Friday, 31 March 2017
नादयोग


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नाद साधना का क्रमिक अभ्यास
नादयोग की साधना के दो रूप हैं। एक तो अन्तरिक्ष- सूक्ष्म जगत से आने वाली दिव्य ध्वनियों का श्रवण, दूसरा अपने अन्तरंग के शब्द ब्रह्म का जागरण और उसका अभीष्ट क्षेत्र में अभीष्ट उद्देश्य के लिए परिप्रेषण, यह शब्द उत्थान एवं परिप्रेषण ओउम् कार साधना के माध्यम से ही बन पड़ता है।
साधारण रेडियो यन्त्र-मात्र ग्रहण करते हैं, वे मूल्य की दृष्टि से सस्ते और संरचना की दृष्टि से सरल भी होते हैं, किन्तु परिप्रेषण यन्त्र, ब्राडकास्ट, ट्रांसमीटर मँहगे भी होते हैं और उनकी संचरना भी जटिल होती है। उनके प्रयोग करने की जानकारी भी श्रम साध्य होती है। जबकि साधारण रेडियो का बजाना बच्चे भी जानते हैं। रेडियो की संचार प्रणाली तभी पूर्ण होती है, जब दोनों पक्षों का सुयोग बन जाये। यदि ब्राडकास्ट की व्यवस्था न हो तो सुनने का साधन कहाँ से बन पड़ेगा ? जिस क्षेत्र में रेडियो का लाभ जाना है, वहाँ आवाज को ग्रहण करने की ही नहीं, आवाज को पहुँचाने की व्यवस्था होनी चाहिए।
नादयोग की पूर्णता दोनों ही प्रयोग प्रयोजनों से सम्बद्ध है। कानों के छिद्र बन्द करके दिव्यलोक से आने वाले ध्वनि- प्रवाहों को सुनने के साथ- साथ यह साधन भी रहना चाहिए कि साधक अपने अन्तः क्षेत्र से शब्द शक्ति का उत्थान कर सके। इसी अभ्यास के सहारे अन्यान्य मन्त्रों की शक्ति सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचाई जा सकती है। वातावरण को प्रभावित करने, परिस्थितियों बदलने एवं व्यक्तियों को सहायता पहुँचाने के लिए मन्त्र शक्ति का प्रयोग परावाणी से होता है। चमड़े की जीभ से निकलने वाली बैखरी ध्वनि तो जानकारियों का आदान-प्रदान भर कर सकती है। मन्त्र की क्षमता तो परा और पश्यन्ति वाणियों के सहारे प्रचण्ड बनती और लक्ष्य तक पहुँचती हैं। परावाक् का जागरण ओ३म् कार साधना से सम्भव होता है। कुण्डलिनी अग्नि के प्रज्जवलन में भी ओ३म् कार को ईधन की तरह प्रयुक्त किया जाता है-
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि च।
ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादी ज्योतिर्मयात्मकः ॥
मनस्तत्र लयं याति तद्धिष्णोः परमं पदम् ॥
-नादविन्दूपनिषद् ४६- ४७
नाद के प्रणव में संलग्न होने पर वह ज्योतिर्मय हो जाता है, उस स्थिति में मन का लय हो जाता है। उसी को श्री भगवान विष्णु का परमपद कहा जाता है
योग साधना में चित्तवृत्तियों का निरोध और प्राण शक्ति की प्रखरता, ये दो ही तत्व प्रधान हैं। इन दोनों ही प्रयोजनों के लिए ओ३म् कार की शब्द साधना से अभीष्ट उद्देश्य सरलतापूर्वक सिद्ध होता है-
ओंकारोच्चारण सान्तशब्दतत्वानु भावनात्।
सुषुप्ते संविदो जाते प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥
-योगवाशिष्ठ
ऊँचे स्वर से ओ३म् कार का जप करने पर शान्त में जो शेष तुर्यमात्रा रूप शब्द, शब्द तत्व की अनुभूति होती है, उनके अनुसंधान से बाह्य चित्तवृत्तियों का जब बिलकुल उपराम हो जाता है, तब प्राणवायु का निरोध हो जाता है।
नादयोग की साधना में प्रगति पथ पर दोनों ही चरण उठने चाहिए यहाँ नाद श्रवण के साथ-साथ नाद उत्थान को भी साधना क्रम में सम्मिलित रखना चाहिए। कुण्डलिनी जागरण साधना में नाद श्रवण में ओ३म् कार की ध्वनि पकड़ने तक पहुँचना पड़ता है। अन्य शब्द तो मार्ग के मील पत्थर मात्र हैं। अनाहत ध्वनि को ‘सुरति’ तुर्यावस्था समाधि आदि को पूर्णता-बोधक आस्थाओं के समतुल्य माना गया है और अनाहत ध्वनि ‘ओ३म् कार’ की श्रवण अनुभूति ही है। ओ३म् कार ध्वनि का नादयोग में इसीलिए उच्च स्थान है।
नव शब्द परित्यज्य ओ३म्कारन्तु समाश्रयेत्।
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्मप्रणवनादके ॥
-महायोग विज्ञान
नौ शब्द नादों की उपेक्षा करके ओ३मकार नाद का आश्रय लेना चाहिए, समस्त नाद प्रणव में लीन होते हैं। ओ३मकार की ध्वनि का, नाद का आश्रय लेने वाला साधक सत्यलोक को प्राप्त करता है।
