Friday 31 March 2017

स्वाध्याय

ऊँ ह्रीं श्री ऋषभदेवाय नम:।  ज्ञानमती नेटवर्क से जुड़ने के लिये ADD ME < मोबाइल नं.> लिखकर +91 7599002108 पर व्हाट्ज एप पर मेसेज करें| ‘‘स्वाध्याय : एक अनुशीलन’’  सर्वेभ्यो यद् व्रतं मूलं स्वाध्याय: परमं तप: । यत: सर्वव्रतानां हि् स्वाध्याय: मूलमादित: ।।९९।। सिद्धान्तसार स्वाध्याय ही सभी व्रतों का मूलाधार है, ध्यान का मुख्य अंग है, शुभध्यानों का हेतु भी है। इसी से स्वाध्याय को परम तप/उत्तम तप कहा गया है। सत् -शास्त्रों का पठन-पाठन, मनन-चिन्तन ज्ञानवद्र्धक, सुख-सन्तोषकारी होने के साथ-साथ मोक्षमार्ग प्रवर्तक और जिनशासन प्रभावक भी है। मनुष्य को यह विवेकवान, उसके जीवन को आर्दश तथा प्रगतिशील, सभ्य व शिष्ट भी बनता है। इसी से आचार्य भगवन्तों ने हम संसारियों पर दया करके जिनवचनों को चार अनुयोगों में लिपिबद्ध करके उनकी टीकाएँ/व्याख्याएँ कर सरल सुबोध बनाया है और अनके मनीषियों ने विभिन्न भाषाओं में रूपान्तरण करके सर्व साधारण को भी पठनीय-मननीय बना दिया है। इस संशोधित-संपादित प्रकाशित आगम-साहित्य के पठन-पाठन प्रचार-प्रसार की आज महती आवश्यकता है ताकि हमारे श्रुततीर्थ व मोक्षमार्ग की परम्परा अटूट बनी रहे और धर्मतीर्थ भी शक्तिमान बना रहे। आगमों में स्वाध्याय/श्रुताभ्यास की बड़ी महिमा गायी गई है और स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन करने की सत्प्रेरणा भी दी गई है। स्वाध्याय क्या है ? सत् -शास्त्रों के पठन-पाठन, वाचन-मनन और उपदेश आदि को समान्यत: स्वाध्याय कहा जाता है। व्युत्पत्ति अनुसार अर्थ इस प्रकार है– (१) ‘स्वस्य= आत्मन: अध्ययनं स्वाध्याय:’ अपनी आत्मा का अध्ययन, चिन्तन-मनन, ध्यान स्वाध्याय है। (२) स्वस्मै= आत्मने (आत्मन: हितार्थं) अध्ययनं स्वाध्याय:’ अपनी आत्मा के हितार्थ आत्महितकारी सत् -शास्त्रों का अध्ययन, मनन-चिन्तन, भावना स्वध्याय है। (३) ‘सु + आ + अध्यााय:’ सु= समीचीन रूप से आ= विधि– मर्यादापूर्वक हितकारी सत् -शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, चिन्तन-मनन करना, भावना भाना, उपदेश देना स्वाध्याय है। निश्चय से आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है[१] अपनी आत्मा का हित करने वाले अध्ययन स्वाध्याय है[२] आत्मस्वरूप को जानकर उसी में स्थिर हो जाना स्वाध्याय है। जो अपनी आत्मा को इस अपवित्र शरीर से निश्चय से भिन्न तथा ज्ञायक स्वरूप जानता है, वह सब शास्त्रों को जानता है।[३] व्यवहार से पण्डित जन कहते हैं कि ‘श्री जिनेन्द्र देव द्वारा कथित १२ अंग और १४ पूर्वों को सुनना-सुनाना भी स्वाध्याय है।[४] श्री धवला जी में भी कहा है– ‘अंग और अंगबाह्य आगम को वाचना, पूंछना, अनुप्रेक्षा, परिर्तन ओर धर्मकथा करना स्वाध्याय (तप) है।[५] श्री चारित्रसार में भी कहा गया है कि ‘तत्त्वज्ञान को पढ़ना-पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है।[६] मंदिर जी में प्रतिमादर्शन से जो आत्मचिंन्तन का उपदेश हमें मिलता है, वह भी स्वाध्याय है। निरक्षर व्यक्ति भी गुरु-उपदेश से आत्मा का चिन्तन करता है, उसके मन में जो सद्भावना प्रकट होती है, उसे जो नई दिशा/गति मिलती है, वह भी स्वाध्याय है। शास्त्र पढ़कर शान्तिनाथ का रहस्य जानकर अपने आचरण में सुधार लाना और आत्म-साधना करना स्वाध्याय का मूल अर्थ है।[७] जो परतृप्ति से निरपेक्ष, समस्त दुष्ट विकल्पों नाश करने में समर्थ है तथा तत्त्वों का निश्चायक और ज्ञान की सिद्धि-वृृद्धि करने वाला है, वह स्वाध्याय है।[८] ‘स्वाध्याय: परमं तप:’– स्वाध्याय श्रेष्ट तप है। मोक्षमार्ग में इसका सर्वोच्च स्थाना है। संवर और निर्जरा में कारणभूत अन्तरंग तप है। यह आत्महित के मार्ग में परम हितकारी है। श्री भगवती आराधना में कहा है[९]– ६ आभ्यन्तर और ६ बाह्य १२ प्रकार के तपों में स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है। इस अपेक्षा से स्वाध्याय को तपों में सर्वोत्तम कहा गया है। स्वाध्याय से अन्तश्चक्षु उद्घटित होते हैं। एक, दो, तीन, चार, पांच अथवा पक्षोपवास या मासोपवास वाले सम्यग्ज्ञान सहित जीव से भोजनकर्ता स्वाध्यायी सम्यग्दृष्टि अपने परिणामों की त्यादा विशुद्धि कर लेता है। इतनी शीध्रता से कर्मों के काटने की शक्ति अन्य तप में नहीं है। यह स्वाध्याय तप का अतिशय है। –इतना ही नहीं, स्वाध्याय भावना में सभी गुप्तियाँ भावित होती हैं। अतरू स्वाध्यायी मुनिराज गुप्ति भावना में प्रवृत्त होते हैं। गुप्तिभावना में योगों का निरोध होने से संवर- निर्जरा होते हैं तािा मरते समय भी गुप्तियों की सिद्धि होने से रत्नत्रय में निर्विघ्न प्रवृत्ति होती है –अर्थात् रत्नत्रयरूप परिणामों की आराधना में तत्परता होती है।[१०] श्री मूलाचार में भी कहा है– विनय सहित स्वाध्याय करते हुए मुनिराज पंचेन्द्रिय से संवृत्त और तीन गुप्तियों से गुप्त होकर एकाग्र –मन वाले हो जाते हैं।[११] श्री धवला जी में भी कहा गया है कि साधु जैसे-जैसे स्वाध्याय से श्रुत का अवगाहन करते हैं वैसे-वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्धा से संयुक्त होते हुए परम आनन्द का भी अनुभव करते हैं।