भी नहीं है, ब्रहचर्य ही उत्तम तप है, जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया है वह देव स्वरूप है, मनुष्य नहीं। एकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्य तथैकतः - छान्दोग्योपनिषद एक और चारों वेद तथा दूसरी और ब्रह्मचर्य दोनों एक तुला पर रखे जायें तो दोनो पलड़े बराबर होंगे। अर्थात् एक ब्रह्मचर्य ही चारों वेदों के बराबर है। तेषामेवैष स्वर्गलोको येषां तपो ब्रहचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठिम्। - प्रश्नोपनिषद उन्हीं जनों को स्वर्ग-सुख मिलता है, जिन्होंने ब्रह्मचर्य तप का पालन किया है और जिनके हृदय में ब्रह्मचर्य रूपी सत्य विराजमान है। ब्रह्मचर्य का पालन करना योग्य है। देवों क लिये भी ब्रह्मचर्य दुर्लभ है, वीर्य की रक्षा भली भांति होने पर सब लोको के सुखों की सिद्धियां स्वयं मिल जाती है। भीष्म पितामाह ने महाभारत में कहा है कि जो आजीवन ब्रह्मचारी रहता है, उसे इस संसार में कुछ भी दुःख नहीं होता। उसके लिये कोई भी वस्तु दुलर्भ नहीं। श्री कृष्ण जी ने कहा है कि ब्रह्मज्ञान के प्राप्त हो जाने पर मनुष्य बहुत शीघ्र ही परमानन्द का अधिकारी होता है। शंकाराचार्य जी ने कहा है कि ऋत ज्ञानान्न मुक्तिः, अर्थात् ब्रह्मज्ञान के बिना किसी की मुक्ति नहीं हो सकती शंकाराचार्य जीने कहा है कि जो विषयों में लिप्त है वह बंधा हुआ है तथा जो विषयों से अलिप्त है वह मुक्त है। वही महाशूर है, जो कामदेव के बाणों से व्यथित न हुआ हो। जो लोग अकाल मृत्यु से मरते हैं व मोक्ष के अधिकारी नहीं हाते हैं। अकाल मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक है। मनुष्य बिना ब्रह््मचर्य धारण किये हुए कदापि पूर्ण आये वाले नहीं हो सकते - ऋग्वेद ब्रह्मचर्य का पालन ब्रह्मपद का मूल है, जो अक्षय-पुण्य को पाना चाहता है, वह निष्ठा से जीवन व्यतीत करे - देवर्षि नारद ब्रह््मचर्य से ही ब्रह्मस्वरूप के दर्शन होते हैं। है प्रभो, निष्कामता ही प्रदान कर दास को कृतार्थ करें। - मुनिवर्य भारद्वाज ब्रह्मचर्य से मनुष्य दिव्यता को प्राप्त होता है। शरीर के त्यागने पर सद्गति मिलती है- मुनीन्द्र गर्ग ब्रह्मचर्य के संरक्षण से ही मनुष्य को सब लोको में सुख देने वाली सिद्धियां प्राप्त होती है- मुनिराज अत्रि ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त होती है। - पिप्पलाद ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप है - योगिराज कृष्ण ब्रह्मचर्य के पालन से आत्मबल प्राप्त होता है - पतंजलि ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वालों को मोक्ष मिलता है- सनत्सुजातमुनि जो मनुष्य ब्रह्मचारी नहीं उसको कभी सिद्धि नहीं होती । वह जन्ममरणादि क्लेशों को बार-बार भोगता रहता है - अमृतसिद्ध ब्रह्मचर्य वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार ये 0-25 वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्रहम का अर्थ ज्ञान भी है, अतः ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना चाहिये। विद्यार्थी के लिये ज्ञान ही ब्रह्म तुल्य है, पूर्ण तन्मयता से ज्ञान की प्राप्ति करना ही उसका मुख्य उद्देश्य होता है। उसे ब्रह्म चिंतन के साथ पूर्ण लगन से अपने ज्ञान का अर्जन करना होता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से