Thursday, 30 March 2017
चौलकर्म
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इसमें पहली बार बालक के सिर के बाल उतारे जाते हैं। यह कार्य जन्म से एक वर्ष या तीन वर्ष बाद या परिवार की परंपरा के आधार पर और बाद में हो सकता है। चरक का विचार है कि केश, श्मश्रु एवं नखों के काटने एवं प्रसाधन से पौष्टिकता, बल, आयुष्य, शुचिता और सौंदर्य की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के पीछे स्वास्थ्य एवं सौंदर्य की भावना ही प्रमुख थी। पहले यह घर पर होता था, किंतु बाद में देवालयों में।
काल निर्धारण :-
चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे "चौलकर्म' भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है "शिशु का मुण्डन पूर्वक "शिखा' ( चूड़ा ) का निर्धारण करना'। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है। अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा० ( 2/8 ), पार० गृ० सू० ( 2.1.1- 2 ) तथा मनु० (2.35 ) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए, किंतु आश्व० गृ० सू० (1/17/1 पर नारायणी टीका ) तथा अन्य उत्तरकालीन "संस्कारप्रकाश' आदि संस्कारपद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है, किंतु असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।
इस संदर्भ में गृह्यसूत्रकारों का यह भी कहना है कि इसके लिए उत्तरायण का समय अधिक उपयुक्त होता है। मासों की दृष्टि से राजमार्तण्ड के अनुसार इसके लिए चैत्र तथा पोष को अधिक उपयुक्त माना जाता है, किंतु "सारसंग्रह' में ज्येष्ठ तथा पौष को इसके लिए वर्जित कहा गया है। (इसके विस्तृत विवेचन के लिए देखें आश्व०, गोभिल एवं पराशर )।
चूड़ाकर्म का महत्व :-
इस संस्कार का संबंध प्रमुख रुप से शिशु की स्वास्थ्यरक्षा के साथ माना गया है। आश्व० गृ० सू० के अनुसार इससे बालक की आयुवृद्धि होती है, वह यशस्वी एवं मंगल कार्यों में प्रवृत्त होता है। पुरातन आयुर्विज्ञान विशेषज्ञों ने भी इसके स्वास्थ्य संबंधी महत्व को स्वीकार किया है। चरक तथा सुश्रुत दोनों का ही कहना है कि केश, श्वश्रु तथा नखों के केर्तन एवं प्रसाधन से आयुष्य, शारीरिक पुष्टता, बल, शुचिता एवं सौंदर्य की अभिवृद्धि होती है। अर्थात् केशवपन से भी शरीर पुष्ट, नीरोग एवं सौंदर्य सम्पन्न होता है।
व्यक्त है कि गर्भजन्य केशों के कारण शिशु के सिर में खाज, फोड़े, फुंसी आदि चर्मरोगों के होने तथा लंबे बालों के कारण सिर में जूं, लीख आदि कृमि- कीटों के उत्पन्न होने की संभावना भी रहती है। साथ ही गर्भजन्य बालों की विषमता के कारण शिशु के बालों का विकास भी समरुप में नहीं हो पाता है। अतः शैशवास्था में एक बार क्षुर ( उस्तरे ) से उनका वपन आवश्यकता होता है। केशवपन की इस आवश्यकता का अनुपालन, हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों में भी देखा जाता है।
क्रियाविधि :-