[१२] अत: स्वाध्याय श्रेष्ठ तप है। स्वाध्याय के अंग/भेद– श्री जिनेन्द्रदेव ने स्वाध्याय को १२ तपों में समाहित कर पाँत्र प्रकार से स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी है। स्वाध्याय ६ अन्तरंग तपों में से एक है और वह पांच प्रकार का है।[१३] १. वाचना २. पृच्छना ३. अनुप्रेक्षा ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश। (१) वाचना= व्याख्या करना। पापकर्मों से विरत होकर किसी लौकिक फल की चाह नहीं रखते हुए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सभी दोषों को टालते हुए बहुत धीरे या जोर से, जल्दी या धीरे-धीरे न पढ़ना। शब्दार्थ की शुद्धिपूर्वक स्तुति देववन्दना आदि मंगल सहित सत् -शास्त्रों का व्याख्यान करना वाचना स्वाध्याय है। (२) पृच्छना= पूछना। अर्थात् प्रश्न करना भी स्वाध्याय हैं जाने हुए अर्थ को सुनिश्चित करने के लिए/पुष्ट करने के लिए, ग्रन्थ या अर्थ के सम्बन्ध में किसी प्रकार का संशय होने पर किसी विज्ञ स्वाध्यायी से या गुरु महाराज से पूछना स्वाध्याय है। यह पूंछना (प्रश्न) अध्ययन की प्रवृत्ति के लिए ही होता है। अपना बड़प्पन बतलाने के लिए या दूसरों का उपहास करने के लिए पूंछना ठीक नहीं होता। यह तो ज्ञान की अविनय है, शास्त्र की आसादना है। ऐसा नहीं करना चाहिए। (३) अनुप्रेक्षा= जाने हुए/पढ़े हुए अर्थ को एकाग्रमन से पुन: पुन: अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। इसमें भी अन्तर्जल्य (मन ही मन में अध्ययन) होता ही है। (४) आम्नाय= शुद्धतापूर्वक/शुद्ध उच्चारण सहित श्रुत का पाठ करना आम्नाय है। आम्नाय भी स्वाध्याय ही है। (५) धर्मोपदेश= धर्म का व्याख्यान किसी दृष्ट/अदृष्ट प्रयोजन की अपेक्षा न करके उन्मार्ग को नष्ट करने के लिए, आत्मकल्याण के लिए, सन्देह को दूर करने के लिए, अपूर्व अर्थ को प्रकट करने के लिए, आत्मकल्याण के लिए जो धर्म का व्याख्यान किया जाता है, उसे धर्मोपदेश कहते हैं। यह भी स्वाध्याय के भेद (अंग) है।[१४] श्री मूलाराधना में भी है[१५] आचार्यश्री ने (१) परियट्टणा=परिवर्तना- पढ़े हुए शास्त्र का पाठ करना, (२) वाचना=वाचना (व्याख्यान) (३) पृच्छना=पूछना (४) अनुप्रेक्षा=बार-बार शास्त्र का चिन्तन-मनन करना और (५) धर्मकथा=६३ शलाका पुरुषों का चरित्र स्वयं पढ़ना और दूसरों को सुनाना- ये पांच स्वाध्याय के भेद बतलाये हैं। स्वाध्याय क्यों –किसलिए ? मानव का चित्त बड़ा चंचल है। यह सदा ही चलायमान रहता है। घड़ी के पेण्डुलम की तरह यह डोलता ही रहता है, स्थिर नहीं रहता। इसकी स्थिरता के लिए तथा अशान्त मन को शान्त तथा समताभावी बनाये रखने के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। मुनि श्री तरुणसागर जी ने इस चंचल चित्त को अनेक उपमाओं से अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं कि यह चित्त/मन चिकनी मछली की तरह है तो हाथों से बार-बार फिसल जाती है। बिना लगाम् के घोड़े की तरह है जो सवार को मंजिल तक न पहुँचाकर किसी गर्त में गिरा देता है। यह बहुरूपिया है, नाना रूप बनाता रहता है।यद्यपि यह मनुष्य का है, पर मनुष्य की पकड़ के बाहर है। यह चंचल है, चपल है, वायु से भी अधिक गतिशील है। समुद्र की गहराई को, आकाश की ऊँचाई को मापना और बिजली की गति का आलेख करना कदाचित् आसान है, पर मन की गति मापना संभव नहीं है। अस्तु, चंचलता मन का दुर्गुण है, स्वभाव है, पर इसे रोका जा सकता है। इसे रोकने का/स्थिर करने का एकमात्र उपाय है सत् -शास्त्रों का स्वाध्याय। आचार्य श्री गुणभद्र जी महाराज ने आत्मानुशासन में कहा है- ‘‘मन मक्रट (बंदर) की तरह चंचल है। इसे स्थिर बनाये रखने में स्वाध्याय परम सहायक है। अत: इसे श्रुतस्कन्धरूपी वृक्ष पर सदा रमाये रखना चाहिए अर्थात् श्रुताभ्याय में/स्वाध्याय में लगाये रखना चाहिए।[१६] भगवती आराधना में भी कहा गया है[१७] दुष्ट घोड़े की तरह मन खोटे मार्ग में बिराता है। जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह को लौटाना अशक्य होता है, वैसे ही रागादि भावों में आसक्त मन को वहाँ से लौटाना भी कठिन है। मन की इन्हीं दृष्प्रवृत्तियों से ही जव हजारें दु:ख भोगते हुए पंच परावर्तनरूप संसार में भ्रमण कर रहे हैं। यदि मन की दुष्प्रवृत्तियों को रोका जावे तो संसार के कारणभूत सभी दोष दूर हो जाते हैं। अत: दुष्ट मन को जो इन रागादि से हटाकर स्वाध्याय में लगाते हैं, शुभ संकल्पों में स्थिर करते हैं उनका चित्त स्थिर और शंत होकर समता भाव को प्राप्त हो जाता है। स्वाध्याय का प्रयोजन– प्रत्येक कार्य सोद्देश्य होता है। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। जैसे व्यापार-धन्धा आर्थिक लाभ के लिए किये जाते हैं तो व्यायाम स्वास्थ्य- लाभ के लिए करते हैं। स्वाध्याय के भी प्रयोजन हैं। सर्वार्थसिद्धि में[१८] श्री पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है –(१) प्रज्ञातिशय के लिए (२) अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिए (३) परम संवेग के लिए (४) तपोवृद्धि के लिए (५) अतिचारों की शुद्धि के लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है। आचार्य शिवार्य ने भगवती आराधना में कहा है[१९] –(१) स्व-पर उद्धार (२) श्री सर्वज्ञदेव की आज्ञा का पालन (३) जिनवचनों में भक्ति (४) श्रुततीर्थ और (५) मोक्षमार्ग की परम्परा को अविच्छिन्न बनाये रखना –ये स्वाध्याय के प्रयोजन हैं। स्वाध्यायी स्व-पर