उसकी बुद्धि तीव्र होती है, उसकी स्मरण शक्ति तीव्र होती है, चहेरे पर ओज, तेज होता है। जैसा कि विवेकानन्द जी ने कहा है कि केवल 12 वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य से अद्भूत शक्ति प्राप्त होती है। ब्रह्मचारी को स्त्रीयों के रूप लावण्य का ध्यान नहीं करना चाहिये तथा उसके गुण, स्वरूप और सुख का भी वर्णन नहीं करना चाहिये, उनसे दूर रहना चाहिये उनके साथ कोई खेल आदि नहीं खेलना चाहिये उनकी और काम-दृष्टि से बार-बार नहीं देखना चाहिये, नजर जाये तो हटा लेनी चाहिये, एकान्त में किसी स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिये, उनके मोह-जाल से दूर रहना चाहिये। एक शब्द में यही है कि अपने उद्देश्य परमानन्द की प्राप्ति को पल-पल ध्यान में रखते हुए विषय-विकार से दूर रहने के अभ्यास को प्रगाढ़ करना चाहिये। ब्रह्मचर्य का अर्थ अपने खान-पान पर भी नियंत्रण करना भी है। ब्रह्मचारी माँस से, अत्यधिक खट्टे या नमकीन भोजन से और बहुत मसालेदार भोजन से भी संयम रखते हैं। गांधीजी, जो की एक जाने माने ब्रह्मचारी भी थे, ने अपने पूरे जीवनभर सादा ही भोजन किया । ब्रह्मचर्य विषय पर स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है कि ईश्वर को पाने के एकमात्र लक्ष्य के साथ, मैंने स्वयं बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया है। उससे मानो कि एक पर्दा सा मेरे मस्तिष्क से हट गया है। इसलिए मुझे अब दर्शन जैसे सूक्ष्म विषय पर भाषण देने के लिए भी ज्यादा तैयारी करना या सोचना नहीं पड़ता। मान लो कि मुझे कल व्याख्यान देना है, जो भी मुझे बोलना होगा वह मेरी आँखों के सामने कई चित्रों की तरह आज रात को गुजर जाता है और अगले दिन मैं वही सब, जो मैंने देखा था, शब्दों में व्यक्त कर देता हूँ। जो कोई भी बारह वर्ष के लिए अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करेगा, वह निश्चित रूप से इस शक्ति को पायेगा। यदि यज्ञ वेदों के कर्मकाण्ड का आधार है ता निश्चित रूप से ब्रह्मचर्य, ज्ञानकाण्ड का आधार है। संस्कृत का शब्द ब्रह्मचारी है जो कि कामजित् शब्द का पर्याय है (वह जिसका उसके कामवेग पर पूरा नियन्त्रण है)। जीवन का हमारा लक्ष्य मोक्ष है वह ब्रह्मचर्य या पूर्ण संयम के बिना कैसे पाया जा सकता है? एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का सैट देखकर उनके शिष्य ने कहा, इन सारी किताबों को एक जीवन में पढ़ना लगभग असंभव है। स्वामीजी पहले ही दस खण्ड समाप्त कर चुके थे, अतः स्वामीजी ने कहा इन दस खण्डों में से जो चाहो पूछ लो, और मैं तुम्हें सबका उत्तर दूँगा। स्वामीजी ने न सिर्फ भाव को यथावत् बताया, बल्कि हर खण्ड से चुने गये कठिन विषयों की मूल भाषा तक कई स्थानों पर दुहरा दी। शिष्य स्तब्ध हो गया, उसने किताबें एक तरफ रख दीं, यह कहते हुए कि, यह मनुष्य की शक्ति के अन्दर नहीं है! ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहं। सर्वलक्षणहीनत्वं हन्यते ब्रह्मचर्यया ॥ ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके ही मैं असाध्य को साधता हूँ। ब्रह्मचर्य से सारी लक्षणहीनताएँ (यानी व्याधियाँ, विकार तथा कमियाँ) नष्ट हो जाती हैँ। ब्रह्मचर्य के ऐसे महान् अभ्यास को कम कैसे आँक सकते हैं। यह तो दो-तीन दिन में ही अपनी महिमा चेहरे पे प्रकट करने लगता है, इस संयम के जाते ही तो तत्काल मन खुद को दुत्कारने लगता है, दरअसल हम सभी ब्रह्मचर्य में ही जीना चाहते हैं, लेकिन हम अपने हारमोनों से हारे रहते हैं और उस अच्छी अवस्था को बचाकर नहीं रख पाते जिसमें हममें उत्तम उत्साह था। श्रीमद् भागवत पुराण में ब्रह्मचर्य का बड़ा स्पष्ट प्रतिपादन है, उसके 11 वाँ स्कन्ध, 17 वें अध्याय में 25 वाँ श्लोक आता है- रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयं। अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेत् ॥ अर्थ - ब्रह्मचर्य व्रत धारे हुए व्यक्ति को चाहिये कि अपना वीर्य (रेतस) स्वयं कभी भी न गँवाए। और यदि वीर्य कभी (अपने आप) बाहर आ ही जाये तो ब्रह्मचर्य व्रतधारी को चाहिये कि वह पानी में अवगाहन करे (यानी नहाये) और थोड़ा प्राणायाम करके गायत्री मन्त्र का जाप करे। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि वपुता और धारिणी नाम की दोनों स्त्रियों में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी, अतः दोनों ने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया और अंत में उनको मोक्ष प्राप्त हुआ। कुंती व सती माद्री महाराज पाण्डू की पत्नी थीं, दोनों ही ब्रह्मचारिणी थी। दोनों ने अपने पति की रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था, लेकिन श्राप के कारण ब्रह्मचर्य के खंडन करने से महाराजा पाण्डू की मृत्यु हुई थी, अतः माद्री भी उनके साथ सती हो गई थी। सती सुकन्या ने वन में तपस्या कर महर्षि च्यवन की भ्रमवश उनकी दोनों आंखें फोड़ दी थी, अतः उनके पिता ने इसके प्रायश्चित स्वरूप सुकन्या को च्यवन की सेवा के लिये समर्पित कर दिया। सुकन्या महर्षि च्यवन की पूर्ण लग्न से सेवा करती रही। अश्विनी कुमार ने उसे अपने वश में करने के लिये बहुत से प्रलोभन दिये लेकिन सुकन्या का मन ब्रह्मचर्य से जरा भी नहीं डिगा। अतः में अश्विनी कुमार ने प्रसन्न होकर च्यवन को अपने औषधापचार से अत्यन्त सुन्दर युवक बना दिया। पत्नी के लिये पति ही ब्रह्म है, उस के साथ नियमानुकूल आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है। वेदवती ऋषिकन्या थी वह अत्यन्त सुन्दरी तथा सुशीला थी, वह पर्ण कुटी में रहते हुए निरन्तर तपस्या करती थी, उसका मन ब्रह्मचर्य के पालन से शुद्ध और दृढ़ हो गया था। एक दिन रावण उसी मार्ग से निकला और उसे देखकर उस पर मोहित हो गया, उसने उसे बहुत से प्रलोभन दिये अंत में उसे बलात् भ्रष्ट करना चाहा। उसने उसके लम्बे बालों को पकड़ कर खेंचना प्रारम्भ किया, इस पर उस तेजस्विनी ने रावण को इस प्रकार झटका दिया कि वह दूर जा गिरा। लेकिन पर-पुरूष द्वारा उसके केवल केशों को छू लेने से उसने अपने को अपवित्र मानते हुए अपना शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया। पुराणों के अनुसार उसी का सीता के रूप में जन्म हुआ था तथा वहीं रावण की मृत्यु का कारण बनती है। शंकराचार्यजी ने कुमारिल भट्ट से अवैदिक धर्म का खंडन और सनातन धर्म के मण्डन की दक्षिणा मांगी थी, जिसे उन्होंने जीवन भर पालन कर दिखलाया, जिसकी संक्षेप में कथा इस तरह से हैः- कुमारिल भट्ट जी ने गृहस्थ होते हुए भी अपना पूरा जीवन ब्रह्मचर्य में ही व्यतीत कर दिया, ऐसी महान विभूतियों को उनकी पत्नि