शब्द ब्रह्म के, ओ३मकार के उत्थान की साधना में हृदय आकाश से ओ३मकार ध्वनि का उद्भव करना होता है। जिह्वा से मुख ओ३मकार के उच्चारण का आरम्भिक अभ्यास किया जाता है। पीछे उस उद्भव में परा और पश्यन्ति वाणियाँ ही प्रयुक्त होती हैं और ध्वनि से हृदयाकाश को गुञ्जित किया जाता है।
हृद्यविच्छिन्नमोकारं घण्टानादं बिसोर्णवत्।
प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम् ॥
ध्यानेनेत्थं सुतीत्रेण युञ्जतो योगिनो मनः।
संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यानक्रियाभमः ॥
-भागवत ११।१४।३४, ४६
हृदय में घण्टा की तरह ओंकार का अविच्छिन्न पद्म नालवत् अखण्ड उच्चारण करना चाहिए। प्राणवायु के सहयोग से पुनः- पुनः ‘ओ३म्’ का जप करके बारम्बार हृदय में गिराना चाहिए। इस तीव्र ध्यान विधि से योगाभ्यास करने वाले का मन शीघ्र ही शान्त हो जाता है और सारे सांसारिक भ्रमों का निवारण हो जाता है।
नादारंभे भवेत्सर्वगात्राणां भजनं ततः।
शिरसः कंपनं पश्चात् सर्वदेहस्य कंपनम् ॥
-योग रसायनम् २५४
नाद के अभ्यास के दृढ़ होने पर आरम्भ में पूरे शरीर में हलचल- सी मचती है, फिर सिर में कम्पन होता है, इसके पश्चात् सम्पूर्ण देह में कम्पन होता है।
क्रमेणाभ्यासतश्चैवं भूयतेऽनाहती ध्वनिः।
पृथग्विमिश्रितश्चापि मनस्तत्र नियोजयेत् ॥
-योग रसायनम् २५३
क्रमशः अभ्यास करते रहने पर ही अनाहत ध्वनि पहले मिश्रित तथा बाद में पृथक स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती है। मन को वहीं पर नियोजित करना चाहिए। नाद- श्रवण से सफलता मिलने लगे तो भी शब्द ब्रह्म की उपलब्धि नहीं माननी चाहिए। नाद-ब्रह्म तो भीतर से अनाहत रूप से उठता है और उसे ओ३म् कार के सूक्ष्म उच्चारण अभ्यास द्वारा प्रयत्न पूर्वक उठाना पड़ता है।
बाहरी शब्द वाद्य यन्त्रों आदि के रूप में सुने जाते हैं, पर ओ३म् कार का नाद प्रयत्नपूर्वक भीतर से उत्पन्न करना पड़ता है-
नादः संजायते तस्य क्रमेणाभ्यासतश्च सः ॥
-शिव संहिता
अर्थात्- अभ्यास करने से नाद की उत्पत्ति होती है, यह शीघ्र फलदाता है।
अनाहतस्य शब्दस्य ध्वनिर्य उपलभ्यते।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्ञेयं ज्ञेयस्यान्तर्गतं मनः ॥
मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमंपदम् ॥
-हठयोग प्रदीपिक ४। १००
अनाहत ध्वनि सुनाई पड़ती है, उस ध्वनि के भीतर स्वप्रकाश चैतन्य रहता है और उस ज्ञेय के भीतर मन रहता है और मन जिस स्थान में लय को प्राप्त होता है, उसी को विष्णु का परमधाम कहते हैं।
नादयोग की महिमा बताते हुए कहा गया है कि उसके आधार पर दृष्टि की, चित्त की स्थिरता अनायास ही हो जाती है। आत्मकल्याण का परम अवलम्बन यह नादब्रह्म ही है।
दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यैः,
वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम्।
चित्तं स्थिर यस्य विनावलम्बनम्
स ब्रह्म तारान्तरनादरूपम् ॥
जिससे बिना दृश्य के दृष्टि स्थिर हो जाती है, जिससे बिना प्रयत्न के प्राणवायु स्थिर हो जाती है, जिससे बिना अवलम्बन के चित्त का नियमन हो जाता है, वह अन्तर नादरूपी ब्रह्म ही है।
नाद क्रिया के दो भाग हैं- बाह्य और अन्तर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती हैं और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं, और ब्रह्याण्डीय शक्तिधाराओं को आकर्षित करके अपने में धारण किया जाता है। अन्तः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके भीतर ही भीतर परिपक्व करके और परिपुष्ट होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर, किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है, इसे धनुष-वाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है।
