Friday 31 March 2017

ब्रह्मचर्य रक्षा उपाय

ब्रह्मचर्य के साधन एक ऐसा ब्लॉग जहाँ आपको मिलेगा ब्रह्मचर्य के विषय पर संपूर्ण वैज्ञानिक मार्गदर्शन  search Home ब्रह्मचर्य के साधन MAR 7 जो हम खाना खाते हैं उससे वीर्य बनने की काफी लम्बी प्रक्रिया है।खाना खाने के बाद रस बनता है जो कि नाडियों में चलता है।फिर बाद में खून बनता है।इस प्रकार से यह क्रम चलता है और अंत में वीर्य बनता है।वीर्य में अनेक गुण होतें हैं।शायद वैज्ञानिक अपनी ही बात को टाल रहें हैं।वैज्ञानिक स्वयं कहतें हैं कि वीर्य में हाई क्वालिटि प्रोटीन,कार्बोहाईड्रेट आदि होतें हैं। जो कि हमारे शरीर को बल प्रदान करते हैं। क्या आपने कभी यह सोचा है कि शेर इतना ताकतवर क्यों होता है?वह अपने जीवन में केवल एक बार बच्चॉ के लिये मैथुन करता है।जिस वजह से उसमें वीर्य बचा रहता है और वह इतना ताकतवर होता है। जो वीर्य इक्कठा होता है वह जरूरी नहीं है कि धारण क्षमता कम होने से वीर्य बाहर आ जायेगा।वीर्य जहाँ इक्कठा होता है वहाँ से वह नब्बे दिनों बाद पूरे शरीर में चला जाता है।फिर उससे जो सुंदरता,शक्ति,रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि बढती हैं उसका कोई पारावार नहीं होता है। Posted 7th March 2014 by sehat tips    0 Add a comment MAR 7 ब्रह्मचर्य जीवन जीने के उपाय ब्रह्मचर्य जीवन जीने के उपाय- शरीर के अन्दर विद्यमान ‘वीर्य’ ही जीवन शक्ति का भण्डार है। शारीरिक एवं मानसिक दुराचर तथा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक मैथुन से इसका क्षरण होता है। कामुक चिंतन से भी इसका नुकसान होता है। अत: बचने के कुछ सरल उपाय निम्रानुसार है- 1.ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने की आवश्यकता है। अत: अन्नमय कोष की साधना करें। भोजन पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए। 2. कामुक चिंतन आने पर निम्र उपाय करें- * जिस प्रकार गन्ने का रस बाहर निकल जाने के पश्चात ‘छूछ’ कोई काम का नहीं रह जाता उसी प्रकार व्यक्ति के शरीर से ‘वीर्य’ के न रहने पर होता है, इस भाव का चिंतन करें। * तत्काल निकट के देवालय में चले जायें एवं कुछ देर वहीं बैठे रहें। * अच्छे साहित्य का अध्ययन करें। जैसे- ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता, मानवी विद्युत के चमत्कार, मन की प्रचण्ड शक्ति, मन के हारे हार है मन के जीते जीत, हारिए न हिम्मत आदि। * अच्छे व्यक्ति के पास चले जायें। * आपके घर रिश्तेदार में रहने वाली महिला को याद करें कि मेरे घर में भी माता है, बहन है, बेटी है। अत: सामने खड़ी लडक़ी/महिला भी उसी रूप में है। * लड़कियों से आँख में आँख मिलाकर बाते न करें क्योंकि शरीर में विद्यमान विद्युत शक्ति सबसे ज्यादा ‘आँखों’ के माध्यम से बाहर निकलती है एवं प्रभावित करती है। 3. मैथुन क्रिया से होने वाले नुकसान निम्रानुसार है- * शरीर की जीवनी शक्ति घट जाती है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। * आँखो की रोशनी कम हो जाती है। * शारीरिक एवं मानसिक बल कमजोर हो जाता है। * जितना वीर्य बचाओगे उतना ही जीवन पाओगे। * जिस तरह जीने के लिये ऑक्सीजन चाहिए वैसे ही ‘निरोग’ रहने के लिये ‘वीर्य’। * ऑक्सीजन प्राणवायु है तो वीर्य जीवनी शक्ति है। * अधिक मैथुन से स्मरण शक्ति कमजोर हो जाता है। * चिंतन विकृत हो जाता है। * सात्विक भोजन, सकारात्मक चिंतन एवं सेवा कार्यों में व्यस्त रहने से ‘मन’ नियंत्रित होता है। मन के नियंत्रण से ब्रह्मचर्य जीवन साधने में ‘सरल’ हो जाता है। ब्रह्मचर्य रक्षा के उपाय :- (उपाय बताने के पहले सबसे उनके पिछले गलत आदतों, घटनाओं व समस्याओं को कागज में लिखवा लें। पढक़र फाड़ दें।) 