Friday, 31 March 2017
उर्ध्व गमन के लिये वज्रोली
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Gayatri Pariwar

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April 1987
ऊर्ध्व गमन की वज्रोली मुद्रा
हठयोग की क्रियाओं में एक वज्रोली क्रिया भी है उनमें मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींच कर फिर बाहर निकाला जाता है। इस प्रकार उस मार्ग की शुद्धि हो जाती है। इसी प्रकार किसी टब में बैठकर मल मार्ग द्वारा भी पानी खींचा जाता है। थोड़ी देन पेट में रख कर उसे घुमाया जाता है और फिर मल त्याग कर दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक एनीमा की पुरातन ढंग से पूर्ति हो जाती है।
नाड़ी शोधन में आरंभिक प्रयोग है। नेति, धोति, वस्ति, वज्रोली इन हठयोग की प्रक्रियाओं में उन स्थानों की सफाई की जाती हैं, जहाँ मल जमा रहता है, रुका रहता है। इस शारीरिक स्वच्छता के उपरान्त षट् चक्र वेधन आदि की अन्य अभिवर्धन क्रियाएँ की जाती है। शोधन के उपरान्त ही अभिवर्धन क्रियाओं को आरम्भ करने का नियम है।
हठयोग की सारी क्रियायें शारीरिक है। उनका प्रभाव भी शरीर पर ही पड़ता है। शरीरगत समर्थता बढ़ती है और वे कार्य बन पड़ने हैं जो कोई अति बलिष्ठ शरीर कर कसता है। इस स्तर के लोगों को ही प्राचीन काल में दैत्य कहा जाता है। दैत्य और दानव का अन्तर समझा जाना चाहिए। मानव के विपरीत दुर्गुणों वाले को दानव कहते हैं, उनकी प्रवृत्तियां अधोगामी होती हैं और क्रियायें भी अनीतियुक्त ही बन पड़ती हैं। पर दैत्य में ऐसे दुर्गुण होना आवश्यक नहीं। अंग्रेजी के जाइन्ट शब्द में दैत्य स्तर का अनुमान लगाया गया है।
हठयोग की हर क्रिया प्रतिरोधक है। जिस प्रकार नदी प्रवाह को रोक कर बाँध बनाया जाता है और फिर उससे बिजली बनाने, नहर निकालने जैसी व्यवस्थायें बनाई जाती हैं। हठयोग में भी ऐसा ही होता है। उसमें प्रकृति प्रेरणा से चल रहे क्रिया कलापों को उलटा जाता है। जैसे मल मूत्र त्यागने के छिद्र स्वाभाविक स्थिति में अपने प्रवाह नीचे की ओर ही बहाते हैं पर वज्रोली क्रिया द्वारा उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि वह नीचे ऊपर की ओर जल खींचने का काम करें।
ऐसे उलटे कृत्यों को ही हठवाद कहते हैं-हठयोग भी इन्हें सरकस के उस खेल की तरह समझना चाहिए जिसमें शेर को बकरा अपनी पीठ पर लाद कर चलने का कौतुक दिखाया जाता है। दर्शक इस अनहोनी बात को होता हुआ देखते हैं। तो आश्चर्य से चकित रह जाते हैं।
यह प्रशिक्षण अति कठिन है। बकरे के मन में से भय निकालना और अति को बकरा देखते ही टूट पड़ने की प्रवृत्ति को काबू में लाया जाता है। यह सामान्य नहीं असामान्य बात है। इसमें असाधारण कौशल एवं साहस की आवश्यकता पड़ती है, पर साथ ही जोखिम भी रहता है। हठयोग की क्रियाओं में भूल हो जाने से उस मार्ग में संकट भी खड़े हो सकते हैं और कई बार तो अनर्थ तक की आशंका रहती है। इसलिए हठयोग का शिक्षण अनुभवी गुरु के पास रह कर ही किया जाता है। भयंकर घाव वाले रोगियों का अस्पताल में भर्ती करके ही इलाज होता है। ताकि समय-समय पर आने वाले उतार चढ़ावों से निपटा जा सके।
किन्तु मध्यवर्ती सामान्य रोगों की स्थिति में भर्ती किये जाने की आवश्यकता नहीं रहती। दवा दे देने पथ्य बता देने तथा आवश्यक सावधानियाँ बरतने की हिदायत देकर उसे घर पर ही रहकर इलाज कराते रहने का परामर्श दे दिया जाता है। क्योंकि उससे किसी बड़ी आशंका की कोई संभावना पड़ती नहीं दीखती।
जोखिम वाले खेल निष्णातों को ही खिलाये जाते हैं। आरंभिक शिक्षार्थियों से हलकी फुलकी क्रियायें ही कराई जाती हैं। आर्ट कोमर्स आदि विषयों को लेकर पड़ने वालों को पत्राचार विद्यालय में नाम लिखाने से भी काम चल जाता है। किन्तु साइंस पढ़ने वाले को अध्यापकों से क्रियात्मक शिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। इसलिए उनका स्कूल प्रवेश अनिवार्य माना जाता है।