अन्तःनाद के लिए भी बैठना तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। सुखासन से मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए षटमुखी मुद्रा में बैठने का विधान है। षटमुखी मुद्रा का अर्थ है- दोनों अँगूठों से दोनों कानों के छेद बन्द करना, दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों से दोनों आँखें बन्द करना। दोनों अनामिका कनिष्ठिकाओं से दोनों नथुनों पर दबाव डालना, नथुनों पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि साँस का आवागमन ही रुक जाये।
होठ बन्द, जीभ बन्द, मात्र भीतर ही परा- पश्यन्ति वाणियों से ओ३म्कार का गुञ्जार- प्रयास यही है- अन्तःनाद उत्थान। इसमें कण्ठ से मन्द ध्वनि होती रहती है, अपने आपको उसका अनुभव होता है और अन्तःचेतना उसे सुनती है। ध्यान रहे यह ओ३मकार का जप या उच्चारण नहीं गुञ्जार है। गुञ्जार का तात्पर्य है- शंख जैसी ध्वनि धारा एवं घड़ियाल जैसी थरथराहट का सम्मिश्रण। इसका स्वरूप लिखकर ठीक तरह नहीं समझा और समझाया जा सकता। इसे अनुभवी साधकों से सुना और अनुकरण करके सीखा जा सकता है।
साधना आरम्भ करने के दिनों में दस- दस सैकण्ड के तीन गुञ्जार बीच-बीच में पाँच-पाँच सैकण्ड रुकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार चालीस सैकण्ड का एक शब्द उत्थान हो जायेगा। इतना करके उच्चारण बन्द और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। जिस प्रकार गुम्बजों में, पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अन्तः क्षेत्र में ओउम्कार गुञ्जार के छोड़े हुए शब्द प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए, और पूरी तरह ध्यान एकाग्र करके इस सूक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास होता है। आरम्भ में बहुत प्रयत्न से, बहुत थोड़ी- सी अतीव मन्द रुककर सुनाई पड़ती है, किन्तु धीरे-धीरे उसका उभार बढ़ता चलता है और ओउम्कार की प्रतिध्वनि अपने ही अन्तराल में अधिक स्पष्ट एवं अधिक समय तक सुनाई पड़ने लगती है, स्पष्टता एवं देरी को इस साधना की सफलता का चिन्ह माना जा सकता है।
ओ३मकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अन्तः क्षेत्र के प्रत्येक विभाग को, क्षेत्र को प्रखर बनाती है। उन संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है, उससे आत्मबल बढ़ता है और छिपी हुई दिव्य शक्तियाँ प्रकट होती एवं परिपुष्ट होती हैं।
समयानुसार इसका उपयोग शब्दबेधी वाण की तरह, प्रक्षेपशास्त्र की तरह हो सकता है। भौतिक एवं आत्मिक हित साधना के लिए इस शक्ति को समीपवर्ती अथवा दूरवर्ती व्यक्तियों तक भेजा जा सकता है और उनको कष्टों से उबारने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए उसका उपयोग किया जा सकता है। वरदान देने की क्षमता, परिस्थतियों में परिवर्तन कर सकने जितनी समर्थता जिस शब्द ब्रह्म के माध्यम से सम्भव होती है, उसे ओ३म्कार गुञ्जार के आधार पर भी उत्पन्न एवं परिपुष्ट किया जाता है।
पुरानी परिपाटी में षटमुखी मुद्रा का उल्लेख है। मध्यकाल में उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई और कान को कपड़े में बँधे मोम की पोटली से कर्ण छिद्रों को बन्द कर लेना पर्याप्त समझा गया। इससे दोनों हाथों को गोदी में रखने और नेत्र अर्धोन्मीलित रखने की ध्यान मुद्रा ठीक तरह सधती और सुविधा रहती थी। अब अनेक आधुनिक अनुभवी शवासन शिथिलीकरण मुद्रा में अधिक अच्छी तरह ध्यान लगने का लाभ देखते हैं। आराम कुर्सी का सहारा लेकर शरीर को ढीला छोड़ते हुए नादानुसन्धान में अधिक सुविधा अनुभव करते हैं। कान बन्द करने के लिए ठीक नाप के शीशियों वाले कार्क का प्रयोग कर लिया जाता है। इनमें से किससे, किसे, कितनी सरलता एवं सफलता मिली ? यह तुलनात्मक अभ्यास करके जाना जा सकता है। इनमें से जिसे जो प्रयोग अनुकूल पड़े वह उसे अपना सकता है। सभी उपयोगी एवं फलदायक हैं।

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