1. प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ। 2. तेज मिर्च मसालों से बचें। शुद्ध सात्विक शाकाहारी भोजन करें। 3. सभी नशीले पदार्थों से बचें। 4. गायत्री मन्त्र या अपने ईष्ट मन्त्र का जप व लेखन करें। 5. नित्य ध्यान (मेडिटेशन) का अभ्यास करें। 6. रात्रि में दूध पीते हों तो सोने के 1-2 पहले पीएँ व ठण्डा करके पीएँ । 7. रात्रि शयन के पूर्व महापुरुषों के जीवन चरित्र का स्वाध्याय करें। 8. मन को खाली न छोड़ें किसी रचनात्मक कार्य व लक्ष्य से जोड़ रखें। 9. नित्य योगाभ्यास करें। निम्न आसन व प्राणायाम अनिवार्यत: करें-आसन-पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, भद्रासन प्राणायाम- भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम। 10. एकान्त में लड़कियों से बातचीत मेल मिलाप से बचें। काम तत्व के ज्ञान-विज्ञान को भी समझा जाए- परमात्मा ने अपनी सारी शक्ति बीज रुप में मनुष्य को दी गई है। वह शक्ति कुण्डलिनी कहलाती है। मूलधार चक्र में कुण्डलिनी महाशक्ति अत्यन्त प्रचण्ड स्तर की क्षमताएँ दबाए बैठी है। पुराणों में इसे महाकाली के नाम से पुकारा गया है। मोटे शब्दों में इसे कामशक्ति कह सकते है। कामशक्ति का अनुपयोग, सदुपयोग, दुरुपयोग किस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है, उसे आध्यात्मिक काम विज्ञान कहना चाहिए। इस शक्ति का बहुत सूझ-बूझ के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य का तत्व ज्ञान है। बिजली की शक्ति से अगणित प्रयोजन पूरे किए जाते हैं और लाभ उठाए जाते हैं, पर यह तभी होता है जब उसका ठीक तरह प्रयोग करना आए, अन्यथा चूक करने वाले के लिए तो वही बिजली प्राणघातक सिद्ध होती है। नर और नारी के बीच पाए जाने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम, स्वाहा और स्वधा तत्वों का महत्व सामान्य नहीं असामान्य है। सृजन और उद् भव की, उत्कर्ष और आह्लद की असीम सम्भावनाएँ उसमे भरी पड़ी है। प्रजा उत्पादन तेा उस मिलन का बहुत ही सूक्ष्म सा स्थूल और अति तुच्छ परिणाम है। इस सृष्टि के मूल कारण और चेतना के आदि स्रोत इन द्विधा संस्करण और संचरण का ठीक तरह मूल्यांकन किया जाना चाहिए, और इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इनका सदुपयोग किस प्रकार विश्व कल्याण की सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक हो सकता है, और इनका दुरुपयोग मानव जाति के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार क्षीण विकृत करके विनाश के गर्त में धकलने के लिए दुर्दांत दैत्य की तरह सर्वग्राही संकट उत्पन्न कर सकता है। अश्लील अवांछनीय और गोपनीय संयोग कर्म हो सकता है। विकारोत्तेजक शैली में उसका वर्णन अहितकर हो सकता है। पर सृष्टि संस्करण के आदि उद् गम प्रकृति पुरुष के संयोग से किस प्रकार यह द्विधा काम कर रही है यह जानना तो अनुचित है और न ही अनावश्यक। सच तो यह है कि इस पञ्चाग्नि विद्या की अवहेलना-अवमानना से हमने अपना ही अहित किया है। नर-नारी के बीच प्रकृति प्रदत्त विधुतधारा किस सीमा तक किसी दिशा में कितनी और कैसे श्रेयष्कर प्रतिक्रिया उत्नन्न करती है और उनकी विकृति विनाश का निमित्त कैसे बनती है? इस जानकारी को आध्यात्मिक काम विज्ञान कह सकते हैं। काम शक्ति को गोपनीय तो माना गया है जिस प्रकार धन कितना है? कहाँ है? आदि बातों को आमतौर से लोग गोपनीय रखते हैं। उसकी अनावश्यक चर्चा करने से अहित होने की आशंका रहती है। इसी प्रकार कामतत्व को गोपनीय ही रखा गया है, पर इसकी महत्ता, सत्ता और पवित्रता से कभी किसी ने इन्कार नहीं किया। यह घृणित नहीं पवित्रतम