कल्याणकारी होता है। वह दोनों का कल्याण करता है। श्री सर्वज्ञदेव की आज्ञा है कि आत्म-हितैषी जिनशासन प्रेमियों को नियमत: धर्मोपदेश देना चाहिए। इससे सर्वज्ञ की आज्ञा का पालन होता है तथा जिनवचनों में भक्ति भी प्रकट होती है, श्रुततीर्थ और मोक्षमार्ग भी सदा प्रवर्तित बने रहते हैं। इनके अतिरिक्त मानसिक शान्तिलाभ, कषायों की मन्दता, रागादिकों का उपशम, इन्द्रियों का निग्रह, उपयोग में स्थिरता, ज्ञान में वृद्धि, वीतरागता की प्राप्ति, हेयोपादेय का ज्ञान, हिताहित का विवेक संसार-शरीर-भोगों से विरक्ति चित्त की निर्मलता, दुध्र्यानों से बचाव, धर्म तथा तत्त्व के सत्स्वरूप का निर्णय, विभावों से आत्मा की रक्षा करना, श्रुत के संशय रहित यर्थाथ स्वरूप को भलीभांति जानना-समझना, विचारशक्ति और चिन्तन-धारा को केन्द्रित करना, चारित्र में निर्मलता लाना, अहं का विसर्जन, दृष्टि को व्यापक और विशाल बनाना आदि भी स्वाध्याय के प्रयोजन हैं। स्वाध्याय-माहात्म्य एवं स्वाध्याय से लाभ – स्वातमाभिमुख होने का प्रथम उपाय स्वाध्याय ही है। स्वाध्याय से अन्तश्चक्षु उद्घाटित होते हैं। अभिप्राय और आचरण में निर्मलता आने के साथ-साथ बुद्धि में अतिशयता और शास्त्रों में पारंगतता भी आती है। कहा भी है– ‘‘जो प्रतिदिन एक या आधा श्लोक का भी पद-मात्रा सहित स्वाध्याय करता है वह धीरे-धीरे शास्त्रों का पारगामी हो जाता है। अज्ञानी भी ज्ञानी हो जाता है।[२०] स्वाध्याय से अच्छे-बुरे का, गुण-छोषों का, भक्ष्य-अभक्ष्य का और हिताहित का द्विवेक जाग्रत होता है। धर्म में अनुराग, पंच परमेष्टियों में परम भक्ति एवं श्रद्धान सुदृढ़ होता है। कषायों की मन्दता से परम सन्तोष, आनन्द एवं दया की अभिवृद्धिहोती है। अशुभकर्म कटते हैं और पूर्वसंचित पाप गलते/धुलते हैं। फलत: सम्यक्त्व प्रकट होकर मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। भगवती आराधना में आचार्य श्री शिवार्य ने कहा है- ‘साधु जैसे-जैसे अतिशय रस से भरपूर अश्रुतपूर्व श्रुत (शास्त्र) का अवगाहन करते हैं वैसे-वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्ध से संयुक्त होते हुए परमानन्द का अनुभव करते हैं तथा स्वाध्याय से प्राप्त आत्मविशुद्धि के द्वारा निष्कम्प तथा हेयोपादेय में विचक्षण-बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में प्रवर्तते हैं।[२१] तिलोयपण्णत्ती में आचार्य श्री यतिवृषभ ने भी कहा है - ‘परमागम पढ़ने से सुमेरु-समान निश्चल मूढ़ताओं और शंकादि दोषों से रहित अनुपम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।[२२] श्री परमात्मप्रकाश में श्री कहा गया है कि ‘‘ज्ञान प्राप्ति के उपायभूत शास्त्रों का पढ़ना परम्परा से मोक्ष का साधक है।[२३] आत्मानुशासन में आ. श्री गुणभद्र जी कहते हैं[२४]- शास्त्ररूपी अग्नि में प्रविष्ट हुआ भव्यजीव मणि के समान विशुद्ध होकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। अर्थात् जैसे पद्मराग मणि आग में तपकर सदा के लिए विशुद्ध/निर्मल हो जाती है उसी प्रकार श्रुताभ्यास से भव्व जीव रागद्वेषादि मल से रहित होकर विशुद्ध होता हुआ मुक्त हो जाता है। सच है, संसार-सिन्धु तिरने के लिए स्वाध्याय सुरक्षित जलयान के समान है। स्वाध्याय संसारिक व्याधियों के विनाश के लिए अचूक रामबाण औषधि है तथा समस्त सांसारिक दु:खों का क्षय कर मोक्षसुख को देने वाला है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने दंसण-पाहुड में कहा है[२५]- जिनवचन रूपी औषधि वैषियक सुखों का विरेचन कर जन्म-मरण के नाश हेतु अमृत के समान है और सभी दु:खों के क्षय का कारण है।’’ रयणसार मे भी कहा[२६] प्रवचन के सार का अभ्यास जिनशास्त्रों का स्वाध्याय परमात्मा के ध्यान का कारण है और ध्यान से ही कर्मों का नाश तथा मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। प्रवचनसार में भी उन्होंने बताया है कि जैनशास्त्रों के स्वाध्याय से तत्त्वज्ञान और नियम से मोहक्षय होता है। अत: जैनशास्त्रों का सम्यक्रूप से स्वाध्याय करना श्रेयस्कर है।[२७] मोक्षमार्ग में श्रुताराधना/श्रुताभ्यास/स्वाध्याय का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी से आचार्य भगवन्तों ने स्थान-स्थान पर इसको करते रहने की प्रेरणा दी है। स्वाध्याय को अन्तरंग तपों में समाहित तो किया ही है, श्रावकों के षडवश्यकों में भी शामिल कर प्रतिदिन नियमत: स्वाध्याय करने की प्रेरणा समस्त श्रावकों को भी दी गई है।[२८] तीर्थंकर की कारणभूत सोलहकारण भावनाओं में अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, श्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति भावनाओं के माध्यम से श्रुताराधना के लिए ही प्रेरित किया गया है। क्योंकि श्रुताराधना से ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। जो मोक्षपुरुषार्थ को जाग्रत कर मुतुक्षुओं को मुक्तिमार्ग की ओर अग्रसर करती है। इसी से मोक्षमार्गी मुमुक्षु मुनिराज अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी रहते हुए सदा ज्ञान-ध्यान-तप में अनुरक्त रहकर प्रशंसा पाते हैं।[२९] स्वाध्याय से ज्ञान होता है। ज्ञान से तत्त्वों का संग्रह अर्थात् तत्त्वों को स्पष्ट बोध होता है। तत्त्वबोध से तत्त्व्श्रद्धान और सद्भावना जाग्रत होती है।