गृह्यसूत्रों में इसकी क्रिया विधि अति सरल एवं संक्षिप्त रुप में पायी जाती है। पार. गृ. सू. (2.1 ) के अनुसार इस दिन शिशु के माता- पिता इसके निमित्त तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरांत शिशु की माता उसे स्नान कराकर तथा नूतन वस्र पहना कर यज्ञशाला में जाकर गोदी में लेकर, पूर्वाभिमुख होकर यज्ञाग्नि के पश्चिम में जाकर बैठती थी। पति- पत्नी दोनों अग्नि में घी की चौदह आहुतियाँ देकर वहाँ पर रखे गये जल में गरम जल मिलाते थे। तदनन्तर उस जल में नवनीत या घी अथवा दही मिलाते थे। इस मिश्रित जल से शिशु के बालों को गीला करके उन्हें सेही के कांटे से तीन भागों में विभक्त करके उनके बीच में कुशांकुन ग्रथित करते थे। आश्वलापन गृ. सू. में यहाँ पर छुरे की प्रार्थना भी की गयी है। इसके बाद उन्हें पुनः इस जल से गीला करते हुए पहले दक्षिण के भाग को, फिर पश्चिम के भाग को तथा अंत में उत्तर के भाग को काटा जाता था।
इस क्रम में छुरे से सिर को तीन बार साफ किया जाता था। केशों को वहाँ पर पहले से ही रखे हुए बैल के गोबर में आरोपिट कर दिया जाता था। केशों को वहाँ पर पहले से ही रखे हुए बैल के गोबर में आरोपित कर दिया जाता था, जिसे अन्त में गोष्ठ में अथवा किसी जलाशय अथवा जल धारा के समीप भूमि में दबा दिया जाता था।
"मस्तकलेपन' :-
सर्वप्रथम शीतोष्णजल में गाय के घी, दूध, दही का मिश्रण कर वैदिक मंत्रों के साथ बालक के बालों को गीला किया जाता है, फिर उन्हें तीन भागों ( दायां, बायां और मध्यस्थ ) में विभक्त कर उनके बीच में मंत्रोच्चार के साथ कुशा के तृण रख कर उन्हें कलावे से जूड़े के रुप में बांधा जाता है। इसमें सृष्टि के सर्ग, स्थिति एवं संहार के तीनों अधिष्ठातृ देवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश से संबंद्ध मंत्रों के द्वारा सृष्टि का संचालन करने वाली इन तीनों महाशक्तियों का आवाहन इस भावना से किया जाता है कि इनके प्रभाव से बालक के मस्तिष्क में सत्कार्यों की सृष्टि, उनका पोषण एव असत्यकार्यों के विनाश की प्रवृतियों का संचार हो सके।
क्षुरपूजन :-
इसके बाद बालक के माता- पिता क्षुर ( उस्तरे ) की मूठ पर कलावा बांधकर रोली, अक्षत, धूप, दीप से वैदिक मंत्रों के साथ उसका पूजन करते हैं। तदनन्तर यज्ञ कुण्ड में पांच आहुतियां देकर बालक को यज्ञ स्थल से बाहर ले जाकर उसके बाल उतारे जाते हैं तथा उन्हें गोबर या आटे के पिण्ड में लपेट कर स्वच्छ भूमि में गाड़ दिया जाता है। बालक को स्नान करा कर पीतवस्र धारण कराये जाते हैं तथा उसके मुंडित सिर पर रोली या चन्दन से ऊँ का या स्वस्तिक का चिह्म बनाया जाता है। इसके बाद स्वस्तिवाचन तथा आशीर्वचन के साथ इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया पूरी हो जाती है। तदनन्तर बधाई, भोज आदि का कार्य होता है। केशबन्धन के समान ही केशवपन के समय भी तीनों ग्रंथियों के अधिष्ठातृ देवों से सम्बद्ध मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।
बौधा० शांखायन आदि गृह्यसूत्रों में नापित का कोई उल्लेख न होने से व्यक्त है कि पहले यह कार्य बालक के पिता के द्वारा ही किया जाता था, किन्तु आगे चलकर इसके लिए नापित का भी सहयोग लिया जाने लगा। (संस्काररत्नमाला, पृ० 901 )
केशाधिवासन :-