है। यह हेय नहीं अभिवन्दनीय है। भारतीय आध्यात्म शास्त्र के अन्तर्गत शिव और शक्ति का प्रत्यक्ष समन्वय जिस पूजा प्रतीक में प्रस्तुत किया गया है उसमें उस रहस्य का सहज ही रहस्योद् घाटन हो जाता है। शिव को पुरुष जननेन्द्रिय और पार्वती को नारी का जननेन्द्रिय का स्वरूप दिया गया है। उनका सम्मिलित विग्रह ही अपने देव मन्दिर मे स्थापित है। यह अश्लील नहीं है। तत्वत: यह सृष्टि में संचरण और उल्लास उत्पन्न करने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम, के संयोग से उत्पन्न होने वाले, महानतम शक्ति प्रवाह की ओर संकेत है। इस तत्वज्ञान को समझना न तो अश्लील है और न घृणित, वरन शक्ति के उद् भव, विकास एवं विनियोग का उच्चस्तरीय वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारभूत एक दिव्य संकेत है। कामशक्ति स्वयं घृणित नहीं है। घृणित तो वह विडम्बना है, जिसके द्वारा इतनी बहुमूल्य ज्योतिधारा को शरीर को जर्नर और मन को अध:पतित करने के लिए अविवेकपूर्ण प्रयुक्त किया जाता है। सावित्री का कुण्डलिनी का प्राण काम पतित कैसे हो सकता है? जो जितना उत्कृष्ट है विकृत होने पर वह उतना ही निकृष्ट बन जाता है यह एक तथ्य है। काम तत्व के बारे में भी यही सिद्धांत लागू होता है। नारी को कामिनी और रमणी न बनाया जाए- नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग के बिना सृष्टि का व्यवस्थाक्रम नहीं चल सकता। दोनों का मिलन कामतृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता, वरन घर बसाने से लेकर व्यक्तियों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवित्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही सम्भव होता है। यह घनिष्ठता जितना प्रगाढ़ होगी, विकास और उल्लास की प्रक्रिया उतनी ही सघन होती चली जाएगी। अतिवाद का एक सिरा यह है कि नारी को कामिनी, रमणी, वेश्या आदि बनाकर उसे आकर्षण का केन्द्र बनाया गया। अतिवाद का दूसरा सिरा यह है कि उसे परदे, घूंघट की कठोर जंजीरों में जकडक़र अपंग सदृश्य बना दिया गया। उसे पददलित, पीडि़त, प्रबन्धित करने की नृशंसता अपनाई गई। यह दोनों अतिवादी सिरे ऐसे हैं जिनका समन्वय कर सकना कठिन है। तीसरा एक और अतिवाद पनपा। अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की, पाप-पतन की जड़ है। इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के प्रतिपादन में न जाने क्या-क्या गढ़न्त गढक़र खड़ी कर दी गई। लोग घर छोडक़र भागने में, स्वी बच्चे को बिलखता छोडक़र भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े। इन तीनों अतिवादों से बचकर मध्यम मार्ग अपनाते हुए हमें अपनी शक्तियों का सुनियोजन परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु करना चाहिए। सन्दर्भ पुस्तकें :- 1. ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता। 2. आध्यात्मिक काम-विज्ञान। 3. ब्रह्मचर्य साधना (स्वामी शिवानन्द) tag. kamuk chintan se hani. kamvasan कामुकता से हानि काम उत्तेजित कामोत्तेजना Posted 7th March 2014 by sehat tips 0 Add a comment MAR 2 ब्रह्मचर्य का पालन करने में भोजन का महत्व है? प्रश्नकर्ता : उपवास किया हो, उस रात अलग ही तरह के आनंद का अनुभव होता है, उसका क्या कारण? दादाश्री : बाहर का सुख नहीं लेते तब अंदर का सुख उत्पन्न होता है। यह बाहरी सुख लेते हैं इसलिए अंदर का सुख बाहर प्रकट नहीं होता। हमने ऊणोदरी तप आखिर तक रखा था। दोनों वक्त ज़रूरत से कम ही खाना, सदा के लिए। ताकि भीतर निरंतर जागृति रहे। ऊणोदरी तप यानी क्या कि रोज़ाना चार रोटियाँ खाते हों तो दो खाना, वह ऊणोदरी तप कहलाता है। प्रश्नकर्ता : आहार