[३०] जो मुनिराज पांचों प्रकार का स्वाध्याय करते हैं, वे प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाते हैं, तत्तव के रहस्य को भलीभांति जान लेते हैं, क्षण-क्षण वैराग्य को प्राप्त होते हैं और रागद्वेष से रहित होकर समता-परिणामी हो जाते हैं। साथ ही साथ उन्हें १४ रज्जुप्रमाण लोक का और अपरिमित आलोक का स्वरूप भी ज्ञान हो जाता है।[३१] इसी से आत्महिताभिलााषियों को प्रेरणा देते हुए भगवती आराधाना में कहा गया है कि श्रुत को दिन-रात पढ़ना चाहिए; क्योंकि जिनवचन प्रमाण और नय के अनुसार पदार्थों का निरुपण करते हैं। अतएव निपुण हैं। दोषों से तथा पूर्वो पर विरोध से रहित है। अत: शुद्ध हैं। अवगाढ अर्थों के प्रतिपादक होने से निकाचित हैं। इन का प्रतिपक्षी कोई न होने से ये अनुत्तर हैं। सभी प्राणियों के हितकारी होने से हितावह हैं तथा कालुष्य (संशय, विमोह-अज्ञान) के नाशक तथा कर्मरूपी कालिमा-पापों का हरने वाले होने से कालुष्यहर है।[३२] स्वाध्याय/श्रुताभ्यास को जैनधर्म का आधार स्तम्भ कहा जाता है। अत: स्वाध्याय में प्रमाद न करने की प्रेरणा महापुरुषों ने दी है।[३३] स्वाध्याय में प्रमाद करने से धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान-समझ पाते। सांसारिक विषयस-वासनाएँ/कामनाएँ/इच्छाएँ नहीं घटतीं, कषाएँ दग्ध/मन्द नहीं होतीं, शुभ ध्यान नहीं होता और हम सन्मार्ग से च्युत हो जाते हैं। अधर्म को धर्ममानकर आचरण करते हैं। बाहरी विवेकहीन थोथी निस्सार क्रियाओं में संलग्न रहकर अपना अहित करते हैं- संसार बढ़ते हैं। मलिन पात्र, पानी से/अग्नि से पवित्र कर लिया जाता है, पर मैले मन को धोने का एकमात्र उपाय जिनवाणी का स्वाध्याय ही है। स्वाध्याय एक दीपक है, जो अज्ञानान्धकार को दूर कर अन्तश्चक्षुओं को उद्घटित कर स्वयं के दर्शन/ आत्मा कर पहचान करा देती है। फलत: स्वाध्यायी साधक के जीवन में भारी परिवर्तन आ जाता है। उसके जीवन की दशा और दिशा बदल जाती है। उसकी वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं। संकल्प-विकल्प विलय हो जाते हैं, चित्त स्थिर व शान्त हो जाता है तथा तत्त्वश्रद्धान में, व्रत संयम पालप में दृढ़ता, अनुभूति में प्रखरता और साधना में तेजस्विता/ निखार आ जाता है। वह शनै: शनै: नर से नारायण बनने की सामथ्र्य पा लेता है। वस्तुत: पढ़ा हुआ अपने आचरण में आ जाना ही सच्चा स्वाध्याय है। पारमार्थिक प्रगति के साथ-साथ स्वाध्यायी साधक एवं श्रावक दोनों ही लोक व्यवहर के प्रशस्त असाधारण उदात्त मानवीय गुणों को भी पा लेते हैं। श्रुताभ्यासी भावविशुद्ध साधक समतास्वाभावी सरल, शान्त सहिष्णु, विनयशील, दयालु, परहितकारी और भद्रपरिणामी हो जाते हैं। उनके व्यक्तित्व में आकर्षण, ओत, धैर्य, गाम्भीर्य और चमक आ जाती है। वे लोकजीवन में आदर-सत्कार, उच्चप्रतिष्ठ, यशकीर्ति पाते हैं। वस्तुत: समस्त प्रशस्त लोकव्यवहार और परमार्थ के आदर्श आचार-विचार भी श्रुत के सतत अभ्यास और उसके परिज्ञान से ही प्राप्त होते हैं। स्वायाय से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है।[३४] श्री धवला जी में कहा गया है कि ‘‘श्री गणधर देवों द्वारा ग्रथित द्रव्यसूत्रों/ जिनसूत्रों के पठन-पाठन-मनन और व्याख्यान करने वालों के तथा इनके श्राताओं के पूर्वसंचित कर्मों की प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी रूप से निर्जरा होती है।’’ - यह बात अवधिज्ञानी और मनफर्ययज्ञानी मुनिराज प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं।’’[३५] यह श्रुताभ्यास/ स्वाध्याय का अलौकिक फल है। इसी से मनीषियों ने जिनवाणी के माहात्म्य को दर्शाते हुए सतत ज्ञानार्जन करने की प्रेरणा दी है।[३६] यदि सुख चाहते हो तो श्रुताभ्यास द्वारा अपने ज्ञान का प्रकाश जाग्रत करो; ‘परिजन धन कुछ न चले, मरण समय में साथ । ज्ञान अडिग निज की निधि, भव-भव जावे साथ ।।’’ वस्तुत: श्रुताभ्यास के बिना चित्त स्थिर शान्त और शुभ ध्यान नहीं होते, विषयों की चाहरूपी दावाग्नि शान्त न होने से संसार-शरीर-भोगों से वैराग्य नहीं होता, हिताहित विवेक जाग्रत नहीं होता, पारमार्थिक हित की बात नहीं समझती और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं हो पाती; जबकि आपत्ति-विपत्त सुख-दु:ख, देश-विदेश, घर-बाहर, सभी जगह जन्म-जरा-मृत्यु-निवारक एकमात्र यह सम्यग्ज्ञान ही हमारे लिए शरणभूत बन्धु/मित्र होता हैं जगत के सुख का कारण भी यही है और मोक्ष-प्रदाता भी यही है। इसी से मनीषियों ने सतत् स्वाध्याय करते हुए अपने अज्ञान को दूर करने की प्रेरणा दी है।