किन्तु उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में जहां कि यह उपनयन के साथ किया जाता है, प्रचलित संस्कार पद्धतियों में इसके आनुष्ठानिक स्तर पर अनेक रुपों की भिन्नता पायी जाती है, यथा, केशाधिवासन। यह क्रिया मुण्डन संस्कार की पूर्वसन्ध्या में की जाती है, इसमें गणेशपूजन के उपरान्त एतदर्थ पीले वस्रखण्डों में हल्दी, दूब, सरसों, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों को रख कर उन्हें कलावे से बांध कर नौ पोटलियां बनायी जाती हैं और एक अलग से दसवीं भी बना ली जाती है। तदनन्तर बालक के माता - पिता संकल्प पूर्वक गणेशपूजन करके मुडन संस्कार के निमित्त प्रधान संकल्प लेते हैं, और उन पोटलियों को बालक के बालों को थोड़ा - थोड़ा इकट्ठा करके उन पर बांधते हैं।
उनके बांधने का क्रम इस प्रकार होता है : सबसे पहले तीन पोटलियां दाहिने पक्ष की ओर, फिर तीन पीछे की ओर तथा अन्त में तीन बायें पक्ष की ओर और एक शिखा पर। इसके अतिरिक्त दो पोटलियाँ और भी बनाई जाती हैं जिनमें से एक को उस्तरे पर तथा एक को सेही के कांटों पर बांधा जाता है। वहाँ पर एक तांबे की परात में या कांसे की थाली में बैल का गोबर, गाय का घी, दूध, दही, तीखी धारवाला क्षुर, तीन - तीन करके त्रिगुणित सूत्र से लपेटे हुए कुशा के नौ तृणांकुरों को रख कर दक्षिणासंकल्प के साथ ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर पोटलियों को यथावत् सुरक्षित रखने के लिए बालक के सिर पर एक कपड़ा बांध दिया जाता है। इस प्रकार केशाधिवासन का अनुष्ठान किया जाता है। केश मानव शरीर के अंग होने के कारण इनके माध्यम से किसी प्रकार के जादू - टोने के परिहार के निमित्त ही इन्हें गोबर में स्थापित कर भूमि के गर्भ में रखा जाता है।
अगले दिन प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर यज्ञशाला में जाकर संकल्प पूर्वक आचार्य का वरण करके यथाविधि वैदिक मंत्रों के साथ आज्यहोम तथा उसके बाद चूड़ांगहोम किया जाता है। तदनन्तर ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार एतदर्थ नियत मुहूर्त में लग्नदानसंकल्प करके वैदिक मंत्रों के साथ पूर्वोक्त रुप में केशकर्तन तथा शिखा को छोड़कर शीर्ष मुंडन किया जाता है। इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया मैदानी भागों की प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। अपिच, बटुक का कर्णवेध संस्कार भी इसी के साथ किया जाता है।
शिखासंचयन :-
यह कोई पृथक् संस्कार तो नहीं, किन्तु चूड़ाकर्म संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। जहां पर बालक का चौलकर्म बाल्यावस्था में सम्पूर्ण केशवपन के रुप में किया जाता है वहां पर शिखाचयन/शिखा स्थापन का कार्य उसके बाद केशवृद्धि हो जाने पर किसी भी दिन कर दिया जाता है और जहां पर चूड़ाकर्म का संस्कार कौमारावस्था में उपनयन के साथ ही किया जाता है वहां पर शिखास्थापन का कार्य उसी के साथ किया जाता है।
धर्मशास्रों के अनुसार बालक की शिखा के स्वरुप तथा उसके स्थापन के स्थान का निर्धारण उसके गोत्र एवं प्रवर के अनुसार किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में आश्व० एवं बौधा० का कहना है कि केशों का संचयन कुलधर्म के अनुरुप किया जाना चाहिए। वीरमित्रोदय में दिए गये विवरण के अनुसार, वशिष्ठ गोत्री लोग सिर के मध्य में केवल एक शिखा रखते थे। अत्रि एवं कश्यप के वंशज सिर के दोनों पक्षों पर दो शिखाएँ रखते थे, अंगिरस गोत्रानुयायी लोग पाँच शिखाएँ रखते थे और भृगु के वंशज कोई शिखा नहीं रखते थे अर्थात् पूर्ण रुप से मुंडित शीर्ष होते थे।