से ज्ञान को कितनी बाधा होती है? दादाश्री : बहुत बाधा आती है। आहार बहुत बाधक है, क्योंकि यह आहार जो पेट में जाता है, उसका फिर मद होता है और सारा दिन फिर उसका नशा, कै़फ ही कै़फ चढ़ता रहता है। जिसे ब्रह्मचर्य का पालन करना है, उसे ख्याल रखना होगा कि कुछ प्रकार के आहार से उत्तेजना बढ़ जाती है। ऐसा आहार कम कर देना। चरबीवाला आहार जैसे कि घी-तेल (अधिक मात्रा में) मत लेना, दूध भी ज़रा कम मात्रा में लेना। दाल-चावल, सब्ज़ी-रोटी आराम से खाओ पर उस आहार का प्रमाण कम रखना। दबाकर मत खाना। अर्थात् आहार कितना लेना चाहिए कि ऐसे के़फ (नशा) नहीं चढ़े और रात को तीन-चार घंटे ही नींद आए, बस उतना ही आहार लेना चाहिए। इतने छोट़े-छोट़े बच्चों को बेसन और गोंद से बनी मिठाइयाँ खिलातें हैं! जिसका बाद में बहुत बुरा असर होता है। वे बहुत विकारी हो जाते हैं। इसलिए छोटे बच्चों को यह सब अधिक मात्रा में नहीं देना चाहिए। उसका प्रमाण रखना चाहिए। मैं तो चेतावनी देता हूँ कि ब्रह्मचर्य पालना हो तो कंदमूल नहीं खाने चाहिए। प्रश्नकर्ता : कंदमूल नहीं खाने चाहिए? दादाश्री : कंदमूल खाना और ब्रह्मचर्य पालना, वह रोंग बिलिफ (गलत दर्शन) है, विरोधी बात है। प्रश्नकर्ता : कंदमूल नहीं खाना, जीव हिंसा के कारण है या और कुछ? दादाश्री : कंदमूल तो अब्रह्मचर्य को जबरदस्त पुष्टि देनेवाला है। इसीलिए ऐसे नियम रखने की आवश्यकता है कि जिससे उनका ब्रह्मचर्य टिका रहे। यह लेख DADABHAGWAN.ORG से लिया है Posted 2nd March 2014 by sehat tips 0 Add a comment MAR 2 क्या है ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य क्या है? ब्रह्मचर्य क्या है? वह पुदगलसार है। हम जो आहार खाते-पीते हैं, उन सभी का सार क्या रहा? 'ब्रह्मचर्य'! वह सार यदि आपका चला गया तो आत्मा को जिसका आधार है, वह आधार ढीला हो जाएगा। इसलिए ब्रह्मचर्य मुख्य वस्तु है। एक ओर ज्ञान हों और दूसरी ओर ब्रह्मचर्य हो तो सुख की सीमा ही नहीं रहेगी! फिर ऐसा 'चेन्ज' (परिवर्तन) हो जाए कि बात ही मत पूछिए! क्योंकि ब्रह्मचर्य तो पुदगलसार है। यह सब खाते हैं, पीते हैं, उसका क्या होता होगा पेट में? प्रश्नकर्ता : रक्त होता है। दादाश्री : उस रक्त का फिर क्या होता है? प्रश्नकर्ता : रक्त से वीर्य होता है। दादाश्री : ऐसा? वीर्य को समझता है? रक्त से वीर्य होगा, उस वीर्य का फिर क्या होगा? रक्त की सात धातुएँ कहते हैं न? उनमें एक से हड्डियाँ बनती है, एक से मांस बनता है, उनमें से फिर अंत में वीर्य बनता है। आखरी दशा वीर्य होती है। वीर्य पुदगलसार कहलाता है। दूध का सार घी कहलाता है, ऐसे ही यह जो आहार ग्रहण किया उसका सार वीर्य कहलाता है। लोकसार मोक्ष है और पुदगलसार वीर्य है। संसार की सारी चीज़ें अधोगामी हैं। वीर्य अकेला ही यदि चाहें तो ऊर्ध्वगामी हो सकता है। इसलिए वीर्य ऊर्ध्वगामी हो ऐसी भावना करनी चाहिए। Posted 2nd March 2014 by sehat tips Labels: ब्रह्मचर्य 0 Add a comment MAR 2 ब्रह्मचर्य की परिभाषा ब्रह्मचर्य की सही परिभाषा अखण्ड ज्योति May 1989 काम शक्ति का परिष्कार एवं ऊर्ध्वारोहण न केवल शारीरिक बलिष्ठता की दृष्टि से जरूरी, वरन् मानसिक प्रखरता के लिए भी अनिवार्य है। सृजनात्मकता एवं समस्त सफलताओं का मूलाधार भी यही हैं इसका आरीं इन्द्रिय संयम से होता है। किन्तु समापन ब्रह्म में एकाकार होकर होने के रूप में होता है। ब्रह्मचर्य की संयम-साधना दमन का नहीं, परिष्कार एवं ऊर्ध्वीकरण का मार्ग है। इसका सुंदरतम स्वरूप आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा के रूप में दिखाई पड़ता है। इस तथ्य से अवगत होने पर जीवनी शक्ति का क्षरण रुकता है। ब्रह्मचर्य