[३७] ‘श्रुत’ देववाणी-जिनवाणी है जो गुरुओं के माध्यम से हम तक आयी है। अत: देव और गुरुओं की भाँति श्रुत भी हमारे आराध्य हैं। इनकी आराधना हेतु आचार्य भगवन्तों ने शास्त्रों में इसकी विधि/ मर्यादाएँ सुनिश्चित की हैं, काल और अकाल की भी विवेचना की है। कब? कहाँ? कैसे? पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, व्याख्यान करना आदि। स्वाध्यायकाल - अहोरात्रि में चार काल स्वाध्याय के बतलाये गये हैं :- (१) पूर्वाह्न का स्वाध्यायकाल - सूर्योदय के ४८ मिनिट के बार से मधह्न के ४८ मि. पहले तक काल पूर्वाह्न का स्वाध्याय काल है। (२) आपराह्न का स्वाध्यायकाल - मध्याह्न के ४८ मिनट के बार से सूर्यास्त के ४८ मि. पहले तक का काल ‘अपराह्न का स्वाध्यायकाल’ कहलात है। (३) पूर्वरात्रि का स्वाध्यायकाल - सूर्यास्त के ४८ मिनत बाद से अर्धरात्रि के ४८ मि. पहले तक का काल ‘पूर्वरात्रि का स्वाध्यायकाल’ कहलाता है। (४) अपर रात्रिक स्वाध्यायकाल - अर्ध रात्रि के ४८ मि. बाद से सूर्योदय के ४८ मि. पहले तक का काल ‘‘अपररात्रिक स्वाध्यायकाल’’ कहलाता है। इन चार कानों में यथानुकूल समय निर्धारित कर श्रुताभ्यास करने का विधान शास्त्रों में पाया जाता है। रात्रि में सिद्धान्त ग्रन्थों के स्वाध्याय का पूर्ण निषेध है। अस्वाध्यायकाल - उपर्युक्त चार सन्घिकाल अस्वाध्याय के काल हैं। अर्थात् (१) सूर्योदय के ४८ मि. पहले से ४८ मि. बाद तक का काल। इसे ‘‘गौसर्विक काल’’ कहा जाता है। (२) मध्याह्न के ४८ मि. पहले से ४८ मि. बाद तक का काल। इसे प्रादेषिक काल कहते हैं। (३) सूर्यास्त के ४८ मि. पहले से ४८ मि. बाद तक काल। इसे भी ‘‘प्रादोषिक काल या गोधूलि काल’’ कहा जाता है। और चौथा (४) मध्यरात्रि के ४८ मि. पहले से ४८ मि. बाद तक का काल। इसे ‘‘वैरात्रिक काल’’ कहा जाता है। इन चारों सन्धिकालों में स्वाध्याय करना निषिद्ध है। इन कालों में तीर्थंकर भगवानों की दिव्यध्वनि खिरती है। अत: चे चारों सन्धिकाल स्वाध्याय के लिए उचित नहीं है।[३८] माध्याह्न में अध्ययन/ स्वावध्याय जिनरूप को नष्ट करता है। प्रात: एवं सांयकाल की दोनों संध्याओं में स्वाध्या कने से नाना व्याधियाँ आती है तथा मध्यरात्रि में स्वाध्याय से आत्मीयजन भी द्वेषी हो जाते हैं। अस्वाध्याय दिवस - प्रत्येक माह की पर्वतिथियों (अष्टमी चतुर्दशी), नन्दीश्वर द्वीप के महिमामयी दिनों (अष्टाह्निका), सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण, के दिनों में बिजली की चमक और मेघों की गर्जना होने पर अतिवृष्टि होने पर, तीव्र दु:खों से पीड़ित रोते प्राणियों के देखने या पास आने पर सिद्धान्त ग्रन्थों, सूत्र ग्रन्थों, षटखंडागम आदि का स्वाध्याय नहीं किया जाता। क्योंकि एकाग्रता भंग होती है।[३९] स्वाध्याय में कालादि शुद्धि - श्रुताभ्यास हेतु काल- द्रव्यक्षेत्र- भाव शुद्धियों का विवेचन आचार्य भगवन्तों ने शास्त्रों में किया है। (१) काल शुद्धि - उपर्युक्त चारों सन्धिकाल पर्वदिवस तथा दिग्दाहादि का समय कालोपेक्षया स्वाध्याय हेतु वर्जित है। दिग्दाहादि के विषय में मूलाचार[४०] में बतलाया है। - उल्कापातों (उल्कापाता विद्यत्पाद वङ्कापात आदि से दिशओं का अग्निवर्ण-लाल-लाल हो जाना ‘दिग्दाह’ कहलाता है। इनसे कर्णकिट आवाजें वातावरण में सर्वत्र गूंजती हैं। आदि शब्द से और भी दशाओं का विवेचन है। जैसे - मेघों का तीव्र गर्जना, बिजली चमकना, काले-काले बादलों से मूसलधार वर्षा होना, अन्धकार छा जाना, ओला होना, आकाश में इन्द्रधनुष का खिलना, वातावरण में दुर्गन्ध फैल जाना, लाल-पीले आकार में संध्या का खिलना, चन्द्रमा का ग्रहों के साथ, सूर्य का केतू के साथ, ग्रहों का ग्रहों के साथ, चन्द्रमा का राहु के साथ (चन्द्रयुद्ध, सूर्ययुद्ध, ग्रहयुद्ध, राहुयुद्ध) भेद या संघ्ज्ञट्ट होना, धूमकेतु (आकाश में घूमाकार रेखा) का दिखना, भूकम्प (घरती का कांपना) आदि। ये सब दशाएँ मानसिक अस्थिरता-अशान्ति के कारण हैं। इनके कारण कालशुद्धि नहीं रहती। ये दोष वाचन, पाठक, उपाध्याय, संघ, राष्ट्र और राजा आदि के विनाशक/अहितकारी हैं। अत: इन कालों में स्वाध्याय वर्जित है। (२) द्रव्यशुद्धि - अपने या दूसरे के शरीर से रक्त खून, पीवमांस आदि अपवित्र पदार्थ निकल रहे हों, शरीर की शुद्धि न हो, अतिचार लगे हों तीव्र दु:ख से तड़पन हो रही हो या मरणासन्न दशा हो तो द्रव्यशुद्धि नहीं रहती। अत: ऐसी दशाओं में भी स्वाध्याय करना वर्जित है। (३) क्षेत्रशुद्धि - स्वाध्याय करने के प्रदेश में चारों ओर प्रत्येक दिशा में सौ-सौ हाथ प्रमाण तक मल-मूत्र, खून-पीव, मांस-हड्डी आदि अपवित्र पदार्थों के होने पर क्षेत्रशुद्धि नहीं रहती। इनके सिवाय जहां से निर्यंचों की (आवा-जाही) संचार हो रहा हो, एक बीघा क्षेत्र में स्थावर काय जीवों के घात में प्रवृत्ति हो रही हो, व्यंतरों द्वारा मेरी ताड़न या पूजादि हो रही हो, जहाँ चाण्डाल झाडू-बुहारी कर रहे हो, जहाँ जानवरों का मांस, चमड़ा, हड्डी निकाले जा रहे हों, जहाँ दावानलादि का धुआँ पैâल रहा हो, जहाँ यम-पटह का शब्द सुनाई दे रहा हो, जहाँ अग्नि, जल या रुधिर की तीव्रता प्रचुरता हो, जहाँ सड़ान्ध/ दुर्गन्ध फल रही हो, एक योजन के घोरे में जहाँ सन्यासविधि, महोपवासविधि, आवश्यक क्रिया विधि सम्पन्न की जा रही हो या आचार्य का स्वर्गवास हुआ हो, तो भी क्षेत्रशुद्धि नहीं रहती। ऐसे स्थान पर स्वाध्याय करना वर्जित है।[४१] (४) भावशुद्धि - वक्ता एवं श्रोताओं में क्रोधादि संक्लेश भावों का न होना भाव-शुद्धि है। क्रोध-मान-माया-लोभ, ईष्र्या-असूया आदि संक्लेश परिणामों से भावों में विशुद्धि और चित्त में स्थिरता नहीं रहती। स्वाध्याय-काल में वक्ता, श्रोता दोनों के परिणामों में विशुद्धि तथा उपशम भावों का होना आवश्यक है। इसके अलावा दोनों को ही खान-पान में संयम रखना जरूरी है। आयोग्य द्रव्यादि में स्वाध्या के दुष्परिणाम - सुयोग्य- शुद्ध द्रव्य-क्षेत्र-काल- भाव सदैव सुफल। इष्टपरिणाम देने वाले होते हैं। क्योंकि ये वक्ता श्रोता के अन्तस्थल तक प्रभावकारी होते हैं। शुद्ध द्रव्यादि में मन की एकाग्रता और विशुद्धि अधिक होती है। जिसका प्रतिफल भी स्वाध्यायी को अधिक मिलता है। इसके विपरीत जो सून्नार्थ की शिक्षा के लोभ में शुद्ध द्रव्यादि का ध्यान नरखते हुए आयोग्य कालादि में स्वाध्याय करते हैं, वे सम्यक्त्व की विराधना (असमाधि) करते हैं। वे आयोग्य कालादि के प्रभाव से रागी होते हैं और उनके यहाँ क्लेश लड़ाई-झगड़े (कलह) विसंवाद आदि होते ही रहते हैं। पर्व दिवसों में भी स्वाध्याय/ अध्ययन विघ्नकारी, कलहकारी, विद्या उपवास विधि का विद्याातक तथा गुरु-शिष्य का वियोगकारी होता है।