ज्ञातव्य है कि गौड़ देशीय ब्राह्मण मृगुगोत्री माने जाते हैं। उत्तर भारत में तो शिखा स्थापना संबंधी इस शास्रीय विधान का अनुपालन संभवतः मध्यकाल में ही शिथिल हो चुका था, फलतः सिर के शीर्ष स्थान पर केवल एक चोटी रखने की परंपरा चल पड़ी थी, किंतु दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में पर्याप्त रुप में इस शास्रीय विधान का अनुपालन किया जाता था।
शिखासंचयन का महत्व :-
संस्कार ग्रंथों में शिखासंचयन संबंधी अनुष्ठानों का विश्लेषण करने पर देखा जाता है कि इसका संबंध हमारे शरीर के संचालन केंद्र मस्तिष्क की सुरक्षा के साथ होता है। शीर्ष के ऊपरी भाग को मस्तिष्क का मर्म स्थल माना जाता है। ब्रह्मरंध्र की स्थिति भी यहीं पर होती है और यही स्थान होता है, द्विदलीय आज्ञाचक्र का भी। आधुनिक चिकित्साविज्ञानियों का भी कहना है कि बालक को कौमारावस्था से किशोरावस्था की ओर अग्रसर करने वाली तथा हारमोंस के माध्यम से प्रत्येक आयु के व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया का नियमन करने वाली "पीनियल' नामक ग्रंथि भी यहीं पर होती है। मानव के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मर्मस्थल को सभी प्रकार के आघातों से बचाये रखने के लिए ही शास्रों में गोखुर प्रमाण शिखा रखने का विधान किया गया था।
हमारे आयुर्विज्ञान सम्बन्धी ग्रंथ भी इसका पूरा अनुमोदन करते हैं। आचार्य सुश्रुत का कहना है "हमारे मस्तक के अंदर उसके शीर्ष भाग में शिरा संबंधी सन्निपात होता है वहीं पर हमारे मस्तिष्क का नियामक केंद्र भी होता है इस स्थान के आहत होने पर तत्काल मृत्यु हो सकती है।'
इसके अतिरिक्त धार्मिक स्तर पर भी शिखाधारण को अत्यधिक महत्व दिया गया है। स्मृतिकार देवल का कहना है - "शिखा एवं यज्ञोपवीत से हीन व्यक्ति, जो भी धार्मिक अनुष्ठान करता है, वह सब व्यर्थ होता है।'
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में शिखा को चेतना जागृति तथा प्रतिज्ञापालन का प्रतीक भी माना जाता रहा है। यही कारण था कि लोग किसी व्रत या प्रतिज्ञा को करते समय शिखा का स्पर्श करते थे, उन्हें निरवच्छिन्न रुप में अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण बना रहे, इसलिए उसे बंधनमुक्त कर डालते थे। नंदवंश का नाश करने के लिए शिखामोक्ष के रुप में चाणक्य द्वारा की गयी प्रतिज्ञा का प्रसंग सर्वविदित है ही। पुराणों में इस प्रकार के अनेक संदर्भ पाये जाते हैं, जिसमें ॠषि- मुनि लोगों को क्रुद्ध होने पर संबद्ध व्यक्ति को अभिशप्त करने के लिए शिखामोक्ष करते हुए वर्णित किया गया है। मध्यकाल में हिंदुओं के लिए शिखा एक प्रकार से धर्मध्वजा की प्रतीक थी, जिसकी रक्षा वे अपने प्राणपण से किया करते थे, किंतु आज की बदलती परिस्थितियों में यह एक आनुष्ठानिककृत्य मात्र रह गया है।
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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey
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