का महत्व न समझने वाले व्यक्ति काम शक्ति का दुरुपयोग भोग लिप्सा-यौन लिप्सा में करते हैं। फलतः इसके दिव्य अनुदानों का लाभ, जो श्रेष्ठ विचारों- उदात्तभाव-संवेदनाओं के रूप में मिलता हैं, उसे नहीं उठा पाते। अद्भुत सृजनशक्ति आधार क्षणिक इन्द्रिय सुखों के आवेश में नष्ट होकर मनुष्य की प्रगति को रोक देता है। इससे वह अपने पूर्व संचित तथा अब की उपार्जित क्षमताओं को भी गँवा बैठता है, साथ ही दुरुपयोग का दुष्परिणाम भी भुगतता है। कामुक लोगों यौन स्वेच्छाचारियों को एड्स क्षय जैसे प्राणघातक बीमारियों से ग्रसित होकर बेमौत मरते देखा जाता है शारीरिक काम सेवन से धातु क्षय की हानि तो होती है, उससे भी बड़ी हानि मानसिक व्यभिचार से होती है, उससे भी बड़ी हानि मानसिक व्यभिचार में होती है। उसमें ओजस् ही नहीं मनस् भी क्षीण होता है और व्यक्ति संकल्प, साहस और मनोबल भी गँवा बैठता है। ऐसे व्यक्ति हर दृष्टि से खोखले हो जाते हैं। अध्यात्मवेत्ता ऋषि-मनीषियों का युगों- युगों से यह शिक्षण रहा है कि मनुष्य यदि इस अदूरदर्शी क्षरण को रोक सके तो उस बचत से इतना बड़ा भंडार जमा हो सकता है जिसके बलबूते विपुल विभूतियों का अधिपति बन सकें। अथर्ववेद की ऋचा 1/5/19 में कहा है-कि ब्रह्मचर्य द्वारा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। इस प्रतिपादन में तथ्य यह है कि उसे बहुत समय के लिए टाला जा सकता हैं हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य, स्वामी दयानंद, विवेकानंद आदि इसी के उदाहरण है। यह एक तथ्य है कि ऋषियों और मनीषियों में से अधिकाँश संयमी ब्रह्मचारी रहें है, परिणाम स्वरूप उनकी क्षमता, प्रतिभा, प्रखरता एवं भाव संवेदनाएं भी बढ़ी चढ़ी रही हैं। रामकृष्ण परमहंस एवं जापान के गाँधी का गावा के ऐसे उदाहरण है। दो सांडों के टकराव को रोकने के लिए दयानन्द सरस्वती ने उन दोनों के सींग पकड़ कर मरोड़ और धकेल कर दूर पटक दिये थे। अपनी संयम शक्ति के बल पर ही उन्होंने एक राजा की बग्घी रोक कर दिखाई थी। शिवाजी को उनकी संयम साधना एवं पात्रता क आधार पर ही भवानी तलवार हस्तगत हुई थी। आद्य शंकराचार्य, विवेकानन्द, समर्थ गुरुरामदास, विनोबा आदि महापुरुषों की प्रतिभाओं का मूल स्त्रोत उनकी संयम शक्ति थी। निश्चय ही ब्रह्मचर्य की शक्ति महान है। घेरण्ड संहिता में शिव का वचन है- “बिन्दु को सिद्ध कर लेने पर इस धरती काी कोई सिद्धि ऐसी नहीं जो प्राप्त न हो सकें।” ब्रह्मचर्य का पूर्ण परिपालन कैसे निभे? क्या अविवाहित रहना ही ब्रह्मचर्य है? आदि प्रश्नों की गहराई में उतरने पर स्पष्ट होता है कि इसकी गहराई में उतरने पर स्पष्ट होता है कि इसकी प्रधान भूमिका मानसिक है। अन्यथा कितने ही विवाहित लोग पूर्ण संयमी रहते और दीर्घ जीवन क आनंद उठाते है। इसके विपरीत तथा कथित अविवाहित ब्रह्मचारी, साधु-संन्यासी खोखले, निस्तेज दीखते और नाना प्रकार की आधि व्याधियों से घिरे असंयम दम तोड़ते देखे जाते हैं। वस्तुतः वीर्य रक्षा का लाभ उन्हें ही मिल पाता है जो अश्लील -चिन्तक-कामुक-आचरण से अपने मन- मस्तिष्क का बचाये रखते हैं। मन, वचन, कर्म से इन्द्रिय-निग्रह ही “ब्रह्मचर्य” है। tag takat ka khajana brahmcharya ki paribhasha tandrusti ka raaj takat Posted 2nd March 2014 by sehat tips 0 Add a comment MAR 1 ब्रह्मचर्य से बल संचय ब्रह्मचर्य द्वारा आत्म बल का संचय अखण्ड ज्योति Feb 1969 सुख और श्रेय मन वह जीवन की दो महान उपलब्धियाँ मानी गई है। इनको पा लेना ही जीवन की सफलता है। सुख की परिधि का परिसर तक है। अर्थात् हम संसार के व्यवहार क्षेत्र में जो जीवन जीते है, उसका निर्विघ्न, स्निग्ध और सरलतापूर्वक