[४२] मूलाराधना में[४३] कहा गया है कि चार प्रकार के सूत्र (गणधर-प्रत्येकबुद्ध-श्रुतकेवली और अभिन्न दसपूर्वी द्वारा कथित सूत्र) कलादि की शुद्धि के बिना संयमियों और आर्यिकाओं को नहीं पढ़ना चामिए। पठनीय - इनके अलावा अन्य ग्रन्थ पढ़े जा सकते हैं। जैसे- चारों आराधनाओं के स्वरूप- प्रतिपादक ग्रन्थ, सत्रह प्रकार के मरणों का वर्णन करने वाले ग्रन्थ, स्तोत्र-पाठादि के ग्रन्थ, आहारत्याग के उपदेशकारी ग्रन्थ, षडावश्यक प्रतिपादक शास्त्र और महापुरुषों के चरित्र के प्रतिपादक ग्रन्थ कालशुद्धि आदि के बिना भी पढ़े जा सकते हैं। अस्तु सिद्धान्तशास्त्रों में इसी तरह से कालादिशुद्धि का विधान वर्णित है। स्वाध्याय का प्रतिष्ठापन और निष्ठापन - शुभ ध्यान और संवर-र्जिरा में कारणभूत स्वाध्याय अन्तरंग तपों में उत्तम तप है। यह स्वाध्यायी को सुसंस्कारी भी बनता है। जैनशास्त्रों में श्रमण और श्रावक दोनों को ही विधिपूर्वक स्वाध्याय करने की प्रेरणा आचार्य भगवन्तों ने दी है। श्री धवला पुस्तक ९ में कहा है[४४] कि स्वाध्याय का प्रतिष्ठापन (प्रारंभ) दिन और रात की चारों बेलाओं (पूर्वाह्न अपराह्न पूर्वरात्रिक अपर रात्रिक) में हाथ-पैरों की शुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, दिग्विभागों की शुद्धि करके विशुद्ध प्रशान्त मन और उपशान्त भावों के साथ प्रासुक स्थान में बैठकर बाजू, कांख, पैर आदि अंगों का स्पर्श न करते हुए लघु श्रुत भक्ति और आचार्य भक्ति का पाठ करके करना चाहिए। इसके बाद एक निश्चित समय तक पूर्णमनोयोग से यत्नपूर्वक अध्ययन करके लघु श्रुत भक्ति के पाठ के साथ इसका निष्ठापन (समापन) करना चाहिए।[४५] स्वाध्याय में ज्ञानाचार के आठ अंगों का परिपालन भी अवश्य होना चाहिए। इस तरह विधि और मर्यादापूर्वक किया गया स्वाध्याय ही कार्यकारी-इष्ट फलदायी होता है। दिग्विभाग की शुद्धि - श्री मूलाचार (गाथा २७३) में कहा गया है[४६]- कि पूवा्रह्न, अपराह्न और प्रदोष कालों के स्वाध्याय करने में दिशाओं के विभागों की शुद्धि के लिए नौ, सात और पांच बार गाथा प्रमाण (णमोकार) मंत्र को पढ़ें। इसकी आचारवृत्ति टीका में स्पष्ट किया गया है कि णमोकारमंत्र गाथा छन्द में है। अत: यहाँ ‘गाथा’ शब्द से णमोकार मंत्र की जाप करने से तात्पर्य है। अस्तु तदनुसार पूर्वाह्नकाल के स्वाध्याय में दिग्विभाग की शुद्धि के लिए प्रत्येक दिशा में कायोत्सर्ग से स्थित होकर ९-९ बार गाथा प्रमाण जाप करना चाहिए अर्थात् ९-९ बार णमोकार मंत्र पढ़ना चाहिए। इसी प्रकार अपराह्न के स्वाध्याय में प्रत्येक दिशा में ७-७ बार णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए। प्रदोषकालीन वाचना के निमित्त ५-५ बार णमोकार मंत्र बोलना चाहिए। इनमें क्रमश: १०८, ८४,६० उच्छश्वास होते हैं। दिशाओं के विभागों की शुद्धि से तात्पर्य है दिशाओं का उल्कापात आदि से रहित होना। कालशुद्धि सर्वत्र दिशादाह के अभाव में ही होती है। दिशादाह होने पर नहीं होती, क्योंकि दिशादाह में वाचना भंग होती है। अत: इसकाल में वाचना नामक स्वाध्याय नहीं किया जाता। स्वाध्याय में ज्ञानाचार - जिससे तत्त्वों का बोध, मन का निरोध, आत्मा की शुद्धि (परिष्कार) हो तथा जिससे राग से निवृत्ति, मोक्ष में अनुरक्ति और मैत्री भावित हो, जिनशासन में उसे ‘ज्ञान’ कहा जाता है।[४७] यही लक्ष्य/प्रयोजन स्वाध्याय के भी हैं। अत: स्वाध्यायी को ज्ञान की भावना हेतु ज्ञानाचार के आठ अंगों का परिपालन भी अवश्य करणीय है। इनके सम्यक् परिपालन से स्वाध्यायी अष्ट कर्मों का क्षय कर मोक्ष पा लेता है।[४८] ज्ञानाचार के ८ अंग निम्न प्रकार से हैं :- (१) कालाचार - स्वाध्याय में कालशुद्धि का विशेष ध्यान रखना। दिन-रात के चार सन्धिकालों के अस्वाध्याय कालों को छोडकर पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक स्वाध्याय कालों में ही स्वाध्याय किया जाना चाहिए। सूत्रग्रन्थों/ सिद्धान्तशास्त्रों की वाचना भी वर्जित कालों में नहीं करना चाहिए। यही कालाचार है। धवला पुस्तक ९ में कहा गया है कि स्वाध्याय में जो कालाचार का ध्यान नहीं रखते उनकी दुर्गति होती है, वे रोगी होते हैं और उनके कलह होती रहती है। (२) विनयचार/विनयशुद्धि -[४९] मूलाचार में कहा गया है कि स्वाध्यायी को श्रुत के प्रति विनयशील होना चाहिए। एतदर्थ हाथ-पैरों की शुद्ध जल से शुद्धिकर आँखों से भलीभांति देखकर पिच्छी से भूमि हाथ-पैर और पुस्तक को परिमार्जित कर पर्यकासन से बैठकर हाथों की अंजुलि बनाकर श्रुद्धासहित प्रमाण करके सूत्र और उसके अर्थ में उपयोग लगाते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना चाहिए। अर्थात् सूत्रानुसार अर्थ को हृदयंगम करते हुए उपयोग को निर्मल बनाकर अमनी शक्ति को न छिपाकर जिनसूत्रों को अथ्रसहित पढ़ना चाहिए। यहीर विनयचार/ विनयशुद्धि है। विनयपूर्वक पढ़ा गया ही इष्ट-मिष्ट फलदायी होता है। (३) उपधानाचार - साधुओं/ श्रोताओं/ स्वाध्याय प्रेमियों को कुछ नियम लेकर किसी ग्रन्थ-शास्त्र को पढ़ना-सुनना शुद्ध करना चाहिए। जैसे- अमुक शास्त्र की वाचना की समाप्ति पर्यन्त हमारा आचाम्ल (निर्विकृति) भोजन करने का नियम है। अथवा शास्त्र-समाप्ति तक अमुक वस्तु का त्याग है। आदि नियम लेके स्वाध्याय शुरु करना। यही उपधानाचार है।