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होम अध्यात्म, धर्म आदि कर्णवेधन संस्कार

कर्णवेधन संस्कार दिसम्बर 2014
विजय प्रकाश शास्त्री
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व्यूस : 1873
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हिंदी लेख
English (Transliterated)

अन्य संस्कारों के समान कर्णवेध संस्कार का भी बहुत अधिक महत्त्व माना गया है। इस संस्कार के अंतर्गत बालक एवं बालिका के कानों को छिदवाया जाता है। बालिकाओं का कान छिदवाने के साथ-साथ नाक भी छिदवाया जाता है। पुरुष को पूर्ण पुरुषत्व तथा स्त्री को पूर्ण स्त्रीत्व की प्राप्ति हो, इसके लिये कर्णवेध संस्कार किया जाता था। अन्य संस्कारों की भांति इसे भी आवश्यक माना जाता था। प्राचीन काल में कर्णवेध की इतनी अधिक महत्ता मानी गई है कि जिस व्यक्ति का कर्णवेधन संस्कार नहीं किया जाता, उसे शास्त्रों में श्राद्ध का अधिकारी ही नहीं माना जाता। बालक के जन्म के छः मास से लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन-पांच अथवा सात आदि विषम वर्षों में अथवा कुल की रीत-परंपरा के अनुसार कर्णवेधन संस्कार किया जाना आवश्यक बताया गया है। प्रत्येक संस्कार को करने के पीछे उसके लिए ठोस तथा अकाट्य कारण बताये गये हैं। कर्णवेध संस्कार को किये जाने के भी कुछ कारण बताये गये हैं जिन्हें समझ लेना आवश्यक होगा। भगवान सूर्यदेव समस्त सृष्टि के प्राणियों को नवजीवन प्रदान करने वाले देव हैं। कर्णछेदन के पीछे भी यह धारणा प्रमुख है। सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रविष्ट होकर बालक अथवा बालिका को पवित्र करें, तेज संपन्न बनायें, इसलिये कानों को छिदवाना आवश्यक बताया गया है। प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था होने के कारण प्रत्येक कार्य में वर्ण के महत्व को देखा जाता था और उसी के अनुरूप ही कार्य संपन्न किये जाते थे। इस स्थिति को कर्णवेध संस्कार में भी देखा गया है। इसलिये ब्राह्मण तथा वैश्य का कर्णवेधन रजतशलाका (चांदी की सुई) से, क्षत्रिय का स्वर्णशलाका (सोने की सुई) से तथा शूद्र का लौहशलाका (लोहे की सुई) से कान छेदने का विधान बताया गया है। आजकल लोग अपनी सुविधा के अनुसार स्वर्ण, रजत अथवा लोहे की सुई से काना छिदवा लेते हैं किंतु शास्त्रों में उल्लेख है कि वैभवशाली लोगों को अपने बच्चों के कान छिदवाने की क्रिया स्वर्णशलाका से ही संपन्न करनी चाहिए। प्रारंभ में इस क्रिया को शुभ समय में देवताओं का पूजन करने के पश्चात सूर्यदेव की पवित्र किरणों में बालक अथवा बालिका का कान छिदवाया जाता था। इस क्रिया के अंतर्गत अग्रांकित मंत्र द्वारा अभिमंत्रण किया जाता था- भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्ष-भिर्यजन्नाः। स्थिरै रगैंस्तुष्टवां सस्तनूभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायुः।। इसके पश्चात बालक के पहले दाहिने कान में, इसके पश्चात बायें कान में छिद्र किया जाता है। बालिका के पहले बायें कान में, तत्पश्चात दायें कान में छिद्र किया जाता है। इसी के साथ बायीं नासिका में छेद करने का विधान है। छिद्र करने के तत्काल पश्चात कानों में रजत की छोटी शलाका डालकर उस पर हल्दी को तिल के तेल में डालकर कान पर लेपन किया जाता था ताकि किये गये छिद्र बंद न हो जायें। जो रजत शलाका का प्रयोग नहीं कर पाते थे वे लकड़ी की बारीक सींक को उपयोग में लाया करते हैं। इसके तीन दिन बाद बालक-बालिका को स्नान करवाया जाता है। कहीं-कहीं पर यह तीन के स्थान पर सात दिन बाद किया जाता है। इसके पश्चात् बालकों को कुंडल तथा बालिकाओं को कर्णाभूषण के रूप में बालियां एवं नाक में लौंग धारण करवाई जाती है।
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