चलते रहना ही साँसारिक सुख है। श्रेय आध्यात्मिक क्षेत्र की उपलब्धि है। ईश्वरीय बोध, आत्मा का ज्ञान और भव बन्धन से मुक्ति श्रेय कहा गया है। पार्थिव अथवा अपार्थिव किसी भी पुरुषार्थ के लिए शक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है। शक्ति हीनता क्या साधारण और क्या असाधारण दोनों प्रकार की प्रगतियों के लिए बाधा रूप है। शरीर अशक्त हो, मन निराश और कुण्ठित हो, बुद्धि की निर्णायक क्षमता शिथिल हो तो मनुष्य इच्छा रहते हुए भी किसी प्रकार का पुरुषार्थ नहीं कर सकता। संसार के सारे सुखों का मूलाधार साधनों को माना गया है। साधन यो ही अकस्मात् प्राप्त नहीं हो जाते। उनके लिये उपाय तथा परिश्रम करना होता है। रोटी, कपड़ा, आवास के साथ और भी अनेक प्रकार के साधन जीवन को सरलतापूर्वक चलाने के लिए आवश्यक होते है। इनके लिये कार रोजगार, मेहनत मजदूरी, नौकरी चाकरी कुछ न कुछ काम करना होता है। वह सब काम करने के लिए शक्ति की आवश्यकता है। अशक्तों की दशा में कोई काम नहीं किया जा सकता। केवल शक्ति ही नहीं आरोग्य तथा स्वास्थ्य भी सुख, शान्तिमय जीवन यापन की एक विशेष शर्त है। साधन हो, कार रोजगार हो, धन तथा आय की भी कमी न हो, तब भी जब तक तन मन स्वस्थ और निरोग नहीं है, जीवन सुख और सरलतापूर्वक नहीं चलाया जा सकता। इस प्रकार शक्ति और स्वास्थ्य जीवन के सुख के आवश्यक हेतु है। शक्ति जन्मजात प्राप्त होने वाली कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार धन, सम्पत्ति, जमीन जायदाद उत्तराधिकार में मिल जाते है, उस प्रकार शक्ति के विषय में कोई भी उत्तराधिकार नहीं है। यह मनुष्यों की अपनी व्यक्तिगत वस्तु है, जिसे पाया नहीं, उपजाया जाता है। साँसारिक सुख और पारलौकिक श्रेय के लिए मनुष्य को शक्ति का उपार्जन कर लेना आवश्यक है। लौकिक विद्वानों से लेकर सिद्ध महात्माओं और मनीषियों-सबने एक स्वर से संयम को शक्ति का स्त्रोत बतलाया है। बहुत लोगों का विचार रहता है कि अधिक खाने पीने से शक्ति प्राप्त होती है। पर उनका यह विचार समीचीन नहीं अधिक अथवा बहुत बार खाने से शरीर को अनावश्यक श्रम करना पड़ता है, जिससे शक्ति बढ़ने के बजाय क्षीण होती है। स्वास्थ्य बिगड़ता है और आरोग्य नष्ट होता है। भोजन में निश्चय ही शक्ति क तत्व रहते है, किन्तु वे प्राप्त तभी होते है, जब भोजन का उपभोग संयमपूर्वक किया जावे। समय पर, नियन्त्रित मात्रा में उपयुक्त भोजन ही सुविधापूर्वक पचता और शक्तिशाली रसों को देता है। शक्ति संचय के लिए संयम पर, सीमित और उपयुक्त भोजन किया जाये, स्वास्थ्य और आरोग्य के विषय में सावधान रहा जाय, पर ब्रह्मचर्य का पालन न किया जाये, तब भी सारे प्रयत्न बेकार चले जायेंगे और शक्ति के नाम पर शून्य ही हाथ में रहेगा। भोजन के तत्व वीर्य बनकर ही शरीर में संचय होते है और उस संचित और परिपक्व वीर्य का ही स्फुरण शक्ति की अनुभूति है। वीर्यवान शरीरों में न तो अशक्तता आती है और न उसका आरोग्य ही जाता है। इसीलिये वीर्य को शरीर की शक्ति ही नहीं प्राण भी कहा गया है। इसी महत्व के कारण भारतीय मनीषियों और आचार्यों ने वीर्य रक्षा अर्थात् ब्रह्मचर्य संयम और को सबसे बड़ा माना है और निर्देश किया है कि लौकिक जीवन के सुख और पारलौकिक श्रेय के लिए मनुष्य को अधिकाधिक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। परशुराम, हनुमान और भीष्म जैसे महान् पुरुषों ने आजीवन ब्रह्मचारी रह कर ब्रह्मचर्य व्रत की महत्ता प्रमाणित की है। इसी व्रत के वल पर वे न केवल अतुलित बलधाम बने बल्कि जरा और मृत्यु आई ही नहीं पर भीष्म ने तो उसे आने पर डाट कर ही भगा दिया और रोम रोम में बिन शिरों की सेज पर तब तक सुख पूर्वक