राजयोग और हठयोग में यही अन्तर है। हठयोग ऐसा है जैसा हिंसक पशुओं से भिड़ने उन्हें वशवर्ती बनाने का कौशल और राजयोग ऐसे हैं जैसा गौ पालन। गौ पालन में थोड़ी उपेक्षा रहने पर इतनी ही हानि है कि दूध कम मिले। वैसे कोई जोखिम उसमें नहीं है। राजयोग के साधकों को देर लग सकती है। कम लाभ में संतोष करना पड़ सकता है, उर उसमें जोखिम उठाने जैसी कोई आशंका या कठिनाई नहीं है।
ब्रह्मचर्य के लिए वज्रोली क्रिया का हठयोग में विधान है। आरम्भ में शुद्धि के लिए मूत्र मार्ग में जल चढ़ा कर स्वच्छ किया जाता है। पीछे जब नीचे से ऊपर खींचने की क्रिया का अभ्यास हो जाता है तो वीर्य की अधोगामी प्रवृत्ति को प्रतिबंधित करके ऊपर चढ़ाने एवं मस्तिष्क तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इससे वीर्यपात की हानियाँ रुकती हैं और उस बहुमूल्य तत्व को मस्तिष्क में ले जाकर प्राण शक्ति बढ़ाने से लेकर मानसिक पराक्रमों को अधिक सरल एवं सफल बनाया जाता है। यह सफल हो सके तो शरीर में से निकलने वाले प्राण तक को रोक कर ब्रह्मरंध्र में छिपाया जा सकता है और निर्धारित आयु से कहीं अधिक जिया जा सकता है।
हठयोग की इस वज्रोली क्रिया को राजयोग में अति सरल बना दिया गया है। उससे लाभ लगभग उसी प्रकार के होते हैं, जैसे वज्रोली क्रिया में। पर गति अवश्य मंथर रहती है और सफलता भी समय साध्य गतिशीलता के अनुरूप आगे बढ़ती है।
वज्रोली क्रिया में आसन इस प्रकार लगाया जाता है कि एड़ी या एड़ी से ऊपर की हड्डी गुदा और जननेन्द्रिय मूल को हलका-सा दबाती रहे। यह दबाव इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि उस क्षेत्र में अवस्थित पौरुष ग्रन्थियों या जननेंद्रिय की ओर जाने वाली नसों पर अधिक दबाव डालें और उनकी स्वाभाविक क्रिया में अवरोध उत्पन्न करें। इस योजना के लिए उस केन्द्र का हलका-सा स्पर्श ही पर्याप्त है, जिससे यह अनुभव होता रहे कि यहाँ कुछ हलकी रोक थाम जैसी चेष्टा की गयी है।
अब गुदा मूल को ऊपर खींचना चाहिए। इसके लिए साँस भी खींचनी पड़ती है। गुदा को ऊपर खींचने के साथ साथ जननेन्द्रिय की मूत्र वाहिनी नसें भी ऊपर खींचती हैं इस खिचाव को इसी स्तर का समझना चाहिए जैसे कि कभी-कभी मल मूत्र त्यागने की इच्छा होती है पर वैसा अवसर नहीं होता। अतएव उन वेगों को रोकना पड़ता है। रोकने का तरीका एक ही है कि उस क्षेत्र को ऊपर खींचा जाय। माँसपेशियों को ऊपर सिकोड़ा जाय।
वज्रोली मुद्रा में यही करना पड़ता है। साँस ऊपर चढ़ाते हुये गुदा क्षेत्र की समस्त माँसपेशियों को ऊपर की तरफ इस प्रकार चढ़ाया जाता है कि मानो किसी पिचकारी द्वारा पानी ऊपर खींचा जा रहा है।
खींचने की शक्ति जब न रहे तो फिर जैसे धीरे-धीरे खींचने की क्रिया की गयी थी उसी प्रकार उसे नीचे उतारने छोड़ने की क्रिया करनी चाहिए। दोनों ही बार जल्दबाजी न की जाय। उसे धीमी गति से ऊपर चढ़ाया और नीचे उतारा जाय। स्मरण रहे इस माँसपेशी संकोचन के साथ प्राणायाम की तरह वायु को भी ऊपर चढ़ाने छोड़ने का तारतम्य मिलाये रहना पड़ता है।
आरम्भ में यह क्रिया दस बार की जाय। फिर प्रति सप्ताह एक की संख्या और बढ़ाते चला जाय। इसका अंत 24 आकुँचन प्रकुँचनों पर समाप्त हो जाना चाहिए।
यह क्रिया ब्रह्मचर्य में सहायक होती है। वीर्य का ऊर्ध्वगमन संभव करती है। वह ओजस तेजस में बदलता है और शीघ्र पतन स्वप्न दोष प्रमेह जैसे रोगों में आशाजनक लाभ होता है।
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Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.
   
   
   
 
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