[५०] (४) बहुमानाचार - शास्त्रों में जो जैसे प्रतिपादन है, उसका वैसा ही उच्चारण करते हुए स्वयं पढ़ना और अन्यों को भी पढ़ना तथा शास्त्रों की/ गुरुओं की/ आचार्यों की/ मुनिराजों की भी आसादना नहीं करना, उन्हें आदर-सूचक वचनों से बहुमान करते हुए बोलना यही बहुमानाचार (शुद्धि) है।[५१] (५) अनिह्नवाचार - मूलाचार में कहा है[५२] जिस गुरु से शास्त्र को पढ़ा-समझा है, उसका नाम न छिपाना ‘‘अनिह्नवाचार’’ है। जो अपने गुरु का नाम छिपाकर कहते हैं कि ‘‘यह शास्त्र हमने स्वयं पढ़कर जाना-समझा है’’ वे शास्त्रानिह्नव और गुरु-निह्नव दोष के भागी होते हैं। जिनसे महान कर्मबन्ध होता है। अत: गुरु का नाम नहीं छिपाना चाहिए। (६) व्यंजनाचार (७) अर्थाचार (८) तदुभयाचार[५३] - शास्त्रों के अक्षर- वाक्य-पदों को शुद्ध पढ़ना-शुद्ध-उच्चारण करना व्यंजनाचार (शुद्धि) है उन सूत्रों/ शास्त्रों/ अक्षर-पद-वाक्यों का अर्थ भी शुद्ध समझना- अर्थाचार (अर्थशुद्धि) है औरन इन्हें शुद्ध पढ़ना और शुद्ध अर्थ करना- समझाना-तदुनयाचार (शब्द और अर्थ की शुद्धि) है। शास्त्रों को इन शुद्धियों पूर्वक पढ़ने-पढ़ाने से ज्ञान विशुद्ध हो जाता है। शुद्धियों पूर्वक पढ़ा गया शास्त्र प्रमादवश विस्मृत हो जाने पर भी वह अन्य जन्म में स्मरण आ जाता है और केवलज्ञान कराने में भी निमित्त बनता है। अत: कालादि की शुद्धिपूर्वक ही शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए।[५४] वक्ता एवं श्रोता- जैनशास्त्रों में वक्ता एवं श्रोताओं के गुणों/योग्यताओं का भी उल्लेख किया गया है। तदनुसार वक्ता/ व्याख्याता को शब्दशास्त्र एवं विषय-मर्मज्ञ, विनम्र निर्लोभी, न्यायवृत्ति वाला, ख्याति-लाभ-पूजादि की चाह से निरपेक्ष, स्वपर-हित की भावना वाला, सन्तोषी, देशकाल की परिस्थिति का ज्ञाता, श्रोताओं की योग्यताओं/ क्षमताओं को समझने वाला, प्रश्न-सहिष्णु, वात्सल्यमयी, क्षमाशील, मृदुभाषी, जिनश्रद्धानी तथा सात्त्विक आहार विहारी होना चाहिए।[५५] श्रोताओं को भी जिन वचनों का श्रद्धानी, तत्त्वजिज्ञासु, निश्च्छल, विनम्र, व्यसनमुक्त, अष्टमूलगुण-पालक, षडवश्यक कर्तव्यों का कर्ता, निर्मल उपयोग और न्यायवृत्ति वाला, क्षमाशील, सन्तोषी, सरल, सात्त्विक अहारी और सदाचारी होना चाहिए। उपसंहार- श्री धवला पु. ९ में[५६] श्रुत के माहात्म्य को दर्शाते हुए इसके सतत स्वाध्याय की प्रेरणा दी गई है- ‘‘जिनवचन/जैनागम अज्ञानविनाशक, माहेनाशक, कर्म-मार्जक, भव्यात्माओं को आह्लादकारी और मुक्ति पथ-प्रदर्शक हैं। अत: इन्हें खूब भजो।’’ अस्तु श्रुततीर्थ की मोक्षमार्ग की श्रमण परम्पा अक्षुण्ण बनी रहे, जैनधर्म प्रवर्थमान रहे, श्रमण संस्कृति कायम रहे- उतदर्थ चतुर्विध संघ में सतत श्रुताभ्यास की परम्परा सुदृढ़ बनी रहनी चाहिए। आगम-ज्ञान के अभाव में शिथिलाचार पनपता और बढ़ता है, भ्रान्तियाँ पैâलती हैं, मिथ्या मान्यताओं का पोषण होता है, समाज में विघटन होता है। अत: ज्ञानार्जन हेतु आज नियमित स्वाध्याय की/ शास्त्र सभाओं की/ तत्त्वगोष्ठियों में चर्चाओं की/ सेमिनारों और वाचनाओं की/ शिक्षण-प्रतिक्षण शिवरों के आयोजनों की महती आवश्यकता है। चारों अनुयोगों के रूप में विपुल साहित्य आज हमें उपलब्ध है। उसे योग्यकाल में भक्तिभाव से खूब पढ़ो-पढ़ाओं। टिप्पणी ऊपर जायें ↑ ‘ज्ञानभावनालस्तत्याग: स्वाध्याय:- सर्वार्थसिद्धि-९/२०/४३९/७ ऊपर जायें ↑ ‘स्वस्मै हितोऽध्याय: स्वाध्याय:- चारित्रसार-१५२/५ ऊपर जायें ↑ जो अप्पाणं जाणदि, असुइशरीरादि तच्चदो भिण्णं। जाणण-रुव-सरुवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ।।४६५।। कार्तिकेयानुपेक्ष्या ऊपर जायें ↑ ‘बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधै: ।।५९९।।- मूलाराधना ऊपर जायें ↑ ‘अंगंबाहिर-आगम-वायण-पुच्छणाणुपेहा-परियट्ठण- धम्मकहाओ सज्झाओ णाम-धवला १३/५,४,२६,६४/१ ऊपर जायें ↑ ‘स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च’- ४४/३- चारित्रसार ऊपर जायें ↑ ‘सभी संस्कारों का मूल स्वाध्याय- ‘जैन बोधक’- जून २००८ सो. माधुरी शास्त्री ऊपर जायें ↑ परतत्ती णिरेवेक्खो दुट्ठ-वियप्पाण-णासण-समत्थो। तच्च-विणिच्छय-हेदू, सज्झाओ णाणासिद्धियरो ।।४६१।। कार्तिकेयानुप्रेक्ष्या (स्वामी- कार्तिकेय) ऊपर जायें ↑ ‘बारस विहम्मियतवे सब्भंतर-बारिे कुसलदिट्ठे। णवि अत्थि ण वि होहिदि, सज्झायसमं तवोम्मं ।।१०६।। भ.आ.तथा मूलाचार-९७२ दट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियज्ञस्स जा सोही। तत्ते बहुगणुदरिया, होज्जहु जिमिदस्स णाणिस्स ।।१०९।। भगवती आराधाना ऊपर जायें ↑ ‘सत्झाय-भावणाए भाविदा होंति सव्वगुत्तीओ । गुत्तीहिं भाविदा हय, मरणे आराधओ होदि ।।