लेटे रहे, जब तक कि सूर्यनारायण उत्तरायण नहीं हो गये। सूर्य के उत्तरायण हो जाने पर ही उन्होंने इच्छा मृत्यु का वरण स्वयं किया। शर शय्या पर लेटे हुए, थे केवल जीवित ही नहीं बने रहे, अपितु पूर्ण स्वस्थ और चैतन्य भी बने रहे। महाभारत युद्ध के पश्चात् उन्होंने पाण्डवों को धर्म तथा ज्ञान का आदर्श उपदेश भी दिया। यह सारा चमत्कार उस ब्रह्मचर्य व्रत का ही था, जिसका कि उन्होंने आजीवन पालन किया था। हनुमान ने उसके बल पर समुद्र पार कर दिखलाया और एक अकेले परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी से आततायी और अनाचारी राजाओं को नष्ट कर डाला था। ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है। कहा जा सकता है कि यह सब लोग मानवों की महान कोटि के व्यक्ति थे और आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर अविवाहित रहे थे। आजीवन ब्रह्मचर्य वीर्य संयम से सरल है। अविवाहित अथवा अनुभवी व्यक्ति को काम ज्वर पीड़ित नहीं कर पाता, किन्तु, जन सामान्य के लिये उसका संयम कठिन होता है। विवाहित व्यक्तियों का उद्दीप्त कामदेव उन्हें विवश कर अपने वश में कर ही लेता है। देवालय तो सबके लिये पवित्र है। नारी सम्मान सबका परम कर्तव्य है। देश और धर्म भिन्न नहीं है। बुद्धि नहीं, भावना हो जोड़ती है। संख्या नहीं, शक्ति हो जीतती है। इस शंका के समाधान में इस प्रकार विचार किया जा सकता है। भीष्म, भार्गव अथवा हनुमान को उच्च कोटी का महापुरुष माने जाने का कारण उनकी स्थिति नहीं है, बल्कि उनके वे कार्य है जो उन्होंने अपने जीवन में कर दिखाये और वे उन शक्ति सम्भव कार्यों को कर ही आत्म संयम के बल पर सकें। कोई भी व्यक्ति सामान्य अथवा असामान्य उन जैसा संयमपूर्वक जीवन जिये, उन जैसे आचार विचार रखे और उन जैसी अदृश्यता से अलंकृत कार्य विधि अपनाये तो निश्चय ही उच्च श्रेणी में पहुँच सकता है। ब्रह्मचर्य पालन के विषय में आजीवन अविवाहित और अनुभवहीन व्यक्तियों को छोड़ भी दीजिये तो भी भारतीय इतिहास में ऐसे दृढ़व्रती और संयमशील व्यक्तियों के उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने विवाहित और अनुभव प्राप्त होने पर भी अनुकरणीय काम संयम करके दिखला दिये। दूर जाने की आवश्यकता नहीं। रामायण के ही प्रमुख पात्र राम, लक्ष्मण, भारत तथा सीता, उर्मिला और मांडवी को ही ले लीजिये। सभी विवाहित तथा घर- गृहस्थी थे। जिस समय राम के उपनयन की घटना घटी उस समय इन सबके विवाह हुए, ज्यादा दिन न हुए थे। सभी यौवन की उत्थान तथा हुए उद्दाम आयु में थे। हास विलास तथा सुख सुखपूर्वक जीवन बीत रहा था। तभी एक साथ चौदह वर्ष के लिये राम वनवास की बात हो गई। राम वनवास के लिए चले तो बहुत कुछ समझाने और निषेध करने पर भी सीता तथा लक्ष्मण उनके साथ प्रेमयुक्त ही हो लिये। चलते समय लक्ष्मण ने अपनी नवविवाहित पत्नी उर्मिला से विदा से लेना आवश्यक समझा। वे गये और अपना विचार प्रकट किया। उर्मिला के हृदय पर एक बार एक आघात हुआ, उसकी आँखें भर आई किन्तु तत्क्षण ही उसने अपने आपके संयम कर कहा-आप प्रभु के साथ वनवास जा रहे है तो उन्हीं की तरह मुझे भी अपने साथ क्यों न लेते चले। किन्तु लक्ष्मण ने अपने कर्तव्य की महत्ता और उसके संग रहने से होने वाली उचित असुविधाओं को बताकर समाधान कर दिया। उर्मिला घर रह गई और लक्ष्मण चौदह वर्ष के लिए राम के साथ बन चले गये। वन में जाकर कुमार लक्ष्मण ने विवाहित तथा आत्मानुभवी होकर भी चौदह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का अखण्ड पालन किया। इस व्रत पालन में न तो उन्हें कोई असुविधा हुई और न कोई कठिनाई। वे सरलतापूर्वक कृतियों का जीवन व्यतीत करते रहे। इधर बहू