भी ब्रह्चारिणी स्वरूप ही मिलती है। विवाहोपरान्त उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि प्रिय हम अभी गृहस्थ जीवन जीना नहीं चाहते हैं, हम पहले वेदों का भाष्य पूरा करना चाहते हैं, उसक पश्चात् ही हम इस बारे में सोच सकते हैं। उनकी पत्नी भी महान थी, उसने पति आज्ञा को दिल से स्वीकारा। भाष्य पूरा करते करते ही उनके कुछ बाल सफेद हो गये, तब उन्होंने अपनी पत्नि से किया हुआ वादा पूरा करने के लिये कहा, तब उनकी पत्नी ने कहा कि है स्वामी जब हम इतने समय तक ब्रह्मचर्य में रहें हैं तो अब क्यों अपना ब्रह्मचर्य के नियम को तोड़ें। इस पर दोनों ही ने प्रसन्न थे तथा कुमारिल भट्ट जी ने अपना शेष जीवन धर्म प्रचार में ही लगाया। उपरोक्त से स्पष्ट है कि गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है, यदि पति-पत्नि दोनों ही धार्मिक हों, अन्यथा दोनों में से कोई भी एक भ्रष्ट होगा तो ब्रह्मचर्य का पालन गृहस्थ में संभव नहीं है। ब्रह्मचर्य के बल पर ही दीर्घ आयु प्राप्त होती है, जैसे कि भीष्म पितामाह-170, महर्षि व्यास-157, वसुदेव-155, भगवान बुद्ध-140, धृतराष्ट्र-135, श्री कृष्ण-126, रामानन्द गिरी-125, महात्मा कबीर-120, गोस्वामी तुलसीदास-99, सूरदास-80, योगेश्वरानन्द जी-99 एक बहुत बडे़ वैद्य थे, उनका कहना था कि 1 वर्ष नियमित ब्रह्मचर्य (तन, मन व वाणी से) के पालन के साथ औषध सेवन से भंयकर रोग नष्ट हो सकता है, इस चिकित्सा का उन्होंने कई रोगियों पर प्रयोग किया और वे सफल निकले। वे नाड़ी से वीर्यनाशक पुरूष को जान लेते थे ऐसे व्यक्ति को व औषधि नहीं देते थे। वीर्य क्षय से धातु रोग, रक्तविकार, शिरोरोग, दृष्टिहीनता, अजीर्ण, कोष्ठबद्धता, ग्रन्थि, वात, पक्षाघात, मन्दाग्नि आदि। ब्रह्मचर्य, जैन धर्म में पवित्र रहने का गुण है । जैन मुनि और अर्यिकाओं को दीक्षा लेने के लिए कर्म, विचार और वचन में ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता । यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण का अभ्यास के लिए है । जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है । सारांश ब्रह्मचर्य के पालन से अपूर्व बल, बुद्धि, स्मृति, तेज, ओज व शक्ति आदि की प्राप्ति होती है। बौद्ध धर्म व जैन धर्म की दृष्टि से शुद्ध व पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है, जैसा कि दोनों महापुरूषों के जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह का एक भी लक्षण नहीं था, दोनों ही अत्यंत पवित्र थे। इनके अनुसार अनासक्त पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है। इसी प्रकार बहुत से अन्य धर्मों/मतों में प्रभू का ध्यान करते हुए, उसे हर पल याद रखते हुए सत्मार्ग पर चलना, विषय-विकार से मुक्त होकर निष्पाप जीवन व्यतीत करना या ऐसा जीवन व्यतीत करने का दृढ़ता से अभ्यास करना ही ब्रह्मचर्य है, क्योंकि जिस समय कोई बुरा कर्म करता है, उस समय वह प्रभू को भूला हुआ रहता है। ब्रह्मचर्य के बिना मुक्ति/मोक्ष अथवा प्रभू साक्षात्कार सम्भव नहीं है। vivek godra at 04:48 Share  No comments: Post a Comment ‹ › Home View web version About Me vivek godra  View my complete profile Powered by Blogger. 

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