१०९।। भगवती आराधना। ऊपर जायें ↑ ‘सज्झायं कुव्वंतो पंचेन्द्रिय-संबुडो त्ति-गुत्तीय । हवदि य एअग्गमणो, विणएण समाहिओ भिक्खू ।।४१०।। मूलाचार ऊपर जायें ↑ धवला - १३/५, ७, ५० ऊपर जायें ↑ ‘वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय- धर्मोपदेशा:’ - तत्त्वार्थसूत्र- ९/२५ ऊपर जायें ↑ कार्तिकेयानुप्रेक्ष्या-गाथा ४६६ टीका तथा भगवती आराधाना- १४१ ऊपर जायें ↑ ‘परियट्ठणाय-वायण-पडिच्छदणाणुपेहया य धम्मकहा । थुदि-मंगल-संजुत्ता पंचविहो होई सज्झाओ ।।३६९।। मूलाराधाना । ऊपर जायें ↑ ‘श्रुतस्कन्धे धाीमान् रमयतु मनोमकटममुम् ।. १७०- आत्मानुशासन ऊपर जायें ↑ भगवती आराधना- गाथा १३७-१४१ ऊपर जायें ↑ ‘प्रज्ञातिशय: प्रशस्ताध्यवसान: परमसंवेगस्तपोवृद्धि: अतिचाविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थ:’ - सर्वार्थसिद्धि९/१५/४४३/६ ऊपर जायें ↑ ‘आद-पर-समुद्धारो आणा वच्छल्ल-दीवणा भत्ती । होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छिती य तित्थस्स ।।११०।। भगवती आराधाना। ऊपर जायें ↑ ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ तथा बूंद-बुंद से घट भरे’ ऊपर जायें ↑ ‘जह-जह सुदमोग्गाहदि अदिसय-रस-पसर-मसुदपुव्वं। तह-तह पल्हादिज्जदि णव-णव संवेग-सड्ढाए ।।१०५।।आयापाय-विदण्हू दंसण-णाण-तव-संजमे ठिच्चा । विहरदि विसुज्झमाणे जावज्जीवं दु णिक्कपो ।।१०६।। भगवती आराधना ऊपर जायें ↑ ति.पणणत्ती भाग-१, गाथा-५१ ऊपर जायें ↑ परमात्मा-प्रकाश - /१९१ ऊपर जायें ↑ ‘शास्त्राग्नौ मणिवद् भव्यो विशुद्धो भाति निर्वृत:’ - १०६।। आत्मानुशासन ऊपर जायें ↑ ‘जिणवयणमोषणमिणं विसयसुह-विरेयणं अमिदभूदं । जर-मरण-वाहि-हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।१७।। - दंसणपाहुड ऊपर जायें ↑ ‘पवयणसारब्भासं परमप्पाज्झाण-कारणं जाणं । कम्मक्खवण-णिमित्तं कम्मक्खणेहि मोक्खसोक्खं हि ।।९१।। रयणसार ऊपर जायें ↑ जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खा दीहिं बुज्झदो णियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।८६।। प्रवचनसार ऊपर जायें ↑ ‘देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्याय: संयमस्तप: दानं चेति गृहस्थानों पट् कर्माणि दिने-दिने ।। ऊपर जायें ↑ ज्ञान-ध्यान-तपोरक्त: तपस्वी स प्रशस्यते ।।९०।। रत्नकरण्डकश्रावकाचारा ऊपर जायें ↑ ‘स्वाध्यायाज्-जायते ज्ञानं ज्ञानतत्त्वार्थसंग्रह: । तत्त्वार्थसंग्रहोदेव श्रद्धानं तत्त्वगोचरम् ।।२०।। सिद्धान्तसार ऊपर जायें ↑ उपदेशमाला - ३३८-३३९। ऊपर जायें ↑ ‘णिदुलं विउलं शुद्धं णिकाचिदमणुत्तरं च सव्वहिदं । जिणवयणं कुलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदव्वयं ।।९८।। भ० आराधाना ऊपर जायें ↑ ‘स्वाध्यायान्मा प्रमदितव्यम्’ ऊपर जायें ↑ ‘सज्झाए वा निउतेणं सव्वदुक्खविमोक्खणे’ ऊपर जायें ↑ धवला-९/४, १,१/३/१-९/५, ५, ५, ५०/२८१/३- १/१, १/५६/३ ऊपर जायें ↑ ‘शान्तिसुधा बरसावै जिनवाणी, वस्तुस्वरूप बताये जिनवाणी ।।’ अज्ञानतितिरं हन्ति, विद्या बहु-विकासिनी’। ऊपर जायें ↑ ‘ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन। इस परमामृत जन्म-जरा-मृत-रोग-निवारन’’ (छहढाला-दौलतराम) ऊपर जायें ↑ भगवती आराधना-२०५२/१७८४ ऊपर जायें ↑ धवला - ९/४, १, ५४, ११०, १०७, १०८, ११३, ११४ ऊपर जायें ↑ मूलाचार-२७४-२७५, ऊपर जायें ↑ ‘रूधिदि-पूय-मंसं, दव्वे खेत्ते सद-हाथ-परिमाणं । क्रोधादि-संकिलेसा, भाव-विसोही पढण-काले ।।२७६।।- मूलाचार धवला ९/४, १, ९९,१००, १०१, १०२, १०५, १०६ ऊपर जायें ↑ धवला - ९/४, १, ५४/११९ ऊपर जायें ↑ मूलाराधना- २७७-२७९ । ऊपर जायें ↑ उत्थ वक्खाणसेहिं सुणंतेहिं वि दव्व-खेत्त-कल-भाव-सुद्धीहि वक्खाण-पढण वावरो कायव्वो तत्र ।। धवला पु. ९ पृ.२५३ ऊपर जायें ↑ धवला - /४, १ १, १०७, १०८ ऊपर जायें ↑ णव-सत्त-पंच-गाहा-परिमाणं दिसिविभागसोहीए । पुव्वह्ने अवरह्ने प्रदोसकाले य सज्झाए ।।२७३।। -मूलाचार ऊपर जायें ↑ मूलाचार गाथा २६७, २६८ ऊपर जायें ↑ मूलाचार-गाथा २६६ पृ. २२२। ऊपर जायें ↑ मूलाचार - २८१, पृ. २३८ ऊपर जायें ↑ मूलाचार-गाथा २८२ ऊपर जायें ↑ वही- २८ ऊपर जायें ↑ वही गाथा-२८४ ऊपर जायें ↑ मूलाचार- गाथा २८५ ऊपर जायें ↑ वही, गा. २८६ ऊपर जायें ↑ प्रश्नोत्तर संग्रह भ. २ पृ. ३०-३२ ऊपर जायें ↑ धवला- १/१ गाथा ५० एवं ५१ प्राचार्य अभय कुमार जैन अनेकान्त अप्रेल-जून २०१३ पृ. २८ से ४० श्रेणी: विशेष आलेख दिक्चालन सूची इनपुट विधिखाता बनाएँलॉग इनपृष्ठचर्चापढ़ेंस्रोत देखेंइतिहास देखें  खोज खोजेंजाएँ मुख्यपृष्ठ English Version सभी विषय सूचियां अन्य प्रमुख विषय>> जैन धर्म‎>> चौबीस तीर्थंकर>> गैलरी‎>> णमोकार महामंत्र स्वाध्याय करें जिनेन्द्र भक्ति>> जैन तीर्थ>> ग्रन्थ भण्डार हाल में हुए बदलाव यादृच्छिक पृष्ठ इनसाइक्लोपीडिया बोर्ड सहायता संपादन सहायता>> साधन पेटी यहाँ के हवाले कहाँ कहाँ हैं पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ छापने योग्य संस्करण स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी इस पृष्ठ का पिछला बदलाव ८ मई २०१५ को १०:२२ बजे हुआ था। यह पृष्ठ १२३ बार देखा गया है। उपलब्ध सामग्री Creative Commons Attribution Share Alike के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयता नीतिENCYCLOPEDIA के बारे मेंअस्वीकरण

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