उर्मिला ने भी पति वियोग के अतिरिक्त किसी प्रकार का शिकार अथवा काम पीड़ा का अनुभव नहीं किया। वह निर्भयतापूर्वक अपना व्रत पालन करती रही। विवाहित तथा अनुभव प्राप्त व्यक्ति के लिए चौदह वर्ष का ब्रह्मचर्य कोई अर्थ रखता है। किन्तु उन्होंने उसका पालन कर यह सिद्ध कर दिया कि यदि मनुष्य में दृढ़ता है, अपने व्रत के प्रति आस्था और संयम के प्रति आदर है तो वह विवाहित, गृहस्थ, अनुभवी और तरुण होने पर भी ब्रह्मचर्य का पालन सुविधापूर्वक कर सकता है। यहाँ पर कहा जा सकता है कि लक्ष्मण पत्नी से दूर थे। उनका काम रक्षित रह सकना सम्भव था। कभी कभी वैश्य भी संयम का पालन करा देता है। इसके लिये कहा जा सकता है कि लक्ष्मण तो अप्रतीत थे, किन्तु राम तो नहीं थे उनके साथ तो उनकी पत्नी सीता जी थी। किन्तु राम ने भी पूर्ण काम संयम का प्रमाण दिया और ब्रह्मचर्य व्रत का अखण्ड रूप से पालन किया। फिर कहा जा सकता है कि सीता से आगे चलकर उनका विछोह हो गया था। ठीक है- पर भरत के साथ तो ऐसी कोई बात नहीं थी। वे न तो वनवास में ही गये और न पत्नी से दूर ही रहे। वे अयोध्या में ही रहे और मांडवी उनकी सेवा में हर समय उपस्थित रहती थी। तथापि भरत न स्वयं भी पत्नी सहित चौदह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया और कभी किसी विकार की दुर्बलता नहीं आने दी। यह संयम सर्वथा सम्भव है और सबको करना ही चाहिये। इससे शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक ही नहीं आत्मिक शक्ति भी बढ़ती है। मनुष्य में तेज तथा प्रभाव का प्रादुर्भाव होता है वाणी में तेज तथा नेत्रों में ज्योति आती है। यह सारे गुण सारे गुण और सारी विशेषताएँ प्रेम तथा श्रेय दोनों की उपलब्धि में सहायक होते है। इन सहायकों के अभाव में आध्यात्मिक उन्नति तो दूर, सामान्य सांसारिक जीवन भी सुख और सरलतापूर्वक नहीं जिया जा सकता। जो व्यक्ति संसार के महान व्यक्तित्व हुए है, जिन्होंने धर्म, समाज तथा देश के लिए उल्लेखनीय कार्य कर प्रेम प्राप्त किया है और जिन्होंने तप, साधना तथा चिन्तन मनन कर श्रेय पाया है, निर्विवाद रूप से उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा सबसे पहले शक्ति की ही साधना की है। वासना को जीत और इन्द्रियों पर अधिकार कर सकने पर ही वे जीवन में श्रेयस्कर कार्य कर सकने में सफल हो सके है। वीर्य रक्षा से शरीर स्वस्थ तथा स्फूर्तिवान् बना रहता है। रोगों का आक्रमण न होने पाता। मन तथा बुद्धि इतने पुष्ट एवं परिपक्व हो जाते है कि बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी विचलित नहीं होते। प्रमाद, आलस्य अथवा अवज्ञा का भाव नहीं आने पाता। परिश्रम तथा उपार्जन की स्फुरति बनी रहती है, जिससे उसके चरण दिन दिन उन्नति के सोपानों पर ही चलते जाते है। हम सबने जिस मनुष्य जीवन को पाया है, वह योंही कष्ट क्लेशों, अभावों तथा आवश्यकताओं में नष्ट कर देने योग्य नहीं है और न इसी योग्य है कि उसे कामनाओं, वासनाओं और न इसी योग्य है कि उसे कामनाओं, वासनाओं और संसार की अन्य विभीषिकाओं में गवाँ दिया जाये। वह है संसार में सत्कर्मों द्वारा पुण्य तथा परमार्थ उपार्जित कर अध्यात्म मार्ग से पारलौकिक श्रेय प्राप्त करने के लिये और यह उपलब्धि शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्ति द्वारा ही सम्भव है, जिसका उपार्जन इन्द्रिय निग्रह द्वारा, ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा सहज ही में किया जा सकता है tag. brahmcharya kaise palan kare takat kaise badhaye viryraksha sehatmand mard mardanagi Posted 1st March 2014 by sehat tips 0 Add a comment Loading

No comments:

Post a Comment